उनका नामकरण मेरे सामने हुआ

(दादा श्री बालकवि बैरागी के आकस्मिक निधनोपरान्त शोक प्रकट करनेवालों का सैलाब उमड़ पड़ा। उन्हें चाहने-जाननेवाले पूरे तेरह दिनों तक लगातार आते रहे। अब भी आ रहे हैं - मनासा में भी और मेरे यहाँ, रतलाम में भी। अनेक ऐसे थे जो हम परिजनों में से किसी को नहीं जानते थे और न ही हम परिजन उन्हें। इस आवगमन में दादा से जुड़ी कुछ ऐसी बातें सामने आईं जो जानकारियाँ बढ़ानेवाली तथ्य भी थीं और दादा के व्यक्तित्व के अनजान-अनछुए पहलुओं को उजागर करनेवाली भी। ऐसी ही कुछ बातों का दस्तावेजीकरण करने के लिहाज से मैं उन्हें लिख रहा हूँ ताकि कभी, किसी जिज्ञासु के लिए उपयोगी हो सकें।)


बरसों बाद उन्हें देखा तो पहचान नहीं पाया। समय ने कुछ ज्यादा ही असर दिखाया निवास दादा पर। उनका पूरा नाम श्री श्रीनिवास बसेर है लेकिन हम उन्हें निवासजी या निवास दादा के नाम से ही जानते-पुकारते हैं। मेरे मित्र गोपाल बसेर और महेश बसेर के बड़े भाई हैं। इनके एक छोटे भाई और थे - विश्वनाथजी बसेर। हम उन्हें विशु दादा कहते थे। उनकी लम्बी-घनी मूँछें उन्हें विशिष्ट पहचान देती थीं। मैं गाहे-बगाहे उनकी मूँछों पर हाथ फेरने का सुख ले लिया करता था। उन्हें भी इसमें मजा आता था।

निवास दादा आए तो दादा की बातें करते-करते अतीत में खो गए। यह तो होना ही था। बोले - “मैं उनसे पाँच-छः साल छोटा हूँ। लेकिन हमारी दोस्ती थी। हम गुलाम भारत में जी रहे थे लेकिन आजादी-वाजादी जैसी बातों का मतलब नहीं समझते थे। मनासा में एक ‘अन्याय दमणी सेवादल’ (‘अन्याय दमणी’ याने ‘अन्याय दमनी’ याने अन्याय का दमन करनेवाला। मालवी बोली के प्रभाव से ‘दमनी’, ‘दमणी’ हो गया।) चलता था। गाँव के अनेक बच्चे उसमें जाते थे। हम दोनों भी जाते थे।”

निवास दादा के सामने बोलने या उनसे पूछने के लिए हमारे पास कुछ नहीं था। वे कहे जा रहे थे और हम सुने जा रहे थे। वे एक के बाद एक बातें बताते जा रहे थे। इसी क्रम में बोले - ‘काटजू सा’ब ने उनका नाम मेरे सामने रखा था। मैं मौजूद था उस वकत।’ यह बात मेरे काम की थी। मैंने कहा - ‘दादा! जरा खुल कर पूरी बात बताओ।’ 

निवास दादा उत्साहित हो गए।  उन्हें कुछ याद करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। जैसे सब कुछ उन्हें सामने नजर आ रहा हो और वे ‘आँखों देखा हाल’ सुना रहे हों। बोले - “यह सम्वत 2008 की बात है। मेरी उमर चौदह बरस की थी। काटजू सा’ब दिल्ली सरकार में मन्त्री थे। वे दौरे पर मनासा आए थे। काँग्रेस ने उनकी सभा कराई थी। यहाँ बाजार में अभी जहाँ रामदयाल मन्त्री की दुकान है, झँवरों की दुकान के सामने, वहाँ बड़ा तखत लगाया गया था जिस पर कुर्सी लगाई गई थी। काटजू सा’ब उसी कुर्सी पर बैठे थे। उन्होंने बैठे-बैठे ही भाषण दिया था। 

“सभा शुरु होने से पहले दादा ने स्वागत गीत गाया था। उसके बोल थे - ‘हुए बरबाद, कराया भारत को आजाद। राखो न राखो, तुम्हारी मरजी।’ गीत सुनकर काटजू सा’ब बहुत खुश हुए थे। जब उनसे भाषण देने के लिए कहा तो भाषण में सबसे पहले उन्होंने दादा के गीत की ही बात की। दादा की खूब तारीफ की और कहा कि यह लड़का आपके गाँव का ही है। अच्छे गीत लिखता और गाता है। इसका नाम तो मुझे नहीं मालूम लेकिन आप इसे बालकवि कहना। बस! उसी मिनिट से दादा बालकवि हो गए।”

मैंने पूछा - ‘दादा का नामकरण होने के बाद आपने उनसे
इस बारे में कभी बात की थी? कुछ बता सकते हैं कि दादा को कैसा लगा था?’ जवाब में निवास दादा ने कहा कि इस बारे में दादा से उनकी कोई बात नहीं हुई। लेकिन दादा को कोई फर्क पड़ा हो ऐसा नहीं लगा। सब कुछ रोज की तरह राजी-बाजी चलता रहा और लोगों ने दादा को बालकवि कहना शुरु कर दिया। 

दादा के नामकरण-संस्कार के किसी प्रत्यक्षदर्शी की ऐसी आधिकारिक बात मैंने पहली बार सुनी। यही बात मुझे तनिक महत्वपूर्ण लगी।
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अपने नामकरण को लेकर दादा यह बात बार-बार लिख और कह चुके हैं। लेकिन उनके चाहनेवाले फिर भी कभी-कभी अपनी इच्छा और सुविधा से उनके नामकरण की अपनी-अपनी कहानी बताते रहते हैं। गए दिनों ‘नईदुनिया’ ने छापा था कि यह नामकरण रामपुरा में आयोजित काँग्रेस सम्मेलन में हुआ था। काटजू सा’ब दादा का नाम भूल गए थे और गलती से उन्हें बालकवि सम्बोधित कर बैठे। किसी जमाने में विश्वसनीयता और आधिकारिता का पर्याय रहे ‘नईदुनिया’ में यह छपना मुझे विस्मित कर गया था। मैंने सम्पादकजी को पत्र भी लिखा था। लेकिन जैसा कि मैंने अनुमान लगाया था, पत्र नहीं छपा।
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2 comments:

  1. आपसे पूर्णतः सहमत।दादा के देहावसान पर नइदुनिया त्वरित छपा आलेख वे युग के चारण थे,पढ़कर मुझे ऐसा लगा कि उनपर श्रद्दा लेरव नहीं वरन स्वयं का बड़बोला पन ही हैा जिसकी उम्मीद नईदुनिया से नहीं थी।2 कालम के इस लेरव से बेहतर श्रीसंदीप शर्मा की 8 वे पक्तियां थी जो अगले दिन छ्पी थी जिन्होने सही चरित्र चित्रण से पाठको भावुक कर दिया था।

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  2. निवास दादा जी ने दादा के बारे में बताकर उन दिनों की बात ताज़ा कर दी । ये संस्मरण नई दुनिया को भी भेजना चाहिये ।

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