नोटबन्दी बनाम सत्यनारायण कथा

दुनिया इस अद्भुुत, अकल्पनीय और अविश्वसनीय दृष्य को आँखें मसल-मसल कर देख रही होगी। ऐसी प्रचण्ड जन सद्भावना दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी नेता को मिली होगी। विरोधियों की बोलती बन्द है। उनकी वाजिब बात भी सुनने को कोई तैयार नहीं। दुनिया भर के राष्ट्र/शासन प्रमुख भारतीय प्रधान मन्त्री से ईर्ष्या कर रहे होंगे। भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति पाने को छटपटा रहे भारतीयों ने नोटबन्दी के समर्थन में जो भावना दर्शाई, वह दुनिया में बिरली ही होगी। लोग जान पर खेलकर जिस तरह इसके समर्थन में डटे हुए हैं वह सब अनूठा और अवर्णनीय ही है।

रतलाम जिले के ताल कस्बे के मिस्त्री बाबूलाल प्रजापत के इकलौते बेटे, चौबीस वर्षीय संजय ने मंगलवार, 15 नवम्बर को दम तोड़ दिया। पत्नी कमलाबाई दो बरस पहले साथ छोड़ गई। दो बेटियाँ अपने ससुराल में हैं। घर पर पिता-पुत्र ही एक-दूसरे के संगी-साथी। संजय ही अपने बूढ़े बाप को रोटी पका कर देता था। नोट बन्दी ने बाबूलाल को भूखों मरने की कगार पर खड़ा कर दिया। घर में तीन दिनों से आटा, शकर और चाय पत्ती भी नहीं थी। संजय तीन दिनों से पड़ौस से चाय-शकर माँग कर ला रहा था और बाबूलाल अपने नियोक्ता से आटा। अम्बे माता मन्दिर में हुए अन्नकूट में सोमवार शाम को दोनों बाप-बेटों ने भूख मिटाई। लेकिन मंगलवार से घर पूरी तरह रीत गया। राशन दुकान से राशन नहीं मिला और मीठा तेल भी नहीं बचा। बाबूलाल के पास चार हजार रुपये थे तो सही किन्तु सब बड़े नोटों की शकल में जिन्हें लेने को कोई तैयार नहीं। सोमवार सुबह संजय अपनी सायकिल बेचने निकला लेकिन किसी के पास खुल्ले रुपये नहीं थे। घर में कनस्तर में आटा नहीं और जेब में धेला नहीं। मंगलवार सुबह से दोनों बाप-बेटे के पेट में न तो अन्न का दाना पड़ा न ही चाय की बूँद। नोट बदलवाने के लिए बैंक के सामने लाइन में लगे। नम्बर आने ही वाला था कि मालूम हुआ - मूल आधार कार्ड माँगा जाएगा। आधार कार्ड लेने के लिए संजय घर गया। लेकिन लौट नहीं पाया। अचानक ही उसकी तबीयत बिगड़ी और उसकी साँसों ने साथ छोड़ दिया। डॉक्टर ने मौत की वजह हृदयाघात बताई और कहा कि संजय भूखा था। 

बाबूलाल के आँसू नहीं थम रहे। ‘अब कौन रोटी बना कर देगा?’ लेकिन इस सबके बावजूद उसे नोट बन्दी से कोई शिकायत नहीं है।

यह अकेला किस्सा नहीं है। नोट बन्दी लागू हुए आज सातवाँ दिन है। अखबार देश में कम से कम बीस मौतों की खबरें दे चुके हैं। लेकिन एक भी मौत के कारण कहीं से भी आक्रोश और उत्पात की खबर नहीं है। बैंकों और पोस्ट आफिसों के सामने लगी, ‘हनुमान की पूँछ’ से प्रतियोगिता कर रही कतारें, टीवी के पर्दों से बाहर, हमारे कमरों में उतरती लग रही हैं। अगली सुबह जल्दी नम्बर लग जाने की कोशिश में लोग रात नौ बजे से बैंकों के सामने, खुले आसमान के नीचे अगहन की ठण्ड झेल रहे हैं। धक्के खा रहे हैं, झिड़कियाँ झेल रहे हैं। अपना ही पैसा हासिल करने के लिए मानो भिखारी बन गए हैं। बैंक कर्मचारी खाना-पीना भूल गए हैं। सर उठाने की फुरसत नहीं मिल रही। कब सुबह होती है, कब शाम, जान ही नहीं पा रहे। महिला कर्मचारियों की गृहस्थियाँ अस्त-व्यस्त-त्रस्त हो गई हैं। कर्मचारियों और ग्राहकों को भले ही परस्पर शिकायत हो किन्तु सबके सब सरकार के फैसले के साथ हैं। किन्तु जैसे ही व्यवस्थाओं की बात आती है, कोई भी सन्तुष्ट, सुखी और प्रसन्न नहीं मिलता-ने देनेवाला, न लेनेवाला। जाहिर है, यह ‘बरसों से प्रतीक्षित फैसले का निकृष्ट, हताशाजनक क्रियान्वयन’ है। कुछ ऐसा मानो रात को सुल्तान को सनक आई और सुबह, आगा-पीछा सोचे बिना फैसला लागू कर दिया। उस पर तुर्रा यह कि जिस काले धन से मुक्ति पाने के लिए यह सब किया गया, उसके निर्मूल होने की सम्भावना तो दूर, आशंका भी नहीं। भ्रष्टाचार दूर होने की बात तो छठवें दिन ही चुटकुला बन गई जब कोल्हापुर और भोपाल में सरकारी कर्मचारी नए नोटों से रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़े गए। 

नेताओं ने सदैव की तरह निराश किया। विरोधियों को यह सरकार के खिलाफ मानो अमोघ अस्त्र मिल गया हो। उनके असंगत वक्तव्यों ने उन्हें हास्यास्पद बनाया तो सत्ता पक्ष के नेताओं के, वास्तविकताओं को नकारनेवाले, अमानवीय, क्रूर वक्तव्यों ने जुगुप्सा पैदा की। सामान्य से सहस्त्रगुना अधिक बुद्धियुक्त ये नेता विवेकमुक्त और विनयहीन हो, बैंकों के सामने कतार में हुई मौतों को राशन की दुकान के आगे हुई मौतों के समान इस तरह बता बैठे मानो राशन की दुकान के सामने मरना किसी भी सरकार के लिए अर्थहीन हो।

देश भक्ति में पगे दिहाड़ी मजूदरों, झुग्गी-झोंपड़ी निवासियों, मनरेगा और बीपीएल कार्डधारियों, निम्न मध्यमवर्गियों, मझौले व्यापारियों और कतारों में खड़े ऐसे ही तमाम लोगों को एक कसक साल रही है। जिन धन-पशुओं, कालाबाजारियों, जमाखोरों, दो नम्बरियों, भ्रष्ट अफसरों-नेताओं के कारण सरकार को यह कदम उठाना पड़ा उनमें से कोई भी कतार में कहीं नजर नहीं आया। वे सब अपनी अट्टालिकाओं और प्रासादों में भोेग-विलास में पूर्ववत मद-मस्त हैं। गोया, डाकुओं के दुर्दम्य अपराधों का दण्ड फकीरों को दे दिया गया, सरकार के प्रति जन सöावनाओं की अवमानना, उपहास कर दिया गया। 

समूचा परिदृष्य ‘हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता’ जैसी अनुभूति दे रहा है। ऐसे में मालवा की यह लोक परिहास कथा मानो गूँगे की बात कह रही हो।

उस बरस मौसम ने साथ दिया। बरसात समय पर हुई, अच्छी हुई। फसल भरपूर हुई। किसान की पत्नी ने पति से कहा - ‘इस साल रामजी राजी रहे। जितना माँगा, उससे ज्यादा दिया। दुःख में तो उन्हें याद करते ही हैं। इस बार सुख में याद कर लें। खेत पर सत्यनारायण-कथा करा लें।’ किसान मान गया। एक पण्डितजी से बात करके तिथि-तारीख, समय तय कर लिया। होनी कुछ ऐसी हुई कि ऐन वक्त पर पण्डितजी नहीं आ पाए। उन्होंने बेटे को भेज दिया। बेटा ठीक वक्त पर बखेत पर पहुँचा। लेकिन बेटा ‘प्रशिक्षु’ था। उसने किसान और उसकी पत्नी को बैठाया। गठजोड़ा बाँध, पूजन शुरु कर श्री सत्यनारायण कथा वाचन शुरु किया। कथा समाप्ति पर आरती कराई, प्रसाद बँटवाया। किसान दम्पति ने चरण स्पर्श कर यथा शक्ति दक्षिणा भेंट की। ब्राह्मण पुत्र ने पूजन में चढ़ाई सामग्री, फल समेटे, पोटली बाँधी, आशीर्वाद दिए और विदा ली। वह पाँच कदम ही चला होगा कि अचानक किसान पत्नी को कुछ याद आया। विचारमग्न मुद्रा में पति से बोली - ‘क्यों हो! अपनी कथा में वो लीलवाती-कलावती तो आई ही नहीं!’ किसान को भी याद आया - ‘हाँ। वो दोनों तो नहीं आई।’ पति-पत्नी की बात ब्राह्मण पुत्र ने भी सुनी। सुनते ही भान हुआ कि वह पूरे के पूरे दो अध्याय भूल गया! लेकिन भूल गया तो भूल गया। अब फिर से कथा बाँचने से तो रहा! और अपनी चूक मान लेना याने अपने पाण्डित्य को खुद ही अधूरा कबूल कर लेना! वह तनिक ठिठका। कुछ सोचा। पलट कर पूरे आत्म विश्वास से, दोनों को सम्बोधित कर बोला - ‘अरे मेरे भोले जजमानों! वो दोनों सेठ-साहूकारों की लुगाइयाँ। सेठानियाँ। वो हवेलियों में रहनेवाली! वो यहाँ जंगल में, तुम्हारे खेत में कैसे आ सकती हैं? वो तो हवेलियों में ही रहेंगी ना?’ किसान दम्पति को अपनी नासमझी समझ में आ गई। ब्राह्मण पुत्र से सहमति जताई। अपनी नासमझी पर खेद जताया, दोनों हाथ जोड़, ब्राह्मण पुत्र को, आदरपूर्वक विदा किया। 

बैंकों के सामने पंक्तिबद्ध खड़े, देश के गरीब-गुरबे, मध्यमवर्गीय, मानो किसान दम्पति की तरह अपने खेतों में सत्यनारायण भगवान की कथा आयोजन की तर्ज पर देश भक्ति के यज्ञ में आहुतियाँ दे स्वयम् को धन्यन अनुभव कर रहे हैं। ब्राह्मण-पुत्र आधी-अधूरी कथा बाँच कर पूरी दक्षिणा जेब में डाल, पूजन सामग्री और फलों की पोटलियाँ बाँध रहा है और आराम कर-कर थकान से चकनाचूर लीलावतियाँ-कलवतियाँ हवेलियों में पाँचों पकवान चख-चख कर हलकान हुई जा रही हैं।  
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, में दिनांक 17/11/2016 को प्रकाशित)

