ठगी का आतंक

हकीम लुकमान का कहा सब जानते और मानते हैं - ‘शक का कोई ईलाज नहीं होता।’ लेकिन जब इस शक से भय उपजे और वह आतंक में बदल जाए तब? तब वह शायद मनोविज्ञान के विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए एक सुन्दर प्रकरण होगा।

वासु भाई गुरबानी से कल शाम सुने किस्से के बाद से ही मैं यह  सोच रहा हूँ।

किस्सा सौ टका सच है। केवल पात्रों के नामों और घटनास्थल में बदलाव कर दिया है।

यह कोई पैंतालीस-पचास बरस पहले की बात है। तब दशमलव प्रणाली शुरु तो हो चुकी थी लेकिन आना-पाई, गज, सेर-पाव-छटॉंक ही चलन में थे। एक हुआ करते थे कन्हैया सेठ। चोरी-चकारी का माल औने-पौने दामों में खरीदकर उसे ठीक-ठीक मुनाफा लेकर बेच देना उनका धन्धा था।

एक बार उनके हत्थे कपड़ों की एक गाँठ चढ़ गई। उसमें रेमण्ड के कट पीस थे तो देहातियों के परिधान की छींटों के कपड़े भी थे। रेमण्ड के कट पीस आसानी से बिकनेवाली चीज थे जबकि छींट के लिए ग्राहक मिलना तनिक मुश्किल। उन्हें मालूम हुआ कि नोलाईपुरा में मोहन नामका एक कारीगर है जो देहातियों/आदिवासियों के लिए कपड़े सिलता है।

एक थैली में छींट के कपड़ों के कुछ नमूने लेकर कन्हैया सेठ मोहन के पास पहुँचे। कपड़ा बताया। मोहन ने कहा कि कपड़ा अच्छा है। कन्हैया सेठ ने पूछा - ‘बाजार में क्या भाव से मिल जाता होगा?’ मोहन ने अनुमान बताया - ’यही कोई डेड़ रुपये गज के आसपास में मिल जाएगा।’ कन्हैया सेठ ने पूछा - ‘तेरे काम में आ जाएगा?’ मोहन ने एक बार फिर कपड़े को देखा। इस बार तनिक अधिक ध्यान से देखा, हाथ से उसका पोत टटोला और कहा - ‘हाँ। मेरे काम आ जाएगा।’ कन्हैया सेठ ने पूछा - ‘बोल खरीदेगा?’ जवाब आया - ‘हाँ। ले लूँगा।’ कन्हैया सेठ ने कहा - ‘बोल! क्या भाव लेगा?’ मोहन ने पल भर विचार किया और बोला - ‘एक रुपये छे आने।’ कन्हैया सेठ ने फौरन लापरवाही से कहा - ‘उठा ले।’ मोहन अचकचा गया। उसने घूर कर कन्हैया सेठ को देखा। पल भर ठिठका और बोला - ‘कपड़ा भाई को दिखाकर एक बार उससे पूछना पड़ेगा।’

मोहन गया और लौट कर बोला - ‘ भाई सवा रुपये बोल रहा है।’ कन्हैया सेठ ने उसी लापरवाही से कहा - ‘अच्छा। चल। सवा रुपये में उठा।’ मोहन पहले अचकचाया था, इस बार तनिक घबरा गया। उसने अविश्वासभरी नजरों से कन्हैया सेठ को देखा और बोला - ‘लेकिन भाई ने कहा है कि एक बार पिताजी से जरूर पूछ लेना।’

इस बार पिताजी से पूछ कर लौटे मोहन ने कहा - ‘पिताजी तो एक रुपया दो आने गज का भाव बता रहे हैं।’ अपनी लापरवाही और फुर्ती कायम रखते हुए कन्हैया सेठ ने कहा - ‘चल! एक रुपया दो आने में उठा।’ सुनकर मोहन मानो ढेर हो गया। उसकी साँस बढ़ गई। अविश्वास की जगह शक ने ले ली। हकलाते हुए बोला - ‘घर में थोड़ी पूछताछ और कर लूँ।’

