...तो फिर तो दूल्हा भिखारी हुआ?


‘आप जैसे हो वैसे के वैसे चले आइए। फौरन। मैंने अभी-अभी दादा का वो व्यवहार का पंचशील वाला ब्लॉग पढ़ा है। मेरे पास भी आपको सुनाने के लिए वैसी ही जोरदार बात है। दादा की ही। आप चले आओ। मैं आपही राह देख रहा हूँ।’ उधर से सुभाष भाई बोल रहे थे। उन्होंने मेरे लिए बोलने को कुछ रखा ही नहीं। सब कुछ तय कर चुके थे। मुझे जाना ही था।




सुभाष भाई रतलाम के, गिनती के उन लोगों में हैं जिन्हें मैं अपना संरक्षक मानता हूँ। उनकी कई बातों से मैं दुःखी होने की सीमा तक असहमत हूँ और वे भी मुझसे इतने ही दुःखी हैं। हम लोग आपस में खूब बहस, तर्क-वितर्क करते हैं। बात-बात पर असहमत होते हैं। और हर बार ‘तो तय रहा कि अपन असहमत हैं।’ वाले निष्कर्ष के साथ विदा लेते हैं। मैं पहुँचा तो देखा, वे और मंजुला भाभी कहीं बाहर जाने के लिए तैयार बैठे हैं। केवल मेरी प्रतीक्षा में रुके हुए हैं। 

आज उन्होंने कोई मनुहार नहीं की। अन्यथा, उनकी मनुहार ‘प्राणलेवा’ होती है। कभी किसी काम से उनके मोहल्ले में जाता हूँ तब, और कभी-कभी, बिना किसी बात, बिना किसी काम के उनसे मिलने का जी करता है तो मन को डाँट-फटकार कर रोक लेता हूँ। अब तक समझ नहीं पाया कि मेरे लिए अधिक कठिन क्या है - उनकी मनुहार को नकारना या उनकी मनुहार (न तो आवश्यकता हो और न ही पेट अनुमति दे रहा हो तब भी) मान लेना? मैं अनगिनत बार कह चुका हूँ - ‘आपकी, खाने-पीने की मनुहार से मुझे बहुत ही तकलीफ होती है। मत किया कीजिए।’ वे अनिच्छापूर्वक हाँ तो भर लेते हैं लेकिन अगली ही बार अपनी हाँ भूल जाते हैं। लेकिन आज मेरे मन की हो गई। उनके, कहीं और जाने की जल्दी ने मनुहार को सर ही नहीं उठाने दिया। 

मैं कुछ पूछूँ उससे पहले खुद ही बोले - “आपके छोटे बेटे तथागत की शादी में दादा से खूब सारी बातें करने मौका मिला। कोई घण्टा-सवा घण्टा उनके पास बैठा। वो तो अपनी ओर से नहीं बोले। लेकिन मेरी बातों के जवाब में बहुत बातें कहीं। उन्हीं मे से एक बात वह है जो उनके पंचशील के बराबर है। उसीके लिए आपको बुलाया।

“शादी की परम्पराओं की बात करते-करते ‘कन्यादान’ की बात आ गई। उनके चेहरे से लगा कि यह शब्द सुनकर ही उन्हें गुस्सा आ गया। तीखे तो नहीं बोले लेकिन नाराजी उनकी आवाज से साफ लग रही थी। बोले - “यह शब्द किसी गाली से कम नहीं है। यह शब्द हमारी, हँसती-खिलखिलाती बेटियों को निर्जीव वस्तु बनाकर रख देता है। यह शब्द हम पिताओं को, सारे पुरुषों को निर्दयी, निर्मम और क्रूर बना देता है। अरे! बेटी भी भला दान की जा सकती है? एक ओर तो हम बेटी को ‘पेट की आँत’ कहते हैं और दूसरी ओर ‘कन्यादान’ की बात करते हैं। हम कभी अपने पेट की आँत को किसी को दान में देते हैं?”

