बापू कथा: चौथी शाम (12 अगस्त 2008)


आज नारायण भाई बहुत सतर्क होकर बोले । सारे प्रसंग थे ही ऐसे । बापू के चर्चित मतभेदों में से तीन पर उन्होंने काफी कुछ कहा लेकिन सर्वाधिक विस्तार दिया डाक्टर भीमराव अम्बेडकर से हुए मतभेद-प्रकरण को । आजादी के 61 वर्ष पूरे होते समय भी, अगड़ों-पिछड़ों, दलितों-सवर्णों की समस्या का लगभग जस का तस रहना ही इसका कारण रहा होगा । सुभाष-गांधी मतभेद प्रकरण पर उससे कम और भगतसिंह प्रकरण पर सबसे कम बोले । लेकिन शुरुआत की उन्होंने ‘सत्याग्रह‘ के तात्विक विवेचन से ।

नारायण भाई के मुताबिक सत्याग्रह में पे्रम की ताकत, आत्मा की ताकत और स्वैच्छिक कष्ट सहन करने की ताकत जैसे तीन प्रबल तत्व निहित हैं । प्रेम सदैव ही देने की चीज होती है, लेने की नहीं । ‘अंग्रेजों ! भारत छोड़ो’ के नारे में भी अंगे्रजों के प्रति पे्रम था । उन्होंने अंग्रेजों को कहा था कि जितना अधिक समय आप भारत में रहेंगे उतना ही अधिक आपका नुकसान होगा क्योंकि आपकी नैतिक प्रतिष्ठा जनमानस में दिन-प्रति-दिन कम होती जाएगी । नुकसान में कमी होना भी लाभ ही होता है । इसलिए आपका हित इसी में है कि आप जल्दी से जल्दी भारत छोड़ दें । देश्‍ को अंग्रेजों से मुक्त कराने में भी बापू ने अंग्रेजों के हितों की यह चिन्ता इसी प्रेम भाव के अधीन की ।

प्रेम, वेदना का वाहक है जिसे आत्मा की ताकत के दम पर ही सहन कर, साधक बना जा सकता है । आत्मा सबमें समान रूप से विद्यमान होती है । इसी कारण, एक की पीड़ा दूसरे की आत्मा तक पहुंचती है ।स्वैच्छिक कष्ट सहन (वालण्टरी सफरिंग) के विचार को पश्चिम के लोगों ने ‘नकारात्मक’ (निगेटिव) माना क्योंकि वहां तो सारे उपक्रम ही ‘सफरिंग’ को समाप्त करने के लिए होते हैं । ऐसे में भला ‘सफरिंग’ को स्वैच्छिक रूप से कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? लेकिन बापू के अनुसार - यह ताकत होती है, ‘आपको कष्ट न देते हुए मैं अपनी वेदना आप तक पहुंचा रहा हूं’ की अनुभूति कराने की ताकत।

‘सत्याग्रह’ को नारायण भाई ने ‘सामाजिक क्रान्ति या परिवर्तन के लिए प्रेरक तत्व’ कहा जो ‘मानवता को गांधी की अनुपम देन’ है । नारायण भाई ने इसे ‘गांधी की देन’ कहा । कुछ लोग इसे ‘गांधी की खोज’ कहते हैं जो उचित नहीं है । नारायण भाई के मुताबिक, यह (सत्याग्रह) तो समाज में पहले से ही विद्यमान था लेकिन इससे परिचित कोई नहीं था । गांधी ने तो इसे केवल व्यक्त किया । परिवर्तन के लिए इससे पहले तक दो ही पे्ररक तत्व थे -‘लोभ’ और ‘भय’ ।

मतभेद और गांधी

79 वर्ष का दीर्घ जीवन और उसमें भी अन्तिम 50 वर्ष अत्यन्त सक्रियता वाले । इतने लम्बे समय में मतभेद तो होंगे ही और हुए भी । लेकिन गांधी ने ‘मतभेद’ को कभी भी ‘मनभेद’ में बदलने नहीं दिया । इस बिन्दु पर गांधी की मानसिकता एक प्रसंग से नारायण भाई ने रेखांकित की । ईसाई समुदाय की एक महिला ने कहा - ‘बापू ! आपने ईसा के तीन सन्देशों को अपनाया है ।’ बापू ने पूछा - ‘कौन-कौन से ?’ महिला ने कहा - ‘परस्पर प्यार करो, पड़ौसी से प्यार करो और दुश्‍मन को प्यार करो ।’ बापू ने कहा - ‘तब तो मैं ने ईसा के तीनों सन्देशों को नहीं अपनाया ।’ महिला ने जिज्ञासा भरी नजरों से देखा । बापू ने कहा -‘परस्पर प्यार करो और पड़ौसी से प्यार करो वाले सन्देश तो मैं जानता हूं लेकिन दुश्‍मन को कैसे प्यार करूं ? मैं तो किसी दुश्‍मन को जानता ही नहीं !’ नारायण भाई ने कहा - ‘बापू का किसी से मनभेद न होने का रहस्य इसी सूत्र में है ।’



मतभेद और मनभेद को लेकर नारायण भाई ने एक रोचक प्रसंग और सुनाया । तब, 1922 में बापू को पहली बार लम्बी (6 माह की) जेल हुई थी और उन्हें यरवदा जेल में रखा गया था । उन्हें अपेण्डीसाइटिस हो गया जो उस समय प्राणलेवा रोग माना जाता था । उसके लिए आपरेशन किया जाना था । तब के कानूनों के मुताबिक अस्पताल का सिविल सर्जन ही जेल प्रभारी होता था । उसने कहा - ‘आपरेशन करना पड़ेगा । अपने रिश्तेदारों, नजदीकी लोगों को बुला लो । लेकिन समय बहुत कम है ।’ जाहिर था कि ‘बा’ को साबरमती से पूना बुला पाने का समय नहीं था । तब डाक्टर ने सुझाव दिया कि बम्बई, पूना में यदि कोई हो तो उन्हें बुला लो । बापू बोले - ‘पूना में मेरे तीन नजदीकी लोग हैं । मैं उनके नाम देता हूं । उन्हें बुला लें ।’ उन्होंने पहला नाम लिया नरसिंह चिन्तामण केलकरजी का जिनसे बापू के राजनीति मतभेद सारा देश जानता था । दूसरा नाम लिया श्रीनिवासजी शास्त्री का जिनसे बापू के प्रबल वैचारिक मतभेद थे । तीसरा नाम उन्होंने बताया, खादी भण्डार के सेवक का । लेकिन वे उसका पूरा नाम नहीं जानते थे । केवल पहला नाम बता पाए - हरि ।


हरि को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि बापू ने उसे अपने नजदीकी लोगों में शामिल किया है । उसने कहा कि बापू ने कोई और ‘हरि‘ बताया होगा क्यों कि बापू से उसका घनिष्ठ तो क्या नाम मात्र का भी सम्बन्ध कभी नहीं रहा । लेकिन बापू ने नाम तो उसी का बताया था ।

आपरेशन सम्पन्न होने के बाद केलकरजी और शास्त्रीजी ने अपने अलग-अलग लेखों में इस घटना का वर्णन किया और अत्यन्त विस्मयपूर्वक लिखा - ‘इस आदमी ने हम पर इतना विश्वास जताया !’

अम्बेडकर-गांधी मतभेद

इन दोनों युग-पुरुषों के मतभेदों को लेकर लोगों ने दोनों को एक दूसरे का दुश्मन साबित करने के जिए क्या-क्या नहीं कहा और क्या-क्या नहीं लिखा । लेकिन हकीकत उस सबसे कोसों दूर थी । नारायण भाई ने इस विषय पर एकाधिक प्रसंगों के रोचक संस्मरण सुनाए ।

1931 की गोल मेज परिषद की बैठक । गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे - अम्बेडकर और गांधी । गांधी का एक ही एजेण्डा था - स्वराज । उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी । अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी । वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनि”िचत करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे । परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई । अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं । उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है ।

बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया । उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । इसी क्रम में उन्होंने यह कहकर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी । सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे । सो, सबको अब गांधी के भा’षण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।



गांधी उठे । उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया - ‘थैंक् यू सर ।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए । बैठक समाप्त हो गई । इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया ।



बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते तो भी मुझे अचरज नहीं होता ।’

गोल मेज परिषद् की इस बैठक से बापू बम्बई लौटे तो उनके स्वागत के लिए बन्दरगाह पर दो लाख लोग एकत्रित थे । तब एक अंग्रेज ने कहा - किसी पराजित सेनापति का ऐसा स्वागत कहीं नहीं हुआ । बैठक की परिणति पर पत्रकारों ने बापू से प्रतिक्रिया चाही तो बापू ने कहा - ‘खाली हाथों लौटा हूं, मैले हाथों नहीं ।’


दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मण्डलों का निर्णय प्रधानमन्त्री पर छोड़े जाने की घोषणा पर बापू ने तत्काल कहा - वे मेरे शव पर ही ऐसा कर सकेंगे ।

उस दिन सोमवार था जो बापू के मौन का दिन होता था और शाम की प्रार्थना के बाद बापू का लिखा हुआ भाषण पढ़ा जाता था । प्रार्थना के बाद सुशीला बहन ने भाषण पढ़ना शुरु किया तो पढ़ते-पढ़ते ही मालूम हुआ कि उस दोपहर से बापू ने अपना उपवास शुरु कर दिया है । नारायण भाई ने कहा - बापू ने अपने जीवनकाल में 30 बार उपास किए लेकिन यह पहला उपवास था जिसकी घोषणा वे 6 माह पहले ही कर चुके थे ।

अनशन का समाचार फैलते ही पहली ‘हरकत’ हुई कि देश भर के प्रमुख हिन्दू मन्दिरों के दरवाजे, दलितों के लिए खुलने लगे । बापू का अनशन समाप्त हुआ तो अम्बेडकर उनसे मिलने पहुंचे और कहा - ‘बापू ! आप हमारा विरोध तो कर रहे हैं लेकिन हमें दे क्या रहे हैं ?’ जवाब देने से पहले बापू ने अम्बेडकर की इस बात के लिए विशेष प्रशंसा की कि और धन्यवाद दिया कि उन्होंने घुमा फिराकर बात करने के बजाय सीधे-सीधे अपनी बात कही । बापू ने कहा - 'आप जन्म से अस्पृश्य हैं और मैं स्वेच्छा से अस्पृश्य बना हूं ।’ बात का मर्म अनुभव कर अम्बेडकर ने कहा - ‘ये सारी बातें आप यदि गोल मेज बैठक में कह देते तो आपको, हम सबको इतना कष्ट नहीं देखना पड़ता ।’ बापू का उत्तर था - ‘तब अस्पृश्यता के विरोध का ऐसा वातावरण कैसे बनता ?’ और इसके बाद बापू ने कहा था कि केवल कानून बना लेने से कुछ नहीं होगा, सवर्ण समाज का दिमाग बदलना होगा ।


अम्बेडकर की चिन्ता थी कि जब तक बापू जीवित हैं तब तक तो ठीक है लेकिन बापू के न रहने के बाद क्या होगा ? इसलिए सुनिश्चित संवैधानिक व्यवस्था होनी ही चाहिए । उन्होंने मुसलमानों के लिए आरक्षित निर्वाचन मण्डलों का उदाहरण दिया (जो गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने से पहले ही किया जा चुका था) तो बापू ने पूछा - ‘मुसलमान तो आजीवन मुसलमान ही रहना चाहेंगे लेकिन क्या दलित भी आजीवन दलित ही रहना चाहेंगे ?’

जब सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों की बात आई तो अम्बेडकर ने 70 क्षेत्रों की मांग की । तब बापू ने कहा - इतने से काम नहीं चलेगा । जितनी आपने मांगी है, उसकी दुगुनी से एक अधिक याने 141 होनी चाहिए ।

इतने सारे उदाहरणों के बाद नारायण भाई ने कहा - अन्ततः डाक्टर अम्बेडकर ने कहा -‘बापू आपके साथी और चेले मुझे उतना नहीं समझते जितना आप समझते हैं । आप-हम ज्यादा नजदीक हैं ।’

नेहरू के मन्त्रि-मण्डल में अम्बेडकर


नेहरु अपने मन्त्रि-मण्डल के सदस्यों की सूची को अन्तिम रूप दे रहे थे तो संयोगवश बापू भी दिल्ली में ही थे । नेहरु ने अपनी सूची बापू के पास भेजी । बापू ने पूरी सूची देखी और सबसे अन्त में अपने हाथों से डाक्टर अम्बेडकर का नाम जोड़ दिया । नेहरु को आश्चर्य हुआ । उन्होंने कहा - ‘बापू ! अम्बेडकर ने आजीवन कांग्रेस का विरोध किया है और आपने उनका नाम मन्त्रियों की सूची में लिखा ?’ बापू ने प्रतिप्रश्न किया - ‘तुम भारत की सरकार बना रहे हो या कांग्रेस की ?’ और सारी दुनिया ने डाक्टर अम्बेडकर को स्वाधीन भारत के प्रथम कानून मन्त्री के रूप में देखा ।

सम्विधान सभा के सभापति अम्बेडकर

सम्विधान सभा के गठन की तैयारियां चल रहीं थीं । बापू ने नेहरु से इस बाबत जानना चाहा । नेहरु ने बताया कि किसी विदेशी विशेष‍ज्ञ की सेवाएं लेने के लिए पत्राचार चल रहा है । यह विशेषज्ञ कोई अंग्रेज था । बापू ने पूछा - ‘इस काम के लिए तुम्हें देश में कोई आदमी नहीं मिला ?’ नेहरु ने पूछा - ‘देश में कौन है ?’ ‘और कौन ? अपने अम्बेडकर हैं तो !’ बापू ने जवाब दिया । यह जवाब उसी ‘गांधी’ ने दिया था जिसके लिए अम्बेडकर ने गोल मेज परिषद् में कहा था कि गांधी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । और सारा पत्राचार स्थगित हो गया । डाक्टर भीमराव अम्बेडकर, सम्विधान सभा के सभापति बना दिए गए ।


अम्बेडकर-गांधी मतभेद प्रकरण के समापन में नारायण भाई ने बड़ा ही मार्मिक प्रसंग सुनाया जिससे अनुभव किया जा सकता था कि इन दोनों महामानवों के बीच कितनी आत्मीयता रही होगी ।


तब बापू का निधन हो चुका था । अखबारों का पुलिन्दा उठाए, अपने आप में मगन, प्यारेलालजी कनाट प्लेस में चले जा रहे थे । पीछे से आती एक कार उनसे लगभग टकराती हुई निकली । प्यारेलालजी भन्ना गए । लेकिन वे कुछ कहते उससे पहले ही कार रुकी । फाटक खोलकर अम्बेडकर उतरे । प्यारेलालजी को एक निमन्त्रण पत्र थमाया और कहा - ‘यह मेरे विवाह का निमन्त्रण है, आपको आना है ।’ फिर बोले - ‘आज बापू होते तो कितने खुश होते । वे मुझे और मेरी पत्नी को आशीर्वाद देने जरूर आते क्यों कि मेरी पत्नी सवर्ण है और बापू ने उन्हीं जोड़ो को आशीर्वाद देने का निर्णय लिया था जिनमें एक हरिजन और दूसरा सवर्ण हो ।’


सुभाष-गांधी मतभेद

इन दोनों के मतभेद जग जाहिर रहे । किसी ने किसी से कुछ भी नहीं छुपाया । आजादी की लड़ाई के साधनों की शुचिता पर दोनों में आधारभूत मतभेद थे । आजादी हासिल करने के लिए सुभाष को हिंसा और विदेशी सहायता से परहेज नहीं था जबकि गांधी इन दोनों के खिलाफ थे । सुभाष स्वभाव से ही उग्र और आतुर थे - उन्हें आजादी जल्दी से जल्दी चाहिए थी जबकि गांधी स्वभाव से शान्त तथा ‘व्यावहारिक आदर्शवादी’ (प्रेक्टिकल आयडियोलिस्ट) । गांधी का कहना था जिस देश की मदद से आजादी हासिल करोगे, उसके गुलाम बन जाओगे ।

विट्ठल भाई पटेल और सुभाष ने जिनेवा में अपने संयुक्त हस्ताक्षरों से दिए वक्तव्य में कहा कि अहिंसा का रास्ता अपने समापन बिन्दु (सेचुरेशन पाइण्ट) पर आ गया है । अब रास्ता और नेतृत्व बदल दिया जाना चाहिए ।

इस वक्तव्य के सार्वजनिक होने के बाद, कांग्रेस के हरिपुरा सम्मेलन में गांधी के सुझाव से सुभाष को कांग्रेसाध्यक्ष बनाया गया । लेकिन एक साल बीतते न बीतते अध्यक्ष और कार्यकारिणी में गम्भीर मतभेद उभर आए ।

अगले चुनाव में सुभाष, पट्टाभि सीतारमैया को हराकर प्रचण्ड बहुमत से जीते । तब बापू ने कहा - ‘पट्टाभि की हार, मेरी हार है ।’ त्रिपुरी कांग्रेस सम्मेलन के समय गांधी राजकोट में उपवास पर थे । यदि उन्हें सुभाष का रास्ता रोकना होता तो यह बात वे चुनाव से पहले भी कह सकते थे । कांग्रेस कार्यसमिति का बहुमत तब भी सुभाष के पक्ष में नहीं था । तय हुआ कि अध्यक्ष अपनी कार्यकारिणी का गठन बापू की राय से करें । सुभाष बापू के पास पहुंचे और सलाह मांगी । बापू ने पूछा - इस मामले में सम्विधान क्या कहता है ? (कांग्रेस का सम्विधान सन 1919 में तिलक महाराज के आग्रह पर गांधीजी ने ही बनाया था जो गांधीजी की वैचारिकता के प्रबल और जगजाहिर विरोधी थे।) सुभाष ने कहा - ‘सम्विधान कहता है कि अध्यक्ष अपनी कार्यकारिणी का गठन करेगा ।’ बापू ने कहा - ‘तो फिर करो । मुझसे क्या पूछते हो ?’



