सुनो! नेता


बेशर्मी को अपना गहना कैसे बनाया जाए, यही सिखा रहे हैं हमारे नेता इन दिनों। यदि ऐसा नहीं है तो फिर इसका एक ही मतलब है कि वे हम, जन-सामान्य को नासमझ, जड़, निरा मूर्ख और अविवेकी ही मानते हैं।


कम से कम उम्र और कम से कम समय में हजारों करोडों का भ्रष्टाचार का वैश्विक कीर्तिमान रचने वाले अनूठे भारतीय राजनेता मधु कौड़ा के तेवर और वक्तव्य दर्शनीय और संग्रहणीय हैं। वे कह रहे हैं कि यदि वे दोषी साबित हो गए तो राजनीति छोड़ देंगे। अनूठा और साहसी काम करेंगे वे ऐसा करके? सचमुच? यद्यपि, हमारे कानून और लम्बी कानूनी प्रक्रिया अपराधियों और दोषियों के लिए अपेक्षा से कई गुना अधिक राहत उपलब्ध करती है। तदपि, यदि कोड़ा दोषी साबित हो गए तो वे इस दशा में रहेंगे कि राजनीति में रह सकें? तब तो वे बरसों-बरस जेल में रहने को विवश रहेंगे। वही उनका स्थायी पता भी बन जाएगा। तब वे कैसे कर सकेंगे राजनीति? कैसे रह सकेंगे राजनीति में? क्या जेल में ही कोई पार्टी बना कर, कैदियों का कोई विधायी सदन और जेल को पृथक राज्य बनाएँगे? निश्चय ही ऐसा कुछ नहीं कर पाएँगे। जाहिर है कि तब वे चाह कर भी राजनीति में नहीं रह पाएँगे, राजनीति नहीं कर पाएँगे। ऐसे में यह कहने का क्या मतलब है कि यदि दोषी साबित होंगे तो राजनीति से सन्यास ले लेंगे? अपने अपराधों को बेशर्मी से अपना आभूषण कैसे बनाया जाता है, यही बता रहे हैं मधु कौड़ा।


एक और नमूना। चुनावों में जब भी कोई औंधे मुँह गिरता है, मतदाता धूल चटाते हैं तो औंधे मुँह पड़ा नेता कहता है - ‘मैं मतदाता का आदेश शिरोधार्य करता हूँ।’ यह बात भी नेता ऐसे कहता है मानो वह मतदाताओं पर उपकार कर रहा हो। ऐसे कहता है मानो वह चाहे तो हार कर भी कुर्सी पर बैठ सकता है किन्तु ऐसा करेगा नहीं। मात खाने वाले राजनीतिक दल कहते हैं - ‘हम जनता के फैसले का सम्मान करते हुए अब विपक्ष में बैठकर अपनी भूमिका निभाएँगे।’ अब इनसे कौन पूछे कि भैया आपको यही काम तो लोगों ने सौंपा है! यह नहीं करोगे तो और क्या करोगे? सौंपी गई जिम्मेदारी निभाने का वादा और दावा ऐसे कर रहे हो मानो मतदाताओं और उनकी भावी पीढ़ियों पर उपकार कर रहे हो। सच बात तो यह है कि ऐसा कहते हुए तुम्हें बड़ी तकलीफ हो रही है। कुर्सी पर बैठने को मचल रहे नितम्बों की कसमसाहट को छुपाने में बड़ी वेदना हो रही है। तुम मतदाताओं को गरियाना, लतियाना चाहते हो। धिक्कारना, प्रताड़ित करना चाहते हो। तुम्हारा बस चले तो तुम मतदाताओं को गोली मार दो - ‘स्साले तुम्हारी यह हिम्मत और औकात कि लतियाकर हमें गद्दी से धकेल दिया?’


किन्तु तुम लालची और अवसरवादी ही नहीं, डरपोक भी हो। अपने मन की बात साफ-साफ कहने की हिम्मत तुममें नहीं है। कह दो तो सम्भावनाओं का खेत ऊसर हो जाए! हमेशा-हमेशा के लिए खारिज किए जा सकते हो। सो, तुम भेड़ियों की तरह शालीन, विनम्र और भद्र बनते रहते हो। बेशर्मी को अपना गहना बनाते रहते हो।
मजे की बता यह है कि मतदाता तुम्हारे इस स्वांग को भली प्रकार जानते हैं और तुम भी यह जानते हो कि मतदाता सब जानते है। फिर भी यह खेल चलता चला आ रहा है और चलता रहेगा-सनातन से प्रलय तक।


सच मानो! खोखले, आदर्श सम्वादों और इस मुखमुद्रा में तुम अत्यधिक भोंडे और हास्यास्पद लगते हो। यही वह क्षण होता है जब मतदाता तुम से सन्तुष्ट और खुश होता है। वर्ना, शेष समय और अवसरों पर तो मतदाता सदैव खरबूजा ही बना हरने को अभिशप्त है।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

.....तो राज ठाकरे की ठुकाई हो जाती

‘मराठी माणुस’ के लिए कुछ कर गुजरने के नाम राज ठाकरे की मूर्खतापूर्ण और निन्दनीय हरकतें देश भर के अखबारों और चैनलों पर छाई हुई हैं। उनकी इन हरकतों में ईमानदारी कितनी है और मतलबपरस्ती कितनी-यह बताने की जरूरत नहीं। कांग्रेसस का पैदा किया और संरक्षित किया जा रहा यह नराधम देश के लिए कितना घातक बना हुआ है, यह सब अनुभव कर रहे हैं। ‘राज ठाकरे की ये हरकतें अनायास ही गो। ना. सिंह की याद दिला देती हैं।’ कहा जमनालाल ने।


जमनालाल याने जमनालाल राठौर। मेरे तकलीफ के दिनों का साथी। मैं अपने महापुरुषों की सूची बनाऊँगा तो उसके प्रथम क्रम पर इसी का नाम होगा। इसके बारे में मौका मिलने पर विस्तार से लिखूँगा। फिलहाल इतना ही कि इस पोस्ट का जनक जमनालाल ही है। भोपाल के ‘भेल’ इलाके में लोक कथा की तरह गाहे-ब-गाहे सुनने को मिल सकने व वाला यह किस्सा उसी ने कल रात मुझे सुनाया।



यह घटना अगस्त/सितम्बर 1967 के आसपास की है। श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया के निर्देशन, सहयोग और संरक्षण में कांग्रेस के लगभग 40 विधायकों ने दलबदल कर तत्कालीन लौह पुरुष और राजनीति के चाणक्य, पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्र के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को औंधे मुँह गिराकर मध्यप्रदेश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी जिसे ‘संविद सरकार’ (संयुक्त विधायक दल सरकार) के नाम से पहचाना गया। ‘संविद’ की नेता तो खुद श्रीमती सिन्धिया बनीं थी और मुख्यमन्त्री बने थे, दलबदलुओं के नेता श्री गोविन्द नारायण सिंह जिन्हें पत्रकारिता के हलकों में ‘गो। ना. सिंह’ के नाम से अधिक जाना-पहचाना जाता था।



तब भोपाल में ‘भेल’ (बी।एच.ई.एल. याने भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स) नहीं हुआ करता था। तब यह भारत-ब्रिटेन सहयोग वाला उद्यम एच.ई.एल. (हेवी इलेक्ट्रिकल्स इण्डिया लिमि.) हुआ करता था जब कि ‘बी.एच.ई.एल.’ के नाम से हरिद्वार, हैदराबाद और त्रिचनापल्ली में तीन संयन्त्र कार्यरत थे। इनमें से हरिद्वार वाला संयन्त्र भारत-सोवियत रूस सहयोग का उपक्रम था। शेष दो के बारे में अब इस समय मुझे कुछ याद नहीं आता। कालान्तर में भोपाल वाले एच.ई.एल. को बी.एच.ई.एल. में विलीन कर दिया गया। सो, भोपाल स्थित आज का ‘भेल’ (बी.एच.ई.एल.) तब का एच.ई.एल. हुआ करता था। प्रबन्धन से लेकर श्रमिक स्तर तक के अधिकांश कर्मचारी दक्षिण भारतीय थे।



इसी एच।ई.एल. के एक कार्यक्रम में भाग लेकर गो.ना.सिंह पिपलानी से लौट रहे थे। एच.ई.एल. भोपाल के सर्वोच्च अधिकारी भी उनके साथ ही थे। अचानक ही गो.ना. सिंह को एक बड़ी झुग्गी-बस्ती नजर आई। उन्होंने पूछा - ‘यह कौन सी बस्ती है?’ उत्तर मिला - ‘अन्ना नगर।’ गो. ना. सिंह अपनी किस्म के अलग ही व्यक्ति थे-विकट जीवट और प्रबल इच्छा शक्ति के धनी। उनकी कार्य शैली अटपटी थी-अंग्रेजी में जिसे ‘अनप्रिडिक्टबल’ कहते हैं। उन्होंने कार रुकवाई। पूछा - ‘अन्ना नगर? वह भी मध्यप्रदेश में? क्या मतलब?’ उन्हें बताया गया कि एच.ई.एल. में काम करने के लिए दक्षिण भारत के विभिन्न प्रान्तों से आए मजदूरों ने यह बस्ती बसाई है। इसमें कर्नाटक, तमलिनाडु (जिन्हें तब क्रमशः कर्नाटक और मद्रास कहा जाता था),केरल,आन्ध्र प्रदेश से आए लोग शामिल थे। अन्ना दुराई तब दक्षिण भारत के प्रतीक और पर्याय पुरुष हुआ करते थे। सो, उन्हीं के नाम पर इस बस्ती का नामकरण कर दिया गया था।



सुनकर गो। ना. सिंह को अटपटा लगा। उन्होंने एच.ई.एल. के सर्वोच्च अधिकारी से कुछ ऐसा कहा - ‘मैं मान लेता हूँ कि इंजीनीयर और तकनीकी लोग आपको मध्य प्रदेश में नहीं मिले होंगे। लेकिन ऐसी क्या बात हो गई कि आपको मजदूर भी दक्षिण भारत से बुलवाने पड़े? क्या आपको मध्यप्रदेश में मजदूर भी नहीं मिले?’ सर्वोच्च अधिकारी यूँ ही इस पद पर नहीं पहुँचे थे। कब बोलना और कब चुप रहना, यह खूब अच्छी तरह जानते थे। सो, उन्होंने चुप रह कर ही जवाब दिया। वैसे भी, गुस्से से रतनार हो चुके, गो. ना. सिंह के ‘विशाल नयन’ वह सब कह रहे थे जो गो. ना. सिंह मुँह से नहीं कह रहे थे।



कोई दूसरा मौका होता तो बात आई गई हो चुकी होती। किन्तु बात गो। ना सिंह की और उनके गुस्से की थी। जमनालाल ने कहा - ‘इस बात का असर बिजली की माफिक हुआ। गो. ना. सिंह ने एक अक्षर भी लिख कर नहीं दिया किन्तु इस घटना के बाद, पहली बार ऐसा हुआ कि एच.ई.एल. के विभिन्न पदों पर भर्ती के लिए प्रदेश के तमाम जिलों के रोजगार कार्यालयों के माध्यम से उपयुक्त उम्मीदवारों को सूचना भेजी गई और उसके बाद जो भी भर्ती हुई उसमें लगभग आधे लोग मध्य प्रदेश के लिए जाने लगे।’ लेकिन इससे जमनालाल का क्या सम्बन्ध? मेरी बात सुनकर जमनालाल ने अत्यन्त भावुक होकर, आर्द्र नेत्रों से कहा - ‘सम्बन्ध है मेरे भाई! तू जानता है, उन्हीं दिनों मैंने बी.एससी. पास की थी। नौकरी की जरुरत थी। बी.एच.ई.एल. का कोई विज्ञापन अखबारों में नहीं छपा था। छपता भी तो मुझ तक शायद ही पहुँचता। मुझे तो मन्दसौर स्थित रोजगार कार्यालय से ही सूचना मिली थी और उसी की बदौलत मैं एच.ई.एल. की नौकरी हासिल कर सका।’



सुन कर मैं सन्न रह गया। पता नहीं, गो। ना. सिंह को जीते-जी, अपने इस ‘करम’ की जानकारी हुई भी या नहीं। हुई हो तो भी उन्होंने प्रदेश के इतने सारे लोगों को रोजगार दिलाने का श्रेय लेने की कोई कोशिश, कभी नहीं की। उन्होंने इसे अपनी जिम्मेदारी मान कर, चुपचाप अपना काम किया। न जाने कितने जमनालाल उन्हें आज इसी तरह से याद करते होंगे। आपको बता दूँ कि जमनालाल ने 1999 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली। उस समय वह सीनीयर मैनेजर के रूप में काम कर रहा था। मालवा के जिस छोटे से गाँव भाटखेड़ी से जमनालाल आया था, उस गाँव का कोई भी बाशिन्दा आज तक इतने बड़े पद पर नहीं पहुँच पाया है।



किस्सा सुना कर जमनालाल ने कहा - ‘आज गो। ना सिंह होते तो राज ठाकरे की वो ठुकाई करते कि राज ठाकरे की बोलती बन्द हो जाती। काम करने वाले और काम करने का ढोंग करने वाले में क्या अन्तर होता है, यह ऐसी ही घटनाओं से मालूम हो सकता है। गो. ना. सिंह ने न तो हिन्दी की दुहाई दी और न ही दक्षिण भारतीय भाषाओं का विरोध किया। उन्होंने सबको यथावत रखते हुए अपने प्रदेश के लोगों को समाहित करने की बात की और उसमें कामयाब भी हुए।’



थोड़े लिखे को बहुत समझिएगा और इसमें जो कमी लगे उसे अपनी ओर से पूरी कर लीजिएगा।
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यह सब करे गरीब आदमी


8 नवम्बर 2009, रविवार। आगरा में मेरी यह दूसरी सुबह थी। भारतीय जीवन बीमा निगम के एजेण्टों के एकमात्र राष्ट्रीय संगठन ‘लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया’ (लियाफी) के चा चौदहवें राष्ट्रीय अधिवेशन के दूसरे दिन की कार्रवाई में शामिल होने के लिए मेरे चारों एजेण्ट साथी निकल चुके थे। आलस्यवश मैं पीछे रह गया था। वैसे भी मुझे किसी कार्रवाई में भागीदारी तो करनी नहीं थी, उपस्थिति मात्र दर्ज करानी थी। सो, समय पर न पहुँचकर भी मैं विलम्बित नहीं था।

धौलपुर हाउस से मैंने रिक्शा लिया। चैराहा पार कर रकाबगंज में कुछ ही मीटर दूरी पार की थी कि छिपी टोला के नुक्कड़ पर, सामने पूड़ी-कचौड़ी और दूध की दो दुकानें नजर आईं। ‘सुन्दर दूध भण्डार’ पर रिक्शा रुकवाया। रिक्शाचालक ने कहा तो कुछ नहीं किन्तु उसकी खिन्नता चेहरे पर चस्पा हो गई थी।

