बर्लिन से बब्बू को: एक जिद का पूरी होना



 ‘बर्लिन से बब्बू को’ के बारे में मेरी यह बात तनिक लम्बी ही  होगी। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि कृति के मुकाबले उसके निर्माण का ब्यौरा लम्बा हो जाता है। नाक पर नथनी भारी हो जाती है। कोई महत्वपूर्ण उल्लेख छूट न जाए इस भावना के अधीन अधिकाधिक जानकारियाँ, सन्दर्भ और नाम देने का मोह मैं छोड़ नहीं पा रहा हूँ। 


दादा श्री बालकवि बैरागी, सितम्बर 1976 में तत्कालीन पूर्वी जर्मनी की यात्रा पर गए थे। तब मैं मन्दसौर में, दैनिक ‘दशपुर दर्शन’ का सम्पादन कर रहा था। दादा की यह दूसरी विदेश यात्रा थी। इससे पहले वे मारीशस की यात्रा कर चुके थे और ‘धरती रामगुलाम’ की शीर्षक से उनकी मारीशस यात्रा के संस्मरण प्रकाशित हो चुके थे।

यात्रा के दौरान दादा संस्मराणात्मक पत्र मुझे लिखेंगे, यह शायद उन्होंने भी नहीं सोचा था। जाने से पहले उन्होंने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया था। यह विचार उनके मन में निश्चय ही, यात्रा शुरु करते समय या पूर्वी जर्मनी में उतरने के बाद आया होगा। भारत लौटने के बाद भी उन्होंने इस बारे में कभी, कुछ नहीं बताया।

जब मुझे पहला पत्र मिला तो, मुझे अच्छा तो लगा लेकिन मैं चौंका भी था। इतना सब मुझे बताने का उनका क्या मकसद हो सकता है? पहले पत्र को मैंने दो-तीन बार पढ़ा और पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा, दादा की भावना हो न हो लेकिन मेरी सोच-समझ पर उन्हें कहीं न कहीं यह विश्वास तो है कि मैं इन पत्रों को अपने तक ही सीमित नहीं रखूँगा। मेरे अनुमान की पुष्टि उनके तीसरे और चौथे पत्र में बड़े ही सहज भाव से होती है। उनका तीसरा पत्र पढ़ने के बाद अपनी सम्पादकीय सूझ-बूझ पर मेरा भरोसा बढ़ा ही।

इन पत्रों के प्रकाशन का निर्णय लेने में मैंने किसी से परामर्श नहीं किया। हाँ, यह तय किया कि इस प्रकाशन का निमित्त  और इससे मिलनेवाले यश का स्वामी ‘दशपुर दर्शन’ बने, ताकि उसकी आय और प्रसार में भी वृद्धि हो। एक सम्पादक यही तो चाहता है कि उसका अखबार अधिकाधिक लोगों तक पहुँचे, अधिकाधिक पढ़ा जाए! इस मोह को कुछ और बातों ने ताकत दी। जैसे कि  मैं एक अखबार का सम्पादक हूँ, मेरे मालिक के पास छापाखाना है। मेरा मालिक दादा का अभिन्न मित्र है। दोनों एक ही पार्टी के सक्रिय, अग्रणी कार्यकर्ता हैं। आदि-आदि।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जैसा मैंने सोचा था। ‘दशपुर दर्शन’ के माध्यम से इन पत्रों के प्रकाशन का निर्णय जब मैंने अपने मालिक श्री सौभाग भाई को बताया तो उन्होंने मंजूरी तो दी लेकिन साफ कह दिया कि इसके लिए वे कोई आर्थिक वजन नहीं उठाएँगे। इस प्रकाशन का खर्च मुझे ही जुटाना होगा। मेरे लिए यह अत्यन्त दुसाध्य काम था। लगभग असम्भव। विज्ञापन जुटाने का गुण मुझमें आज तक नहीं आ पाया। एक क्षण लगा कि यह विचार ही छोड़ हूँ। लेकिन एक जिद मन में उभर आई - ‘पत्र तो छपेंगे।’ तब तक तीन पत्र आ चुके थे।

मैंने अपने गुरु (अब स्वर्गीय) श्री हेमेन्द्र कुमारजी त्यागी और कई मित्रों से विस्तार से बात की। अपनी भावना और सौभाग भाई की बात बताई। सबने पत्रों को बार-बार पढ़ा। अकेले में भी और सामूहिक रूप से भी। सबने कहा - ‘पत्र छपने चाहिएँ। छपेंगे। आगे बढ़ा जाए। जो होगा, देखा जाएगा।’  