नारायण भाई ने कहा - जिस सुभाष से गांधी के मतभेद की बात कही जाती है, उस सुभाष की देशभक्ति पर गांधी को कभी भी सन्देह नहीं रहा । सुभाष की मृत्यु पर जब गांधी ने, सुभाष की मां को शोक सन्देश का तार भेजा तो अंग्रेजों ने उन्हें ‘फासिस्टों का समर्थक’ कहा । तब बापू ने कहा - ‘शो मी ए पेटियोट्रिक मेन देन सुभाष’ ( सुभाष से बड़ा और कोई देशभक्त हो तो मुझे बताओ ।)


नारायण भाई ने अनूठी सूचना दी - बापू को राष्ट्रपिता का अलंकरण भारतीय संसद ने बाद में दिया । सुभाष तो बरसों पहले ही उन्हें राष्ट्रपिता का सम्बोधन दे चुके थे ।

भगतसिंह प्रकरण

इस प्रकरण पर नारायण भाई बहुत कम बोले । उन्होंने कहा - ‘इन दोनों की कभी भेंट नहीं हुई ।’ ‘बापू चाहते तो भगतसिंह को फांसी से बचा सकते थे’ जैसी सारी बातें मिथ्या हैं । केवल भगतसिंह ही नहीं, उनके दोनों साथियों (सुखदेव और राजगुरु) को भी फांसी न हो, इसके लिए बापू ने कम से कम 6 बार प्रयत्न किया और ये तमाम बातें दुनिया जाने न जाने, इतिहास में दर्ज हैं । आक्रोशित भीड़ ने जब बापू को घेर लिया और लोगों ने बीच बचाव किया तो बापू ने उन्हें रोका और कहा कि यदि उन्हें लगता है कि मैं ने भगतसिंह के प्राण नहीं बचाए तो उन्हें ऐसा मानने दो । मैं ने जो भी किया है उसे मैं और मेरा ईश्वर जानता है । उनसे कहा गया कि वे बताते क्यों नहीं कि उन्होंने क्या किया ? बापू ने कहा कि अपने किए का बखान कर वे अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनेंगे ।

क्रान्तिकारियों से अपने मतभेद बापू ने कभी नहीं छुपाए । उनका पहला मतभेद साधनों को लेकर था और दूसरा मतभेद था कि वे (बापू) किसी दल विशेष के बजाय देश के प्रति आग्रही थे । लेकिन क्रान्तिकारियों के साहस और देश के लिए प्राण न्यौछावर कर देने के जज्बे के कायल थे ।


पुत्र हरिलाल से मतभेद

बापू पर यह आरोप अब तक लगता है कि उन्होंने सारी दुनिया की चिन्ता की लेकिन अपने परिवार के लिए कुछ भी नहीं किया । हरिलाल गांधी का नाम ऐसे प्रसंग में बार-बार लिया जाता है । हरिलाल उनके सबसे बड़े बेटे थे । लेकिन बापू ने अपने बेटे और देश के किसी भी बेटे में भेद नहीं किया ।

दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद, भारत से एक व्यक्ति को फीनिक्स आश्रम भेजा जाना था जो प्रशिक्षित होकर भारत लौटता । हरिलाल को अपेक्षा थी कि बापू उन्हें ही भेजेंगे । लेकिन बापू ने किसी और का नाम दिया । ऐसा बाद में दो बार और हुआ । हरिलाल इससे क्षुब्ध और क्रुध्द हुए । जबकि वास्तविकता यह थी कि जिन-जिन के नाम प्रस्तावित किए गए वे सब हरिलाल से अधिक शिक्षित थे (हरिलाल मेट्रिक भी नहीं कर पाए थे) और हरिलाल को फीनिक्स आश्रम में काम करने की शर्त भी मंजूर नहीं थी ।

नारायण भाई ने कहा - हरिलाल और बापू में कुछ समानताएं थीं । दोनों स्पष्ट वक्ता और अपनी बात पर डटे रहने के धनी । लेकिन मतभेदों के बावजूद दोनों में प्रगाढ़ प्रेम था । ‘बा’ कहती - ‘हरिलाल ! आ जाओ ।’ हरिलाल कहते - ‘बा ! मैं तुम्हारे आश्रम में आने के काबिल नहीं रहा ।’ गांधी के अन्तिम संस्कार के समय हरिलाल भी भीड़ में, अनजाने-अचीन्हे मौजूद थे ।


गांधी के मतभेद सिद्धान्तों के कारण थे, बैर भाव के कारण नहीं । गांधी सद्गुणों को द्वार और दुर्गुणों को दीवार मानते थे । द्वार से प्रवेश किया जाता है और दीवार से टकराया जाता है । हरिलाल और बापू के मतभेद लगभग ऐसे ही थे ।

पुत्र बना पिता : सत्याग्रह का क्लासिकल उदाहरण

इस प्रसंग पर आने के साथ ही नारायण भाई का वाणी प्रवाह मानो बाधित होने लगा । लगा, उन्हें बोलने में तनिक असुविधा और असहजता हो रही है ।

9 अगस्त 1942 को, बम्बई के शिवाजी पार्क की मीटींग में गांधी नारा देने वाले थे - ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो ।’ लेकिन सवेरे-सवेरे ही उन्हें, महादेव भाई सहित बन्दी बना लिया गया । पुलिस वारण्ट में कहा गया था कि कस्तूरबा चाहें तो वे भी खुद को गिरफतार करा सकती हैं । इस समय नारायण भाई मौजूद थे । उन्होंने इस गिरफतारी को लेकर, पति-पत्नी के बीच हुए वार्तालाप को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया । बापू ने अन्तिम निर्णय बा पर ही छोड़ा । लेकिन यह भी कहा कि यदि वे गिरफतारी नहीं देती हैं तो उस दशा में बापू की जगह वे शिवाजी पार्क की सभा को सम्बोधित करें । अन्ततः बा ने निर्णय लिया कि वे शिवाजी पार्क की सभा को सम्बोधित कर, बापू का अधूरा काम पूरा करने के लिए, उनके साथ जेल जाने का सुख छोड़ेंगी ।


बापू और महादेव भाई को तत्काल गिरतार कर आगा खां महल जेल भेज दिया गया । उधर बा भी शिवाजी पार्क नहीं जा सकीं । उन्हें भी पहले ही पकड़ कर (सुशीला बहन के साथ) आर्थर रोड़ जेल भेज दिया गया । लेकिन कुछ ही दिनों बाद, इन दोनों को भी आगा खां महल भेज दिया गया । अब बा और बापू साथ-साथ थे । आगा खां महल के चारों ओर ग्यारह फीट ऊंची, कंटीले तार की बागड़ खींच दी गई तथा 76 बन्दूकधारी पुलिस जवान तैनात कर दिए गए ।


वह 15 अगस्त 1942 का दिन था । सुशीला बहन, बापू की मालिश कर रही थीं । अचानक ही बा ने उन्हें पुकारा । सुशीला बहन ने अनसुनी कर दी । थोड़ी देर में बा ने फिर आवाज लगाई और कहा कि महादेव को कुछ हो रहा है । सब भाग कर पहुंचे । देखा - महादेव भाई को एंठन हो रही है । सुशीला बहन ने अपनी दवा की पेटी खोली लेकिन उसमें महादेव भाई के लिए कोई दवाई नहीं थी । थोड़ी ही देर में महादेव भाई के प्राण पखेरु उड़ गए । उनकी निष्प्राण देह सामने थी ।

कानून के मुताबिक, महादेव भाई के रिश्तेदारों और नजदीकी लोगों को तुरन्त खबर दी जानी चाहिए थी । लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई । और तो और, बापू, बा, सुशीला बहन आदि को उनके दाह संस्कार में शामिल होने से भी रोक दिया गया । गतिरोध की स्थिति बन गई । अन्ततः आगा खां महल में ही दाह संस्कार करने पर सरकार सहमत हुई । बापू ने कहा - जिन्दगी भर वह मेरा पुत्र था । आज मैं उसका पुत्र हूं । मैं उसका अन्तिम संस्कार करूंगा । उधर बापू मुखाग्नि दे रहे थे, इधर बा विलाप कर रही थीं - महादेव ! तुम कहां चले गए । यह तो तुम्हारा मन्दिर था । तुम इस मन्दिर में ही चले गए । अब मैं भी इस मन्दिर से बाहर नहीं जाने वाली आदि, आदि ।



नारायण भाई का गला भर आया था । वाणी भर्रा रही थी, जबान साथ देने से इंकार करती लग रही थी । एक-एक शब्द बोलने में मानो उन्हें असाध्य श्रम करना पड़ रहा था । अपने पिता का मृत्यु प्रसंग इस प्रकार सुनाना ! सोच कर ही प्राण कण्ठ में आ जाते हैं । लेकिन नारायण भाई जल्दी ही ‘पुत्र से कथाकार’ बने । संयत होकर बोले - लेकिन इसके कोई दो महीने बाद सुशीला बहन ने बापू से कहा - ‘महादेव भाई की मौत वाले दिन तुम पर बावरापन छा गया था ।’ बापू ने पूछा - ‘कैसे ?’ सुशीला बहन ने कहा - ‘‘तुम महादेव भाई की आंखों में देखते हुए बार-बार कह रहे थे - ‘महादेव ! उठो !, महादेव ! उठो !’’ बापू ने कहा - ‘वह बावरापन नहीं, श्रद्धा थी ।’ सुशीला बहन हैरत में पड़ गई । पूछा - ‘श्रद्धा कैसे ।’ उसके बाद नारायण भाई ने जो कुछ कहा वह सुनकर सभागार में पहले तो सन्नाटा छा गया और अगले ही क्षण तालियों की गड़गड़हाट मानो सभागार की छत फोड़ने का उतावली होने लगी । महादेव भाई के अनुसार बापू ने कहा - ‘उसने जिन्दगी भर मेरी एक भी बात नहीं टाली । मेरा कहा नहीं लांघा । मुझे लगा कि मेरी आंख से आंख मिलते ही, मेरी आवाज सुनकर महादेव फौरन उठ खड़ा होगा ।’


महादेव भाई की मृत्यु के बाद, दाह संस्कार को लेकर सरकार के दुराचरण को लेकर एक बार किसी ने बापू से पूछा कि उस समय उन्होंने सत्याग्रह क्यों नहीं किया । बापू का उत्तर, सत्याग्रह की दृष्टि से ‘क्लासिकल उदाहरण’ था । उन्होंने कहा - ‘जनहित (पब्लिक कास्ट) के लिए तो मैं सत्याग्रह कर सकता था लेकिन अपने पुत्र के लिए मैं सत्याग्रह नहीं कर सकता था ।’

‘बा’ की विदाई

महादेव भाई की मृत्यु वाले दिन से ही बा बीमार हो गई थीं । उनकी तबीयत फिर कभी भी पूरी तरह नहीं सुधर पाई ।

जेल में रहले के दौरान बा को कमरे से बाहर, कांटेदार तारों की बागड़ और चारदीवारी से घिरे खुले मैदान में ले जाया जाता । वहां तुलसी का एक पौधा था जिसे देख कर बा के चेहरे पर प्रसन्नता आ जाती । ऐसे ही एक बार, जब बा को बाहर लाया गया तो जेलर ने उन्हें सूखी लकड़ियों से भरी एक गाड़ी बताई और बताया कि ये लकड़ियां बा के दाह संस्कार के लिए मंगवाई गई थीं । नारायण भाई ने कहा - अंग्रेज सरकार क्रूर ही नहीं, नीच भी थी ।

वह दिसम्बर 1943 की बात है । बा की तबीयत लगातार गिर रही थी । उन्होंने शर्माजी नामके वैद्यजी को बुलाने का आग्रह किया क्यों कि वे उनका इलाज करते रहे थे । बापू ने जेलर को लिखा कि अंग्रेज सरकार की एक कैदी की तबीयत ज्यादा खराब है और उसे फलां-फलां वैद्यजी की चिकित्सा की आवश्यकता है, उन्हें बुलवा लें । लेकिन सरकार की ओर से दो माह तक कोई जवाब नहीं आया । 21 मई 1944 को शर्माजी आये तब तक बा की तबीयत लाईलाज हो चुकी थी । शर्माजी ने रात भर वहीं रुकने की आवश्यकता जताई लेकन जेलर ने यह कह कर मना कर दिया कि जेल में कैदियों के सिवाय और कोई नहीं रह सकता । फलस्वरूप, वैद्यजी पूरी रात, जेल के बाहर अपनी कार में ही बैठे रहे - क्या पता, कब जरूरत पड़ जाए ?


वह रात निकल गई । 22 मई को सवेरे बापू ने बा से पूछा - ‘मैं घूम आऊं ?’ बा बोल नहीं पा रही थीं । आंखों से इंकार कर दिया - अनुमति नहीं दी । बापू वहीं, बा के पास बैठ गए । बा ने इशारा किया - ‘मेरे पास मत बैठो, अपने कमरे में जाओ ।’ बापू अपने कमरे में चले गए । नारायण भाई के लिए कथा सुनाना असम्भव सा होने लगा । उनका गला एक बार फिर रुंधने लगा । शब्द गले में अटकने लगे । बार-बार खांसी आने लगी । पता नहीं, सचमुच में खांसी आ रही थी या वे अपने आप को संयंत करने के लिए खांसी की मदद ले रहे थे ।

लम्बी सांस लेकर नारायण भाई फिर शुरु हुए । थोड़ी ही देर में बापू को भास हुआ - ‘वह मुझे बुला रही है ।’ वे तेजी से बा के पास आए । बा की आंखें मुंद रही थीं । बापू ने बा का सिर अपनी छाती पर रखा और मानो बा इसी क्षण के लिए रुकी हुई थीं । बापू की छाती पर सिर रखते ही बा ने प्राण त्याग दिए । नारायण भाई ने रुंधे कण्ठ से, अपनी पूरी शक्ति लगा कर, धीर-गम्भीर किन्तु मन्द स्वर में कहा - ‘यह बा की आजीवन इच्छा थी जिसे ईश्वर ने पूरा किया - वे बापू की छाती पर सिर रख कर ही विदा हुईं ।’

बा की उत्तरक्रियाओं के दौरान जब गीता पाठ की बात आई तो बापू ने कहा - गीता पाठ बेसुरा नहीं होना चाहिए । यदि बेसुरा हुआ तो मैं आधे में ही रुकवा दूंगा । जिसका पूरा जीवन सुरीला रहा उसे मरणोपरान्त भी बेसुरा नहीं सुनने दूंगा ।

और नारायण भाई ने विगलित, विह्वल स्वरों में कहा - उस दिन देवदास वहीं थे । उन्हीं ने गीता पाठ किया जिसे सुन कर बापू ने कहा - देवदास ! फीनिक्स में तुम जो गीता पाठ करते थे वह तुम नहीं भूले । आज भी तुमने बिलकुल वैसा ही सुरीला पाठ किया ।


नारायण भाई ने कहा - बा के देहावसान के बाद बापू की दिनचर्या में एक बदलाव आया । प्रतिदिन प्रार्थना के बाद वे गीता के किसी एक अध्‍याय का पाठ करते थे । लेकिन बा के देहावसान के बाद प्रत्‍येक माह की 22 तारीख को वे प्रार्थना के बाद पूरा गीता पाठ करने लगे ।

कट्टरता की कोख

यह नारायण भाई के आज के आख्यान का अन्तिम हिस्सा था जिसे मेरे मतानुसार सबसे पहले प्रस्तुत किया जाना चाहिए था । लेकिन ‘बापू-कथा’ की यह प्रस्तुति वस्तुतः मेरे नोट्स मात्र हैं जिनमें मैं ने अपनी बुध्दि नहीं लगानी चाहिए । न तो मैं ने क्रम बदलना चाहिए और न ही अपने विचार मिला कर कोई घालमेल करना चाहिए ।


नारायण भाई ने कट्टरता का भाष्य जिस तरह किया, उसके लिए इस समय मुझे कोई शब्द नहीं मिल रहे हैं । धर्मनिरपेक्षतावादियों और प्रगतिशील वामपंथियों की असहज, दुरुह, नकली, यान्त्रिक शब्दावली के कारण कट्टरता को समझना और समझाना मानो किसी लुप्त भाषा के ग्रन्थ का भाष्य करना हो गया है । ऐसे तमाम लोगों को कम से कम एक बार नारायण भाई का यह आख्यान जरूर सुनना चाहिए । मैं कबूल करता हूं कि कट्टरता के मायने आज मैं पहली बार समझ पाया हूं ।

नारायण भाई ने कहा - धर्म आदमी और आदमी को मिलाने के लिए होता है । प्रत्येक धर्म में सम्प्रदाय होते हैं । ये सम्प्रदाय अच्छे भी हो सकते हैं । जैसे संगीत के घरानों के सम्प्रदाय । सम्प्रदाय के साथ जब जड़ता जुड़ जाती है तो सम्प्रदायवाद बनता है जिससे आग्रह पैदा होते हैं जो ‘सिर के मुताबिक टोपी’ के स्थान पर ‘टोपी के मुताबिक सिर’ की मांग करते हैं ।

सम्प्रदायवाद में आवेश या जुनून शामिल हो तो कट्टरता पैदा होती है । कट्टरता में तत्व की अपेक्षा संकेतों, प्रतीकों, चिह्नों को महत्व दिया जाता है । कट्टरता में ये संकेत, प्रतीक, चिह्न बड़े तथा प्रमुख हो जाते हैं और धर्म छोटा तथा गौण हो जाता है ।

कट्टरता में पुरातन के प्रति प्रेम होता है । तत्कालीन परिस्थितियों और वर्तमान परिस्थितयों के अन्तर की उपेक्षा कर दी जाती है और ‘जैसी व्याख्या मैं करता हूं, उसे मानो’ का आग्रह होता है ।



कट्टरता प्रत्येक देश में होती है लेकिन बहुसंख्य लोग उसे स्वीकार तो नहीं करते लेकिन उसका विरोध भी नहीं करते वरन् चुप रह कर उसे बढ़ावा देते हैं ।


कट्टरता अपने मन से, अपने स्वार्थ से तय की हुई विधि होती है जो राजनीतिक, आर्थिक भी हो सकती है ।

धर्म मनुष्य को मनुष्य के पास लाता है और जो मनुष्य को मनुष्य से दूर ले जाए वह अधर्म होता है । यह अधर्म वस्तुतः कट्टरता से ही उपजता है ।

