‘कुछ’ तो हो सकता है निर्मल नरुला का

'कुछ नहीं होगा निर्मल नरुला कापोस्ट लिखने के बाद कल से ही अटपटा लग रहा था। अपराध बोध सा लग रहा था। लग रहा था, जाने-अनजाने मैं निर्मल नरुला का न केवल बचाव कर रहा हूँ अपितु उसके लिए समर्थन भी जुटा रहा हूँ। साफ नजर आ रहा है कि गड़बड़ हो रही है तो क्यों नहीं, कुछ हो सकता? मुमकिन है, सामान्य से अधिक मेहनत करनी पड़े किन्तु कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए।

कल दिन भर बेचैनी रही। पुराने कागज-पत्तर टटोलता-पलटता रहा। याद आ रहा था कि ऐसा ही ‘कुछ’ पहले कहीं न कहीं हुआ था जिस पर सजा हुई थी।

आखिरकार मुझे 1976 के कुछ कागजों में,  कच्चे स्वरूप में लिखा एक संस्मरण मिला। मैं उछल पड़ा। बस! यह सब लिखते हुए एक कसक साल रही है - इसके नायक का नाम नहीं दे पाऊँगा। वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। होते तो उनकी अनुमति लेने का प्रयास करता। पूरा विश्वास है कि वे होते तो पहली ही बार में अनुमति दे देते। किन्तु किसी दिवंगत की अनुपस्थिति में उसे अन्यथा लिए जाने का अपराध करने की अनुमति मन नहीं दे रहा।

घटना मन्दसौर की है। पत्रकारिता में मेरे गुरु (अब स्वर्गीय) श्रीयुत् हेमेन्द्र त्यागी ने यह किस्सा सुनाया था। मन्दसौर में आयोजित एक कवि सम्मेलन में आए एक कवि से मिलने के लिए त्यागीजी गए। ये कवि उद्भट विद्वान् तो थे ही, अद्भुत आशुकवि भी थे। रहन-सहन और व्यवहार सर्वथा असामान्य। इतना और ऐसा कि वे खुद को घामड़ और औघड़ तक कह देते थे। एकदम अक्खड़। किसी को भी, कहीं भी, कुछ भी कह देना उनकी फितरत भी थी। जिसे लाड़ करते, उस पर न्यौछावर हो जाते और जिस को निपटाना होता उसकी इज्जत का फलूदा कर देते। दारु पीते तो रोज, एक ही बैठक पर पूरी बोतल पी जाएँ और न पीने पर आए महीनों/बरसों न पीएँ। अंग्रेजी के ‘अनप्रिडेक्टिबल’ शब्द के वे वास्तविक मानवाकार थे।

अभिवादन के बाद बातें शुरु हुईं तो त्यागीजी ने कहा कि वे उनसे पहले मिल चुके हैं। उन्होंने पूछा - ‘कब?’ त्यागीजी की बताई तारीखें और वर्ष सुनकर वे बोले - ‘आप झूठ बोल रहे हैं। उन दिनों तो मैं जेल में था।’ त्यागीजी सन्न! शिष्टाचारवश बोला गया उनका झूठ न केवल तत्क्षण पकड़ा जाएगा बल्कि उन्हें मुँह पर ही, हाथों-हाथ ही झूठा भी कह दिया जाएगा - यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था।

अपनी झेंप मिटाने हेतु त्यागीजी ने फौरन पूछा - ‘आप! और जेल में! भला क्यों?’ तब उन कविराज ने जो किस्सा सुनाया वह कुछ इस तरह था -

‘‘तब मैं कवि के रूप में स्थापित नहीं हुआ था। काम-काज के नाम पर कुछ भी नहीं था। घर खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था। तब रातों-रात धनपति होने की तरकीब सोची।

‘‘जैसे-तैसे कुछ पैसे जुटा कर मैं ने अखबारों विज्ञापन दिया - ‘एक बार हजार रुपये देकर दो वर्षों तक घर बैठे हजार रुपये मासिक प्राप्त कीजिए।’ विज्ञापन ने तहलका मचा दिया। सप्ताह पूरा होने से पहले ही मनी आर्डरों का ढेर लग गया। पैसा समेटे, समेटा नहीं जा रहा था। मैंने रुपये भेजनेवालों के नाम-पतों की व्यवस्थित सूचियाँ बनाईं। जब मनी आर्डर आने की गति धीमी हुई तो मैंने रुपये भेजनेवालों की, शहरवार सूचियाँ बनाईं। एक शहर को केन्द्र बना कर उसके आसपास के इलाके के (एक हजार रुपये भेजनेवाले) लोगों को विज्ञापन के जरिए बुलाया। सबके साक्षात्कार लिए और कहा कि वे योजना के लाभ लेने के पात्र पाए गए हैं और जल्दी ही उन्हें हजार रुपये मासिक मिलना शुरु हो जाएगा।

‘‘साक्षात्कार लेने के मेरे इस कदम से लोगों में मेरे प्रति विश्वास और बढ़ा। मनी आर्डरों की संख्या और गति में थोड़ी बढ़ोतरी हुई।

‘‘जब देखा कि अब पानी ठहर गया है तो मैंने भारत के समाचार पत्र पंजीयक को आवेदन देकर, जुगाड़ लगा कर एक मासिक पत्र का शीर्षक (टाइटिल) हासिल किया। शीर्षक था - ‘हजार रुपये।’

‘‘शीर्षक मिलते ही मैंने जिला दण्डाधिकारी के समक्ष घोषणा-पत्र प्रस्तुत करने सहित तमाम औपचारिकताएँ पूरी कर अखबार छपवाया - ‘हजार रुपये मासिक’ और सूचियों के अनुसार पतों पर डाक से भेज दिया।

पहला अंक मिलते ही हंगामा हो गया। लेकिन अपने यहाँ लोग बोलते ज्यादा और करते कम हैं। इसलिए दो-तीन महीने यूँ ही निकल गए। लोगों के पास ‘हजार रुपये मासिक’ तीसरे महीने भी पहुँच गया।

‘‘लेकिन वो कबीरदासजी कह गए हैं ना - ‘पाप छुपाए न छुपे, छुपे तो मोटा भाग। दाबी-दूबी ना रहे, रुई लपेटी आग।।’ सो, चौथे महीने चार शहरों में मुझ पर धोखाधड़ी और ठगी के मुकदमे लग गए। मेरी तकदीर अच्छी थी कि ये चारों मुकदमे एक ही जिले में लगे थे। मेरे वकील ने अपनी विद्वत्ता का चरम उपयोग कर वे सारे मुकदमे मेरे गृह नगर की अदालत में स्थानान्तरित करवा लिए।

‘‘मुकदमे चलते रहे और लोगों को घर बैठे ‘हजार रुपए मासिक’ मिलते रहे। मेरे वकील ने मुकदमों को यथा सम्भव लम्बा खींचने का प्रयास किया और बड़ी हद तक कामयाब भी हुआ। किन्तु बकरे की माँ आखिर कब तक खैर मनाती। आखिरकार कयामत का दिन आ ही गया।

‘‘जज साहब ने कहा कि शाब्दिक अर्थों के आधार पर मैं बेशक निरपराध हूँ किन्तु हमारा कानून केवल शब्दों पर नहीं चलता। मेरे मामले में शब्द तो मेरा साथ दे रहे थे किन्तु ‘मंशा’ (इण्टेन्शन्स) मेरे विरुद्ध तन कर खड़ी थी। उसी आधार पर जज साहब ने मुझे अठारह महीनों के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। जज साहब ने कहा कि कोई और होता तो वे कम और सादी सजा सुनाते किन्तु मेरा कवि होकर शब्दों का ऐसा आपराधिक दुरुपयोग उन्हें अत्यधिक नागवार गुजरा। सो उन्होंने मुझे ‘सजा बामशक्कत’ सुनाई।

‘‘मैंने इस फैसले को सर झुकाकर कबूल किया। जानता था कि अपील में जाऊँगा तो भी सजा में कोई अन्तर नहीं पड़ना। उल्टे, वकीलों की फीस चुकाने में बड़ी रकम खर्च हो जाएगी। इसलिए बेहतर यही समझा कि बुढ़ापा बिगड़ने से बचा लिया जाए और जवानी में ही सजा काट ली जाए।

‘‘अठारह महीनों के बाद मैं जब जेल से बाहर आया तब तक लोग सब भूल चुके थे। मेरी पत्नी ने समझदारी बरती और रुपया भले ही हराम का था किन्तु खर्च करने और बचाने में समझदारी बरती। मेरी गैरहाजरी में घर बराबर चलता रहा। हाँ, पत्नी को जरूर पग-पग पर अपपानित होना पड़ा। किन्तु उसने उदारता और बड़प्पन बरत कर मुझे क्षमा कर दिया।

‘‘जेल से आते ही मैंने खुद पर ध्यान दिया। जेलर साहब कहा करते थे कि जितनी मेहनत शार्ट-कट में लगाई, उतनी ही मेहनत कविता में लगाता तो मुमकिन है कि इससे अधिक रुपये मिलते और प्रसिद्धी मिलती सो अलग। वह बात मैं नहीं भूला। जेल में रहते हुए भी कविताएँ लिखता रहा और बाहर आने के बाद तो मैं कविता का ही हो कर रह गया।

‘‘आज शब्दों ने मेरे ‘अनर्थ’ को ढँक दिया और सरस्वती की बड़ी बहन बन कर लक्ष्मी मुझ पर बरस रही है। लोग मेरा अतीत भूल गए हैं। मैं भी भूल ही जाता किन्तु त्यागीजी! आपने झूठ बोलकर मुझे वह सब याद दिला दिया।’’

कोई छत्तीस बरस पहले का लिखा यह कच्चा संस्मरण मुझे हौसला दे गया। यदि यह बात अच्छे लोगों तक पहुँचे और वे ‘मंशा’ के आधार पर मामला बढ़ाएँ तो मुझे विश्वास है निर्मल नरुला का ‘कुछ’ ही नहीं ‘काफी कुछ’ हो सकता है।

यह सब लिख कर मैं काफी हलका अनुभव कर रहा हूँ - स्तनपान कर रहे गौ-वत्स के मुँह से झर रहे फेन की तरह हलका।

कलकलवती नदी: सरोज कुमार

पठारों से लेकर
ढलानों की फिसलन तक
बिखरे हैं इस पोथी के पन्ने!
अवसाद के कगारों से
आनन्द के कछारों तक
पसरी है
एक कलकलवती नदी!
फैले हुए चौड़े पाट
कुछ डूबे, कुछ टूटे घाट
कई जगह उथली है
जगह-जगह गहरी है
भीतर से बहती है
ऊपर से ठहरी है!

ऐसी चादर, जिसे मैंने
ओढ़ा है, बिछाया है
लेकिन कबीर साहब की तरह
जैसी की तैसी
नहीं जा सकेगी तहाई!

झरने के सफेद धुएँ से लेकर
नीली आँखों वाली
नदी तक,
नदी से बाँध
बाँध से बिजली
बिजली से लेकर अँधेरों तक फैले
अनुभवों की
कवायद करती चतुरंगिणी!

प्रेम से लेकर प्रेम तक
विवाह से तलाक तक
तलाक से तन्हाई
तन्हाई से
अनाम सम्बन्धों के
मूक रिश्तों को भेदकर
निकलती, सुरंग जैसी
जिन्दगी!

मन तक पहुँचने की कोशिश में
शरीरों से खेलती,
अर्थ की तलाश में
शब्दों को झेलती,
बार-बार मिट-मिट कर
बार-बार बन-बन कर
अनेक आवृत्तियों में
एक ही उपस्थिति को
दुहराती तिहराती
वही-वही जिन्दगी!

कमरे से कक्षा तक
दरी से मंच तक
लिखने से दिखने तक
परिचितों से परायों तक
कितना लम्बा सफर रही है
यह हाँफती जिन्दगी!

दो सौ साल जी लिया लगता है,
वैसे मरना
कौन चाहता है, मुर्दा भी नहीं!
पर और जीने की
जरूरत नहीं लगती!
दुहरा रहा हूँ स्वयम् को!
यह दुहराना
जिन्दगी की रिहर्सल नहीं है!
यह दुहराना
मजबूत होना भी नहीं है!
चीजों के सध जाने के बाद का
ठहराव ठिठका हुआ है
इस हलचल में!

