दलाल कथा - 04
इससे पहले कि मैं (दलाल से जुड़ा) मेरेवाला किस्सा सुनाता, एक किस्सा अपने पाँवों चलकर मुझे तक आ पहुँचा। वही किस्सा, दो कारणों से पहले सुना रहा हूँ। एक कारण तो यह कि मेरावाला मेरा आँखों देखा है जबकि मुझ तक आया यह किस्सा ‘आपबीती’ है। दूसरा कारण, अपनी पूँजी सुरक्षित रख, पहले परायी पूँजी पर अपनी दुकानदारी कर लेने का लालच।
किस्सा सुनने के लिए दो काल्पनिक नाम तय कर लेते हैं। एक नाम दलाल का और दूसरा सेठ का। दलाल का नाम जीतमलजी और सेठजी का नाम बालचन्दजी। इन्हें हम जीतूजी दलाल और बालू सेठ के नाम से जानेंगे। मेरी, अब तक की तीनों ‘दलाल कथाएँ’ पता नहीं कैसे जीतूजी के पोते तक पहुँची। उसने अपने दादाजी को पढ़कर सुनाईं। इन्हें सुनकर ही जीतूजी ने मुझे तलाशा और मुझ तक पहुँचे। उनकी अवस्था इस समय बयासी वर्ष है। अपने जमाने में वे कड़क और दमदार दलाल रह चुके हैं।
जीतूजी के मुताबिक यह किस्सा, दलाल के रूप में उनके शुरुआती काल का है। साफ-सुथरा काम और ईमानदारी आदमी को पहचान, प्रसिद्धि दिलाती है और आत्म सन्तोष प्रदान करती है। किन्तु सयाने लोग कह गए हैं कि पैसा और प्रसिद्धि हजम करना आसान नहीं होता। इसलिए आदमी के अहंकारी होने की आशंकाएँ बराबर बनी रहती हैं। जीतूजी को पता ही नहीं चला कि वे कब इस आशंका के शिकार हो गए।
लेकिन ऐसा केवल जीतूजी के साथ ही नहीं हुआ। बालू सेठ भी इसके शिकार बन बैठे। बीच बाजार में दुकान थी। खूब साखवाली पेढ़ी। रामजी राजी थे। व्यापार अटाटूट। लक्ष्मीजी मानो बालू सेठ पर लट्टू हो कर ‘चंचला’ से ‘स्थिर’ बन गई हों। लेकिन वह व्यापार ही क्या जिसमें पूँजी की जरूरत न बनी रहे! सो जीतूजी और जीतूजी जैसे कुछ और दलालों का आना-जाना बालू सेठ की पेढ़ी पर बना रहता।
लेकिन एक दिन उनके मन में ऐसा विचार आया जिसके लिए जीतूजी का कहना रहा - ‘लक्ष्मीजी ने तो बालू सेठ की तिजोरी में वास कर लिया लेकिन उनके वाहन ने बालू सेठ के दिमाग पर सवारी कर ली।’ एक दिन, अचानक ही जीतूजी से कहा - ‘जीतूजी! दलाल, दलाल तो होता है लेकिन वह कर्ज वसूली करनेवाला भी होता है। आप भले ही मेरे लिए पूँजी लेकर आओ लेकिन देखनेवाला तो उल्टा भी समझ सकता है। लोग यह समझें कि कोई वसूली करनेवाला मेरी पेढ़ी पर आया है, यह मुझे अच्छा नहीं लगता। आगे से आप मत आना। मुझे खबर कर देना। मैं रकम लेने के लिए मुनीमजी को भेज दूँगा।’
जीतूजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। बालू सेठ ने यह क्या कह दिया? उन्हें पता भी है कि उनकी इस बात का क्या मतलब निकलेगा? अविश्वासी नजरों से बालू सेठ को घूरते हुए बोले - ‘बोलने से पहले थोड़ा सोच लिया करो सेठ। आपको पता भी है कि आपने क्या कह दिया?’ बालू सेठ ठसके से बोले - ‘सोच कर ही कहा। आप मत आना। मैं मुनीमजी को भेज दूँगा।’ जीतूजी ने दुगुने ठसके से कहा - ‘एक बार फिर सोच लो सेठजी। इसी तरह व्यापार करना है तो दलालों के लिए दुकान के दरवाजे खुले रखना पड़ेंगे। दलालों का आना-जाना बन्द कर दिया तो लोग आपका बाजार से उठा देंगेे।’ बालू सेठ को जैसे करण्ट लग गया। हाथ का काम छोड़ तनिक गुस्से में बोले - ‘क्या मतलब आपका? मैं किसी की मेहरबानी से बाजार में बैठा हूँ?’ उसी ठसके से जीतूजी बोले - ‘किसी की मेहरबानी से तो नहीं बैठे लेकिन आप-दुश्मनी करके लोगों को मौका दे रहे हो।’ जीतूजी के तेवर और ठसका देख बालू सेठ एकदम नरम पड़ गए। बाले- ‘मैं तो सबकी बोलती बन्द करने का काम कर रहा हूँ और आप एकदम उल्टी बात कर रहे हो!’ अब जीतूजी दुगुने नरम हो गए। कुछ इस तरह बोले मानो मक्खन में छुरी गिर रही हो - ‘सेठजी! बाजार में बैठना हो तो बाजार का चाल-चलन मानना पड़ता है। बाजार के रीति-रिवाज निभाने पड़ते हैं। आपने तो एक झटके में दलालों का रास्त बन्द करने की बात कह दी। लेकिन लोग देखेंगें-सुनेंगे कि पूँजी के लिए बालू सेठ के मुनीम दलालों के चक्कर काट रहे हैं तो लोग दुकान के सामने आकर ‘हुर्राट्ये’ लगाना (याने कि हूटिंग करना) शुरु कर देंगे। बैठना मुश्किल हो जाएगा। अगले ही दिन दरी-गादी झटकने की नौबत आ जाएगी। लक्ष्मीजी टूटमान (महरबान) है तो कदर करो। आज कह दिया सो कह दिया। आगे से ऐसा कहना तो दूर, कहने की सोचना भी मत।’
बालू सेठ की मानो घिघ्घी बँध गई हो। कहाँ तो लोगों की बोलती बन्द करने चले थे और कहाँ खुद के ही बोल नहीं फूट रहे! पूरा शरीर पसीने में भीग गया और आँखे डबडबा आईं। बड़ी मुश्किल से बोले - ‘ठीक कह रहे हो जीतूजी। मेरी ही मति मारी गई थी जो ऐसी आपघाती बात कर बैठा। मेरी तकदीर अच्छी थी कि आपसे कही, किसी और से नहीं। आज आपके मुँह से साक्षात् भगवान बोले। आपके पाँव धोकर पीयूँ तो भी कम। मुझे माफ कर देना और इसी तरह आगे भी मेरा ध्यान रखना।’ कह कर बालू सेठ ने मानो जबरन खुद को गादी पर धकेला।
जीतूजी और पिघल गए। बोले - ‘ऐसा कुछ भी नहीं बालू सेठ! समझ लो ग्रह-नक्षत्र अच्छे थे। बुरी घड़ी टल गई। मैं आपसे न तो अलग हूँ न ही दूर। आप हो तो मैं भी हूँ।’ फिर मानो बाजार का चरित्र-सूत्र बखान किया - ‘भगवान की दया से सेठाणीजी के पास पेटी भर जेवर होंगे। जेवर सेठाणीजी को राणी पदमणी (रानी पद्मिनी) ही नहीं बनाते, वो आपकी हैसियत की डोंडी भी पीटते हैं। इसी तरह सेठजी! दलाल भी पेढ़ी के जेवर हैं। ये पेढ़ी की हैसियत भी बताते हैं और मान भी बढ़ाते हैं।’
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दादा इस तरह क़ी कितने ही बालु सेठ और जीतू जी हमारे बीच है।बालु सेठ होने से बचना महत्वपूर्ण है।
ReplyDeleteसच कहा तुमने नेहुल। हम सबने अपनी धरती नहीं छोड्नी चाहिए। टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
Deleteबहुत शानदार लिखा
ReplyDeleteपटवारी ही गांव में अभिकारी की पहचान करवाता है। कि कौन साब गांव में आये है । वर्ना लोग कलेक्टर को भी नमस्ते नही करे
बहुत-बहुत धन्यवाद रमेश भाई।
Deleteआपके पास भी ऐसे अनगिनत किस्से होंगे। कभी वक्त निकालिए। कुछ काम की बात हो जाए।
Dada kissa behad prerak hai. Kash yahi naitik charitra aaj bhi saamaanya hota. Lekin jo bhi padhega.vichar karne ko mazbur jarur hoga
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