गांधी इस देश की इसी कट्टरता के शिकार हुए ।


विशेष: आज आयोजकों ने घोषणा की है कि वे इस ‘बापू कथा’ की समूची रेकार्डिंग सीडी या डीवीडी में उपलब्ध कराएंगे । मैं प्रयत्न करूंगा कि एक सेट प्राप्त कर श्री रवि रतलामी के सौजन्य से आप सब तक पहुंचा सकूं । लेकिन यह सब इसी पर निर्भर करता है कि कल ही यह सामग्री मिल जाए ।

(कल, नारायण भाई, भारत विभाजन से उपजी स्थितियों की चर्चा करेंगे और पूर्णाहुति करेंगे । यह मुझ पर ईश्वर की कृपा ही है कि मैं नारायण भाई के व्याख्यान आप तक लगातार चौथे दिन भी पहुँचा पा रहा हूं । मैं कोशिश करूंगा कि बापू कथा की अन्तिम शाम भी आप तक पहुंचा सकूं ।

यह आयोजन, इन्दौर में, कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्व. श्री जयन्ती भाई संघवी की स्मृति में, बास्केटबाल काम्पलेक्‍स में किया जा रहा है ।)

बापू कथा: तीसरी शाम (11 अगस्त 2008)

काश ! मेरी आंखों-कानों को जबान मिली होती

नारायण भाई देसाई आज अपने पूरे रंग में नजर आए । जिस काल खण्ड की चर्चा आज उन्होंने की, उसकी अनेक घटनाओं के वे प्रत्यक्ष साक्षी या फिर भागीदार रहे । इसलिए, आज उन्हें तीन घण्टों का समय कम पड़ गया । समय का अनुशासन भंग करने के लिए आज उन्हें अपने श्रोताओं से क्षमा मांगनी पड़ी जबकि श्रोता चाहते थे कि नारायण भाई अपने ‘इस अपराध’ की अवधि और बढ़ा दें ।

आज के प्रसंगों की अधिसंख्य घटनाएं चूंकि सीधे-सीधे नारायण भाई से जुड़ी थीं, सो आज केवल उनकी जबान नहीं बोल रही थी, उनका रोम-रोम बोल रहा था । घटनाओं की अव्यक्त कथाएं आज बिलकुल ‘बिटविन द लाइन्स’ की तरह बह-बह कर चली आ रही थीं और श्रोता निहाल हुए जा रहे थे ।

गए दो दिनों से केवल प्रस्तोता की तरह व्यवहार कर रहे नारायण भाई आज, समूची कथा के लेखक, इसकी पट कथा के लेखक, दृष्य संयोजक, सम्वाद लेखक, निदेशक ही नहीं, तमाम घटनाओं के सारे पात्रों की भूमिका निभाते भी नजर आए । आज उनकी वाणी में जो उछाह, बोलने में जो ऊर्जा, वाणी का जो आरोह-अवरोह और तमाम पात्रों के सम्वादों की साभिनय जो अदायगी उन्होंने की वह किसी कुशल नाटककार और निष्णात अभिनेता की छवि बना रही थी । नारायण भाई के ‘एक शरीर में अनेक शरीर’ अनुभव हो रहे थे । मालवा में जिसे ‘मोहिनी मन्तर’ (सम्मोहन) कहते हैं, लगता रहा आज नारायण भाई ने वही अपने श्रोताओं पर चला दिया है । दाण्डी यात्रा से पूर्व गांधी-जवाहर के वार्तालाप को उन्होंने शब्दाघात की जिस चरम श्रेष्ठता से प्रस्तुत किया तो लगा हम लोग दोनों जन नायकों को बात करते हुए साक्षात् देख रहे हों । अपने महबूब की तलाश में कोई आशिक खुद अपने महबूब की शकल कैसे अख्तियार कर लेता होगा - यह मैं ने आज नारायण भाई को सुनते-सुनते देख कर अनुभव किया । आज कथा पीछे रह गई और कथाकार कोसों आगे निकल गया । नारायण भाई ने आज विनोबा की भी याद दिला थी जो प्रसन्नता में बच्चों की तरह ताली बजाने लगते थे । काश ! मेरी आंखों और कानों को जबान मिली होती तो आपको मालूम हो पाता कि आज मैं ने क्या देखा-सुना । यह ऐसा विरल चमत्कारिक अनुभव है जिसे मैं कभी नहीं भूलना चाहूंगा ।


गांधी की वापसी


अपने राजनीतिक गरु गोखलेजी के कहने पर गांधी दक्षिण अफ्रीका से जब भारत लौटने लगे तो उन्होंने अपने आप से पूछा - मैं क्या लेकर जा रहा हूं ? उन्होंने अनुभव किया कि वे ‘सत्याग्रह’ अपने साथ लेकर लौट रहे हैं जो भारतवासियों के लिए नई चीज थी । दक्षिण अफ्रीका में गांधी तीन सत्याग्रह कर चुके थे । लेकिन गांधी ने तय किया कि वे दक्षिण अफ्रीका की इस पूंजी को भारत में नहीं भुनाएंगे ।

गोखलेजी ने उनसे कहा - मैं तुम्हें कोई काम नहीं बताऊंगा और न ही कोई सलाह दूंगा । लेकिन तुम जो भी काम करो, उससे पहले देश को अच्छी तरह समझ लेना और समझने का उपाय है - आंखें खुली रखकर देखना, कान खुले रखकर सुनना लेकिन एक वर्ष तक बोलना कुछ भी मत, किसी भी सभा में भाषण मत देना ।

देश को समझने का सबसे अच्छा उपाय गांधी को देशाटन नजर आया । सो, वे यात्रा पर निकल पड़े । दक्षिण अफ्रीका में, रेल की प्रथम श्रेणी में यात्रा करने वाले बैरिस्टर गांधी ने भारत में रेल के तीसरे दर्जे में सफर करने का निर्णय लिया क्यों कि वहीं ‘देश’ से मुलाकात हो सकती थी । उस एक वर्ष में उन्होंने, अण्डमान-निकोबार और लक्षद्वीप को छोड़कर पूरे भारत की यात्रा की । इस यात्रा में फीनिक्स आश्रम के उनके सहयोगी कुछ कुमार भी साथ थे और कस्तूर बा भी बीच-बीच में शामिल हो जाया करती थी । यात्रा के दौरान वे देश में सक्रिय तमाम राजनीतिक पार्टियों के दतरों में गए, जिस भी संस्था या संगठन ने बुलाया वहां गए, मुम्बई में गुजरात के लोगों ने गांधी का सम्मान किया तो वहां सब लोग अंगे्रजी में बोल, केवल गांधी गुजराती में बोले । उन्होंने तय किया कि वे या तो राष्ट्रभाषा में बोलेंगे या मातृ भाषा में ।

जड़ता-अर्द्ध निन्द्रा में पड़े गुलाम देश को झकझोरे जाने की जरुरत थी । लेकिन कैसे-गांधी को इस सवाल के जवाब की तलाश थी । उस समय देश को आजाद कराने के लिए चार विचारधाराएं चल रही थीं - गोखलेजी का नरम दल, तिलकजी गरम दल, क्रान्तिकारियों के समूह और श्री अरविन्द के नेतृत्व में तत्वदर्शी वैचारिकता वालों का दल । गांधी ने पाया कि चारों विचारधाराओं का मेल सत्याग्रह में सम्भव है । उन्होंने निर्णय लिया कि वे जो भी अभियान चलाएंगे वह रजोगुण प्रधान, तमोगुण के सहयोग से चलेगा लेकिन उस पर सत्गुण का पुट अनिवार्यतः रहेगा ।

आश्रम कहां बने


उनकी भेंट गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई । गरुदेव, गांधीजी से सात वर्ष बड़े थे लेकिन गांधीजी को अत्यन्त आदर देते थे । गुरुदेव ने कहा - आप जहां भी जाते हो, वहां आश्रम बना लेते हो । यहां भी बनाओगे ही । आश्रम बनेगा तब बनेगा तब तक आपके, फीनिक्स के कुमार शान्ति निकेतन में रहेंगे ।


गांधीजी को हरिद्वार और बैजनाथ धाम में आश्रम बनाने के प्रस्ताव मिले । एक प्रस्ताव अहमदाबाद से भी आया जिसमें कहा गया था कि आश्रम वहां स्थापित होने की दशा में प्रथम दो वर्षों का खर्च प्रस्तावक देंगे । गांधीजी ने अहमदाबाद में आश्रम बनाने का निर्णय तो लिया लेकिन उसका कारण यह प्रस्ताव नहीं था । उन्होंने कहा - मैं व्यावहारिक आदर्श में विश्वास करता हूं । मुझे जिन लोगों की सेवा करनी है, उन्हीं की भाषा में बात कर सकूं तो ही वास्तविक सेवा कर सकूंगा । इसी ‘व्यावहारिक आदर्श’ की दृष्टि से अहमदाबाद का चयन किया गया ।

आश्रम की नियमावली बनी और शर्त रही कि आश्रम के निवासियों को नियमावली के पालन का आग्रह रखना पड़ेगा । ठक्कर बापा की सिफारिश पर दुधा भाई नामक एक दलित के परिवार को भी इसी शर्त पर प्रवेश दिया गया । इससे आश्रम को प्रथम दो वर्षों तक सहयोग करने वाला श्रेष्ठि वर्ग अप्रसन्न हो गया । सहायता बन्द हो गई । उस समय अम्बाराम साराभाई चुपचाप तेरह हजार रुपयों का चेक देकर आश्रम के बाहर से ही चले गए । इस रकम में आश्रम का एक वर्ष का खर्च चल सकता था ।

दलित परिवार के प्रवेश पर कस्तूर बा ने भी अप्रसन्नता प्रकट तो की लेकिन अपने पति के प्रत्येक निर्णय में साथ देने वाली कस्तूर बा ‘पति के पुण्य में सती का पुण्य’ वाली कहावत पर अमल कर, बापू के साथ बनी रही । इसी समय विनायक नरहरि भावे नामके युवक ने कलकत्ता से, आश्रम प्रवेश के लिए पत्र-सम्पर्क किया । पहली बार भेजे उत्तर पर विनायक भावे ने कुछ जिज्ञासाएं प्रकट कीं जिन्हें पढ़कर गांधीजी ने विनायक की प्रतिभा को भांप लिया । बकौल नारायण भाई -‘बापू, मनुष्यों के मछुआरे’ (फिशरमेन आफ मेन) थे, अच्छे लोगों को साथ करने में माहिर । उन्होंने विनायक को लिख भेजा कि व्यक्तिश: आकर सारी बातें समझ लें । विनायक आया तो फिर नहीं लौटा । विनायक उहापोह में था - हिमालय में जाकर साधना करूं या बंगाल के क्रान्तिकारियों से जुड़ जाऊं ? लेकिन साबरमती आश्रम में आने के बाद विनायक ने कहा - इस आश्रम में मुझे हिमालय की शान्ति और बंगाल की क्रान्तिकारिता एक साथ मिली । यह आश्रम दोनों का संगम है । इसी विनायक को गांधीजी ने ‘विनोबा’ बनाया । विनोबा ने कहा - कर्मयोग की पहली दीक्षा मुझे बापू से ही मिली ।


कालान्तर में बापू ने आश्रम की नियमावली को आश्रम के संविधान में बदला । यह संविधान बापू ने खुद लिखा । जैसा कि प्रत्येक संविधान में होता है, इसका उद्देश्य भी बताया जाना था । बापू ने उद्देश्य लिखा - विश्व के हित में अविरोध की देश सेवा करना । बापू का हस्तलिखित यह संविधान आज भी साबरमती आश्रम के संग्रहालय में रखा हुआ है ।

रोगी को नहीं, रोग को मारना


चम्पारण के, नील की खेती करने वाले किसानों को अत्याचारी कानून से मुक्त कराने के गांधी के अभियान का वर्णन नारायण भाई ने अत्यधिक सूक्ष्मता से (माइक्रो लेवल तक) सुनाया । एक बीघा जमीन में कम से कम तीन कट्ठा जमीन में नील की खेती करने की अनिवार्यता समाप्त करने के लिए गांधी ने जो विशद् अभियान चलाया और चार हजार किसानों के आवेदन प्रस्तुत किए उसके कारण मजबूरन गठित की गई समिति में, किसानों का पक्ष रखने के लिए कुल एक व्यक्ति था - गांधी । शेष छ व्यक्ति अंगे्रज नील व्यापारियों (नीलगरों) और सरकार के थे । इसके बावजूद, समिति ने सर्वानुमति से इस अनिवार्यता को समाप्त करने की सिफारिश की । यह कैसे हो पाया ? जवाब में गांधी ने कहा - मेरा मकसद रोग को मारना था, रोगी को नहीं । रोग था - नील की खेती करने की अनिवार्यता । यदि मैं अंग्रेज नीलगरों के अत्याचारों पर कार्रवाई करने और उन्हें सजा देने की बात करता तो न तो उन्हें सजा मिलती और न ही यह अनिवार्यता खत्म होती ।

भय निर्मूलन का पाठ अपने जीवन से


नारायण भाई ने बताया - गांधी को भारत में सबसे पहली सजा ‘तड़ीपार’ (जिला बदर) की, इसी मामले में सुनाई गई थी ।

चम्पारण आन्दोलन के दौरान ही गांधी द्वारा वहां के शिक्षित और सम्भ्रान्त लोगों को ‘निर्भय’ होने का पाठ पढ़ाने का प्रसंग नारायण भाई ने बड़ी ही रोचकता और प्रभावशीलता से सुनाया ।

चम्पारण में सर एण्ड्रयूज का आना, उनके वहां रुकने में वहां के सम्भ्रान्त लोगों की रुचि लेना क्यों कि सर एण्ड्रयूज के सीधे सम्पर्क वायसराय से थे और सर एण्ड्रयूज से सम्पर्क बढ़ाने-बनाने से इन सम्भ्रान्त लोगों को लाभ हो सकता था, सर एण्ड्रयूज का यह कहना कि मोहनदास कहेंगे तो रुक जाऊंगा, मोहनदास का इससे न केवल इंकार करना बल्कि सर एण्ड्रयूज से चले जाने का आग्रह करना, उनके जाने के बाद गांधी का उन सबसे कहना - एण्ड्रयूज तो खुद अंगे्रज है और हमें अंग्रेजों से देश को आजाद कराना है । एण्ड्रयूज आपको व्यक्तिगत रूप से लाभ पहुंचा सकता है लेकिन देश को आजाद कराने में सहायक नहीं हो सकता । अन्त में कहना - आजादी दूसरों की मदद से नहीं, अपने पैरों पर खड़े होने से मिलती है ।

लोगों में व्याप्त भय का निर्मूलन करने के लिए निर्भयता का पाठ गांधी ने अपने जीवन से दिया । चम्पारण आन्दोलन के दौरान वे सुबह से रात तक किसानों से घिरे रहते थे । तब एक अंग्रेज ने इसे गांधी की कायरता कहा और कहा कि अपनी जान बचाने के लिए गांधी किसानों को आसपास बनाए रखता है । यदि मुझे अकेला मिल जाए तो मैं शूट कर दूं । यह बात गांधी तक भी पहुंची । एक सुबह, कोई चार बजे, वे कई कोस पैदल चल कर उस अंगे्रज के बंगले पर पहुंच गए और कहा कि किसानों के काम के कारण दिन भर तो उन्हें फुर्सत मिलती नहीं, सो आज वे बड़े सवेरे अकेले आए है । अब वह अपनी इच्छा पूरी कर ले । अंग्रेज पानी-पानी हो गया । गांधी की निर्भयता का यह किस्सा चम्पारण के उन सम्भ्रान्त सज्जनों ने सुना तो उन्हें अपने आप पर शर्मिन्दगी हो आई ।

खादी का जन्म और लोक विश्वसनीयता

खादी का जन्म, गांधी की, देश को समझने के लिए की गई इस यात्ऱा के दौरान ही कैसे हुआ और क्यों कर गांधी ने अर्द्ध नग्न रहना शुरु किया, इसका मर्मान्तक पीड़ादायक प्रसंग नारायण भाई ने अत्यन्त भाव विह्वलता और विकलता से सुनाया । इसके साथ ही साथ नारायण भाई ने, खादी की लोक विश्वसनीयता का अनूठा और सर्वथा अछूता प्रसंग भी सुनाया । ये दोनों प्रसंग अपने आप में सम्पूर्ण विषय हैं जिन्हें मैं दो अलग-अलग पोस्टों में प्रस्तुत करना चाहूंगा ।

दाण्डी यात्रा अपने आप में महा अभियान थी । इसका क्रम आते-आते नारायण भाई की समय सीमा पूरी होने लगी थी । फिर भी उन्होंने समय को साधने की कोशिश करते हुए इसके साथ न्याय किया । इस प्रसंग के बारे में उन्होंने एक नई बात कही । बापू ने कहा था कि जिस दिन मैं नमक पकाऊंगा उसके बाद सारे देश में नमक पकाना शुरु हो जाएगा । 6 अप्रेल 1930 की शाम बापू ने पहली चुटकी नमक पकाया और उसके बाद उसी शाम को, दाण्डी के आसपास के गांवों में डेड़ मन नमक पका लिया गया । सारा देश बापू के प्रति कितना समर्पित और निष्ठावान था कि जब तक बापू ने एक चुटकी नमक नहीं बनाया तब तक किसी ने नमक बनाने का सोचा भी नहीं ।

दाण्डी यात्रा में बापू ने महिलाओं को शामिल नहीं किया था । आश्रम की महिलाओं ने सवाल किया तो बापू ने कहा कि पुरुषों के मुकाबले स्त्रियां अधिक साहसी होती हैं । दाण्डी यात्रा में तो कुछ भी नहीं होना है - रास्ते में पड़ने वाले गांवों में यात्रियों का स्वागत होगा । सो, बापू ने महिलाओं को अधिक साहसी काम के लिए ‘अमानत’ रखा । बाद में शराब की दुकानों के सामने पिकेटिंग करने के लिए बापू ने महिलाओं को ही आगे किया ।

