दलाल कथा-03
यादवजी का सुनाया तीसरा किस्सा तो झन्नाटेदार निकला। शायद इसीलिए जानबूझकर सबसे आखरी में सुनाया।
अपने धन्धे, दलाली के लिए फकीरचन्दजी का आधार था: सम-भाव। ब्याज पर पूँजी देनेवाले और लेनेवाले, दोनों के प्रति सम-भाव। दोनों ही व्यापारियों को वे बराबरी से महत्व देते थे। उन्होंने दोनों के बीच कभी भेद-भाव नहीं किया। पूँजी देनेवाले को बड़ा और लेनेवाले को छोटा नहीं माना। दोनों व्यापारी भले ही एक दूसरे को छोटा-बड़ा मानते हों लेकिन फकीरचन्दजी के लिए तो दोनों, बराबरी से रोजी देनेवाले व्यापारी थे। इसलिए जितनी चिन्ता वे देनेवाले की पूँजी की सुरक्षा की करते थे उतनी ही चिन्ता लेनेवाले की, ‘बाजार में बने रहने’ की करते थे। उनका मानना था कि देनेवाला (ज्यादा दर से ब्याज लेने के) लालच में लेनेवाले पर देनदारी का वजन बढ़ा कर उसे दिवालिया होने की दिशा में धकेल सकता है। तब दोनों का नुकसान तो जो होना होगा, होगा लेकिन बड़ा नुकसान बाजार का होगा। एक व्यापारी के दिवालिया होने पर बाजार लम्बे अरसे तक ठप्प हो जाता है। देनेवाले और लेनेवाले तमाम व्यापारी दहशत में आ जाते हैं। इसलिए फकीरचन्दजी का विश्वास, दोनों व्यापारियों के, सुरक्षित बने रहने में रहता था। इससे तनिक आगे बढ़कर वे लक्ष्मी को ‘चंचला’ कहते थे। कहते थे, ये आज इसके पास है तो कल उसके पास। तब आज का देनेवाला कल का लेनेवाला हो सकता है और आज का लेनेवाला कल का देनेवाला। दोनों जहाँ भी रहेंगे, जैसे भी रहेंगे, उनके ‘व्यवहारी’ ही रहेंगे। इसलिए, उन्होंने दोनों ही व्यापारियों के प्रति सदैव सम-भाव वापरा, दोनों को बराबरी का दर्जा दिया और दोनों की एक जैसी चिन्ता की।
एक बार सेठ मधुसूदनजी ने फकीरचन्दजी को चौंका दिया। एक व्यापारी का नाम बता कर उन्होंने फकीरचन्दजी से कहा - ‘मैंने सुना, वो किसी से डेड़ रुपये (याने अठारह प्रतिशत सालाना) के भाव से ब्याज देने की बात कर रहे थे। आप उनसे पूछ लो। वो हाँ भरते हों तो उनके यहाँ रकम लगा देना।’ फकीरचन्दजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। सेठ मधुसूदनजी ने आज तक ब्याज के बाजार भाव पर पूछताछ नहीं की थी। फकीरचन्दजी जो हुण्डी (प्रामिसरी नोट) लिखवा लाते, उसे बिना देखे तिजोरी में रख लेते। और तो और यह भी नहीं देखते कि हुण्डी पर लेनेवाले के दस्तखत हैं भी या नहीं।
फकीरचन्दजी ने ध्यान से सेठ मधुसूदनजी की शकल देखी। वे इस तरह अपने काम में लग गए थे मानो उनकी बात सुनते ही फकीरचन्दजी वहाँ से चल दिए हैं। फकीरचन्दजी तनिक उलझन में रहे। फिर एक झटके में कुछ इस तरह उबरे मानो तीनों लोकों की खबर ले आए हों। खँखार कर सेठजी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। फकीरचन्दजी को वहीं खड़ा देख, काम करते सेठजी के हाथ रुक गए। बोले - ‘अरे! आप अब तक यहीं खड़े हो? मैं तो समझा अब तक तो आप वहाँ पहुँच गए होंगे।’
अब दलाल फकीरचन्दजी अपने मूल स्वरूप में आ गए। विनम्रतापूर्वक, ठसके से बोले - ‘सेठजी! ये अपनी रकम सम्हालो। किसी और से यह व्यापार करवा लेना। फकीरचन्द तो नहीं करेगा।’ सेठ मधुसूदन ने ऐसा इंकार न तो सुना था न ही सुनने की आदत और तैयारी थी। उन्होंने चारों ओर नजरें घुमाईं - यूँ तो चार-पाँच कारिन्दे पेढ़ी पर मौजूद थे लेकिन सबके सब स्तब्ध हो कभी अपने सेठजी को तो कभी फकीरचन्दजी को देख रहे थे। सबकी, ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे। हवा भी मानो ठहर गई थी। सेठजी ने फौरन ही महसूस किया - कुछ ऐसा हो गया है जो नहीं होना चाहिए था। असहज भाव से बोले - ‘क्यों? किसी और से क्यों करवा लो? आप क्यों नहीं करोगे?’
