14 फरवरी की दोपहर होने को थी। मेरे एक उदारवादी मित्र के धर्मान्ध बेटे का फोन आया - ‘अंकल! पापा आपके यहाँ हैं क्या?’ मैं दहशत में आ गया। अपनी कट्टरता और धर्मान्धता के अधीन वह मुझे तो ‘निपटाता’ ही रहता है, अपने पिता को भी मेरी उपस्थिति में एकाधिक बार लताड़ चुका। 14 फरवरी को ऐसे ‘हिन्दू बेटे’ को अपने, ‘हिन्दू धर्म के दुश्मन’ पिता को तलाशते देख मन में आशंकाओं और डर की घटाएँ घुमड़ आईं। मैंने सहज होने की कोशिश करते हुए पूछा - ‘क्यों? सब ठीक तो है? कोई गड़बड़ तो नहीं?’ खिन्न स्वरों में उत्तर आया - ‘हाँ। सब ठीक ही है।’ मैंने पूछा - ‘कोई काम आ पड़ा उनसे?’ उसी उखड़ी आवाज में बेटा बोला - ‘हाँ। उनके पाँव पूजने हैं।’ डरे हुए आदमी को हर बात में धमकी ही सुनाई देती है। ‘पाँव पूजने’ का अर्थ मैंने अपनी इसी मनोदशा के अनुसार निकाला और घबरा कर पूछा - ‘अब क्या हो गया तुम दोनों के बीच?’ वह झल्ला कर बोला - ‘ऐसा कुछ भी नहीं है जैसा आप सोच रहे हो। आज सच्ची में उनके पाँव पूजने हैं। वेलेण्टाइन डे के विरोध में आज हम लोग मातृ-पितृ दिवस मना रहे हैं।’ सुनकर, अनिष्ट की आशंका से मुक्त हो मैंने आश्वस्ति की लम्बी साँस तो ली लेकिन हँसी भी आ गई। बोला - ‘जिस बाप को हिन्दू विरोधी मानते हो, जिसे यार-दोस्तों के सामने, बीच बाजार हड़काते रहते हो, हिन्दुत्व की रक्षा के लिए आज उसी बाप को तलाश रहे हो?’ वह झुंझलाकर बोला - ‘मैं इसीलिए आपसे नहीं उलझता अंकल! आप सब जानते, समझते हो। पापा के दोस्त हो इसलिए चुप रहता हूँ। फालतू बात मत करो। पापा आपके यहाँ हो तो बात करा दो। बस!’ अगले ही पल हम दोनों एक-दूसरे से मुक्त हो गए।
समर्थन हो या विरोध, पाखण्ड के चलते प्रभावी नहीं हो पाता है। इसके विपरीत, ऐसी हर कोशिश अन्ततः खुद की ही जग हँसाई कराती है। किसी एक खास दिन या मौके के जरिए पूरी संस्कृति को, सामूहिक रूप से खारिज या अस्वीकार करने की कोई भी कोशिश कभी कामयाब नहीं हो पाती। चूँकि निषेध सदैव आकर्षित करते हैं और प्रतिबन्ध सदैव उन्मुक्त होने को उकसाते हैं इसलिए ऐसी हर कोशिश हमसे हर बार उसी ओर ताक-झाँक करा देती है जिससे आँखें चुराने को कहा जाता है।
ऐसे ‘दिवस’ (‘डे’) मनाना पाश्चात्य परम्परा है। शुरु-शुरु मैं ऐसे प्रत्येक ‘डे’ पर चिढ़ता, गुस्सा होता था। किन्तु एक बार जब मैंने विस्तार से समझने की कोशिश की तो पाया कि मेरी असहमति तो ठीक है लेकिन मेरा चिढ़ना गैरवाजिब है। पश्चिम में सामूहिक परिवार की अवधारणा नहीं है। वहाँ बच्चों के सयाने होते ही माँ-बाप का घर छोड़ना बहुत स्वाभाविक बात होती है। इसके विपरीत, हम संयुक्त परिवार से कहीं आगे बढ़कर संयुक्त कुटुम्ब तक के विचार को साकार करने मेें अपना जीवन धन्य और सफल मानते हैं। एकल परिवार का विचार ही हमें असहज, व्यथित कर देता है। बेटे का माँ-बाप से अलग होना हमारे लिए पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर अपमानजक लगता है। यह मनुष्य स्वभाव है कि वह उसीकी तलाश करता है जो उसके पास नहीं है। पराई चीज वैसे भी सबको ही ललचाती ही है। इसी के चलते हमारी अगली पीढ़ी को एकल परिवार की व्यवस्था ललचाती है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर चल पड़ने के बाद यह हमारे बच्चों की मजबूरी भी बनती जा रही है। ऊँचे पेकेजवाली नौकरियाँ अपने गाँव में तो मिलने से रहीं! बच्चों को बाहर निकलना ही पड़ता है। बचत की या माँ-बाप को रकम भेजने की बात तो दूर रही, महानगरों में जीवन-यापन ही उन्हें कठिन होता है। सीमित जगह वाले, किराये के छोटे मकान। माँ-बाप को साथ रख सकते नहीं और माँ-बाप भी अपने दर-ओ-दीवार छोड़ने को तैयार नहीं। हमारी जीवन शैली भले ही पाश्चात्य होती जा रही हो किन्तु भारतीयता का छूटना मृत्युपर्यन्त सम्भव नहीं।
