......और हम चल पड़े ऋषिकेश के लिए

पाँच अगस्त को लगा था -  ‘चौदह अक्टूबर तो अभी बहोऽ ऽ ऽ ऽ त दूर है।’ किन्तु यह कब सर पर आ गया, मालूम ही नहीं हुआ। घर से बाहर जाकर निपटाए जानेवाले, घर के सारे काम जब खुद ही निपटाने पड़ें तो ऐसा ही होता होगा। उधर, उत्तमार्द्ध की स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति को लेकर भी थोड़ी-बहुत भाग-दौड़ रही। सो, चौदह अक्टूबर का आना तनिक अधिक तजे गतिवाला लगा।
 
हमें उज्जैन से रेल में बैठना था। वहाँ से शाम पाँच बजे के बाद रेल मिलनी थी। लेकिन रतलाम से ऐसी कोई रेल नहीं थी जो हमें चार बजे के आसपास उज्जैन पहुँचा दे। बस की यात्रा हम करना नहीं चाहते थे। सो, हमें सुबह साढ़े दस बजे, रतलाम-गुना पेसेंजर से निकलना पड़ा जिसने दोपहर डेड़ बजे ही हमें उज्जैन पहुँचा दिया। हमने वातानुकूलित श्रेणीवाले प्रतीक्षा कक्ष में अपना अड्डा जमा लिया।
 
हमारे पास लगभग चार घण्टे पूरी फुरसत के थे। लेकिन यह समय इतना भी नहीं था कि किसी के घर जाकर आराम फरमाते। सोचा, क्यों किसी को परेशान करना? किन्तु इसके समानान्तर दो नामों का डर भी तत्काल ही मन में उभर आया जिन्हें, उज्जैन में हमारे इस ठहराव की जानकारी बाद में मिलती तो वे खिन्न, अप्रसन्न और कुपित होते। पहला नाम - वैद्य श्री विनोद वैरागी का। वे जिला आयुर्वेद अधिकारी हैं। बीएएमएस के अधिकांश पदवीधारी आयुर्वेद चिकित्सक खुद को ‘डॉक्टर‘ कहना और कहलवाना पसन्द करते हैं किन्तु विनोद भैया खुद को ‘वैद्य‘ कहना और कहलवाना पसन्द करते हैं। यह अलग बात है कि लोग उन्हें न तो ‘वैद्य‘ बनने दे रहे हैं और ही इस सम्बोधन से पुकारते हैं। यूँ तो मेरी उत्तमार्द्ध के, दूर के रिश्ते के मामा लगते हैं किन्तु दोनों हमउम्र हैं। मेरी उत्तमार्द्ध उन्हें ‘विनोद भैया’ और मेरी उत्तमार्द्ध को वे ‘वीणा जीजी‘ सम्बोधित करते हैं। न तो मैंने कभी ‘दामादपन‘ दिखाया  और न ही कभी उन्होंने ‘ममिया ससुर’ का नेग चुकाया। हम अन्तरंग मित्र हैं। इतने कि उन्हें खबर न करने पर हमें अपराध बोध भी हुआ और डर भी लगा।
 
दूसरा नाम था - बाबूलालजी मूँदड़ाजी का। वे, हम एलआईसी एजेण्टों के संगठन ‘लियाफी’ के क्षेत्रीय सचिव (झोनल सेक्रेटरी) हैं। मुझे ,‘लियाफी’ का झोनल प्रवक्ता उनके आग्रह पर ही बनाया गया है। वे पद में मुझसे बड़े हैं और आयु में छोटे। उनका बड़प्पन है कि वे ‘पद’ से नीचे उतर कर मेरी आयु का सम्मान करते हैं और उससे अधिक प्रेम रखते हैं। दोनों को फोन करने का मतलब होता - दोनों को स्टेशन पर बुलाना। वह हम नहीं चाहते थे क्योंकि न तो हमें कोई काम था और न ही कोई आवश्यकतापूर्ति करानी थी। सो, बीच का रास्ता अपना कर दोनों को एसएमएस कर दिया। कुछ ही पलों में मूँदड़ाजी का एसएमएस आया कि वे जोधपुर में हैं। विनोद भैया के उत्तर की प्रतीक्षा मैंने की ही नहीं। उनकी व्यस्तता का अनुमान मुझे भली प्रकार है और एसएमएस के मामले में वे मुझ जैसे ही हैं - उन्हें भी एसएमस (करने की और पाने की) आदत नहीं है। इसलिए मैं उनकी ओर से निश्चिन्त था।
 