दुकान खुले शायद बहुत देर नहीं हुई थी। पास वाला ‘जावेद पान भण्डार’ अभी नहीं खुला था। उससे लगी, जूतों की दुकानवाला आया ही था। उसने अपने हाथ का अखबार पास खड़े एक आदमी को थमाया। आदमी अखबार देखने लगा और दुकानदार दुकान खोलने का उपक्रम करने लगा।

‘सुन्दर दूध भण्डार’ पर तीन ग्राहक खड़े थे। दुकान के प्रवेश वाले हिस्से के दाहिने कोने पर भट्टी लगी हुई थी। एक लड़का पूड़ियों की मसालेदार लोइयाँ बना कर पूड़ियाँ बेल रहा था, दूसरा तल रहा था। एक अन्य कारीगर कचौड़ियों की लोइयाँ बना कर उन्हें हथेली के गद्दे पर रखकर, दूसरे हाथ के अँगूठे से दबाकर, कचौड़ी के आकार में फैला कर थाल में रख रहा था। भट्टी पर चढ़ी कढ़ाई में पूड़ियाँ तली जा रही थीं। कढ़ाई के सामने दो थालों में पूड़ियाँ और कचौड़ियाँ अलग-अलग रखी हुई थीं और बड़े भगोने में आलू की सब्जी। दूसरे कोने पर पर बनी भट्टी पर बढ़े कड़ाह में रखे दूध पर मलाई की मोटी तह जमी हुई थी जिसके नीचे दूध उबल रहा था। कड़ाह के चारों ओर, दूध की सतह से तनिक ऊपर, मलाई की मोटी तह चिपकी हुई थी। कड़ाह के सामने बैठा कर्मचारी मिट्टी के सकोरों को पोंछ रहा था। ग्राहकों के लिए दूध तैयार करने के लिए एक छोटी भगोनी और एक बर्तन में शकर उसके पास रखी हुई थी।

मैंने खुद के लिए और रिक्शाचालक के लिए दो-दो पूड़ियों और एक-एक सकोरा दूध के लिए टोकन लिए। दुकानदार ने पूड़ियों का पहला दोना मुझे थमाया तो मैंने रिक्शाचालक की ओर बढ़ा दिया। उसे सम्पट नहीं बँधी। उसे विश्वास ही नहीं हुआ। उसने हाथ जोड़ते हुए इंकार कर दिया। मैंने कहा कि उसके लिए ही लिया है तो वह हक्का-बक्का होकर मेरी तरफ देखने लगा और इसी दशा में रोबोट की तरह, हाथ बढ़ाकर दोना लिया। पूड़ियाँ और आलू सब्जी निपटा कर मैंने दूध का पहला सकोरा लेकर उसी तरह रिक्शाचालक को थमाया।

अपने लिए दूध का सकोरा लेकर मैंने दूध सुड़कना शुरु किया ही था कि मेरे अचेतन ने मानो कुछ कहा। मैंने अपने आसपास देखा तो पाया कि दुकान के कर्मचारी, पहले से खड़े तीनों ग्राहक और अखबार पढ़ रहा आदमी, सब के सब मुझे और रिक्शाचालक को घूर रहे हैं। दूध हलक से नीचे उतारना मेरे लिए कठिन हो गया। जैसे-तैसे सकोरा खाली किया। रिक्शाचालक पहले ही निपट चुका था। मैं अपना प्रयुक्त सकोरा, दुकान के सामने रखे कूड़ादान में डालने लगा तो रिक्शाचालक लगभग विगलित स्वरों में बोला-‘बाबू साहब! भगवान आपका भला करे।’ इस वाक्य का मुझे अन्देशा था। किन्तु ‘दुआ’ में अनकही आशंका छुप नहीं सकी। वह चाह कर भी नहीं पूछ सका - ‘नाश्ते की रकम मेरी मजदूरी में से काटोगे तो नहीं?’ आसपास के लोगों की नजरें झेल पाना मेरे लिए कठिन होता जा रहा था। रिक्शे में चढ़ते हुए मैंने कहा - ‘इसकी कोई जरूरत नहीं। जल्दी चलो।’ लेकिन मेरी बात अनसुनी कर वह बोला -‘जरूरी तो नहीं बाबू साहब! पर गरीब आदमी दुआ देने के सिवाय और कर ही क्या सकता है?’

मैंने अनसुनी कर दी लेकिन अखबार पढ़ रहे आदमी ने रिक्शावाले की बात लपक ली। उससे एक दिन पहले, शनिवार को, आगरा के एक हिस्से में लोगों ने दुकानें लूट ली थीं और पुलिसवालों की जोरदार पिटाई कर दी थी। ये लोग, दाल, प्याज, आलू जैसी रोजमर्रा की चीजों की बढ़ती कीमतों से त्रस्त थे और मँहगाई को नियन्त्रित करने की माँग करते हुए सड़कों पर उतरे थे। यह समाचार प्रमुखता से अखबारों में छपा था। रिक्शावाले की बात सुनकर, अखबार पढ़ रहा आदमी तल्खी से तथा पूरे जोर से बोला - ‘क्यों? गरीब को करने के लिए और काम मालूम नहीं? गरीब को कई सारे काम करने पड़ते हैं। गरीब आदमी नेता को वोट दे, उसके लिए जिन्दाबाद के नारे लगाए, उसके जुलूसों में शामिल हो, उसकी झिड़कियाँ सहे, उसके वादों पर भरोसा करे, जिन्दा रहने के लिए उसके सामने गिड़गिड़ाए, उसके तलुए चाटे और फिर भी जिन्दा रहने के लिए जरूरी चीजें नहीं मिले तो आत्महत्या करले। इतने सारे काम हैं गरीब को करने के लिए और यह स्साला कह रहा है कि गरीब आदमी और कर ही क्या सकता है?’

तब तक कुछ लोग और दुकान पर पहुँच गए थे। आदमी की बातें सुनकर सब हँसने लगे। किन्तु मैं नहीं हँस पाया। रिक्शाचालक भी तनिक खिसिया गया। उसे लगा, उस आदमी ने उसे झिड़क दिया है। अपनी दुआ पर इस तरह डाँटा जाना उसे अरुचिकर लगा और उसे असहज कर गया।

रिक्शा चल पड़ा। कुछ ही मिनिटों में मैं अपने मुकाम, तार घर ग्राउण्ड पर पहुँच गया। रिक्शा से उतर कर मैंने रिक्शाचालक को भुगतान किया। उसने रुपये गिने ही नहीं। मुझे एक बार फिर धन्यवाद दिया। पाण्डाल में पहुँच कर अपने साथियों को तलाश कर उनके पास अपनी जगह बनाई। कार्रवाई शुरु हो चुकी थी। हमारे राष्ट्रीय अध्यक्षजी हमारी समस्याएँ गिनवा रहे थे। लोग खुश तथा होकर उत्तजित होकर बीच-बीच में ‘लियाफी जिन्दाबाद’ के नारे लगा रहे थे। किन्तु मुझे यह सब नहीं सुनाई दे रहा था। मुझे तो, रकाबगंज में छिपीटोला के नुक्कड़ पर स्थित सुन्दर दूध भण्डार के पास खड़े आदमी की, तल्खी में डूबी, गरीब आदमी द्वारा किए जाने वालों कामों की सूची सुनाई पड़ रही थीं।

मैं सोच रहा था, गरीब आदमी को इन कामों से मुक्ति दिलाने के लिए भी कभी, कहीं, कोई अधिवेशन होगा?

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ताजमहल और मेरा मन


ताजमहल बिलकुल नहीं बदला होगा। वैसा का वैसा ही होगा जैसा कोई सत्ताईस बरस पहले रहा होगा, जब मैं ताज देखने नहीं गया था।

वह शायद 1982 था। मेरी अवस्था 35 के आसपास रही होगी। दवाइयाँ बनाने वाली फर्म में भागीदार था। थोक विक्रेता नियुक्त करना और सरकारी अस्पतालों में से आर्डर लाना मेरी जिम्मेदारी था। यात्राएँ करनी पड़ती थीं। लगातार डेड़-डेड़ महीने तक की। घर से निकलता तो इस तरह कि रविवार का उपयोग यात्रा में हो जाए और सोमवार की सवेरे अगले मुकाम पर पहुँच जाऊँ। इसी तरह सोमवार की सवेरे आगरा पहुँचा था। उतरते ही मालूम हुआ - आगारा के बाजार सोमवार को बन्द रहते हैं। दुखी तो हुआ किन्तु कर ही क्या सकता था? होटल में डेरा डाला। नित्यकर्म से मुक्त होकर अखबार की दुकान पर गया। ढेर सारे अखबार और पत्रिकाएँ खरीद लीं। दिन भर जो गुजारना था!

चाय-अखबार का दौर शुरु हो गया। दस बजते-बजते सेवक ने आकर पूछा - ‘ताज देखने जाएँगे साहब?’ उसकी आरे देखे बगैर उत्तर दिया-‘नहीं।’ ‘पहले देख रखा होगा।’ तय कर पाना मुश्किल हुआ था कि वह तसल्ली कर रहा है या सवाल? इस बार भी मेरा जवाब ‘नहीं’ था। उसे हैरत हुई थी। पूछा - ‘अरे! फिर भी नहीं देखेंगे?’ मेरा जवाब वही था। इस बार उसे परेशानी हुई थी। पूछा - ‘क्यों साहब?’ मैंने कहा - ‘मन नहीं है।’ मुझे नहीं, मानो दुनिया के नौंवे अजूबे को देख रहा हो, कुछ इसी तरह मुझे देखते हुए वह चला गया।

कोई घण्टा भर बाद वह फिर हाजिर था, मेरे लिए चाय लेकर। उसने फिर वे ही सवाल किए। मेरे जवाब भी वे ही थे। अन्तर इतना रहा कि उसके सवालों में जिज्ञासा के साथ तनिक खिन्नता भी थी। दोपहर लगभग एक बजे मैंने कमरे मे ही भोजन मँगवाया। भोजन किया और लम्बी तान कर सो गया।

अपराह्न कोई तीन बजे उठा। चाय के लिए घण्टी बजाई। सेवक हाजिर हुआ। थोड़ी देर बाद चाय लेकर लौटा। लेकिन केवल चाय लेकर नहीं। सवाल भी साथ थे। उसने पूछा - ‘सच में ताजमहल नहीं देखा?’ मेरा जवाब वही रहा। ‘फिर भी देखने नहीं जाएँगे?’ मेरा इंकार इस बार उसे बर्दाश्त नहीं हुआ। वह मानो उबल पड़ा। तुर्शी से बोला - ‘फिर तो साहब आप बिलकुल सही जगह आए हैं। आगरा इस काम के लिए भी पहचाना जाता है। भर्ती हो जाओ और अपना ईलाज करवा लो।’ मैं हँस दिया। मेरी हँसी ने मानो साँड को लाल कपड़ा दिखा दिया। ‘बेवकूफ’, ‘जाहिल’ और ऐसी ही गालियाँ देने लगा। गालियों के अनवरत क्रम के बीच उसने कहा था - ‘फॉरेन के टूरिस्ट ताज देखने आते हैं और एक ये हैं कि कह रहे हैं कि ताज नहीं देखेंगे!’ इस बार वह आक्रामक लग रहा था। मेरी हँसी पलायन कर गई और डर ने डेरा डाल लिया। घबरा कर मैंने होटल के मैनेजर को पुकारा। नहीं, पुकारा नहीं, चिल्ला कर पुकारा। वह आया। सब कुछ सुन-देख कर उसने सेवक को भगाया। मुझसे माफी माँगी। लेकिन वह भी अपने आप को रोक नहीं पाया। पूछ बैठा - ‘वाकई में आपने अब तक ताज नहीं देखा है और इसके बाद भी आप ताज देखने नहीं जाएँगे?’ मैंने कहा - ‘हाँ, देखा भी नहीं है और देखूँगा भी नहीं।’ उसने तनिक विगलित होकर पूछा था - ‘भला क्यों साहब?’ मैंने अनुभव किया था कि अपनी बेगम मुमताज के प्रति शाहजहाँ जितना जजबाती रहा होगा, उससे कहीं अधिक जजबाती आगरा के लोग ताजमहल के प्रति हैं। मैंने चलताऊ जवाब दिया था - ‘मेरी मुमताज के बिना ताज देखना मुझे नहीं सुहाता।’ तसल्ली तो उसे शायद नहीं हुई थी किन्तु मेरा जवाब उसे ‘तहजीबी’ लगा होगा। वह भी मुझे नौवें अजूबे की तरह देखते हुए ही लौटा था।

इस बार पूरे तीन दिन आगरा रहा - सात, आठ और नौ नवम्बर। भारतीय जीवन बीमा निगम के एजेण्टों के एक मात्र राष्ट्रीय संगठन ‘लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया’ (लियाफी) के चौदहवें साधारण सम्मेलन में भाग लेने के लिए। चार एजेण्ट मित्र और साथ थे। चारों के चारों आयु में मुझसे कम से कम बीस बरस छोटे। भरपूर समय मिला था। ताज देखा जा सकता था। चारों ने कार्यक्रम बनाया। मैं उनके साथ भी नहीं गया। उन्होंने मेरे इंकार पर विश्वास ही नहीं किया। वे तो मानकर ही चल रहे थे कि उनके बनाए कार्यक्रम में मैं शामिल हूँ ही। सवाल-दर-सवाल और मनुहार-दर मनुहार। किन्तु मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। खिन्नमना होकर उन्होंने भी वही सवाल किया ‘क्यों?’ उनके सवाल पर तो नहीं किन्तु अपने जवाब पर ही मुझे ताज्जुब हुआ। शब्दों का अन्तर रहा होगा किन्तु मेरा जवाब वही रहा जो सत्ताईस बरस पहले, उस होटल मैनेजर को दिया था - ‘मेरी मुमताज के बिना ताज देखना मुझे नहीं सुहाता।’

मेरा जवाब सुनकर चारों, कनखियों से एक दूसरे को दखेकर हँस दिए और हँसते-हँसते ही चल दिए। किन्तु उनके जाने के बाद देर तक मैं अकबकाया बैठा रहा। अपना, ‘वही का वही’ जवाब मुझे ही चौंका गया। तब भी जवाब मन से निकला था और इस बार भी मन से ही निकला था, बिना सोचे-विचारे।

ताजमहल तो जड़ है। वह तो नहीं बदल सकता। उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं हो सकती। किन्तु मैं और मेरा मन? ये तो सजीव हैं। जड़ नहीं। फिर?