दाण्डी यात्रा के प्रसंग में ही नारायण भाई ने गांधी-जवाहर के बीच हुआ वह सम्भावित वार्तालाप सुनाया जिसका जिक्र मैं ने इस पोस्ट के प्रारम्भ में किया है । जवाहर चाहते थे कि चूंकि यह ‘मार्च’ है तो इसमें भाग लेने वालों के लिए कोई ‘यूनिफार्म’ होना ही चाहिए । बापू ने इस बारे में तो सोचा भी नहीं था । अन्ततः बापू ने कहा - मार्च में भाग लेने वाले सब लोग खादी के वस्त्र पहने हुए रहेंगे सो खादी ही इस मार्च की यूनिफार्म है । जवाहर इससे असहमत रहे और खिन्न ही हुए । वे अपने साथ, यूनिफार्म पर लगाने के कुछ ‘कागज के बैज’ लाए थे जिन्हें, उन्होंने सब यात्रियों के कपड़ों पर लगा दिया लेकिन गांधीजी तो धड़ तक निर्वस्त्र ही रहते थे । उनका बैज कहां लगाया जाए ? तब जवाहर ने, बापू की उस चादर पर बैज लगा दिया जो वे कन्धे पर डाल कर जाने वाले थे । बापू को यह मालूम हुआ तो उन्होंने कुछ भी नहीं कहा । मुस्कुराते हुए चादर की घड़ी इस तरह की कि बैज अन्दर दब गया और बापू उसी दशा में चादर को कन्धे पर डाल कर मार्च के लिए चल दिए ।

इस यूनिफार्म वाले मुद्दे पर हुआ गांधी-जवाहर सम्वाद सुनाते समय नारायण भाई ने दोनों नायकों को मंच पर साकार कर दिया । जवाहर किस तरह तैश में बोले, बापू ने किस तरह शान्त और विनम्र शब्दावली और मन्द स्वरों में उत्तर दिया - वह सब कुछ कोई ‘निपुण मानव मनोवैज्ञानिक’ ही कर सकता था और नारायण भाई ने आज यही किया ।

बापू ने कहा - स्त्रियां न केवल पुरुषों के मुकाबले अधिक साहसी होती हैं बल्कि मनुष्य जाति की संसृति को बचाने की ताकत भी केवल स्त्रियों में ही है ।

(कल, नारायण भाई, बापू से जुड़े प्रमुख मतभेदों, कस्तूर बा की बिदाई और 1942 के आन्दोलन की चर्चा करेंगे । यह मुझ पर ईश्वर की कृपा ही है कि मैं नारायण भाई के व्याख्यान आप तक लगातार दो दिनों तक पहुँचा सका । मैं कोशिश करूंगा कि बापू कथा की चैथी शाम भी आप तक पहुंचा सकूं ।

यह आयोजन, इन्दौर में, कस्तूरबा गांधी रा’ट्रीय स्मारक ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्व. श्री जयन्ती भाई संघवी की स्मृति में, बास्केटबाल स्टेडियम में किया जा रहा है ।)

बापू कथा - दूसरी शाम (10 अगस्त 2008)


बापू कथा का दूसरा दिन, पहले दिन से अधिक कसा हुआ और श्रोताओं को कुर्सियांे से चिपकाए रखने वाला रहा । 83 वर्र्षीय नारायण भाई के धाराप्रवाह संस्मरण श्रोताओं को सांस लेने की भी अनुमति नहीं देते । तारतम्यता, निरन्तरता और प्रसंगों की सम्बध्दता वे जिस सुगठित ढंग से पेश कर रहे हैं वह सब देखकर विश्वास नहीं होता कि हिन्दी में कथा बांचने का यह उनका चैथा-पांचवा ही प्रयास है । लगता है मानों वे युगों-युगों से बापू कथा सुनाते चले आ रहे हैं । प्रसंगों से उपजे अन्तप्रसंगों से वापस वे मूल प्रसंग पर जिस तरह से लौटते हैं तो लगता है कि चूल्हे पर रोटी सेकती हुई कोई कुशल गृहिणी, रोटी को तवे पर रख कर, रोते शिशु की ‘मचली’ (देहाती झूला) को दो-चार पेंगे देकर, शिशु को थपथपा कर, चपल-सजग-सहजता से लौट कर रोटी को पलट रही है - रोटी को दाग लगे बिना ।


आज नारायण भाई ने बापू के अफ्रीका प्रवास को सविस्तार बताने से पहले बापू के उन तीन संस्कारों की चर्चा की जिन्होंने ‘मोहनदास’ को ‘गांधी’ बनाया । उन्होंने नागरिकता का संस्कार इंग्लैण्ड से, चरित्र का संस्कार भारत से और जीवन साधना का संस्कार दक्षिण अफ्रीका में प्राप्त किया ।


बापू कभी भी प्रतिभावान छात्र नहीं रहे । कभी मेरिट लिस्ट में नहीं आए । शिक्षा के मामले में दिशाहीन दशा में थे । पिता को उनका डाक्टर बनना पसन्द नहीं था, इस कारण दिशाहीनता में बढोतरी ही हुई । तब उनसे पूछा गया - इंग्लैण्ड जाकर बैरीस्टरी करना पसन्द करोगे ? बापू फौरन ही तैयार हो गए । सात समन्दर पार जाना जिस समाज और समय में धर्म भ्रष्ट हो जाना माना जाता रहा हो वहां बापू के निर्णय का विरोध तो होना ही था । मां के अपने संशय थे जिन्हें बापू ने प्रतिज्ञा ( मांसाहार नहीं करूंगा, सुरापान नहीं करूंगा और परस्त्रीगमन नहीं करूंगा) में बंध कर लांघा । शेष विरोधों को उन्होंने सहजता से निपटा दिया ।

शिक्षा के मामले में पूर्णतः दिशाहीन मोहनदास को इंग्लैण्ड जाने के निर्णय ने दिशावान बना दिया । इंग्लैण्ड में ‘सांस्कृतिक धक्का’ (कल्चरल शाक) उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । वे पहले चैंधियाए और फिर व्यामोह में पड़ गए । इंग्लैण्ड में इंग्लैण्डवालों जैसा बनने के व्यामोह में उन्होंने पहले ‘डांस’ सीखना शुरु किया । कदमों ने ताल का साथ नहीं दिया । कहा गया - संगीत की जानकारी के बिना नाच नहीं सीख सकते । सो, वायलीन बजाना सीखना शुरू कर दिया । लेकिन तीन महीने बीतते-बीतते मोहनदास ने अपने आप से वही सवाल एक बार पूछा जो वे बचपन से ही अपने आप से पूछते चले आ रहे थे - ‘कोऽहम्’ और ‘मैं यहां क्यों आया हूं ?’ नारायण भाई ने कहा - आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन के, बचपन के अभ्यास से मोहनदास ने जवाब हासिल किया और व्यामोह से मुक्त हो गए । उन्होंने स्वयम् को अध्ययन पर केन्द्रित किया । बस के मुकाबले ट्राम सस्ती थी, लेकिन उन्होंने ट्राम में भी सफर नहीं किया । विश्वविद्यालय और लायबे्ररी के बीच मकान लिया और सदैव पदयात्रा करते रहे ।


नागरिकता का संस्कार

इंग्लैण्ड में बापू ने देखा कि 18 वर्ष के युवक के साथ भी वही व्यवहार होता है जो वरिष्ठ के साथ । उन्होंने अनुभव किया कि नागरिकता में आयु का अन्तर बाधा नहीं होता । ‘जो स्वतन्त्रता तुम खुद भोगना चाहते हो, वही स्वतन्त्रता तुम दूसरों को भी दो’ यह उन्होंने प्रत्यक्षतः अनुभव किया । इसके पीछे वेजीटेरियन सोसायटी में उनकी भागीदारी के अनुभव भी सहायक रहे । समाज के श्रेष्ठ और सम्भ्रान्त व्यक्ति इस सोसायटी के सदस्य वे लोग होते थे जिन्हें ‘डीसेण्ट’ माना जाता था । बापू इस सोसायटी के सदस्य बने और जब सोसायटी के अगले चुनाव हुए तो बापू को उसका सचिव बनाया गया । उल्लेखनीय बात यह थी कि सोसायटी के अन्य सदस्य, बापू से कम से कम बीस वर्ष बड़े थे । लेकिन यहां उम्र के बजाय सोसायटी के प्रति बापू की निष्ठा और उनकी कार्यक्षमता को तरजीह दी गई । यहीं बापू ने निष्‍कर्ष निकाला कि नागरिकता की पहली शर्त - निष्ठा (कमिटमेण्ट) और कार्यक्षमता (इफिशिएन्सी) परस्पर अपरिहार्य और अनिवार्य पूरक हैं । इन दोनों में तलाक के परिणाम अत्यन्त भयंकर होते हैं । नारायण भाई ने तेलगी और हर्षद मेहता के उदाहरण दिए जिनमें कार्यक्षमता तो अद्भुत थी लेकिन निष्ठा नहीं थी । इस सोसायटी के अपने वरिष्ठों के साथ काम करते हुए बापू ने अनुभव किया कि जवानी और बुढ़ापे का उम्र से कोई रिश्‍ता नहीं होता । जो आने वाले कल को आज से बेहतर बनाने के प्रयास करे, वही जवान है । कांटों से आगे बढ़कर गुलाब के फूल को देखना जवानी और गुलाब को कांटो से घिरा देखना बुढ़ापा होता है । दूर देश में रह रही अशिक्षित मां के सामने की गई प्रतिज्ञा को बापू ने इसी निष्ठा और कार्यक्षमता से निभाया ।


भाषा में नम्रता को बापू ने नागरिकता की दूसरी अनिवार्य शर्त अनुभव किया । लेकिन इस नम्रता में चापलूसी के लिए कोई जगह नहीं होती (जैसी कि भारत में हो गई है) । इंग्लैण्ड प्रवास में अपनी प्रतिज्ञाओं के पालन में मोहनदास ने भाशा की यह विनम्रता अपनी सम्पूर्ण दृढ़ता से सफलतापूर्वक बनाए रखी ।

पढ़ाई के दौरान, भोजन के लिए मोहनदास की टेबल पर बैठने वालों की भीड़ लगी रहती थी । भोजन के साथ वहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए शराब की बोतल रखी रहती थी और मोहनदास ने सुरापान न करने की प्रतिज्ञा ले रखी थी । सो मोहनदास के नाम की बोतल की शराब हासिल करने के लिए लोग मोहनदास की टेबल की ओर लपकते थे ।

परस्त्रीगमन से बचने वाले प्रसंग को नारायण भाई ने उसकी तमाम सूक्ष्मताओं सहित जिस विस्तार से बताया वह अपने आप में अद्भुत था । ऐसा लगता रहा मानो (फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ की तरह ही) बापू प्राम्पटिंग कर रहे हों और नारायण भाई उसे दुहरा रहे हों । किस तरह एक परिवार में भोजन के बाद ताश का खेल शुरु होना, गृहस्वामिनी द्वारा संसर्ग के लिए पहले आंखों से और फिर अंग संचालन से आमन्त्रण देना, मोहनदास को उस सबसे आकर्षित प्रभावित होकर आगे बढ़ते देख कर एक मित्र द्वारा टोकने पर कि ‘मोहनदास तू यह क्या कर रहा है?’, मोहनदास का चिहुंक कर अपने आप में आना - यह सब नारायण भाई ने बिलकुल ही ‘आंखों देखा हाल’ की तरह सुनाया ।

एक फ्रेंच महिला द्वारा मोहनदास को अपनी भानजी के उपयुक्त वर अनुभव कर, मोहनदास को भोजन पर बुलाना, फिर प्रत्येक रविवार को बुलाना, बुला कर, अपनी भानजी के साथ घूमने-फिरने के अवसर देना, स्थिति यह हो जाना कि मोहनदास रविवार आने की प्रतीक्षा करने लगे । तब मोहनदास न केवल विवाहित थे बल्कि एक बेटे के बाप भी थे । ऐसे क्षणों में मोहनदास की मनोदशा का ‘स्ट्रक्चरल नरेशन’ और फिर समापन तक का पूरा किस्सा नारायणभाई ने जिस आत्मपरकता से सुनाया वह किसी भी लोक कथाकार को मात करने वाला था ।

मांसाहार के लिए उनसे आग्रह तब तक होते रहे जब तक वे इंग्लैण्ड में रहे । उनके मकान मालिक ने, मांसाहार के पक्ष में एक किताब पढ़ने के लिए मोहनदास से कहा । मोहनदास ने कहा कि वह किताब तो जरूर पढ़ेगा लेकिन मांसाहार फिर भी नहीं करेगा ।

एक बार वे गम्भीर बीमार पड़े । डाक्टर ने कहा कि स्वस्थ होने के लिए मांसाहार जरूरी है और यदि मोहनदास ‘यह दवा’ नहीं लेते हैं तो वह अगले दिन से उनका उपचार नहीं करेगा । मोहनदास ने निर्णय के लिए 24 घण्टे मांगे । अगले दिन डाक्टर आया तो मांस का गरम-गरम सूप साथ लाया । आते ही उसने कहा - लो पियो । मोहनदास ने पूछा - क्या आप जिम्मेदारी लेते हैं कि यह सूप पीने के बाद (याने मांसाहार करने के बाद) मोहनदास मरेगा नहीं ? डाक्टर ने अचकचाकर कहा - यह तो ऊपरवाले के हाथ में है । तब मोहनदास ने कहा - ‘जीना मरना जरूर ऊपरवाले के हाथ में है लेकिन प्रतिज्ञा पालन करना तो नीचे वाले के हाथ में है ।’ डाक्टर के पास कोई जवाब नहीं था और मोहनदास ने वह सूप नहीं पिया ।

खुद में हुए किसी भी सुधार का श्रेय मोहनदास ने खुद को कभी नहीं दिया । ऐसे प्रत्येक सुधार का श्रेय उन्होंने सदैव ही इसके निमित्त को और ‘निर्बल के बल राम’ को दिया ।

अठारह-बीस वर्षीय मोहनदास को मिले नागरिकता के ये संस्कार केवल ‘ब्रितानी नागरिकता’ तक सीमित नहीं रहे क्यों कि जिन लोगों की संगति मोहनदास को मिली उनमें से कोई भी विश्व नागरिकता से कम पर नहीं सोचता था ।

इस नागरिकता बोध को बापू ने सत्याग्रह से जुड़ा अनुभव किया और कहा कि जो ‘नागरिक’ नहीं होता वह सत्याग्रह करने के योग्य नहीं होता ।’

इसलिए गए बापू दक्षिण अफ्रीका

तीन कारणों से बापू ने दक्षिण अफ्रीका जोन का निर्णय लिया । पहला - वे यहां वकालात में सफल नहीं हो सके थे । दूसरा - काठियावाड़ के राजाओं की आपसी खट-पट ने उन्हें विकर्षित कर दिया । तीसरा - उनके बड़े भाई करसन गांधी ने कहा कि इंग्लैण्ड में पढ़ाई के दौरान जिस अफसर से मोहनदास की दोस्ती हुई थी, वह अभी यहीं है और वह करसन भाई को परेशान करता है । सो मोहनदास उस अफसर से करसन भाई की सिफारिश कर दे । मोहनदास उस अफसर के पास पहुंचे तो वह न केवल नाराज हुआ और न केवल उसने करसन भाई की अत्यधिक बुराई की बल्कि मोहनदास की एक भी बात पूरी नहीं सुनी, अत्यधिक अपमान किया और चपरासी से कहा कि मोहनदास को बाहर का रास्ता दिखा दे । इस घटना से माहनदास को मर्मान्तक पीड़ा हुई । उन्होंने उस अफसर पर दुव्र्यवहार करने का केस लगाने का विचार किया और फिरोज शाह मेहता से इस बारे में सलाह मांगी । फिरोज भाई ने कहा कि यदि यहां रहकर धन्धा करना और कमाना है तो अपमान के ऐसे घूंट तो बार-बार पीना पडेंगे ।

मोहनदास ‘बेकार’ और ‘विकर्षित’ थे तभी उन्हें दक्षिण अफ्रीका से दादा अब्दुल्ला की ओर से मुकदमा लड़ने का प्रस्ताव मिला जिसके लिए 105 पौण्ड वार्षिक का पारिश्रमिक मिलना था । यह मुकदमा अब्दुल्ला भाई और उनके चचेरे भाई के बीच, लगभग 40 हजार पौण्ड की सम्पत्ति को लेकर चल रहा था । मोहनदास ने यह प्रस्ताव मान लिया ।

दक्षिण अफ्रीका में वे अब्दुल्ला भाई से मिलते उससे पहले ही उनकी टक्कर रंग भेद से हो गई । जहाज पर से उन्होंने देखा कि उनकी अगवानी के लिए आ रहे अब्दुल्ला भाई को, उनके पीछे से आ रहा एक गोरा धक्का माकर आगे निकल गया । मोहनदास को यह तो बुरा लगा ही लेकिन उससे अधिक बुरा इस बात का लगा कि अब्दुल्ला भाई को यह हरकत बिलकुल भी बुरी नहीं लगी और सहज बने रहे ।

यूं शुरु हुई बापू की पत्रकारिता

अब्दुल्ला भाई की पैरवी करने के लिए वे ठेठ भारतीय वेशभूषा में कोर्ट में प्रस्तुत हुए तो उन्हें बाहर निकाल दिया गया । ‘अनवाण्टेड गेस्ट’ शीर्षक से एक अखबार ने समाचार तो छापा लेकिन घटना के तथ्यों में हेर-फेर था । बापू ने वास्तविकता बताते हुए सम्पादक के नाम पत्र लिखा । वह पत्र छपा भी । यही पत्र, बापू की पत्रकारिता की शुरुआत बना ।

नारायण भाई ने अनूठी जानकारी दी कि दक्षिण अफ्रीका प्रवास में बापू ने जितने पत्र अखबारों के सम्पादकों के लिखे, उनमें से एक भी पत्र अप्रकाशित नहीं रहा-सबके सब छपे और कई पत्र तो ऐसे थे जिन्हें आधार बना कर सम्पादकों ने सम्पादकीय-अग्रलेख लिखे ।

अब्दुल्ला भाई के मुकदमे के दौरान बापू ने अनुभव किया कि मुकदमे में वकील की जेब भारी होती जाती है और पक्षकार की जेब हलकी । सो उन्होंने अब्दुला भाई को समझौते की सलाह दी और मध्यस्थ की जिम्मेदारी खुद निभाई । उन्होंने अदालत के बाहर समझौता कराया जिसमें अब्दुल्ला भाई के सारे दावे ज्यों के त्यों स्वीकार कर लिए गए । लेकिन बापू ने अनुभव किया कि इतनी बड़ी रकम एक मुश्त चुकाना, किसी भी व्यापारी को दिवालिया बना देगा । सो उन्होंने अब्दुल्ला भाई को यह रकम लम्बी किश्तों में वसूल करने के लिए राजी किया । इस घटना ने अब्दुल्ला भाई पर गहरा असर किया और ‘वकील गांधी’ उनके लिये ‘भाई गांधी’ बन गया ।

