चिड़िया क्या कहेगी ?


नैतिकता और संस्कारों के बीच स्थायी अन्तर्सम्बन्ध रहता है । नैतिकता का आचरण में रुपान्तरण ही संस्कार होता है । नैतिकता की शिक्षा स्कूली किताबों में दी जा सकती है लेकिन संस्कार-शिक्षा के लिए आचरणगत उदाहरण प्रस्तुत करने पड़ते हैं । वैसे भी ‘ए मेन इज नोन बाय हिज डीड्स, नाट बाय हिज वर्ड्स ।’


संस्कार देने के ऐसे आचरणगत तीन संस्मरणों से ‘अभिमन्त्रित’ एक नायक ने स्वयम् ये आख्यान मुझे सुनाए जिन्हें आप तक पहुँचाने से मैं स्वयम् को रोक नहीं पा रहा हूँ ।


श्री हरीशचन्द्र जोशी (वे अपना नाम इसी प्रकार लिखते हैं), भारतीय जीवन बीमा निगम की उस शाखा के प्रबन्धक हैं जिससे मैं सम्बध्द हूँ । जोशीजी की उम्र इस समय 45 वर्ष है । वे मूलतः, राजस्थान के ग्राम पिण्डावल के निवासी हैं । बाँसवाड़ा से उदयपुर जाते हुए, कोई 50 किलोमीटर बाद यह गाँव आता है ।


जोशीजी का परिवार ‘निर्धन’ की श्रेणी में ही आता था । उनकी माताजी धूली बाई, अपने माता पिता की इकलौती सन्तान हैं । जोशीजी का पूरा परिवार उन्हें ‘बा’ सम्बोधित करता है । ‘बा’ की आयु इस समय लगभग 75 वर्ष है ।


उस समय जोशीजी की अवस्था लगभग 11 वर्ष रही होगी । परिवार के पास बहुत थोड़ी खेती थी - नाम मात्र की । फसल इतनी भी नहीं होती थी कि परिवार का काम पूरे वर्ष चल जाए । इसके बावजूद, फसल कटाई के समय गाँव के पुजारी, वर्ण व्यवस्था के अनुपालन में गाँव की सेवा करने वाले नाई, चर्मकार, मेहतर आदि को, फसल का एक-एक चाँस दिया जाता था । वह चाँस, सम्बन्धित व्यक्ति खेत से काट कर अपने घर ले जाता । जोशीजी को यह नहीं सुहाता था । ‘जब अपने लिए ही पर्याप्त नहीं है तो दूसरों को क्यों दिया जा रहा है ?’ जैसा सवाल उन्हें लगातार कुरेदता रहता था ।


उस वर्ष जोशीजी के खेत में गेहूँ की फसल खड़ी थी । निर्धारित लोगों के लिए समुचित चाँस छोड़कर, फसल की कटाई हो रही थी । ‘बा’ आगे-आगे, गेहूँ के, सुनहरी बालियों वाले पौधों को काटती जा रही थी और 11 वर्षीय हरीश, ‘बा’ के पीछे-पीछे चल रहा था । हरीश ने देखा कि कटाई के दौरान कुछ टूटी हुई बालियाँ खेत में गिरी पड़ी हैं । अभाव व्यक्ति को अल्पायु में ही सयाना बना देता है । सो, हरीश ने उन टूटी बालियों को एकत्रित करना शुरु कर दिया । थोड़ी ही देर में हरीश के पास इतनी बालियाँ जमा हो गई कि वह मारे प्रसन्नता के ‘बा‘ को अपनी उपलब्धि बताने से नहीं रह सका । ‘बा‘ ने अपने हरीश के चेहरे पर, परिवार के लिए कुछ सार्थक कर लेने की प्रसन्नता, और गर्व की स्वर्णिम आभा देखी और पीठ थपथपाई । लेकिन अगले ही क्षण ‘बा’ ने कहा - ‘ये बालियाँ खेत में ही रहने दो ।’ ‘बा‘ की बात हरीश की समझ में नहीं आई । उसका परिश्रम, उससे उपजी प्रसन्नता और घर के लिए कुछ कर लेने का सन्तोष उससे छीना जा रहा था । हरीश ने पूछा - ‘क्यों फेंक दूँ ?’