क्या मैं भी जड़ हो गया हूँ? मेरा मन ताजमहल हो गया है?

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नौकरी और काम


कोई तीन महीनों से देख रहा हूँ, सुमित रात में देर से लौट रहा है। पहले वह साढ़े सात और आठ बजे के बीच लौट आता था। इन दिनों रात साढ़े ग्यारह बजे से पहले नहीं लौट रहा। हाँ, उसके जाने के समय में कोई बदलाव नहीं हुआ है। वही, सवेरे साढ़े नौ और दस बजे के बीच, जब मैं चाय पीकर अखबारों को पढ़ने का दूसरा दौर पूरा कर रहा होता हूँ। सवेरे का अभिवादन यथावत बना हुआ है। शाम का नमस्कार अब कभी-कभार ही हो पाता है। साढ़े ग्यारह बजते-बजते मैं सोने की तैयारी करने लगता हूँ। सो, रात की राम-राम उससे तभी हो पाती है जिस रात वह साढ़े ग्यारह बजे से पहले लौट आता है।


आज वह साढ़े आठ बजे ही लौट आया। मुझे आशंका हुई, उसकी तबीयत तो खराब नहीं? राजी-खुशी पूछने के निमित्त अपने पास बैठा लिया। वह फौरन बैठ गया। ऐसे, मानो उसे पता था कि मैं उसे बैठने को कहूँगा। बैठते ही बोला-‘बातें बाद में। पहले चाय पीऊँगा।’ चाय तो बाद में आनी थी। बातें पहले ही शुरु हो गईं।


सुमित, साधारण बीमा क्षेत्र में काम कर रही एक निजी बीमा कम्पनी के स्थानीय शाखा कार्यालय का प्रभारी है। चार जिलों का प्रभारी। भौगोलिक क्षेत्राधिकार भरपूर विस्तृत। अन्तिम गाँव कोई ढाई सौ किलोमीटर दूर। सुमित को वहाँ तक महीने में कम से कम दो बार तो जाना ही होता है। लगभग डेड़ सौ किलोमीटर की यात्रा उसे प्रतिदिन अपनी मोटर सायकिल पर करनी पड़ती है। सुमित सहित उसके कार्यालय में चार कर्मचारी पदस्थ थे। तीन ने नौकरी छोड़ दी। तीन माह हो गए हैं, नई नियुक्तियाँ अब तक नहीं हुईं। सो, इन दिनों ‘पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर’ बन, चारों का काम सुमित को ही करना पड़ रहा है। बीमे का काम भी ऐसा कि कल पर नहीं छोड़ा जा सकता। आज का काम आज ही निपटाना पड़ता है। इसीलिए सुमित को लौटने में देरी हो रही है। मैंने पूछा-‘तीन लोगों का अतिरिक्त काम करने का कोई अतिरिक्त भुगतान मिलेगा?’ ‘सवाल ही नहीं उठता।’ कहते हुए सुमित ने बताया कि इस तरह काम करने में उसे आनन्द आ रहा है। अपनी योग्यता और क्षमता प्रमाणित करने का अनूठा अवसर मानता है वह इसे। ‘स्टाफ की नियुक्ति आज नहीं तो कल हो ही जाएगी। मुझे क्या फर्क पड़ना? रात सात बजे लौटूँ या बारह बजे। केवल आराम करने और नींद निकालने के वक्त में ही तो थोड़ी कतर-ब्यौंत करनी पड़ रही है। अपनी योग्यता और क्षमता दिखाने के ऐसे मौके प्रायवेट सेक्टर में हर किसी को नहीं मिलते। मुझे मिला है तो इसे एन्जॉय भी कर रहा हूँ और एक्सप्लायट भी। जिस दिन स्टाफ आ जाएगा, उस दिन से आराम मिल जाएगा।’ ‘थकान’ उसके लिए ‘शारीरिक स्थिति’ नहीं, ‘मनःस्थिति’ है - ‘शरीर तभी थकता है, जब मन थके।’


चाय कब आई, कब खत्म हो गई, पता ही नहीं चला। उठते हुए सुमित बोला - ‘आज टूर पर नहीं जाना पड़ा सो जल्दी घर आ गया। शानदार चाय के साथ आपने इतनी चिन्ता से पूछ-परख कर ली तो ताजगी आ गई। फ्रेश होकर खाना खाने के बाद आज पढ़ने का मजा आ जाएगा।’


जो कुछ कहा, उससे कहीं अधिक और काफी-कुछ ऐसा और इतना अनकहा छोड़ गया कि उसके जाने के बाद, देर तक वही सब सुनता रहा। यही सुमित यदि सरकारी नौकरी में होता तो? तो भी वह इसी तरह, आधी-आधी रात तक बैठ कर, चार लोगों का काम करता? रोज का काम रोज निपटाता? और सबसे बड़ा सवाल - इतनी प्रसन्नता और बिना थकान के करता? निश्चय ही नहीं। उसे जैसे ही मालूम पड़ता कि उसके सिवाय बाकी तीनों कर्मचारी छुट्टी पर हैं, वह भी शायद देर से दफ्तर पहुँचता। अपने काम से काम रखता। बाकी तीनों कर्मचारियों में से किसी का भी काम नहीं निपटाता। निपटाता तो वही जिसमें उसका अपना कोई फायदा होता या काम किसी अपनेवाले का होता। पूरे दफ्तर का काम तो दूर रहता, खुद का रोज काम भी नहीं निपटाता और समय से पहले नहीं तो दफ्तर बन्द होने के समय तक तो निकल ही जाता। ‘साहब ने बुलाया है’ या फिर ‘मीटिंग में जाना है’ जैसे पारम्परिक बहाने बना कर दफ्तर से गायब हो जाता। यदि टूर करना उसकी ड्यूटी में होता तो वह प्रायः ही टूर पर निकल जाता, उस दिन दफ्तर आता ही नहीं और कोई ताज्जुब नहीं कि घर पर आराम करते हुए ही टूर कर लेता।


हाथ-मुँह धोकर, ताजादम हो कर सुमित भोजन करने के लिए निकला तो मुझे जस का तस बैठा देख कर पूछा - ‘आपको भोजन नहीं करना?’ ‘हाँ, करता हूँ।’ कह कर मैंने पूछा - ‘नौकरी में ऐसा कब तब और कैसे चलेगा?’ सुमित ठिठक गया। तनिक हैरत से मुझे देखा और चलते हुए बोला - ‘क्या बात करते हैं अंकल? प्रायवेट सेक्टर में नौकरी नहीं होती। वहाँ तो काम होता है। मैं नौकरी कहाँ कर रहा? अभी तो काम कर रहा हूँ। हाँ, दो-तीन प्रमोशन मिल जाएँगे, तब नौकरी करने की सोचूँगा।’


एक बार फिर सुमित काफी कुछ अनकहा छोड़ गया। मैं सुन रहा था कि हमारे सरकारी दफ्तरों में लोग काम नहीं करते, नौकरी करते हैं। और नौकरी करनेवालों में से नौकरी भी कितने करते हैं?
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001।

ये अनूठे ‘अपनेवाले’



‘आप तो अपनेवाले हैं’ जैसी ‘भावनात्मक भयादोहन’ (इमोशनल ब्लेकमेलिंग) करने वाली दुहाई देकर, अपनेवालों का, मुफ्तखोरी की सीमा छूने वाला, आर्थिक, सामाजिक शोषण करनेवालों को लेकर, 8 अगस्त 2008 की ये, अपने वाले शीर्षक मेरी पोस्ट डॉ.सत्यनारायण पाण्डे ने बरबस ही याद दिला दी। यह अलग बात है कि मैं उन विरले आपवादिक लोगों में से एक हूँ जिन्हें अपनेवालों को स्नेह, सहयोग, संरक्षण ‘अकूत’ मिला है। मैं तो जीवित ही ऐसे अपनेवालों की कृपा से रह पाया हूँ। मेरा, 1991 से लेकर अब तक का जीवन तो पूरी तरह से ‘उधार का जीवन’ ही है। अपनेवालों ने ही मुझे जीवित बनाए रखा हुआ है।

डॉक्‍टर पाण्डे मूलतः मन्दसौर जिले के गरोठ कस्बे के निवासी हैं। मेरे प्रति न केवल प्रेम अपितु आदर-सम्मान भाव भी रखते, बरतते हैं। मैं भी मूलतः मन्दसौर जिले से ही हूँ। किन्तु यह वैसा और उतना बड़ा कारण नहीं कि डॉ. पाण्डे मुझ पर इतनी स्नेह वर्षा करें। यह उनकी संस्कारशीलता ही है। यहाँ दिया गया चित्र उन्हीं डॉ. पाण्डे के परिवार का है।

अपने बेटे विपुल का बीमा कराने के लिए उन्होंने मुझे घर बलाया। विपुल ने अभी-अभी बी ई किया है। अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त एक भारतीय आई.टी. कम्पनी में उसका चयन हुआ है। उसी के ‘आय कर नियोजन’ के लिए डॉ. पाण्डे उसका बीमा करवा रहे थे।

निर्धारित समय पर मैं पहुँचा। पूरा परिवार मेरी अगवानी में उपस्थित था। मेरी योग्यता, पात्रता, अपेक्षा से कहीं अधिक ऊष्मापूर्ण आतिथ्य दिया। आहार को परास्त करता स्वल्पाहार। आकण्ठ तृप्ति ऐसी कि डकार को भी रास्ता नहीं मिला। मैंने कहा-‘मैं इस सबके लिए नहीं, बीमे के लिए आया हूँ।’ डॉ। पाण्डे सस्मित बोले-‘आप मुझे ही बता रहे हैं? आप भूल रहे हैं कि आप अपनी ओर से नहीं आए हैं। मैंने ही आपको बुलाया है।’ यह सब चल ही रहा था कि उनके एक ऐसे मित्र आए जो मुझे, बरसों से जानते थे।

मैंने कागज-पत्तर बिछाए। विभिन्न योजनाएँ बताईं। डॉ। पाण्डे ने मेरी सलाह चाही। मैंने अपनी पसन्द और उसकी विशेषताएँ, कमियाँ बताईं। जल्दी ही अन्तिम निर्णय ले लिया गया। विपुल के हस्ताक्षर करवाए, आवश्यक अभिलेख प्राप्त किए। सबसे महत्वपूर्ण बात थी - पहली किश्त की रकम का भुगतान। डॉ.पाण्डे ने चेक-बुक निकाली ही थी कि उनके साथी ने पूछा -‘दादा! आप कमीशन कितना देंगे?’ प्रश्न असुविधाजनक अवश्य था किन्तु नया और अनपेक्षित नहीं। किन्तु मैं कुछ बोलता उससे पहले ही डॉ. पाण्डे ने कोहनियों तक हाथ जोड़े और कहा -‘आपको इसलिए नहीं बुलाया है। कमीशन देने वाले ढेरों एजेण्ट चक्कर लगा रहे हैं। आपको खास तौर से बुलाया है। वह बात बाद में करेंगे। अभी तो आप चेक लीजिए।’ बात यहीं समाप्त हो गई। चेक लेकर, अपने कागज-पत्तर समेट कर मैं डॉ. पाण्डे की ओर प्रश्न-दृष्टि से देखने लगा। वे बोले-‘बाद में, फोन पर बात करेंगे।’ याने, अब मुझे वहाँ से चल देना चाहिए। वैसे भी बीमा एजेण्टों को ‘समझाइश’ दी जाती है कि नए बीमे का भुगतान मिलते ही जगह छोड़ देनी चाहिए। अधिक देर बैठ कर बातें करने लगे और इसी बीच बीमा कराने वाले का विचार बदल गया तो? ‘आत्म हत्या करने का और बीमा कराने का निर्णय एक जैसा है। टल गया तो टल गया।’ जैसे वाक्य हम बीमा एजेण्टों को प्रत्येक प्रशिक्षण शिविर में कहे जाते हैं। सो, मैं नमस्कार कर चला आया।

मैं आ तो गया किन्तु मन में उलझन बनी हुई थी-वह खास बात क्या होगी जिसे डॉक्‍टर पाण्‍डे ने आमने-सामने नहीं कही? प्रश्न एक और सम्भावित उत्तर असंख्य, किन्तु एक पर भी विश्वास नहीं होता। झुंझलाकर खुद से कहा-‘क्यों पेरशान हो रहे हो? इस सवाल को निकाल फेंको अपने मन से। डॉ.पाण्डे जब कहेंगे तभी तो मालूम हो सकेगा?’ अपने इस ‘विवेकी परामर्श’ पर मुझे प्रसन्न होना चाहिए था। किन्तु नहीं हो सका क्योंकि प्रश्न मन से निकल ही नहीं

धैर्य की अच्छी-खासी परीक्षा हो गई तब आया डॉ. पाण्डे का फोन। उन्होंने जो कुछ कहा वह सब मेरे लिए कल्पनातीत था। उनकी कही ‘खास बात’ के सामने, कमीशन की रकम का बड़े से बड़ा आँकड़ा भी क्षुद्र ही नहीं, हेय और त्याज्य बन जाए। उन्होंने कुछ ऐसा कहा-‘आप मेरे अपने इलाके के हैं और उम्र में मुझसे बड़े हैं केवल यही कारण नहीं है। आपकी जीवन शैली और जीवन दर्शन मुझे भाता है। आप जिस तरह से जोखित लेते हैं और अपने जीवन मूल्यों के लिए कीमत चुकाते हैं, वह सब मुझे न केवल अच्छा लगता है बल्कि यह भी लगता है कि हम सबने भी ऐसा ही करना चाहिए। अब, यदि वह सब नहीं कर पाएँ तो क्या किया जाए? तब यही किया जाए कि जो लोग वाजिब बातों के लिए कीमत चुका रहे हैं, उनके साथ खड़ा हुआ जाए, उनकी मदद की जाए, उन्हें ताकतवर बनाया जाए ताकि वे अच्छे बने रह सकें। मुझे मालूम है कि कमीशन की रकम अच्छी-भली है और मुझे जैसे मध्यमवर्गीय व्यक्ति को ललचाने के लिए पर्याप्त है। किन्तु वह इतनी बड़ी भी नहीं कि आत्मा की बोलती बन्द कर दे। मैं आपको कैसे समर्थन दूँ, कैसे आपके साथ खड़ा रहूँ, कैसे आपको ताकतवर बनाऊँ-यह सवाल मेरे मन में लगातार उठता रहता है। ऐसे में जब विपुल का बीमा कराने का विचार आया तो लगा कि यही वह मौका है जब मैं वह सब कर सकूँ जो मैं आपके लिए सोचता रहा हूँ। इसीलिए आपको खास तौर पर बुलाया। मुझे यह परेशानी नहीं है कि कमीशन की रकम कितनी बड़ी या छोटी है। मुझे इस बात की खुशी है कि मैं आपकी सहायता करने का अवसर पा सका। यह सब आपके सामने कह पाना सम्भव नहीं था इसलिए उस वक्त चुप रहा। अब फोन पर कह रहा हूँ। मेरी भावनाओं को समझने की कोशिश कीजिएगा और कमीशन की रकम वापसी की बात भूल जाइएगा।’