सौभाग भाई ने बजट बताया और हम सब शुरु हो गए।

तीन पत्र हमारे हाथ में थे। पत्रों से यह तो लग रहा था कि दादा और पत्र लिखेंगे जरूर। लेकिन ‘कितने पत्र लिखेंगे?’, ‘लिखेंगे तो हम तक कितने पहुँचेंगे?’, ‘कब पहुँचेंगे?’,  ‘बादवाला पत्र तो मिल गया लेकिन उससे पहलेवाला नहीं मिला तो क्या करेंगे?’ जैसे सवालों का जवाब हममें से किसी के पास नहीं था। लेकिन तय हो चुका था - छापना है। 

प्रकाशन का नामकरण करने में न तो समय लगा, न ही कठिनाई हुई। सब कुछ साफ था - ‘दादा ने लिखे हैं। बर्लिन से लिखे हैं। बब्बू को (मेरा, घर का नाम बब्बू ही है) लिखे हैं। इसके बाद क्या सोचना! यही नाम हो सकता है - बर्लिन से बब्बू को।’ 

अखबार में पहली घोषणा से ही पाठकों में मानो बिजली का करण्ट दौड़ गया। पाठकों ने जताया कि उन्हें हमसे अधिक उतावली थी। लेकिन हमें धैर्य बरतना था। ऐसे नितान्त व्यक्तिगत और आत्मपरक पत्रों में सम्पादन की सामान्यतः न तो आवश्यकता होती है और न ही कोई गुुंजाइश। लेकिन जब वैयक्तिकता सार्वजनिकता से जुड़ती है तो फिर सम्पादन की आवश्यकता स्वतः पैदा हो जाती है। हम सौभाग भाई की ‘पेढ़ी’ का उपयोग कर रहे थे। यह हमारी जिम्मेदारी थी कि उन्हें कोई खरोंच न आए। 

किताब का अन्तरवर्ती मुख पृष्ठ
ये पत्र जब पुस्तकाकार में आए तो सम्पादक मण्डल में चार नाम छपे - त्यागीजी, राजा दुबे, विजय बैरागी और मैं। लोगों ने कभी मजाक में तो कभी तंज कसते हुए पूछा - ‘इसमें सम्पादन जैसा क्या था जो इतने लोगों को मेहनत करनी पड़ी? चलो करनी पड़ी तो भी बैरागी दादा के लिखे का सम्पादन! आप चारों उनसे अधिक विद्वान् हो गए?’ हमारे पास न तब जवाब था न मेरे पास अब जवाब है। बस! इतना ही कह पा रहा हूँ कि हाँ, सम्पादन की जरूरत थी। दादा के मूल पत्रों में उप शीर्षक नहीं थे। उप शीर्षक देना तय हुआ। सारे उप शीर्षक राजा दुबे ने दिए। 

पत्र छपने शुरु हुए तो पूरे जिले में मानो कोई छोटा-मोटा लोकोत्सव शुरु हो गया हो। लोगों ने इन्हें हाथों-हाथ लिया। प्रशंसाभरे, उत्साहवर्द्धक पत्रों का ढेर लग गया। कुछ इतना कि एक दिन खुद पोस्ट मास्टर सा’ब आकर बता गए - ‘आपके पत्रों के लिए अलग से व्यवस्था करनी पड़ रही है।’ हमारी प्रसार संख्या में भी यथेष्ठ बढ़ोतरी हुई। 

हमने पूरी सुविचारित योजना बनाकर ये पत्र पाठकों तक पहुँचाए। अखबार के साथ 8×5.5 इंच के आठ पेज का एक पन्ना छापते थे जिसे मोड़कर पुस्तकाकार दिया जा सकता था। कोशिश रहती थी कि जैसे-जैसे विज्ञापन मिलते जाएँ, वैसे-वैसे पन्ने देते जाएँ। ऐसा किया भी। लेकिन विज्ञापनों की प्रतीक्षा में पन्ने रोके नहीं। जब तक पत्र हमारे हाथ में आते रहे, पन्ने बराबर जारी करते रहे। तब ट्रेडल मशीन पर अखबार छपता था और चित्रों के ब्लॉक इन्दौर से बनवाने पड़ते थे। लेकिन इन दोनों कारणों से प्रकाशन नहीं रुका। पाठकों को प्रतीक्षा तब ही करनी पड़ी जब डाक की गड़बड़ के कारण  हमें पत्र नहीं मिले। लेकिन सन्तोष की बात यह रही कि दादा के भेजे सारे सात पत्र हमें मिल गए। एक पत्र हमें दादा के भारत लौटने के बाद मिला।