नारायण भाई ने कहा - बापू से जब पूछा गया कि उनके जीवन का सर्वाधिक सृजनात्मक क्षण कौन सा था तो बापू ने कहा था - जब मुझे मेरे सामान सहित रेल के डिब्बे से बाहर फेंका गया ।

बकौल नारायण भाई, इस दुर्घटना की पहली प्रतिक्रिया तो वापस वतन लौटने की रही लेकिन मोहनदास के मन में अगला विचार आया - ‘मैं तो चला जाऊंगा लेकिन जो हिन्दुस्तानी पहले से यहां रह रहे हैं और जो हिन्दुस्तानी मेरे जाने के बाद यहां आएंगे उनका क्या होगा ?’ इस विचार ने ही गांधी को, 'व्यक्ति से समष्टि' बनाया ।


सामान सहित रेल से फेंके जाने के अगले ही दिन जब वे बग्गी से जा रहे थे कोचवान द्वारा उनके साथ किए जा रहे अपमानजनक व्यवहार के दौरान एक गोरे ने कोचवान को टोका और गांधी की बात का समर्थन किया । इस घटना ने गांधी को वह विचार दिया जो आज के भारत की सबसे बड़ी समस्या का निदान है लेकिन जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा । उन्होंने देखा कि एक गोरे ने उन्हें रेल से उतार फेंका और दूसरे ने बग्गी में उन्हें उनका यथोचित स्थान दिलाया । याने - सब गोरे एक जैसे नहीं हैं । अर्थात् एक आदमी की गलती को पूरी कौम की गलती नहीं मानी जानी चाहिए ।

गांधी ने साधारीकरण को आजीवन अस्वीकार किया । साधारीकरण सदैव समस्याएं खड़ी करता है । जिस देश को तरक्की करनी है उसे साधारीकरण से कड़ा परहेज करना ही होगा ।
नारायण भाई के अनुसार इन घटनाओं ने गांधी का जीवन ऐसे बदला जिसे संस्कृत में ‘द्विज बन जाना’ कहा गया है । जिस प्रकार अण्डा, फूटने के बाद अण्डा नहीं रह जाता, चूजा बन जाता है, उसी प्रकार गांधी का जीवन बदल गया । उन्होंने गोरों के व्यवहार को रोग नहीं माना । उन्होंने अनुभव किया कि रंग भेद इस रोग की जड़ है और उन्हें व्यक्ति से नहीं बल्कि वृत्ति से तथा उससे भी आगे बढ़कर व्यवस्था से संघर्ष करना होगा ।


पहली घटना से गांधी घबराए अवश्य, सम्भवतः अंशतः विचलित भी हुए हों लेकिन उन्होंने भाषा की विनम्रता और अपने विश्वास के प्रति दृढ़ता को बिलकुल नहीं छोड़ा और यहीं उन्होंने अनुभव किया कि सत्याग्रह और कायरता साथ-साथ नहीं चल सकते ।


पहला भाषण

‘समष्टि’ की चिन्ता करते हुए उन्होंने अब्दुल्ला भाई की सहायता से प्रिटोरिया में भारतीयों की सभा बुलाई थी, उसमें दिया गया भाषण, गांधी का पहला भाषण था । इस भाषण में उन्होंने अपने साथ हुए व्यवहार का जिक्र भी नहीं किया और एक भी कड़वा शब्द नहीं कहा । उन्होंने सबकी समस्याओं पर बात की और जब भेद-भाव के विरुध्द पहल पर सहमति हुई तो उन्होंने कहा - पहले हमें तैयार होना पड़ेगा । पहले अपने दोष दूर करने होंगे । हम घर में ईमानदारी वापरें और व्यापार में बेईमानी - इससे हमारी और हमारी बात की इज्जत नहीं होती । घर में और बाहर में एक बात कहने के लिए हिन्दुस्तानियों की प्रतिष्ठा बनानी पड़ेगी । हम सबको हिन्दुस्तानी बनना पड़ेगा और इसके लिए जाति, भाषा, धर्म के आग्रह छोड़ने पड़ेंगे ।


यह बात गांधी ने 1893 में कही थी तब वे ‘भाई गांधी’ थे, ‘महात्मा’ नहीं बने थे ।

वकील की विश्वसनीयता

‘भारत का असफल बैरिस्टर मोहनदास’ दक्षिण अफ्रीका का न केवल सफल वकील बना अपितु उसने वकालात के पेशे को जो वि”वसनीयता और इज्जत दिलाई उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिले । उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मासिक आमदनी पांच हजार पौण्ड तक होने लगी थी और गोरे वकील उनके जूनीयर के रूप में काम करते थे । लेकिन उन्होंने झूठे मुकदमे कभी नहीं लिए । चलते मुकदमों के दौरान उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि उनके मुवक्किल ने उनसे झूठ बोला है तो उन्होंने वे मुकदमे, न्यायाधीश से क्षमा याचना करते हुए बीच में ही छोड़ दिए ।

जज ने की गांधी की पैरवी

इस कड़ी में नारायण भाई ने रोचक और सर्वथा अविश्वसनीय प्रसंग सुनाया ।


एक मुकदमे में, गांधीजी के प्रतिपक्षी वकील ने जिरह करते-करते जिस तरह से सवाल पूछने शुरु किए वह देख कर जज ने उस वकील को टोका और कहा - यदि आप गांधी की कही बातों को झूठा साबित करने की कोशिश कर रहे हैं तो ऐसा मत कीजिए क्यों कि कोई भी आपकी बात नहीं मानेगा ।

खुदा के नाम पर कतल नहीं

नारायण भाई ने आज के आख्यानों में गांधी की प्रासंगिकता ही नहीं, अनिवार्यता भी जिस शिद्दत और सम्वेदनशीलता से उकेरी उसके लिए मुझे कोई शब्द नहीं मिल रहे हैं । नारायण भाई की बातें महज बातें नहीं मानो ‘ग्लुकोज सलाइन’ हों जो सुनने वालों के बहते खून में तत्काल ही मिल कर खून बनती जा रही हों ।

दक्षिण अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों की आमद दर्ज करने और दसों अंगुलियों के निशान लेने की अनिवार्यता समाप्त करने की मांग उठी । गांधी ने कहा - यह अनिवार्यता अनुचित और अनैतिक है लेकिन अवैध आगमन को रोकने के लिए आवश्यक भी है । इसलिए, इसकी अनिवार्यता समाप्त की जाए लेकिन यदि कोई स्वैच्छिक रुप से ये निशान देना चाहे तो इसका विरोध नहीं करेंगे । गांधी ने अनिवार्यता का तो विरोध किया लेकिन इसके समानान्तर स्वैच्छिक स्वरूप का समर्थन किया । इससे उन लोगों को असुविधा हुई जो हिन्दुस्तानियों को अवैध रूप से दक्षिण अफ्रीका लाते थे । ऐसे लोगों ने कुछ गोरों की सहायता से कुछ हिन्दुस्तानियों को गांधी के विरोध में खड़ा कर दिया । गांधी ने घोषणा की कि रजिस्ट्रार के दतर में, आमद रजिस्टर पर दस्तखत और अंगुलियों के निशान सबसे पहले वे करेंगे । घोषित दिन गांधी घर से निकले । रास्ते में मीर आलम नाम का पठान मिला । पहले वह जब भी मिलता तो बड़े अदब से, आगे होकर ‘सलाम वालेकुम’ करता । लेकिन उस दिन उसके तेवर और मुख मुद्रा बदली हुई थी । गांधी ने ‘सलाम वालेकुम’ कहा तो मजबूरी में उसे ‘वालेकुम सलाम’ कहना पड़ा । लेकिन तेवर ढीले नहीं हुए । दोनों साथ-साथ चलने लगे । मीर आलम ने पूछा - कहां जा रहे हो ? जवाब मिला - रजिस्ट्रार के दफतर में दस्तखत करने और निशान देने । कुछ कदम चलने के बाद वही सवाल पूछा । वही जवाब आया । इसके थोड़ी ही देर बाद पीछे से गांधी की गर्दन पर एक लट्ठ पड़ा, दूसरा लट्ठ पड़ा सर पर । खून निकल आया । तीसरा लट्ठ मुंह पर पड़ा । ऊपर का होठ फट गया और एक दांत टूट गया । चेहरा लहू-लुहान हो गया । गांधी ‘हे ! राम’ कहते-कहते मूर्छित हो गए । होश में आते ही रजिस्ट्रार के दतर में जाने की जिद की, मना करने के बावजूद वहां गए और दस्तखत कर अपनी अंगुलियों के निशान दिए । फिर पूछा - ‘मीर आलम कहां है ?’ मालूम पड़ा - उसे तो पुलिस ले गई, जेल भेज दिया है । गांधी ने कहा - ‘मीर आलम ने वही किया जो उसने ठीक समझा । उसे कोई सताए नहीं ।’ फिर उन्होंने एक सन्देश लिखवाया जिसमें कहा - ‘मैं हिन्दू हूं और मीर आलम पठान है । हम दोनों ने वही किया जो हम अपनी-अपनी जगह ठीक समझते थे । इसलिए इस मामले को लेकर केाई साम्प्रदायिकता न हो । मुझे भरोसा है कि मेरे खून से सने कपड़े इस देश में रहने वाले भारतीयों के रिश्तों को मजबूत करेंगे ।’ मीर आलम तक जब सारी बातें पहुंचीं तो गांधी का मुरीद हो गया ।


इसी मीर आलम को गांधी ने जोहानसबर्ग में जो सीख दी वह दुनिया के प्रत्येक धर्म के प्रत्येक अनुयायी के लिए सबसे बड़ा ‘धर्म वाक्य’ है ।

गांधी को जोहनसर्ग में भाषण देना था । गांधी के खिलाफ लोग उत्तेजित थे । गांधी की जान को खतरा था । लोगों के मना करने के बावजूद गांधी वहां भाषण देने पहुंचे । भाषण शुरु होता उससे पहले ही बिजली गुल हो गई, अंधेरा छा गया । अंधेरा होते ही एक ललकार सुनाई दी - ‘गांधी का बाल भी बांका हुआ तो खुदा कसम जान ले लूंगा ।’ गर्जना सुन कर लोगों ने जाना शुरु कर दिया । थोड़ी ही देर में बिजली आ गई तो लोगों ने देखा - गांधी तख्त पर बैठे हैं और मीर आलम पीछे खड़ा है ।


भाषण देने के बाद गांधी ने मीर आलम से कहा - ‘खुदा के नाम पर तो बन्दगी होती है, जान नहीं ली जाती है । आगे से कभी भी खुदा के नाम पर जान लेने की बात मत करना ।’


विश्व का पहला सफल सत्याग्रह और उसकी नेता


नारायण भाई ने आज ऐसी कई अनूठी जानकारियां दीं जो आप-हमको अब तक पता नहीं हैं ।


1913 में, जनरल स्मग्स नामक अफसर ने विचित्र फैसला देकर दक्षिण अफ्रीका में बसे तमाम हिन्दुस्तानियों को कानूनन सामाजिक अपराधी बना दिया । उसने कहा कि वे स्त्री-पुरुष ही पति-पत्नी माने जाएंगे जिनके विवाह की प्रविष्टि सरकारी रजिस्टर में हुई हो या फिर जिनका विवाह चर्च में हुआ हो । इस आदेश के चलते तमाम हिन्दुस्तानी पत्नियां कलम की एक जुम्बिश से ‘रखैलें’ बन गईं । गांधीजी ने यह बात जिज्ञासा पैदा करने वाली शैली में कस्तूर बा के सामने रखी और कुछ इस तरह रखी कि वे इस आदेश के खिलाफ सत्याग्रह करने को तैयार हो गईं । लेकिन ‘बा’ ने कहा - मुझे जेल भेज दिया तो ? गांधी बोले - जेल चली जाना । ‘बा’ ने कहा - मुझे मालूम है वहां खाने को क्या मिलता है और मैं तो फलाहार पर चल रही हूं । गांधी ने कहा - जेलर से फल मांग लेना । ‘बा’ ने आगे पूछा - मुझे फल नहीं दिए तो ? गांधी ने जवाब दिया - उपवास कर लेना । ‘बा’ ने अगला सवाल किया - मैं जेल में मर गई तो ? गांधी ने तुरन्त जवाब दिया - तब मैं आजीवन तुझे जगदम्बा की तरह पूजूंगा ।

सत्याग्रह आख्यान को बीच में ही रोकते हुए नारायण भाई ने कहा - इतिहास साक्षी है कि ‘बा’ की मृत्यु जेल में ही हुई और तब बापू ने कहा - ‘वह वास्तव में जगदम्बा थी ।’ अपने शेष्‍ जीवन में बापू, ‘बा’ को जगदम्बा की तरह ही मानते रहे ।

और नारायण भाई ने आख्यान आगे बढ़ाया - ‘बा’ ने सत्याग्रह का नेतृत्व किया । इस सत्याग्रह में तीन हजार से पांच हजार तक लोगों ने भाग लिया । स्वयम् गांधीजी ने ‘बा’ के नेतृत्व में इस सत्याग्रह में भाग लिया । ‘बा’ को तीन माह की जेल हुई । जेल में उन्होंने अन्नाहार से इंकार कर दिया । वार्डन अत्यन्त कू्र थी । उसने फलों की व्यवस्था से इंकार कर दिया । ‘बा’ ने उपवास शुरु कर दिया । पांचवें दिन अन्ततः वार्डन ने समर्पण कर दिया, ‘बा’ के लिए फलों की व्यवस्था करनी पड़ी । इस सत्याग्रह की परिणति, जनरल स्मग्स के आदेश की वापसी से हुई ।

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच नारायण भाई ने कहा - यह दुनिया का सबसे पहला सफल सत्याग्रह था जिसका नेतृत्व, कस्तूर बा नामकी एक भारतीय स्त्री ने किया ।

विश्व का पहला कूच


श्रोताओं के लिए यह जानकारी भी सर्वथा नई और अत्यधिक रोचक थी कि दुनिया का सबसे पहला ‘कूच’ भी गांधी की देन रहा जो उन्होंने परमिट की अनिवार्यता के खिलाफ प्रिटोरिया तक किया था । इस कूच में लोगों की संख्या के अनुरूप भोजन व्यवस्था न होने पर परोसगारी की जिम्मेदारी गांधी ने खुद ली । जो सामथ्यवान लोग कूच में शरीक नहीं हो सके, उन्होंने दाल, चांवल आदि की सहायता की । कूच में शामिल लोगों के लिए बनी खिचड़ी कम पड़ती नजर आई तो गांधी ने सबको थोड़ा-थोड़ा देना शुरू किया । अपनी फूटी तश्तरी में अत्यल्प मात्रा में रखी खिचड़ी देख रही एक स्त्री का प्रसंग नारायण भाई ने जिस मार्मिकता से सुनाया उसने श्रोताओं को रुला दिया ।


खिचड़ी वितरण में गांधी की विवशता, वापरी जा रही निष्पक्षता और समानता को अनुभव कर उस स्त्री ने कहा - मैं पूर्ण तृप्त हो गई ।

तब नारायण भाई ने कहा - लोक का यह विश्वास ही गांधी की शक्ति था । लोग उसी पर विश्वास करते हैं जो लोगों पर विश्वास करता हो । ऐसा व्यक्ति ही लोक नेता होता है और कहना न होगा कि गांधी के बाद गांधी जैसा लोक नेता आज तक कोई नहीं हुआ ।

गांधी के जीवन में राम-नाम


मरते समय गांधीजी के मुंह से निकले दो शब्दों ‘हे ! राम’ का जिक्र भी प्रसंगवश आया । नारायण भाई ने कहा कि अव्वल तो गांधी के जीवन में कोई खाली क्षण आया ही नहीं और यदि आया भी तो ऐसे प्रत्येक क्षण में वे ‘राम-राम’ जपा करते थे । राम-नाम का साथ उन्हें बचपन से, रम्भा दाई ने दिया था । वह अपने ‘मोहन्या’ से कहती थी घर से बाहर यदि कभी डर लगे तो ‘राम-राम’ बोलते रहना । सेवा ग्राम में बापू के लिए जो पहली कुटिया बनी उसमें शौचालय था । लेकिन जो नई कुटिया बनी उसमें शैचालय की व्यवस्था नहीं थी । पुरानी कुटिया को ‘आदि कुटी’ और नई कुटिया को ‘बापू कुटी’ कहा जाता था । नारायण भाई ने कहा कि बापू सवेरे ‘बापू कुटी’ और ‘आदि कुटी’ के बीच जाते-आते थे तो यही उनका खाली समय होता था और वे (नारायण भाई) प्रायः ही उस समय बापू के साथ रहते थे । नारायण भाई ने कहा - ‘‘ऐसे प्रत्येक अवसर का मैं साक्षी हूं कि वे उस दौरान ‘राम-राम’ जपते रहते थे ।’’

नारायण भाई ने कहा - बापू को जीवन के प्रारम्भ में रम्भा दाई ने जो राम-नाम दिया, वह मध्य में मीर आलम प्रकरण में प्रकट हुआ और प्राणान्त तक उनके साथ बना रहा । वस्तुतः गांधी तो ‘राम से राम तक जाने की सरल रेखा थे ।’

अन्तरात्मा की आवाज

बास्केटबाल काम्पलेक्स के बाहर कुदरत झमाझम बरस रही थी तो अन्दर नारायण भाई अछूते, अन्तरंग प्रसंगो की वर्षा कर रहे थे । जनरल स्मग्स वाले मामले में रानाडेजी ने गांधी को पुनर्विचार कर, सत्याग्रह वापस लेने का परामर्श दिया । उत्तर में गांधी ने सन्देश भिजवाया कि रानाडेजी का विचार सही हो सकता है लेकिन उनकी (गांधीजी की) अन्तरात्मा इसकी अनुमति नहीं देती । अपने संस्कारों की सम्पूर्ण विनम्रता और आत्मा की सम्पूर्ण दृढ़ता बरतते हुए गांधीजी ने अपनी अन्तरात्मा की आवाज सुनी और मानी । नारायण भाई ने इस वाक्य के साथ अपनी बात समाप्त की - अन्तरात्मा की आवाज गांधी के लिए बचपन से लेकर मृत्यु तक अन्तिम आवाज थी ।