इसके बाद वही हुआ जिसके लिए मैं ‘बदनाम’ हूँ। मेरा गला रुँध चुका था, इतना कि डॉ. पाण्डे को धन्यवाद दे पाना भी सम्भव नहीं हो पाया। खुद डॉ.पाण्डे उधर भावातिरेकी हो गए थे। साफ लग रहा था कि वे जल्दी से जल्दी अपनी बात समाप्त करना चाह रहे हैं। बात जल्दी ही समाप्त हो भी गई किन्तु ऐसा पहली बार हुआ कि फोन के दोनों छोरों पर बात करने वालों ने नमस्कार किए बिना बात बन्द कर दी।

मुझसे कमीशन न लेने के मामले में डॉ. पाण्डे न तो अकेले हैं और न ही पहले। डॉ. सुभेदार दम्पति तो मुझे घर आकर ऐसे झनझना गए कि लगभग ग्यारह वर्ष बाद भी वह जस की तस बनी हुई है। ऐसे कृपालुओं की सूची बनाना मुझे थका देगा। जितना स्नेह, सहयोग, संरक्षण मुझे मिला है उतना क्या किसी बीमा एजेण्ट को मिला होगा और मिलेगा? किन्तु डॉ. पाण्डे ने जो कुछ कहा उसने मुझे विगलित और विचलित कर दिया। इतना कि गंगा जल जैसा पावन और हिमालय को बौना करने वाला यह शुभ्र, धवल, ज्वाजल्य संस्मरण लिखने के लिए सहज होने में मुझे पूरे नौ दिन लग गए।

जब डॉ. पाण्डे यह सब कह रहे थे तो मुझे मेरे अग्रजवत एक कृपालु की याद आती रही जिन्होंने अपने बेटे का बीमा मुझसे केवल इसलिए नहीं करवाया क्योंकि वे मुझे कमीशन माँग नहीं पाते। उन सज्जन की धन-सम्पन्नता के सामने डॉ. पाण्डे तो बैरागी से भी गये बीते हैं। शायद ऐसे ही प्रसंगों पर पैसे की व्यर्थता और क्षमताविहीनता को बोध होता है।

डॉ. पाण्डे को धन्यवाद दे पाना मेरे लिए अभी भी सम्भव नहीं हो पाया है। उन्हें पत्र लिखना चाहा। किन्तु पाँच बार ऐसा हुआ कि लिखना शुरु किया और लिख नहीं पाया। एक बार फोन पर बात अवश्य की किन्तु वह कुछ भी नहीं कह पाया जो कहना चाहता था। ‘बड़ा होना अच्छा है किन्तु बड़प्पन उससे भी अच्छा है’ वाला मुहावरा अब तक पढ़ा और सुना ही था, साकार होते देखने के प्रसंग आपवादिक ही आए। यह उन सबमें प्रमुख हो गया।अभी भी तय नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या कहूँ। यही कह पा रहा हूँ कि डॉ.पाण्डे जैसे संरक्षक प्रत्येक व्यक्ति को मिले और ईश्वर, मुझ जैसा बड़भागी प्रत्येक को बनाए।

धन-सम्पत्ति के लिए बेटे द्वारा माँ-बाप की हत्या कराने की सुपारी देने वाले समय में समूचा प्रसंग बिलकुल ही ‘फिट’ नहीं बैठता। सरासर झूठ लगता है। ऐसे में मोबइल नम्बर 94250 91185 पर डॉ.पाण्डे से बात कर तसल्ली की जा सकती है।

(चित्र में बांये से - विपुल पाण्डे, डॉक्टर पाण्‍‍डे, श्रीमती विमला पाण्‍‍डे औ‍र प्रांजलि पाण्‍डे)

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

भक्त भूखे: भगवान को अजीर्ण


धर्म के नाम पर हमारे देश में कुछ भी हो सकता है और कुछ भी किया/कराया जा सकता है। हमारी राष्ट्रीय भावनाएँ अपवादस्वरूप भी आहत हो जाएँ तो बड़ी बात किन्तु धार्मिक भावनाएँ कभी भी, किसी भी बात पर आहत हो जाती हैं। धार्मिक परम्पराओं के साथ छोटी सी छेड़-छाड़ भी हमे बर्दाश्त नहीं होती। यह अलग बात है कि जब हमें धार्मिक परम्पराओं से छेड़-छाड़ करनी होती है तो हम ‘परम्परा का विस्तार’ जैसे तर्क देकर अपने अधर्म को छुपा लेते हैं।


दीपावली के अगले दिन अन्नकूट महोत्सव मनाया जाता है। इसे, दीपावली के दूसरे दिन ही मनाए जाने का प्रावधान है। किन्तु मेरे कस्बे में यह महोत्सव, देव प्रबोधनी एकादशी तक, याने पूरे दस दिनों तक मनाया जाता है-किसी दिन किसी मन्दिर पर तो किसी दिन दूसरे मन्दिर पर। दिन तो गिनती के दस ही होते हैं और मन्दिरों की संख्या अधिक! सो, किसी-किसी दिन दो-दो या तीन-तीन मन्दिरों पर एक साथ अन्नकूट महोत्सव मनाया जाता है।


इसकी शुरुआत कोई मन्दिर नहीं करना चाहता। प्रत्येक मन्दिर के अनुयायी चाहते हैं कि किसी न किसी मन्दिर पर शुरुआत हो जाए। इसके पीछे केवल प्रतियोगिता और प्रदर्शन की भावना होती है - धर्म का अता-पता शायद ही रहता हो। प्रत्येक मन्दिर के अनुयायी चाहते हैं कि उनके मन्दिर का अन्नकूट कस्बे का ‘सर्वाधिक सम्पन्न और समृद्ध अन्नकूट’ हो। किन्तु किसी न किसी मन्दिर को तो शुरु करना ही होता है। सो, शुरुआत करने वाले मन्दिर का अन्नकूट, लाख कोशिशों के बावजूद, कस्बे के अन्य मन्दिरों के अन्नकूट के मुकाबले में ‘गरीब और सादा अन्नकूट’ साबित होता है क्योंकि उस मन्दिर का अन्नकूट देखने के बाद अन्य मन्दिरों के अनुयायी अपने-अपने मन्दिर के अन्नकूट को उससे बेहतर तथा संख्या और मात्रा में अधिक व्यंजनों वाला बनाने की कोशिश करते हैं।


यहाँ दिया गया, प्रेस फोटोग्राफर शाहीद मीर का यह चित्र दैनिक भास्कर (रतलाम संस्करण) से उठाया गया है। मेरे कस्बे के सर्वाधिक सघन, वाणिज्यिक स्थल माणक चौक स्थित महालक्ष्मी मन्दिर के अन्नकूट के ढेर सारी थालियों में रखे व्‍यंजन तो नजर आ रहे हैं किन्‍तु ऐसा काफी कुछ है जो दिखाई नहीं दे रहा।


इस मन्दिर के अन्नकूट के लिए बनाए गए व्यंजनों में लगने वाले कच्चे माल के आँकड़े, अलग-अलग अखबारों में अलग-अलग छपे थे। उनमें से सबसे कम वाले आँकड़े इस प्रकार हैं - 25 क्विण्टल आटा, 40 डिब्बे देसी घी और 5 ड्रम (प्रत्येक ड्रम 200 लीटर का) मूंगफली तेल। मावा, बेसन और प्रयुक्त मसालों का आँकड़ा किसी ने नहीं दिया किन्तु 15 क्विण्टल नमकीन और मिठाई के लिए 50 किलो काजू/बादाम प्रयुक्त किए जाने की सूचना अवश्य दी। इस महोत्सव के लिए प्रयुक्त सब्जियों का वजन किसी ने नहीं बताया किन्तु यह अवश्य बताया कि सब्जियों को काटने/छीलने के लिए सैंकड़ों महिलाएँ और बच्चे (याने बच्चियाँ) दो दिन तक जुटे रहे। व्यंजन बनाने के लिए 30 कारीगर (हलवाई) तीन दिन-रात लगे रहे। ढाई सौ थालियों में ये पकवान (अर्थात् पकवानो के नमूने) प्रदर्शित किए गए। यह स्थिति मेरे कस्बे में पूरे दस दिनों तक चलती है। अपना अन्नकूट सर्वाधिक समृद्ध और सम्पन्न बनाने की जोड़-तोड़-होड़ लगी रहती है। इन दस दिनों में अन्नकूट का खर्च करोड़ का आँकड़ा तो पार कर ही लेता है।


कस्बे के तमाम मन्दिरों पर होने वाले, अन्नकूट महोत्सव के इन पकवानों की सामग्री पर और इनके बनाने पर कितना खर्च आया होगा और कितने हजार लोगों ने, कितनी देर पंक्तिबद्ध-प्रतीक्षारत रहकर प्रसादी ग्रहण की होगी, यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। किन्तु इसके समानान्तर कुछ बातों के लिए अनुमान लगाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि ये ‘बातें’ नहीं ‘तथ्य’ हैं। इनमें प्रमुख हैं -मेरे कस्बे के अधिकांश सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बिजली कनेक्शन नहीं है। इस कारण गर्मियों के दिनों में बच्चों और अध्यापकों/अध्यापिकाओं को पढ़ने/पढ़ाने में अत्यधिक असुविधा होती है तथा सर्दी और बरसात के मौसम में कमरों में अँधेरा छाया रहता है। अधिकांश स्कूलों में चपरासी की व्यवस्था नहीं होने से बच्चों को अपनी कक्षाओं में झाड़ू लगाना पड़ता है। कुछ स्कूलों में मूत्रालयों की समुचित व्यवस्था नहीं है। फलस्वरूप लड़के स्कूल परिसर में पेशाब करते हैं, लड़कियों को अत्यधिक असुविधा झेलनी पड़ती है और अध्यापिकाओं को (स्कूल के) पड़ौसियों के मूत्रालयों का सहारा लेना पड़ता है।


अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी भी एक मन्दिर के अन्नकूट पर खर्च होने वाली एक वर्ष की सकल रकम से बहुत कम रकम में ही मेरे कस्बे के तमाम स्कूलों में ये सारी सुविधाएँ जुटाई जा सकती हैं। किन्तु यह सब करना ‘धार्मिक’ नहीं होता।
कहाँ तो जुलूस का मार्ग बदलने की बात पर मार-काट मच जाती है और यहाँ धार्मिक प्रावधान की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं! धर्म तो आचरण का विषय होता है किन्तु उसे किस फूहड़ता से प्रदर्शन में बदल दिया जाता है? वह भी गर्वपूर्वक?


सरकारी आँकड़ों के अनुसार देश की 35 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। एक अन्य चर्चित रिपोर्ट के मुताबिक देश के 65 प्रतिशत से भी अधिक लोग, 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा करने को अभिशप्त हैं। ऐसे में, ये अन्नकूट क्या साबित करते हैं?


यह कैसी धार्मिकता है कि भक्त भूखों मरें और भगवान अजीर्ण से परेशान रहें?


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आपकीबीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
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गार्ड के डिब्बे में


नहीं जानता कि यह अनुभव जीवन में कितना काम आएगा या कितना महत्वपूर्ण होगा या कि अविस्मरणीय संस्मरण बन पाएगा भी कि नहीं। किन्तु लोगों के कहे बिना और लोगों को जताए बिना जन सामान्य के लिए काम करने वाले लोगों के प्रति मेरे मन में जो भावना उपजी वह निस्सन्देह अनूठी है।


मुझे दाहोद-भोपाल यात्री गाड़ी से उज्जैन जाना था। प्लेटफार्म पर पहुँचा तब भीड़ बिलकुल ही नहीं थी। किन्तु रेल के आते-आते दृश्य बदल गया। लगा कि एक रेल भर जाए, इतने यात्री तो रतलाम प्लेटफार्म पर ही खड़े हैं। रेल आई तो खचाखच भरी हुई। बैठने की जगह पाने की बात तो कल्पनातीत हो गई, डिब्बे में घुस पाना भी असम्भव लगने लगा। लगा कि मुझे अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ेगी। अचानक ही एक रेलकर्मी मित्र मिल गए। उन्हें खाचरौद जाना था। मेरी मुख-मुद्रा देख कर ही मेरी समस्या ताड़ गए। हँसकर न्यौता दिया -‘घबराइए मत। आपको जगह मिल जाएगी।’ मेरी आँखों में उभरे प्रश्न को पढ़कर बोले -‘अपन गार्ड के डिब्बे में चलेंगे।’ मैं निश्चिन्त तो हुआ किन्तु संकोच और जिज्ञासा से नहीं उबर पाया। रेलकर्मी मित्र मुझे इस दशा में देखकर, ठठाकर हँस पड़े। बोले-‘सोचना बन्द कीजिए और चलिए।’ हम दोनों गार्ड के डिब्बे के सामने पहुँचे। न उन्होंने कुछ कहा और न ही गार्ड ने कुछ पूछा। मित्र डिब्बे में चढ़ गए और मुझे आवाज लगाई। मैं ने आदेश का पालन किया। खुद को भला, समझदार और जिम्मेदार साबित करने के लिए मैंन गार्ड को अपना परिचय दिया। किन्तु यह क्या? मैं अपनी बात पूरी करता उससे पहले ही मुझे चकित करते हुए गार्ड हँसकर बोला -‘इसकी जरूरत नहीं। मैं आपको जानता हूँ। आपके घर आकर चाय पी चुका हूँ।’ मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया।

रेलकर्मी मित्र ने, डिब्बे के सामने वाले दरवाजे के पास वाली सीट पर मुझे बैठाया और खुद, डिब्बे के चैड़ाई वाले पिछले हिस्से में लगे, सनमायका के पटिये पर टिक गए। यह पटिया सामान रखने के लिए था।


गार्ड ने हम दोनों की ओर देखने की भी आवश्यकता अनुभव नहीं की। वह अपने काम में लगा हुआ था। दो रेलकर्मी प्लेटफार्म पर खड़े थे। एक के हाथ में एक रजिस्टर था और दूसरे के हाथ में कुछ कागज। गार्ड ने रजिस्टर में हस्ताक्षर किए। दूसरे से कागज लेकर उनकी पावती दी। इसी बीच एक और कर्मी आकर ढेर सारे खाकी लिफाफे और चमड़े के बेग (जैसे कि डाक घर में ‘पोस्ट बेग’ होते हैं) रख गया। एक आदमी आकर, बिना बोले, बिना कुछ पूछे- कहे, अखबार का एक बण्डल रख गया। गार्ड ने मेरे मित्र से कहा -‘एक डिब्बे की सील में कुछ गड़बड़ है। देख कर आता हूँ।’ मित्र ने कहा - ‘देख लो। मैं भी इसकी सूचना नागदा वाले को दे देता हूँ।’ गार्ड चला गया। कुछ ही क्षणों में मैंने गार्ड की सीटी की आवाज सुनी। गाड़ी चल दी। उधर, मित्र मोबाइल में व्यस्त हो गए। गाड़ी कोई तीस-पैंतीस मीटर सरक चुकी तब गार्ड चलती गाड़ी में चढ़ा। आते ही उसने अपना रजिस्टर खोला और उसमें कुछ लिखने लगा। नागदावाले से बात करते ही मित्र ने खाकी लिफाफों का बण्डल खोला। लिफाफे छाँट कर अलग-अलग ढेरियों में रखने लगे। मैंने पूछा-‘आप क्या करने लगे?’ बोले-‘रास्ते के स्टेशनों के लिए ऑफिस की डाक है। उसे स्टेशनवार जमा रहा हूँ। काम तो गार्ड सा’ब का है। उन्हें थोड़ी मदद हो जाएगी।’ लिफाफों के बाद उन्होंने चमड़े के बैग जमाए। इस बीच, प्लेटफार्म पार करते-करते गार्ड सा’ब लगातार हरी झण्डी दिखाते रहे। मुझे अजीब लग रहा था। दोनों में से कोई भी मेरा नोटिस नहीं ले रहा था। गार्ड का तो मैंने मान लिया कि वह व्यस्त था। किन्तु मित्र? वे भी व्यस्त हो गए?