फुनगियों की छँटाई

पाँच सौ और एक हजार रुपयों के नोटों को एक झटके से चलन से बाहर कर देने के बाद देश में छाए अतिरेकी उत्साह के तुमुलनाद से भरे इस समय में एक सुनी-सुनाई, घिसी पिटी कहानी सुनिए।
मन्दिर की पवित्रता और स्वच्छता बनाए रखने के लिए तय किया किया कि भक्तगण जूते पहन कर मन्दिर प्रवेश न करें। सबने निर्णय को सामयिक, अपरिहार्य बताया और सराहा किन्तु प्रवेश पूर्व जूते उतारना बन्द नहीं किया। प्रबन्धन ने एक आदमी तैनात कर दिया - ‘किसी को भी जूते पहन कर अन्दर मत जाने देना। जूते बाहर ही उतरवा देना।’ अब भक्तगण जूते बाहर ही उतारने लगे। एक भक्त ने अतिरिक्त सावधानी बरती। वह घर से ही नंगे पैर आया। लेकिन प्रबन्धन द्वारा तैनात आदमी ने उसे मन्दिर प्रवेश से रोक दिया। कहा - ‘घर जाइए, जूते पहन कर आइए, मन्दिर के बाहर जूते उतारिए। फिर मन्दिर प्रवेश कीजिए। यहाँ का कायदा है कि बिना जूते उतारे आप मन्दिर प्रवेश नहीं कर सकते।’
हमारी, भारतीय व्यवस्था लगभग ऐसी ही है। काम करने के लिए प्रक्रिया बनाई जाती है किन्तु काम हो न हो,  प्रक्रिया पूरी करना ही मुख्य काम हो जाता है। उत्कृष्ट निर्णयों/नीतियों का निकृष्ट क्रियान्वयन हमारी व्यवस्था की विशेषता भी है और विशेषज्ञता भी। वह खुद को और खुद के महत्व को बनाए रखने के लिए और बढ़ाते रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। जन्नत की इसी हकीकत से भयग्रस्त होे, अपने सम्पूर्ण आशावाद के बावजूद मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ।
देश में कौन ऐसा है जो भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति नहीं चाहता? जिसके पास है, उसे नींद नहीं आती और जिसके पास नहीं है उसे वे लोग सोने नहीं दे रहे जिनके पास काला धन है। गोया, सारा देश भ्रष्टाचार और काले धन का रतजगा कर रहा है। अखण्ड कीर्तन जारी है। लेकिन, जैसा कि बार-बार कहा जाता है, हम एक भ्रष्ट समाज हैं। हममें से प्रत्येक चाहता है कि उसे सारे अवसर मिलते रहें और बाकी सब ईमानदार, राजा हरिश्चन्द्र बन जाएँ। लेकिन जब सबके सब ऐसा ही सोचते और करते हों तो जाहिर है, कोई भी ईमानदार और राजा हरिश्चन्द्र नहीं बन पाता। तब हम अपवादों को तलाश कर उनकी पूजा शुरु कर देते हैं और उसे प्रतीक बना देते हैं। तब प्रतीक की पूजा करते हुए दिखना ही हरिश्चन्द्र होना हो जाता है। तब हरिश्चन्द्र होने के बजाय हरिश्चन्द्र दिखना ही पर्याप्त हो जाता है। हमें यही अनुकूल और सुविधाजनक लगता है। सो, हम सब हरिश्चन्द्र दिखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। यह अलग बात है कि अपनी यह हकीकत हम ही से छुपी नहीं रह पाती। लेकिन खुद की खिल्ली उड़ाने का साहस तो हम में है नहीं! सो हम सामनेवाले के हरिश्चन्द्र के ढोंग की खिल्ली उड़ा कर खुश हो लेते हैं। जानते हैं कि इस तरह परोक्षतः हमने अपनी ही खिल्ली उड़ाने का महान् काम कर लिया है। मैं भी इसी हमाम में शरीक हूँ इसलिए, जैसा कि कह चुका हूँ, अपने सम्पूर्ण आशावाद के बाद भी प्रधान मन्त्री के इस चौंकानेवाले क्रान्तिकारी कदम से खुश नहीं हो पा रहा हूँ।
भ्रष्टाचार और काला धन एक सिक्के के दो पहलू तो हैं ही, वे दूसरे की जरूरत भी हैं और पूरक हैं। यह भी कह सकते हैं कि दोनों ही एक दूसरे के जनक भी हैं। दोनों ही एक दूसरे के बाप हैं। लेकिन यदि सयानों की बात मानें तो इनकी गंगोत्री आपके-हमारे नगरों-कस्बों, गली-मोहल्लों में नहीं, राजनीति, उद्योगों, कार्पोरेट घरानों, अफसरों के शिखरों में है। लेकिन यह धारणा भी मुझे सौ टका सही नहीं लगती। मेरी धारणा में तो हमारे मँहगे चुनाव, भ्रष्टाचार और काले धन सहित हमारी सारी समस्याओं की जड़ है। हमारा नेता चुनाव लड़ने के लिए धन जुटाता है। पार्टी कार्यकर्ता और आम आदमी से चुनाव खर्च की रकम नहीं मिल पाती। वह धनपतियों से मदद लेता है। चुनाव जीत गया तो वह क्रमशः अपना खर्चा निकालता है, फिर उपकारों का भुगतान करता है और अगले चुनावों के लिए रोकड़ा इकट्ठा करना शुरु कर देता है। यह ऐसा चक्र है जिसमें आखिरी बिन्दु नहीं होता है। हर बिन्दु पहला बिन्दु होता है और प्रत्येक बिन्दु, अपने पासवाले दूसरे बिन्दु का मददगार होता है। तब ये सब एक दूसरे की अनिवार्य आवश्यता बन जाते हैं। शायद इसी को क्रोनी केपिटलिजम कहा जाता होगा - ‘तुम मुझे जिताओ। मैं जीत कर तुम्हारे काम-धन्धे के लिए अनुकूल नीतियाँ बनाऊँगा, अनुकूल निर्णय लूँगा, अनुकूल स्थितियाँ-वातावरण बनाऊँगा। तुम खूब कमाना, मैं भी अपना घर भरूँगा, खूब ऐश करूँगा।’ 
इसीलिए मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ। चाहकर, कोशिश करने के बाद भी नहीं हो पा रहा। सारे देश को बिजली के करण्ट की तरह झकझोर देनेवाला यह निर्णय मुझे काले धन और भ्रष्टाचार की जड़ों पर नहीं, फुनगियों पर प्रहार लग रहा है। जड़ों में मट्ठा डालने के बजाय फुनगियों की छँटाई की जा रही है। हाँ, एक बात जरूर मुझे होती नजर आ रही है। देश को नकली नोटों से एक झटके में मुक्ति मिल जाएगी। किन्तु भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति मुझे नजर नहीं आ रही। इन दोनों रोगों की बढ़त पर एक अस्थायी स्थगन जरूर होगा। इससे अधिक कुछ होता मुझे नजर नहीं आ रहा। हम सब जानते (और मानते) हैं कि बड़े खिलाड़ियों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उन्हें कभी, कोई फर्क पड़ता भी नहीं। उनके यहाँ तो सब कुछ राजी-खुशी और लक्ष्मीजी सदा प्रसन्न वाली स्थिति स्थायी रूप से बनी रहती है। जो भी फर्क पड़ेगा, मध्यमवर्गीय गृहस्थों, मझौले कारोबारियों, प्रतिकूल परिस्थितियों में छुट-पुट उठापटक कर अपनी आर्थिक महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने में जुटे उत्साही कुटीर उद्यमियों जैसों को पड़ेगा। उन्हें  बैंकों, पोस्ट ऑफिसों में कतारों में खड़े रह कर अपना मूल्यवान समय नष्ट करना पड़ेगा। पूरी योजना के क्रियान्वयन की विस्तृत जानकारी भले ही प्रधानमन्त्रीजी ने खुद दी हो किन्तु हमारे व्यवस्था तन्त्र की विशेषज्ञता के स्थापित आचरण से मुझे भय है कि सरकार ऐसे लोगों की सद्भावनाएँ न खो दे।
मैं आर्थिक विषयों का जानकार बिलकुल ही नहीं हूँ और एक औसत भारतीय की तरह देश को काले धन और भ्रष्टाचार से मुक्त देखना चाहता हूँ। मुझे प्रधानमन्त्रीजी की नियत पर तनिक भी सन्देह नहीं है। काला धन उनका प्रिय विषय रहा है। इस मुद्दे पर मैं उन्हें सर्वाधिक सफल प्रधान मन्त्री के रूप में देखना चाहता हूँ। किन्तु यथेष्ठ आश्वस्त नहीं हो पा रहा। क्योंकि प्रधानमन्त्रीजी का यह फैसला मुझे न तो क्रान्तिकारी लग रहा है न यथेष्ठ परिणामदायी। मँहगे चुनाव इस देश की सबसे बड़ी समस्या हैं। केवल समस्या नहीं, देश की तमाम समस्याओं की खदान हैं। चुनाव सुधारों के बिना हम कभी, कुछ नहीं कर पाएँगे। किन्तु चुनाव सुधारों के लिए देश राजनीतिक दलों और राजनेताओं पर निर्भर है जिनमें हमारे प्रधानमन्त्रीजी भी शरीक हैं। अपने पाँवों पर कुल्हाड़ी मारने की आत्म-घाती मूर्खता ये लोग भला क्यों करेंगे?
ऐसे में कामना ही की जा सकती है कि प्रधानमन्त्रीजी को अपने मनमाफिक परिणाम मिलें। ऐसा न हो तो निराशा कम से कम मिले। लोगों को इसके यथेष्ठ लाभ मिलें। बड़े नोटों के बदलाव के लिए कुछ ‘किन्तु-परन्तु’ के साथ 31 मार्च 2017 तक का समय लोगों को दिया गया है। एक औसत मध्यमवर्गीय आदमी के लिए यह पर्याप्त समय है। ईश्वर से प्रार्थना करें कि हमारी व्यवस्था अपने अहम् और महत्व-भाव से मुक्त होकर लोगों की मदद करे, उनकी सद्भावनाएँ अर्जित करे। नंगे पाँव आए भक्त को मन्दिर प्रवेश करने दे। सब कुछ वैसा ही हो जैसा बताया, कहा जा रहा है और जैसी लोगों ने अपेक्षा कर ली है।
लेकिन भूलें नहीं कि यह जड़ों पर प्रहार नहीं है, केवल फुनगियों की छँटाई है। यह याद रखेंगे तो निराश होने से बच जाएँगे।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल दिनांक 10 नवम्बर 2016

दीपावली पर तकनीक का दिशा-बोध

इस बरस की दीपावली अपने किसम की अलग ही दीपावली रही। तनिक अनूठी। तकनीक ने इसे अतिरिक्त रंगीन तो बनाया ही, रोचक भी बना दिया। कभी लगा, त्यौहार पर तकनीक भारी पड़ गई है तो कभी लगा, तकनीक ने त्यौहार को विस्तार, प्रगाढ़ता दे दी है। कभी झुंझलाहट दी तो कभी आसमान फाड़ ठहाकों की सौगात दे दी।
दादा से मिले संस्कारों और अपने धन्धे का शिष्टाचार निभाने के नाम पर मैं हर बरस दीपावली पर लगभग आठ सौ अभिनन्दन-पत्र भेजता था। गए दो बरसों से नहीं भेज रहा। कृपालुओं के जवाब आना तो दूर, प्राप्ति सूचना भी नहीं। दो ने तो तनिक झिझक से कह भी दिया - ‘मत भेजिए। अच्छा तो लगता है लेकिन अब  जवाब देते नहीं बनता। आदत ही नहीं रही।’ इन दो की बात को मैंने ‘जहान की बात’ मान ली। हालत यह रही कि चर्चा करना तो दूर, किसी ने न तो बुरा माना और न ही शिकायत की। सब कुछ सहज, सामान्य बना रहा। यह मुझे अब भी अत्यधिक असामान्य लग रहा है और मैं असहज हूँ।
किन्तु इस बरस तो लगा मानो सारी दुनिया को मेरी फिकर हो गई है। वाट्स एप ने दुनिया बदल दी। मेरी तबीयत खुश हो गई। चलो! लोगों में सम्वाद/सम्प्रेषण शुरु तो हुआ! लेकिन यह खुशी ज्यादा देर नहीं बनी रही। जल्दी ही दूर हो गई। एक ही सन्देश कई-कई महरबानों से मिला तो जन्नत की हकीकत उघड़ने लगी। लेकिन बात खुशी के दूर होने तक ही सीमित नहीं रही। यह तो अचरज, निराशा, झुंझलाहट में बदलने लगी। सब कुछ ‘कॉपी-पेस्ट’ का कमाल था। इस अनुभूति ने मुझे उदास कर दिया। आगे जो कुछ हुआ उसने तो मुझे उलझन में डाल दिया। 
अनेक कृपालुओं ने मुझे अपने जत्थों (ग्रुपों) में शामिल कर रखा है। इन जत्थों में जितनी अच्छाई है कम से कम उतनी ही खराबी भी है। आपको वह सब देखना, झेलना पड़ता है जो आपको बिलकुल नहीं सुहाता। मैं छटपटा कर बाहर होता हूँ तो कृपालु साधिकार वापस शामिल कर लेते हैं - ’वाह! आप कैसे जा सकते हैं?’ ऐसे ही किसी एक जत्थे में शामिल कृपालु ने मेरा धन्यवाद सन्देश अपने ऐसे जत्थे में अग्रेषित (फाारवर्ड) कर दिया जिसमें मैं नहीं हूँ। अगले ही पल एक के बाद एक तीन सन्देश मिले। भाषा सबकी अलग-अलग थी लेकिन मतलब एक ही था - ‘आपसे मेरा कोई परिचय ही नहीं। मैं तो आपको जानता ही नहीं। मैंने आपको बधाई सन्देश भेजा ही नहीं। धन्यवाद किस बात का?’ इन तीन में एक परिहासप्रिय निकला। लिखा - ‘आपने बिना बात के धन्यवाद दिया। अब तो अभिनन्दन और मंगल कामनाएँ बनती ही बनती हैं। स्वीकार कीजिए। लेकिन अब धन्यवाद मत दीजिएगा। वह तो आप पहले ही दे चुके।’
एक स्थिति ने मुझे अपनी ही नजरों में शर्मिन्दा किया। मुझे सन्देश भेजनेवाले तमाम कृपालुओं को मैं पहचान ही नहीं पाय। कुछ ही को पहचान पाया। मुझे उनके अभिनन्दन सन्देश भी बड़ी संख्या में मिले जो मेरी फोन बुक में नहीं है। प्रत्युत्तर में धन्यवाद देते हुए शुभ-कामनाओं सहित उनसे क्षमा-याचना की - ‘कृपया अन्यथा न लें। मैं आपको पहचान नहीं पाया।’ अनेक में से एक ने बहुत बढ़िया बात कह कर ढाढस बँधाया और हौसला बढ़ाया - ‘कोई बात नहीं सरजी! शुभ-कामनाएँ  जान-पहचान की मोहताज नहीं होतीं। चलिए! आज से पहचान कर लेते हैं।’ 
दादा से मिले संस्कारों के अधीन ही मैं प्रत्येक सन्देश का उत्तर देने की कोशिश तो करता ही हूँ, यह कोशिश भी करता हूँ कि प्रत्येक सन्देश सामनेवाले को केवल अपने लिए लगे। लेकिन शुभ-कामना सन्देशों की संख्या ने जहाँ एक ओर अभिभूत किया वहीं दूसरी ओर पसीना भी ला दिया। कितनी भी कंजूसी कर लूँ, सन्देशों की संख्या चार अंकों से कम नहीं कर पा रहा हूँ। इतने सारे महरबानों को व्यक्तिगत रूप से सन्देश देना! मेरे हाथ-पैर फूल गए। शुरु-शुरु में कुछ कोशिश की लेकिन जल्दी ही थक गया और ऊब आ गई। पहले तो सोचा, किसी को जवाब नहीं दिया जाए। लेकिन अगले ही क्षण संस्कारों ने धिक्कारना शुरु कर दिया। ‘कॉपी-पेस्ट’ का विचार मन में आया। बड़ा सहारा मिला और उत्साहपूर्वक जुट गया। लेकिन भूल गया कि नकल में भी अकल लगानी चाहिए और थोक में ऐसा काम करते समय तनिक सावधानी बरतनी चाहिए। जोश में होश नहीं खोना चाहिए। प्रत्युत्तर-यज्ञ में समिधाएँ देने का क्रम चल ही रहा था कि एक का सन्देश आया - ‘दादा! यह क्या? मैंने तो आपसे अपनी पॉलिसी की प्रीमीयम जमा कराने के बारे में पूछा था।’ मुझे ,खुद पर झेंप आई। मानो सन्निपात से सामान्यता में लौटा। फिर सावधानी बरती। जिन्हें पहचान पाया, उन्हें नामजद प्रत्युत्तर दिया। 
लेकिन इस सबके बीच मुझे जलजजी का सुनाया किस्सा याद आ गया। यह उन्होंने एक समारोह में सुनाया था। किसी समारोह में वे, मुख्य अतिथि थे। मंच पर, अपने पास बैठे सज्जन से जलजजी ने कहा - ‘आपकी शुभ-कामनाओं के लिए धन्यवाद। आपने याद किया। अच्छा लगा।’ सज्जन ने अत्यन्त शालीनता और विनम्रतापूर्वक, किन्तु कुछ कसमसाते हुए जलजजी के प्रति आदर व्यक्त किया। वे खुद को ज्यादा देर तक रोक नहीं आए और पूछा - ‘सर! बाय द वे, बताएँगे कि मैंने आपको किस बात की शुभ-कामनाएँ दी थीं?’ मुख्य अतिथि की शालीनता और गरिमा भी जलजी को हँसने से रोक नहीं पाई। हँसते-हँसते ही बोले - ‘आपने मुझे मेरे जन्म दिन की शुभ-कामनाओं का एसएमएस किया था।’ तनिक झेंपते हुए सज्जन ने ससंकोच स्वीकार किया - ‘सर! उस तारीख को एक से अधिक मिलनेवालों की जन्म तारीख रही होगी और मैंने एक ही सन्देश  सबको भेजा होगा। मुझे सच में याद नहीं कि मैंने आपको सन्देश भेजा था।’
यन्त्र और तकनीक की यदि अपनी विशेषताएँ हैं तो दुर्गुण भी कम नहीं। विशेषताएँ आकर्षित तो करती हैं किन्तु पता नहीं चल पाता कि हम उनके दुर्गुणों में कब बँध गए। गाँधीजी ने किसी को कोई काम बताया। वह शायद पहले से ही थका हुआ था। तनिक झुंझलाकर बोला - ‘बापू! मैं कोई मशीन थोड़े ही हूँ?’ गाँधीजी ने हँस कर उत्तर दिया - ‘सच कह रहे हो तुम। आदमी मशीन कैसे हो सकता है? आदमी तो मशीन बनाता है?’ क्या विचित्र स्थिति है कि मनुष्य ने मशीन बनाई और खुद ही उसका दास हो गया! तकनीक तो एक कदम और आगे बढ़ गई। आज हम मशीन के दास और तकनीक के व्यसनी होते नजर आ रहे हैं। 
मनुष्य को ईश्वर की श्रेष्ठ कृति कहा जाता है। किन्तु ईश्वर अपनी कृति के अधीन नहीं है। कृति ही अपने निर्माता के अधीन हैं। लेकिन हम ईश्वर के इस सन्देश को या तो समझ नहीं पा रहे या समझना ही नहीं  चाह रहे। हमने अपने लिए मशीन बनाई, अपने लिए तकनीक विकसित की और खुद को इनके हाथों में सौंप दिया। इण्टरनेट के जरिए हम सारी दुनिया से जुड़े हुए हैं लेकिन दुनिया की बात दूर रही, हम तो अपने-अपने घर में ही अकेले हो गए हैं। हो क्या गए हैं, हमने अपने आप को अकेला कर लिया है। हमने अपना-अपना एकान्त बुन लिया है। हमारे सामने रहनेवाले से हम रोज वाट्स एप पर ‘गुड मार्निंग’ करते हैं लेकिन सामने मिलने पर मुस्कुराकर भी नहीं देखते। मजे की बात यह कि अपनी इस दशा के लिए हम अपने सिवाय बाकी सब को जिम्मेदार मानते हैं। 
सो, इस बरस की दीपावली मुझे यही अतिरिक्त रंगीनी, अतिरिक्त उजास दे गई -  यन्त्र और तकनीक मेरे लिए है। मैं इनके लिए नहीं। 
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 03 नवम्बर 2016 को प्रकाशित।)