सेठ मधुसूदनजी की दशा देख फकीरचन्दजी का ठसका अन्तर्ध्यान हो गया और उनकी चिरपरिचित विनम्रता ही रह गई। बोले - ‘आपसे रोजी मिलती है सेठजी। फिर भी आपके कहे से बाहर जा रहा हूँ। कोई तट बात होगी। आप खुद ही विचार कर लो।’ अब तक सेठजी भी सहज हो चुके थे। बोले - ‘अब मेरे विचार करने की घड़ी तो टल गई फकीरचन्दजी! आप ही बता दो।’ अब फकीरचन्दजी की विनम्रता में मिठास घुल गई। कोमल स्वरों में बोले - ‘पहली बात तो यह कि आपके कहने के बाद भी गया नहीं। यहीं रुका रहा। याने मैं आपकी पेढ़ी का कारिन्दा नहीं। दूसरी बात-मैं बाजार भाव से कम या ज्यादा ब्याज न तो लेने दूँगा न देने दूँगा। तीसरी और आखरी बात - बाजार, व्यापार है तो आप-हम सब हैं। मैं दलाल हूँ और दलाल बाजार और व्यापार को, किसी (व्यापारी) को डुबाता नहीं। बाजार में बैठाए रखता है।’
सुन कर सेठ मधुसूदनजी गादी से उतर कर फकीरचन्दजी के सामने आ खड़े हुए। अपने हाथों में उनके दोनों हाथ भींचकर, रुँधे गले से बोले - ‘फकीरचन्दजी! मेरे मन में क्या था, यह या तो मैं जानता हूँ या मेरा भगवान। लेकिन आज आपने अपनी और मेरी, दोनों की लाज रख ली। दोनों को बचा लिया। आपसे मैं पहले से ही बेफिकर था। लेकिन आज और बेफिकर हो गया। गले-गले तक भरोसा हो गया कि अब मुझे बाजार से कोई नहीं उठा सकता।’
किस्सा सुनाकर, यादवजी बोले - ‘आज तो सब कुछ बदल गया है। दलाल बदल गए, दलालों का चाल-चलन बदल गया। पहले लोग गर्व-गुमान से खुद का दलाल होना बताते थे। आज रोटी तो दलाली की खाते हैं लेकिन खुद को दलाल कहने में शर्म आती है। व्यापार और व्यापारी की चिन्ता शायद ही कोई करता हो। सबको अपनी दलाली नजर आती है। कोई विश्वास ही नहीं करेगा कि इसी रतलाम में कभी फकीरचन्दजी जैसे दलाल भी हुए होंगे।’
यादवजी का गला भीग आया था। दुकान की चहल-पहल में कोई अन्तर नहीं था लेकिन यादवजी बदल गए थे। माहौल में आए भारीपन को परे धकेलने के लिए मैंने कहा - ‘तीन किस्सों के दम पर तो मैं भी विश्वास न करूँ। कुछ और किस्से सुनाएँ तो भरोसा करने पर विचार करूँ।’ यादवजी बोले - ‘आज अब और नहीं कह सकूँगा। रामजी राजी रहे तो फिर कभी।’
अब, यादवजी का सुनाया अगला किस्सा पता नहीं कब मिले। लेकिन एक किस्सा मेरे पास है। जल्दी ही सुनाता हूँ।
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कहते है कि 'विष्णु' का है अन्दाज़े बयाँ और ।
ReplyDeleteपर, ये विष्णु बयाँ करने में बेहद आलसी है :)
Deleteवरना तो अब तक पोथियों का अंबार लग चुका होता.
दलाल , दलाली व्यवस्था एवं पात्रों को बड़े सुंदर तरीके से परिभाषित किया हैं ! एक शिक्षाप्रद एवं जागरूकता बढ़ाने वाला लेख हैं !अच्छा लगा !
ReplyDeleteचंद्रशेखर गौड़ , नीमच
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ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस : कवि प्रदीप और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर। दादा को प्रणाम
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