मैं फुर्सत में था। डिब्बे को देखने लगा। मुश्किल से पॉंच गुणा आठ फीट लम्‍बा-चौडा। डिब्बे के बीच में गार्ड का, पुराने जमाने का, लोहे का बड़ा बक्सा। (बाद में गार्ड ने बताया कि यह बक्सा गार्ड की पूरी गृहस्थी होती है।) दोनों दरवाजों के पास बैठने के लिए पटिया ठुकी एक-एक सीट। पटिए पर फोम जरूर लगा हुआ किन्तु बैठने के लिहाज से अत्यधिक असुविधाजनक। एक कोने में, कम से कम जगह घेर कर बनाया गया ‘सुविधा गृह’। चैड़ाई का शेष भाग दो हिस्सों में बँटा हुआ। एक भाग, डिब्बे की पूरी ऊँचाई तक आलमारी की शकल में जिस पर ताला लगा हुआ और ताले पर चपड़ी की मोटी सील। मालूम हुआ, इसमें आपात स्थिति वाला साज-ओ-सामान है। दूसरा हिस्सा, डिब्बे की लगभग आधी उँचाई में जिस पर जालीदार दरवाजा लगा हुआ-डॉग बॉक्स। यह यात्रियों के कुत्ते, बकरी जैसे पालतू जानवरों के लिए। अधिकतम दो जानवर रखे जा सकते हैं। छत पर एक पंखा और एक बत्ती। बस।


‘डूँगर दूर ती रण्यावरा नजराँ आवे’ (अर्थात्, पहाड़ दूर से ही सुन्दर दिखाई देते हैं।) वाली मालवी कहावत मेरे सामने सच साबित होती जा रही थी। मैं सोचता था कि सजी-धजी वर्दी वाले गार्ड को खूब आराम मिलता होगा, उसे कुछ नहीं करना पड़ता होगा, प्रत्येक स्टेशन पर उसकी खातिरदारी होती होगी आदि-आदि। किन्तु यहाँ वैसा कुछ भी नहीं था। कब खाचरौद आ गया और कब मेरे मित्र उतर गए, पता ही नहीं चला। इसी तरह गाड़ी नागदा पहुँच गई। मुझे आशा थी कि यहाँ चाय मिलेगी। किन्तु गाड़ी रुकते ही गार्ड अन्तर्ध्‍यान हो गया। मेरा डिब्बा गाड़ी के अन्तिम छोर पर। वहाँ तक कोई चायवाला आया ही नहीं। इस बीच रेल्वे सुरक्षा बल का एक वर्दीधारी जवान हाथ में रजिस्टर लिए डिब्बे में घुसा और गार्ड के बक्से पर लिखा गार्ड का नाम अपने रजिस्टर में लिख कर, जैसे आया था वैसे ही चला गया। उसने भी मेरा नोटिस नहीं लिया।


अचानक ही गार्ड की सीटी की आवाज आई और गाड़ी सरकने लगी। गार्ड, हरी झण्डी हिलाते-हिलाते, चलती गाड़ी में चढ़ा। प्लेटफार्म गुजरने तक इसी क्रिया में लगा रहा और फौरन ही अपने रजिस्टर में झुक गया। मुझे उबासियाँ और थकान आने लगी थी। मैंने बातों का सिलसिला शुरु किया। मुझे आश्चर्य हुआ कि अपना काम करते हुए गार्ड मेरी ओर देखे बिना ही मेरी प्रत्येक बात का उत्तर दे रहा है। उन्हेल स्टेशन पर जो कर्मचारी गार्ड के हस्ताक्षर लेने आया उससे गार्ड ने कहा -‘पलसोड़ावाले को चार चाय के लिए बोल देना।’ गाड़ी चली। गार्ड ने हरी झण्डी हाथ में ले ली। गाड़ी के प्लेटफार्म पार करते-करते, प्लेटफार्म पर मौजूद तीन अलग-अलग लोगों ने गार्ड से पूछा-‘पलसोड़ा में चाय भिजवाऊँ?’ गार्ड ने सबको एक ही उत्तर दिया -‘बोल दिया है।’
पलसोड़ा में चाय आई। कप का आकार देखकर समझ पड़ा कि गार्ड ने दो व्यक्तियों के लिए चार चाय क्यों बोली थी। गार्ड के बक्से पर चाय रखकर चायवाला चला गया। गाड़ी चल दी। ‘ऑल राइट’ (याने प्लेटफार्म पार करने तक हरी झण्डी दिखाना) सम्प्रेषित कर गार्ड ने, डॉग बॉक्स के ऊपर रखे अपने बेग से बिस्किट का पेकेट निकाला। बक्से पर रखे पुराने अखबार पर बिस्किट फैला कर निमन्त्रण दिया -‘लीजिए! चाय पीजिए।’ पहले ही घूँट ने समझा दिया कि गार्ड ने नागदा में चाय क्यों नहीं पी/पिलाई थी और यह कि रेल्वे की चाय कितनी बेकार बनती है। गार्ड ने बताया कि पलसोड़ा में रेल्वे का टी स्टाल नहीं है। स्टेशन के बाहरवाली चाय की दुकान से आई है। मेरी चाय समाप्त होने के चार गुना अधिक समय के बाद गार्ड की चाय समाप्त हो पाई। वह लगातार व्यस्त था।


ढाई घण्टों में 97 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर गाड़ी उज्जैन पहुँची। गार्ड को भी उज्जैन ही उतरना था। उज्जैन आउटर पार करते ही गार्ड ने तेजी से लिखा पढ़ी पूरी की, रजिस्टर तथा अन्य सामान फटाफट बक्से में रखा। ताला लगाया। तब तक रेल प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। गार्ड ने कहा-‘शाम को इसी गाड़ी से रतलाम लौटूँगा। आप भी इसी से लौटने की कोशिश कीजिएगा। तब बातें करेंगे। मैंने न्यौता स्वीकार किया। यात्रा के लिए धन्यवाद दिया।


गाड़ी से उतरा तो अनुभव हुआ कि पीठ बुरी तरह से अकड़ी हुई है। उतरने के बाद कुछ क्षणों तक शरीर को ऊँचा-नीचा करता रहा। किन्तु ढाई घण्टों की अकड़न कुछ पलों में कैसे दूर होती?


उज्जैन स्टेशन से बाहर निकला तो ढेर सारी जानकारियाँ मुझे समृद्ध कर चुकी थीं। सबसे पहली तो यह कि गार्ड की नौकरी वैसी और उतनी आरामदायक बिलकुल ही नहीं है जैसी कि मैं सोचे बैठा था। उसे तो सर उठाने की भी फुर्सत नहीं मिलती। वह या तो लिखता रहता है या फिर हरी झण्डी हिलाता रहता है। गार्ड को प्रत्येक स्टेशन पर गाड़ी के पहुँचने का समय अपने रजिस्टर में और प्रत्येक स्टेशन के रजिस्टर में लिखना होता है। रास्ते के स्टेशनों की डाक सौंपनी पड़ती है। सामने से आ रही प्रत्येक रेल को और रास्ते के रेल्वे केबिनों को हरी झण्डी बता कर ‘आल राइट’ संकेत देना पड़ता है। गाड़ी यदि सामान्य से अधिक समय तक किसी स्टेशन के आउटर पर खड़ी हो जाती लगे तो ‘वाकी टाकी’ या फिर मोबाइल के जरिए स्टेशन पर बात कर सिग्नल माँगना पड़ता है। जिन स्टेशनों पर गाड़ी प्लेटफार्म पर रूकने के बजाय बीच वाली पटरियों पर रुके, वहाँ, दोनों ओर देख कर यह सुनिश्चित करना होता है कि कोई यात्री (विशेषतः स्त्रियाँ, बच्चे और वृद्ध) रह तो नहीं गया है। रास्ते के स्टेशनों पर पदस्थ रेल कर्मियों के टिफिन पहुँचाने की सौजन्य सेवा करनी पड़ती है। किसी स्टेशन पर किसी का भुगतान करने की जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। रास्ते के एक स्टेशन पर एक बच्चे के पिता ने गार्ड को कुछ रुपये और अपने बच्चे का फोटो थमाया और कहा-‘उज्जैन में यह बच्चा आएगा। उसे रुपये दे देना।’ गार्ड ने इस सहजता से यह काम करना कबूल किया मानो यह उसका रोज का काम हो। ऐसे ही कुछ काम प्रत्येक गार्ड प्रतिदिन करता है।


उज्जैन में मैं अपने मुकाम पर पहुँचा तो बड़ी देर तक वहाँ हो कर भी वहाँ नहीं हो सका। मेरी यात्रा निरापद, सुरक्षित और सुनिश्चत पूरी हो, इसके लिए इस गार्ड जैसे कितने लोग, चुपचाप लगे रहते हैं? न मैं उनसे कुछ कहता हूँ और न ही वे मुझसे कुछ पूछते हैं। वे सब न हों तो मेरी यात्राओं की नियती क्या हो? ये तमाम लोग कितनी असुविधाएँ झेल कर मेरी यात्रा सुविधाजनक बनाते हैं-इस पर मैंने कभी नहीं सोचा। यदि गार्ड के साथ यह यात्रा नहीं की होती तो शायद कभी नहीं सोचता।


मेरे गार्ड दोस्त! शुक्रिया। मुझे अपने साथ यात्रा करने की अनुमति देकर तुमने मुझे, खुद से आगे बढ़कर किसी और के बारे में सोचने की बुद्धि दी। मैं वादा करता हूँ कि मेरा सोचना अब केवल मुझ तक सीमित नहीं होगा और न ही यह सोचना रुकेगा। तुम्हारे कारण मैं अब शायद तनिक कम स्वार्थी हो सकूँ।


फिर से शुक्रिया दोस्त!

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

मैं और मेरी घबराहट


बारहवीं कक्षा में पढ़ रहे एक बच्चे ने कल मुझे व्याकुल कर दिया। परिचित परिवार की बच्ची कोई पाँच दिन पहले डेंगू का शिकार हो गई। मैं कुशल क्षेम पूछने गया। बच्ची का बड़ा भाई हमारी सेवा में उपस्थित था। वह मेरे कस्बे के सबसे मँहगे प्रथम पाँच स्कूलों में से एक का विद्यार्थी है। बच्ची लगभग पूर्ण स्वस्थ हो गई थी। इतनी कि मेरे प्रश्न - ‘कैसी तबीयत है?’ के उत्तर में उसने प्रति प्रश्न किया-‘मेरी तबीयत खराब हुई ही कब थी?’ हमारे लिए दीपावली की मिठाई लेकर भी वही आई थी। जाहिर है कि उसकी तबीयत को लेकर पूछताछ की सम्भावनाएँ शून्य हो चुकी थीं। मैं उसके भाई से बातें करने लगा।
हमारी बातें कुछ इस तरह हुईं-
‘कौन सी कक्षा में पढ़ रहे हो?’
‘ट्वेल्थ में।’
‘कौन से स्कूल में?’
उसने अपने स्कूल का नाम बताया।
मैंने कहा-‘यह तो रतलाम के सबसे मँहगे स्कूलों में से एक है!’
‘हाँ। है तो।’
‘स्कूल एक पाली में लगता है या दो पालियों में?’
‘पाली बोले तो?’
‘पाली याने शिट।’
‘सिंगल शिट में।’
‘तुम्हारी कक्षा में कितने बच्चे हैं?’
‘फॉर्टी फाइव।’
‘प्रयोगशालाएँ कैसी हैं?’
‘यू मीन लेब्स?’
‘हाँ।’
‘फण्टास्टिक। वेल इक्यूप्ड।’
‘स्कूल में लायब्रेरी है?’
‘हाँ।’
‘तुम दिन में कितनी देर वहाँ बैठते हो?’
‘एक सेकण्ड भी नहीं।’
‘लायब्रेरी का पीरीयड नहीं है क्या?’
‘नहीं।’
‘तुम अपनी ओर से लायब्रेरी नहीं जाते?’
‘नहीं जाता।’
‘टीचर कुछ कहते नहीं?’
‘टीचर क्या कहेंगे? लायब्रेरी कभी खुलती ही नहीं।’
‘टीचर भी लायब्रेरी नहीं जाते?’
‘नहीं जाते। कैसे जाएँ? मैंने बताया ना, लायब्रेरी खुलती ही नहीं।’
‘तुम और तुम्हारे साथी, अपनी कोर्स की किताबों के अलावा कौन-कौन सी किताबें पढ़ते हो?’
‘कोई नहीं।’
‘तुम भी नहीं पढ़ते?’
‘नहीं।’
‘क्यों?’
‘मुझे शौक नहीं?’
‘अखबार पढ़ते हो?’
‘नहीं।’
‘याने तुम्हें पता नहीं होता कि दुनिया में क्या हो रहा है।’
‘असेम्बली में डेली न्यूज और था थॉट बताया जाता है।’
‘टीवी पर खबरें देखते हो?’
‘नहीं। इट्स बोरिंग एण्ड यूजलेस। वेस्टेज ऑफ टाइम।’
सवाल-दर-सवाल मेरी जबान लड़खड़ाने लगी थी, आवाज धीमी और साँसें भारी होने लगी थी। मेरी हिम्मत जवाब दे गई। और कुछ पूछना या आगे बात कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हुआ।
मुझे याद आने लगा कि हमारे लिए प्रतिदिन लायब्रेरी जाना अनिवार्य होता था। जो इसमें चूक जाता, उसे सजा मिलती। हमारी बातों का सत्यापन करने के लिए ‘सर’ कभी-कभी हमारे बस्ते खँगाल कर लायब्रेरी से इश्यू कराई गई पुस्तक का भौतिक सत्यापन करते थे। हमारे लायब्रेरियन पाँचाल सर कभी स्कूल से बाहर मिल जाते तो लोगों को बताते कि कौन लड़का नियमित रूप से लायब्रेरी आता है और कौन लड़का सबसे ज्यादा पुस्तकें इश्यू कराता है।
बच्चे की बातों ने मेरी यादों में मानो ‘सम्पुट’ लगा दिया।
मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि मुझे किस बात से अधिक घबराहट हो रही है-बच्चे के जवाबों से या अपनी यादों से?
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लो! बन गया नक्सली

