शुरु में ही साफ-साफ जान लीजिए, यह आलेख अम्बरीश कुमार पर बिलकुल ही नहीं है।मैं उन्हें नहीं जानता। पहचानता भी नहीं। आज तक शकल नहीं देखी। हाँ नाम जरूर सुना, पढ़ा है। तब से, जब वे जनसत्ता में हुआ करते थे। गए कुछ समय से फेस बुक पर उनसे जरूर सम्पर्क बना है। कभी-कभार मेसेंजर पर उन्हें सन्देश दे देता हूँ। वे मेरे कहे पर ध्यान देते हैं और जवाब भी। उनकी पोस्टें रुचिपूर्वक पढ़ता हूँ। लगता है, मैं उनके जैसा सोचता हूँ या वे मुझ जैसा। जनसत्ता से ओमजी (थानवी) की सेवानिवृत्ति के पहले और बाद में (ओमजी को लेकर) चली बहस में ओमजी पर उनकी तीखी, प्रतिकूल, कड़वी टिप्पणियाँ कभी अच्छी नहीं लगीं। यह मजे की बात है कि मैं ओमजी से भी आज तक नहीं मिला न ही कभी सम्पर्क हुआ। उनका लिखा मुझे झनझना देता है। उनकी सेवा निवृत्ति के बाद दो-एक बार उनसे, मेसेंजर सन्देशों का आदान-प्रदान हुआ। अम्बरीश कुमार के मुकाबले ओमजी मुझे मेरे अधिक नजदीक, अधिक अनुकूल लगे। लेकिन यह आलेख ओमजी पर भी नहीं है न ही इन दोनों के जगजाहिर अन्तर्सम्बन्धों को लेकर।
वस्तुतः, 15 फरवरी को फेस बुक पर अम्बरीश कुमार का (यहाँ प्रस्तुत) स्टेटस पढ़कर, कोई (कम से कम) पचास बरस पहले सुनी, सुमनजी की कुछ बातें याद आ गईं। सुमनजी याने अपने आदरणीय डॉक्टर शिवमंगलसिंहजी सुमन।
जगह तो अब याद नहीं आ रही किन्तु बात इन्दौर की है। दादा (श्री बालकवि बैरागी) और सरोज भाई (डॉक्टर सरोज कुमार) भी मौजूद थे। लेकिन ये दोनों किसी और से बातों में व्यस्त थे और सुमनजी किन्हीं दो सज्जनों से बात कर रहे थे।
ये दोनों सज्जन सुमनजी से मिलने इन्दौर आए थे। किसी ग्रन्थ या स्मारिका के लिए उन्हें सुमनजी से एक लेख चाहिए था। सुमनजी उस ग्रन्थ/स्मारिका के प्रसंग और प्रयोजन की विस्तृत जानकारी चाह रहे थे। आगन्तुकों ने सुमनजी की जिज्ञासाएँ शान्त की और सुमनजी ने लेख लिखने की हामी भर दी।
मनोरथ पूरा होने से आगन्तुक प्रसन्न थे। सुमनजी के चरण स्पर्श कर उन्होंने जाने की अनुमति ली। चलते-चलते उनमें से एक ने कहा - ‘गुरुदेव! लेख में निरपेक्षता बरतने की कृपा कीजिएगा।’ सुन कर सुमनजी ने अविलम्ब कहा - ‘सुनो! सुनो! रुको! इधर आओ।’ दोनों को लगा, कुछ गड़बड़ हो गई है। घबराहट और अनिष्ट की आशंका उनके चेहरों पर उभर आई। सहमे-सहमे कदमों से दोनों सुमनजी के सामने, हाथ बाँधे खड़े हो गए। अपने मस्तमौला अन्दाज में सुमनजी दोनों को लड़ियाते हुए बोले - ‘अरे! घबराओ मत। लेकिन भाई! यह हमसे नहीं हो सकेगा।’ दोनों को लगा, सुमनजी लेख लिखने से इंकार कर रहे हैं। निरपेक्षता की माँग करनेवाला गिड़गिड़ाते स्वरों में बोला - ‘सर! गलती हो गई। माफ कर दीजिए। लेख से इंकार मत कीजिए। आपका यह कृपा प्रसाद तो हमें चाहिए ही चाहिए।’ सुमनजी जोर से हँसे और बोले - ‘अरे भाई! हमने लिखने से इंकार कब किया? वो तो हम लिख देंगे। लेकिन भाई! यह निरपेक्षता हम नहीं बरत पाएँगे।’ दोनों की साँस में साँस आई। साथ-साथ आँखें भी गीली हो आईं। मानो जीवन-धन नष्ट हो जाने से बच गया हो, कुछ इस तरह बोले - ‘जैसा आप ठीक समझें गुरुदेव। हमें तो बस! लेख प्रदान कर दीजिएगा।’ सुमनजी फिर हँसे। बोले - ‘पूछोगे नहीं कि हम निरपेक्षता क्यों नहीं बरतेंगे?’ सामनेवाला हकला गया। शब्द गले में घुट गए। बाहर नहीं निकल पाए। अपनी रौ में बहते हुए सुमनजी बोले - ‘कई बात नहीं। हम ही बता देते हैं। तुम्हारे काम आएगी। सुन लो।’ दोनों मानो मन्त्र-बिद्ध-जड़ हो गए हों।
अपने अन्दाज में सुमनजी ने जो कुछ कहा उसका मतलब था कि हम सब सापेक्षिक हैं। कोई निरपेक्ष नहीं होता। चाह कर भी नहीं हो पाता। हम सब अपनी-अपनी धारणाओं, अपने-अपने आग्रहों के साथ जीवन जीते हैं। हम जब खुद के निरपेक्ष होने की बात करते हैं तो निरपेक्ष नहीं होते। हम एक पक्ष बनकर ही विवेचन कर, निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। किसी और की वही बात हमें निरपेक्ष लगती है जो हमारी धारणा, हमारे आग्रह से मेल खाती है। वास्तव में निरपेक्ष होने के लिए हमें श्रीमद्भागवत गीता में योगीराज श्रीकृष्ण द्वारा बताए ‘साक्षी भाव’ को आत्मसात करना पड़ेगा जो आप-हम जैसे सामान्य मनुष्यों के लिए लगभग असम्भव ही है। अपनी बात का भाष्य कर सुमनजी बोले - ‘इसलिए भाई! हमसे निरपेक्षता की उम्मीद मत करना।’ दोनों आगन्तुकों की तन्द्रा टूटी। शीश नवाया, एक बार फिर सुमनजी के चरण स्पर्श किए और बगटुट निकल लिए।
पचास बरस पहले सुमनजी ने जो भाष्य किया था, अम्बरीश कुमार के स्टेटस ने कुछ इस तरह याद दिला दिया मानो सुमनजी की बात सुने बिना ही सुमनजी को दोहरा रहे हों।
अच्छा लगा। सुमनजी को याद करके भी और उनकी कही बात को फिर से सुनकर भी।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-02-2017) को
ReplyDelete"उजड़े चमन को सजा लीजिए" (चर्चा अंक-2595)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
सुमन जी ने सही बात कही - बिलकुल अनुभव सिद्ध.
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