बहुत मँहगा है पूर्वी जर्मनी

'बर्लिन से बब्‍बू को' : पहला पत्र - तीसरा हिस्सा

एक प्राकृतिक विरोधाभास है यहाँ की धरती पर। यहाँ मिट्टी तो है पर धूल नहीं। न कोई गर्द और न कोई गुबार। कपड़े झाड़ने या झटकने की नौबत ही नहीं। जूतों पर ब्रश मार लो। पालिश बेशक 15 दिन में करो। धूप का तो प्रश्न ही त्यौहार की तरह पैदा होता है। पसीना कारखानों में बहता है। सामान्य दिनचर्या में नहीं। सूरज निकल आये तो लोग पुलकित हो उठते हैं। हमेशा बदराया मौसम रहता है।

दायें से चलिये

ट्राफिक नियम बिलकुल उलटे हैं। यहाँ बाँयें चलो वाली स्थिति नहीं है। सदा दायें चलो, कीप राईट। हम लोगों की आदत है बाँये चलने की। हमसे सड़कों पर झुण्ड के झुण्ड टकरा जाते हैं। कारें, बसें, ट्रामें सब दाहिने चलते हैं। फुटपाथों पर भी यही नियम लागू होता है। सड़कों पर पगडण्डी वाली प्रथा यहाँ कतई नहीं होती। आपको सड़क पार करनी है तो वहीं से कर सकेंगे जहाँ उसे पार करने के निशान बने हुए हैं। हम जिस तरह से कन्धे और शरीर रगड़ कर कहीं से भी रास्ता बना लेते हैं वैसा यहाँ असम्भव है। एक ही उदाहरण इसका पर्याप्त है। हमारे सहयात्री श्री शर्मा की नींद रात को कोई 3.30 बजे खुली। वे कमरे की खिड़की में खड़े हो गये। देखा कि दो कारें ट्राफिक के सिगनल पर खड़ी हैं। सारी सड़क सुनसान थी, पर सिगनल पर लाल बत्ती जल रही थी। जब तक हरी बत्ती नहीं जली, वे कारें वहीं खड़ी रहीं। सिगनल मिलते ही चल दी। अनुशासन का चरम होता है ऐसा क्षण। मेरे पाठक इस बात को गप मानेंगे। पर यह सच है कि इस देश में अभी तक हम लोगों ने एक भी कार या बस का हार्न नहीं सुना। कोई हार्न नहीं बजाता। 60-70 किलोमीटर फी घण्टे से कम कोई कार या बस चल ही नहीं सकती। हार्न का प्रयोग बहुत ही अधिक इमर्जेन्सी हो तो किया जाता है। हार्न की बात तो दूर रही पर रोस्तोक जैसे दो लाख की आबादी वाले शहर में कोई कुत्ता भौंकता नहीं सुना। कभी पशु की आवाज नहीं सुनी और न कहीं कोई हाथापाई, गाली-गलौच या कहासुनी का दृष्य ही देखा। अनुशासन के दूसरे उदाहरण हैं होटल और रेस्तराँ। भीतर जब तक कुर्सी खाली नहीं होती, लोग बाहर क्यू बनाए खड़े रहते हैं। कोई उतावलापन नहीं, कोई भीड़ वाली धक्का-मुक्की नहीं, कोई बेसब्री नहीं।

मुझे नाई बनना पड़ा

दिनचर्या हमारी बहुत टाईट है। सुबह 7 बजे से रात 10.30 बजे तक बराबर व्यस्त रहता है पूरा दल। जिन लोगों को बिस्तर में बड़े सबेरे चाय पीने की आदत भारत में थी वे यहाँ एक ही दिन में सुधर गये। कोई बेड टी यहाँ नहीं मिलती। नाश्ता भयंकर मिलता है। शाकाहारी और सामिष दोनों ही तरह के नाश्ता एवम् भोजन की व्यवस्था है। मक्खन, शहद, चीज, पनीर, दूध, दही और फल इतने शुद्ध, ताजा और स्वादिष्ट होते हैं कि बयान नहीं किया जा सकता। शाकाहारी लोगों को असुविधा अवश्य हो जाती है पर वैसी कोई बात नहीं है कि ‘अब क्या होगा?’ बीयर और शराब पानी के बदले पी जाती है। जो मेरी तरह बीयर और शराब भी नहीं लेते, उनके लिये फलों का रस मटके भर-भर कर मिल जाता है। पर जीवस्तर मँहगा और बहुत ऊँचा है। चाय यहाँ भारत और श्रीलंका से आती है। काफी बहुत पी जाती है। काफी का एक प्याला भारतीय हिसाब से 12 रुपयों से कम का नहीं होता। हमारा 3.75 रुपया या 4 रुपये यहाँ के एक मार्क के बराबर होते हैं। यदि मेरे नाश्ते का हिसाब लगाया जाय तो मैं प्रतिदिन सुबह नाश्ता में कोई 30 या 40 भारतीय रुपये तक खा जाता हूँ। दोपहर का भोजन अलग। शाम की चाय पीने का कोई रिवाज नहीं है। रात का खाना फिर भयंकर। खातिरदारी इतनी होती है कि खाते-खाते आदमी थक जाता है। मेरा अनुमान है कि हमारा हर एक सदस्य (शाकाहारी) प्रतिदिन कम से कम 100 रुपये तो खा ही जाता होगा। होटल के कमरे का किराया अलग। हाँ, धोबी या लाण्ड्री का नाम तक लेने की हिम्मत नहीं होती हमारी। एक कुरता, पायजामा धुलाकर लोहा (इस्तरी/प्रेस) करवाने का मतलब है 50-60 रुपये लग जाना। प्रवास में मैं अपने चड्डी बनियान खुद धोया करता हूँ। वह आदत यहाँ वरदान हो गई। कपड़े दो दिन तक सामान्यतया नहीं सूख पाते। एक दिन सोचा कि कटिंग बनवा लूँ। सैलून में पूछा तो ज्ञात हुआ कि बाल बनवाने पर भारतीय 30 रुपये खर्च हो जायेगा। मैं खुद ही अपने बाथरूम में कैंची-कंघा लेकर अपनी कटिंग बनाने पर जुट गया और हमारे मित्र देखते रह गये कि मैंने अपने बाल आराम से बना लिये। आदमी जब खुद बूट पालिश करके मोची नहीं हो जाता, तो अपने बाल बना लेने से नाई किस तरह हो जायेगा? खुद के कपड़े धोने से कौन धोबी हो जाता है?

पहला पत्र: चौथा हिस्सा निरन्‍तर




‘बर्लिन से बब्बू को’ - पहला पत्र: दूसरा हिस्सा यहाँ पढ़िए

‘बर्लिन से बब्बू को’ - पहला पत्र: चौथा हिस्सा यहाँ पढ़िए।


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