'शब्‍द' के सम्‍मान की वापसी



‘दैनिक भास्कर’ के, प्रति शनिवार को प्रकाशित होने वाले सिनेमा परिशिष्‍ट ‘रसरंग’ में ‘स्वर पंचमी’ शीर्षक से यूनुस भाई का स्तम्भ प्रकाशित होता है ।

आज के अंक में ‘ लफ़जों के सौदागर’ शीर्षक वाले अपने आलेख में यूनुस भाई ने 6 गीतकारों, सर्वश्री मुन्ना धीमन, इरशाद कामिल, नीलेश मिश्र (जिन्हें अंगे्रजी ने ‘मिश्रा’ बना दिया है), सईद कादरी, स्वानन्द किरकिरे और प्रसनू जोशी पर महत्वपूर्ण और रोचक जानकारी दी है ।

वह जमाना और था जब गीतकारों के नाम लोगों के जेहन में बसा करते थे । आज, बाजार ने निर्ममतापूर्वक कलमकारों को नेपथ्य में धकेल दिया है । आज ‘लिखने वाले’ पर ‘बिकने वाले’ भारी पड़ रहे हैं । ऐसे में यूनुस भाई ने ‘कलम’ और ‘शब्द’ का महत्व रेखांकित करते हुए ‘शब्द’, ‘कलम’ और ‘कलमकार’ के सम्मान की वापसी की बहुत ही सुन्दर कोशिश की है । ।

मुझे साफ-साफ लग रहा है कि आलेख का शीर्षक यूनुस भाई ने नहीं दिया होगा । यदि वे शीर्षक देते तो ‘सौदागर’ की जगह ‘शिल्पकार’ या फिर ‘चितेरे’ लिखते ।

यूनुस भाई का आलेख पढ़ कर मन को बहुत ठण्डक मिली ।

अर्जुन का समाचार



‘‘आज के इस आतंकी आकाश में फैली दहशत भरी हवाओं में और इस विसंगत समय में, जब सुरक्षा का भरोसा देने वाला हर बाजू विकलांग हो चुका हो और जबकि देश के पहरेदार-कर्णधार भी भ्रष्ट आचरण की गलियों में गुम हैं, अविश्वास-असुरक्षा-भय की सुरंगों में हर जिन्दगी का दम घुट रहा हो और सारी ‘सदी’ भागीरथ के पूर्वजों की तरह अकाल मृत्यु से ग्रस्त, उध्दार की अभिलाषा में गंगा की बाट जोहती हो, तब एक पक्ष किसी भागीरथ की तरह विश्वस्त और भरोसेमन्द रह गया है, हम उसी पक्ष ‘समाचार-पत्र’ की सुरक्षा-भरोसे में आज जी रहे हैं । ऐसे ही भरोसे की कड़ी में एक और कड़ी जुड़ गई, वह है ‘महक पंजाब दी’ पत्रिका ।

’’विश्वास कीजिएगा, यह उध्दरण किसी पुस्तक समीक्षा का नहीं बल्कि एक समाचार का अंश है जो साप्ताहिक उपग्रह के, 22 से 28 मई वाले अंक में प्रकाशित हुआ है । मेरे बाल सखा अर्जुन पंजाबी ने यह समाचार लिखा है । अर्जुन केवल मनासा का ही नहीं, मालवा के बड़े हिस्से का स्थापित और लोकप्रिय लेखक है । उसके सामयिक लेख, व्यंग्य और कहानियाँ नीमच-मन्दसौर के लगभग समस्त अखबारों में नियमित रूप से तथा देश के विभिन्न नगरों से प्रकाशित हो रहे पत्र-पत्रिकाओं में प्रायः ही छपते रहते हैं ।

ऐसी भाषा किसी समीक्षा की तो हो सकती है लेकिन समाचार की तो बिलकुल ही नहीं । अर्जुन के लिखे इस समाचार ने मेरी बहुत बड़ी उलझन दूर कर दी । मैं समझ नहीं पा रहा था कि हमारे कलमकारों को लोक-स्वीकार और लोक-सम्मान उतना और उस तरह क्यों नहीं मिलता जैसा कि अन्य भारतीय भाषाओं के कलमकारों को मिलता है । इस समाचार ने मुझे उत्तर दे दिया ।

स्वाधीनता संग्राम के दौर में साहित्यकार और पत्रकार प्रायः समानार्थी और पर्यायवाची बने हुए थे । वे जो भी लिखते थे, वह न केवल लोगों को समझ पड़ता था अपितु लोगों को वह लिखा हुआ अपने मन की बात लगता था । साहित्य की अपनी कोई अलग भाषा नहीं होती थी । जन भाषा ही साहित्य की भाषा होती थी । इसीलिए बच्चा-बच्चा उन कलमकारों को व्यक्तिश: भले ही न जानता रहा हो, उनके प्रति भरपूर सम्मान अपने मन में संजोए रखता था । हिन्दी से इतर अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों से उनके पाठकों के आत्मीय जुड़ाव का कारण भी यही है ।