अपने-अपने रुह अफजा

देवेन्द्र दीपावली मिलने आया तो शिकायत की - ‘आपका ब्लॉग ध्यान ये देख रहा हूँ। महीनों बीत गए, आपने मेरावाला लेख नहीं छापा।’ मैं तो भूल ही गया था। देवेन्द्र ने याद दिलाया तो याद आया। मैंने सस्मित कहा-‘लेकिन उसमें तो तुम्हारा मजाक उड़ाया गया है!’ देवेन्द्र ने संजीदा होकर जवाब दिया-‘अव्वल तो मेरा मजाक नहीं है। लेकिन अगर है भी तो बात आपने सही कही थी। उस बात ने मेरी नजर और नजरिया बदल दिया। उसे जरूर छापिए। और भी लोगों पर असर होगा। जरूर होगा।’

देवेन्द्र मेरा हमपेशा है। बीमा एजेण्ट। जन्मना ब्राह्मण तो है ही ‘ब्राह्मण-गर्व’ और ‘ब्राह्मणत्व’ के श्रेष्ठता-बोध का स्वामी भी है। ब्राह्मण संघ की गतिविधियों में अतिरिक्त उत्साह और ऊर्जा से, बढ़-चढ़कर भाग लेता है। ‘दुराग्रह’ की सीमा तक हिन्दुत्व का समर्थक होने के बावजूद, सम्भवतः स्कूल-कॉलेज के दिनों के  ‘शब्द-सम्पर्क’ का प्रभाव अब तक बना होने के कारण ‘कट्टर’ या ‘अन्ध’ नहीं है। कभी-कभार मेरे घर चला आता है तो कभी फोन कर मुझे बुला लेता है। कहता है-‘आपसे मिलना, बतियाना  अच्छा लगता है।’

अभी-अभी उसके साथ जोरदार और मजेदार वाकया हो गया। लेकिन वह वाकया सुनने से पहले यह वाकया जानना-सुनना जरूरी है।

मुझसे मिलने के लिए बाहर से आए दो कृपालुओं को मुझ तक पहुँचाने के लिए वह, वैशाख की चिलचिलाती गर्मी की एक दोपहर मेरे घर आया था। उन्हें बैठाकर, ठण्डा पानी पेश कर पूछा - ‘क्या लेंगे? चाय या शरबत?’ जवाब आया - ‘इस गर्मी में चाय तो रहने ही दें। शरबत पिला दीजिए।’ पर्दे के पीछे खड़ी मेरी उत्तमार्द्ध ने यह सम्वाद सुन ही लिया था। सो, आवाज लगाने या कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी। थोड़ी ही देर में, शरबत के चार गिलास वाली ट्रे थमा गई। ग्लास देखकर देवेन्द्र ने मुँह बिगाड़ा। मानो मुँह में कड़वाहट घुल गई हो कुछ इस तरह बोला - ‘ये तो रुह अफजा है!’ मैंने कहा - ’हाँ। यह रुुह अफजा ही है।’ क्षुब्ध स्वरों में, मानो हम सबको हड़का रहा हो कुछ इस तरह  देवेन्द्र बोला - ‘मैं रुुह अफजा नहीं पीता।’ कारण पूछने पर बोला - ‘रुह अफजा बनाने वाला अपनी कम्पनी में हिन्दुओं को नौकरी पर नहीं रखता। इसलिए।’ बिना किसी बहस-मुबाहसा, देवेन्द्र के लिए नींबू का शरबत आ गया।   

न तो मुझे पता था और न ही खुद देवेन्द्र को कि दो ही महीनों बाद, उसका यह तर्क उसकी बोलती बन्द कर देगा। हुआ यूँ कि सावन के महीने में ब्राह्मण संघ ने एक अकादमिक आयोजन का जिम्मा देवेन्द्र को दे दिया। उसने भी खुशी-खुशी, आगे बढ़कर जिम्मा ले लिया।  आयोजन चूँकि अकादमिक था सो उसने व्याख्यान के लिए, बड़े ही सहज भाव से मजहर बक्षीजी को न्यौता दे दिया। उद्भट विद्वान् बक्षीजी मेरे कस्बे के कुशल और प्रभावी वक्ता हैं। अपनी विद्वत्ता और वक्तृत्व के कारण दूर-दूर तक पहचाने और बुलाए जाते हैं। कभी-कभी तो उनके कारण मेरा कस्बा पहचाना जाता है। बक्षीजी ने बड़ी ही सहजता से न्यौता स्वीकार कर लिया। देवेन्द्र ने यह खबर देते हुए मुझे भी आयोजन का निमन्त्रण दिया। मेरा जाना तय था किन्तु ‘मेरे मन कुछ और है, कर्ता के मन कछु और’ वाली उक्ति चरितार्थ हो गई। मैं नहीं जा पाया।

आयोजन की जानकारी मुझे अखबारों से मिली। उम्मीद से अधिक उपस्थिति थी। आयोजकों को तो आनन्द आया ही, बक्षीजी भी परम प्रसन्न हुए। याने, अयोजन उम्मीद से अधिक कामयाब रहा। तीन-चार दिनों बाद देवेन्द्र से मिलना हुआ। वह बहुत खुश था। आशा से अधिक सफल आयोजन के लिए ब्राह्मण समाज ने उसे अतिरिक्त धन्यवाद दिया था। उसका रोम-रोम पुलकित-प्रसन्न था। उसने विस्तार से आयोजन की जानकारी दी। किन्तु ब्यौरों का समापान करते-करते तनिक खिन्न हो गया - ‘कैसे-कैसे लोग हैं सरजी! कुछ लोग केवल इसलिए नहीं आए कि हिन्दू आयोजन में मुसलमान वक्ता क्यों बुला लिया। यह भी कोई बात हुई सरजी? भला ज्ञान और विद्वत्ता का जाति-धर्म से क्या लेना-देना?’ उसकी बात सौ टका ठीक थी। मैं कुछ कहने ही वाला था कि अचानक ही, बिजली की तरह मेरे मानस में ‘रूह अफजा’ कौंध गया। मेरी हँसी चल गई। देवेन्द्र को अच्छा नहीं लगा। असहज हो बोला - ‘क्यों? मैंने तो कायदे की बात कही थी। आप हँसे क्यों? ऐसा क्या कह दिया मैंने?’ अब मैं खुल कर हँसा। बोला - ‘क्या गलत किया उन्होंने? जिस आधार पर तुम रुह अफजा को खारिज करते हो उसी आधार पर उन्होंने बक्षीजी को खारिज किया। यदि तुम अपनी जगह सही हो तो वे भी अपनी जगह सही हैं और यदि वे गलत हैं तो तुम भी गलत हो। यदि ज्ञान और विद्वत्ता की कोई जाति-धर्म नहीं होता है तो शरबत की भी कोई जाति-धर्म नहीं होता। वह भी अपनी मिठास और शीतलता से ही जाना-पहचाना जाता है। तुम भी तो उसे धर्म के आधार पर अस्वीकार किए बैठे हो!’

देवेन्द्र को इस उत्तर की कल्पना नहीं थी। होती भी कैसे? खुद मुझे ही कहाँ थी? दो ही महीनों पहले दिया गया उसका तर्क बूमरेंग बनकर उसे ही आहत कर चुका था। अपने ही तीर का शिकार हो चुका था वह। पैमाने न तो दोहरे होते हैं न ही किसी के सगे। देवेन्द्र कसमसाता, अनुत्तरित बैठा रह गया। मानो मुँह पर लकवा मार गया हो। सब कुछ अकस्मात्, अनायास हो  वातावरण को बोझिल और असहज कर चुका था। मैं रस्मी राम-राम कर उठ आया।

नहीं जानता कि देवेन्द्र ने इस घटना को कैसे लिया होगा। यह भी नहीं जानता कि वह रुह अफजा पीना शुरु करेगा या नहीं। लेकिन मैं अनायास ही इतना भर जान गया कि हम सब भी अपने-अपने रुह अफजा तय किए बैठेे हैं - खुद को भरपूर रंगीनी, अकूत मिठास और गहरी शीतलता से दूर किए।
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अंग्रेजी के सामने हिन्दी: रावण रथी विरथ रघुवीरा

हिन्दी को लेकर तार्किकता, तथ्यात्मकता, वास्तविकता, व्यवहारिकता और भाषा विज्ञान के आयामों को उजागर करते हुए और समेटते हुए, भाषाविद् डॉक्टर जयकुमार जलज का यह विचारोत्तेजक लेख तनिक बड़ा लग सकता है किन्तु एक साँस में पढ़े जाने का चुम्बकीय प्रभाव लिए हुए है। यह लेख अधिकाधिक प्रसारित किए जाने, यथोचित मंचों तक पहुँचाए जाने और क्रियान्वित किए जाने का अधिकारी है। इस पर अपनी राय तो प्रकट करें ही, इसे इसका यह अधिकार दिलाने में सहायक भी बनें।

अंग्रेजी के सामने हिन्दी: रावण रथी विरथ रघुवीरा

                   - डॉ. जयकुमार जलज

यह सच्चाई कितनी ही अपमानजनक और पीड़ादायक क्यों न हो पर अब इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि स्वतन्त्र भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। यही एक काम है जो हमने अंग्रेजों से कम समय में कर दिखाया। वे इसे 200 साल में नहीं कर सके। हमें 50 साल से भी कम समय लगा। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को नहीं बनाया था। महानगरों के बच्चे भी मातृभाषा में शिक्षा पाते थे। यूनेस्को की मान्यता है कि बच्चा एक अनजान माध्यम की अपेक्षा मातृभाषा के माध्यम से अधिक तेज गति से सीखता है। लेकिन हमारी नीति और सरकार गाँवों की प्राथमिक शालाओं में अंग्रेजी माध्यम लादने की तैयारी में है।

आजादी के बाद, देश में दो बड़ी समस्याओं, कश्मीर और राजभाषा को दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से हल किया जाना था। हमने सकुचाते हुए और डर से हल करना चाहा। पाकिस्तान ने कश्मीर पर कबाइली हमला किया। हमले को नाकाम करती हमारी सेना पूरा कश्मीर खाली करवा पाती इसके पहले ही हमने संघर्ष विराम कर लिया। संविधान ने हिन्दी को राजभाषा घोषित तो 14 सितम्बर 1949 को कर दिया था, लेकिन प्रावधान करवाया गया कि यह घोषणा 15 साल बाद लागू होगी। तब तक हिन्दी सक्षम हो जाएगी। 1967 में फिर प्रावधान करवाया गया कि अंग्रेजी अनिश्चित काल तक बनी रहेगी। हिन्दी की सक्षमता कौन,  कब और कैसे नापेगा, इस बार मेें कुछ भी नहीं बताया गया। लीपापोती ने कश्मीर व राजभाषा दोनों समस्याओं को नासूर बना दिया। कश्मीर की समस्या सतह पर है। बाह्य है। दिखती है। राजभाषा की समस्या अन्दर की है। दिखती नहीं है। देश की 95 प्रतिशत से अधिक आबादी की मौलिक प्रतिभा अंग्रेजी के कारण ही दीन व गूँगी बनी रहने को अभिशप्त है। नासूर को चीरा लगाना पड़ता है, पर यह काम काँपते हाथों से न हुआ है और न होगा।

14 सितम्बर 1949 को जैसे ही संविधान में हिन्दी को राजभाषा स्वीकार किया गया देश की बहुत बड़ी आबादी जश्न में डूब गई। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने प्रसन्न भाव से टिप्पणी की - ’हमने जो किया है, उससे ज्यादा अक्लमन्दी का फैसला हो ही नहीं सकता था।’ जश्न मनाते लोग यह समझ बैठे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है। राष्ट्रभाषा (नेशनल लैंग्वेज) और राजभाषा (ऑफिशियल लैंग्वेज) के अन्तर पर उनका ध्यान ही नहीं गया।

सम्विधान सभा ने जब यह प्रावधान किया कि अभी 15 साल तक अंग्रेजी ही राजभाषा यानी सरकारी कामकाज की भाषा बनी रहेगी ताकि हिन्दी को समर्थ होने का वक्त मिल जाए तब इसके निहितार्थ और फलितार्थ का अन्दाजा भी सदस्यों को नहीं हुआ। इसे उन्होंने  स्वीकार कर लिया। भाषा उपयोग से समर्थ बनती हैै। पैरों को भी चलाया न जाए तो वे कमजोर हो जाते हैं। वाहन भी चलाने से ही तो वाहन चलाना आता है। लम्बे समय तक उसे चलाएँगे नहीं तो हमारा, चलाने का सामर्थ्य भी कम होता जाएगा और वाहन को भी जंग लग जाएगी। सत्ता के सिंहासन पर बैठा दी गई अंग्रेजी जहाँ ताकतवर होती गई, वहीं हिन्दी को कमजोर होते जाना पड़ा। फिलवक्त, अंग्रेजी के सामने हिन्दी 'रावण रथी विरथ रघुवीरा' की तरह है।

अगर सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग तत्काल बन्द कर दिया जाता तो हिन्दी 10-15 साल तक जरूर लड़खड़ाती हुई चलती लेकिन फिर अपनी सहज, स्वतन्त्र और मौलिक चाल से चलने लगती। उसे अंग्रेजी का पिछलग्गू और अनुवाद की जड़ भाषा बन कर नहीं रहना पड़ता। वह अपने सधे और स्वाभाविक कदमों से चलते हुए एक प्रौढ़/परिपक्व राज भाषा के रूप मे प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेती। उसके पास सिर्फ कागजी प्रमाण-पत्र नहीं, राज भाषा होने का 65 साल का वास्तविक अनुभव होता।