ऐसी घटना पूरे देश में कहीं न कहीं घटती ही रहती होगी। चौबीसों घण्टे। किन्तु बोलो! नक्सलवादी बन जाऊँ? वाली मेरी पोस्ट, चौबीस घण्टों से भी कम समय में, मेरे ही आसपास सच साबित हो जाएगी, यह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। इन्दौर प्रकाशित हो रहे, सान्ध्यकालीन दैनिक प्रभातकिरण के आज (21 अक्टूबर 2009, बुधवार) के अंक में, मुख पृष्ठ पर प्रकाशित समाचार की कतरन यहाँ प्रस्तुत है।







मात्र सोलह पंक्तियों का यह समाचार अविकल रूप से भी प्रस्तुत है-




बीमार बहन के लिए बना नक्सली


मंत्री को धमकाया



दमोह-मध्यप्रदेश के जल संसाधन, आवास और पर्यावरण मंत्री जयंत मलैया को टेलिफोन पर जान से मारने की धमकी देने वाला अपनी बीमार बहन की जान बचाने की नीयत से नक्सली बना।




दमोह (ग्रामीण) थाने के नरसिंहगढ़ गांव के शैलेष (16) ने अपनी बहन स्वाति की बीमारी से परेशान होकर मंत्री को धमकाया था। मलैया ने भी उसकी कहानी जानने के बाद उन्हें धमकाने की पुलिस कार्रवाई वापस लेकर उसे माफ कर दिया है। दरअसल शैलेष की बहन पिछले एक साल से बे्रन हेमरेज की शिकार है। शैलेष ने मलैया से मदद मांगी तो आश्वासन मिला, लेकिन सरकारी काम ‘सौ दिन चले, अढ़ाई कोस’ की चाल से चलता है, जिसके कारण कुछ परिणाम नहीं निकला। इन हालात से निराश और परेशान शैलेष ने मन्त्री को धमकाने का दुस्साहस जुटाया और पुलिस की गिरत में पहुंच गया।




हमारे नेता और हमारी व्यवस्था किस प्रकार लोगों की अनदेखी करती है और किस प्रकार लोगों को नक्सलवादी बनाती है, यह उसका बहुत ही छोटा नमूना है।




राहुल गाँधी! कहाँ हो युवराज? सुन रहे हो?



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बोलो! नक्सलवादी बन जाऊँ?


कोई बाँसठ/पैंसठ घण्टे पहले, 18 अक्टूबर की सवेरे कोई साढ़े नौ/दस बजे के आसपास ‘यह सब’ हुआ था। किन्तु मैं अब तक ‘इससे’ उबर नहीं पा रहा हूँ। लगता है, जो कुछ हो चुका है वह अभी भी मेरी आँखों के सामने हुआ जा रहा है, लगातार, बार-बार।


अनूठा दीपावली मिलन शीर्षक वाली पोस्ट लिखते समय भी यह सब मेरी आँखों के सामने हो रहा था। तब लगा था, यह ताजा-ताजा बात है जो श्मशान वैराग्य की तरह थोड़ी ही देर में अन्तर्ध्‍यान हो जाएगी। लेकिन अब तक तो यह मेरा वहम ही साबित हो रहा है।


दीपावली मिलन के लिए जब राजस्व कॉलोनी और पत्रकार कॉलोनी के लगभग तमाम पुरुष मेरी गली में प्रवेश कर रहे थे, उसी समय, उनके साथ ही साथ एक महिला, एक पुरुष और दो बच्चों का भिखारी परिवार भी आ पहुँचा था। पोस्ट की आठवीं क्लिप की शुरुआत में ही आपको, अपने बाँये कन्धे पर थैला टाँगे, नीले ब्लाउज और गहरे लाल रंग के छापों वाली साड़ी पहने एक महिला नजर आई होगी। पूरी बाँहों वाली, नीली शर्ट पहने एक व्यक्ति उसके पास खड़ा नजर आता है। उसके हाथ में प्लास्टिक की सफेद थैली है। दोनों कुछ देर खड़े रहते हैं। फिर वह औरत चल देती है और एक मकान के सामने कुछ देर रुक कर किसी से बात करती है, आगे बढ़ती है। नीली शर्ट वाला व्यक्ति उससे थोड़ा पीछे रह जाता है। उसी समय एक बच्चा पीछे से दौड़ता हुआ आकर अपने हाथ का कटोरा उसे थमा देता है। उसके पीछे, लाल रंग की फ्राक पहने एक बच्ची दिखाई देती है जिसके हाथ में प्लास्टिक की थैली में कुछ सामान दिखाई देता है। यही पह परिवार है।


दीपावली मिलन के लिए आए लोगों में से आधे लोग भी नहीं निकले थे कि ये चारों सदस्य अलग-अलग टेबलों के सामने आ कर खड़े हो गए और मिठाई माँगने लगे। उन्होंने इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं की कि अभी आधे लोगों का आना बाकी है। लोगों का रेला अपने अन्तिम छोर पर आकर जब ‘विरल’ हो गया तो इन चारों की आवाजें उभर कर मुहल्ले में सुनाई देने लगीं। जिस बच्चे ने अपने हाथ का कटोरा महिला को दिया था, वह बच्चा मेरी पत्नी के सामने खड़ा था। मैं नहीं जानता कि मेरी पत्नी उसकी अनदेखी करने की कोशिश कर रही थी या सब लोगों के निकल जाने की प्रतीक्षा। किन्तु वह उस लड़के के होने को निरस्त कर रही थी। लड़के ने इस बात को ताड़ा या नहीं किन्तु वह अपने होने को बराबर जता रहा था। मैं कभी उस लड़के को देख रहा था, कभी अपनी पत्नी को। लड़का माँग जरूर रहा था किन्तु उसके स्वरों में याचना बिलकुल नहीं थी। और उसकी आँखें? बाप रे! उसकी आँखों में अधिकार भाव नजर आ रहा था। मानो कहना चाह रहा हो कि टेबल पर रखी मिठाई वास्तव में है तो उसकी किन्तु उस पर अधिकार मेरी पत्नी ने जमा रखा है। वह मिठाई की माँग कुछ इस तरह दोहरा रहा था मानो अपने संस्कारवश ही वह माँग रहा है और यदि उसकी और अनदेखी/अनसुनी की गई तो वह अधिकारपूर्वक सारी मिठाई अपने कटोरे में डाल लेगा। उसकी माँग कुछ ऐसी थी कि तुम दे दो तो अच्छा है वर्ना मैं खुद ले लूँगा। उसकी आँखों में ऐसी विचित्र ‘ताब’ थी जिस शब्दों में उकेर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं हो रहा है और न ही उसे भूल पाना।


अचानक ही मुझे योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोण्टेक सिंह अहलूवालिया के श्रीमुख से टपकी, सात प्रतिशत विकास दर की घोषणा याद आने लगी। याद आने लगा कि देश की आबादी के अन्तिम तीस करोड़ लोगों की सम्पत्ति के बराबर की सम्पत्ति पर देश के पाँच औद्योगिक घरानों का कब्जा है। राज्य सरकारों को दी गई, राहुल गाँधी की सलाह याद अपने लगी कि नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकारों को लोगों से बात करनी चाहिए। अचानक ही मुझे लगा कि राहुल बात तो ठीक कह रहे हैं किन्तु इसका पूर्वार्ध्‍द जानबूझ, योजनाबद्ध रूप से छुपा रहे हैं। लोगों से बात करने से क्या होगा युवराज? मुद्दा तो यह है कि जब लोग कुछ कहें तो पहली ही बार में उनकी बात सुनी भी जाए और उस पर कार्रवाई भी की जाए। किन्तु लोग बोलते रहते हैं और सरकारें तथा सरकारी अमला अनसुनी करता रहता है। तब ‘मरता क्या न करता’ वाली कहावत हकीकत में बदलती है और लोग खुद अपना न्याय करना शुरु कर देते हैं। संत्रस्त, क्षुब्ध लोगों की इस प्रतिक्रिया पर नक्सलवाद का लेबल चस्पा कर दिया जाता है और प्रतिक्रिया को मूल क्रिया की तरह पेश किया जाने लगता है।


मेरी पत्नी से मिठाई माँगता वह लड़का मुझे यही सब याद दिला रहा था। पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा कि वह मिठाई नहीं माँग रहा। वह मेरी पत्नी के सामने विकल्प चयन प्रस्तुत कर रहा है - तुम ही तय कर लो कि तुम मिठाई दोगी या मैं ले लूँ? या फिर नक्सलवादी बन जाऊँ?


इस समय इक्कीस अक्टूबर की सुबह के साढे तीन बजने वाले हैं जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ। किन्तु अपने कम्प्यूटर के पर्दे पर मुझे मेरी इस पोस्ट के अक्षर नहीं, हाथ में कटोरा लिए उस लड़के की चीरती आँखें नजर आ रही हैं और की-बोर्ड की खटखट नहीं, उसकी आवाज सुनाई दे रही है - ‘बोलो! नक्सलवादी बन जाऊँ?’
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अनूठा दीपावली मिलन

दीपावली का दूसरा दिन मालव में ‘सुहाग पड़वा’ के रुप में मनाया जाता है। इस दिन, सुहागिनें, अपने रिश्ते और व्यवहार की वरिष्ठ महिलाओं का अभिवादन करने उनके घर जाती हैं, उनके चरण स्पर्श कर, उनके आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।


रतलाम एक व्यावसायिक कस्बा है। लगभग पौने तीन लाख की जनसंख्या वाले इस कस्बे में दीपावली के अगले दिन ‘दीपावली मिलन’ की सुदीर्घ परम्परा है। इस दिन मानो पूरा रतलाम सड़कों पर आ जाता है। हर कोई अपने नाते-रिश्तेदारों और मिलने वालों से ‘दीपावली मिलन’ हेतु उनके घर जाता है और वह भी सम्भव हो तो सपरिवार। ऐसा करने में ऐसा प्रायः ही होता है कि मैं जिसके यहाँ मिलने गया, वह मेरे घर मिलने चला आया। परिणामस्वरूप हम दोनों ही हाजरी एक दूसरे के घर तो लग गई किन्तु मुलाकात नहीं हो पाई।


किन्तु इस शहर की राजस्व कॉलोनी और पत्रकार कॉलोनी के निवासियों ने इस परम्परा को सामूहिकता का सुखद-विस्तार देकर इसे अनूठा बनाया हुआ है। लगभग पौने दो सौ मकानों वाली इन कॉलोनियों के लोग अपने-अपने घर से निकल कर सामूहिक रुप से ‘दीपावली-मिलन’ करते हैं। पहले मकान से निकला व्यक्ति, कॉलोनी के अन्तिम मकान तक पहुँचते-पहुँचते विशाल जन समुदाय में (आप इसे जुलूस भी कह सकते हैं) बदल जाता है। गलियों में इस जुलूस की प्रतीक्षा होती है। जिस गली में यह जन समूह आता है, उस गली के लोग इसका हिस्सा बन कर साथ हो लेते हैं। यह सब दर्शनीय होता है।


दोनों कॉलोनियों के लोग ‘होली मिलन’ भी इसी अनूठी सामूहिकता से मनाते हैं।
इस बार के इस दीपावली मिलन को यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ। प्रारम्भिक दृश्य मैंने और अन्तिम महत्वपूर्ण दृश्य मेरे छोटे बेटे तथागत ने शूट किए हैं। वीडियो को ब्लॉग पर लाने के लिए तकनीकी परामर्श श्री रवि रतलामी ने दिया जिसका पालन करते हुए मेरे बड़े बेटे वल्कल ने समूची शूटिंग को यू ट्यूब पर अपलोड कर, ब्लॉग पर लगाने के काबिल किया।


मेरी पहली ‘वीडियो पोस्ट’ को आशीर्वाद दीजिएगा। सम्भव हुआ तो होली मिलन भी प्रस्तुत करने की कोशिश करूँगा।




























आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

अभिनन्दन

बेशक नई सुबह का,

गुण गान हम करें।

उगते हुए सूरज का भी,

मान हम करें।

जो लड़ रहा था रात से,

प्रभात के लिए,

उस दीप का भी दोस्तों,

सम्मान हम करें।

दीप पर्व पर हार्दिक अभिनन्दन एवम् शुभ-कामनाएँ
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(प्रस्तुत पंक्तियाँ, मालवा के लोकप्रिय और सुपरिचित कवि-गीतकार श्री सुरेश श्रोत्रिय ‘प्रवासी’ की हैं।)

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

बच्चों की शिक्षा/ विवाह के लिए बीमा पॉलिसी


शिक्षा आज के सर्वाधिक मँहगी आवश्यकताओं में से एक है। परिवार में सन्तान के आते ही उसकी उच्च शिक्षा अथवा (कन्या जन्म के मामले में उसके) विवाह की चिन्ता सताने लगती है। ऐसे में, भारतीय जीवन बीमा निगम की ‘शिक्षा/विवाह बन्दोबस्ती पॉलिसी’ (तालिका 90) पिता/माता को इस चिन्ता से मुक्त करने में सहायक होती है। भारतीय जीवन बीमा निगम की यह पॉलिसी उन लोगों के लिये ‘आदर्श पॉलिसी’ है जो अपनी सन्तान की शिक्षा अथवा विवाह के लिये एक सुनिश्चित समय पर सुनिश्चित आर्थिक व्यवस्था करना चाहते हैं।

पॉलिसी अवधि के दौरान पॉलिसीधारक के जीवन पर बीमा धन के बराबर रिस्क कवरेज उपलब्ध रहता है और दुर्घटना-मृत्यु की स्थिति में यह कवरेज बीमा धन से दुगुना होता है । पॉलिसी अवधि पूरी होने पर पॉलिसीधारक को मूल बीमा धन की राशि तथा पॉलिसी अवधि की बोनस राशि (तथा अन्तिम-अतिरिक्त बोनस राशि, यदि कोई देय हो तो) का भुगतान किया जाता है ।