“दादा का गुस्सा साफ नजर आ रहा था। उनसे क्या कहता? क्या जवाब देता? चुपचाप उनका मुँह देखता रहा। वो आगे बोले - ‘कुछ भी बोलने से पहले हम सोचते भी नहीं। अरे! अगर लड़की को दान दे रहे हो वो जो घोड़ी पर बैठा तुम्हारे दरवाजे पर खड़ा है वो भिखारी है? वो क्या दान लेने के लिए मँगते की तरह तुम्हारे दरवाजे पर खड़ा है? जब हम अपनी बेटी का हाथ किसी के हाथ में देते हैं तो कहते हैं कि हमने बेटी देकर बेटा लिया। लेकिन यहाँ तो हमने बेटी देकर भिखारी, मँगता ले लिया! क्या हम किसी भिखारी को अपनी बेटी सौंप रहे हैं?’

सुभाष भाई बोले - “दादा की बात मुझे सौ टंच सही लगी। मैंने भी बेटी ब्याही है। मैंने भी कन्यादान किया है। लेकिन तब तो ऐसी कोई बात मेरे दिमाग में आई ही नहीं। आती भी कैसे? दादा से मुलाकात और यह बात तो अब हुई। बेटी के ब्याह के दो बरस बाद। यदि पहले दादा से यह सुन लेता तो कह नहीं सकता कि तब क्या करता लेकिन उस समय यह बात कानों में बराबर गूँजती रहती। 

“हम सब ठोक-बजाकर, सारा आगा-पीछा देखकर बेटी का रिश्ता तय करते हैं। बेटी को दान में तो नहीं देते। दान देने के बाद तो उस वस्तु पर हमारा न तो कोई हक रह जाता है न ही उससे हमारा कोई नाता-रिश्ता। लेकिन बेटी से हमारा नाता-रिश्ता जिन्दगी भर बना रहता है। उस पर हमारा हक भी बना रहता है और ब्याह के बाद वह हमारी जिम्मेदारी भी बनी रहती है। हम देख रहे हैं कि दुःख में बेटियाँ दौड़-दौड़ कर आती हैं और माँ बन कर अपने माँ-बाप की सेवा करती हैं। इसलिए दादा की यह बात तो सही है कि  बेटी को ब्याहते समय कन्यादान वाली बात पर हम सबको फिर से सोचना चाहिए। जमाना बदल रहा है। बदल गया है।  बेटियाँ भी अब अपना भला-बुरा खुद सोच रही हैं। अपने फैसले खुद ही ले रही हैं। उन्हें इस काबिल हम ही बनाते हैं। ऐसे में कन्यादान की बात अब सच्ची में गले नहीं उतरती।”

मेरे पास तो कहने के लिए कुछ था ही नहीं। वैसे भी मैं सुनने के लिए ही आया था। चुपचाप सुन लिया - सुभाष भाई से (और दादा से भी) सहमत होते हुए। 

सुभाष भाई के यहाँ से जब भी लौटता हूँ तो, भले ही उनका घर हो या दफ्तर, एक झटके में उठ कर नहीं आ पाता। दरवाजे पर दो-एक मिनिट रुक कर, बात कर ही लौट पाता हूँ। लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ। मैं उठता, उससे पहले वे और मंजुला भाभी उठ खड़े हुए। आज मुझसे पहले उन्हें जाना था। आज पहले वे निकले। उनके पीछे-पीछे मैं।

सुभाष भाई से मिली दादा की यह बात दादा का चिह्नित किया एक और शील है। मुझे लग रहा है कि दादा के ऐसे कुछ और शील मुझे मिलेंगे। सुभाष भाई जैसे ही अन्य श्रोताओं से।
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3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-06-2018) को "तुलसी अदालत में है " (चर्चा अंक-3017) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत-बहुत धन्यवाद।

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  3. कन्यादान शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई,यह खोज का विषय होना चाहिये । उस समय दादा जितनी गहराई से किसी ने न सोचा होगा ।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.