1967 के राजभाषा कानून से तो अंग्रेजी के वास्तविक राजभाषा बनने पर मुहर लग गई। सिद्धान्त और संविधान में हिन्दी भारत की राजभाषा है पर उसकी चलती नहीं। चलती अंग्रेजी की है। जिसे संविधान की आठवीं अनुसूची में भारत की 22 भाषाओं में भी शामिल नहीं किया गया है उस अंग्रेजी में सरकार के मूल दस्तावेज जारी होते हैं। उन्हें प्रामाणिक होने की मान्यता प्राप्त है। उनके साथ उनके हिन्दी अनुवाद नत्थी रहते हैं पर उनकी मान्यता न होने से उन्हें कोई नहीं पढ़ता। हिन्दी अनुवाद लापरवाही और उपेक्षा के शिकार होते हैं। उन्हें बिना पढ़े फाइल कर दिया जाता है। अर्द्ध सरकारी और गैर सरकारी विभागों में भी यही होता है। टेलीफोेन की डायरेक्टरी, रेलवे की समय सारणी आदि पहले अंग्रेजी में आती है, बाद में उनका हिन्दी संस्करण आता है। हिन्दी संस्करण कब आएगा, इसका कोई निश्चय नहीं रहता। लोग अंग्रेजी संस्करण खरीद लेते हैं, बाद में आने वाले हिन्दी संस्करण के लिए भला कौन रुका रहेगा? सरकारी और गैर सरकारी निष्कर्ष निकाल लिया जाता है कि हिन्दी संस्करण की बिक्री नगण्य है।

आजादी के तुरन्त बाद प्रकाशकों को लगने लगा था कि अब तो भविष्य हिन्दी का है। अंग्रेजों ने भी छोटी कक्षाओं में पढ़ाई का माध्यम हिन्दी को ही रहने दिया था। इसलिए प्रकाशकों ने जोर-शोर से हिन्दी किताबें छापना शुरु किया। कुछ अच्छी किताबें बाजार में आने लगीं। ये सहज हिन्दी में थीं। समझ में आती थीं। लेकिन इस बीच सरकारों ने अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान विज्ञान को भले ही अच्छी नीयत से हो, हिन्दी में लाने की योजना बना डाली। राशि आवण्टित हुई। ग्रन्थ अकादमियों ने अनुवाद करवाना शुरु किया। जिन्हें अनुवाद का काम दिया गया, वे अपने विषय के विशेषज्ञ तो थे पर हिन्दी और अनुवाद का अभ्यास उन्हें नहीं था। इस क्षेत्र में उनकी गति प्रायः शून्य थी।

अनुवाद करवाने वाली संस्थाएँ समय सीमा में अनुवाद चाहती थीं। अनुवादकों में से कुछ ने पारिश्रमिक देते हुए या लिहाज में ही दूसरों से भी अनुवाद करवा लिया। यह भी हुआ कि एक किताब का अनुवाद करवाने में एक से अधिक व्यक्तियों को अलग-अलग पृष्ठ बाँट दिए गए। फिर जिसे जितने पृष्ठ मिले उसने भी उन्हें दूसरों में वितरित किया। इस तरह अनुवाद का काम ठेके पर हुआ। सरकारें/अकादमियाँ/संस्थाएँ भूल गईं कि ठेके पर नहरें तो बन सकती हैं, नदियाँ नहीं। यहाँ तो नहरें भी नहीं बन पाईं।

अनुवादों की भाषा-शैली में एकरूपता के अभाव की चर्चा और आलोचना हुई तो विषय विशेषज्ञों के साथ भाषा विशेषज्ञों को संयुक्त किया गया। भाषा विशेषज्ञों ने भी वही रास्ता अपनाया जो अनुवादकों ने अपनाया था। कहीं-कहीं यह नियम भी रहा कि अनुवाद पर अनुवादक और भाषा विशेषज्ञ का नाम नहीं दिया जाएगा। इससे उन्हें लापरवाही बरतने की पुुख्ता छूट मिल गई। जवाबदेही नहीं रही। अपयश का डर नहीं रहा। ऐसे अनुवादों से न विषय की सेवा हुई न हिन्दी की।

पिछले दिनों यूपीएससी के सी-सेट प्रश्न पत्र के विरोध की जड़ में उसका हिन्दी अनुवाद भी था। टेबलेट कम्प्यूटर और स्टील प्लाण्ट का अनुवाद अगर गोली कम्प्यूटर और स्टील पौधा होगा तो  समस्या तो आएगी ही। फिर भी कोई भाषा कठिन शब्दों या पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से उतनी कठिन नहीं होती जितनी गलत वाक्य रचना, परसर्गों के यथास्थान गैर प्रयोग, क्रियाओं के लापरवाह प्रयोग, स्रोत भाषा की प्रकृति को अनुवाद की भाषा पर हावी होने देने से होती है। इन तमाम कारणों ने अनुवाद की जिस हिन्दी को प्रस्तुत किया उससे दुर्भाग्य से यह धारणा बनी कि हिन्दी कठिन भाषा है, कि उसमें ज्ञान-विज्ञान का माध्यम बनने का माद्दा नहीं है।

हिन्दी का रथ रोकने के लिए आजादी के पहले से ही प्रयत्न होने लगे थे, एक दुखद लेकिन ताकतवर प्रयत्न यह हुआ कि संस्कृत और उर्दू को हिन्दी के बरअक्स खड़ा कर दिया गया। कहा गया कि संस्कृत समर्थ भाषा है। देश को जोड़ती है। देश की हर भाषा में बड़ी संख्या में उसके शब्द सम्मिलित हैं। वह हमारी संस्कृति की भाषा है। उसमें हर तरह का ज्ञान विज्ञान है। वह एक बड़ी आबादी के धर्म की भाषा भी है। उसमें कालिदास जैसे कवियों का साहित्य है। वह एक पुुरानी भाषा है। काश! संस्कृत की पैरवी करने वालों ने कालिदास के इस कथन पर ध्यान दिया होता कि ‘किसी वस्तु की अच्छाई उसके नए या पुराने होने पर निर्भर नहीं होती।’ भाषा का बोला जाने वाला रूप ही उसका मूल रूप होता है। वही उसे विकास यानी परिवर्तन की दिशा में आगे ले जाता है। लिखित रूप तो बोले जाने वाले रूप की नकल होता है। वह विकास नहीं करता बल्कि विकास का विरोधी भी होता है। संस्कृत जब बोली जाने वाली भाषा थी तब उसने भी विकास किया था। तब उसके विकास की गति बहुत तेज थी। लगभग 500 साल की अवधि में वह इतनी विकसित अथवा परवर्तित हुई कि उसके नए रूप को एक स्वतन्त्र भाषा प्राकृत नाम दिया गया। फिर प्राकृत को अपभ्रंश और अपभ्रंश को हिन्दी नाम दिया गया। यह परिवर्तन संस्कृत भाषा का क्रमिक विकास ही है। हिन्दी अपभ्रंश की बेटी, प्राकृत की पोती और संस्कृत की पड़पोती है। संस्कृत आदर की पात्र है पर विकास में वह पीछे छूट चुकी है।

भाषा का विकास कठिनता से सरलता की ओर होता है। वह जटिलता का केंचुल उतार कर उसे इतिहास के कूड़ेदान में फेंकती हुई आगे बढ़ती है। संस्कृत को अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए तीन लिंग, तीन वचन और आठ विभक्तियों का सहारा लेना पड़ता है। हिन्दी यह काम दो लिंग, दो वचन, और तीन विभक्तियों से कर लेती है।

आठ कारकों का भाव प्रकट करने के लिए संस्कृत को कुछ शब्दों के 72 रूपों तक का सहारा लेता पड़ता है। हिन्दी सिर्फ छह रूपों से आठों कारकों का भाव प्रकट कर लेती है। हिन्दी में तीन विभक्तियाँ है।  एकवचन और बहुवचन इन दोनों वचनों में उसके रूप हैं - लड़का लड़के, लड़के लड़कों, हे लड़के, हे लड़को। संस्कृत रूपों को रटने का बच्चों का डर अनुचित और अस्वभाविक नहीं है। हिन्दी में परसर्गों का प्रयोग इस समस्या को पैदा ही नहीं होने देता।

संस्कृत के विशेषणों को विशेष्य के लिंग और वचन का अनुसरण करना पड़ता है। हिन्दी के सिर्फ आकारान्त विशेषणों में ऐसा होता है। संस्कृत कृदन्तों से विकसित होने के कारण हिन्दी क्रियाओं में कर्ता के अनुसार लिंग परिवर्तन की समस्या जरूर है पर अब उसे इससे भी निजात मिलने को है। लड़कियों की बातचीत में इसके संकेत एकदम साफ हैं - 'दीदी, कल आप कॉलेज नहीं चले। आज चलोगे। मोहिनी दीदी तो आए थे।' अब यह नहीं कहा जाता कि मोहिनी दीदी आई थीं। हम गए थे, हम आए थे, हम आपका इन्तजार करते रहे, ऐसा कहा जा रहा है। हम आपका इन्तजार करती रहीं, ऐसा नहीं कहा जाता।

संस्कृत द्वारा किया गया हिन्दी का प्रतिरोध अधिक दिन नहीं चला। उसमें आक्रामकता भी नहीं थी लेकिन उर्दू से जो प्रतिरोध करवाया गया वह लम्बे समय तक चला। उसमें आक्रामकता भी थी। इसका कारण यह था कि इसे राजनीतिक शह मिली हुई थी। अंग्रेजों ने हर स्तर पर हर क्षेत्र में देश में फूट डालने की कोशिश की थी। शुरु में जॉन गिलक्राइस्ट और फोर्ट विलियम कॉलेज, कोलकाता के माध्यम से हिन्दी, उर्दू को दो अलग-अलग भाषाएँ माना गया। प्राथमिक शिक्षा के लिए दोनों में अलग-अलग किताबें छापी गईं। उन्हें पढ़ने वाली जातियाँ कौन सी होंगी, यह भी बताया गया। यह एक ऐसा घिनौना खेल था जो अन्ततः इस देश के दो टुकड़े कर गया।

हिन्दी और उर्दू का डीएनए एक ही है। दोनों में संरचनात्मक एकता है। लिपि की भिन्नता और शब्द समूह की थोड़ी बहुत भिन्नता भाषाओं की तुलना करने में निर्णायक नहीं होती। आजादी के पूर्व हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग बताने वालों के उद्देश्य और प्रयत्न ही नहीं, समझ भी भाषा वैज्ञानिक नहीं थी। वे तो सिर्फ अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहते थे। उन्हें सफलता भी मिली। पाकिस्तान बना। वहाँ भी उन्होंने भाषा वैज्ञानिक समझ का परिचय नहीं दिया। उर्दू, जो पाकिस्तान में बोली ही नहीं जाती थी, पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बना दी गई। इसका खामियाजा उन्हें पूर्वी पाकिस्तान खो कर उठाना पड़ा।

हिन्दी की सरंचनात्मक एकता जितनी उर्दू के साथ है उतनी उसकी अपनी कई बोलियों के साथ भी नहीं है। यह अकारण नहीं है। हिन्दी के पाठक को मीर, फैज फिराक की भाषा प्रायः जितनी जल्दी समझ में आती है, उतनी मैथिली के विद्यापति, अवधी के जायसी या तुलसी की नहीं। 'साये में धूप' के कवि दुष्यन्त की गजलें जितनी हिन्दी की हैं, क्या उतनी ही उर्दू की नहीं लगतीं?

बीती सदी के मध्य के कुुछ दशकों में हिन्दी उर्दू के बीच जो तलवारें खिंची हुई थीं, वे अब म्यान से भी निकाल कर दूर फेंकी जा चुकी हैं। हिन्दी की एम. ए. कक्षाओं में उर्दू साहित्य और उर्दू की एम. ए. कक्षाओं में हिन्दी साहित्य पढ़ाया जा रहा है। हिन्दी के कवि त्रिलोचन की दृष्टि में तो उर्दू कवि गालिब अपनों से भी ज्यादा अपने हैं - 'गालिब गैर नहीं हैं, अपनों से अपने हैं।'

उर्दू भारत की भाषा है। भारत की भाषाओं की आठवीं अनुसूची में शामिल है, जिसमें अंग्रेजी शामिल नहीं है। उर्दू की नाल भारत में ही गड़ी है। उसके रिसालेे देवनागरी लिपि में प्रकाशित होकर लोकप्रिय हो रहे हैं। अयोध्याप्रसाद गोयलीय, प्रकाश पण्डित जैसे दूरदर्शी सम्पादकों ने बरसों पहले से हिन्दी पाठकों को उर्दू  से जोड़ रखा है।

संस्कृत, उर्दू और तमिल से करवाया गया हिन्दी विरोध शान्त हुआ तो हिन्दी को लगा होगा कि अब उसके अच्छे दिन आ गए। पर अच्छे दिन इतनी जल्दी कहाँ आते हैं ? हिन्दी के सामने अब अंग्रेजी की शातिर चुनौती है। चालें चुपचाप चली जा रही हैं। उच्च वर्ग और नौकरशाही नहीं चाहती कि जनता को सत्ता में वास्तविक हिस्सेदारी मिले। वह तो चाहती है- जनता मतदान करे और भ्रम में बनी रहे कि वही मालिक है। सत्ता को जनता से भिन्न होना और भिन्न दिखना ही पसन्द होता है। सत्ता की भाषा जनता जैसी हुई तो वह काहे की सत्ता? जनता हिन्दी बोलती थी। बोलती रही। पर सत्ता की भाषा संस्कृत, फिर फारसी, फिर अंग्रेजी हुई। कई छोटे रजवाड़ों में भी राजकाज की अलग भाषा थी। अंग्रेजी को 1967 में ही हमने अभयदान दे दिया था कि वह अनिश्चित काल तक हमारे गणतन्त्र में राज करती रहे। हमारी सरकारें नर्सरी से लेकर बड़ी कक्षाओं तक छात्रों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहती हैं। स्नातक कक्षाओं में हिन्दी को वैकल्पिक बनाने का खेल शुरु हो चुका है। गाँवों में अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलने की तैयारी है।

बच्चों की सारी ऊर्जा अंग्रेजी पढ़ने में खर्च हो रही है। उनके हाथ न अंग्रेजी आएगी और  न अन्य विषय। भाषा ज्ञान नहीं होती, ज्ञान तक पहुँचने का माध्यम होती है। व्यक्ति का अधिकार एक भाषा पर होना चाहिए। थोड़ी-थोड़ी गति सब भाषाओं में होने से तो व्यक्ति दुभाषिया बन सकता है ज्ञानवान नहीं। बिल गेट्स सिर्फ एक भाषा  अंग्रेजी जानते हैं।
अंग्रेजी की गुलामी के हमारे संस्कार आज भी सिर उठाते रहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे अंग्रेजी बोलें। हमारी चमड़ी अंग्रेजों जैसी गोरी हो। अपनी इन दोनों इच्छाओं को पूरा करने पर हमारी गाढ़ी कमाई का पैसा पानी की तरह बह रहा है। हम न अंग्रेजी बोल पा रहे हैं और न हमारी चमड़ी गोरी हो पा रही है।

पंजाब जैसे उन्नत राज्य में दसवीं में अस्सी हजार बच्चे अंग्रेजी में फेल हुए तो वहाँ शिक्षामन्त्री ने शिक्षकों का अंग्रेजी में टेस्ट लिया। सिर्फ एक ही शिक्षक पास हो पाया (दैनिक भास्कर, 26 जून 2015)। हम अनुमान लगा सकते हैं कि राजस्थान, म. प्र., बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ आदि में अंग्रेजी की पढ़ाई की क्या स्थिति होगी ?

यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि अगर देश की भाषा अंग्रेजी हो जाए तो देश में समृद्धि आ जाएगी। ध्यान देने की बात है कि दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में शासन-प्रशासन और शिक्षा वहाँ की मातृभाषा में होती है; जैसे जर्मनी, चीन, फ्रांस आदि। केवल चार देशों की भाषा अंग्रेजी है। वह इसलिए कि अंग्रेजी ही उनकी मातृभाषा है। संसार के सबसे गरीब देशों में से 18 की भाषा उनकी मातृभाषा नहीं ,बल्कि अंग्रेजी है। अफ्रीका के राष्ट्रों की भाषा उनकी मातृभाषा की जगह अंग्रेजी या फ्रांसीसी है। इन राष्ट्रों की बदहाली सारी दुनिया जानती है।

चीन की मन्दारिन के बाद हिन्दी संसार की सबसे अधिक जनसंख्या वाली भाषा है। वह बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, म. प्र., राजस्थान, उ. प्र., हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की राजभाषा है। अण्डमान-निकोबार, चण्डीगढ़, दादर-नागर हवेली, दमन-दीव और दिल्ली में उसकी हैसियत राजभाषा की है। भारत के बाहर फिजी में दो अन्य भाषाओं के साथ वह वहाँ की राजभाषा है। अंग्रेजी भक्तों को भला यह कैसे सुहा सकता है कि संख्या बल में ही सही अंग्रेजी, हिन्दी से नीचे हो। इसलिए अवधी, बुन्देली, ब्रज भोजपुरी आदि को वे हिन्दी में शामिल नहीं करते। वे इन्हें हिन्दी नहीं मानते। दरअसल खड़ी बोली, बुन्देली, भोजपुरी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, ब्रज, अवधी आदि मिल कर ही तो हिन्दी हैं। वे सब हिन्दी के मोहल्ले हैं। इब्राहीमपुरा, एमपी नगर, अरेरा कॉलोनी, निराला नगर आदि मिल कर ही तो भोपाल हैं। इन मोहल्लों के बिना भोपाल कहाँ होगा? शायद ही किसी देश ने अपनी किसी भाषा को राजभाषा के सम्वैधानिक सिंहासन पर बैठा कर उसका निरन्तर ऐसा अपमान किया हो। राम को 14 साल का वनवास मिला था। हिन्दी को अनिश्चितकाल का वनवास दिया गया है। सामाजिक क्षेत्र में अंग्रेजी हमारे पढ़े लिखे होने का सबूत और हैसियत की भाषा है। और हिन्दी? उसे सब बोलते हैं। वह सबकी है। जो सबकी हो वह विशेष कैसे हो सकती है? इधर एक नया मुहावरा प्रचलित हुआ है। काम बिगड़ने, बेइज्जत करने को हिन्दी होना कहा जाने लगा है - 'मेरा तो सारा काम हिन्दी हो गया।', 'उसने सबके सामने मेरी हिन्दी कर दी।'

एक विषय के रूप में अंग्रेजी पढ़ना अच्छी बात है पर देश के कामकाज पर, देश के बोलने पर उसे थोपने से काम बिगड़ता है। सन् 1981 की जनगणना में देश में 2 लाख 2 हजार 400 लोगों की प्रथम भाषा अंग्रेजी थी। 2001 में यह संख्या 2 लाख 26 हजार 449 हो  गई। बीस साल में सिर्फ 24 हजार लोग बढ़े। ऐसे में अंग्रेजी के सहारे 'सबका साथ सबका विकास' कैसे सधेगा ?

अंग्रेजी नियुक्ति, पदांकन, पदोन्नति का अघोषित आधार बनी हुई है। हमारा सिनेमा और हमारी किक्रेट, खाते हिन्दी का हैं और बजाते अंग्रेजी का हैं। हिन्दी के धारा प्रवाह भाषण सारे देश में सुने, समझे, सराहे जाते हैं। चुनावों में जीत दिलाते हैं, फिर भी हमारी रट है कि अंग्रेजी देश को जोड़ती है।

जब तक दीया तले अंधेरा है, संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को मान्यता मिलना मुश्किल है।  विदेशी राजनयिक भारत में अपनी पद स्थापना के पूर्व यथासम्भव हिन्दी सीख कर भारत आते हैं। भारत में उन्हें हिन्दी का माहौल गायब मिलता है तो वे हिन्दी भूल जाते हैं। विदेशियों को शिकायत है कि वे हिन्दी में मेल भेजते हैं, भारत उन्हें अंग्रेजी में उत्तर देेता है।

हिन्दी के साथ उसकी लिपि देवनागरी को भी आलोचना का शिकार होना पड़ा है। भाषा स्वभाविक होती है, लिपि कृत्रिम। बोेलने को बच्चा खुद सीखता है, लिखना उसे हाथ पकड़ कर सिखाया जाता है। इसलिए भाषा में तो प्रयत्नपूर्वक परिवर्तन नहीं किया जा सकता है, लिपि में किया जा सकता है। नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन आदि के प्रयत्नों के बाद 1953 में उत्तरप्रदेश शासन ने भी देवनागरी सुधार का काम किया। उसके कई सुधार स्थायी साबित हुए। वे आज भी प्रचलन में हैं। जैसे अ, ण को ही मान्य किया गया है। इनके दूसरे रूपों को नहीं। कुछ लिपि चिह्नों की बनावट को बदल कर उन्हें असंदिग्ध बनाया गया है। अब ख, ध, भ ही प्रचलन में हैं। इनके अन्य/पुराने रूप अब भुला दिए गए हैं। 

देवनागरी में  कमियाँ हैं। वह ध्वन्यात्मक नहीं, अक्षरात्मक है। कहीं-कहीं तीन मंजिला इमारत जैसी है। इ की मात्रा कभी-कभी अपने उच्चारण क्रम में जैसे चन्द्रिका में बहुत पहले लगाई जाती है। लेकिन कमियाँ तो संसार की हर लिपि में हैं। रोमन में लिखने के हमारे प्रयत्नों ने हमें कम नुकसान नहीं पहुँचाया है। हमारे शब्दों के न सिर्फ उच्चारण भ्रष्ट हुए हैं, बल्कि अर्थ का अनर्थ भी हुआ है। बुद्ध, कृष्ण, योग, गुप्त, मिश्र शुक्ल जैसे अकारान्त शब्द आकारान्त कर दिए गए हैं। मैथिलीशरण गुप्त, द्वारिकाप्रसाद मिश्र, रामचन्द्र शुक्ल जैसे कुछ व्यक्ति ही गुप्त, मिश्र, शुक्ल बने रह पाए हैं। कृष्णा का अर्थ कृष्ण नहीं, द्रोपदी होता है। उपन्यासकार चेतन भगत का तर्क है कि रोमन को अपनाने से हिन्दी को आधुनिक तकनीक का फायदा मिल जाएगा। यह तो देह को कपड़े के नाप का बनाने का सुझाव है। आधुनिक तकनीक का जन्म पश्चिम में हुआ। स्वभावतः उसकी पहली अभिव्यक्ति रोमन लिपि में हुई। अब इण्टरनेट पर अन्य लिपियों और भाषाओं का प्रयोग भी बढ़ रहा है। सन् 2000 में इण्टरनेट पर 80 प्रतिशत जानकारी अंग्रेजी और रोमन में उपलब्ध होती थी। अब वह प्रतिशत 40 से भी कम है। देवनागरी में टंकण की कई समस्याओं को कम्पनियाँ तेजी से सुलझाती जा रही हैं। देवनागरी फोण्ट्स पर लाखों लोगों के हाथ तेज गति से दौड़ रहे हैं। माइक्रोसोफ्ट कम्पनी ने माना है कि भारतीय व्यापार का 95 प्रतिशत अब भी भारतीय भाषाओं और भारतीय लिपियों में हो रहा है। स्पष्ट है कि अंग्रेजी और रोमन लिपि के वर्चस्व की सम्भावनाएँ सिकु़ड़ रही हैं। हिन्दी के सन्दर्भ में निराशा धीरे-धीरे छँट रही है। हम जानते हैं कि अन्ततः राम की ही विजय हुई थी। 
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सम्‍पर्क: डॉ. जयकुमार जलज, 30 इन्दिरा नगर, रतलाम-457001 (म. प्र.), 
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(भोपाल से प्रकाशित मासिक 'साक्षात्‍कार' के सितम्‍बर 2016  अंक से साभार।)

लड़ी जा सकनेवाली एक लड़ाई

पूरा देश राष्ट्रोन्माद और गुस्से में उफन रहा है। विदेशों में बैठे भारतीय भी इसी दशा में हैं। सबकी एक ही इच्छा है-इस बार पाकिस्तान को निपटा ही दिया जाए। यह भावना अकारण नहीं है। लोक सभा चुनावों के दौरान पाकिस्तान के सन्दर्भ में मोदी ने लोगों को जो भरोसा दिलाया था, उसी भरोसे के आधार पर लोग न केवल यह चाह रहे हैं बल्कि विश्वास भी कर रहे हैं कि मोदी अपनी बात पर अमल करेंगे। लेकिन मोदी की आवाज सुनाई ही नहीं दे रही। और केवल मोदी ही क्यों? राष्ट्रवाद की दुहाइयाँ देनेवाले संघ परिवार और तमाम भाजपाइयों की भी आवाज नहीं सुनाई दे रही। कल तक खुद के सिवाय बाकी सब को देशद्रोही घोषित करनेवाले तमाम लोगों को मानो साँप सूँघ गया है। यह देख-देख कर मुझे मालवी का यह लोक आख्यान पल-पल याद आ रहा है।

लोगों को प्रभावित करने के लिए एक नौजवान बीच चौराहे पर, भीड़ के सामने हँसिये निगलने लगा। अधिकांश लोग तो उसके इस करतब पर तालियाँ बजाते रहे किन्तु कुछ समझदार लोग भाग कर उसके पिता के पास पहुँचे और कहा कि अपने बेटे को यह आत्मघाती करिश्मा करने से रोके। पिता अपने बेटे से पहले से ही परेशान था चिढ़ कर बोला कि वह जो करता है, करने दें। अभी उसे मजा आ रहा है लेकिन सुबह जब निपटने जाएगा तब उसे मालूम पड़ेगा कि उसने क्या मूर्खता की। पिता ने जो कहा, वही हुआ। कुछ घण्टों पहले तालियों की गड़गड़ाहट से बौराया बेटा, सुबह शौचालय में, लहू-लुहान दशा में चित्कार रहा था। 
आख्यान में और आज की दशा में एक ही अन्तर है। वहाँ वह नौजवान चिल्ला रहा था। यहाँ, राष्ट्र को लेकर गर्वोक्तियाँ करने का छोटा से छोटा मौका भी हथियाने वाले तमाम लोगो की बोलती बन्द है। सवाल पूछनेवालों में पराये तो हैं ही, अपनेवाले भी बड़ी तादाद में सामने आ रहे हैं। मोदी और अन्य भाजपाइयों के आक्रामक भाषणों के वीडियो अंश सोशल मीडिया पर छााए हुए हैं। लोग क्षुब्ध होकर व्यंग्योक्तियाँ कस रहे हैं। पुराने भाषणों को चुटकुलों की तरह पेश कर रहे हैं। सर्वाधिक फजीहत ‘छप्पन इंच का सीना’ की हो रही है। कल तक राष्ट्रवाद के प्रमाण-पत्र बाँटनेवाले मुँह छिपा रहे हैं और जिन्हें देशद्रोही करार देकर पाकिस्तान भेजने की बात की जा रही थी वे तमाम लोग, पूर्वानुसार ही सहज भाव से देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं-चुपचाप।

वस्तुतः कुछ भी अनोखा नहीं हो रहा। आकांक्षाए जगाना जितना आसान है, उन्हें पूरा करना उतना ही कठिन। मुझे लगता है, इन सबसे एक ही चूक हुई-यह जानते हुए भी कि भारत अपनी ओर से पाकिस्तान पर आक्रमण नहीं करेगा, ये लोग भावनाएँ भड़काते रहे। याद कीजिए, गृह मन्त्री राजनाथसिंह कह चुके हैं कि पहली गोली भारत नहीं चलाएगा। उन्होंने अपना यह वक्तव्य इस क्षण तक न तो वापस लिया है न ही संशोधित किया है। सत्ता में आकर अपने विरोधियों को नष्ट करने की जो निर्द्वन्द्व आजादी मिलती है, अन्तरराष्ट्रीय बिसात पर वह नहीं मिलती। पाकिस्तान की वास्तविक स्थिति ने शुरु से ही सबके हाथ बाँध रखे हैं। वहाँ प्रधान मन्त्री सहित तमाम निर्वाचित जनप्रतिनिधि सेना के बन्धक हैं। कठपुतलियों की तरह निष्प्राण, निर्जीव। कुर्सी पर बने रहने के लिए सेना की इच्छा का पालन करना पड़ता है। सेना अपनी मनमर्जी से कुछ भी कर सकती है, नेता नहीं। कारगिल युद्ध इसका प्रमाण है। मुशर्रफ ने नवाज शरीफ का कहना मानने से इंकार कर दिया था और भारत पर युद्ध थोप दिया गया था। 

सारी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान के आतंकी सेना की शह और संसाधनों से लैस रहते हैं। किन्तु वहाँ का कोई सैनिक सामने नहीं आता। जिहाद के नाम पर दिग्भ्रमित युवा ही सरहद पार करते हैं। उनका जो भी किया-कराया है, सब कुछ अनधिकृत, अनौपचारिक होता है। इन सबमें सरकार का हाथ न होने की बात कहने की सुविधा वहाँ की सरकार को मिलती रहती है। ऐसे में तकनीकी तौर पर सरकार सदैव बरी-जिम्मे रहती है। सारी दुनिया भली प्रकार जानती है आतंकवादी पाकिस्तानी हैं किन्तु घुसपैठ या हमला पाकिस्तान ने नहीं किया होता है। ऐसे में हम चाह कर भी हमला नहीं कर सकते और यही वजह है कि राजनाथसिंह अपने वक्तव्य पर बने रहने को मजबूर हैं। वे हमारे गुस्से के नहीं, सहानुभूति के पात्र हैं। हम चुप रहकर उनका हौसला बढ़ाएँ, उन्हें मदद करें।

इस तकनीकी पेचीदगी के चलते हम सीधा आक्रमण तभी कर सकते हैं जब हम आक्रामक होने का तमगा कबूल करने को तैयार हों। निश्चय ही, हम यह तमगा कभी हासिल नहीं करना चाहेंगे। ऐसी स्थिति मे हमारे पास कोई नया विकल्प नहीं है। हमें अपने (वार्ता करने, राजनयिक , कूटनीतिक प्रयासों से पाकिस्तान को सारी दुनिया से अलग-थलग करने के) चिर-परिचित विकल्पों पर ही काम करना पड़ेगा। इन विकल्पों में हम कितना कौशल वापर सकते हैं, यही महत्वपूर्ण बात होगी।