(कल, नारायण भाई, बापू के दक्षिण अफ्रीका से वापसी के बाद भारत प्रवेश से लेकर दाण्डी यात्रा तक का काल खण्ड प्रस्तुत करेंगे । यह मुझ पर ईश्वर की कृपा ही है कि अपने शहर से बाहर रह कर, तकनीक की अत्यल्प जानकारी के बावजूद मैं नारायण भाई का कल का व्याख्यान आप तक पहुँचा सका । मैं कोशिश करूंगा कि बापू कथा की तीसरी शाम भी आप तक पहुंचा सकूं । यह आयोजन, इन्दौर में, कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्व. श्री जयन्ती भाई संघवी की स्मृति में, बास्केटबाल स्टेडियम में किया जा रहा है ।)

बापू कथा - पहली शाम (9 अगस्त 2008)

नारायण भाई देसाई ने, पांच दिवसीय ‘बापू कथा’ के पहले दिन, कथा के नायक महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के मूल तत्व प्रस्तुत किए । आज के व्याख्यान को गांधी के व्यक्तित्व की निर्मिति का सांगोपांग आख्यान कहा जा सकता है । वे क्या कारण या कि तत्व रहे जिनके दम पर गांधी अप्रतिम साहस कर सके और खुद अप्रतिम बन गए ।

आज उन्होंने समझाया कि मोहनदास करमचन्द गांधी कैसे मोहन से महात्मा बने । इस प्रक्रिया की प्रस्तुति उन्होंने गांधीजी के शुरुआती जीवन की विभिन्न घटनाओं और अपने संस्मरणों के जरिये जिस आत्मपरकता से दी, वह इसके एक-एक शब्द को ‘असंदिग्ध विश्वसनीय’ बनाने वाली अद्भुत प्रस्तुति थी । नारायण भाई ने न तो आलंकारिक भाषा वापरी और न ही भाषा के चमत्कार प्रस्तुत किए । इसके बावजूद, सभागार की उपस्थिति अन्तिम क्षण तक जस की तस बनी रही । सादगी किस सीमा तक प्रभावी और आकर्षक हो सकती है-यह आज की प्रस्तुति के प्रत्यक्षदर्शियों/श्रोताओं से मिलकर ही अनुभव किया जा सकता है । नारायण भाई का आज का व्याख्यान सुन कर मुझे विश्वास हो गया कि अब गांधी के अभियानों, आन्दोलनों, कार्य प्रणाली और उन्हें प्राप्त उपलब्धियों को समझने में तनिक भी असुविधा नहीं होगी ।

कथा में मैं तनिक देर से पहुंचा, सो जहां से मैं ने सुना वहीं से शुरु कर रहा हूं ।

गांधी एक-एक क्षण का उपयोग करते थे । वायसराय से वार्ता के लिए शिमला पहुंचने पर मालूम हुआ कि वे सप्ताह भर बाद आएंगे । गांधी ने तत्काल सेवाग्राम लौटने का कार्यक्रम बनाया । तब, सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन और सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन, इस तरह चार दिन लगते थे । लेकिन गांधीजी शिमला मे प्रतीक्षारत रहने के बजाय सेवाग्राम पहुंचे क्यों कि परचुरे शास्त्री वहां थे जिनकी देख-भाल और सेवा-टहल गांधीजी खुद करते थे । परचुरेजी कुष्ठ रोगी थे और उस समय कुष्ठ रोग को प्राणलेवा तथा छूत की बीमारी माना जाता था । गांधीजी शिमला से लौटे उस दिन परचुरेजी को मालिश करने की बारी थी । आते ही गांधीजी इस काम में लग गए ।वे प्रत्येक काम को ईश्वर का काम मानते थे किसी भी काम को छोटा या बड़ा नहीं मानते थे ।

उन्होंने सत्य को सदैव उसकी सम्पूर्णता में देखा । यही कारण रहा कि उन्होंने जीवन को भी अखण्डित रूप में ही देखा ।

उन्होंने व्यक्तिगत मूल्यों और सामाजिक मूल्यों को कभी भी अलग-अलग नहीं माना । जो मूल्य परिवार में हैं वे ही मूल्य समाज में भी होंगे । उनका कहना था कि सारे शास्त्र मनुष्य के लिए बने हैं इसलिए शास्त्रों की सामूहिकता ही मनुष्य पर लागू होगी । अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र यदि अलग-अलग होंगे तो इससे अनीतिशास्त्र उपजेगा ।मन, वचन, कर्म की एकरूपता ही सत्य है । बापू की सत्य की परिभाषा चूंकि एक गतिशील (डायनेमिक) परिभाषा थी इसीलिए उनका जीवन भी गतिशील (डायनेमिक) बना रहा । उन्होंने जड़ता को कभी स्वीकार नहीं किया । इसीलिए वे यह कहने का साहस कर सके कि यदि उनकी दो बातों में मतभेद पाया जाए तो उनकी पहले वाली बात को भुला दिया जाए और बाद वाली बात को ही माना जाए ।

सत्य को उसकी सम्पूर्णता और गतिशीलता में स्वीकार करने के कारण ही ‘‘रात के अंधरे में घर से बाहर निकलने में डरने वाला ‘मोहन्या’ दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यसे टकराने का साहस कर पाया ।’’ - नारायण भाई ने कहा ।


अपने अपवाद नहीं होते
अपने निर्णयों को बापू सब पर समान रूप से लागू करते थे । उन्होंने निर्णय कर लिया था कि वे उसी विवाह समारोह में नव-युगल को आशीर्वाद देने जाएंगे जब एक सवर्ण और दूसरा हरिजन हो । बापू के इस निर्णय के बाद नारायण भाई देसाई का विवाह तय हुआ । वर-वधू, दोनों सवर्ण थे । तब तक महादेव भाई देसाई (नारायण भाई के पिताजी) का देहावसान हो चुका था । मां दुर्गाबाई की चिन्ता थी - आशीर्वाद तो बापू का ही चाहिए । उन्होंने नरहरि भाई परिख को बापू से बात करने भेजा । सारी बात सुनकर बापू बोले - ‘‘बाबला (नारायण भाई देसाई) तो अपने परिवार का बच्चा है । उसके लिए अपवाद नहीं हो सकता । दुर्गा से कहना, मेरे आशीर्वाद तो बच्चों को मिलेंगे लेकिन उपस्थिति नहीं ।’ और बापू विवाह में नहीं गए । ठीक विवाह वाले दिन उनका आशीर्वाद पत्र वहां जरूर पहुंच गया ।

बापू का कहना था - ‘जो सोचो वही बोलो और जो बोलो वही करो ।’ मन-वचन-कर्म में एकरूपता इसी का तो पर्याय है ।

लालच, मोह, स्वार्थ दिमाग में चढ़ने पर आदमी के मन पर भय का आवरण चढ़ जाता है । बापू निरावरण थे और यही उन्हें हम सबसे अलग करता है । उन्होंने बड़ी ही सहजता से कहा है - ‘सत्य मेरे लिए सहज था । बाकी गुणों के लिए मुझे प्रयत्न करने पड़े ।’

सत्यप्रियता के संस्कार
नारायण भाई ने कहा - सत्यप्रियता के गुण के आंशिक संस्कार बापू को उनके दादा उत्तमचन्द गांधी से मिले । शेषांश बापू ने स्वयम् अर्जित किए । एक बार पोरबन्दर की रानी अपने भण्डारी से नाराज हो गई । भण्डारी, उत्तमचन्दजी की शरण में आया । उन्होंने उसकी रक्षा का वादा किया । रानी को मालूम हुआ तो उसने उत्तमचन्दजी के घर पर तोप लगवा दी । उत्तमचन्दजी ने अपने परिवार के तमाम सदस्यों को (बच्चे, बूढ़े, आदमी, औरतें) को मकान के अगले कमरे में एकत्रित किया । उन्हें अपने साथ गोलाकार बैठाकर बीच में भण्डारी को बैठाया और कहा कि यदि मरने वाली बात आई तो पहले उत्तमचन्द के घर के लोग मारे जाएंगे ।

नारायण भाई ने एक और रोमांचक घटना सुनाई । बांकानेर के राजा ने करमचन्दजी गांधी (वे ‘कबा गांधी’ के रूप में जाने-पहचाने जाते थे) को दीवान बनाने का प्रस्ताव किया । कबा गांधी ने शर्तें रखीं - आपको मेरी हर सलाह माननी पड़ेगी, नौकरी कम से कम पांच साल की होगी, यदि मुझे पांच साल से पहले नौकरी से निकाला गया तो भी मुझे पूरे पांच साल का वेतन दिया जाएगा और ये सारी बातें कागजों में लिखित में रखी जाएंगी । राजा ने सब शर्तें मान लीं और कागजी खानापूर्ति कर कबा गांधी को दीवान नियुक्त कर दिया । लेकिन धीरे-धीरे, राजा कबा गांधी की सलाह की अवहेलना करने लगे । यह देख कबा गांधी ने लिखा - चूंकि आपने नियुक्ति की शर्तों का उल्लंघन किया है इसलिए मैं नौकरी छोड़ता हूं । राजा ने कहा - नौकरी भले ही छोड़ो लेकिन शर्तों का उल्लंघन करने वाली बात स्तीफे में से निकाल दो । कबा गांधी ने कहा - वह बात निकाल दी तो स्तीफे का मतलब ही क्या रहा ? राजा ने कहा - मैं पूरे दस हजार रुपये दूंगा, यह बात काट दो । कबा गांधी ने कहा - लिखी बात नहीं काटूंगा । तब राजा ने कहा - आपने अपने अब तक के जीवन में दस हजार रुपये एक साथ नहीं देखें होंगे । कबा गांधी ने तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया - हां, यह सच है कि मैं ने दस हजार रुपये एक साथ नहीं देखे हैं । लेकिन आपने भी इससे पहले, दस हजार रुपये ठुकराने वाला आदमी नहीं देखा होगा ।

दो पहले पाठ
नारायण भाई के मुताबिक, बापू ने अहिंसा का पहला पाठ अपने पिता से और सविनय अवज्ञा का पहला पाठ कस्तूर बा से सीखा ।


चोरी-छुपे लिए गए कर्जे को चुकाने के लिए उन्होंने भाई के हाथ का सोने का कड़ा काट कर बेच दिया । किसी को मालूम नहीं हुआ लेकिन मोहनदास को तो मालूम था । सहन नहीं कर पाया । माता पुतली बाई से कहा तो उन्होंने कहा - अपने पिताजी को ही सब-कुछ तुम खुद बताओ । मोहनदास ने पत्र में सारी बात लिखी और तीन बातें खास तौर पर लिखीं - मैं ने गलती की है, ऐसी गलती अब नहीं करूंगा और इस गलती की जो भी सजा आप देंगे, भुगतने को तैयार हूं । पिता करमचन्द गांधी उस समय बीमार थे, बिस्तर में । पत्र उन्हें देकर मोहनदास गया नहीं, दरवाजे में खड़ा होकर पिता की ओर देखता रहा । पिता ने पत्र पढ़ा, उनकी आंखों से आंसुओं की धार बह चली, उन्होंने पत्र फाड़ दिया, एक शब्द भी नहीं कहा । नारायण भाई ने कहा - बापू के लिए यह अहिंसा का पहला पाठ था ।

बापू, कस्तूर बा पर पति भाव का अधिकार जताते थे । कहीं जाओ तो मुझसे पूछकर जाओ । मैं मना कर दूं तो मत जाओ आदि, आदि । बा ने न तो प्रतिवाद किया, न कोई विवाद, न झगड़ा और न ही बहस की । वे प्रतिदिन मन्दिर जाती थीं । उन्होंने बापू से एक बार भी अनुमति नहीं ली और यह क्रम बनाए रखा । बापू ने कहा - उसने जिस साहस और शालीनता से मेरी अवहेलना की, वह मेरे लिए सबक था ।

बकौल नारायण भाई, बापू सिध्द नहीं साधक थे और यही हम सबके लिए सबसे बड़ा आश्वासन है । सारी दुनिया उन्हें ‘महात्मा’ कहती थी लेकिन उन्होंने खुद को कभी भी महात्मा न तो माना और न कहा । वे कहते थे - ‘महात्मा नाम से मुझे बू बाती है । मैं गलतियां करता था और मैंने गलतियां की है ।’

मोहन से महात्मा
नारायण भाई ने कहा - ‘मोहन के महात्मा बनने की यात्रा में कुछ सीढ़ियां महत्वपूर्ण रहीं ।’ पहली सीढ़ी रही - आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन । इसी के चलते यह मुमकिन हो पाया कि उन्होने गलतियां तो खूब की लेकिन कोई भी गलती दूसरी बार नहीं की ।


दूसरी सीढ़ी रही - अपनी गलती को बढ़ा-चढ़ा कर देखना और दूसरे की गलती को सन्देह का लाभ देना ।अपनी गलती से उपजी वेदना, इस वेदना से उपजे परिताप और इस परिताप के शमन के लिए किया गया अनुताप बापू के जीवन को असाधारण बनाता है । इसके लिए नारायण भाई ने रोचक प्रसंग सुनाया ।
तब बापू की अवस्था दस-ग्यारह वर्ष की थी । उन्होंने राजकोट में अपने जन्म दिन की पार्टी दी । अगले दिन उन्हें अपना एक पुराना प्रिय मित्र मिला । उसे पार्टी की खबर थी । बापू ने कोई बहाना नहीं बनाया । स्वीकार किया कि वे उसे बुलाना भूल गए । इस गलती ने बापू को बेध दिया । वे विकल हो गए । उन्हें आम अत्यन्त प्रिय थे । लेकिन उस वर्ष आम के मौसम में उन्होंने एक भी आम नहीं खा कर अपनी इस गलती की वेदना से उपजे परिताप का अनुताप किया ।

नारायण भाई ने कहा - वेदना, परिताप और अनुताप की इस यात्रा ने मोहन को महात्मा बनाया ।

बापू और नेहरु को लेकर अलग-अलग मिजाज की अनेक बातें चारों ओर सुनाई देती हैं । लेकिन बकौल नारायण भाई, नेहरु के मन में बापू के प्रति जो आदर भाव था उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता । बापू से मिलने नेहरू जब-जब भी सेवाग्राम जाते तो लौटते समय सचमुच में उल्टे पांव आते ताकि बापू को पीठ दिखाने का अपराध न हो जाए ।

बापू की सुनिश्चिचत धारणा थी कि राजनीति और रचनात्मकता के बीच केवल लोगों की उनकी अपनी भाषा ही सेतु का काम कर सकती है । इसीलिए बापू आजीवन देश की विभिन्न भाषाएं सीखते रहे और अपने आस-पास के लोगों से भी ऐसा ही करने को कहते रहे ।

(कल, नारायण भाई, बापू के दक्षिण अफ्रीका प्रवास वाले काल खण्ड के बारे में विस्तार से बताएंगे । मैं कोशिश करूंगा कि बापू कथा की दूसरी शाम भी आप तक पहुंचा सकूं ।यह आयोजन, इन्दौर में, कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्व. श्री जयन्ती भाई संघवी की स्मृति में, बास्केटबाल स्टेडियम में किया जा रहा है ।)

इन्दौर में मिलिए


9 अगस्त से 13 अगस्त तक इन्दौर के बास्केटबाल स्टेडियम में ‘गांधी कथा’ आयोजित हो रही है । गांधीजी के निजी सचिव रहे श्री महादेव भाई देसाई के सुपुत्र श्री नारायण भाई देसाई यह कथा वाचन करेंगे ।

यह कथा सुनने के लिए मैं 9 अगस्त से 14 की दोपहर तक इन्दौर में रहूंगा । वहां धेनु मार्केट स्थित होटल पूर्वा में ठहरूंगा । कथा केवल शाम को 5.30 से रात 8.30 तक होगी । सो, दिन भर फुरसत रहेगी ।

यदि कोई ब्लाग मित्र यह सन्देश पढ़े तो कृपया सम्पर्क करने का उपकार करें । मेरा मोबाइल नम्बर 98270 61799 है ।

ये, अपने वाले

मेरे साथ ऐसा क्यों होता है ? मैं अभिधा में क्यों नहीं जी पाता ? व्यंजना में क्यों चला जाता हूं ? मेरे दुखों का कारण भी यही लगता है । मुझे दुखी होने के लिए किसी और की क्या आवश्यकता ? मैं खुद ही काफी हूं । शायद इसीलिए, डाक्टर समीर की जिस बात पर मुझे फूल कर कुप्पा हो जाना चाहिए था, उस पर रुंआसा हो गया ।


पहली अगस्त की सवेरे पत्नी अचानक अस्वस्थ हो गई । तत्काल ही डाक्टर सुभेदार साहब के आशीर्वाद नर्सिंग होम में भर्ती कराया । दिन भर की चिकित्सा के बाद रात होते-होते डाक्टर साहब ने घर जाने की अनुमति दे दी । डिस्चार्ज टिकिट के साथ ही मैं ने बिल मांगा तो डाक्टर समीर व्यास बोले - ‘आपसे क्या पैसे लेना ? आप तो अपने वाले हैं ।’ मुझे अच्छा तो लगा लेकिन यह तर्क ठीक नहीं था । मैं ने आग्रह किया कि बेशक वे परामर्श सेवाओं का मूल्य न लें लेकिन ‘वास्तविक लागत मूल्य’ तो लेना ही चाहिए और मैं ने भी देना ही चाहिए । लिखते-लिखते डाक्टर समीर रुक गए । बोले - ‘यही बात आपको सबसे अलग करती है । आप अपने वालों की चिन्ता करते हैं ।’ फिर उन्होंने जो किस्सा सुनाया, वह सीधा मुझसे जुड़ा हुआ था और जिसे सुनकर मैं रुंआसा हो आया ।

यह कम से कम ग्यारह वर्ष पुरानी घटना है । एक विवाह भोज में दूषित मावा प्रयुक्त होने से ‘गाजर का हलवा’ विषाक्त हो गया । आयोजन के आनन्द से मगन लोग अपने-अपने घर तो समय पर लौटे लेकिन जल्दी ही, एक के बाद एक, अस्पतालों में पहुंचने लगे । सरकारी और नगर के तमाम निजी अस्पताल छोटे पड़ गए । मैं और मेरा बड़ा बेटा वल्कल भी प्रभावित हो, आशीर्वाद नर्सिंग होम में भर्ती हुए । रात भर ग्लुकोज सलाइन चढ़ती रही । अगली सवेरे अपना बिल भुगतान कर बाप-बेटा घर लौट आए । बात आई गई हो गई ।