नया खेल चाहिए!
नए के नाम पर-
वही-वही खेल रचती है
नई-नई चालों से जिन्दगी!
इतना चल चुका हूँ, अब
नई चाल नहीं चल पाऊँगा!
इतना ही हो सकता था चालाक!

यों तो जितना
जिया जाए कम है
कब्र में लटका भी
मरना नहीं चाहता,
पुनर्जन्म का ढिंढोरची
पुण्यात्मा भी नहीं!
लौटना सम्भव नहीं है
इस यात्रा में!
यों कुछ पड़ावों पर
लौटने की इच्छा
बराबर रही सुलगती!

कुछ मोड़ याद आते हैं
जहाँ सही-गलत मुड़ा था,
कुछ जोड़ याद आते हैं
जहाँ सही-गलत जुड़ा था।
रिवर्स गियर क्यों नहीं लगता
बहती हुई नदी में?
इतिहास में घुसकर
कुछ पन्ने फाड़ने-चिपकाने की
इजाजत क्यों नहीं है?

यात्रा जो हुई है
और है,
वही एकमात्र है
अनन्त है
शरीर से साँस तक!

लगता है, बस
शरीर ही शरीर है!
मन भी है.....
पर वह हो चुका है मुक्त,
मिल गया है उसे मोक्ष
सब कुछ पा जाने की
अनुभूति ही मोक्ष है!

अनुभूति तो होती है अनुभूति ही,
चट्टानों की छाती पर खड़ी हो
चाहे रेत के बगूलों पर
फर्क नहीं पड़ता है!

दो सौ साल जी चुका
लगता है।
हजार साल भी जी सकता हूँ,
पर जीना
कोई प्रतियोगिता का
मामला नहीं है!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

कुछ नहीं होगा निर्मल नरुला का

व्यापक सामाजिक सराकारों के सन्दर्भ में, निर्मल सिंह नरुला उर्फ निर्मल बाबा के उपक्रम से असहमत होते हुए और उसके उपक्रम को अन्ततः समाज को क्षति पहुँचानेवाला मानते हुए, मुझे नहीं लगता कि निर्मल नरुला को कानूनन अपराधी साबित किया जा सकेगा और उसे दण्डित किया जा सकेगा।

मैं कानून का जानकार नहीं किन्तु पहली नजर में लगता है कि उसने कानूनन कोई अपराध नहीं किया है।
उसने किसी को अपने दरबार में आने का निमन्त्रण नहीं दिया। उसने तो केवल विज्ञापित किया कि उसका दरबार लगता है और सूचित किया कि उसके इस दरबार में मौजूद रहने, अगली पंक्ति में बैठने और उससे सवाल पूछने के लिए निर्धारित शुल्क की रकम क्या है।

निर्मल नरुला ने किसी को कोई वादा नहीं किया कि उसके दरबार में भाग लेने से किसी को कोई लाभ होगा या भाग लेनेवाले की कोई समस्या हल हो जाएगी या भागलेनेवाले को किसी पुरानी झंझट से मुक्ति मिल जाएगी।

निर्मल नरुला के दरबार में हुए कुछ प्रश्नोत्तरोंवाले कार्यक्रम मैंने टेलीविजन पर देखे हैं। मैंने एक बार भी उसे यह कहते नहीं सुना/देखा कि वह कोई अवतार या चमत्कारी व्यक्ति है या उसके कहने से कोई चमत्कार हो जाएगा। इसके विपरीत मैंने एकाधिक बार उसे लोगों को सलाह देते हुए सुना/देखा कि किसी प्राप्ति या प्रतिफल की आशा में यदि कोई, कुछ करता है तो वह सही नहीं है। आदमी को ‘शक्तियों’ में, ईश्वर में विश्वास और आस्था रखते हुए अपना काम करते रहना चाहिए, उस पर कृपा होगी।

अपनी समस्याएँ प्रस्तुत करनेवालों को निर्मल नरुला ने कोई उपाय बताते हुए उस उपाय के शर्तिया कारगर होने का दावा कभी नहीं किया।

निर्मल नरुला के दरबार/समागम में (शुल्क चुका कर) भाग लेनेवालों में से एक ने भी कोई असन्तोष नहीं जताया है न ही किसी ने, निर्मल नरुला के विरुद्ध, वचन भंग की शिकायत ही की है।

निर्मल नरुला के विरुद्ध जो भी मामले पुलिस में लगाए गए हैं वे सबके सब, जागरूक लोगों ने अपनी सामाजिक जिम्‍मेदारी अनुभव करते हुए लगाए हैं। इनमें से किसी ने निर्मल नरुला के दरबार/समागम में न तो भाग लिया है न ही कोई सवाल पूछा है, न ही अपनी किसी समस्या का निदान चाहा है। कानूनी दृष्टि से इनमें से कोई भी ‘प्रभावित’ या ‘पीड़ित’ नहीं है।

निर्मल नरुला ने किसी पर दबाव बना कर रकम नहीं ली है। जो भी रकम ली है, नम्बर एक में ली है। रकम का उपयोग करने के बारे में उसने कभी, कोई आश्वासन नहीं दिया है। पहली नजर में, लोगों द्वारा विभिन्न खातों में जमा की गई रकम, निर्मल नरुला की व्यक्तिगत सम्पत्ति अनुभव होती है जिसके, अपनी इच्छानुसार उपयोग के लिए वह स्वतन्त्र और कानूनी रूप से अधिकृत है।

चूँकि सारी रकम, लोगों ने सीधे ही बैंक खातों में जमा की है, इसलिए उसे छुपा पाना निर्मल नरुला के लिए न तो सम्भव है और न ही उसकी ऐसी कोई मंशा अनुभव होती है। यह कोई ‘घपला’ या ‘गबन’ भी अनुभव नहीं होता। जाहिर है कि इस रकम पर उसने अपने कानूनी ज्ञान के अनुसार या फिर अपने कानूनी सलाहकारों के अनुसार आय-कर चुकाया ही होगा। यदि नहीं चुकाया होगा तो यह, आयकर कानूनों के अन्तर्गत केवल आर्थिक रूप से दण्डनीय अपराध होगा और आय कर विभाग द्वारा निर्धारित कर राशि, उस पर अतिरिक्त शुल्क और दण्ड की रकम (यदि आरोपित की गई तो) उसे चुकानी पड़ेगी।

निर्मल नरुला के विरुद्ध कितने लोग गवाही देने के लिए न्यायालय के समक्ष जाएँगे? न्यायालय यदि अपनी ओर से भी संज्ञान ले ले तो भी न्यायालय की सहायता के लिए कितने लोग स्वैच्छिक रूप से प्रस्तुत होंगे?

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, निर्मल नरुला के विरुद्ध, न्यायालय को कोई सहायता करेगा, इसमें मुझे यथेष्ठ सन्देह है। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के मुकाबले, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो अपने मुनाफे को प्राथमिकता दी। निर्मल नरुला के दरबार की रेकार्डिंग को, लम्बे अरसे तक विज्ञापन के रूप में लोगों के सामने परोसते रहे। वे तो इस गोरख-धन्धे में निर्मल नरुला के आर्थिक सहयोगी के रूप में ही प्रस्तुत हुए। निर्मल नरुला का भण्डा-फोड़ अपनी ओर से उन्हीं चैनलों ने किया जिन्हें दरबार/समागम के विज्ञापन नहीं मिले। ये विज्ञापन दिखानेवाले चैनल, अन्ततः निर्मल नरुला के विरुद्ध मैदान में आए तो सही किन्तु वे ‘आए’ नहीं, लोगों के बीच अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने की व्यावसायिक मजबूरी में उन्हें ‘आना पड़ा’ और वे मैदान में आए भी तो, हम सबने देखा कि उनकी धार कितनी भोथरी थी। हम सब खूब अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की प्राथमिकता सूची में ‘टीआरपी’ नम्बर एक पर है, बाकी सारी बातें या तो हैं ही नहीं और हैं भी तो चैनलों की सुविधा/इच्छा के अधीन।

निर्मल नरुला ने अपने दरबार/समागम को कभी धार्मिक नहीं कहा किन्तु लोगों ने इसे अपने आप ही धर्म से जोड़ लिया है। मैंने शायद गलत कह दिया। कोई जोड़े या नहीं, यह उपक्रम है ही ऐसा जिसे हम अपनी स्थापित मानसिक ग्रन्थियों के कारण धार्मिक ही मानते हैं। सो, इसके विरुद्ध या तो कोई खुलकर मैदान में आएगा ही नहीं और यदि आएगा भी तो उसकी पराजय सुनिश्चित है। विभिन्न चैनलों पर हुई बहसों में कुछ भगवाधारी भी निर्मल नरुला के विरुद्ध प्रस्तुत हुए थे किन्तु उनकी बातों में ‘तर्क और तथ्य’ नहीं थे। या तो गुस्सा था या फिर खीझ - ‘हाय! रातों-रात करोड़पति बनने की यह अकल मुझे क्यों नहीं आई?।’

ऐसे लोगों पर हुई कानूनी कार्रवाई और सामाजिक व्यवहार के पूर्वानुभव भी कोई आस नहीं बँधाते। दक्षिण भारत के एक ‘सन्त’ तो रंगरेलियाँ करते टेलीविजन पर देखे गए थे, उन पर समलैंगिक यौन व्यवहार के आरोप भी लगे। किन्तु इस बवण्डर की धूल जल्दी ही बैठ गई और हम सबने उन्हीं ‘सन्त’ को, स्वर्ण सिंहानारूढ़ हो, रथ में बैठे देखा जिसके आगे-पीछे हजारों स्त्री-पुरुष जय-जयकार करते हुए, नाचते-गाते चल रहे थे।

कानून अपनी ओर से अधिक कुछ कर नहीं पाता और समाज? समाज न केवल सब कुछ भूल जाता है अपितु ऐसे लोगों को फौरन ही माथे पर बैठा लेता है - इतनी जल्दी मानो भूलने, क्षमा करने और फिर से माथे पर बैठाने के लिए उतावला हो।

ऐसे में, मुझे नहीं लगता कि निर्मल नरुला किसी कानूनी या सामाजिक पकड़ में आ पाएगा। हाँ, कुछ दिनों के लिए उसके खातों में आवक जरूर कम हो जाएगी। लेकिन यह दौर बहुत लम्बा नहीं खिंचेगा क्योंकि सारा संसार दुःखिया है और जब तक एक भी मूर्ख मौजूद है तब तक करोड़ों बुद्धिमानों की दुकानें चलती रहेंगी। आप-हम भी इसी तरह लिखते रहेंगे और धरती अपनी धुरी पर घूमती रहेगी।


लगे रहो निर्मल नरुला! तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा जब तक कि तुम खुद ही इस पर आमादा नहीं हो जाओ।

अच्छी लग रही हैं..... : सरोजकुमार

अच्छी लग रही हैं आप,
बहुत अच्छी लग रही हैं आप!

कुछ नहीं है बात ऐसी
जो नहीं होती,
वही जूड़ा, वही ब्लाउज
रोज की धोती!

आँख में गड़ने लगी
क्यों रूप की यह छाप?
अच्छी लग रही हैं आप,
बहुत अच्छी लग रही हैं आप!

पास आना और
आकर बैठ जाना पास,
तोड़ देना, यों
हमारे प्यार का उपवास!