मैं ठेठ देहाती आदमी हूँ। सीधी बात कहने-सुनने में आसानी होती है। कूटनीति या राजनय के दाँव मुझे नहीं आते। निजी तौर मैं अमरीका को मूल अपराधी मानता हूँ। मेरी राय में पाकिस्तान यदि चोर है तो अमरीका चोर की माँ है। मैं पाकिस्तान को अमरीका का रण्नीतिक उपनिवेश मानता हूँ। इनमें चीन, पाकिस्तान की मौसी की तरह शामिल हो गया है। मुझे लगता है कि पाकिस्तान का इलाज करने के लिए हमे अमरीका और चीन का इलाज करने पर विचार करना चाहिए। किन्तु इन दोनों से भी हम सीधी लड़ाई नहीं लड़ सकते। 

हमारे देहातों में कहा जाता है कि यदि किसी को मारना हो तो उसकी पीठ पर नहीं, पेट पर लात मारो। मेरा विश्वास है कि हम इन दोनों देशों के पेट पर लात मारने की जोरदार स्थिति में हैं। हम दुनिया का सबसे बड़ा बाजार बने हुए हैं। कुछ ऐसा कि कभी-कभी लगता है कि हम भारतवासी खुद उत्पाद बन गए हैं। चीनी सामान से हमारे बाजार अटे पड़े हैं। हम सब इनसे त्रस्त हैं, यह बात बार-बार सामने आती रहती है। सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर सकती। उसके हाथ भी बँधे हुए हैं मुँह भी बन्द ही है। वह तो कुछ कर नहीं सकती। किन्तु हम, भारत के लोग काफी-कुछ कर सकते हैं। दुकानदार चीनी सामान की बिक्री बन्द कर दें और हम खरीददारी, तो चीन का दिमाग ठिकाने आ जाएगा।

अमरीकी उत्पाद तो हमारे खून में शामिल हो गए हैं। अमरीकी उत्पादों ने भारतीय चोला पहन लिया है। कौन सी चीज अमरीकी है और कौन सी नहीं, तय करना मुश्किल हो गया है। किन्तु वहाँ के (कोका कोला और पेप्सी जैसे तमाम) शीतल पेय तो जग जाहिर हैं। हम इनका ही बहिष्कार कर दें तो अमरीका घुटनों पर आ जाएगा। हम में से बहुत कम लोग जानते होेगे कि शीतल पेयों की ये कम्पनियाँ अमरीका की अर्थनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। अमरीका अपनी अर्थ नीति निर्धारण में इन कम्पनियों का विशेष ध्यान रखता है। आर्थिक लाभ के मामले में पाकिस्तान, अमरीका के लिए तनिक भी उपयोगी नहीं है किन्तु हमसे तो अमरीका मालामाल हुआ जा रहा है। भारत के बाजार को खोने की जोखिम वह कभी नहीं उठा पाएगा।

मोदी इस समय देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। पार्टी से परे, निजी स्तर पर उनके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं। ठीक है कि वे कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हैं। किन्तु वे पर्दे के पीछे से यह अभियान छेड़ सकते हैं। आज का माहौल ऐसे अभियान के लिए अत्‍यधिक अनुकूल है।

हम, पाकिस्तान से सर्वाधिक त्रस्त देश हैं। हम सीधा युद्ध तो शुरु नहीं कर सकते किन्तु पाकिस्तानी सेना की तरह छù युद्ध तो लड़ ही सकते हैं। एक ही अन्तर होगा। हमारी यह लड़ाई धीमी होगी, देर से नतीजा देनेवाली और भारत में ही लड़ी जाएगी।

एक लड़ाई ऐसी भी लड़ने पर विचार करने में हर्ज ही क्या है? 
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(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ के दिनांक 22 सितम्बर 2016 के अंक में छपा)

धर्म: मेरा और पराया

सनातन और जैन धर्म से जुड़े कुछ संगठनों में सक्रिय मेरे कुछ मित्र इन दिनों मुझ पर कुपित और मुझसे नाराज हैं। वे लोग ईदुज्जुहा के मौके पर दी जाने वाली, बकरों की कुर्बानी के विरुद्ध चलाए जाने वाले अभियान में मेरी भागीदारी चाहते थे। मैंने इंकार कर दिया। उनमें से एक ने मुझे हड़काते हुए पूछा - ‘आप बकरों की बलि के समर्थक हैं?’ मैंने कहा कि मैं केवल बकरों की बलि का ही नहीं, ऐसी किसी भी बलि-प्रथा का विरोधी हूँ। ऐसी किसी प्रथा को मैं न तो धर्म के अनुकूल मानता हूँ और न ही सामाज के। यदि कोई धर्म या समाज ऐसा करने की सलाह देता है तो मैं उस धर्म को धर्म नहीं मानता और न ही ऐसे समाज को समाज ही मानता हूँ। ऐसी परम्पराओं के समर्थक मुझे मनुष्य ही नहीं लगते। 

आज यदि सर्वाधिक अधर्म हो रहा है तो धर्म के नाम पर ही। धर्म के नाम पर किए किसी आह्वान का विरोध करना तो दूर, उससे असहमति जताना भी आज सर्वाधिक जोखिम भरा काम होग या है। ऐसे आह्वान के औचित्य पर जिज्ञासा जताना ही आपको धर्म विरोधी घोषित करने के लिए पर्याप्त है। और आप यदि स्थानीय स्तर पर कोई छोटे-मोटे ‘सेलिब्रिटी’ हैं तो आपके विरुद्ध वक्तव्यबाजी, नारेबाजी, और आपके निवास पर तोड़-फोड़ अवश्यम्भावी है। मैं ऐसी तमाम दुर्घटनाओं (या कहिए कि सार्वजनिक सम्मान) से बच गया। 

धर्म मेरे लिए कभी भी सार्वजनिक, सामूहिक विषय नहीं रहा। मैं पहले ही क्षण से इसे नितान्त व्यक्तिगत मामल मानता हूँ। मेरी सुनिश्चित धारणा है कि सामूहिक, सामाजिक या कि सांगठानिक धर्म कभी किसी का भला नहीं करता-न व्यक्ति का, न समाज का और न ही खुद का। ऐसे में बात यदि किसी समाज या धर्म से जुड़ी हो तो मेरी सुनश्चित धारणा है कि ऐसी किसी भी कुरीति या कुपरम्परा से मुक्ति का संघर्ष उस धर्म या समाज से जुड़े लोगों को ही करना पड़ता है। इसलिए, इदुज्जुहा पर बकरों की बलि बन्द करने को लेकर यदि कोई अभियान चलाया जाना है तो यह इस्लाम मतावलम्बियों द्वारा ही चलाया जाना चाहिए। मुझ जैसे बाकी लोग उनके समर्थन में मैदान में आ सकते हैं किन्तु आगे तो उन्हीं लोगों को आना पड़ेगा और आगे बने रहना भी पड़ेगा।

सनातन धर्म या कि हिन्दू धर्म की सती प्रथा, बाल विवाह, पशु बलि जैसी अनेक कुरीतियों, कुपरम्पराओं का विरोध करने के लिए इस धर्म के लोग ही सामने आए। दक्षिण भारत में चल रही ऐसी ही कुछ परम्पराओं का विरोध भी इस धर्म के ही लोग कर रहे हैं। वे लोग न्यायालय में भी जा रहे हैं। किसी धार्मिक परम्परा का विरोध जब उस धर्म से इतरधर्मी लोग करते हैं तो वह पहली ही नजर में अनुचित हस्तक्षेप होता है। इसीलिए मैंने इदुज्जहा पर दी जाने वाली, बकरों की बलि प्रथा के विरोधी अभियान से जुड़ने से मना कर दिया। 
मेरे इस जवाब पर मुझे हड़कानेवाले मित्र ने तृप्ति देसाई का हवाला दिया जिसने मुम्बई की बन्दर मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश की लड़ाई लड़ी और जीती। मैंने समझाने की कोशिश की कि तृप्ति का अभियान केवल हिन्दू या मुसलमान महिलाओं के लिए नहीं था। तृप्ति की लड़ाई, धार्मिक आधार पर महिलाओं के साथ किए जा रहे भेदभाव को लेकर थी। बन्दर मस्जिद से पहले वह शनि मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सफल-संघर्ष कर चुकी थी। इसीलिए बन्दर मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश को लेकर उसके अभियान को धर्मिक हस्तक्षेप नहीं माना गया। 

जुलाई महीने में भी ऐसा ही हुआ था। स्कूली बच्चों को, मध्याह्न भोजन में अण्डा भी दिया जाता है। निस्सन्देह, अण्डा उन्हीं बच्चों को दिया जाता है जो अण्डा खाते हैं। जो बच्चे अण्डा नहीं खाते, उन्हें नहीं दिया जाता। मेरे हिसाब से यह अच्छी व्यवस्था है। मेरे कस्बे के अनेक लोगों को यह अच्छा नहीं लगता।  मैं खुद चूँकि मांसाहार विरोधी हूँ इसलिए मुझे भी अच्छा नहीं लगता। किन्तु दूसरे क्या खाएँ, यह निर्धारण भी नहीं करता। ‘जीव दया’ के पक्षधर कुछ लोग मेरे पास आए। वे स्कूलों में अण्डा दिए जाने पर प्रतिबन्ध लगवाने के अभियान में मेरी भागीदारी चाहते थे। मैंने विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। मैं अपना धर्म मानूँ, यह मेरी इच्छा। किन्तु सामनेवाला मेरा धर्म माने, यह आग्रह मैं भला कैसे कर सकता हूँ? मेरा धर्म और नियन्त्रण मुझ तक सीमित है। दूसरों पर अपना धर्म आरोपित करना या अरोपित करने का आग्रह करना ही अपने आप में अधर्म है। मैंने कहा-‘मैं खुद अण्डा नहीं खाता हूँ। खाऊँगा भी नहीं। किन्तु आपके अभियान में शरीक नहीं होऊँगा।’ वे नाराज होकर, मुझे नफरतभरी नजरों से देखते हुए लौटे। वे सब मुझे अधर्मी घोषित कर गए। मेरी हँसी चल गई। जो कृपालु मेरे पास आए थे, उनमें से तीन के परिजन मांसाहर करते हैं। यह बात वे खुद भी जानते हैं। वे अपने परिजनों से मांसाहार त्याग का आग्रह नहीं कर पा रहे। अपने राजनीतिक प्रभाव और वोट बैंक की राजनीति के तहत उन्होंने, मुख्यमन्त्री से आश्वासन हासिल कर लिया कि मेरे कस्बे के स्कूली बच्चों को अण्डा नहीं दिया जाएगा। वे सब खुश हैं किन्तु मुझे अभी भी यह अधार्मिक कृत्य ही लग रहा है।

कोई धर्म ऐसा नहीं है जिसमें कुछ न कुछ अनुचित, आपत्तिजनक न हो। इदुज्जुहा पर बकरों की बलि भी मुझे ऐसी ही एक अनुचित, आपत्तिजनक बात लगती है। मैंने अपने कुछ इस्लाम मतावलम्बी मित्रों से बात की थी। मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि उनमें से अधिकांश लोग इस कुर्बानी को अनुचित मानते हैं और इससे मुक्ति के लिए, समाज की जाजम पर अपने स्तर पर, जूझ रहे हैं। इसके साथ ही साथ यह भी मालूम हुआ कि मुहर्रम के अवसर पर ताजिये निकालने के विरोध में भी एक अभियान मुसलमानों में चल रहा है। इस अभियान के समर्थकों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। ऐसे सारे लोग आपस में मिलकर एक काम लगातार कर रहे हैं-निराश होकर, थककर न बैठने का। वे सब जानते हैं कि ऐसे बदलाव आसानी से, जल्दी नहीं आते। धर्मान्धता और कट्टरता आसानी से छूटनेवाले व्यसन नहीं। इनसे मुक्ति पाने में पीढ़ियाँ खप जाती हैं। तीन तलाक के विरोध में उठनेवाली आवाजें मुसलिम समुदाय में आज बढ़ती भी जा रही हैं और अधिक प्रगाढ़ भी होती जा रही हैं। किसी (इस्लाम मतावलम्बी) ने कभी सोचा था कि महिलाएँ अपना खुद का मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बनाएँगी? लेकिन हम देख रहे हैं आज यह संस्था अस्तित्व में आ गई है। 

दरअसल, गुलामी से मुक्ति के अभियान का विचार किसी गुलाम के मन में ही आ सकता है। वही ऐसा कोई मुक्ति अभियान चला सकता है है क्यों उसमें अनुभूत सचाई का ताकत होती है। वह लड़ाई बनावटी नहीं, सौ टका ईमानदार होती है। उसमें मुक्ति की छटपटाहट होती है, किसी के प्रति नफरत नहीं होेती। और इतिहास गवाह है कि ईमानदारी और प्रेम से चलाए अभियान अपनी मंजिल तक पहुँचते हैं।
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(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ के दिनांक 15 सितम्बर के अंक में छपा)

पेकेज के बँधुआ मजदूर

चार साल की वन्या हर रविवार की शाम बहुत परेशान कर देती है। कर क्या देती है, वस्तुतः वह खुद परेशान हो जाती है। रविवार की शाम उसका एक भी संगी-साथी मुहल्ले में नजर नहीं आता। सारे बच्चे अपने माता-पिता के साथ कहीं न कहीं घूमने निकल जाते हैं। वन्या मुहल्ले में अकेली रह जाती है। उसका पिता तरुण, कार बनानेवाली एक अन्तरराष्ट्रीय कम्पनी के स्थानीय विक्रय केन्द्र पर बड़े ओहदे पर काम करता है। कहने को शनिवार, रविवार को उसकी छुट्टी रहती है किन्तु केवल कागजों पर। छुट्टियों के इन दोनोें दिनोें में उसे रोज की तरह सुबह साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुँचना ही पड़ता। रात में वापसी का कोई समय निश्चित नहीं। चूँकि इन दोनों दिनों की उसकी हाजरी कागजों पर नहीं लगती, इसलिए उसे इन दोनों दिन काम करने का कोई अतिरिक्त भुगतान भी नहीं मिलता। छुट्टियों के प्रति उसके नियोक्ता का व्यवहार यह कि जिस दिन भारत अपनी आजादी का जश्न मनाता है उस दिन तरुण आजाद नहीं रह पाता। उसकी नियुक्ति की शर्तें और देश के श्रम कानून, नौकरी की वास्तविकता के नीचे कराहते रहते हैं। तरुण मेरे कस्बे में परदेसी है। जाहिर है, उसका पारिवारिक जीवन रात दस-ग्यारह बजे से सुबह नौ-साढ़े नौ बजे के बीच ही रहता है। सामाजिक जीवन तो उसका लगभग शून्य ही है। 