और इस तरह एक के बाद एक, पूछताछ करते-करते मोहन, दस आना गज के भाव पर आ गया। कन्हैया सेठ ने फिर वही लापरवाही और फुर्ती बरती - ‘और कितना भाव-ताव करेगा यार मोहन! चल, दस आना गज में उठा।’ सुनकर मोहन मानो दहशत में आ गया। उसकी कनपटियों पर पसीना चुहचुहा आया, आँखें इतनी बड़ी-बड़ी हो गईं मानो फटकर बाहर ही आ जाएँगी। पहले तो हकला भी रहा था लेकिन अब तो उसकी बोलती बन्द हो गई - मालवी में जिसे ‘डिक्की बँधना’ (घिग्घी बँधना) कहते हैं, वही। मोहन मानो तन्द्रिल हो गया हो - मन्त्रबिद्ध, वशीभूत। अपनी जी-जान लगा कर जब बोला तो स्वरों के बजाय ‘गों-गों’ की आवाज सुनाई दी। बड़ी मुश्किल से उसने जो कहा वह था - ‘अभी पैसे नहीं हैं।’

पता नहीं कन्हैया सेठ सहज थे या गम्भीर या वे अब मोहन से खेल रहे थे। बोले - ‘तो घबराता क्यों है? पैसे कल दे देना। कल नहीं हो तो परसों दे देना।’ सुनकर मानो मोहन को रुलाई छूट आई हो, कुछ इस तरह से बोला - ‘नहीं सेठ! बात कुछ और ही है। मुझे कपड़ा नहीं खरीदना।’ कह कर अपनी दड़बेनुमा दुकान में, दोनों टाँगों के बीच ठुड्डी टिकाकर, उकड़ू बैठ, जोर-जोर से बीड़ी फूँकने लगा। उसकी नजर नीची और साँस की आवाज से मानो नोलाईपुरा गूँज जाएगा।

कन्हैया सेठ हैरत से मोहन को देखने लगे। चुपचाप। निःशब्द। मोहन को मानो कन्हैया सेठ की नजरें खुद पर चुभती लगीं। उसने सर उठाकर देखा। कन्हैया सेठ को अपनी ओर ताकते हुए देख, कुछ इस तरह मानो फाँसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलने के लिए रिरिया रहा हो, हाथ जोड़कर, माथे तक ले जाते हुए बोला - ‘जाओ सेठ। माफ करो। मुझे छोड़ दो।’ कन्हैया सेठ कुछ नहीं बोले। उसी तरह, मोहन को हैरत से देखते हुए चले गए। उनके जाते ही मोहन में जान तो आ गई लेकिन हाथ-पाँव साथ नहीं दे रहे थे। बड़ी मुश्किल से उसने सामान का समेटा किया और भरी दुपहरी दुकान मंगल कर घर चला गया। सुनने में आया कि उसे रात भर तेज बुखार रहा। अगले दिन भी वह बहुत देर से दुकान पर आया लेकिन एकदम लस्त-पस्त। 

शाम होते-होते किस्सा पूरे नोलाईपुरा को मालूम हो गया। कोई मजे लेने के लिए तो कोई सचमुच में सहानुभूति जताते हुए जानना चाह रहा था कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक रुपया छे आने से शुरु होकर दस आना गज तक आने के बाद भी मोहन ने कपड़ा क्यों नहीं खरीदा जबकि हर भाव उसी ने बताया और कन्हैया सेठ ने आँख मूँद कर माना। मोहन ने कहा - ‘आप ही बताओ। ऐसा भी कहीं होता है कि कोई व्यापारी एक बार भी भाव-ताव नहीं करे? जो भाव आप बताओ वह भाव झट से माने ले? कोई ऐसा करे तो बात साफ है कि सामनेवाला आपको ठगने पर तुला हुआ है। दस आना गज का भाव लेकर कन्हैया सेठ मुझे ठगना चाहता था। यह तो रामजी ने अकल दे दी और मैं बच गया।’

बाद में मालूम हुआ कि वही कपड़ा कन्हैया सेठ ने उसी दिन, एक रुपया दो आना गज के भाव से बेच दिया था।

मोहन ने सुना तो चहक कर बोला - ‘देखा! मैं तो बच गया लेकिन वो बेचारा तो ठगा गया। कन्हैया सेठ से भगवान बचाए।’

5 comments:

  1. कृपया आप अपने इस महत्वपूर्ण हिन्दी ब्लॉग को ब्लॉगसेतु ब्लॉग एग्रीगेटर से जोड़कर हमें कृतार्थ करें ... !!! धन्यवाद सहित

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  2. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज गुरुवारीय चर्चा मंच पर ।। आइये जरूर-

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  3. शक का इलाज हक़ीम लुक़मान के पास भी नहीं है !.

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  4. उम्दा और बेहतरीन... आप को स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ

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  5. :) सचमुच बच गया चोरी का माल खरीदने और इस प्रकार, चोरी में - दूर का ही सही - भागीदार बनने से।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.