यह घटना सुनाने के बाद डाक्टर समीर बोले - ‘बैरागीजी ! उस रात भर्ती होने वालों में से केवल आपने बिल चुकाया । बाकी सारे लोग बड़ी ही सहजता से यह कह कर चले गए कि जिसने भोजन कराया था, वही बिल भुगतान करेगा ।’ प्रसन्नता का आवेग मुझ पर हावी होता उससे पहले ही मेरा गला भर आया । मुझे भली प्रकार पता था कि उस रात भर्ती होने वालों में ऐसे धनपति भी थे जो ‘मुझ जैसे सौ-दो सौ बैरागी’ खरीद सकते हैं । अस्पताल का बिल चुकाना उनके लिए बांये हाथ की कनिष्ठिका की हलकी सी हरकत से भी छोटी बात थी । फिर उन्होंने बिल क्यों नहीं चुकाया ? उन्होंने अपनी ओर से कैसे घोषणा कर दी कि मेजबान ही उनका बिल चुकाएगा ? निश्चय ही उनके मन में यही भाव रहा होगा - वे हमारे अपने वाले हैं सो वे चिन्ता तो करेंगे ही और भुगतान भी करेंगे ही ।


हम सब कहते हैं कि बांटने से सुख बढ़त है और दुख कम होता है । मेजबान ने अपनी खुशी में हमें शरीक होने के लिए बुलाया था । ऐसे निमन्त्रणों से दोनों का सम्मान बढ़ता है । अतिथियों को आयोजन का भरपूर आनन्द आए - यह कोशिश प्रत्येक मेजबान की होती ही है । वह अपनी ओर से कोई कोर-कसर नहीं रखता । उत्कृष्ट व्यवस्थाएं, श्रेष्ठ गुणवत्ता वाले स्वादिष्ट व्यंजन जुटाता है । इसके बाद भी यदि कोई अनहोनी हो जाती है तो इसे दुर्योग के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? ऐसे दुर्योग से उपजे कष्ट में हम मेजबान का वजन हल्का करें - यह प्रत्येक अतिथि की नैतिक और न्यूनतम जवाबदारी बनती है । वह यदि हमें अपनेपन के कारण आनन्द में शामिल कर रहा है तो यही अपनापन लौटाना हमारी जिम्मेदारी बनती है । लेकिन हम ऐसा नहीं करते । उल्टे, उसके दुखों से पल्ला झाड़कर दूर खड़े हो जाते हैं - जैसा कि इस मामले में हुआ ।

अतिथियों के प्राण संकट में पड़ जाने की कल्पना मात्र से ही मेजबान के प्राण कण्ठ में आ गए होंगे । उसे अपने सारे देवी-देवता याद हो आए होंगे । उसकी प्रत्येक सांस के साथ यही प्रार्थना रही होगी कि इस विषाक्त भोजन से किसी की मृत्यु न हो जाए । इस दुर्घटना के कारण वह आजीवन अपने आमन्त्रित अतिथियों के सामने संकोचग्रस्त मुद्रा में बना रहेगा । उसकी आत्मा से यह भार शायद ही कभी उतर पाए । जब-जब उसकी सन्तान के विवाह की वर्षगांठ आएगी, दुर्घटना की कसक उसके पूरे परिवार का आनन्द भंग कर देगी । बड़ी से बड़ी रकम इसकी भरपाई कभी नहीं कर पाएगी ।

इसके साथ ही साथ उसे यह बात भी याद आएगी कि जिन अपनेवालों को उसने अपनी खुशी में शरीक किया था, उनमें से एक भी उसके दुख में शरीक नहीं हुआ । यह विचार उसे जीवन में कितनी बार उदास कर देगा ?

डाक्टर समीर की बात सुनकर मुझे अपने व्यवहार पर आत्म सन्तोष तो हुआ लेकिन अपनेवाले के प्रति अपनेवालों का यह व्यवहार मुझे व्यथित कर गया । हम कैसे अपने वाले हैं जो केवल लेने में ही विश्वास करते हैं, देने में बिलकुल ही नहीं ?

लेकिन मैं ऐसा आपवादिक व्यवहार कैसे कर पाया ? जवाब में कोई बीस बरस पहले की घटना आंखों के सामने नाच उठी ।

वह घटना फिर कभी ।

पगली सबका ईलाज कर गई


यह अनुभव रोचक तो है ही, तनिक विचित्र भी है । रतलाम, पश्चिम रेल्वे का मण्डल मुख्यालय है । (ज्ञानदत्तजी पाण्डे, किसी जमाने में यहीं, वरिष्ठ मण्डल परिचालन प्रबन्धक हुआ करते थे ।) यह छोटी लाइन (मीटर गेज) और बड़ी लाइन (ब्राड गेज) का जंक्शन भी है । छोटी लाइन पर पहले यह हैदराबाद से अजमेर तक जुड़ा हुआ था । लेकिन गेज परिवर्तन के चलते अब छोटी लाइन की गाड़ियां केवल रतलाम-पूर्णा के बीच सिमट कर रह गई हैं । सो, छोटी लाइन की सात गाड़ियां अब रतलाम से ही शुरु होती हैं और रतलाम आकर समाप्त भी ।


मण्डल कार्यालय मुख्यालय होने के कारण, चलती रेलों में टिकिट जांचने वाले दल अपना काम प्रायः ही यहीं से शुरु करते हैं । ये जांच दल कभी तो स्थानीय (रतलाम मण्डल के) होते हैं तो कभी अन्तर मण्डलीय (दूसरे मण्डलों के) और कभी अन्तर क्षेत्रीय रेलों के । ये टिकिट जांचने वाले (टी सी) रेल्वे-गणवेश (यूनीफार्म) में न होकर सामान्यतः सादे कपड़ों में ही होते हैं । बीमा ग्राहकों की तलाश में मुझे प्रायः ही यात्राएं करनी पड़ती हैं । यात्राओं के दौरान ऐसे सादे कपड़ों वाले टी सी ने जब-जब भी, जांचने के लिए टिकिट मांगा, तब-तब मैं ने उसका पहचान पत्र (आई सी) मांगा । मेरी ऐसी प्रत्येक मांग पर लगभग प्रत्येक टी सी ने बुरा माना । मना तो किसी ने नहीं किया लेकिन मेरी मांग पर हर बार मुझे उन्होंने कुपित होकर, आग उगलती और मुझे भस्म कर देने वाली नजरों से देखा । वे बोलते तो कुछ नहीं लेकिन उनकी मुख-मुद्रा पर उनके मनोभाव बिना किसी कोशिश के आसानी से पढ़े जो सकते थे - ‘दो कौड़ी के पेसेंजर ! तेरी यह हिम्मत कि तू हमसे आई सी मांग रहा है ?’ लेकिन मैं ने एक हर बार उनकी ऐसी नजरों की अवहेलना ही की । मेरी इस मांग पर टी सी की प्रतिक्रिया तो अपनी जगह, लेकिन सहयात्रियों की प्रतिक्रिया मुझे हर बार असहज करती रही । वे कहते - ‘अच्छा हुआ जो आपने आई सी मांग लिया । वर्ना आजकल तो कोई भी चोर-उचक्का, कोई भी गुण्ड-बदमाश टी सी बन जाता है ।’ प्रत्युत्तर में मैं उनसे पूछता कि उन्होंने पहचान क्यों नहीं मांगी तो वे ‘हें, हें’ कर रह जाते ।

लेकिन अभी-अभी, 3 अगस्त रविवार को, भैया साहब (श्रीयुत सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) की मिजाजपुर्सी के लिए की गई इन्दौर यात्रा में आते-जाते एकदम प्रतिकूल अनुभव हुआ । जांचकर्ता टी सी से आई से मांगने पर उसने जेब से, प्रसन्नतापूर्वक आई सी ऐसे निकाला मानो वह मांगे जाने की प्रतीक्षा ही कर रहा हो । एक टी सी तो अपना पहचान पत्र हाथ में लिए ही यात्रियों से टिकिट मांग रहा था ।

यह बदलाव क्यों कर हुआ ? यात्रियों में से तो किसी को मालूम था नहीं । कोई टी सी ही बता सकता था । सो, एक टी सी से ही पूछ लिया । जवाब में उसने जो किस्सा सुनाया, उसने पहले तो मुझे हंसाया लेकिन उसकी व्यंजना का भान होते ही मेरी हंसी बन्द हो गई और मैं उलझन में पड़ गया ।

हुआ यूं कि, कोई महीने भर पहले एक किशोरी पूरे दो दिन, रतलाम स्टेशन से शुरु होने वाली, मीटर गेज रेलों में बैठे यात्रियों के टिकिट जांचती रही । किसी ने न तो आपत्ति जताई और न ही किसी ने उससे आई सी मांगा । वह जिस सहजता और अधिकार भाव से टिकिट जांच रही थी उससे हर किसी को लगा कि यह या तो दूसरे मण्डल से आई है या दूसरी क्षेत्रीय रेल्वे से । पहला दिन उसने ‘राजी-खुशी’ अपना काम किया । दूसरे दिन भी सब ठीक-ठाक ही चल रहा था कि एक वरिष्ठ टी सी को मामला गड़बड़ लगा । इस तरह कोई अकेला टी सी कभी भी जांच के लिए नहीं आता । आता है तो पूरा दल आता है और उसके आगमन की औपचारिक तथा आधिकारिक सूचना स्थानीय अधिकारियों को दी जाती है । लेकिन इस लड़की के बारे में कहीं, किसी को कोई भी सूचना या जानकारी नहीं थी । इस टी सी ने रेल्वे पुलिस को अपना सन्देह बताया । पुलिस ने लड़की से पूछताछ की तो मालूम हुआ कि वह टी सी होना तो कोसों दूर रही, वह तो कहीं भी, किसी भी नौकरी में नहीं है ।


पुलिस-पकड़ में पूछताछ में मालूम हुआ कि वह उत्तर प्रदेश के किसी गांव की है । उससे अता-पता लेकर उसके पिताजी से सम्पर्क करने पर मालूम हुआ कि वह अर्ध विक्षिप्त है और चार-पांच दिनों से घर से गायब है । उसके मां-बाप परेशान थे । रतलाम रेल्वे पुलिस से उन्हें अपनी बेटी की जानकारी मिली । उसके पिता अगले ही रतलाम पहुंचे, सबको धन्यवाद दिया और अपनी बेटी को ले गए ।

रेल्वे पुलिस ने अपनी इस सफलता से स्थानीय मीडिया को रू-ब-रू कराया तो लड़की ने बताया कि वह टी सी बनना चाहती रही है और यह मौका उसे रतलाम में मिल गया । पुलिस ने बताया कि उस लड़की ने न तो किसी से दुव्र्यवहार किया और न ही किसी यात्री से कोई रकम वसूली । बस, टिकिट चेक करती रही ।

टी सी ने तनिक झेंपते हुए बताया कि इस घटना के बाद से वह अपना आई सी या तो हाथ में ही रखता है या जेब में सबसे ऊपर ताकि किसी के मांगने पर वह तत्काल अपनी ‘आधिकारिकता’ साबित कर सके (और शायद यह भी साबित कर सके कि वह कोई पागल नहीं है) ।

टी सी की बात सुनकर पहले तो मुझे हंसी ही आई लेकिन अगले ही पल यह ‘कपूर’ हो गई । मैं तनिक उलझन में पड़ गया । वह ‘पगली’ क्या कर गई ? क्या वही मनोविकार से ग्रस्त थी ? क्या वह साबित नहीं कर गई कि, अपनी पहचान बताने को अपनी हेठी समझने वाले तमाम लोग उससे पहले ही, उसके जैसे ही मनोविकार से ग्रस्त थे ?

हम सामान्य रह कर, सामान्य व्यवहार करते रहें, इसका भान हमें पागल ही कराएंगे ? यदि हां तो पागल वे हैं या हम ?

आसाराम शापिंग सेण्टर


इन दिनों आसारामजी की बहार आई हुई है । चारों ओर वे ही वे छाए हुए हैं । छाए हुए तो वे पहले भी रहते आए हैं लेकिन पहले वाले ‘छाए रहने’ में और इन दिनों वाले ‘छाए रहने’ में स्टिल फोटोग्राफी के ‘नेगेटिव-पाजिटिव’ वाला अन्तर है । कल तक वे हार-फूलों से लदे नजर आते थे, कल मैं ने ‘सहारा मध्यप्रदेश’ पर उन्हें देखा - कुछ लोग उनके पोस्टर को जूते मार रहे थे, दूसरे दृष्य में उनके पोस्टर को जूतों-चप्पलों की मालाएं पहनाई हुई थी तो तीसरे दृष्य में उनका पुतला जलाया जा रहा था । मैं ने देखा कि सारी दुनिया को मुक्ति की राह दिखाने वाला आदमी, हाथ जोड़े, हिचकियां बांध कर रोते-रोते, मीडिया से न्यायदान की याचना कर रहा है ।

मेरा अपना अनुभव रहा है कि आसारामजी और विवाद एक दूसरे के अपरिहार्य पूरक हैं या कि एक ही सिक्के दो पहलू हैं । कुछ बरस पहले रतलाम में उन्होंने भव्य सत्संग आयोजित किया था । देश के कोने-कोने से उनके अनुयायी यहां एकत्रित हुए थे । दो-एक दिन सब ठीक चला । अगले दिन सारे श‍हर में चर्चा थी कि इस ‘सत्संग आयोजन’ मे हिसार की एक किशोरी, बलात्कार की शिकार हो गई । थोड़ी बहुत अखबारबाजी भी हुई लेकिन किसी कार्रवाई की बात तो दूर रही, लोगों को उस किशोरी का नाम भी मालूम नहीं हो सका ।

रतलाम जिले के छोटे से गांव पंचेड़ में आसारामजी का आश्रम है । आश्रम के लिए जमीन लिए जाने के समय से ही यह आश्रम विवादित होने की सीमा तक चर्चित रहा । रतलाम से पंचेड़ जाने के लिए, रतलाम-मन्दसौर मार्ग पर, रतलाम से 12 किलोमीटर पर स्थित ग्राम नामली से डायवर्शन पर जाना होता है । इस आश्रम को लेकर नामली मे इतने सारे किस्से सुने जाते हैं कि गृहस्थ जीवन के सभी पक्षों से जुड़े प्रकरणों के, सैंकड़ों पृष्ठों का ग्रन्थ छप जाए । नामली के लोग न तो इस आश्रम में जाते हैं और न ही इस आश्रम को जाने का रास्ता किसी को बताते हैं । मेरे परिचित कुछ समृध्द परिवार कल तक आसारामजी के अन्ध भक्त थे, आज वे आसारामजी का नाम भी लेना-सुनना पसन्द नहीं करते ।

इन्हीं आसारामजी को लेकर एक रोचक किस्सा, उज्जैन के कांग्रेसी नेता मनोहर बैरागी ने कोई सवा साल पहले सुनाया था । रिश्तों के घुमावदार पेंचों के बीच वे मेरे मौसिया ससुर होते हैं । यह किस्सा उन्होंने केवल मुझे तो नहीं सुनाया लेकिन जिन (लगभग बीस) लोगों को सुनाया, उनमें सबसे पीछे मैं भी बैठा था ।


किस्से के मुताबिक, ‘उन दिनों’ आसारामजी का मुकाम उज्जैन में था । आसारामजी और नेता, एक दूसरे की जरूरतें पूरी करते हैं । सो, नेता उनके यहां जाते हैं या वे नेताओं को निमन्त्रित करते हैं, इस विगत में जाने से अच्छा यही है कि यही मान लिया जाए कि दोनों एक दूसरे के लिए लाभदायक होते हैं इसलिए परस्पर सम्पर्क में रहते हैं । सो, मनोहरजी और आसारामजी भी सम्पर्क में थे । बकौल मनोहरजी, आसारामजी का कहना था - ‘बैरागीजी ! बाकी सब नेता तो मेरे यहां आ गए लेकिन महाराज नहीं आए । आप ऐसा कुछ करो कि महाराज मेरे पाण्डाल में आएं ।’ महाराज याने माधवरावजी सिन्धिया । उन दिनों वे केन्द्रीय मन्त्रि मण्डल के सदस्य थे और मनोहरजी पर उनका भरपूर स्नेह, प्रेम जगजाहिर था । जब जगजाहिर था तो आसारामजी को कैसे मालूम न होता ? सो, वे मनोहरजी से बार-बार कहते - ‘बस, एक बार महाराज को लाओ ।’ मनोहरजी के लिए यह आसान नहीं था । माधवरावजी ऐसे आयोजनों में जाना तो दूर रहा, इनके बारे में बात करना भी पसन्द नहीं करते थे ।

मनोहरजी मुश्किल में फंस गए । आसारामजी की ‘महाराज को लाओ, महाराज को लाओ’ रुकने का नाम ले और मनोहरजी की हिम्मत नहीं कि माधवराजी से इसके लिए आग्रह-अनुरोध कर लें । एक-दो बार उन्होंने अतिरिक्त साहस जुटा कर माधवरावजी को संकेत किया भी तो उन्होंने नोटिस ही नहीं लिया । मनोहरजी की जान सांसत में । उज्जैन मे रहें तो आसारामजी या तो फोन कर दें या गाड़ी के साथ सन्देशवाहक भेज दें । उज्जैन में रहो तो आसारामजी का ‘आर्तनाद’ गूंजे और दिल्ली में रहो तो बिना काम के कब तक रहो ? मनोहरजी को न दिन में चैन न रात में करार ।

सो अन्ततः एक दिन मनोहरजी ने माधवरावजी को अपनी व्यथा-कथा सुनाते हुए कहा कि वे आसारामजी के लिए नहीं, मनोहरजी को आसारामजी से मुक्ति दिलाने के लिए ही सही, बस ! एक बार आसारामजी के पाण्डाल में हो आएं । अपने प्रिय पात्र को संकट से मुक्त करने के लिए माधवरावजी ने अपनी स्थापित छवि भंग करने की मंजूरी दे दी ।

माधवरावजी का उज्जैन कार्यक्रम तय हो गया लेकिन, प्रसारित सरकारी कार्यक्रम में आसारामजी के पाण्डाल में जाने का उल्लेख कहीं नहीं था । आसारामजी को तारीख और सम्भावित समय सूचित कर दिया गया ।