अग्रवालजी की बेटी निधि बेंगलुरु में, एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में आईटी प्रोफेशनल है। उसका दफ्तर सुबह साढ़े नौ बजे शरु होता है खत्म शाम छः बजे। किन्तु वह कभी भी साढ़े सात-आठ बजे से पहले दफ्तर से निकल नहीं पाती। निधि अपने काम-काम में चुस्त-चौबन्द है। अपना सारा काम शाम छः बजते-बजते पूरा कर लेती है। किन्तु उसके बाद डेड़-दो घण्टे दफ्तर में ही बैठना पड़ता है क्योंकि उसका बॉस तब तक कुर्सी पर जमा रहता है और दूसरे सहकर्मी भी अपना काम निपटाने के बाद भी वहीं बने रहते हैं। काम तो बॉस के पास भी कुछ नहीं होता। वह अपने सहयोगियों-अधीनस्थों से बतियाता रहता है। एक शाम निधि छः बजे ही निकलने लगी तो बॉस ने टोका - ‘आज जल्दी जा रही हो!’ निधि ने कहा - ‘नहीं! सर! आज वक्त पर जा रही हूँ।’ बॉस ने चुप रहने की समझदारी बरती। प्रति दिन इन डेड़-दो घण्टों के लिए किसी को कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं मिलता। 

तन्मय एक अमरीकी आईटी कम्पनी के गाजियाबाद दफ्तर में बहुत बड़ा अधिकारी है। खूब अच्छी तनख्वाह मिलती है। किन्तु उसने त्याग-पत्र पेश कर दिया। अपनी कार्यकुशलता, दक्षता और परिश्रम से वह कम्पनी के लिए अनिवार्य जैसी स्थिति में आ गया है। कार्यालय प्रमुख ने उसे बुलाकर बात की। तन्मय ने बताया कि उसे हर आठ-दस दिनों मे अमेरीका भेजा जाता है। लौटने के बाद दो-तीन दिनों तक उसका,  सोना-खाना, उसकी दिनचर्या गड़बड़ रहती है। सब कुछ सामान्य होते ही उसे अगले ही दिन फिर अमरीका जाने का हुक्म थमा दिया जाता है। यात्रा से अधिक असुविधा गाजियाबाद से दिल्ली हवाई अड्डेे जाना और हवाई अड्डे से गाजियाबाद आनेे में होती है। वह अनिद्रा और हाई बीपी के घेरे में आ गया है। नियुक्ति की शर्तों के अधीन वह ऐसी यात्राओं से मना नहीं कर सकता। किन्तु दूसरी ओर, इसी कारण उसकी जान पर बन आई है। उसे यात्रा और अमरीका प्रवास में सारी सुविधाएँ जरूर उपलब्ध कराई जाती हैं किन्तु इस अतिरिक्त भाग-दौड़ के लिए कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं मिलता। यहाँ भी श्रम कानूनों पर मेनेजमेण्ट की मनमर्जी भारी पड़ती है। कम्पनी उसे खोना नहीं चाहती थी। उसने इसी शर्त पर स्तीफा वापस लिया कि उसे इस तरह अमरीका नहीं भेजा जा जाएगा।

हेमेन्द्र भी बेंगलुरु में ऐसी ही एक अमरीकी कम्पनी में काम करता है। उसकी नौकरी भी नौ से छःह बजे तक की है किन्तु रात आठ बजे से पहले कभी वापसी नहीं होती। हफ्ते में चार-पाँच बार ऐसा होता है कि वह घर के लिए निकल रहा होता है कि अमरीका से फोन आता है - ‘हेमेन्द्र! अपने एक महत्वपूर्ण ग्राहक यहाँ बैठे हुए हैं। उनकी एक छोटी सी समस्या हल कर दो।’ यह ‘छोटी सी समस्या’ कभी भी आधी रात से पहले हल नहीं होती। इस तरह आधी रात तक उसका काम करना कहीं भी रेकार्ड पर नहीं आता। महीने में दो-तीन बार उसे ‘इमर्जेन्सी’ के नाम पर शनिवार-रविवार को भी दफ्तर आना पड़ता है। इस अतिरिक्त काम के लिए उसे न तो कोई अतिरिक्त भुगतान मिलता है और न ही मुआवजे के रूप में कोई छुट्टी ही मिलती है। इसके विपरीत, सुबह नौ बजे नौकरी पर पहुँचना अनिवार्य है। यहाँ भी श्रम कानून एड़ियाँ रगड़ता है।

अड़तीस वर्षीय सुयश की कठिनाई तनिक विचित्र है। उसे सुबह साढ़े नौ बजे पहुँचना होता है। नौकरी तो शाम छःह बजे तक की ही है किन्तु रात नौ बजे से पहले कभी नहीं निकल पाता। नौकरी ऐसी कि सुबह जाते ही अपने खोके (क्यूबिम) में जो घुसता है तो लौटते समय ही निकल पाता है। घर से दफ्तर और दफ्तर से घर दुपहिया पर, दफ्तर में खोके में। पैदल चलना-फिरना शून्य। दो बरसों में उसका शरीर थुलथुल और वजन नब्बे किलो पार हो गया है। उसे हाई बीपी ने घेरना शुरु कर दिया है। किन्तु कम्पनी को इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है। 

सुयश एक विदेशी विज्ञापन कम्पनी में काम करता है। कम्पनी दृष्य-श्रव्य-मुद्रित (आडियो-विजुअल-प्रिण्ट) विज्ञापन तैयार करती है। उसका समय भी सुबह साढ़े नौ से शाम छःह तक की है। समय पर पहुँचना जरूरी है किन्तु जरूरी नहीं कि शाम छःह बजे छुट्टी मिल ही जाएगी। कभी नहीं मिलती। कम से कम साढ़े आठ तो बजते ही हैं। शनिवार आधे दिन की छुट्टी रहती है किन्तु केवल कागजों पर। एक भी शनिवार ऐसा नहीं आया जब आधे दिन बाद छुट्टी मिल गई हो। रविवार की छुट्टी भी अपवादस्वरूप ही मिल पाती है। कभी स्पॉट रेकार्डिंग के लिए तो कभी आउटडोर शूट के लिए रविवार को जाना पड़ता है। इस अतिरिक्त काम के लिए सुयश को भी कोई अतिरिक्त भुगतान या मुआवजास्वरूप छुट्टी नहीं मिलती। सुबह समय पर पहुँचना अनिवार्य। वापसी का कोई समय नहीं। यहाँ भी केवल कम्पनी-कानून ही चलता है।

ये सारे के सारे कोई काल्पनिक पात्र-प्रसंग नहीं हैं। ये सब बच्चे मेरे पॉलिसीधारक हैं। सीधे मुझसे जुड़े हुए। इनसे जीवन्त सम्पर्क है मेरा। ये सारे के सारे बताते हैं कि इनके साथ काम करनेवाले तमाम लोगों का भी यही किस्सा है। इनकी शब्दावली भले ही अलग-अलग रही किन्तु सब खुद को ‘उच्च तकनीकी शिक्षित, पेकेज के मारे, कुशल बँधुआ मजदूर’ मानते हैं। ये सब अपने-अपने नगरों-कस्बों से, माँ-बाप से दूर बैठे हैं। इनके लिए सारे त्यौहार-पर्व अपना अर्थ और महत्व खो चुके हैं। पारिवारिकता खोते जा रहे हैं। देहातों-कस्बों-गाँवों के छोटे बच्चे जिस उम्र में धड़ल्ले से दादा-दादी, नाना-नानी से बातें कर-करके मनमोहते हुए परेशान कर देते हैं, उसी उम्र के इनके बच्चे बराबर बोल नहीं पा रहे। इनके बच्चों को बात करनेवाले बच्चे और परिजन नहीं मिल रहे। इनकी जिन्दगी दफ्तर और मॉलों तक सिमट कर रह गई है। बाजार की गिरफ्त इतनी तगड़ी है कि बचत के नाम पर भी कोई बड़ा आँकड़ा इनके बैंक खातों में नहीं है। निधि के मुताबिक ये तमाम लोग ‘सुबह हो रही है, शाम हो रही है, जिन्दगी यूँ ही तमाम हो रही है’ पंक्तियों को जीने को अभिशप्त हो गए हैं। बेंगलुरु और पुणे में मालवा के सैंकडों बच्चे नौकरियाँ कर रहे हैं किन्तु इनका आपस में मिलना तभी हो पाता है जब ये किसी प्रसंग पर अपने-अपने नगरों-कस्बों में इकट्ठे होते हैं। 

निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण ने आर्थिक सन्दर्भों में जरूर परिदृष्य बदल दिया है किन्तु अपनी इस पीढ़ी की सेहत, इसकी पारिवारिकता, इसकी सामाजिकता सिक्कों की खनक में गुम हो गई है। पेकेज की प्राप्ति की कीमत कहीं हम अपनी इस समूची पीढ़ी को अकेलापन और अस्वस्थता देकर तो नहीं चुका रहे?
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भैंसों पर विज्ञापन का नवोन्मेषी विचार

हमारे नेता महान् हैं। हम उन पर गर्व करें या उनकी खिल्ली उड़ाएँ, वे महान् हैं। एक ही मुद्दे पर, एक ही समय में, समान अधिकारपूर्वक परस्पर विपरीत और विरोधी राय जाहिर करने का दुसाध्य काम सहजता से कर लेना उन्हें महान् बनाता है। एक और बात उन्हें महान् बनाती है। उन्हें हम पर आकण्ठ विश्वास रहता है कि उनकी तमाम परस्पर विरोधी बातों को हम आँख मूँद कर सच मान लेंगे। वैसे, उन्हें महान् कहने और मानने में हमारी ही भलाई भी है। वे हमारी ही कृति हैं। कोई जमाना रहा होगा जब ‘यथा राजा तथा प्रजा’ वाली कहावत लागू होती रही होगी। अब तो ‘यथा प्रजा तथा राजा’ वाली उक्ति लागू होती है। इसलिए हमारा भला इसी में है कि हम अपने नेताओं को महान् कहते और मानते रहें।

यह सब कहने की जरूरत नहीं हुई होती यदि अखबारों से वाबस्ता नहीं हुआ होता। यही गलती हो गई। यह बड़ी विचित्र स्थिति है कि अखबार न देखो तो दिन भर बेचैनी बनी रहती है कि अखबार नहीं देखे। और देख लो तो दिन भर खुद पर गुस्सा आता रहता है कि अखबार देखने में वक्त क्यों जाया किया? न भी देखते, पढ़ते तो जीवन व्यर्थ नहीं हो जाता। यह दशा लगभग रोज ही रहती है किन्तु कोई एक पखवाड़े से कुछ अधिक ही अनुभव हो रही है। लगभग एक पखवाड़े से इन्दौर में हूँ। छोटे बेटे के पास। करने-धरने को कुछ नहीं। फुरसत ही फुरसत। दूरियाँ इतनी कि किसी से मिलने जाने की कल्पना में ही थकान आने लगती है। महानगरों की दूरियाँ नापने के लिए आपके पास तीन चीजों में से कोई एक होनी चाहिए। पहली-खुद का वाहन। यह न हो तो दूसरी-आपकी जेब में इतने पैसे हों कि आप टैक्सी/ऑटो रिक्शा का खर्च वहन कर सकें। और यह भी न हो तो तीसरी-आपके पास इतना धैर्य और समय हो कि आप जन-वाहन (पब्लिक ट्रांसपोर्ट) की प्रतीक्षा कर सकें। तीसरी स्थिति में आपके पास वह सहन शक्ति भी होनी चाहिए कि आप जन-वाहन की भीड़ और उससे उपजी दूसरी परेशानियाँ सहन कर सकें। मैंने खुद को पहली दो स्थितियों के लिए निर्धन और तीसरी के लिए असहाय-असमर्थ पाया। सो खुद को घर में ही कैद किए रहा। ऐसे में अखबार ही सहारा बने रहे। 

इन पन्द्रह दिनों में बाकी सारे समाचार तो बदलते रहे किन्तु दो समाचार स्थायी स्तम्भ की तरह प्रति दिन नजर आए-पहला, सड़कों पर बैठे आवारा पशु और दूसरा-महानगर में, विभिन्न मुख्य मार्गों पर लगे अवैध हार्डिंग। ये दोनों  ही मुझे यातायात में समान रूप से बाधक लगते हैं। आवारा पशु प्रत्यक्ष रूप से और होर्डिंग अप्रत्यक्ष रूप से। दोनों ही शहर की खूबसूरती को समान रूप से नष्ट करते हैं। अन्तर केवल इतना है कि होर्डिंग कमाई का जरिया बनते हैं, आवारा पशु नहीं। पन्द्रह दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा जब अखबारों ने सड़कों पर बैठे आवारा पशुओं और अवैध होर्डिंगों के फोटू नहीं छापे। किस सड़क पर, कितनी दूरी में कितने अवैध होर्डिंग लगे हैं और कहाँ-कहाँ कितने-कितने आवारा पशु बैठे नजर आए, सब कुछ बड़े चाव से सचित्र छापा और उससे भी अधिक चाव से प्रशासन की उदासीनता तथा जन प्रतिनिधियों के मन्तव्य छापे। यही सब पढ़-पढ़ कर मुझे अपने नेताओं की महानता पर गर्व होता रहा।

आवारा पशुओं को हटानेवाले मामले में में तमाम जन प्रतिनिधियों ने भरपूर उत्साह दिखाया और प्रशासन को पूरी-पूरी सहायता देने की बात कही। सबके शब्द जरूर अलग-अलग थे किन्तु सन्देश एक ही था-प्रशासन आवारा पशुओं को फौरन हटाए। हम किसी भी पशुपालक की सिफारिश नहीं करेंगे और यदि कभी हम खुद फोन करें या हमारे नाम से कोई और फोन करे तो उस पर ध्यान न दें, कड़ी से कड़ी कार्रवाई कर नागरिकों को राहत दिलाए।

किन्तु अवैध होर्डिंगों को हटाने के मामले में एक भी जन प्रतिनिधि एक बार भी इतना उदार नहीं हो पाया। ऐसा लगा, बेचारे सब के सब बहुत ही मजबूर किसम के लोग हैं। एक ने भी नहीं कहा कि अवैध होर्डिंग के विरुद्ध कार्रवाई करने पर उन्हें कोई असुविधा नहीं होगी। इन होर्डिंगों पर इन नेताओं के समर्थकों ने अपने-अपने नायकों के चित्रों सहित खुद के चित्र छपवा रखे हैं। जब उनसे, अपने समर्थकों को इस तरह अवैध होर्डिंंग लगाने से रोकने के लिए कहा गया तो मानो सबके सब बेचारे, लाचार, अपने-अपने कार्यकर्ताओं के बँधुआ हो गए। सबके जवाब एक से बढ़कर एक जैसे रहे। एक ने कहा कि वे जन्म दिन मनाने के पक्षधर कभी नहीं रहे। अपने कार्यकर्ताओं को ऐसे होर्डिंग-बैनर लगाने से मना करते हैं किन्तु वे (कार्यकर्ता) हैं कि मानते ही नहीं। इन नेताजी ने आश्वस्त किया कि वे भविष्य में अपने कार्यकर्ताओं को रोकने का प्रयास करेंगे। दूसरे ने बड़ी ही बेचारगी में कहा कि उन्होंने तो कहा है कि वे (कार्यकर्ता) उनके फोटूवाले बैनर-होर्डिंग न लगाएँ लेकिन वे हैं कि मानते ही नहीं। तीसरे इन दोनों से एक कदम आगे निकले। बोले कि वे खुद तो होर्डिंग लगाते नहीं किन्तु कार्यकर्ता (उनसे) बिना पूछे फोटूवाले बैनर-पोस्टर लगा देते हैं। यह अच्छी बात नहीं है और इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। चौथे ने खुद को सबसे जोड़ा और कहा कि धार्मिक आयोजनों के नाम पर कार्यकर्ता ऐसे बैनर-पोस्टर लगा देते हैं। इस मामले में लोगों को जागरूक करने की जरूरत है। 