तीन-साढ़े तीन बजे उत्तमार्द्ध ने चाय पीने की इच्छा जताई। ‘अविलम्ब आज्ञापालन और इच्छापूर्ति’ की दम्भोक्ति करते हुए मैं प्लेटफार्म पर गया। लेकिन मुझे कहीं चाय नहीं मिली। स्टॉल तो लगभग सारे के सारे खुले थे किन्तु चाय किसी के पास नहीं थी। दुकानदारों ने बताया कि प्लेटफार्म पर चाय बनाना (याने कि चूल्हा जलाना) निषिद्ध कर दिया गया है। इसलिए, जब भी कोई रेल आती है, उस समय, स्टेशन से बाहर से चाय बन कर आ जाती है। मुझे सलाह दी गई कि मैं भी बाहर जाकर चाय प्राप्त कर लूँ। सलाह तो नेक थी किन्तु गर्मी इतनी अधिक और इतनी तेज थी कि बाहर जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैं उत्तमार्द्ध के पास लौटा - खाली हाथ और चेहरे पर झेंप लिए। मुझे देखकर और मेरी बात सुनकर वे हँस दी। लेकिन, गर्मी में बाहर न जाने के मेरे निर्णय से सहमत भी हुईं और उसे सराहा भी।
 
जितने अखबार हम लेकर चले थे और रास्ते में खरीदे थे, वे सब हम पढ़ चुके थे, उनकी वर्ग पहेलियाँ भर चुके थे। दो-एक पत्रिकाएँ थीं। लेकिन उनके पन्ने भी कितनी बार पलटते? लिहाजा, अब हम दोनों के पास कोई व्यस्तता नहीं थी। यह अत्यधिक असहज स्थिति थी। काम कुछ भी नहीं। किसी के आने की प्रतीक्षा भी नहीं और जिसकी (रेल की) प्रतीक्षा थी, मालूम था कि वह समय से पहले तो आने से रही! सो, सचमुच में पल-पल भारी पड़ रहा था।
 
लेकिन ईश्वर बड़ा कृपालु था। चार बजते-बजते विनोद भैया का फोन आया। पूछ रहे थे कि प्लेटफार्म पर हम लोग कहाँ हैं। मैंने हमारी ‘भौगोलिक स्थिति’ बताई/समझाई और कहा - ‘आते समय हमारे लिए चाय लेते आइएगा।’ वे आए तो सही किन्तु केवल चाय लेकर नहीं। नमकीन और मिठाई के पेकेटों से लदे-फँदे। किन्तु इन सबसे पहले उनकी अप्रसन्नता - ‘कल ही खबर क्यों नहीं की? सीधे घर क्यों नहीं आए? अभी तो गाड़ी में काफी देर है। फौरन घर चलिए। भोजन किए बिना कैसे जा सकतेहैं?’ उन्होंने गुस्सा कर लिया तो हम सहज हो गए। अब भय और खतरे की कोई बात नहीं रह गई थी। उनसे बार-बार क्षमा-याचना की, अपनी सफाई दी, चाय के लिए अनेकानेक धन्यवाद दिए और याचना की - ‘खूब गुस्सा हो लिए। अब हँस दिए।’ उन्होंने कहा नहीं माना। गुस्से में रंचमात्र भी कमी किए बिना मेरी उत्तमार्द्ध को मानो झिड़का - ‘बैरागीजी तो ऐसे ही हैं लेकिन क्या वीणा जीजी आप भी? आप भी इनके जैसी हो गईं?’ बड़ी मुश्किल से वे शान्त और सहज हुए।
 
प्रतीक्षा कक्ष प्लेटफार्म नम्बर एक पर था और गाड़ी प्लेटफार्म नम्बर 6 पर आनेवाली थी। उसके आगमन की सूचनाएँ प्रसारित होने लगी थीं। सामान अधिक नहीं था। हम लोग प्लेटफार्म नम्बर 6 पर पहुँचे। रेल ने महबूबा की अदा बरती। कोई आधा घण्टा देर से पहुँची । तब तक विनोद भैया के एक परिचित उनसे कुछ अनुरोध करते नजर। विनोद भैया उन्हें लेकर मेरे पास आए। परिचय दिया। वे आयुर्वेदिक औषधि विक्रेता थे। उनका नाम श्री दीनदयाल फरक्या था। वे मूलतः मेरे ननिहाल, रामपुरा के निवासी थे। उन्हें कुछ मुद्रित सामग्री मथुरा पहुँचानी थी। अगले वर्ष, इलाहाबाद में होनेवाले कुम्भ मेले से सम्बन्धित, उनके धर्म-गुरु के आदेश पर छपाई थी। मैंने जिम्मेदारी ले ली। वे अपने धर्म-गुरु और उनकी गतिविधियों के बारे में बताने लगे। मैंने नम्रतापूर्वक (और दृढ़तापूर्वक भी) क्षमा याचना कर ली कि इस सबमें मेरी कोई रुचि नहीं है। उन्हें अच्छा तो नहीं लगा होगा किन्तु एक कुशल व्यापारी की तरह उन्होंने कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं जताई - न तो शब्दों से, न ही हाव-भाव से।
 