पॉलिसी अवधि के दौरान यदि दुर्भाग्यवश पॉलिसीधारक की मृत्यु हो जाए तो -


1. सामान्य मृत्यु की दशा में नामित व्यक्ति को तत्काल तो कोई भुगतान नहीं मिलेगा किन्तु पॉलिसी की अवधि पूरी होने के दिनांक को उपरोक्त वर्णित समस्त धन राशि (अर्थात् मूल बीमा धन की रकम तथा सम्पूर्ण पॉलिसी अवधि की बोनस राशि तथा अन्तिम-अतिरिक्त बोनस राशि (यदि कोई देय हो तो) का भुगतान नामित व्यक्ति को मिलेगा ।

2. दुर्घटना मृत्यु की दशा में मूल बीमा धन के बराबर राशि का भुगतान नामित व्यक्ति को तत्काल किया जाएगा तथा पॉलिसी अवधि पूरी होने पर उपरोक्त वर्णित समस्त रकम नामित व्यक्ति को पुनः भुगतान की जाएगी ।


अर्थात्, पॉलिसी अवधि पूरी होने से पहले, पॉलिसीधारक की अकस्मात मृत्यु के बाद उसकी सन्तान की शिक्षा/विवाह के लिये पॉलिसीधारक द्वारा निर्धारित की गई अवधि पर एक सुनिश्चित रकम उपलब्ध कराने की सुनिश्चित व्यवस्था यह पॉलिसी उपलब्ध कराती है ।

उदाहरण - 27 वर्षीय ‘श्रीमान् क’ आज एक बिटिया के बाप बने हैं। उनका अनुमान है कि उसके 23वें वर्ष में वे उसका विवाह कर देंगे। इस हेतु वे 23 वर्ष की अवधि के लिए 5 लाख रुपये बीमाधन की यह पॉलिसी लेते हैं। इसकी वार्षिक प्रीमीयम होगी रुपये 20,088/- अर्थात् वे 23 वर्षों तक, 20,088/- रुपये प्रति वर्ष चुकाएँगे। पॉलिसी अवधि पूरी होने पर उन्हें परिपक्वता राशि रुपये 13,37,000 (अनुमानित) का भुगतान मिलेगा। इस राशि में मूल बीमाधन की रकम रुपये 5 लाख, 23 वर्षों के बोनस की अनुमानित रकम रुपये 5,52,000 तथा अन्तिम-अतिरिक्त बोनस की अनुमानित रकम रुपये 2,85,000 शामिल है। (बोनस की गणना, भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा वर्ष 2007-08 के लिए घोषित बोनस दरों के आधार पर की गई है।)


‘श्रीमान् क’ को, किश्तों की रकम पर आय कर अधिनियम की धारा 80 सी के अन्तर्गत आय कर छूट मिलेगी तथा परिपक्वता पर मिलने वाली सम्पूर्ण राशि, आय कर अधिनियिम की धारा 10 (10) (डी) के अन्तर्गत आय कर से मुक्त होगी।


इस 23 वर्षों की अवधि के दौरान ‘श्रीमान् क’ के जीवन पर सामान्य मृत्यु की दशा में 5 लाख रुपयों का तथा दुर्घटना मृत्यु की दशा में 10 लाख रुपयों का रिस्क कवरेज उपलब्ध रहेगा। अर्थात् 23 वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले यदि, परिवार के दुर्भाग्य से ‘श्रीमान् क’ की मृत्यु हो गई तो -


(1) सामान्य मृत्यु होने पर, ‘श्रीमान् क’ के नामित व्यक्ति को तत्काल कोई भुगतान नहीं मिलेगा। चूँकि बीमित व्यक्ति (अर्थात् ‘श्रीमान् क’) की मृत्यु हो चुकी है सो प्रीमीयम जमा कराने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु शेष अवधि के लिए पॉलिसी पूरी तरह प्रभावी मानी जाएगी (अर्थात्, उसे बोनस की पात्रता मिलती रहेगी) और निर्धारित परिपक्वता दिनांक को, ‘श्रीमान् क’ के नामित व्यक्ति को उपरोल्लेखित राशि (अनुमानित 13 लाख 37 हजार रुपये) का भुगतान किया जाएगा।


(2) यदि ‘श्रीमान् क’ की मृत्यु किसी दुर्घटना के कारण हुई है तो मूल बीमा धन (रुपये 5 लाख) के बराबर की रकम का भुगतान, ‘श्रीमान् क’ के नामित व्यक्ति को तुरन्त कर दिया जाएगा और पॉलिसी की निर्धारित परिपक्वता दिनांक को, ‘श्रीमान् क’ के नामित व्यक्ति को उपरोल्लेखित राशि (अनुमानित 13 लाख 37 हजार रुपये) का भुगतान फिर से किया जाएगा।


विशेषता -


इस पॉलिसी का भुगतान या तो (परिपक्वता पर) स्वयम् पॉलिसीधारक को मिलेगा या फिर (पॉलिसीधारक की मृत्यु हो जाने की दशा में) उसके नामित व्यक्ति को मिलेगा।


सामान्य मृत्यु के बाद तत्काल भुगतान न मिलने से, बीमा से मिलने वाली रकम के अनुचति उपयोग (यथा मृत्यु-भोज जैसी उत्तर क्रियाओं में) होने की आशंका नहीं रह पाती है।


भुगतान सन्तान को न मिलने से भी, उसके अनुचित उपयोग की आशंक स्वतः नष्ट हो जाती है।


सन्तान के विवाह के लिए अवधि का अनुमान ही लगाया जा सकता है। यदि बीमा पुत्री का हो और पॉलिसी परिपक्वता से पहले ही उसका विवाह हो जाए तो, विवाहोपरान्त, पॉलिसी की परिपक्वता रकम पर पुत्री का ससुराल पक्ष अधिकार जता सकता है। किन्तु इस पॉलिसी में बीमा चूँकि पिता अथवा माता का होता है, सन्तान का नहीं, इसलिए, इस पॉलिसी की परिपक्वता राशि पर, पुत्री के ससुराल पक्ष द्वारा अधिकार जताने की आशंकाएँ भी स्वतः ही नष्ट हो जाती हैं।


उच्च शिक्षा में सहायक -
बच्चों की उच्च शिक्षा हेतु सुनिश्चित आर्थिक व्यवस्थाएँ इस पॉलिसी के माध्यम से की जा सकती हैं।


आयु के 17वें वर्ष में बच्चा, उच्च शिक्षा के दरवाजे पर खड़ा होता है। आज के चलन के अनुसार उसे अगले 6 वर्ष तो पढ़ना ही है - बी।ई. (अथवा ऐसे ही किसी स्नातक पाठ्यक्रम के लिए) 4 वर्ष और एम. बी. ए. के लिए 2 वर्ष। ऐसे मामलों में व्यक्ति को एक-एक लाख रुपये बीमा धन की 6 पॉलिसियाँ लेनी चाहिए (क्षमता तथा आवश्यकतानुसार अधिक बीमा धन की पॉलिसियाँ भी ली जा सकती हैं) जिनकी अवधि क्रमशः 17 वर्ष, 18 वर्ष, 19 वर्ष, 20 वर्ष, 21 वर्ष और 22 वर्ष होंगी।


17 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 71 हजार रुपये, 18 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 73 हजार रुपये, 19 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 78 हजार रुपये 20 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 78 हजार 500 रुपये, 21 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 83 हजार रुपये और 22 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 85 हजार 500 रुपये मिलेंगे। (अधिक बीमा धन की पॉलिसियाँ लेने पर यह रकम उसी अनुपात में अधिक मिलेगी।) अर्थात् बच्चे की शिक्षा के लिए न केवल प्रति वर्ष रकम उपलब्ध रहेगी अपितु प्रति वर्ष यह बढ़ती ही जाएगी।


जैसा कि पहले बताया जा चुका है, पॉलिसीधारक रहे या न रहे, रकम की यह उपलब्धता सुनिश्चित है।


उपरोक्तानुसार पॉलिसियाँ लेने पर पॉलिसीधारक को पहले 17 वर्षों तक 6 पॉलिसियों की प्रीमीयम चुकानी पड़ेगी। उसके बाद प्रति वर्ष, जैसे-जैसे एक-एक पॉलिसी पूरी होती जाएगी, प्रीमीयम की रकम कम होती जाएगी। अर्थात् 17 वर्षों के बाद मिलने वाली रकम में जहाँ प्रति वर्ष वृद्धि होगी वहीं प्रीमीयम भुगतान का वजन प्रति वर्ष कम होता जाएगा।


इसी के समानान्तर, 17वें वर्ष से, जैसे-जैसे पॉलिसी पूरी होती जाएगी, पॉलिसीधारक का रिस्क कवरेज भी प्रति वर्ष कम होता जाएगा।


पॉलिसी से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण बातें -


(1) 18 वर्ष से 60 वर्ष तक की आयु के व्यक्ति यह पॉलिसी ले सकते हैं।


(2) पॉलिसी की न्यूनतम अवधि 5 वर्ष तथा अधिकतम अवधि 25 वर्ष है। किन्तु परिपक्वता के समय पॉलिसीधारक की अधिकतम आयु 70 वर्ष तक होनी चाहिए। अर्थात् 60 वर्ष के व्यक्ति को यह पॉलिसी अधिकतम 10 वर्ष की अवधि के लिए मिल सकेगी।


(3) न्यूनतम बीमा धन रुपये 50,000। उसके बाद रुपये 5000 के गुणांक में। अधिकतम बीमाधन का निर्धारण व्यक्ति की आयु तथा आय के आधार पर होगा।


(4) दुर्घटना हित लाभ -‘निगम’ की समस्त पॉलिसियों सहित, अधिकतम 50 लाख रुपये।


(5) किश्त भुगतान विधि - वार्षिक, अर्द्ध वार्षिक, तिमाही, मासिक तथा वेतन बचत योजना।


(6) पॉलिसी पर ‘पॉलिसी ऋण’ लिया जा सकता है।


(7) पॉलिसी समनुदेशित की जा सकती है।


जिन परिवारों में बच्चे अभी एक वर्ष के नहीं हुए हैं उन्हें यह पॉलिसी लेने पर अवश्य ही विचार करना चाहिए।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

अवतार की प्रतीक्षा में

नागरिकता बोध से अनजान बने रहने और नागरिक उत्तरदायित्व से कुशलतापूर्वक बच निकलने का यह बड़ा ही रोचक किन्तु क्षोभजनक अनुभव था। मैं इसे भूल जाना चाहूँगा, यह जानते हुए भी बात कवल मेरे कस्बे की नहीं, लगभग पूरे देश और समूचे समाज की है।

राजस्थान पत्रिका समूह के अखबार ‘दैनिक पत्रिका’ को एक बार फिर रतलाम के लोगों तक पहुँचाने के अभियान के अन्तर्गत इसके स्वत्वाधिकारी श्री गुलाब कोठारी यहाँ के कुछ लोगों से रू-ब-रू हुए। इस प्रसंग को ‘सम्वाद सेतु’ नाम दिया गया था। उनका लक्ष्य तो सुनिश्चित ही था - ‘पत्रिका’ की मार्केटिंग करना। किन्तु इसकी भूमिकास्वरूप उन्होंने मौजूदा सामाजिक संकट को अत्यन्त प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वीकार किया कि वे ‘पत्रिका’ के लिए बाजार बनाने आए हैं किन्तु रतलाम के लोगों को साथ लिए बिना और रतलाम की बेहतरी के लिए प्रयत्न किए बिना यह सम्भव ही नहीं है। उन्होंने कहा - ‘रतलाम बेहतर बनेगा तो इमारा व्यवसाय तो अपने आप बेहतर होगा।’ उनके कुछ वाक्य तो मुझे ‘सूत्र’ की तरह लगे। जैसे - ‘बिना संकल्प जीवन नहीं चल सकता। उसके बिना तो यात्रा की शुरुआत ही नहीं हो सकती’.....‘परिवर्तन तो सुनिश्चित है। हम उसे रोक तो नहीं सकते किन्तु उसकी दिशा अवश्य बदल सकते हैं।’.... ‘मौजूदा स्थितियों के लिए हमारी भूमिका (हमारी चुप्पी) ही जिम्मेदार है, सरकार या व्यवस्था नहीं।’......‘इण्टरनेट पर बैठा बच्चा भला समाज की चिन्ता क्यों करेगा? इसीके चलते, दो-तीन पीढ़ियों के बाद समाज ही नहीं रहेगा।’.....‘जो जितना बुद्धिमान होगा वह उतनी ही आलोचना करेगा, उतना ही समाज को तोड़ने का काम करेगा।’.....‘लोककन्त्र में लोक की भागीदारी (‘लोगों के द्वारा’) अनिवार्य है किन्तु हम किसी भी अनुचित के विरुद्ध बोलते ही नहीं।’’ आदि आदि। मैंने अनुभव किया कि गुलाबजी ने अपनी बात में सर्वाधिक जोर ‘संकल्प और उत्तरदायित्व’ पर दिया, अधिकारों की बात बिलकुल ही नहीं की।
इसके बाद गुलाबजी ने उपस्थितों से, एक-एक कर, संक्षेप में अपनी बात कहने का आग्रह किया।

सभागार में हम कोई 55/60 लोग बैठे थे। मुझे लगा था कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति गुलाबजी के वक्तव्य को ही आधार बना कर अपनी बात कहेगा। किन्तु पहले ही वक्ता की बात से मेरी अपेक्षाओं का क्षरण शुरु हो गया। लोगों ने बोलना शुरु किया तो शुरु-शुरु में तो उपस्थिति पूरी थी। किन्तु धीरे-धीरे लोग कम होने लगे। कुल 25 लोग बोले। मेरा नम्बर 23वाँ था। किन्तु मैं हतप्रभ रह गया यह देख कर कि हममें से (मुझ सहित) कुल दो को छोड़कर शेष समस्त 23 लोगों ने या तो उपदेश दिया या परामर्श या फिर अपेक्षाएँ गिनवाईं। इन बोलने वालों में वर्तमान तथा भूतपूर्व निर्वाचित जन प्रतिनिधि, कांग्रेस और भाजपा के जिला पदाधिकारी, प्रशासकीय अधिकारी, विभिन्न सामाजिक संस्थाओं/संगठनों से जुड़े लोग शामिल थे। किन्तु सबके सबने अपने आप को गुलाबजी की ‘संकल्प और उत्तरदायित्व’ वाली भावना से सतर्कतापूर्वक अलग ही बनाए रखा। सबकी बातें सुनकर मुझे लगातार लगता रहा कि मुख्य आसन पर गुलाब कोठारी नहीं या तो प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह बैठे हैं या फिर सोनिया गाँधी या फिर कोई अवतार-पुरुष बैठा है जो हम रतलाम वालों की सारी समस्याएँ चुटकी में हल कर देगा और सारी अपेक्षाएँ अविलम्ब पूरी कर देगा। वह भी तब, जबकि हममें से एक भी अपना कोई योगदान देने को तैयार नहीं है, गुलाबजी के ‘भागीदारी के आह्वान’ को सुनने को तैयार नहीं हैं।