हमारी सारी छटपटाहट इसी कारण है। त्यौहारों पर बच्चों का घर न आना बुरा समझा जाता है। उनके न आ पाने को हम लोग बीसियों बहाने बना कर छुपाते हैं। पश्चिम में सब अपनी-अपनी जिन्दगी जीते हैं। बूढों की देखभाल की अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए ‘राज्य’ ने ‘ओल्ड होम्स’ की व्यवस्था कर रखी है। क्रिसमस वहाँ का सबसे बड़ा त्यौहार। बच्चे उस दिन अपने माँ-बाप से मिलने की भरसक कोशिश करते हैं। शेष तमाम प्रसंगों के लिए ‘डे’ की व्यवस्था है। होली-दीवाली पर हम जिस तरह अपने बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं, उसी तरह ‘मदर्स/फादर्स/पेरेण्ट्स डे’ पर वहाँ माँ-बाप बच्चों के बधाई कार्ड की प्रतीक्षा करते हैं। बच्चे भी इस हेतु अतिरिक्त चिन्तित और सजग रहते हैं। कार्ड न आने पर माँ-बाप और न भेज पाने पर बच्चे लज्जित अनुभव करते हैं।
‘डे’ मनाने का यह चलन हम उत्सवप्रेमी भारतीयों के लिए अनूठा तो है ही, आसान भी है और प्रदर्शनप्रियता की हमारी मानसिकता के अनुकूल भी। ‘कोढ़ में खाज’ की तर्ज पर ‘बाजारवाद’ ने हमारी प्रदर्शनप्रियता की यह ‘नरम नस’ पकड़ ली। अब हालत यह हो गई है कि ऐसे प्रत्येक ‘डे’ पर हर साल भीड़-भड़क्का, बाजार की बिक्री, लोगों की भागीदारी बढ़ती ही जा रही है। पहली जनवरी को नव वर्ष की शुरुआत को सर्वस्वीकार मिल चुका है। केक और ‘रिंग सेरेमनी’ भारतीय परम्परा का हिस्सा बन गई समझिए। बाबरी ध्वंस की जिम्मेदारी लेनेवाली, एकमात्र भाजपाई, हिन्दुत्व की प्रखर पैरोकार उमा भारती ने तो एक बार किसी हनुमान मन्दिर में केक काटा था।
वस्तुतः कोई भी परम्परा लोक सुविधा और लोक स्वीकार के बाद ही संस्कृति की शकल लेती है। सांस्कृतिक आक्रमण को झेल पाना आसान नहीं होता। हमलावर संस्कृति का विरोध कर अपनी संस्कृति बचाने की कोई भी कोशिश कभी कामयाब नहीं हो पाती। सतत् निष्ठापूर्ण आचरण से ही कोई संस्कृति बचाई जा सकती है। लेकिन हमारे आसपास ऐसी कोशिशों के बजाय अपनेवालों को ही मारकर भारतीय संस्कृति बचाने के निन्दनीय पाखण्ड किए जा रहे हैं। ऐसी कोशिशों से प्रचार जरूर मिल जाता है और दबदबा भी कायम हो जाता है किन्तु संस्कृति हाशिए से भी कोसों दूर, नफरत के लिबास में कूड़े के ढेर पर चली जाती है। पश्चिम के लोग अपनी धारणाओं, मान्यताओं पर दृढ़तापूर्वक कायम रहते हैं। उन्हें वेलेण्टाइन डे मनाना होता है। मना लेते हैं। अपने वेलेण्टाइन डे के लिए वे हमारी होली, हमारे बसन्तोत्सव का विरोध नहीं करते। अपने फादर्स डे के लिए हमारे पितृ-पक्ष का, अपने क्रिसमस के लिए हमारी दीपावली का, अपने ‘न्यू ईयर’ के लिए हमारी चैत्र प्रतिपदा का विरोध नहीं करते।
पश्चिम के लोगों में और हममें बड़ा और बुनियादी फर्क शायद यही है कि वे अपनी लकीर बड़ी करने में लगे रहते हैं जबकि हम सामनेवाले की लकीर को छोटी करने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। इतनी ही मेहनत हम यदि अपनी लकीर बड़ी करने में करें तो तस्वीर कुछ और हो। उनकी लकीर छोटी करने की हमारी प्रत्येक कोशिश का सन्देश अन्ततः नकारात्मक ही जाता है। हमारी छवि आतंकी जैसी होती है। हम अपनों से ही नफरत करते हैं, अपनों की नफरत झेलते हैं।
बेहतर है कि हम तय कर लें कि हमें क्या बनना है, कैसा बनकर रहना है और तय करके, जबड़े भींच कर, वैसा ही बनने में जुट जाएँ। कहीं ऐसा न हो जाए कि हम वह भी नहीं रह पाएँ जो हम हैं।
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(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ में, 16 फरवरी 2017 को प्रकाशित। )
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और दादा साहेब फाल्के में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteकोटिश: धन्यवाद। आभारी हूँ।
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