निर्धारित समय से कोई आधा घण्टा विलम्ब से हमारी रेल आई। हमारा डिब्बा ठीक वहीं आया जहाँ डिब्बा-संकेतक के अनुसार आना था। हमने अपनी बर्थें तलाशीं। सहयात्री हमसे अधिक जवान, अधिक समझदार तथा अधिक शिष्ट थे। उनका सामान नाम मात्र का था। निचली बर्थों के नीचे, सामान रखने की भरपूर जगह थी।  हमने अपना सामान रखा। फरक्याजी ने अपने दो बण्डल रखे। हमने देखा - हमसे पहले सवार चार यात्रियों के सामान के मुकाबले हम दो यात्रियों का सामान अधिक था। हमें तनिक संकोच हुआ लेकिन सहयात्रियों के चेहरों पर ऐसा कोई भाव नहीं था कि हम असहज हो जाएँ। वे चारों ही इन्दौर से बैठे थे। एक का नाम जयेश भाई गोस्वामी था। वे विक्रय कर सलाहकार थे और विभिन्न कम्पनियों का काम देखने/करने के लिए पूरे देश में घूमते रहते हैं। उन्हें अगले दिन, नई दिल्ली से पटना जाने के लिए बिहार सम्पर्क एक्सप्रेस पकड़नी थी। दो बहनें थी - ज्योति और प्रीती। उनके साथ एक युवक था। तीनों ही, अलंकार/आभूषणों के व्यापार से सम्बद्ध थे। दोनों बहनें एमबीए डिग्रीधारी थीं। आत्म विश्वास से लबालब। दोनों खुद को किसी कम्पनी की कर्मचारी बता रही थीं  किन्तु गोस्वामीजी सहित मेरा भी मानना था कि कम्पनी, उनकी खुद की है। घर की ही।
 
हमारी रेल सरकी। हमने विनोद भैया को धन्यवाद देकर विदा ली। विनोद भैया का दिया सामान व्यवस्थित रूप से रखने के लिए उत्तमार्द्ध ने केरी-बेग खोला। दो पेकेट नमकीन के थे और एक पेकेट मिठाई का। सामान रखते-रखते मिठाई का पेकेट खुल गया तो हमारी आँखें फटी रह गईं। अन्दर 6 लड्डू थे। खूब बड़े-बड़े। पेकेट पर नाम देखा -  बाफना स्वीट्स। याद आया, उज्जैन की यह दुकान, अपने ‘मगज के लड्डू’ के लिए दूर-दूर तक जानी जाती है। मालवा में बादाम को ‘मगज‘ कहा जाता है। हमारी आँखें फटने का कारण आप खुद समझिए - हम 14 अक्टूबर को 6 लड्डू ले गए थे। आज, 05 नवम्बर को, उन्नीसवें दिन, जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ, तब तक हम ये 6 लड्डू नहीं खा पाए हैं। तीन अभी भी बचे हुए हैं। एक तो लड्डू मगज के और दूसरे इतनेऽऽऽऽए बड़े! आप खुद ही देख लीजिए -
 
 

लेकिन यह तो शुरुआत थी। अजय मूँदड़ा ने हमारे साथ क्या किया-यह जानेंगे तो ही हमारी स्थिति का अनुमान लगा सकेंगे।  
 
कौन है यह अजय मूँदड़ा क्या किया इस आदमी ने हमारे साथ? यह बाद में बताता हूँ।

7 comments:

  1. intazaar hai.. agali post ka... :)

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  2. मुझे आपके यात्रा से ज्यादा अच्छी लड्डू लगी लेकिन अफसोस आपने खाने नहीं दिया ....बहुत खुबसूरत यात्रा वर्णन और संग साथ

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  3. अब रेल यात्रा का सुख..

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  4. कौन है यह अजय मूँदड़ा क्या किया इस आदमी ने हमारे साथ? यह बाद में बताता हूँ।

    ये पंक्तिया तो किसी जासूसी उपन्यास जैसी लग रही है.

    आपके ननिहाल रामपुरा में मेरा बचपन बीता है. मैं वही की निवासी हूँ.

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    1. रामपुरा ो आपके सम्‍बन्‍ध जानकर अच्‍छा लगा। आप तो शायद उज्‍जैन में हैं।

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  5. Kya yah vahi Mithai Pratishthaan hai jo kuchh dino pahle IncomeTax Raid ke kaaran Surkhiyon me aayaa thaa?

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  6. अजय मूंदड़ा के किस्से कब सुनाये जायेंगे?

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