निर्धारित कार्यक्रमानुसार माधवरावजी आसारामजी के पाण्डाल में जाने के लिए निकले । पाण्डाल के बाहर पुलिस और सरकारी अमले का जमावड़ा और हरकतें नजर आने लगीं । पायलटिंग वाहन के सायरन की आवाज के पीछे-पीछे माधवरावजी पाण्डाल के बाहर पहुंचे, गाड़ी से उतरे, वर्दीधारी अफसर आगे-आगे दौड़े । इसके बाद मनोहरजी ने जो सुनाया वह मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा । मनोहरजी ने जो कुछ कहा वह कुछ इस तरह था - लम्बे-चैड़े, भव्य पाण्डाल के प्रवेश द्वार पर जैसे ही माधवरावजी नजर आए, दूर , पाण्डाल के दूसरे छोर पर (प्रवेश द्वार से एकदम सामने) मंच पर 'शोभायमान’ दिखाई दे रहे आसारामजी प्रवचन देते-देते, दोनों हाथ अभिनन्दन की मुद्रा में उठाते हुए, आसन से उठ खड़े हुए और जोर से बोले - ‘पधारो महाराज ।’ माधवराजी ऐसी अगवानी के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं थे । यह अकल्पनीय था । वे ठिठक गए । दोनों हाथों से, आसारामजी को नीचे बैठने का इशारा करते-करते मंच की ओर बढने लगे । उन्हें यह विचित्र लगा । वे असहज हो गए । तेजी से आसारामजी के सामने पहुंचे, उनका अभिवादन किया और कहा कि किसी सन्त को किसी राजनेता के स्वागत में इस तरह उठ खड़ा होना लोकाचार के खिलाफ है । सुनकर आसारामजी बोले - ‘चिन्ता न करें महाराज ! ये तो अपनी ही दुकान है और ऐसी ही है ।’ कहा तो उन्होंने माधवरावजी से था लेकिन उनके मंहगे और अत्याधुनिक श्रेष्ठ साउण्ड सिस्टम के अत्यन्त सम्वेदनशील माइकों के जरिये यह ‘सन्त वचन’ सबने साफ-साफ सुना । माधवरावजी और अधिक असहज हो गए, मनोहरजी (बकौल मनोहरजी ही) हक्के-बक्के हो गए । उस एक क्षण को मानो समूची सृष्टि जड़ हो गई, पाण्‍डाल में शून्य की नीरवता फैल गई । सब अकबकाए हुए, ‘फटी आंखें-बन्द जबान’ थे ।


अगले ही क्षण माधवरावजी ने इस जड़ता को भंग किया । उन्होंने एक बार फिर नमस्कार किया, मनोहरजी की ओर देखा, मुस्कुराए और मनोहरजी का कन्धा थपथपा कर उल्टे पांवों चल पड़े । मनोहरजी के मुताबिक, एक पल में सारा खेल निपट गया - चटपट । जादूगर के आसन पर आसारामजी बैठे थे लेकिन जादूगरी कर गए माधवरावजी । दुकान थी आसारामजी की और व्यापार कर लिया था माधवरावजी ने । आसारामजी के जीवन की एक साध पूरी हो चुकी थी, माधवरावजी अपने प्रिय पात्र को संकट मुक्त कर चुके थे लेकिन किसने क्या किया - यह किसी को समझ नहीं पड़ी ।


मनोहरजी ने ऐसा कुछ कह कर समापन किया था - मुझे लगा था कि आसारामजी अब मुझे नहीं पूछेंगे लेकिन उनके यहां मेरी पूछ-परख और बढ़ गई थी । शायद इसलिए कि सारी दुनिया की आशा पूरी करने वाले आसारामजी की एक आशा मेरे माध्यम से पूरी हो गई थी ।

सो, दुकान तो आखिरकार दुकान है । जरूरी नहीं कि हर बार मुनाफा ही हो । कभी-कभी घाटा भी हो जाता है । कुशल और खानदानी व्यापारी सब कुछ सहजता से सहन कर लेता है । लेकिन जिसे केवल लाभार्जन का दुर्व्यसन हो उसके लिए घाटा तो किसी प्राणलेवा हादसे से कम नहीं होता ।


आसाराम शापिंग सेण्टर शायद इसी क्षण से गुजर रहा है ।

मन्त्री का भाई कण्डक्टर


नेपाल के नव निर्वाचित उपराष्ट्रपति श्री परमानन्द झा के भाई घनानन्द झा, दरभंगा के हसनचक में सायकिल की दुकान चला रहे हैं - यह समाचार पढ़ कर ‘जेठ में सावन की फुहार’ जैसा तो लगा लेकिन रोमांच तनिक भी नहीं हुआ । कोई तीस बरस पहले मैं इसी दौर से गुजर चुका हूं और मैं ऐसे समाचारों का नायक रह चुका हूं ।


यह 1969 से 1972 के कालखण्ड की बात है । ग्वालियर रियासत की भूतपूर्व राजमाता, (अब दिवंगत) श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया के व्यक्तिगत अहम् की तुष्टि पूर्ति हेतु, कांग्रेसी विधायकों से थोक दल बदल करवा कर बनी, श्रीगोविन्द नारायणसिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकार का पतन हो चुका था । म.प्र.उच्च न्यायालय ने, राजनीति के लौहपुरुष कहे जाने वाले पण्डित द्वारिका प्रसाद मिश्र का चुनाव अवैध घोषित कर दिया था । संविद सरकार के पतन के बाद कांग्रेस में नेतृत्व का संघर्ष चल रहा था । श्रीश्यामाचरण शुक्ल ने, कांग्रेस विधायक दल के नेता का चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी थी । मिश्रजी ने पण्डित कुंजीलालजी दुबे को उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार बनाया था । आन्तरिक मतदान में श्यामाचरणजी को विधायक दल का बहुमत मिला । वे कांग्रेस विधायक दल के नेता निर्वाचित हुए और इसी आधार पर मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री भी बने । शुक्लजी ने अपने मन्त्रि मण्डल में दादा (श्री बालकवि बैरागी) को सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री के रूप में शामिल किया ।


तब मैं, 1968 में बी.ए. पास करने के बाद बेकार था । हमारा कोई पारिवारिक धन्धा कभी नहीं रहा । सो, कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था । सरकारी नौकरी करने की इच्छा एक पल भी मन में नहीं उठी । यद्यपि भिक्षा वृत्ति हमारी जीविका थी लेकिन मां बार-बार कहती रहती थी - ‘चाकरी कर लेना लेकिन नौकरी मत करना ।’ सो, सरकारी नौकरी करने के बारे में एक बार भी, गलती से भी मन में विचार नहीं आया । लेकिन कुछ न कुछ तो करना ही था ।


उन्हीं दिनों दादा के कुछ मित्रों ने भागीदारी में यात्री बस शुरु की । तब मन्दसौर जिले का विभाजन नहीं हुआ था और मन्दसौर हमारा जिला मुख्यालय था । बस मालिकों ने मनासा से मन्दसौर मार्ग का परमिट लिया । नई बस के लिए ड्रायवर और कण्डक्टर की तलाश हुई । मालिकों की नजर मुझ पर पड़ी । एक काम में दो बातें सध रही थीं - पहली, किसी अपने वाले को काम मिल रहा था और दूसरी, कण्डक्टर बिलकुल घर के आदमी की तरह होगा । सो, मुझे काम मिल गया - कण्डक्टरी का । वेतन तय हुआ, 5 रुपये रोज ।


कण्डक्टरी कभी की नहीं थी, सो शुरु-शुरु के कुछ दिन बहुत ही गड़बड़ वाले बीते । कभी किसी से पैसे कम ले लिए तो किसी को कम लौटाने पर अच्छी खासी बहस भी हुई । लेकिन बात बन गई और काम चल पड़ा ।


मेरी बस के परमिट का रूट मनासा से सीधे मन्दसौर का नहीं था बल्कि भादवाता, नीमच, जीरन, कुचड़ौद, मल्हारगढ़, नारायणगढ़, पीपल्या, बोतलगंज होते हुए वाला था । सामान्य से लगभग दुगुनी दूरी वाला । नीमच तब मनासा का सब डिविजनल मुख्यालय हुआ करता था लेकिन वहां सीआरपी का छोटा-मोटा मुख्यालय होने के कारण उसका अपना महत्व और अपनी अदा शुरू से रही मन्दसौर से ज्यादा और मन्दसौर से अधिक रही । मन्दसौर से तो दैनिक अखबार निकलते ही थे, नीमच से भी दैनिक अखबार निकलते थे ।


जब मैं ने कण्डक्टरी शुरु की तो लोग मुझे विचित्र नजरों से देखते थे । शायद दो कारणों से । पहला - मैं मन्त्री का भाई था और दूसरा, मैं बी.ए. पास था । इन दोनों बातों के कारण अखबारों में ‘बी.ए.पास कण्डक्टर’ और ‘मन्त्री का भाई कण्डक्टर’ जैसे समाचार या तो प्रमुखता से या फिर ‘बाक्स न्यूज’ के रूप में छपे । मैं, बस के पिछले दरवाजे पर, फाटक खुली रखकर, पूरी ताकत और पूरे गले से, रास्ते के गांवों के नाम ले ले कर यात्रियों को पुकारता (जैसे - नीमच ! नीमच !!, जीरन ! जीरन!!) और लोग मुझे हैरत से देखते । मुझे उनकी हैरत पर हैरत होती ।


लेकिन मेरे कण्डक्टर बनते ही हवाओं में - ‘मन्त्री बनते ही बैरागी ने मोटर खरीद ली’ या फिर ‘नाम तो औरों का है लेकिन मोटर तो बैरागी की ही है’ जैसी बातें गूंजने लगीं । लोग घुमा-फिरा कर कुरेदते, मैं वास्तविकता बताता । वे मुझे सलाह देते कि मैं लोगों की बातों पर ध्यान न दूं लेकिन मेरे पीठ फेरते ही वे भी मुझे झूठा लबार कहते ।


अफवाह गाढ़ी बनती और दादा के राजनीतिक विरोधी चिन्दी का थान बनाते उससे पहले ही मुझे मन्दसौर से प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक अखबार के सम्पादन का काम मिल गया । यह मेरी पसन्द का काम था । सो, मैं बस की पिछली फाटक को नमस्कार कर चला आया । मैं चला तो आया लेकिन ‘टर’ मेरे साथ बना रहा । पहले मैं ‘कण्डक्टर’ था, अब ‘एडीटर’ बन गया था ।


इस कण्डक्टरी ने मुझे कुछ अच्छी बातें दीं - चलती बस में तेजी से लिख लेना, हिचकोले खाती बस में नोटों को गिन लेना और उन्हें व्यवस्थित जमा लेना । देहाती यात्रियों के सम्वादों के जरिए मुहावरों और लोकोक्तियों की व्यंजना की ताकत मैं ने इस कण्डक्टरी के दौर में ही जानी-समझी ।


सो, बात वहीं पर खतम कर रहा हूं कि नेपाल के नवनिर्वाचित उप राष्ट्रपति के भाई द्वारा सायकिल की दुकान चलाने की खबर ने मन को तसल्ली तो दी, लेकिन रोमांचित बिलकुल नहीं किया । मैं तो बरसों पहले ही ऐसी कथा का नायक जो रह चुका हूं !

मन्त्री का भाई कण्डक्टर


नेपाल के नव निर्वाचित उपराष्ट्रपति श्री परमानन्द झा के भाई घनानन्द झा, दरभंगा के हसनचक में सायकिल की दुकान चला रहे हैं - यह समाचार पढ़ कर ‘जेठ में सावन की फुहार’ जैसा तो लगा लेकिन रोमांच तनिक भी नहीं हुआ । कोई तीस बरस पहले मैं इसी दौर से गुजर चुका हूं और मैं ऐसे समाचारों का नायक रह चुका हूं ।


यह 1969 से 1972 के कालखण्ड की बात है । ग्वालियर रियासत की भूतपूर्व राजमाता, (अब दिवंगत) श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया के व्यक्तिगत अहम् की तुष्टि पूर्ति हेतु, कांग्रेसी विधायकों से थोक दल बदल करवा कर बनी, श्रीगोविन्द नारायणसिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकार का पतन हो चुका था । म.प्र.उच्च न्यायालय ने, राजनीति के लौहपुरुष कहे जाने वाले पण्डित द्वारिका प्रसाद मिश्र का चुनाव अवैध घोषित कर दिया था । संविद सरकार के पतन के बाद कांग्रेस में नेतृत्व का संघर्ष चल रहा था । श्रीश्यामाचरण शुक्ल ने, कांग्रेस विधायक दल के नेता का चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी थी । मिश्रजी ने पण्डित कुंजीलालजी दुबे को उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार बनाया था । आन्तरिक मतदान में श्यामाचरणजी को विधायक दल का बहुमत मिला । वे कांग्रेस विधायक दल के नेता निर्वाचित हुए और इसी आधार पर मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री भी बने । शुक्लजी ने अपने मन्त्रि मण्डल में दादा (श्री बालकवि बैरागी) को सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री के रूप में शामिल किया ।


तब मैं, 1968 में बी.ए. पास करने के बाद बेकार था । हमारा कोई पारिवारिक धन्धा कभी नहीं रहा । सो, कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था । सरकारी नौकरी करने की इच्छा एक पल भी मन में नहीं उठी । यद्यपि भिक्षा वृत्ति हमारी जीविका थी लेकिन मां बार-बार कहती रहती थी - ‘चाकरी कर लेना लेकिन नौकरी मत करना ।’ सो, सरकारी नौकरी करने के बारे में एक बार भी, गलती से भी मन में विचार नहीं आया । लेकिन कुछ न कुछ तो करना ही था ।


उन्हीं दिनों दादा के कुछ मित्रों ने भागीदारी में यात्री बस शुरु की । तब मन्दसौर जिले का विभाजन नहीं हुआ था और मन्दसौर हमारा जिला मुख्यालय था । बस मालिकों ने मनासा से मन्दसौर मार्ग का परमिट लिया । नई बस के लिए ड्रायवर और कण्डक्टर की तलाश हुई । मालिकों की नजर मुझ पर पड़ी । एक काम में दो बातें सध रही थीं - पहली, किसी अपने वाले को काम मिल रहा था और दूसरी, कण्डक्टर बिलकुल घर के आदमी की तरह होगा । सो, मुझे काम मिल गया - कण्डक्टरी का । वेतन तय हुआ, 5 रुपये रोज ।


कण्डक्टरी कभी की नहीं थी, सो शुरु-शुरु के कुछ दिन बहुत ही गड़बड़ वाले बीते । कभी किसी से पैसे कम ले लिए तो किसी को कम लौटाने पर अच्छी खासी बहस भी हुई । लेकिन बात बन गई और काम चल पड़ा ।


मेरी बस के परमिट का रूट मनासा से सीधे मन्दसौर का नहीं था बल्कि भादवाता, नीमच, जीरन, कुचड़ौद, मल्हारगढ़, नारायणगढ़, पीपल्या, बोतलगंज होते हुए वाला था । सामान्य से लगभग दुगुनी दूरी वाला । नीमच तब मनासा का सब डिविजनल मुख्यालय हुआ करता था लेकिन वहां सीआरपी का छोटा-मोटा मुख्यालय होने के कारण उसका अपना महत्व और अपनी अदा शुरू से रही मन्दसौर से ज्यादा और मन्दसौर से अधिक रही । मन्दसौर से तो दैनिक अखबार निकलते ही थे, नीमच से भी दैनिक अखबार निकलते थे ।


जब मैं ने कण्डक्टरी शुरु की तो लोग मुझे विचित्र नजरों से देखते थे । शायद दो कारणों से । पहला - मैं मन्त्री का भाई था और दूसरा, मैं बी.ए. पास था । इन दोनों बातों के कारण अखबारों में ‘बी.ए.पास कण्डक्टर’ और ‘मन्त्री का भाई कण्डक्टर’ जैसे समाचार या तो प्रमुखता से या फिर ‘बाक्स न्यूज’ के रूप में छपे । मैं, बस के पिछले दरवाजे पर, फाटक खुली रखकर, पूरी ताकत और पूरे गले से, रास्ते के गांवों के नाम ले ले कर यात्रियों को पुकारता (जैसे - नीमच ! नीमच !!, जीरन ! जीरन!!) और लोग मुझे हैरत से देखते । मुझे उनकी हैरत पर हैरत होती ।


लेकिन मेरे कण्डक्टर बनते ही हवाओं में - ‘मन्त्री बनते ही बैरागी ने मोटर खरीद ली’ या फिर ‘नाम तो औरों का है लेकिन मोटर तो बैरागी की ही है’ जैसी बातें गूंजने लगीं । लोग घुमा-फिरा कर कुरेदते, मैं वास्तविकता बताता । वे मुझे सलाह देते कि मैं लोगों की बातों पर ध्यान न दूं लेकिन मेरे पीठ फेरते ही वे भी मुझे झूठा लबार कहते ।


अफवाह गाढ़ी बनती और दादा के राजनीतिक विरोधी चिन्दी का थान बनाते उससे पहले ही मुझे मन्दसौर से प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक अखबार के सम्पादन का काम मिल गया । यह मेरी पसन्द का काम था । सो, मैं बस की पिछली फाटक को नमस्कार कर चला आया । मैं चला तो आया लेकिन ‘टर’ मेरे साथ बना रहा । पहले मैं ‘कण्डक्टर’ था, अब ‘एडीटर’ बन गया था ।


इस कण्डक्टरी ने मुझे कुछ अच्छी बातें दीं - चलती बस में तेजी से लिख लेना, हिचकोले खाती बस में नोटों को गिन लेना और उन्हें व्यवस्थित जमा लेना । देहाती यात्रियों के सम्वादों के जरिए मुहावरों और लोकोक्तियों की व्यंजना की ताकत मैं ने इस कण्डक्टरी के दौर में ही जानी-समझी ।


सो, बात वहीं पर खतम कर रहा हूं कि नेपाल के नवनिर्वाचित उप राष्ट्रपति के भाई द्वारा सायकिल की दुकान चलाने की खबर ने मन को तसल्ली तो दी, लेकिन रोमांचित बिलकुल नहीं किया । मैं तो बरसों पहले ही ऐसी कथा का नायक जो रह चुका हूं !