हरिद्वार के मजबूर दुकानदार

कल हमारे वरिष्ठ शाखा प्रबन्धक क्षिरेजी का जन्म दिन था। वे बड़ौदा के रहनेवाले हैं और रतलाम में यह उनका पहला जन्म दिन था। सोचा,  उनके लिए गुलाब के फूलों की एक ठीक-ठाक माला ठीक रहेगी। यही सोच कर माणक चौक पहुँचा। मैं गया तो था गुलाब के फूलों की एक माला लेने लेकिन मिल गई यह कथा। यह कथा न तो नई है न ही अनूठी। इसे हम सब रोज ही कहते सुनते हैं। यह है ही इतनी रोचक कि कभी पुरानी नहीं होती।

पहली ही नजर में एक माला मुझे जँच गई। कीमत पूछी और बिना किसी मोल-भाव के, बाँधने को कह दिया। उम्मीद थी कि दुकानदार पुराने अखबार में लपेट कर देगा। किन्तु उसने पोलीथीन की थैली में दी। दुकानदार जब माला, थैली में रखने लगा तो मैंने टोका - ‘थैली में दे रहे हो? कागज में बाँध दो।’ वह बोला - ‘मैं तो कागज में ही देता था। लेकिन आप जैसे लोग ही पन्नी की थैली माँगते हैं। दुकानदारी का मामला है। कागज में दूँ और ग्राहक चला जाए तो?’ मैंने कहा - ‘दे दो! दे दो! कुछ दिन और दे दो! एक मई से शिवराज ने थैली पर रोक लगाने का आर्डर दे दिया है।’ फीकी हँसी हँसते हुए वह बोला - ‘निकाल दे आर्डर! कोई पहली बार नहीं निकल रहा साब। उनसे पहले नगर निगम निकाल चुका ऐसा आर्डर। क्या हुआ? दो-चार दिन पकड़ा-धकड़ी हुई। हम पाँच-सात छोटे दुकानदारों पर जुर्मान किया। फिर सब बराबर हो गया। आप देख ही रहे हो! यहाँ बैठे हम तमाम लोग पन्नी की थैलियाँ वापर रहे हैं। और तो और, नगर निगम वाले भी पन्नी की थैलियों में ही हार-फूल ले जा रहे हैं।’

दुकानदार की बातों में मुझे रस आने लगा। भुगतान करने के बाद भी रुक गया। पूछा - ‘तो तुम्हारा मतलब है कि शिवराज के आर्डर से कुछ नहीं होगा?’ उसी तरह, बेजान हँसी हँसते बोला - ‘होगा क्यों नहीं सा‘ब? होगा। लेकिन वही! फिर कुछ अफसर-बाबू आएँगे। पकड़ा-धकड़ी करेंगे। हम छोटे दस-बीस लोगों पर जुर्माना करेंगे। फिर सब बराबर। पहले जैसा। चार दिन की चाँदनी, फिर अँधेरी रात।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर शिवराज क्या करे?’ उसने मुझे ऐसा देखा जैसे मैं धरती का नहीं, किसी दूसरे ग्रह का जीव हूँ। बोला - ‘आप जैसे लोग ऐसी बातें करते हैं यही तो लफड़ा है। सब लोग, सब-कुछ जानते हैं लेकिन अनजान बनते हैं। अरे! सब जानते हैं कि चोर को मारने से चोरियाँ नहीं रुकती। रोकना है तो चोर की माँ को मारो। पन्नी की थैलियाँ बन्द करनी हैं तो इनका बनना बन्द करो! इनकी फैक्ट्रियाँ बन्द करो! लेकिन वो तो करेंगे नहीं। करेंगे भी नहीं। सबकी धन्धेबाजी है।’

वह गुस्से में बिलकुल नहीं था। साफ लग रहा था कि वह भी पोलीथिन की थैलियाँ नहीं वापरना चाहता किन्तु ‘बाजार’ उसे मजबूर कर रहा।  व्यथित स्वरों में बोला - ‘अब क्या कहें साब! सबको हरिद्वार के दुकानदारों की बदमाशी नजर आती है लेकिन गंगोत्री को भूल जाते हैं। गंगोत्री पर रोक लगाओ। घाट पर दुकानें लगनी अपने आप बन्द हो जाएँगी।’

उसकी बातें मुझे मजा दे रही थीं किन्तु उसकी निर्विकारिता उदास भी कर रही थी। उसका ‘सब लोग सब कुछ जानते हैं’ वाला वाक्यांश मुझे खुद पर चुभता लगा। यही छटपटाहट ले कर चला। लेकिन दस-बीस कदम जाकर लौटा। उसका फोटू लिया और नाम पूछा तो अपना काम करते हुए, उसी निर्विकार भाव से बोला - ‘जुर्माने से ज्यादा और क्या करोगे? कर लेना। मेरा नाम रामचन्द्र खेर है और तीस-पैंतीस बरस से यहीं पर, यही धन्धा कर रहा हूँ।’ उसकी बात ने मेरी चुभन, मेरी छटपटाहट बढ़ा दी। मेरा ‘मजा’, मेरा ‘बतरस’ हवा हो गया। मैं चला आया।  

इस बात को चौबीस घण्टे होनेवाले हैं लेकिन वह चुभन, वह छटपटाहट जस की तस बनी हुई है। 

लेकिन मेरी चुभन, मेरी छटपटाहट मेरे पास। आपको तो कहानी रोचक लगेगी। लगी ही होगी।

रामचन्‍द्र खेर
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9 comments:

  1. सच्चाई है और सोचने पर मजबूर करती है की क्यों न आज तक फैक्ट्री को बंद करने का फरमान दिया गया।

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  2. भ्र्ष्टाचार पर नि यंत्रण और दृढ़ निश्चय के बगैर कुछ नही होगा ।

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  3. कई चीजें हैं,एक जगह बंद करो तो दुसरे राज्यों से माल आ जाता है,और पॉलीथिन सस्ता,सुविधाजनक,आसान विकल्प है,अनेक कारक है,सब उतना भी आसान नहीं जितना आप और खरे जी माणक चौक में खड़े खड़े डिस्कस कर ले रहे हो।

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    1. टिप्पणी के लिए धन्यवाद।

      यकीनन, सब कुछ उतना आसान नहीं जितना कि मैं और खेरजी (वे खेरजी हैं, खरेजी नहीं) माणक चौक में खड़े खड़े डिस्कस कर ले रहे थे। लेकिन, (आपके हिसाब से) वह ‘कठिन’ क्या है, यह बताना तो आसान था। अच्छा होता आप यह आसान काम कर देते। वैसे, खेरजी ने फैक्ट्रियाँ बन्द करने की जो बात कही तो (उनके वैचारिक स्तर का अनुमान लगा कर कह रहा हूँ) उनका आशय सम्भवतः यही रहा होगा कि इस किस्म की थैलियों का निर्माण बन्द कर दिया जाए जो कि (मेरे हिसाब से) उतना कठिन नहीं है जितना ‘कोई कठिन’ आप आसानी से नहीं बता पाए।

      वैसे, मैं खेरजी के ‘आशय’ (इंटेंशन) को महत्वपूर्ण मान रहा हूँ, शब्दों को नहीं। उम्मीद करता हूँ कि आप, सड़क पर खड़े होकर फूल बेचनेवाले, साक्षर खेरजी पर शब्दों के रूढ़ार्थ के कड़े पैमाने न बरतने की सदाशयता बरतें।

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  4. बहुत सटीक प्रस्तुति...

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