मुझे बड़ी निराशा हुई। एक तो गुलाबजी हैं जो रतलामवालों से मिलकर रतलाम को बेहतर बनाने की बात कर रहे हैं और हम रतलाम वाले हैं कि सब कुछ उन पर न केवल छोड़ रहे हैं बल्कि इस तरह बात कर रहे हैं कि हमारी अपेक्षाएँ पूरी करना, हमारी सलाह मानना गुलाबजी की नैतिक, सामाजिक और कानूनी जिम्मेदारी है जिसे यदि उन्होंने नहीं निभाया तो वे रतलामवालों के अपराधी हो जाएँगे।

मेरी बारी आने पर मैं अपना क्षोभ नहीं छुपा सका। मैंने गुलाबजी से कुछ यूँ कहा-‘‘मैं, रतलाम का नागरिक, ‘साक्षर’ हूँ (1981 की जनगणना में रतलाम को प्रदेश का सर्वाधिक साक्षर कस्बा घोषित किया गया था और इसी को रतलामवाले गर्वपूर्वक बार-बार उल्लेखित करते रहते हैं), कृपया मुझे ‘शिक्षित’ समझने की भूल कदापि न करें। किन्तु मुझमें इतनी समझ है कि नासमझ बन कर जीने में ही समझदारी है। मैं चाहता हूँ कि रतलाम में कानून का राज हो किन्तु मुझे छोड़कर सब पर हो। मैं चाहता हूँ कि नगर में व्याप्त अतिक्रमण हटे किन्तु मैंने जो अतिक्रमण कर रखा है, उस पर नजर न डाली जाए। मैं चाहता हूँ कि रतलाम का यातायात व्यवस्थित और सुचारु हो किन्तु मुझे यातायात नियमों का उल्लंघन करने की छूट मिलती रहे।’ मेरे, गिनती के इन वाक्यों ने गुलाबजी को सतर्क कर दिया। काफी देर से कुर्सी में लगभग पसरे हुए बैठे थे। मेरी बातें सुनकर, तनिक तन कर बैठ गए। मैंने कहा -‘ मैंने बड़े जतन से अपने कस्बे को श्रेष्ठ नर्क बनाया है। मैं अपने इस नर्क में परम सुखी हूँ। अब आप आए हैं और इसे स्वर्ग बनाना चाह रहे हैं। जरूर बनाइए किन्तु मेरे भरोसे बिलकुल मत रहिएगा। आप इसे स्वर्ग बना देंगे तो उसमें भी मैं जैसे-तैसे रह लूँगा और यदि आप असफल हुए तो अपने बनाए इस श्रेष्ठ नर्क से मुझे कोई शिकायत नहीं होगी।’ मुझे दिए गए तयशुदा समय में मैंने जब अपनी बात समाप्त की तो मैंने देखा कि गुलाबजी तालियाँ बजा रहे हैं। ऐसा उन्होंने केवल मेरे वक्तव्य पर ही किया। मुझे खुश होना चाहिए था किन्तु मैं खुश नहीं हो सका। मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि सभागार में मौजूद, रतलाम के तमाम लोग मेरी बातों का बुरा मानेंगे किन्तु मैं हतप्रभ रह गया जब लगभग प्रत्येक ने आकर मुझे बधाई दी।

किन्तु यह दशा केवल मेरे कस्बे की नहीं है। शायद पूरा देश इसी दशा और मनस्थिति में जी रहा है। कोई खुद कुछ नहीं करना चाहता और चाहता है कि सब कुछ हो जाए। हममें से कोई भी, कुछ भी खोना नहीं चाहता इसीलिए हममें से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है। हम भूल जाना चाहते हैं कि पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।

यह पोस्ट शुरु करते समय मैंने इसका शीर्षक रखा था - ‘अवतार की कोशिश करते लोग।’ किन्तु जल्दी ही समझ में आ गया कि ‘कोशिश’ तो अपने आप में ‘कर्म’ है और इसीसे तो हम सब बचना चाह रहे हैं! ‘कर्म’ के कारण तो हमें किसी से बुरा बनना पड़ता है, स्टैण्ड लेना पड़ता है, लोगों की नाराजी झेलनी पड़ती है, कीमत चुकानी पड़ती है और इसमें से किसी के लिए हम बिलकुल तैयार नहीं है। मेरे मित्र विजय वाते का शेर मुझे बार-बार याद आता है -

चाहते हैं सब कि बदले ये अँधेरों का निजाम
पर हमारे घर किसी बागी की पैदाइश न हो

कुछ भी न खोने की सवाधानी बरत कर जी रहे हम लोग वास्तव में अवतार की प्रतीक्षा कर रहे अकर्मण्य लोगों की भीड़ बने हुए है। हमें ईश्वर पर भरोसा है, ईश्वरीय अवतार पर भरोसा है। किन्तु ईश्वर भी तो उसी की मदद करता है जो खुद अपनी मदद करे! ईश्वर अवतार भी तभी लेता है जब पापों का घड़ा भर जाता है, संकट अपने चरम पर पहुँच जाता है।

गुलाबजी से कहिएगा कि उन्हें जो करना हो, निश्चिन्तता से करें। हम यही कर रहे हैं।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

काली स्पेस को घेरे हुए पेपर कार्नर्स

यह महज एक कविता के न मिलने का मामला नहीं है। यह उस ‘कुछ’ के न होने की खबर से उपजी उदासी है जिसके लिए पक्का भरोसा था कि ‘वह’ मेरे पुराने बक्से में पड़ी किसी पोटली में बँधी होगी। भरोसा था कि जब जरुरत होगी तो बक्से का ढक्कन उठा कर उसे ऐसे बाहर निकाल लूँगा जैसे आँखें मुँदी होने पर भी कौर मुँह में रख लेता हूँ। लेकिन जरुरत के मौके पर, ‘वह’ नहीं मिली तो भरोसा ऐसे टूटा जैसे लम्बी-ऊँची घास के, सीटियाँ बजाते सुनसान जंगल के बीच, रास्ते से भटका कोई पथिक, दूर से आ रही बंसी की धुन की पगडण्डी पर मंजिल की ओर बढ़ रहा हो और अचानक ही बंसी की आवाज बन्द हो जाए।


साठ के दशक वाले फोटो अलबम इस वक्त बेसाख्ता याद आने लगे हैं। ‘पेपर कार्नर्स’ की सहायता से, काली, ड्राइंग शीट के पन्नों पर फोटो लगाए जाते थे। फोटो रंगीन नहीं होते थे और एलबम का पन्ना तो काला ही होता था। सो, अलग-अलग ढंग से फोटो लगाकर एलबम को आकर्षक बनाया जाता था। किसी पन्ने पर दो तो किसी पर तीन फोटो लगाकर। कभी पास-पास तो कभी तीर्यक रेखा की तरह। फोटो खिंचवाना तब बड़ी और मँहगी घटना होती थी। एलबम सजाने में की गई मेहनत, एलबम को और अधिक कीमती बनाती थी। किसी को देखने के लिए एलबम देते समय खतरे की आशंका से उपजा अविश्वास बना रहता था-कहीं ऐसा न हो कि देखते-देखते एक-दो फोटो ही निकाल ले। और ऐसा प्रायः ही हो जाता। नजर चूकी कि माल यार के कब्जे में हो गया। उसके जाने के बाद, एलबम के किसी पन्ने पर चिपके पेपर कार्नर्स नजर आते, फोटो गायब। तब, पेपर कार्नर्स से घिरी वह ब्लेक स्पेस मानो पूरे एलबम पर छा जाती। उस एक फोटो के चुरा लिए जाने से उपजी खीझ, एलबम में लगे सारे फोटो से उपजे सुख को मात दे देती। वही पराजय भाव इस समय हावी है।


नौंवी कक्षा में होम वर्क मिला था - विभिन्न पेड़/पौधों की पत्तियों का चार्ट बनाने का। पत्तियाँ तोड़ कर, कुछ दिनों के लिए किसी किताब के पन्नों के बीच दबा कर रखनी थीं ताकि वे सूख भी जाएँ और उनका रंग भी जस का तस बना रहे। खेत की मेड़ से पत्तियाँ तोड़ कर घर आने पर देखा तो पत्तियों के बीच एक तितली लिपटी मिली। मर गई थी। चौदह बरस का किशोर मन पाप-बोध से काँप गया था। भगवान माफ नहीं करेंगे। जरूर सजा देंगे। तब पहली बार किसी तितली को छुआ था। वह अहसास-ए-नजाकत अभी भी अंगुलियों के पोरों पर लिपटा हुआ है। पता नहीं क्यों और कैसे, पत्तियों के साथ-साथ उस मरी तितली को भी किताब के पन्नों के बीच दबा दिया था। पत्तियों के सूखने पर, उन्हें ड्राइंग शीट पर चिपका कर, यथासम्भव अधिकाधिक सुन्दर और आकर्षक चार्ट बना कर कक्षा में प्रस्तुत कर दिया था। किन्तु तितली मेरे पास ही रह गई थी-पत्तियों की ही तरह सूखी और पंखों की शोख रंगत के साथ। किताब के पन्ने पलटकर उसे जब-तब, देख-देख कर खुश हो लिया करता था। दोस्तों को भी अपनी तितली बताता, गुरुर से और कुछ इस तरह कि उनमें से कोई उसे छू न ले। लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि एक दिन तितली किताब में नहीं मिली। पन्ने पलटे, बार-बार पलटे, किताब को खूब झटका-फटका। किन्तु तितली वहाँ नहीं थी। मानो, उसमें प्राण आ गए हों और उड़ गई। तब कंगाल और बेरंग होने के अहसास ने महीनों तक घेरे रखा। बिलकुल वही अहसास इस समय हो रहा है।


‘उसके’ होने के अहसास भर से न तो बेफिक्री में बढ़ोतरी हो रही थी और न ही समृद्धि में। अब तो वह किसी काम भी नहीं आ रही थी। किन्तु उसके न होने के अहसास ने मानो सब कुछ वीरान कर दिया। जब वह थी तो उसका कोई मोल नहीं था, पूछ-परख नहीं थी। अब वह नहीं है तो लग रहा है मानो कुबेर का खजाना लुट गया है। जगजीतसिंह की गायी गजल का शेर मानो इन्सानी शकल में सामने आ खड़ा हुआ है -


दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है।

मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।


दिन और तारीख तो याद नहीं, बस यह याद है कि युनूस भाई (अपने रेडियोवाणी वाले युनूस भाई) का सन्देश मिला था - ‘नाग पंचमी’ शीर्षकवाली एक कविता की तलाश है।’ यह कविता मेरे कोर्स में थी। कुछ पंक्तियाँ अभी भी याद हैं-


यह ढोल ढमाका ढम्मक ढम

यह नाग पंचमी छम्मक छम

उतरेंगे आज अखाड़े में

चन्दन चाचा के बाड़े में

यह पहलवान पटियाले का

वह पहलवान अम्बाले का


युनूस भाई के सन्देश ने मन बौरा दिया। मानो ढोल की ‘ढम्मक ढम’ के साथ कविता के बोल कानों में गूँजने लगे। मैंने फौरन ही अपने कई मित्रों को फोन खटखटाया। कुछ सहपाठी थे तो दो मुझसे आगे वाले। अपने दो ‘गुरुजी’ से भी अनुरोध किया। अपने से पीछे वाले दो मित्र इसी शहर में रहते हैं। उन्हें भी कहा। एक स्कूल के प्राचार्य मेरे मित्र हैं। उन्होंने भी भरोसा दिलाया। कुल मिला कर सत्रह लोगों से अनुरोध किया। कोई नौ-दस दिनों के बाद, एक-एक कर सन्देश आने लगे। किसी को भी सफलता नहीं मिली। सोलह लोगों की क्षमा-याचना मिलने पर मैंने भी युनूस भाई से क्षमा माँग ली। उन्होंने बड़प्पन बरतते हुए धन्यवाद दिया और कहा - ‘आपने कोशिश की। यही बहुत है।’


किन्तु एक मित्र की ओर से अब तक कोई खबर नहीं आई थी। मेरे अन्दर का बीमा एजेण्ट मुझे निराश होने से बचाए हुए था। किन्तु कल रात लगभग सवा नौ बजे उसने भी क्षमा माँग ली। नीमच जिले की मनासा तहसील के छोटे से गाँव ‘आँतरी माताजी’ निवासी मेरा यह मित्र राम प्रसाद शर्मा, मेरा सहपाठी है और अभी-अभी ही प्राचार्य के रूप में सेवा निवृत्त हुआ है। किसी अपराधी की तरह उसने कहा - ‘प्रिय मित्र! (हम तमाम मित्रों को वह नाम न लेकर, इसी तरह सम्बोधित करता है) मुझे सफलता नहीं मिली। ‘नागपंचमी’ के लिए मैंने अपने गाँव के और आसपास के तीन गाँवों के स्कूलों में सन्देश दिया कि जो भी यह पूरी कविता ला देगा उसे इक्यावन रुपयों का नगद पुरुस्कार दिया जाएगा। किन्तु मित्र! मेरा दुर्भाग्य है कि यह पुरुस्कार मेरी जेब में ही पड़ा रह गया। किसी को कविता याद नहीं है।’


राम प्रसाद के इसी सन्देश ने मुझे मानो झटका दे दिया। किसी कविता का याद रहना या न रहना, मिलना या न मिलना ऐसा तो नहीं कि जिन्दगी बेकार लगने लगे। किन्तु पता नहीं क्यों मुझे अकुलाहट हो रही है। मुझे अभी भी उस कविता की जरूरत नहीं है और न ही उसके बिना मेरा कोई काम रुका हुआ है। फिर भी मुझे, काली स्पेस को घेरे हुए, एलबम के पन्ने पर चिपके पेपर कार्नर्स बार-बार नजर आ रहे हैं। अपने सोने का खो जाना या/और चलते-रास्ते, किसी अनजान-पराये के सोने का मिलना, दोनों ही मालवा में अपशकुन माने जाते हैं। मेरा सोना खो गया है और मैं अपशकुन से दहशतजदा हूँ।


मुझे क्यों लग रहा है कि मरी हुई तितली अचानक ही उड़ गई है-मेरी जिन्दगी के सारे रंग अपने साथ लेकर?

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