देख लो, बढ़ने लगा है
निकटता का ताप,
अच्छी लग रही हैं आप,
बहुत अच्छी लग रही हैं आप!
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‘शब्द कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

एक फेसबुकिया अनुभव यह भी

फेस बुक के जरिए मिला, यह अनुभव मेरे लिए विचित्र और स्तम्भित कर देनेवाला सर्वथा अनपेक्षित अनुभव है।

मैं ‘बतरसिया’ हूँ। मेरी माँ कहा करती थी कि मैं सूने गाँव में भी सात दिन रह सकता हूँ। फेस बुक के बारे में जितना सुना और जाना था, उससे लगा कि यह तो चौराहे पर जमी गप्प गोष्ठी या अड्डेबाजी जैसा मामला है जिसमें कोई भी, कभी भी आकर शामिल हो सकता है, बातें सुन सकता है, चाहे तो अपनी बात भी कह सकता है, जब तक ‘रस’ आए तब तक मौजूद रह सकता है वर्ना किसी को नमस्कार किए बिना, किसी से अनुमति लिए बिना रवाना हो सकता है। यह (अनुत्तरदायी और खिलन्दड़) व्यवहार मेरी प्रकृति से मेल खाता है - सर्वाधिक अनुकूलता सहित। किन्तु एक बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह कि यहाँ नित नए लोगों से मेल-मुलाकात होने की सम्भावना बनी रहती है जो मेरे बीमा व्यवसाय के लिए सबसे जरूरी और सर्वाधिक सहायक कारक है।

सो, फेस बुक से जुड़ने में मुझे कोई मानसिक बाधा नहीं रही। उम्र तो आड़े आई ही नहीं। ‘मुलाकात और बात होगी तो ही तो आदमी के बारे में कुछ मालूम हो सकेगा!’ इसी विचार के अधीन मैंने, मुझे मिले प्रायः सारे मैत्री अनुरोधों को तनिक लापरवाही से कबूल कर लिया। हाँ, एक छन्नी यह जरूर लगाई कि जिनके चित्र और पर्याप्त ब्यौरे नहीं थे, उनसे कन्नी काट ली। आज, जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ तो मेरे फेस बुक मित्रों की संख्या 646 है।

हाँ, मेरे ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी की एक बात यहाँ भी सावधानी से याद रखी। मई 2007 में जब मैंने ब्लॉग जगत में कदम रखा तो रविजी ने कहा था - ‘सपने में भी याद रखिएगा कि ब्लॉग आपके लिए है। आप ब्लॉग के लिए नहीं हैं। यदि आप ब्लॉग के लिए हो गए तो सच में बैरागी हो जाएँगे।’ रविजी की यह सीख मैं वाकई में सपने में भी याद रखता हूँ और ब्लॉग की ओर तभी देखता हूँ जब मेरी टेबल पर कोई काम लम्बित न हो। फेस बुक के लिए भी मैंने रविजी की यह सीख गाँठ बाँधी हुई है।

लेकिन गलतियाँ हो ही जाती हैं। एक मैत्री अनुरोध पर चित्र तो नहीं था किन्तु ब्यौरा पूरा था। जानकारियों के अनुसार वे सज्जन लेखन और पत्रकारिता से जुड़े हैं। उनके चित्र के स्थान पर हिन्दू धर्म का पवित्र, शक्ति प्रतीक का चित्र लगा हुआ था। मैंने आशावाद का सूत्र थामा और तनिक हिचकिचाहट के साथ, मैत्री अनुरोध स्वीकार कर लिया।

अगले ही दिन, चौबीस घण्टों से भी पहले वे ‘मित्र’ चेट बॉक्स पर प्रकट हो गए। हम दोनों के बीच बातचीत कुछ इस तरह हुई -

वे: नमस्कार सरजी! कैसे हैं?

मैं: नमस्कार। मैं ठीक हूँ। आप कैसे हैं?

वे: हमने आपको अपने दिल में बसा लिया है।

मैं: इतनी जल्दी? अभी तो चौबीस घण्टे भी नहीं हुए!

वे: हम तो ऐसे ही हैं।

मैं: मैं ऐसा नहीं हूँ।

वे: आपसे एक बात पूछूँ सरजी? नाराज तो नहीं होंगे?

मैं: यह तो आपकी बात जानने के बाद ही मालूम हो सकेगा कि नाराज हुआ जाए या नहीं।

वे: तो फिर नहीं पूछता। क्या पता आप नाराज हो ही जाएँ।

मैं: आपकी मर्जी। वैसे, सबको खुश रखने की कोशिश में हम किसी को खुश नहीं रख सकते।

वे: तो फिर पूछ लेता हूँ।

मैं: पूछिए।

वे: आप ‘m2m’ सेक्स में विश्वास करते हैं?

मैं: ‘m2m’ याने?

वे: ‘m2m’ याने मेल टू मेल। आप और मैं।

मैं: मैं प्रकृति के विरुद्ध नहीं जाता और न ही किसी को एसी सलाह देता। यह गलत भी और अपराध भी।

वे: आप तो नाराज हो गए!

मैं: नहीं। मैं नाराज नहीं हूँ। आपने पूछा तो मैंने अपनी बात कह दी।

वे: नहीं। नहीं। आप नाराज हो गए। मैं आपको नाराज नहीं करना चाहता। मैं तो आपको खुश करना चाहता हूँ। आपको खुश देखना चाहता हूँ।

मैं: मैंने कहा ना! मैं नाराज नहीं हूँ।

वे: नहीं। नहीं। आप नाराज हो गए।

मैं: मुझे जो कहना था, कह दिया। आपकी आप जानो।

वे: सॉरी सरजी! मैंने आपका दिल दुखा दिया। आपको नाराज कर दिया। मैं तो आपको खुश करना चाहता था।

मैं: इसी तरीके से?

वे: जिस भी तरीके से आप खुश हो जाएँ।

मैं: मैं तो आपसे बात करने से पहले भी खुश था और अभी भी दुःखी नहीं हूँ। हाँ, आपकी बातों से चकित और स्तम्भित अवश्य हूँ। इससे पहले मुझसे किसी ने ऐसी बातें नहीं कीं।

वे: मतलब आप नाराज हो ही गए।

मैं: अब तो यह आप ही तय कीजिए।

वे: सॉरी सरजी! मैंने आपका दिल दुखा दिया। आगे से ध्यान रखूँगा। मैं तो आपको खुश करना और खुश देखना चाहता था। आप मेरे दिल में बस गए हैं। कभी खुशी की जरूरत पड़े तो बताइएगा।

मैं: आप बेफिक्र रहिएगा। मेरा मन खुशियों से भरा है। गोदाम खाली नहीं है। नमस्कार।

वे: नमस्कार सरजी।

इस सम्वाद को लगभग दस दिन हो गए हैं। मैं जब भी फेस बुक खोलता हूँ, आशंकित रहता हूँ कि कहीं ‘वे’ प्रकट न हो जाएँ। एक विचार आया कि उन्हें मित्र सूची से हटा दूँ। फिर सोचा, कहाँ वे और कहाँ मैं? पता नहीं, कितने कोस दूर हैं वे मुझसे? क्या बिगाड़ लेंगे मेरा? बिगाडेंगे भी कैसे? मैं चाहूँगा तभी तो बिगाड़ सकेंगे!

स्तम्भित कर देनेवाले इस अनुभव के बाद भी एक खुशी तो उन्होंने मुझे दे ही दी - अब तक मुझसे, फिर बात न करके।

राष्ट्रगीत : सरोजकुमार

वे नहीं गाते राष्ट्रगीत
महानता की फ्रेम में जड़े हुए
विजेता के अन्दाज में, मंच पर खड़े हुए
‘सब एक साथ गाएँगे’, कहने पर भी
वे नहीं गाते राष्ट्रगीत!

भारत भाग्य विधाता....वगैरह
इस अदा से सुनते हैं
मानो उनकी ही प्रशस्ति हो,
वे ही तो हैं जन-गण-मन अधिनायक,
जय-जयकार उचारें जिनका
समारोह के गायक!

पंजाब, सिन्ध, गुजरात, मराठा.....
इस अन्दाज से सुनते हैं
मानो उनकी ही रियासतें हों
विन्ध्य, हिमाचल, यमुना, गंगा.....
उनके ही टीले हों, झरने हों, झीलें हों!

मंचों पर बार-बार खड़े-खडे़ विश्वास बढ़ता जा रहा है,
कि बख्शीशें माँगता हुआ हिन्दुस्तान
उनकी ही जय-गाथा गा रहा है!
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‘शब्द कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

पानसिंह नहीं, ‘रपटू’

यदि नियती के संकेत सुनने/समझने की क्षमता ईश्वर ने मुझे दी होती तो कोई तीन महीने पहले ही मैं यह पोस्ट लिख चुका होता जब भाई जुबेर आलम खान मुझसे अपने सवालों के जवाब ले रहे थे।


नीता पब्लिसिटी नामक व्यापारिक संस्थान् कुछ न कुछ अनूठा करता रहता है। इस बार अपने ऐसे ही एक उपक्रम में वह रतलाम के कुछ अग्रणी लोगों पर एक-एक पन्ने की सचित्र सामग्री प्रकाशित कर रहा है। पता नहीं क्यों और कैसे, इस बार मुझे भी इन लोगों में शामिल कर लिया गया। (अपने इस निर्णय पर उन्हें निश्चय ही पछतावा होगा।) उसी के लिए, जुबेर भाई अपनी प्रश्नावली लेकर आए थे। पूछते-पूछते जुबेर भाई ने पूछा - ‘आपका प्रिय खिलाड़ी?’ मेरे मुँह से अचानक ही निकला, ऐसे मानो किसी अदृष्य शक्ति ने कहलवाया हो - ‘रामचन्द्र रपटू।’ इस खिलाड़ी के बारे में जुबेर भाई तो क्या अब तो ‘रपटू’ के गाँववाले भी वह सब नहीं जानते होंगे जो उसके समकालीन जानते हैं। जुबेर भाई ने अपनी प्रश्नावली के शेष प्रश्नों के उत्तर लिए और धन्यवाद देकर चले गए।

बात आई-गई हो ही गई थी कि अचानक ही फिल्म ‘पानसिंह तोमर’, सिनेमाघर में देखने का दुरुह अवसर मिल गया। सत्संग रहा - मेरी उत्तमार्द्ध का। फिल्म की सादगी, इरफान खान का सहज अभिनय और चुटीले सम्वाद - सब कुछ हमें अपने साथ बहा लिए जा रहे थे। लग रहा था, काश! सारी फिल्में ऐसी ही बनें। तभी वह दृष्य आया जिसने, शेष फिल्म का मेरा आनन्द, रोमांच में बदल दिया। फिल्म, फिल्म नहीं रही। हकीकत हो गई।

भारतीय सेना का जवान पानसिंह तोमर, किसी अन्तरराष्ट्रीय खेल स्पर्द्धा की एक दौड़ में भाग लेने के लिए मैदान में खड़ा है। सारे खिलाड़ी अपने-अपने स्थान पर, संकेत मिलते ही दौड़ पड़ने की मुद्रा में, दोनों हाथों की अंगुलियाँ धरती पर टिकाए, दौड़ शुरु होने के संकेत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। संकेत देनेवाली पिस्तौल छूटने की आवाज आती है। सारे खिलाड़ी दौड़ पड़ते हैं लेकिन पानसिंह तोमर खड़ा-खड़ा प्रार्थना करता नजर आता है। उसका प्रशिक्षक उसे कहता है - ‘पानसिंह! भाग!’ सुनकर पानसिंह अपने में लौटता है और दौड़ना शुरु करता है। मैदान पर उपस्थित तमाम दर्शक उसकी हँसी उड़ाते नजर आते हैं। वे तय मानकर चलते हैं कि पानसिंह तो दौड़ में कहीं नजर ही नहीं आएगा। किन्तु इसके विपरीत, सिनेमा घर में बैठे दर्शक दम साधे, चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। और चमत्कार होता है - पानसिंह, चीते की तरह लपकता हुआ, सबको पीछे छोड़कर दौड़ में अव्वल आता है।

इस दृष्य ने ही मेरे लिए इस फिल्म को हकीकत में बदल दिया। यादों की फिल्म शुरु हो गई। उसके बाद, शेष फिल्म में मुझे इरफान खान नजर नहीं आया। उसके स्थान पर नजर आता रहा - रामचन्द्र रपटू।रामचन्द्र रपटू का वास्तविक नाम था - रामचन्द्र पुरोहित। वह मेरे गाँव मनासा से दो किलो मीटर दूर बसे गाँव भाटखेड़ी का रहनेवाला था। भाटखेड़ी में माध्यमिक (मिडिल) स्तर तक का ही स्कूल था। सो, वहाँ के सारे बच्चे, उच्चतर माध्यमिक (हायर सेकेण्डरी) कक्षाओं की पढ़ाई के लिए मनासा आते थे। इसी कारण, रामचन्द्र पुरोहित भी मनासा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का छात्र बना।