लेकिन हिन्दी के मामलें में आज स्थिति बिलकुल ही बदल गई है । हमारे कलमकारों की भाषा किसी और दुनिया की भाषा लगती है । वे खुद को स्थापित करने के लिए जो ‘शाब्दिक पिश्ट पेषण’ करते हैं उसका जन सामान्य से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं होता । लेखकों के लिखे में लोग अपने आप को तलाश करते हैं और उन्हें मिलता है दूसरे ग्रह की भाषा वापरने वाला कोई ‘एलियन ।’ परिणाम यह होता है कि कलमकारों के बीच भले ही आप स्थापित हो जाएँ लेकिन पाठकों के संसार से आप विस्थापित हो जाते हैं । यह विस्थापन ही अन्ततः सम्वादहीनता से होता हुआ लेखकों के प्रति विकर्षण तक पहुँचता है । मुझे लगता है कि हमारे अधिसंख्य कलमकार इसी कारण ‘लोक’ से बहिष्कृत हो, ‘परलोकवासी’ हो गए हैं । जाहिर है कि इस स्थिति और दशा के लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं ।

हमारे कलमकारों को इस सन्दर्भ में हिन्दी ब्लाग जगत को ध्यान से देखना चाहिए । यहाँ दिल की बात सीधे जबान पर आ रही है । भाषा के पेंच और घुमाव यहाँ नदारत हैं । अनगढ़ता लिए इसकी भाषा की सहजता और सीधापन इसकी सबसे बड़ी सुन्दरता बन कर उभर रहा है । यहाँ राजपथ के आतंक की बजाय अपने गाँव-खेड़े की पगडण्डी पर उन्मुक्तता से चलने का आनन्द मिलता है ।

अपनी भावनाएँ जताते हुए मैं ने अर्जुन को पत्र लिखा । उत्तर में उसने फोन पर बात की और बड़ी देर तक की । मैं डर रहा था कि उसका ‘परलोकवासी कलमकार’ हमारी मित्रता के प्राण न ले ले। लेकिन मुझे बड़ी राहत मिली (जो वस्तुतः मुझ पर अर्जुन की कृपा ही है) कि अर्जुन ने सारी बातों को न केवल सहजता से लिया बल्कि मेरी बातों को ‘जस का तस’ स्वीकार भी किया ।

पूर्ववर्ती साहित्यकार लोगों के लिए लिखते थे तो लोग उन्हें सर-आँखों पर उठाते थे । अब लेखक खुद के लिए लिखते हैं तो उन्हें स्वाभाविक रूप से अकेलापन झेलना ही पड़ेगा । हमारे लेखकों के होठों पर जब तक ‘मैं’ रहेगा, वे अकेले रहने को अभिषप्‍त रहेंगे । जिस दिन उनके होठों पर ‘आप’ आ जाएगा उस दिन वे अपने पाठकों से इस तरह और इस सीमा तक घिरे रहेंगे कि एकान्त लिए तरसने लगेंगे ।

आप साहित्य को जन-भाषा नहीं बना सकते । आपको जन भाषा में साहित्य रचना पड़ेगा ।

अर्जुन को धन्यवाद । उसने मेरी बहुत बड़ी जिज्ञासा का समाधान कर दिया ।
(मेरी यह पोस्ट, (तनिक हेर-फेर के साथ) रतलाम से प्रकाशित हो रहे ‘साप्ताहिक उपग्रह’ के,, 29 मई 2008 के अंक में, ‘बिना विचारे’ “शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित हुई है ।)

इन्हें कैसे रोकें ?



कर्नाटक विधान सभा के चुनाव परिणामों के राजनीतिक विश्‍लेषण तो होते रहेंगे लेकिन परास्त हुई कांग्रेस के नेता एस. एम. क्रष्‍णा और जद (यू) के नेता, पूर्व मुख्यमन्त्री (विश्वासघाती) कुमारस्वामी ने जिस शहीदाना अन्दाज में, उदारता बरतने की मुद्रा में पराजय स्वीकार की वह चैंकाने वाली है ।

इन दोनों ने यह स्वीकारोक्ति ऐसे की मानो कर्नाटक के मतदाताओं पर उपकार कर रहे हों । दोनों ने मतदाताओं के फैसले को स्वीकार तो किया लेकिन ऐसे, मानो वे चाहते तो मतदाताओं के इस फैसले को अस्वीकार भी कर सकते थे लेकिन यह उनका बड़प्पन है कि इस फैसले को स्वीकार कर रहे हैं ।