उत्तर में ‘बा’ ने जो कुछ कहा, उसे तब का हरीश, आज एलआईसी का ब्रांच मैनेजर बनकर भी नहीं भूल पाया । ‘बा‘ ने कहा - ‘सवेरे जब मैं घर से खेत के लिए निकलती हूँ तो तुमसे कह कर आती हूँ कि शाम को तुम्हारे लिए खेत से यह लाऊँगी, वह लाऊँगी । लेकिन किसी दिन मैं वह सब नहीं ला पाती हूँ तो तुम्हें अच्छा नहीं लगता । तुम्हें निराशा होती है । लगता है, तुम्हारी माँ तुमसे झूठ बोल गई ।


‘इसी प्रकार चिड़िया जब सवेरे अपने घोंसले से निकलती है तो अपने बच्चों से कह कर निकलती है कि शाम को वह उनके लिए दाना लेकर आएगी । अब चिड़िया तो खेती करती नहीं ! वह दाना कहाँ से लाए ? सो, ये जो टूटी हुई बालियाँ हैं, ये उसी चिड़िया के लिए है । तुमने यदि ये बालियाँ समेट लीं तो चिड़िया को खाली हाथ जाना पड़ेगा । तब वह अपने बच्चों को क्या जवाब देगी ? कैसे उनका पेट भरेगी ? इसलिए, इन बालियों को समेटो मत, खेत में ही रहने दो ।’


यह सब कहते-कहते, दो बच्चों के पिता, जोशीजी का गला रुँध गया । बोले - ‘‘लेकिन ‘बा’ इतना कह कर ही नहीं रुकीं । बोलीं - ‘पुरुषार्थी की कमाई में सत्रह प्राणियों का हिस्सा होता है । वह केवल अपने लिए परिश्रम नहीं करता । इन सत्रह प्राणियों में तुम्हारी चिड़िया, गाँव के पुजारीजी, नाई, धोबी, कुम्हार जैसे तमाम लोग हैं जो वर्ष भर हमारे काम आते हैं । वे वर्ष भर हमारा ध्यान रखते हैं तो वर्ष में एक बार हमने भी उनका ध्यान रखना चाहिए ।’


वह दिन और आज का दिन । ‘चिड़िया’ जोशी के अन्तर्मन में जस की तस फुदक रही है । वे अपने परिवार के लिए जब भी कुछ सरंजाम जुटाते हैं तो परिवार की सेवा करने वालों के लिए भी ‘कुछ न कुछ’ लेकर लौटते हैं ।


सहअस्तित्व, सहभागिता और एक दूसरे की चिन्ता करने का जो संस्कार ‘बा’ ने अपने आचरण से दिया, वह मानो जोशीजी के रोम-रोम में बिंध गया है । वे चाहें तो भी उससे मुक्त नहीं हो सकते ।


‘बा‘ के ‘संस्कारदान’ के शेष दो संस्मरण आपके कर्ज की तरह मेरे माथे बाकी रहे ।

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7 comments:

  1. नैतिकता और संस्कार के अंतर्संबंधों पर आपके विचार उत्कृष्ट हैं. संस्कृति और संस्कार को जो लोग धर्म से जोड़कर देखते हैं उन्हें इस तथ्य पर विशेष ध्यान देना चाहिए.

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  2. उत्तम प्रस्तुतिकरण! जोशी जी और आपको धन्यवाद इस संस्मरण को प्रकाशित करने के लिये

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  3. संस्कारों की ये फ़ुहार मन को भीतर तक भिगो गई । मां होने के नाते मैं भी लगातार कोशिश करती हूं ,अब तक लिए संस्कारों को अपने बच्चों में रोपने की और जीवन के नए अनुबवों से सीखने की । लेकिन भागती - दौडती ज़िंदगी के बेरहम सुलूक कई बार मन की उहापोह और बैचेन बढा देते हैं । लगता है दुनिया का दस्तूर कुछ बदल सा गया है और संस्कार हमें रोकते हैं ,उसका हिस्सा बनने से । बकौल गालिब - इमां मुझे रोके है ,जो खींचे है मुझे कुफ़्र । काबा मेरे पीछे है , कलीसा मेरे आगे ।

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  4. बहुत बेहतरीन प्रस्तुति.

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  5. आपकी समाचार ना छपने का समाचार को आधार बना कर मैंने एक पोस्ट लिखी है । वक्त मिलने पर मार्गदर्शन ज़रुर करें ।

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  6. keep it up i like this blog..........

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  7. "पुरुषार्थी की कमाई में सत्रह प्राणियों का हिस्सा होता है।"
    बा प्रणम्य हैं. संकट और अभावों का वीरता से सामना करते हुए जो लोग सत्य के मार्ग से नहीं डिगे वही सही अर्थों में पुरुषार्थी हैं.

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