मैंने रामचन्द्र पुरोहित को रामचन्द्र रपटू बनते नहीं देखा। शिक्षा सत्र 1961-62 में मैंने नवमीं कक्षा में प्रवेश लिया, तब रामचन्द्र ग्यारहवीं में था। स्कूल में उसका वह अन्तिम वर्ष था। नवमी कक्षा में मेरे प्रवेश लेने के दो साल पहले ही रामचन्द्र पुरोहित, रामचन्द्र रपटू बन चुका था। उसके ‘रपटू’ होने का किस्सा किसी लोक कथा की तरह पूरे स्कूल में बारहों महीने सुनने को मिलता रहा। आयु के मान से वह मुझसे, कम से कम दो वर्ष बड़ा था। इस लिहाज से मैंने उसके लिए ‘उसके’ के स्थान पर ‘उनके’, ‘वह’ के स्थान पर ‘वे’ जैसे आदरसूचक शब्द प्रयुक्त करने चाहिए। किन्तु हम सब नितान्त ग्रामीण परिवेश के छात्र थे जहाँ ‘ऊष्मावान आत्मीयताभरी सहजता’ व्याप्त थी, ‘औपचारिकता आधारित शिष्टाचार’ नहीं। इसलिए हम सब छोटे-बड़े, आपस में ‘तू-तड़ाक’ से ही बात करते थे। इसीलिए मैं यहाँ रामचन्द्र रपटू के लिए आदरसूचक शब्द प्रयुक्त नहीं कर पा रहा। वैसा करूँगा तो मुझे लगेगा कि मैं झूठ बोल रहा हूँ।

‘रपटू’ का कद यदि 6 फीट से अधिक नहीं तो कम भी नहीं था। साँवला रंग, मझौला डील-डौल, मुँह पर चेचक के कुछ छितरे हुए दाग। पढ़ने के मामले में वह ‘कामचलाऊ’ स्तर को भी मुश्किल से छू पाता था किन्तु खेलों के मामले में वह पूरे जिले में ‘एक-अकेला’ था - सचमुच में अद्वितीय और अनुपम। खेल दलीय (टीम) हों या एकल (एथेलेटिक्स), कबड्डी, खो-खो जैसे देशी हों या वॉलीबॉल, फुटबॉल जैसे विदेशी, जितने भी खेल उन दिनों स्कूलों में खेले जाते थे, उन सबमें वह पूरे जिले का ‘प्राकृतिक और सहज चेम्पियन’ था। वह मिट्टी के अखाड़े का भी ‘आजम’ था और लम्बी/ऊँची कूद (लांग/हाई जम्प) का भी। जिस स्पर्द्धा में रपटू शामिल होता, उसमें बाकी सबको दूसरे या उसके बाद के स्थानों के लिए ही संघर्ष करना पड़ता था। रामचन्द्र रपटू का मतलब ही हो गया था - प्रथम।

पढ़ाई-लिखाई में औसत का भी पीछा करनेवाला रामचन्द्र रपटू यदि खिलाड़ी नहीं होता तो क्या होता? मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इस बारे में आज तक किसी ने नहीं सोचा होगा। आज जब मैं सोच रहा हूँ तो मुझे एक ही जवाब मिल रहा है - ‘तब, वह निश्चय ही कुशल कलाकार होता। लोक कलाकार।’ लोगों की नकल करने और किस्सों को साकार करने में उसका कोई सानी नहीं था। वह कोई किस्सा सुनाता तो हमें लगता कि उस किस्से के पात्र हमारे बीच आकर बैठ गए हैं। सड़क पर मजमा लगा कर ‘ताकत बढ़ानेवाली’ देशी दवाएँ बेचनेवालों की नकल में वह निष्णात् था। जब वह ऐसा कर रहा होता तो, स्कूल के मैदान में बैठे हम लोग अपने आपको, सड़क किनारे मजमें में ही पाते। सुनता और पढ़ता हूँ कि फिल्मों के लिए कहानी सुनने-सुनाने के लिए विशेष बैठकें (सेशन) होती हैं और कहानी सुनाना भी एक व्यापारिक-कौशल है। मैं दावे से कह पा रहा हूँ कि यदि रपटू को यह मौका मिला होता तो कम से कम एक फिल्म तो उसी पर बन चुकी होती। ठेठ मालवी में जब वह किस्सा-कहानी सुनाता तो लगता, उसके शरीर में किसी ‘लोक नट सम्राट’ की आत्मा आ बसी हो।

मालवा में, नवरात्रि के अन्तिम दिन, देवताओं के विसर्जन के समय कई लोगों को ‘भाव’ आता है। माना जाता है कि उनके शरीर में किसी देवी-देवता की आत्मा प्रविष्ट हो गई है। तब ‘वह आदमी’, ‘वह आदमी’ नहीं रह जाता - कोई देवी या देवता बन जाता है। ऐसी देवी या देवता व्यक्ति के मुँह से ही खुद का परिचय देता। ‘भाव’ आनेवाले ऐसे कुछ लोग एक हाथ में नंगी तलवार (जिसकी नोंक पर नींबू फँसा होता है) और दूसरे हाथ में हाथ में जलता खप्पर लेकर, देवी/देवता का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुहल्ले में एकत्र जन समुदाय के बीच ये एक छोर से दूसरे छोर तक ‘हा! हू!’ जैसी ध्वनियाँ निकालते हुए, इधर से उधर तक घूमते हैं। कोई-कोई एक पाँव पर, लँगड़ी चाल चल कर यह सब करता है। कुछ ‘भाव’ वाले लोहे की मोटी जंजीरों का गुच्छा लेकर चलते हैं। ये लोग नंगी तलवारों और जंजीरों के गुच्छों से अपनी पीठ पर वार करते हैं। इनकी पीठे लहू-लुहान हो जाती हैं। समूचा दृष्य विचित्र रोमांच और दहशत से भर जाता है। जन-समुदाय, आबाल-वृद्ध नर-नारी इन्हें प्रणाम करते हैं। कुछ लोग इनसे अपना भविष्य भी पूछते हैं तो कुछ अपनी मौजूदा तकलीफों का निदान। रपटू इन ‘भाव’ वालों की ऐसी ‘शानदार और जानदार’ नकल निकालता कि कभी-कभी हमें भ्रम हो जाता कि ‘रपटू’ पर सचमुच में कोई देवी/देवता आ गया है। उसी दशा में वह लोगों का न्याय भी करता, लोगों को मुक्ति के रास्ते भी बताता और मोरपंख की मोटी छड़ी से किसी-किसी की छुटपुट पिटाई भी कर देता। कभी-कभी, छात्रों के प्रति मैत्री भाव रखनेवाला कोई व्याख्याता भी इस मजमें का आनन्द लेने शरीक होता तो ‘रपटू’ उसका भी ‘न्याय’ कर देता। स्कूल के वार्षिकोत्सव में उसका यह ‘आयटम’ अनिवार्यतः शामिल होता। कुल मिला कर ‘रपटू’ हमारे स्कूल की ‘आन-बान-शान और जान’ था।

किन्तु वह ‘रपटू’ बना कैसे?

हुआ यूँ कि रामचन्द्र पुरोहित जब नवमीं कक्षा में भर्ती हुआ तो स्कूल के क्रीड़ाध्यापक को, सत्र के पहले ही दिन, पहले ही खेल पीरीयड में, पहले ही क्षण ‘होनहार बिरवान के, चीकने पात’ नजर आ गए। उन्हें अधिक समय नहीं लगा रामचन्द्र को तराशने में। जितना वे बताते, रामचन्द्र उससे कहीं अधिक कर दिखाता। स्कूलों की तहसील स्तरीय सारी खेल प्रतियोगिताओं के प्रथम विजेता के स्थान पर एक ही नाम रहा - रामचन्द्र पुरोहित।

जल्दी ही जिला स्तरीय खेल प्रतियोगिता की तारीखें आईं। मनासा स्कूल का दल जिला मुख्यालय मन्दसौर पहुँचा। चार सौ मीटर दौड़ प्रतियोगिता से शुरुआत होनी थी। जिले भर के चयनित खिलाड़ी मैदान पर आए। मैदान देख कर रामचन्द्र चक्कर में पड़ गया। वहाँ, चूने की लकीरों से पूरे मैदान में चक्कर (ट्रेक) बने हुए थे। ऐसे चक्कर रामचन्द्र ने पहले कभी नहीं देखे थे और न ही ‘गेट-सेट-रेडी-गो’ और पिस्तौल का छूटना सुना था। स्कूल के क्रीड़ाध्यापकजी ने भी कुछ नहीं बताया था। जितना समझा सकते थे, वहीं मैदान पर समझाने की कोशिश की। रामचन्द्र हैरत से सब देखता-सुनता रहा।

उधर, रामचन्द्र के चर्चे उससे पहले ही मन्दसौर पहुँच चुके थे। पूरे जिले के वरिष्ठ खिलाड़ी और क्रीड़ाध्यापक, रामचन्द्र पर नजरें गड़ाए हुए थे। जाहिर है, पहली ही प्रतियोगिता की शुरुआत रोमांच के चरम से हो रही थी जबकि रामचन्द्र इस सबसे बेखबर था।जैसे ही पिस्तौल छूटी, अलग-अलग ट्रेक पर खड़े खिलाड़ी तीर की तरह छूटे। लेकिन यह क्या? रामचन्द्र वहीं का वहीं! सबको दौड़ता देख, रामचन्द्र ने अपने क्रीड़ाध्यापक से, जोर से आवाज लगा कर ठेठ मालवी में पूछा - ‘माट्सा‘ब! रपटूँ?’ क्रीड़ाध्यापक तो बौखला गए थे! रामचन्द्र के मुकाबले दुगुने जोर से चिल्लाकर जवाब दिया - ‘रपट! रपट! रामचन्द्र! रपट!’ और रामचन्द्र ‘रपट’ पड़ा। ऐसा ‘रपटा’, ऐसा ‘रपटा’ कि कोई सौ-पचास मीटर पीछे से शुरु करने के बाद भी सबसे पहले फीते को छू लिया। मैदान पर हड़कम्प मच गया। बाकी सबकी तो छोड़ दीजिए, लोग बताते हैं कि हमारे ही क्रीड़ाध्यापक को विश्वास नहीं हुआ। यहाँ तक कि कुछ लोग बताते हैं कि वे भावाकुल होकर रो पड़े।

उसके बाद कहने को कुछ खास नहीं। उस साल भी और उसके बाद के दोनों वर्षों में भी मनासा स्कूल जिले का चैम्पियन बना रहा और रामचन्द्र ‘रपटू’ तीनों साल, ‘चैम्पियनों का चैम्पियन’ रहा। तीनों ही वर्षों में उसने प्रत्येक खेल में पहले स्थान पर अपना कब्जा बनाए रखा।

अब ‘रपटू’ का मतलब समझ लीजिए। मालवी में ‘तेजी से दौड़ने/भागने’ को ‘रपटना’ कहते हैं। (मालवी में ‘रपटना’ का एक अर्थ ‘फिसलना’ भी होता है।) रामचन्द्र ने यही पूछा था - ‘सर! दौड़ूँ?’ और ‘सर’ ने कहा था - ‘दौड़! दौड़! रामचन्द्र! दौड़!’ वह दिन और उसके बाद का शेष जीवन, रामचन्द्र पुरोहित, केवल रेकार्ड में ही ‘पुरोहित’ रहा अन्यथा समूचे अंचल में वह ‘रपटू’ के नाम से ही जाना-पहचाना और पुकारा जाता रहा। रामचन्द्र ने भी ‘रपटू’ को अपने ‘कुलनाम’ (सरनेम) की तरह आत्मसात कर लिया।

हायर सेकेण्डरी करने के बाद मैंने 1964 में मनासा लगभग छोड़ ही दिया। उसके बाद याद नहीं आता कि रपटू से कभी मुलाकात हुई हो। मित्रों ने बताया था कि उसे सरकारी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई थी। ‘रपटू’ मेरे अचेतन में गहरे तक पैठा हुआ था, यह मुझे भाई जुबेर के माध्यम से मालूम हुआ और ‘पानसिंह तोमर’ ने तो ‘रपटू’ को मानो जीवित ही कर दिया। मैंने अपने सहपाठी अर्जुन पंजाबी से बात की। मालूम हुआ कि ‘रपटू’ अब इस दुनिया में नहीं है। ‘रपटू’ का चित्र हासिल करने के लिए, मेरे अनुरोध पर अर्जुन ने भाई कैलाश पाटीदार को मानो ‘रपटा’ दिया। कैलाश ने अत्यधिक तथा अतिरिक्त परिश्रम कर ‘रपटू’ का चित्र जुटाया।

मेरे सामने अभी भी फिल्म पानसिंह तोमर चल रही है जिसमें इरफान खान के स्थान पर मैं रपटू को ही देख पा रहा हूँ।

मेरा पानसिंह तो मेरा ‘रपटू’ ही है।

है कोई? : सरोजकुमार

है कोई?

