मेरे कस्बे में हुई कुछ कार्रवाइयों का संक्षिप्त ब्यौरा दे रहा हूँ। मेरी इन बातों से जिज्ञासु मत हो जाइएगा वर्ना यह जानकर पछताएँगे कि यह सब तो आपके यहाँ भी हो रहा है। होता चला आ रहा है।
कुछ व्यापारिक/वाणिज्यिक अट्टालिकाओं पर कलेक्टर की नजर पड़ गई। सबके निर्माण में स्वीकृत मानचित्र का उल्लंघन किया गया था। पार्किंग की व्यवस्था तो एक में भी नहीं पाई गई। कलेक्टर ने सबको लाइन में लगा दिया। कुछ को कठोर कार्रवाई का नोटिस दिया गया तो कुछ पर कुछ दिनों की तालाबन्दी भी हो गई। कस्बे में हंगामा मच गया। लेकिन दुःखी होनेवाले कम, खुश होनेवाले अधिक। ऐसे लोग सबसे ज्यादा खुश जो आज तक इनमें नहीं गए और शायद ही कभी जाएँगे। आर्थिक विषमता सेे उपजे सामाजिक, सरकारी व्यवहार के चलते हर कोई इसी बात से खुश था कि ‘करोड़ोपतियों’ पर हाथ डाला गया। हम सुखी नहीं तो वो भी सुखी क्यों? खुशी इस बात की भी रही कि लिख कर देने के लिए किसी को बुरा नहीं बनना पड़ा और मनचाही हो गई। लोग कलेक्टर के गुणगान में मगन हो गए।
मेरे कस्बे की एक सड़क है - लक्कड़पीठा सड़क। यहाँ एक छोटा सा देवालय है। आबाल-वृद्ध नर-नारी आते-जाते यहाँ माथा टेकते हैं। वार-त्यौहार पर धूमधाम से आस्था जताते हैं। देवालय से लगभग सटी हुई, देशी शराब की दुकान है। दुकान ने देवालय को लगभग ढक लिया है। परिणामस्वरूप देवालय जानेवालों को दारू की दुकान कुछ इस तरह से पार करनी पड़ती है मानो ठेकेदार से अनुमति ले रहे हों। साँझ घिरने के बाद देवालय आने-जानेवाले इसके देवता को माथा टेकने से पहले अपने-अपने देवता को याद करते हैं। महिलाएँ, बच्चियाँ तो तब जाने की सोच भी नहीं सकतीं।
दारू की इस दुकान को हटाने के लिए लोग महीनों से आन्दोलनरत हैं। बीसियों बार लिख कर कलेक्टर को दे चुके हैं। सड़क पर उतर चुके हैं। बीच में तो क्रमिक धरना-अनशन शुरु हो गया था। अखबार भी इस सबमें हिस्सेदारी कर चुके हैं। लेकिन दुकान जस की तस बनी हुई है।
इसी तरह गाँधी नगर में देशी शराब की एक दुकान है। दुकान के ठीक सामने, सड़क की दूसरी ओर सरकारी स्कूल है। कुछ मूर्ख लोग कहते हैं कि स्कूल के सामने दारू की दुकान है। ‘गाँधी नगर’ नाम से ही मालूम हो जाता है कि इस स्कूल में उन्हीं लोगों के बच्चे पढ़ते हैं जो अपने बच्चों को ढंग-ढांग के, अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों में नहीं भेज सकते। स्कूल की खिड़की से दारू की दुकान, ग्राहक, आसानी से, बिना किसी कोशिश के नजर आते हैं। तेजी से बजनेवाले रेडियो के गाने स्कूल में सुनाई पड़ते हैं। कानून है कि स्कूल से एक निर्धारित सीमा में दारू की दुकान नहीं हो सकती। यह दुकान इस आदेश को ‘टिली, ली, ली, ली’ करती हुई अंगूठा दिखा रही है। प्रधानाध्यापिका और अध्यापिकाएँ दसियों बार जिला शिक्षा अधिकारी को लिख कर दे चुकी हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं। पालकों को गुस्सा आ गया। हंगामा किया। अखबारों ने हाथों-हाथ लिया। जिला शिक्षा अधिकारी बोले - ‘मुझे तो पता ही नहीं।’ सरकार बोली- ‘हमारे पास तो कोई कागज-पत्तर नहीं आया। आया तो देखेंगे।’ अखबारों ने कलेक्टर पर तंज कसा - ‘मॉलों, बड़ी दुकानों (याने ‘अट्टालिकाओं’) पर तो बिना किसी आवेदन के कार्रवाई! लेकिन स्कूल के मामले में आवेदनों के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं।’ सरकार हरकत में आई। छोटे-बड़े अफसर भेजे गए। उन्होंने फिर से आवेदन लिया, दूरी नपवाई, पंचनामा बनाया, रिपोर्ट जिला शिक्षाधिकारी को दी, कलेक्टर को पहुँची। कलेक्टर ने ‘प्रकरण का परीक्षण’ कराया और कहा - ‘फौरन दुकान हटाना सम्भव नहीं। अप्रेल के बाद देखेंगे।’ हंगामा हो गया। लोग विधायकजी के पास पहुँचे। उन्होंने भरोसा दिलाया किन्तु अब तक कुछ नहीं हुआ। लगता है, कलेक्टर की बात सही निकलेगी।