पत्र प्रकाशन में व्यवधान पर पाठकों की अधीरता भरे पत्र हमें (इन पत्रों के प्रकाशन के) अपने निर्णय पर आत्मसन्तोष प्रदान करते रहे।

अन्ततः सारे पत्र प्रकाशित हुए। आवरण पृष्ठों सहित पूरी किताब 108 पृष्ठों की बनी। हमें पूरे पृष्ठ के अठारह, आधे पृष्ठ के चौदह और चौथाई पृष्ठ के तीन विज्ञापन मिले। फिर भी आर्थिक सन्दर्भों में यह घाटे का ही सौदा रहा। लेकिन इनके प्रकाशन से उपजा आत्म सन्तोष मेरे लिए आज भी अमूल्य है। किसी भी प्रकाशन की यह मेरी पहली इच्छा और कोशिश थी जो साकार हुई। दादा को छापने का निमित्त बनने के सुख-सन्तोष का मोल तो मेरी मृत्युपर्यन्त अकूत ही रहेगा। 

हमने इस प्रकाशन का कोई समारोह नहीं किया। घर-घर में, पाठकों ने ही पुस्तक तैयार कर ली थी। हमने अपने लिए अतिरिक्त प्रतियाँ छपवाई थीं। अखबारी कागजवाली प्रतियाँ ज्यादा थीं। कुछ प्रतियाँ अच्छे, सफेद कागज पर थीं। यूँ तो हमने एक प्रति का मूल्य बीस रुपये रखा था लेकिन एक भी प्रति नहीं बिकी। सब मुफ्त में ही बँटी। कुछ इस तरह कि अच्छे, सफेद कागज पर छपी एक भी प्रति हमारे परिवार में ही उपलब्ध नहीं है। पुस्तक में प्रकाशित चित्रों को मैं ब्लॉग पर भी देना चाहता था लेकिन अखबारी कागजवाली प्रति पर छपे चित्रों में शकलें ही नजर नहीं आ रहीं। अच्छे, सफेद कागजवाली प्रति की तलाश खूब की। फेस बुक पर भी माँगी। लेकिन अब तक नहीं मिली। फिर भी, अखबारी कागज पर छपे तीन चित्र ऐसे मिल गए हैं जिनमें शकलें पहचान में आती हैं और जिन्हें कम खराब’ कहा जा सकता है। पुणेवाले डॉक्टर रतनलालजी सोनग्रा ने कहा है कि दादा ने इसकी एक प्रति उन्हें दी थी। वे उसे तलाश करेंगे। मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा हूँ उन्हें यह प्रति मिल जाए और यह प्रति अखबारी कागजवाली नहीं, अच्छे, सफेद कागजवाली हो। 

दादा के लोक सभा सदस्यतावाले काल में किसी प्रकाशक ने यह किताब ‘एक बैरागी बर्लिन में’ शीर्षक से छापी थी। लेकिन उसमें चित्र नहीं थे।

इन पत्रों को ब्लॉग पर प्रकाशित करने की तैयारी सितम्बर 2009 में ही हो गई थी। सबसे बड़ा काम था टाइपिंग का। भाई श्री पुरुषोत्तम लोहाना, सितम्बर 2009 में ही यह विकट काम कर चुके थे। उन्होंने अपना पारिश्रमिक भी अब तक नहीं लिया है। मैं चित्रों के मोह में उलझा रहा। खूब हाथ-पैर मारे। पर असफल ही रहा। कुछ तो कोशिशों के बाद की प्रतीक्षा, कुछ इधर-उधर और टटोलने का जतन और कुछ आलस्य। इन सबके चलते ब्लॉग पर प्रकाशन टलता रहा। दादा से जब भी बात की, उन्होंने सदैव ही निर्लिप्त भाव से कहा - ‘तू जाने और तेरा काम।’ लेकिन उनके जाने के बाद इन्हें ब्लॉग पर देते समय मेरे आँसू थम नहीं रहे। दादा इन्हें मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित देखते तो उन्हें अतिरिक्त प्रसन्नता ही होती और खूब होती। वे यकीनन बच्चों की तरह खुश होते। लेकिन उनकी यह खुशी मेरे भाग्य में नहीं रही। मैंने ही खुद से छीनी।