है कोई मुझ जैसा अभागा?
बन्दी से आता रहा दुःख बिना नागा!

मैंने जब पुकारा
तब कोई नहीं बोला,
अपनी-अपनी बारी ही
सबने मुँह खोला!

हंस-हंस कह-कहकर, मोती थे चुगवाए
डण्डे से भी मारा, घोषित कर कागा!
है कोई मुझ जैसा अभागा?

मैंने जब दुर्भाग्य से कहा,
हाँ हाँ आजा!
उसने कहा, बुलाए पर
नहीं आता मेरे राजा!

जब तू सो जाएगा घोड़ों को बेचकर
तब मैं चिल्लाऊँगा, चीख-चीख गा-गा!
है कोई मुझ जैसा अभागा?

सोचा है, अब तो बस
चुप ही रहूँगा मैं,
होता है जो, हो ले
कुछ नहीं कहूँगा मैं!

जैसी की तैसी भी धरना हो यदि चादर,
कहाँ-कहाँ सी पाऊँगा, लेकर सुई तागा?
है कोई मुझ जैसा अभागा?
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‘शब्द कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

मीठे पत्ते में नाड़ा खारिज

भ्रष्‍टाचार से हमारे सम्बन्धों की दीर्घता, सामीप्य की सघनता और सान्द्रता को उजागर करनेवाला यह किस्सा भी सुरेशचन्द्रजी करमरकर ने लिख भेजा है। मैं अपनी ओर से इसमें कुछ भी घालमेल नहीं कर रहा हूँ।

भारत को स्वाधीन हुए 15-20 वर्ष हुए थे। पंचायतें गठित हो चुकी थीं। ग्रामीण चेतना जाग्रत हो, ऊँच-नीच, छुआछूत की भावना दूर हो, समरसता बढ़े, जन-स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए लोग चेचक, लाल बुखार के टीके लगवाएँ, परिवार नियोजन अपनाएँ - ऐसे सारे अभियानों के लिए रेडियो ही जन संचार का सशक्त माध्यम था। परिवार में सायकिल का होना अतिरिक्त आर्थिक हैसियत और प्रतिष्ठा का परिचायक-प्रतीक था। टेप, टेलीविजन तो कल्पनातीत थे। दुपहिया के नाम पर सायकिलें और बैलगाड़ियाँ तथा चार पहिया वाहनों के नाम पर सरकारी जीपें थीं।

उपरोल्लेखित अभियानों में योगदान देने के लिए जिला स्तर पर पंचायतों की जीपें उपलब्ध कराई जाती थीं। ग्रामोफोन और लाउडस्पीकर लादे ये जीपें गाँव-गाँव में, गीत, भजन, गोष्ठियाँ अयोजित/संचालित करने का जरिया बनी हुई थीं।

इसी दौर में एक जिला पंचायत को सरकार ने ग्रामोफोन उपलब्ध कराया। प्रभारी साहब जब तक रहे, जन संचार हेतु उपयोग में लेते रहे और बदली हुई तो अपने साथ लिए चले गए। लेकिन उनके जाने से पहले बजट आ गया था। सो नया ग्रामोफोन खरीदवा गए और स्टॉक रजिस्टर की खानापूर्ति के लिए, पुराने ग्रामोफोन के स्थान पर ‘ग्रामोफोन का डिब्बा’ लिखवा दिया। किसी को पता नहीं कि स्टॉक रजिस्टर में क्या लिखा गया। लोगों के सामने तो ग्रामोफोन बज ही रहा था।

नए साहब आए। स्टॉक रजिस्टर जाँचा तो वास्तविकता जानी। लेकिन बोले कुछ नहीं। जब इनका तबादला हुआ तो अपने सामान के साथ, ग्रामोफोन का डिब्बा भी रखवा लिया और स्टॉक रजिस्टर में ‘ग्रामोफोन का डिब्बा’ के स्थान पर ‘ग्रामोफोन के डिब्बे का झोला’ लिखवा दिया।

इन साहब को भी जाना था और नए साहब को आना था। नएवाले ने पुरानेवाले की परम्परा ईमानदारी से निभाई। अपने तबादले के समय, ग्रामोफोन के डिब्बे का झोला लिए चले गए और स्टॉक रजिस्टर में ‘ग्रामोफोन के डिब्बे के झोले का नाड़ा’ लिखवा दिया।

तबादला केवल साहब का नहीं हुआ। पंचायत मन्त्री भी बदल गया। नया मन्त्री नौजवान भी था और ईमानदार भी। यह उसकी पहली ही पदस्थापना थी तो उत्साह से लबालब था। उसने स्टॉक रजिस्टर में नाड़े की प्रविष्ठि देखी तो उसका माथा ठनका। पुराने रजिस्टर निकलवा कर देखे तो हकीकत जानी। वह सोच में पड़ गया। मन्त्री को कोई सहायक नहीं मिलता था। करे तो क्या करे और पूछे तो किससे पूछे? तय किया कि जब भी ऑडिट पार्टी आएगी तब वास्तविकता बता कर रास्ता तलाश करना ही बेहतर होगा।

उन दिनों ऑडिट पार्टियाँ पंचायत भवनों में ठहरा करती थीं। ऑडिट पार्टी आई। पंचायत भवन में ठहरी। दिन में थोड़ा-बहुत काम निपटाकर रात में बतरस-बैठक जमी। मन्त्री ने अपनी समस्या बताई। सुनकर ऑडिट पार्टी का प्रमुख ठठा कर हँसा। बताया कि बीते बरसों में वही लगातार ऑडिट के लिए आ रहा है और ‘ग्रामोफोन’ के ‘ग्रामोफोन के डिब्बे के थैले का नाड़ा’ में बदलने के पूरे घटनाक्रम से न केवल वाकिफ है बल्कि हर बार उसी ने यह तरीका बताया और तरीका बताने का शुल्क भी वसूल किया। नौजवान मन्त्री अचकचा गया। बोला कि उसके पास तो शुल्क चुकाने की क्षमता नहीं है। ऑडिट पार्टी प्रमुख एक बार फिर ठठा कर हँसा। नौजवान मन्त्री की पीठ पर हाथ रखा और निश्चिन्त हो जाने को कहा। लेकिन कहा कि शुल्क तो वह लेगा जरूर। नौजवान मन्त्री घबरा गया। पार्टी प्रमुख ने कहा कि वह घबराए नहीं क्योंकि शुल्क का निर्धारण, स्टॉक रजिस्टर में प्रविष्ठ वस्तु के मूल्य के अनुपात में होगा। जब पहली बार ‘ग्रामोफोन’ को ‘ग्रामोफोन का डिब्बा’ में बदला था तब शुल्क का निर्धारण, ग्रामोफोन के मूल्य के आधार पर किया गया था। इस बार तो ‘ग्रामोफोन के डिब्बे के झोले का नाड़ा’ ही लिखा हुआ है और नाड़े की क्या तो कीमत और क्या औकात? इसलिए, ‘तुम तो आज रात भोजन के बाद, मीठा पत्ता पान खिला देना। तुम्हारी मुक्ति का रास्ता तलाश लेंगे।’

नौजवान मन्त्री ने राहत की साँस ली। उस रात, भोजन के बाद ऑडिट पार्टी को मीठा पत्ता पान खिलाया। जाने से पहले बनाई ऑडिट रिपोर्ट में ऑडिट पार्टी प्रमुख ने लिखा - ‘अनुपयोगी होने से नाड़ा खारिज।’ और इसके साथ ही, स्टॉक रजिस्टर में से ग्रामोफोन-प्रकरण का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।

नौजवान मन्त्री का यह पहला ‘ऑडिट अनुभव’ था। सो, लोगों ने पूछा - ‘कैसा रहा ऑडिट?’ उसने जवाब दिया - ‘मीठे पत्ते में नाड़ा खारिज।’ लोगों ने पूछा - ‘मतलब?’ मन्त्री ने कहा - ‘मतलब मत पूछो। मतलब उसे ही जानने दो जिसके गले को नाड़े के फन्दे से मुक्ति मिली।’

श्री सुरेशचन्द्रजी करामराकर : शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के सेवा निवृत्त प्राचार्य हैं। रतलाम में रहते हैं। पता है - ‘शुचि-शिल्प’, 98 राजीव नगर, रतलाम - 457001. ‘शास्त्रवार्ता’ नाम से ब्लॉग भी लिखते हैं जिसे http://shastravarta.blogspot.com पर पढा जा सकता है।

घोड़े, कुर्सी और हम : सरोजकुमार


जो हुआ करते थो अश्वारोही
घास की रोटियाँ खाते हुए
हथेली पर प्राण रखे
युद्ध को जाते हुए
युद्ध से आते हुए,
वे इन दिनों बन गए हैं समारोही!


लंच, डिनर खाते हुए
इठलाते इतराते हुए
इधर से आते हुए
उधर को जाते हुए


अश्वारोहियों के हाथों में
होती थी लगाम,
समारोहियों के हाथों में
होता है निमन्त्रण!


तब घोड़ों पर बैठकर
भेरियाँ बजाते थे,
अब कुर्सियों पर पसरकर
तालियाँ बजाते हैं!


अश्वारोही हों या समारोही
इन्हीं के तहलके
इन्हीं का इतिहास है
शेष संसार सकल
दासानुदास है!


होने की अदा में
बस ये ही होते हैं
घोड़ा हो, कुर्सी हो या हम
इन्हें ढोते हैं!
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‘शब्द कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।


सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।


पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।


अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।


पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

सरोजकुमार होने का मतलब

अब तो यह याद करना भी दुरुह है कि सरोज भाई से पहली मुलाकात कब हुई थी। इसका जवाब मुझे इसी में मिलता है कि मैं यह जवाब पाने की कोशिश न करूँ। सम्भवतः 1975 के आधा बीतते-बीतते, मेरी उत्तमार्द्ध का चयन करने के लिए, मेरे दादा-भाभी के साथ वे भी गए थे। मेरे विवाह को यह अड़तीसवाँ बरस चल रहा है। जाहिर है कि उनसे मेल-मुलाकात उससे भी बरसों पहले ही हुई थी। गोया, आधी सदी के आसपास जितना वक्त हो गया है उनसे जुड़े। इस काल खण्ड में मैंने उनके मिजाज और तेवरों के अनगिनत इन्द्रधनुष देखे और ऐसा प्रत्येक इन्द्रधनुष, अपने से पहलेवाले इन्द्रधनुष से अलग ही दिखा। बस, एक बात ने सारे इन्द्रधनुषों को जोड़े रखा - उनका हर बार मुझे चौंकाना। न चौंकाएँ तो मुझे उनके सरोज भाई होने पर सन्देह होने लगता है। मुझे चौंकाने के उनके किस्से लिखने लगूँ तो निश्चय ही एक छोटा-मोटा ग्रन्थ तो बन ही जाएगा। मौका मिलने पर वे किस्से भी कभी न कभी लिखने का इरादा है। किन्तु इस समय, बस! आँख मूँदकर मेरी बात पर विश्वास करने का उपकार कर दीजिए कि सरोज भाई मुझे हर बार चौंकाते हैं। अपने ‘सरोजकुमारपन’ को कायम रखते हुए उन्होंने मुझे, अभी-अभी ही, एक बार फिर चौंकाया।