‘केक्टस गार्डन’ के लिए प्रख्यात सैलाना की ओर जानेवाली सड़क पर एक कॉलोनी बननी शुरु हुई। जोरदार अखबारबाजी हो गई। कलेक्टर ने जाँच करवाई। उजागर हुआ कि सरकारी जमीन पर सड़क बना ली गई है और एक सरकारी नाले को अनुकूलता के लिए मोड़ दिया गया है। अखबारी खबरों के मुताबिक इस सब में एक एसडीएम, एक गिरदावर और नगर एवम् ग्रामीण नियोजन दफ्तर के अधिकारी पहली ही नजर में संलिप्त अनुभव हो रहे हैं। सड़क तोड़ दी गई। नाला मुक्त करा दिया गया। कलेक्टर ने विस्तृत जाँच के बाद किसी भी दोषी को न बख्शने की घोषणा की है। लोगों को भरोसा हो गया है कि किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा।
एक दिन अखबारो में अचानक खबर छपी-कृषि उपज मण्डी की उस जमीन पर कॉलोनी बननी शुरु हो गई है जो मण्डी के विस्तार के लिए सुरक्षित थी। कॉलोनाइजर ने कहा कि उसके पास समस्त सम्बन्धित विभागों की आवश्यक अनुमतियाँ हैं। नगर एवम् ग्रामीण नियोजन विभाग ने कहा कि मण्डी सचिव के अनापत्ति पत्र के आधार पर अनुमति दी गई। मण्डी सचिव ने कहा कि उसके उसने तो अनुपत्ति पत्र जारी ही नहीं किया। कलेक्टर ने फाइल अपने पास बुलवाई। पूछताछ की। जाँच बैठा दी है। मण्डी के कुछ डायरेक्टर जिस तरह से हरकत में आए हैं उससे लग रहा है कि जमीन वापस मण्डी को मिल जाएगी। लेकिन मेरे कस्बे को भरोसा है गैरकानूनी काम करने के लिए कि किसी पर आँच नहीं आएगी। ऐसा आज ही होना शुरु नहीं हुआ। आजादी के बाद से ही हो रहा है। पूरा देश मेरा कस्बा बना हुआ है।
एक लोक कल्याणकारी शासक स्वयम् को केन्द्र में नहीं रखता। वह आज्ञाकारी, शीलवान प्रशासकों को अपनी बुद्धि और विवेक से नियन्त्रित कर मनोनुकूल परिणाम प्राप्त करता है। एक चतुर प्रशासक, आज्ञाकारी और शीलवान बने रहकर अपने शासक को संचालित और नियन्त्रित करता है। प्रत्येक नियन्त्रक, अपने से कम समझ अधीनस्थों के जरिए शासन करता है और प्रत्येक कम समझ अधीनस्थ अपने नियन्त्रक को दुनिया का सर्वाधिक बुद्धिमान घोषित करते रहने की समझदारी बरत कर अपने नियन्त्रक को मूर्ख बनाये रखता है। कालान्तर में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने ऐसी शालीन, आलंकारिक सुभाषित सूक्तियों का सहज भाष्य इस तरह किया - ‘हमारे मन्त्री नौकरों के नौकर होते हैं।’ याने सरकार जिन कलेक्टरों को नौकरी में रखती है, हमारे मन्त्री उन्हीं के कहे पर चलने लगते हैं। इससे पहले पर्किंसन्स नामक एक अंग्रेज यही बात कह चुका था - ‘भारत सरकार के मन्त्री, चिह्नित स्थानों पर हस्ताक्षर करते हैं।’ (इण्डियन मिनिस्टर्स पुट देयर सिगनेचर्स ऑन डॉटेड लाइन्स।) किन्तु जब अक्षम शासक धूर्तता बरतने लगे, उतने ही धूर्त प्रशासकों की सहायता से खुद को स्थापित करने के एममेव लक्ष्य में जुट जाए तब हतप्रभ, विवश लोग अवाक् मूक दर्शक की स्थिति में आ जाते हैं।
हमने अंग्रेजों से तो मुक्ति पा ली लेकिन अंग्रेजीयत से नहीं। भारत में बीबीसी के सम्वाददाता रहे, प्रख्यात पत्रकार मार्क टली, ने सेवानिवृत्ति के बाद भारतीय नागरिकता ले कर भारत को ही अपना घर बना लिया है। भारतीय प्रशासनिक प्रणाली पर कुछ बरस पहले उनकी टिप्पणी थी कि कलेक्टर के रूप में अंग्रेज आज भी भारत पर राज कर रहे हैं।
मार्क टली की बात आज और अधिक प्रभावशीलता से अनुभव हो रही है। हिन्दू-मुसलमानों को ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अंग्रेजों की पहचान रही है। अंग्रेज अघोषित रूप से यह काम करते थे। आज तो सरकारी तौर पर खुले आम हो रहा है। वे भी सरकार में बने रहने के लिए करते थे। आज भी इसीलिए यह हो रहा है।
आगे-आगे देखिए! होता है क्या।
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(दैिनक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में 23 फरवरी 2.17 को प्रकाशित)
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