तलाश किसी रोते हुए बच्चे की

बर्लिन से बब्‍बू को - पहला पत्र: दूसरा हिस्सा

पहली रात हम लोग बर्लिन के एक आधुनिकतम होटल ‘होटल स्ताद बर्लिन’ (बर्लिन का हृदय) में ठहराये गये। 37 मंजिले इस होटल की 29वीं मंजिल पर मैं कमरा नम्बर शून्य आठ में था। 2000 बिस्तरों वाले इस होटल को यहाँं का विशेष दर्जा दिया गया है। चार तरह के होटल होते हैं इस देश में। प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, तीसरी श्रेणी और सर्वोपरि विशेष श्रेणी। मेरे बापदादे भी ऐसे बिस्तरों पर नहीं सोये होंगे। हाँ तू, तेरे बच्चे और भतीजे सोयें तो मुझे खुशी होगी। इतने आरामदेह और नरमतम बिस्तरों पर सोना मेरे भाग्य में तो है, पर मुझे नींद नहीं आ पती है इन पर।

शायद तुझे पता नहीं होगा कि अगस्त 76 के अन्तिम सप्ताह में जब मैं विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिये मॉरीशस में था तब वहाँ धोती, कुर्ता और जाकेट पहने घूमता था। पर यहाँ बर्लिन और रोस्टोक की सड़कों पर मैं अकेला भारतीय हूँ जो चुस्त पायजमा, कुर्ता, जाकेट पहने घूमता हूँ। जब हम लोग बस में या होटल में होते हैं तब तो सब कुछ एयर कण्डीशन होता है इसलिये सामान्य कपड़ों से काम चल जाता है। पर ज्यों ही बस या होटल से बाहर निकले कि तेज हवा और दगाबाज सर्दी की लहरें चमड़ी के भीतर घुस जाती हैं। अच्छा हुआ जो मैं चेस्टर लेता आया। खादी के इस ओव्हरकोट ने जान बचा दी। वैसे मैं अपनी बसन्ती लुंगी, बसन्ती कुर्ता और ऊपर भगवा ऊनी शाल ओढ़े भी हर जगह घूम लेता हूँ। मुझे देखते ही ‘इन्डिया इन्दिया’ की आवाजें शुरु हो जाती हैं। हमारे व्यवस्थापक साथी डॉ. गुन्थर, श्रीमती रुथ, श्रीमती एन और दुभाषिये श्री क्लोफर खूब मजा लेते हैं।

कोई इस बात पर विश्वास नहीं करेगा कि इन चार दिनों में हमने एक साल से लेकर दस साल तक के सैकड़ों बच्चे देखे हैं पर एक भी बच्चा रोता हुआ नहीं देखा। हम लोग ढूँढ रहे हैं कि कोई बच्चा रोता हुआ मिल जाये। अविश्वसनीय लगता होगा पर यह सच है कि इस देश में पाँचवीं से सातवीं तक की कक्षाओं में यौन सम्बन्धी सारा पाठ्यक्रम पढ़ा दिया जाता है। यौनाचार बच्चों को फूहड़ता की तरफ तब नहीं धकेल पाता।

दूसरे विश्व युद्ध की तबाही का यह देश जीवित प्रमाण है। पर अटूट संकल्प शक्ति, दृढ़ निश्चय, उत्कृष्ट राष्ट्रीय चरित्र, अनुपम अनुशासन और महान नवनिर्माण का भी यह देश अद्भुत सम्मिश्रण है। भूख, गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद यहाँ कहानियों में भी स्थान नहीं पाते। तस्करी और काला बाजारी यहाँ 1945 से पूर्व की घटनाएँ हैं। देश बना 1945 में। हिटलर और नाजियों ने यातना शिविरों में जिन दो करोड़ लोगों को जीवित जला दिया और भून दिया उसमें इस देश के केवल 10 लाख तो बच्चे ही थे। महिलाएँ और जवान तथा बूढ़े अलग। सब कुछ कल्पनातीत है। यातना का अनुमान पुस्तकों से नहीं लग पाता। हम लोगों ने एक यातना शिविर को देखा। आज वह अजायबघर है। शिविर की दीवार के उस पार आज सोवियत सेना का शिविर है। पर जो कुछ भी मैं देख पाया उससे मेरी कलम से एक कविता, आँखों से आँसू और कलेजे से चीख एक साथ निकल पड़ी। वह कविता वहीं के विजिटर्स रजिस्टर में मैं छोड़ आया हूँ। बच्चों पर यह देश उतना ही ध्यान देता है जितना एक मुर्गी अपने अण्डे पर या एक गाय अपने वत्स पर। राजमहलों में जो सुविधा राज पुत्रों को नसीब नहीं होती वह यहाँ बच्चों को दी जाती है। वस्तुतः बच्चे पढ़ते हैं, पढ़ाये नहीं जाते। पाठ्यक्रम ही ऐसा होता है। एक 10 वर्षीय बालक ने जब अपनी कक्षा में हमारे दल के सदस्यों से हाथ मिलाकर ‘इन्दिरा गाँधी को अभिवादन’ कहा तो सारा दल मुग्ध रह गया। हर बच्चा उत्फुल्ल, ताजा और किलकता मिलता है। उसकी किलकारियों से ही आभास हो जाता है कि इस बच्चे का भविष्य सौ फीसदी सुरक्षित है।

पहला पत्र: तीसरा हिस्सा निरन्तर



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इण्‍टरनेट  पर सर्वाधिक प्रसारित, लोकप्रिय व समृद्ध ई-पत्रिका ‘रचनाकार’ 
ने भी इस पत्र काेे प्रकाशित किया है। इसे  यहाँ पढ़ा जा सकता है।


5 comments:

  1. पत्रों को अलग-अलग हिस्से में देने का कारण समझ में नहीं आया.

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पंचम दा - राहुल देव बर्मन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार। ।

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  3. पत्र का ये वाला हिस्सा जर्मनी के वाल्डोर्फ गांव के एक झूलाघर के सामने से गुजरते हुए पढ़ा। आज भी जर्मनी में सब बच्चे खुश दिखते हैं । कोई धूल नही है। नियम का पालन होता है। बड़े काकाजी ने जो लिखा वो आज भी उतना ही सच है। पढ़ते पढ़ते आखों में आंसू थे । दिल में ये प्रश्न या डर की शायद हमारी अगली पीढ़ी भी अपना full potential इसलिए नही realise कर पायेगी क्योकि हम भी अपने देश को न बदल सके 🤔

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