‘नईदुनिया’ के बिक जाने से मैं दुःखी था। अभी भी हूँ। यह वह अखबार है (इसके लिए ‘था’ प्रयुक्त करने की इच्छा अभी भी नहीं हो रही) जिसने न केवल पत्रकारिता को नये तेवर, नया कलेवर दिया था अपितु भाषा का महत्व भी अपने पाठकों को समझाया था। यह भी समझाया था कि भाषा का अपना संस्कार होता है और भाषा को औजार की तरह भी प्रयुक्त किया जा सकता है। ‘विचार’ और ‘विमर्श’ का अन्तर और महत्व भी, मुझ जैसे अनेक लोगों ने इसी अखबार से सीखा-जाना और समझा था। इसका, ‘पत्र, सम्पादक के नाम’ स्तम्भ, इसके मुखपृष्ठ से अधिक महत्वपूर्ण होता था। इतना कि अनगिनत लोग सबसे पहले वही पृष्ठ खोलते और पढ़ते थे। समसामयिक विषयों पर उत्तेजक वैचारिक विमर्श इस अखबार के खाते में जमा हो, पत्रकारिता का इतिहास बने हुए हैं। अपने व्यावसायिक और व्यापारिक हितों और जन-भावनाओं के बीच समुचित सन्तुलन साधते हुए अपनी लोकप्रियता को अक्षुण्ण रखने का कौशल आज भी इस अखबार के इतिहास में तलाशा जा सकता है। अखबारी विश्वसनीयता का जो कीर्तिमान इस अखबार ने बनाया, वह पत्रकारिता का जगमगाता उदाहरण है। हालत यह थी कि इसके प्रतिद्वन्द्वी अखबार से सम्बद्ध लोग भी, अपने ही अखबार में छपे समाचार पर तब ही विश्वास कर पाते जब वह ‘नईदुनिया’ में छप जाता। भोपाल और जबलपुर में मैंने लोगों को ‘नईदुनिया’ की प्रतीक्षा में व्याकुल होते असंख्य बार देखा है जबकि जबलपुर में तो यह अखबार अगली सुबह पहुँचता था। मुझे यह स्वीकार करने में रंचमात्र भी संकोच नहीं है कि मैंने इस अखबार से ही लिखना सीखा, इसीने ने मुझे पहचान दिलाई। ‘बाबा’ (स्वर्गीय राहुलजी बारपुते) और ‘रज्जू बाबू’ (राजेन्द्र माथुर) ने इसे न केवल सब अखबारों से अलग और श्रेष्ठ अखबार होने का स्थान दिलाया अपितु इसे ‘पत्रकारिता का मदरसा’ का दर्जा भी दिलाया। इस मदरसे के अनेक तालिब आज कई अखबारों और खबरिया चैनलों में नजर आते हैं।

किन्तु कालान्तर में यह सब रीत गया। ‘बाबा’ और ‘रज्जू बाबू’ की विनम्रता, अभयजी (छजलानी) के कालखण्ड तक, जस की तस भले ही न बनी रही हो किन्तु, उसके क्षरण होने के समानान्तर उसका यथेष्ठ प्रभाव भी अनुभव होता रहा। किन्तु २००५ के बाद तो मानो चोला बदल गया। इसकी प्राथमिकता सूची में ‘जनता की नब्ज’ का स्थान, मालिकों का अहम् लेता दिखाई देने लगा। मालिक के नाम भेजे गए पत्रों के उत्तर नौकर देने लगे, वह भी फोन पर। लगने लगा, मानो बाजार का हिस्सा बनने की चाह में अखबार खुद ही सबसे बड़ा बाजार बनने पर आमादा हो गया है। भाषा तो इसकी प्राथमिकता में मानो कहीं रही ही नहीं। तय कर पाना कठिन होने लगा कि यह अखबार हिन्दी का है या अंग्रेजी का? निजी अनुभव के आधार पर कह पा रहा हूँ कि नियमित पाठकों और शुभ-चिन्तकों ने अपनी खिन्नता, अप्रसन्नता और आपत्ति जताई तो उनका उपहास उड़ाया गया, उन्हें ‘नासमझ’ और ‘अपने समय में ठहरे हुए लोग’ जैसे ‘अलंकरण’ दिए गए। जो विनम्रता इस अखबार का संस्कार थी वह ‘दम्भ’ में बदलती अनुभव होने लगी। स्थिति यह हो गई कि मुझ जैसे, ‘नईदुनिया के व्यसनी और आदी’ आदमी ने ‘नईदुनिया’ खरीदना और पढ़ना बन्द कर दिया। मालूम हुआ कि ऐसा में अकेला नहीं हूँ।

इसके बाद भी, ‘नईदुनिया’ से (जुड़ाव खत्म कर लेने के बाद भी) लगाव बना रहा। इसीलिए, जब इसके बिक जाने का समाचार मिला तो अपने किसी आत्मीय परिजन की मृत्यु जैसे शोक भाव से ग्रस्त हो गया। इसके बिकने की खबरें कोई तीन-चार महीनों से बराबर मिल रही थीं। खबर का सच होना मेरे लिए निजी स्तर पर हादसे से कम नहीं रहा। दो-तीन दिन अनमना, उदास रहा। किसी के सामने खुल कर रोना चाह रहा था। कोई नहीं मिल रहा था। बरबस ही सरोज भाई याद आए। मेरे लिए वे नईदुनिया का पर्याय और प्रतिरूप रहे हैं। उन्हें फोन लगाया। कहा - ‘कुछ कहिए मत। बस, मेरी सुन लीजिए।’ मेरी सुनने के बाद जब वे बोले तो पहले ही वाक्य से अनुभव हो गया कि मुझ जैसे अनेक शोक सन्तप्तों को रुदन वे पहले ही झेल चुके थे। उन्होंने मुझे ढाढस बँधाया।

रोना-धोना कब तक चलता? थोड़ा सामान्य हुआ तो सरोज भाई बोले - ‘अच्छा विष्णु! सुनो। मेरी एक किताब आई है। तुम्हें भिजवा रहा हूँ। पढ़कर बताना, कैसी लगी।’ दो दिन बाद ही किताब मिल गई। ‘शब्द तो कुली हैं’ शीर्षक उनके इसी कविता संग्रह के जरिए सरोज भाई ने मुझे चौंकाया, सदैव की तरह।

इस कविता संग्रह के बाँये वाले फ्लेप पर सरोज भाई ने, अपने लेखन के बारे में जो टिप्पणी की है, उसी ने मुझे चौंकाया। विश्वास नहीं हुआ कि कोई आदमी इस सीमा तक खुद के प्रति ‘निर्भ्रम’ हो सकता है? मैं समझाने की मूर्खता करूँ, उसे अच्छा होगा कि सरोज भाई की टिप्पणी को जस की तस प्रस्तुत करने की समझदारी बरत लूँ। आप खुद ही जान लीजिए, क्या कहते हैं सरोज भाई अपने लेखन के बारे में -

‘‘मैं अत्यन्त साधारण कवि हूँ। समय से आँखें मिलाते हुए, अपनी जमीन पर खड़ा हूँ। न कालातीत, न देशातीत। वर्ड्स्वर्थ ने जिस ‘ट्रेंक्विलिटी’ की बात कही है, वह मुझे भी जरूरी होती है। पर वर्ड्स्वर्थ की तरह मेरी कविता स्वतःस्फूर्त ‘ओवरफ्लो’ नहीं रही। मेरे ऐसी टोंटी, कभी किसी मानसिकता की नहीं रही, जिसे खोलते ही अथवा जिसके खुलते ही, कविता अनायास बह निकले। कविता मेरे लिए ‘इलहाम’ नहीं, मानवीय प्रयत्न है। उसके रचाव की अलौकिकता का अर्थ मेरे लिए, केवल असामान्यता तक सीमित है।

‘‘मेरी चक्की बहुत बारीक नहीं पीसती, न मुझे बारीक कताई भाती है। मैं पाठक/श्रोता तक सरलता से पहुँचना चाहता हूँ। मेरे जैसा ही एक कवि, 13वीं शताब्दी में था, अद्दहमाण (जुलाहे का पुत्र कवि अब्दुल रहमान)। उसने अपनी कविता के बारे में, अपने ग्रन्थ ‘सन्देश रासक’ (अपभ्रंश) की 21वीं गाथा में जो कहा था, वही मैं कहना चाहता हूँ -

‘‘णहु रहइ बुहह कुकवित्त रेसु/अहबत्तणि अबुहह णहु पवेसु/जिण मुक्ख ण पण्डित मञ्झयार/तिहपुरउ पढिब्बउ सव्ववार। (अर्थात् पण्डितों का मेरी कुकविता से कोई सम्बन्ध नहीं रहता और मूर्ख अपनी मूर्खता के कारण कविता में रम ही नहीं पाता। इसलिए, जो न पण्डित हैं और न मूर्ख, जो मध्यम कोटि के हैं, उनके सामने इस कृति को पढ़ना)।’’

जहाँ हर कोई अपने लिखे को मौलिक, प्रकृति प्रदत्त, अभूतपूर्व जैसा बताने का तुमुलनाद रचने में लगे हैं वहाँ अपने लिखे को सामान्य कहना, मुझे अपने आप में असामान्य लगा। जानता हूँ कि इस वक्तव्य में अपनी सुविधानुसार अर्थ तलाशे जा सकते हैं और तदनुसार ही व्याख्याएँ भी की जा सकती हैं। किन्तु मुझ जैसे कमजोर आदमी को सरोज भाई की इस टिप्पणी ने बड़ी ताकत दी। कहा कि कमजोर और सामान्य होना अपराध नहीं। मैंने जो अर्थ लिया वह यह कि ऐसी सार्वजनिक साहसभरी स्वीकारोक्तियाँ आदमी को सबसे अलग, (दादा की एक पंक्ति के जरिए कहूँ तो) ‘असाधारण रूप से साधारण’ बनाती हैं। उसकी कमजोरियों को उसकी ताकत में बदल देती हैं।

इन्हीं सरोज भाई के, इसी कविता संग्रह ‘शब्द तो कुली हैं’ की कविताएँ, जल्दी ही मैं यहाँ प्रस्तुत करूँगा। इस आशा से कि शायद, आपको भी अच्छी लगें।

इसलिए सागर बन गया आयोजन

आशीष दशोत्तर ने मेरे सोच को नया आयाम दे दिया।

‘शब्द’ और ‘किताब’ के नाम पर इतनी भीड़? मुझे अपनी ही आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। याद नहीं आता कि इससे पहले, कितने बरस पहले, इस निमित्त इतनी भीड़, अपने कस्बे में देखी थी मैंने।

यह इसी रविवार की, परसों, 8 अप्रेल की सुबह की बात है। प्रिय आशीष दशोत्तर की दो पुस्तकों का विमोचन था - गजल संग्रह ‘लकीरें’ और अमर शहीद भगतसिंह की पत्रकारिता पर केन्द्रित, ‘समर में शब्द’ का। आशीष का अनुमान है कि उसकी यह पुस्तक, भगतसिंह की पत्रकारिता पर केन्द्रित देश की सम्भवतः पहली और अब तक की इकलौती पुस्तक है। भगतसिंह पर प्राधिकार का दर्जा प्राप्त कर चुके, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्राध्यापक चमनलालजी मुख्य अतिथि और मुख्य वक्ता थे और नवोदित कथाकारों में अपनी पुख्ता जगह बना चुके कैलाश वानखेड़े विशेष अतिथि थे। वे, राज्य प्रशासकीय सेवा के सदस्य भी हैं और इन दिनों, धार जिले के बदनावर में, अनुभागीय दण्डाधिकारी (एस.डी.एम.) के रूप में पदस्थ हैं।

आयोजन मेरी रुचि का था सो मैंने खुद को इससे जोड़ लिया था। अपने स्तर पर मैंने भी कुछ लोगों को न्यौता दिया था। निर्धारित समय साढ़े दस बजे से तनिक थोड़ा पहले ही पहुँच गया था। उपस्थिति को लेकर तनिक भी उत्साहित नहीं था। इसीलिए, सवा दो सौ से अधिक कुर्सियों से सजे रोटरी हॉल को देखकर घबराहट हुई - लोग कम और खाली कुर्सियाँ ज्यादा नजर आएँगी।