इन्हें पढ़ने से पहले कुछ बातों पर यदि ध्यान देंगे तो बड़ी कृपा होगी।

1975 से लेकर अब तक अन्तरराष्ट्रीय राजनीति और दशा में बदलाव आ गया है। तब जर्मनी विभाजित तथा। आज एक है। वहाँ की उस समय की राजनीतिक विचारधारा, आर्थिक, सामाजिक नीतियाँ बदल गई हैं। ऐसे में इन पत्रों को किसी देश के आन्तरिक और/या अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के सन्दर्भों से जोड़ना समीचीन नहीं होगा। इन्हें लेखकीय  और पाठकीय दृष्टि से देखते हुए इनका आनन्द लेना बेहतर होगा। यात्रा के दौरान किसी देश के बारे में जानना, उसके नागरिकों, उसकी सामाजिकता, अपने देश के प्रति नागरिकों की भावना, वहाँ के मजदूर-किसान, उनका आचरण, महिलाओं, बच्चों, बूढ़ों के साथ किया जानेवाला व्यवहार, वहाँ के जीवन मूल्य जैसे अनगिनत कारकों को टटोलना आदि बातें इन पत्रों की दर्शनीयता है। दो देशों के बीच सेतु का काम करनेवाले मैत्री संघों के कामकाज में दोनों देशों की राजनीतिक विचारधारा मुख्य आधार होती है। प्रतिनिधि मण्डलों के सदस्यों का चयन भी इन्हीं आधारों पर होता ही है। लेकिन जब कोई सदस्य कलमकार भी हो तब उसकी नजर और उसकी अभिव्यक्ति में सामंजस्य बैठाना चुनौती बन जाता है। कलमकार को केवल वही नहीं दिखता जो उसे दिखाया जाता है। जो उससे छुपाया जाता है, राजनयिक शिष्टाचार और सीमाएँ निभाते हुए वही सब उजागर करने का कौशल उसे बरतना पड़ता है। ये पत्र दादा की राजनीति और कलम की बेहतरीन जुगलबन्दी का बेहतरीन नमूना है - ऐसा मुझे तब भी लगता था और अब भी लग रहा है। 

इन पत्रों का आनन्द लेने के लिए या तो इनके काल में ठहरना पड़ेगा या फिर उसे साथ बनाए रखना पड़ेगा। वर्तमान से उनकी मुठभे शायद ‘बासमती भात में कंकर’ की स्थिति बना दे।

इस सबसे हटकर और इस सबसे पहले इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि अपने पूर्वनिर्धारित अति व्यस्त कार्यक्रम के बीच दादा ने ये पत्र कितनी कठिनाई, कितने परिश्रम से लिखे होंगे? इसके लिए उन्होंने अपनी, आहार-निद्रा जैसी दैनन्दिन चर्या के समय में ही कटौती की होगी। उनके लिखे वे मूल पत्र मेरे पास नहीं हैं। लेकिन एक भी पत्र में काटा-पीटी या ‘ओव्हर राइटिंग’ नहीं थी। दादा कभी भी ‘नोट्स’ बनाकर नहीं लिखते थे। ऐसे में बरबस ही यह बात मन में आती है कि लिखने से पहले किस तरह उन्होंने कागज से पहले ये पत्र अपने मन में लिखें होंगे? आज की पीढ़ी तो हाथों से इतना लिखने की कल्पना भी नहीं कर सकगी। भाई लोहानाजी ने एमएस वर्ड डाक्यूमेण्ट की, 65 पृष्ठों की जो फाइल मुझे दी है वह 25,423 शब्दों की, 23,08,760 केबी की है। 

ब्लॉग पर देते समय मैंने भी कुछ बदलाव किए हैं। पुस्तक में दिए सारे गीत हटा दिए हैं। ऐसा करना, इनकी पठनीयता में कहीं भी बाधक नहीं बना। दो वाक्य हटा दिए हैं। हमारे कुटुम्ब में, सर्वाधिक मानसिक तादात्म्य हम दोनों भाइयों में ही था। यह बात दादा खुद ही कहते थे। उसी आधार पर कह पा रहा हूँ कि मेरे इस दुस्साहसिक हस्तक्षेप पर दादा को कोई आपत्ति नहीं होती। इसके अतिरिक्त मैंने ‘प्रजातन्त्र’ को ‘लोकतन्त्र’ से विस्थापित कर दिया है। मेरा मानना है कि ‘प्रजा’ के आते ही ‘राजा’ अपने आप ही चला आता है। हम गणतान्त्रिक लोकतन्त्र में जी रहे हैं। राजा और प्रजा शब्द मुझे अवमाननाकारक लगते हैं। विश्वास करता हूँ कि मेरे इस हस्तक्षेप को पाठकों का भी स्वीकार मिलेगा।