दोनों विषयों पर प्रशासकीय अधिकारी भी अलग-अलग मुद्राओं में नजर आए। आवारा पशुओं के मामले में हिटलरी मुद्रा और तेवर अपनानेवाले अफसर अवैध होर्डिंगों के मामले में सुविधावादी भाषा में सामने आए। सबका जवाब लगभग एक ही रहा कि उनका अमला तो रोज ही इन्हें हटाता है किन्तु रोज ही नए भी लग जाते हैं। इसलिए कार्रवाई होती रहने के बावजूद स्थिति वैसी की वैसी ही नजर आती है। जिनसे बात की गई उन तमाम अफसरों ने एक सावधनी (या कहिए कि चतुराई) यह बरती कि इस स्थिति के लिए एक ने भी किसी नेता को जिम्मेदार नहीं बताया और न ही किसी ने किसी नेता से सहायता माँगी। मानो सबको सब कुछ पता हो। 

आदमी खुद से अधिक प्यार किसी को नहीं करता। और वह आदमी यदि नेता हो तो यह स्थिति तो उसे ‘सोने पर सुहागा’ वाली लगती होगी। कौन नेता होगा जिसे अपना नाम, अपना फोटू, अपना प्रचार न सुहाए? इसके विपरीत, वार्ड स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर के प्रत्येक नेता की इच्छा यही होती है कि दसोें दिशाओं में उसका नाम गूँजे, चारों ओर वही नजर आए। अवैध होर्डिंग उनकी यह इच्छा पूरी करते हैं सो इनका विरोध कैसे और क्यों करें? बिना किसी कोशिश के जब मन की मुराद पूरी हो रही हो तो या तो चुप रहो या दूध पीती बिल्ली की तरह आँखें मूँदे आत्म-भ्रम में जीते रहो। कार्यकर्ता जिन्दाबाद।

यह सब सोचते हुए मुझे मेरे कॉलेज के दिनों का एक साथी बड़ी शिद्दत से याद हो आया। सन् 1967-68 में, कॉलेज के छात्र संघ चुनावों में वह उम्मीदवार था। जीत-हार से उसे कोई लेना-देना नहीं था। केवल मजे लेने के लिए उम्मीदवार हो गया था। अपने प्रचार के लिए उसने अद्भुत ‘नवोन्मेषी विचार’ (इन्नोवेटिव आईडिया) अपनाया था। कस्बे में उसे जहाँ-जहाँ सड़कों पर भैंसें नजर आईं, उन सब पर उसने अपने नाम सहित वोट की अपील लिखवा दी। भैंसों की एक विशेषता है कि वे तेज नहीं दौड़तीं। धीमे-धीमे टहलती हैं। अपने मतदाताओं से मिलने के लिए जब दूसरे उम्मीदवार घर-घर जा रहे होते तब मेरा वह मित्र घर बैठा रहता और टहलती भैंसें पूरे कस्बे में उसका प्रचार करती रहतीं। प्रचार का यह अभिनव विचार तब स्थानीय अखबारों में खूब जगह पाए रहा। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि आज के किसी नेता या किसी नेता के किसी कार्यकर्ता को यह ‘नवोन्मेषी विचार’ नहीं आया। वर्ना आवारा पशुओं के विरुद्ध की जानेवाली कार्रवाई को लेकर भी हमार नेताओं के जवाब वे ही होते जो अवैध होर्डिंगों को लेकर हैं।

किन्तु तब भी वे महान् ही होते। आखिर वे हमारे नेता हैं और हमने ही तो उन्हें बनाया है!
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भविष्यफल का जिज्ञासा लोक

छुट्टी का दिन और तेज बरसता पानी। सुबह-सुबह का समय। ऐसे में तेजस आया तो मैंने अनुमान लगाया, निश्चय ही कोई बहुत ही जरूरी काम होगा। ऐसा, जिसे टाल पाना मुमकिन नहीं रहा होगा। मैंने कुछ नहीं पूछा। ‘बड़ेपन’ के अहम् में । यह सोचकर कि बरसते पानी में मतलब से आया हैै तो बताएगा ही। लेकिन उसने तो मुझे भीगो दिया। बोला - थोड़ी जल्दी में हूँ काका! केवल यह कहने आया था कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। आपका संकट काल समाप्ति पर है। बस! स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहना और डॉक्टर से पूछ कर ही कोई दवाई लेना। अभी शास्त्री गुरुजी के यहाँ गया था। आपकी जन्म पत्री दिखाने। पत्री देखकर गुरुजी ने यही कहा। मैं कुछ नहीं बोला। उसे असीसा। चाय पिलाई। वह नमस्ते करके, जिस फुर्ती से आया था, उसी फुर्ती से चला गया। मेरे प्रति उसकी चिन्ता से मेरा जी भर आया। एक बार फिर उसे असीसा। मन ही मन। लेकिन भविष्यवाणी सुनकर हँसी आ गई। यह भविष्यवाणाी है या नेक सलाह? 

ज्योतिष और ज्योतिषियों को मैं अपनी सुविधा से ही लेता हूँ। न तो आँख मूँदकर विश्वास करता हूँ न ही हँसी उड़ाता हूँ। खुद को लेकर ही स्पष्ट नहीं हूँ। भ्रम में हूँ। नहीं जानता इस मामले में आस्तिक हूँ या नास्तिक? लेकिन इस पर निर्भरता और अन्धविश्वास को निरुत्साहित करता हूँ।

कोई चालीस बरस से अधिक का अरसा हो रहा है इस बात को। मन्दसौर में अखबार का सम्पादन करता था तो पाठकों की माँग पर अखबार में जब भविष्यफल छापना शुरु करना पड़ा तो शर्त रखी- सप्ताह में एक दिन छापूँगा। रोज नहीं।मेरी शर्त मान ली गई। एक पण्डितजी से बात तय की और प्रति सोमवार साप्ताहिक भविष्य फल छपने लगा। लेकिन अचानक ही समस्या आ गई। पण्डितजी अकस्मात ही चार धाम यात्रा पर चले गए, तीन महीनों के लिए। हमें कई खबर दिए बिना। इतनी जल्दी किसी पण्डित से बात करना सम्भव नहीं हुआ। मैंने अनायास ही एक प्रयोग करना तय किया। उन दिनों राजा दुबे मन्दसौर में ही था। उसने ताजा-ताजा ही कलमकारी शुरु की थी। ‘धर्मयुग’ में छपनेवाले भविष्यफल का अन्धविश्वासी। इतना कि जिस दिन धर्मयुग आनेवाला होता, उस दिन, तय समय पर रेल्वे स्टेशन पहुँचकर, वहीं बण्डल खुलवाकर धर्मयुग की अपनी प्रति लेता, अपना राशि फल देखता और वहीं अगले सप्ताह के कामकाज का कच्चा खाका बनाकर आगे बढ़ता। मैंने उससे साप्ताहिक भविष्यफल लिखने को कहा। वह अचकचा गया। बोला-‘ऐसा कैसे लिख सकता हूँ?’ मैंने अपनी सारी कुटिलता उँडेल कर, अपनी अकल के अनुसार कुछ गुर बताए, भरोसा बँधाया। तनिक हिचकिचाहट सहित राजा ने साप्ताहिक भविष्यफल लिखना शुरु किया और ऐसा शुरु किया कि चल निकला। अब राजा आत्म विश्वास तथा अधिक उत्साह से साप्ताहिक भविष्यफल लिखने लगा। लेकिन छठवें सप्ताह ही, लिखते-लिखते वह ‘उचक’ गया।  ये तो सब गड़बड़ हो गया भाई सा'ब! मैंने पूछा तो बोला - धर्मयुग में भी ऐसा ही हो रहा हो तो? मैंने भोलेपन से कहा कि ऐसा हो तो सकता है। उसने कलम फेंक दी। बोला आज से भविष्यफल लिखना बन्द और पढ़ना भी बन्द। बड़ी मुश्किल से राजा ने उस दिनवाला भविष्यफल लिखा।

उसी दिन मैंने मेरे कक्षापाठी अर्जुन पंजाबी से बात की। वह अब भी मुझ जैसा ही है। वह फौरन तैयार हो गया। हाँ भरने के बाद पूछा - लेकिन यार! ये बता! लिखूँगा कैसे? मैंने कहा - बहुत आसान है। करना क्या है? कुछ भी तो नहीं! गए दो सप्ताहों के छपे भविष्यफल देख ले। उसमें जो भविष्यवाणी की गई है, उसे आगे बढ़ाते रहना! बस! और अर्जुन ने पहले ही सप्ताह से, पूरे आत्म विश्वास से साप्ताहिक भविष्यफल लिखना शुरु किया और पण्डितजी के, तीर्थ यात्रा से लौटने तक पूरे खिलन्दड़पने से लिखता रहा। 

यह सब याद आने के बाद जिज्ञासा हुई कि इन दिनों भविष्यफल कैसे लिखे जा रहे हैं। मेरे यहाँ डाक से आनेवाले कुछ साप्ताहिक अखबारों में छपे साप्ताहिक भविष्यफल देख कर मेरी तबीयत हरी हो गई। आनन्द आ गया। मुझे लगा, या तो मैं अस्सी के दशक में आ गया हूँ या फिर भविष्यफल लेखन अभी भी अस्सी के दशक में ही ठहरा हुआ है। इन अखबारों के, चालू सप्ताह के बारह राशियों के भविष्यफलों के वर्गीकृत अंश यहाँ पेश कर रहा हूँ। खुद ही सोचिएगा कि ये भविष्यवाणियाँ हैं या नेक सलाहें। इनमें से प्रत्येक वाक्य, अलग-अलग राशि के भविष्यफल का हिस्सा है। 

पारिवारिक सुख-शान्ति: जीवन साथी कीभावना को महत्व न दिया तो कटुता सम्भव है। पारिवारिक स्थितियों में सामंजस्य न रहा तो कटुता सम्भव है। जीवन साथी की शिकायत बनी रहेगी। परिवार में परिजन वाणी संयम न रखेंगे तो विवाद सम्भव है। पारिवारिक स्थितियाँ अनुकूल रहने से सुखद स्थिति बनेगी। जीवन साथी को सहयोग-अपेक्षा पूरी करना हितकर रहेगा। परस्पर अविश्वास से पारिवारिक सामंजस्य गड़बड़ाएगा। परिजन-मित्रों से बेहिचक परामर्श-सलाह लेने से ही  हित होगा।

नौकरी: नौकरी में विरोधियों से सचेत न रहे तो अहित करेंगे। नौकरी में औरों से अलग दिखने से अच्छी पूछ परख होगी। नौकरी में परिवेश अनुकूल बनने से तनाव दूर होगा तथा अधिकारी वर्ग का विश्वास जीतने में सफल होंगे। नौकरी में परिवेश मनचाहा न रहने से मन में असन्तोष रहेगा। नौकरी में सम्हलकर चलना होगा तथा व्यर्थ का पंगा लेने से बचना होगा। व्यर्थ के वाद विवाद एवम् हठ से बचते हुए नौकरी में काम से काम रखना हितकर रहेगा। नौकरी में परिवेश अनुकूल न रहने से असन्तोष रहेगा।

आजीविका: आजीविका के क्षेत्र में कार्य योजना को आगे बढ़ाने पर लाभ की स्थिति बनेगी। आजीविका के क्षेत्र में लक्ष्य तक पहुँचने से कार्यसिद्धि एवम् लाभ होगा। आजीविका की बाधा एवम् समस्या दूर होने से राहत मिलेगी। प्रयास में शिथिलता एवम् लापरवाही का विपरीत प्रभाव कारोबार धन्धे पर पड़ेगा। कारोबार में समयानुसार परिवर्तन से लाभ होगा। आय वृद्धि से बचत की सम्भावना रहेगी। कारोबारी प्रतिस्पर्धा समाप्त होने से आय सन्तोषजनक होगी। धन सम्पत्ति, जोखिम एवम् अग्रिम सौदे के कार्य सावधानी से करने होंगे। अतिरिक्त आय से वित्‍तीय स्थिति सुधरेगी। आकस्मिक व्यय आने से संचित धन व्यय होगा। 

विद्यार्थी: विद्यार्थियों को सहज लक्ष्य नहीं मिलेगा। विद्यार्थियों को अनुकूल परिवेश मिलने से लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे। विद्यार्थियों को बाहरी तड़क-भड़क के बजाय अपने लक्ष्य पर ध्यान देना होगा।  विद्यार्थियों को नई तकनीक का लाभ मिलेगा। विद्यार्थी वर्ग को सहज में सफलता नहीं मिलेगी। 

जीवन निर्देश: वाहन चलाने में सावधानी रखें। अति उत्साह में निर्णय से चूकेंगे। लोभ-लालच से बचना होगा।  बाहरी लोगों से सावधानी से सहायता लेनी होगी। प्रयास में शिथिलता रखी तो बनता काम रुक सकता है। अति उत्साह जोश में लिए गए निर्णय में चूक से हानि सम्भव है। विरोधी के पुनः सक्रिय रहने से तनाव होगा। बिचौलियों से कार्य बिगड़ेगा। 

स्वास्थ्य: स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहना होगा। स्वास्थ्य एवं आत्मबल बने रहने से रुके कार्य पूरे होंगे।

मैं ज्योतिष को न तो खरिज करता हूँ न ही आत्मसात। यह भी मानता हूँ कि ‘राशि फल’ में, उस राशि के तमाम लोग शरीक होते हैं इसलिए उस भविष्यवाणी में स्वाभाविक ही ‘सामूहिक भाव’ होता है। उसमें वैयक्तिकता की तलाश करना ज्योतिष और ज्योतिषी के प्रति अन्याय और अत्याचार ही होगा। वैयक्तिकता की पूर्ति हेतु तो व्यक्तिगत आधार पर ही गणना करनी पड़ेगी। 

मुझे लगता है, भविष्य के प्रति जिज्ञासा अच्छे-अच्छों की (सबकी ही हो तो ताज्जुब नहीं) कमजोरी है। कोई ताज्जुब नहीं कि हर कोई विश्वामित्र की दशा में आ जाता हो। आखिर, नास्तिक होना भी तो एक आस्था ही है! (स्वर्गीय) शरद जोशी ने कहीं लिखाा था कि अमावस की आधी रात को, घने बरगद के नीचे से गुजरते समय अच्छे से अच्छा नास्तिक भी हनुमान चालीसा पढ़ने लगता है। ऐसा ही कुछ भविष्य फल को लेकर भी होता होगा। ज्योतिष के पक्षकार इसे विज्ञान बताते हैं। उनसे असहमत नहीं। किन्तु इस विधा के वैज्ञानिकों तक पहुँचना जन सामान्य के लिए सम्भव नहीं। और जो ज्योतिषी जन सामान्य तक पहुँचते हैं, उनकी ज्योतिष-योग्यता का पता कौन करे?

वैज्ञानिकता और सामान्यता के बीच की यह दूरी ही इन दोनों के अस्तित्व को पुरजोर बनाए हुए है। बनाए रखेगी भी।
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