लेकिन साढ़े दस बजते, उससे पहले ही चमत्कार का प्रारम्भ हो गया। लोग ऐसे आने लगे मानो चींटियाँ अपने बिल से निकल रही हों। मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था किन्तु यही सच था - पौने ग्यारह बजते-बजते सभागार लगभग पूरा भर चुका था। स्थिति ऐसी थी कि कार्यक्रम तत्काल शुरु कर दिया जाए। किन्तु चमनलालजी नहीं पहुँचे थे। पता लगा, यह मानकर कि सदैव की तरह लोग देर से ही आएँगे, चमनलालजी को कह दिया गया था कि ग्यारह बजे के बाद ही उन्हें लिवाया जाएगा। वे लगभग सवा ग्यारह बजे पहुँचे। तब तक सब आगन्तुक अधीर हो चुके थे। अब तक मैंने आयोजकों को ही प्रतीक्षारत रहते देखा था। किन्तु यहाँ स्थिति उसके सर्वथा विपरीत थी।

आयोजन शुरु हुआ। फूलों और शब्दों से स्वागत, अतिथि परिचय की खानापूर्ति हुई। मुझसे रहा नहीं गया। चलते कार्यक्रम के बीच मैंने खड़े होकर पूरे हॉल पर नजरें दौड़ाईं। मैं तो श्रोताओं को गिनने की मानसिकता लेकर आया था लेकिन यहाँ तो नजारा कुछ और ही था! खाली कुर्सियाँ गिनने में भी तकलीफ हो रही थी। यह चिन्ता किए बिना कि लोग मेरी इस अशिष्टता पर क्या सोचेंगे, मैं ने कुर्सियाँ गिनीं। यह गिनती अठारह पर जाकर रुक गई। याने, दो सौ से अधिक श्रोता? मेरे लिए तो यह चमत्कार ही था।

वानखेड़ेजी द्वारा विषय प्रवर्तन के बाद दोनों किताबों का विमोचन हुआ। चमनलालजी ने लगभग सवा-डेड़ घण्टे का उद्बोधन दिया। आशीष द्वारा आभार प्रदर्शन से पहले, जिला कलेक्टर श्री राजेन्द्र शर्मा ने ‘कलेक्टरी की लीक से हटकर’ अपनी बात कह कर सबको चौंकाया भी और सबकी सराहना भी अर्जित की। (शर्माजी के इस ‘व्यवहार’ पर अलग से लिखूँगा।) चमनलालजी के उद्बोधन पर उपजी जिज्ञासाओं पर आधारित प्रश्नों के ‘लघु सत्र’ के साथ आयोजन समाप्त हुआ।

पूर्व निर्धारित कुछ काम निपटाने के कारण मुझे तनिक जल्दी थी। सो, आशीष से अनुमति ले, चाय पी कर फौरन ही निकल आया। शाम को, चमनलालजी के मुकाम, होटल सेण्ट्रल पहुँचा। आशीष के अतिरिक्त माँगीलालजी यादव और रणजीसिंह राठौर पहले से ही मौजूद थे। पहले भरपेट बतियाए फिर भर पेट खाया। उपस्थिति को लेकर हम सब ‘मुदित मन’ थे। मुझे लग रहा था कि उपस्थिति को लेकर आशीष ने निश्चय ही विशेष और अतिरिक्त प्रयत्न किए होंगे। उससे पूछा तो उसने सहज भाव से जो कहा, उसी ने मेरे सोच को नया आयाम दे दिया।

आशीष ने बताया कि उसने ‘अपनेवालों’ को निमन्त्रित करने के बजाय उन लोगों को निमन्त्रित किया जो ऐसे आयोजनों की टोह में रहते हैं किन्तु जिन्हें या तो सूचना नहीं मिलती या फिर न्यौता नहीं मिलता। आशीष ने यह भी चिन्ता नहीं कि ऐसे ‘प्रेमी’ लोग किस वर्ग, समुदाय, व्यवसाय से हैं। उसने एक ही बात पर ध्यान दिया - पिपासुओं को कुए की जानकारी दे दी। सड़कछाप मुहावरों में कहें तो उसने शक्करखोरों को शकर की बोरी का अता-पता दे दिया और चमत्कार हो गया। आशीष ने कहा कि गिनती के अपवादों को छोड़ दें तो उसने किसी को भी दूसरी बार याद नहीं दिलाया।

आयोजनों में श्रोताओं की अल्पता का रहस्य शायद यही है। हम लोग ‘अपनेवालों’ को बुलाते हैं। अचेतन में शायद यही भावना रहती होगी कि अपनेवाले हमारे महत्व, प्रभाव को, हमारी उपलब्धियों को अनुभव करें। आत्म केन्द्रित, अचेतन में व्याप्त इस भावना के वशीभूत हो हम खुद को ही दो दण्ड दे देते हैं। पहला - श्रोताओं की कमी का और दूसरा - सुपात्रों को उनकी अभिरुचि पूरी होने के अवसर से वंचित कर खुद को, सागर से पोखर में बदल देने का।

(चित्र, ‘समर में शब्द’ के विमोचन का। चित्र में बाँये से - युसूफ जावेदी, कैलाश वानखेड़े, चमनलालजी, आशीष दशोत्तर, कलेक्टर शर्माजी और रतन चौहान।)

वे तो सेवा करेंगी ही

यह सब न लिखा जाए तो भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसमें कुछ भी नया और/या कि अनूठा नहीं है। इसकी सबसे खराब बात यह है कि हमारे स्थापित चरित्र को एक बार फिर रेखांकित करता हुआ, रोचक अन्तर्विरोधों से भरा यह सब सदैव की तरह ही निराशाजनक और नकारात्मक है। इसे प्रस्तुत करने से मुझे बचना चाहिए था।

यह कल ही की बात है। पाँच अप्रेल की। बाहर से आए एक सज्जन से मिलने के लिए मैं एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय पहुँचा। समय रहा होगा दोपहर कोई दो-सवा दो बजे का। मेरेवाले सज्जन अपनी बात समाप्त कर, तीन अध्यापिकाओं से बिदा ले रहे थे। तीनों अध्यापिकाएँ भी जाने की तैयारी में थीं। अचानक ही सात-आठ महिलाएँ मानो प्रकट हुईं। सबकी सब कलफदार सूती साड़ियों में लिपटीं, सजी-सँवरीं। चिलचिलाती गर्मी में भी वे सब ताजा-दम थीं। बिलकुल ‘गार्डन फ्रेश सब्जी’ की तरह ताजा-दम। हम दोनों ने विद्यालय परिसर की दीवारों के पार, उचक कर देखा तो बात समझ में आई। वे वातानुकूलित कारों से आई थीं।

उन्होंने तीनों अध्यापिकाओं से जिस तरह से नमस्कार किया, लग गया कि वे सब, अध्यापिकाओं की पूर्व परिचित हैं। बिना किसी भूमिका के उन्होंने अपनी बात शुरु कर दी। मालूम हुआ कि वे सब एक अन्तरराष्ट्रीय स्तर के सेवा क्लब की स्थानीय इकाई से सम्बध्द हैं। तीस जून को उनके वर्तमान संचालक मण्डल का कार्यकाल पूरा हो रहा है। किन्तु उनके कुछ ‘सेवा प्रकल्पों’ की कुछ गतिविधियाँ (जिन्हें वे ‘टारगेट’ कह रही थीं) बाकी रह गई थीं। वे चाह रही थीं तीनों अध्यापिकाएँ यह ‘टारगेट’ पूरा करने में उनकी मदद कर दें। वे, इसी नौ अप्रेल, सोमवार इस विद्यालय में एक समारोह आयोजित कर, विद्यालय के बच्चों को कुछ ‘उपहार’ भेंट करना चाह रही थीं। सुनकर तीनों अध्यापिकाओं ने आपस में, एक दूसरे की शकलें देखीं और उनमें से दो ने, तीसरी के चेहरे पर सवालिया नजरें गड़ा दीं। यह तीसरी, विद्यालय की प्रधानाध्यापिका थी। प्रधानाध्यापिका ने विनीत भाव से क्षमा माँगते हुए असमर्थता जताई। कहा कि वे चाहकर भी उनकी सहायता नहीं कर पाएँगी क्योंकि आज ही परीक्षाएँ समाप्त हुई हैं और अब तो बच्चे परीक्षा परिणाम सुनानेवाले दिन ही आएँगे। एक ‘सेविका’ ने तनिक अधिकार भाव से कहा - ‘आप कहेंगी तो सब बच्चे आ जाएँगे। आप तो उनके घर पर खबर करा दो।’ प्रधानाध्यापिका ने दृढ़तापूर्वक कहा - ‘क्षमा करें। यह सम्भव नहीं।’ दूसरी ने तनिक अधिक अधिकार भाव से कहा - ‘अरे! वाह! सम्भव कैसे नहीं? आप कहें तो आपको कलेक्टर साहब से कहलवा दें।’ प्रधानाध्यापिका के जवाब ने हम दोनों को चकित किया। किसी शासकीय प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका को इस तरह बात करते हुए मैंने पहली ही बार देखा। बोलीं - ‘जब आप कलेक्टर साहब से कहलवा सकती हैं तो मुझसे सारे बच्चों के पते ले लीजिए और कलेक्टर साहब के कर्मचारी से सब बच्चों के घर पर आदेश भिजवा दीजिए। हम लोगों से तो यह सम्भव नहीं होगा।’ सारी की सारी ‘सेविकाएँ’ कुम्हला गईं। एक ‘सरकारी मास्टरनी’ के ये तेवर! मुझे किसी ‘पर-पीड़क’ की तरह मजा आ गया।

वे सब चलने को हुईं तो प्रधानाध्यापिका ने टोका - ‘एक मिनिट। एक रिक्वेस्ट है आपसे।’ सबके चेहरों पर हिन्दी साहित्य का ‘आशावाद’ जगमगाने लगा। ‘हाँ! हाँ! कहिए।’ प्रमुख सेविका ने उत्साह से कहा। प्रधानाध्यापिका ने कहा - ‘हर साल की तरह इस साल भी आप लोग वृक्षारोपण करने आएँगी। इस बार आएँ तो प्लीज! पौधों के लिए ट्री गार्ड जरूर लेकर आइएगा।’ सुनकर वे सब सन्न रह गईं। वे तो कुछ दूसरी ही बात सुनना चाहती थीं! कुछ पल की खामोशी के बाद प्रमुख सेविका बोली - ‘नहीं। वह तो हमारे लिए पॉसीबल नहीं। उसका बजट नहीं होता हमारे पास। ट्री गार्ड की व्यवस्था तो आपको ही करनी पड़ेगी।’ प्रधनाध्यापिका ने तुर्की-ब-तुर्की प्रति-प्रश्न किया - ‘अरे! वाह! कैसी बात कर रही हैं आप? आपके लिए तो यह चुटकियो का काम है! हमारे स्कूल में तो कुल मिलाकर पाँच ही तो ट्री गार्ड चाहिए! कलेक्टर साहब से किसी भी दानदाता या संस्था को कहलवा कर आप पाँच तो क्या, चाहे जितने ट्री गार्ड अरेंज कर सकती हैं!’ प्रमुख सेविका ने तत्क्षण, बिना विचारे जवाब दिया - ‘कलेक्टर साहब से कहलवाना इतना आसान है क्या?’ सुन कर तीनों ‘सरकारी मास्टरनियाँ’ जोर से हँस पड़ीं। सेविकाओं को फौरन ही अपनी चूक समझ में आ गई। सबकी सब झेंप गईं। उनकी यह ‘दशा’ देख, प्रधानाध्यापिका ने अतिरिक्त दृढ़ता से कहा - ‘तो फिर सॉरी। इस साल आप हमारे स्कूल में वृक्षारोपण करने मत आईएगा।’ सबने चुपचाप सुन लिया और बुझे मन से चली गईं। उधर कारों की आवाज दूर जाने लगी और इधर तीनों ‘सरकारी मास्टरनियाँ’ खिलखिलाने लगीं।