इतना कुछ कहने के बाद भी लग रहा है कि काफी-कुछ कहना बाकी है। लेकिन अभी इतना ही। बस।

कल से  इन पत्रों को पढ़ि‍ए।
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‘बर्लिन से बब्बू को’ के कृपालु विज्ञापनदाता - 1. माइक्रो केमिकल्स (इण्डिया), मन्दसौर 2. संजय प्रिण्टर्स, मन्दसौर 3. पगारिया इंजीनीयर्स, नारायण गढ़ 4. अन्नपूर्णा टाकीज, मनासा 5. ठेकेदार किशन भाई वर्मा, नीमच 6. सन्तोषमल राजमल खाबिया मनासा/रामपुरा 7. रुलियामल लालचन्द अग्रवाल, नीमच 8. नरेन्द्र कुमार अग्रवाल एण्ड ब्रदर्स, पीपल्या मण्डी 9. रामगोपाल आशाराम मन्त्री, माहेश्वरी पूड़ी भण्डार, श्री राम लघु उद्योग, मनासा 10. दिलीप कुमार चिमनलाल बधवा, मनासा 11. दी जीवाजीराव शुगर कं. लि. दलौदा 12. ग्रामीण सेवा सहकारी समिति मर्या. चंदवासा 13. प्रकाशचन्द्र माँगीलाल हींगड़, सूरजमल बापूलाल हींगड़, मनासा 14. लक्ष्मी रेडियो एण्ड इलेक्ट्रिक कं., मनासा 15. दलित वर्ग संघ, मनासा 16. गाईड टेलर्स, मनासा 17. दुरग पुस्तकालय, मनासा 18. संकल्प (उदीयमान साहित्यकारों की संस्था), मनासा 18. प्रेस क्लब, मन्दसौर 19. नारायण एजेन्सीज, मन्दसौर 20. जीवनदास तुलसीराम पंजाबी, श्री लालजी बस सर्विस, मनासा 21. युवक काँग्रेस, बरखेड़ा राठौर (शामगढ़) 22. बटवाल ब्रदर्स, पीपल्या मण्डी 23. रमेशचन्द्र महेशचन्द्र अग्रवाल, मन्दसौर 24. बापूलाल जिनेन्द्रकुमार मानावत, जिनेन्द्रकुमार रमेशचन्द्र मानावत, मनासा 25. भवानीलाल नन्दलाल पामेचा, विजय ट्रेडिंग कं. मनासा, पामेचा वस्त्र भण्डार, पीपल्या मण्डी 26. भारत वॉच सर्विस, मनासा 27. अजीतकुमार बम्ब एण्ड कं., मनासा 28. मुस्लिम अंजुमन कमेटी, मनासा 29. सुरेश इलेक्ट्रिकल इण्डस्ट्रीज, नीमच 30. बीस सूत्री आर्थिक सहायता परिवार सहायक संस्था, मनासा 31. बंशीलाल धनोत्या एडव्होकेट, रतनलाल बम्ब एडव्होकेट, जिनेन्द्रकुमार मानावत, मनासा 32. राजस्थान खांडसारी शुगर मिल्स, माँडल (भालवाड़ा) 33. बापूलाल केशरीमल एण्ड कं., मनासा 34. विश्वनाथ राठी, एडव्होकेट, राठी इंजीनियर्स, मनासा 35. जय अम्बे इलेक्ट्रिक मोटर रिवाईण्डर्स, भाटखेड़ी (मनासा)


बर्लिन से बब्‍बू को - पहला पत्र : पहला हिस्‍सा 

यह पत्र और इन पत्रों की भूमिका, इण्टरनेट पर सर्वाधिक प्रसारित,लोकप्रिय व 
समृद्ध ई-पत्रिका ‘रचनाकार’ने भी प्रकाशित की है। इसे  यहाँ पढ़ा जा सकता है।



5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-06-2018) को "मन मत करो उदास" (चर्चा अंक-3013) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद। आभारी। हूँ।

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - विश्वनाथ प्रताप सिंह और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद। कृपा है आपकी।

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  3. आपका श्रम कितने लोगों के काम आया। आशा करता हूँ कि चित्रों की खोज सफल होगी।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.