हम दोनों की समझ में कुछ नहीं आया। हमारी सवालिया नजरें देख कर प्रधानाध्यापिका ने बताया कि ये कि ये आठ-दस महिलाएँ, गए कुछ बरसों से नियमित रूप से इस विद्यालय परिसर में वृक्षारोपण करती चली आ रही हैं। एक दिन पहले एक मजदूर को भेज कर गड्ढे तैयार करवा देती हैं। अगले दिन, पाँच पौधों, अपनी संस्था के बैनर और फोटोग्राफर के साथ सब आती हैं। दो महिलाएँ, संस्था का बैनर ले कर खड़ी हो जाती हैं। बाकी सब उसके आगे खड़ी होकर, एक के बाद एक, वृक्षारोपण करते हुए अपने फोटू खिंचवाती हैं। सबके फोटू आने चाहिए, इसलिए बैनर पकड़ने का काम ये बारी-बारी से करती हैं। बच्चों को बिस्किट का एक-एक पेकेट देती हैं और चली जाती हैं। अध्यापिकाएँ अपने बच्चों को जोत कर दो-चार महीने, उन पौधों को पानी पिलवाती हैं। पौधे बड़े होते ही हैं कि किसी दिन, आवारा चौपाए उन्हें उदरस्थ कर जाते हैं। यह ‘वार्षिक कार्यक्रम’ कुछ बरसों से ‘स्थायी कार्यक्रम’ बना हुआ है। ट्री गार्ड के लिए, पहले भी दो-एक बार अनुरोध किया था किन्तु किसी ने नहीं सुना। यह सब आखिर कब तक चलाया जाए? सो, इस बार प्रधानाध्यापिका ने फाइल को अन्तिम रूप से निपटा दिया।

किस्सा सुनाकर ‘मुक्ति-मुद्रा’ में चहकते हुए प्रधानाध्यापिका ने कहा - ‘चलिए सर! इस खुशी में चाय हो जाए।’ उन्होंने किसी को मोबाइल लगाया। थोड़ी ही देर में चाय की केतली और प्लास्टिक के गिलास लेकर एक बच्चा आया। हम सबने चाय पी। प्रधानाध्यापिका ने भुगतान किया। मेरे परिचित ने रवानगी की अनुमति माँगते हुए नमस्कार किया। मैंने भी यह शराफत निभाई।

परिचित को स्कूटर पर बैठाकर मैं वहाँ से चला तो सही किन्तु मेरी नजरों में सड़क नहीं, उस अनजान स्कूल भवन की छवि उभर रही थी जहाँ वे सब सेविकाएँ इस साल वृक्षारोपण और ‘सेवा प्रकल्पों’ के अपने टारगेट पूरा करेंगी।

इस साल कौन सा स्कूल उनका टारगेट बनेगा - यह जिज्ञासा मेरे पेट में अभी से मरोड़ें मारने लगी है।

छोटी और फटी झोली का सुख याने मेरी जन्म वर्ष गाँठ

आँखों के आगे जब स्वार्थ नाच रहा हो तो आदमी शिष्टाचार को कैसे ताक पर रख देता है - यह जानने के लिए मुझसे मिलिए। मैंने ऐसा ही किया है। अभी-अभी ही।

30 मार्च को मेरा जन्म दिनांक था। अपने जीवन के पैंसठवें वर्ष में प्रवेश कर गया मैं इस दिन। जिस शान से हमने ‘अंग्रेजीयत’ को आत्मसात कर लिया है, उसके चलते, 29 और 30 मार्च की सेतु रात्रि से ही मुझे बधाई और शुभ-कामना सन्देश मिलने लगे थे। सबसे पहला सन्देश मिला, रात पौने बारह बजे के आसपास - आलोट के हमारे अपार सम्भावनाशील युवा अभिकर्ता प्रिय अमित चौधरी का। मैंने हाथों-हाथ ही बात कर उसे धन्यवाद दिया। किन्तु अगले दिन इस शिष्टाचार को कायम नहीं रख सका।

वित्तीय वर्ष की समाप्ति किसी भी बीमा अभिकर्ता के लिए अतिरिक्त व्यस्ततावाला समय होता है। और जिन अभिकर्ताओं ने, क्लब सदस्यता के लक्ष्य हासिल नहीं किए हों, उनके लिए तो जिन्दगी-मौत का सवाल सामने आ खड़ा होता है। क्लब सदस्यता का अर्थ मेरे लिए था - लगभग अस्सी हजार रुपयों की प्राप्ति। मैं कबूल करता हूँ कि इस लालच के अधीन ही मैं अशिष्ट हो गया। इधर मुझे दनादन सन्देश मिल रहे थे और उधर मैं, सब कुछ भूल कर, ‘इकतीस मार्च देवता’ की आराधना में जुटा हुआ था।

ब्लॉग ने मेरी दुनिया विस्तारित की थी किन्तु यह विस्तार मेरी सीमाओं से बाहर नहीं था। किन्तु फेस बुक ने मेरी क्षमता और सीमा को अपर्याप्त बना दिया। बधाई देनेवाला लगभग हर चौथा कृपालु सूचित कर रहा था कि उसने फेस बुक पर भी अपनी शुभ-कामनाएँ अंकित की हैं। मुझे अच्छा भी लग रहा था और झेंप भी आ रही थी। झेंप का एक बड़ा कारण था - 30 मार्च को ही जन्म दिनांकवाले अपने प्रिय महीप धींग सहित कुछ और कृपालुओं को मैं बधाइयाँ नहीं दे पा रहा था। आज तक नहीं दे पाया। कारण वही - ‘इकतीस मार्च देवता’ में नजर आ रहा मेरा आर्थिक स्वार्थ। दिन भर सोचता रहा कि रात को सबको कृतज्ञता ज्ञापित कर दूँगा। किन्तु ऐसा नहीं कर पाया।

शाम को मैं घर पहुँचा तो आशीर्वाददाताओं ने मेरी अगवानी की। देर रात तक यह सिलसिला चलता रहा। बधाइयाँ, शुभ-कामनाएँ और आशीर्वाद स्वीकार के प्रत्येक क्षण यह विचार मन में बराबर बना रहा कि मुझे आज ही सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर देनी है। किन्तु ऐसा नहीं हो पाया।

प्रिय गुड्डू (अक्षय छाजेड़) और उसकी उत्तमार्द्ध सौ. ज्योति ने अपराह्न में ही सूचित कर दिया था कि हम दोनों (पति-पत्नी) का रात्रि भोजन, ‘छाजेड़ परिवार’ के साथ होगा। साढ़े नौ बजते-बजते, गुड्डू और ज्योति के बुलावे पर बुलावे आने लगे। तत्काल ही जाना पड़ा। भोजन से निपटे तो ज्योति, उसकी सुघड़ बिटिया साक्षी और कैशोर्य के पहले चरण के प्रभाव से ओतप्रोत बेटे ईशान ने केक सामने रख दिया। केक, ज्योति ने घर पर ही बनाया था। सबको भली प्रकार पता है कि मुझे ‘केक संस्कृति’ रुचिकर नहीं है। किन्तु मेरी अरुचि को ठेंगे पर रखकर सबने मेरे हाथ में चाकू थमा दिया। बचाव के लिए मैंने अपनी उत्तमार्द्ध की ओर देखा तो पाया कि वे इस मामले में मेरा साथ छोड़ कर पहले से ही सबके साथ हो चुकी थीं। मैंने केक काटा। पहला ग्रास अपनी उत्तमार्द्ध के मुँह में परोसा। उन्होंने वैसा ही मेरे साथ किया। उसके बाद ज्योति, साक्षी और ईशान ने क्रमशः मुझे केक खिलाया। निस्सन्देह मुझे ‘केक संस्कृति’ रुचिकर नहीं है किन्तु उससे भी अधिक असंदिग्ध तथ्य यह रहा कि केक सचमुच में बहुत ही नर्म और स्वादिष्ट था। उसका कम मीठा होना उसकी उल्लेखनीय विशेषता थी। मैं कबूल करता हूँ कि घर पर बना, इतना नर्म और स्वादिष्ट केक मैंने पहली बार खाया।

‘केक उपक्रम’ के दौरान ही भोपाल से हिमांशु (राय) का फोन आया। बधाई देते हुए कहा कि वह भी फेस बुक पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुका है। मैंने जब बताया कि फेस बुक तो दूर रही, आज मैं अपना मेल बॉक्स भी नहीं खोल पाया हूँ तो हिमांशु ने परिहास करते हुए बताया कि कम से कम सवा सौ सन्देश तो दर्ज होंगे ही। मुझे गुदगुदी तो हुई किन्तु सिहरन भी हुई - इतने सन्देशों का उत्तर व्यक्तिगत रूप से कैसे दे सकूँगा? इस सोच में डूबा ही था कि लगभग सवा दस बजे, भिलाई से पाबलाजी का फोन आया। मानो महाभारत का संजय सब कुछ अपनी आँखों देख रहा हो इस तरह बोले - ‘केक का एक टुकड़ा मेरे लिए फोन पर रख दीजिए।’ मुझे सचमुच में ताज्जुब हुआ - उस समय केक का टुकड़ा मेरे हाथ में ही था। मैंने वास्तविकता बताई तो वे खूब खुश हुए और दुगुने जोश से चहकते हुए बधाइयाँ दीं।

रात लगभग साढ़े दस बजे घर लौटा। जी किया - मेल बॉक्स खोल कर देखूँ। किन्तु शरीर ने साथ नहीं दिया। सोचा, अगले दिन यह जिम्मेदारी निभा लूँगा। किन्तु स्वार्थ आड़े आ गया और ‘इकतीस मार्च देवता’ की पूजा-आराधना में लग गया।

वह दिन और आज का दिन। दो-एक ग्राहकों को उनकी (नए बीमों की) रसीदें भेजने के लिए मेल बॉक्स खोला तो देख कर भावाकुल भी हुआ और घबराया भी। बाप रे! निश्चय ही डेड़ सौ से अधिक सन्देश तो होंगे ही!
सन्देश अभी भी नहीं देखे हैं। पहले यह पोस्ट प्रकाशित करूँगा और उसके बाद ही सारे सन्देश पढूँगा। भावना तो यही है कि प्रत्येक सन्देश का उत्तर अलग-अलग ही दूँ। लेकिन वास्तव में करूँगा क्या - यह तो उसी समय मालूम हो सकेगा।

बहरहाल, आशीर्वाददाताओं की संख्या देख मैं ‘अभिभूत’ से कोसों आगे, ‘भावाकुल’ हूँ। अत्यधिकभावाकुल। मुझ अकिंचन को सबने जिस तरह मुझे आत्मीयता से समृद्ध किया, उसके सामने मैं नत मस्तक हूँ। धन्यवाद, आभार और कृतज्ञता जैसे शब्दों की अपर्याप्तता और बौनापन मुझे साल रहा है। खुद को व्यक्त करने का सामर्थ्य नहीं है मेरे पास।
मेरी झोली बहुत छोटी तो है ही, फटी हुई भी है। लेकिन इसका छोटा होना और फटा होना मुझे भाग्यशाली बना रहा है - सारी शुभ-कामनाएँ, मेरी झोली से निकल मेरे आँगन में फैल गई हैं। उनकी आत्मीयता और ऊष्मा मुझे आलिंगनबद्ध किए हुए हैं। मैं इस बन्धन से मुक्त होना नहीं चाहता। मैं तमाम कृपालुओं का आजीवन ऋणी बनकर ही रहना चाहता हूँ। नहीं होना मुझे ऋण-मुक्त। यही याचना है कि इसी तरह मुझे निभा लीजिएगा। सहन कर लीजिएगा मेरी कुटिलताओं और अशिष्टताओं को। आपकी शकुनी भावनाएँ ही मुझे शायद इन दुर्गुणों से मुक्त कर दे।

चलते-चलते एक बात विशेष रूप से। आपको शायद अच्छी लगे। गए साल, अपने जन्म दिनांक पर मैंने खुद से एक वादा किया था - दूसरों में खोट नहीं देखूँगा। यह वादा पूरा-पूरा तो नहीं निभा पाया किन्तु स्वयम् के प्रति अधिकतम क्रूर और वस्तुपरक होते हुए कह रहा हूँ कि अपने इस दुर्गुण पर मैंने यथेष्ट नियन्त्रण पाया है। कल तक जिनके नाम से भी मुझे चिढ़ होती थी, गए साल उनमें से कइयों के साथ मैंने घण्टों व्यतीत किए - सचमुच में प्रसन्नतापूर्वक और बिना किसी असुविधा के, बिना किसी चिढ़ के। ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना कीजिएगा कि मैं इस दुर्गुण से पूर्णतः मुक्त हो सकूँ।

मैं सदैव की तरह ही, आप सबका कृपाकांक्षी हूँ।