हारने वाले दल के नेता ऐसा ही पाखण्ड करते हैं । एक भी कबूल नहीं करता कि मतदाताओं ने उन्हें खारिज कर दिया है और उन्हें बड़े ही अनमनेपन से अब प्रतिपक्ष में बैठना पड़ेगा । लोगों की सेवा करने के नाम पर ये लोग वोट माँगते हैं और जीतने पर, सत्ता में जाते ही सबसे पहले लोगों को भूलते हैं और हारने पर, मन ही मन लोगों को कोसते हैं, उन्हें मूर्ख समझते हैं और इसीलिए लोकतान्त्रिक आदर्श की दुहाइयाँ देते हुए, मतदाताओं को कोसते हुए, प्रतिपक्ष की कुर्सियों पर बैठते हैं । याने, ये लोग जीतें या हारें, सत्ता में बैठें या प्रतिपक्ष में - ये सदैव मतदाताओं पर उपकार ही करते हैं ।

अभी-अभी, कोई एक अठवाड़ा पहले, मेरे प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चैहान मेरे शहर में आये थे । कोई छः माह बाद मध्यप्रदेश में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं सो शिवराज की दुम में आग लग गई है और वे चैन से नहीं बैठ पा रहे हैं । नारी सशक्तिकरण सम्मेलन के नाम पर पूरे जिले से महिलाओं को रतलाम लाया गया था । इस हेतु सरकार ने विधिवत बजट प्रावधान भी किए थे । महिलाओं से अपनापा जोड़ने की चुनावी ललक में शिवराज ने कहा कि वे पूरे प्रदेश की महिलाओं के भाई हैं और प्रदेश की बच्चियों के मामा । वे कह गए कि अब मध्य प्रदेश में उनकी कोई भी बहन और कोई भी भानजी असुरक्षित नहीं रहेगी ।

तालियाँ बजवाने के लिए यह बहुत ही सही बात थी । लेकिन उनके जाने के अगले ही दिन से, अखबारों में किसी न किसी महिला के साथ बलात्कार, दुराचरण के और किसी न किसी बालिका के साथ अशालीन हरकतों के समाचार निरन्तर छप रहे हैं । शिवराज को चाहिए कि वे अखबारवालों को विशेष रूप से धन्यवाद दें कि अखबारवाले ‘मुख्यमन्त्री की बहन को डायन के सन्देह में पीट-पीट कर मार डाला’, ‘मुख्यमन्त्री की नौ वर्षीया भानजी के साथ बलात्कार’ जैसे शीर्षक नहीं दे रहे हैं ।

चुनाव हर साल कहीं न कहीं होते हैं और महिलाओं/बालिकाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएँ अब सामान्य होती जा रही हैं । ऐसे में, केवल तालियाँ पिटवाने के लिए, रिश्ते जोड़ने वाले ऐसे जुमले उच्चारित करने के क्या मायने ? शिवराज की सगी बहन या सगी भानजी के साथ कोई बड़ी दुर्घटना की बात तो दूर रही, सड़क के दूसरे किनारे से उनकी तरफ यदि कोई मनचला आँख भी मार दे पुलिस वाले उसका चेहरा-चोला बदल देंगे । लेकिन दूरदराज के गाँव-खेड़ों में महिलाओं/बच्चियों के साथ हो रही दुर्घटनाओं की तो एफआईआर भी नहीं लिखी जाती ।

सवाल यही उठता है कि हमारे नेता, जिस सीनाजोरी से, जिस बेशर्मी से, उपकारी मुद्रा में हमसे मुखातिब होते हैं, हमें उपदेश दे जाते हैं - उससे उन्हें कैसे रोका जाए ? सामान्य मतदाता दो वक्त की रोटी जुटाने में ही लगा रहता है इसीलिए वह चाहते हुए भी एकजुट नहीं हो पाता । जन सामान्य की इस विवश असहाय स्थिति का दुरूपयोग हमारे नेता बड़ी सहजता से करते चले आ रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे ही ।

इन्हें कैसे रोका जाए ।

नासमझी का सुख


हम अतीत की मरम्मत नहीं कर सकते । इसलिए समझदारी इसी में है कि उसे केवल यादों के झरोखों से ही देख जाए, उसे वर्तमान से जोड़ने की मूर्खता कर हम दुखी ही होंगे । यही सबक लेकर मैं अपने जन्म नगर मनासा से लौटा ।

एक विवाह में शरीक होने के लिए, पत्नी और नवोढ़ा बहू के साथ मनासा गया था । नगर प्रवेश के लिए टैक्सी ने जैसे ही मोड़ लिया, मैं तनिक अधीर हो उठा । मेरा हायर सेकेण्डरी स्कूल इसी रास्ते पर है । उसे देखने की अजीब सी अकुलाहट मन में ऐसे फूटी जैसे मूसलाधार बरसात के दौरान जंगल में बाँस का कोई अंकुर चट्टान का सीना फाड़ कर धरती पर उग आता है ।

जैसे-जैसे स्कूल पास आता जा रहा था, वैसे-वैसे मन विविधवर्णी होता जा रहा था । लग रहा था कि मैं टैक्सी में हूँ तो जरूर लेकिन वस्तुतः वहाँ हूँ ही नहीं । वहाँ होकर भी न होने की ऐसी अनुभूति मेरे लिए पहली बार थी सो अनूठी और अव्यक्त थी । मैं अपने हृदय की धड़कन की ‘धक्-धक्’ साफ-साफ सुन पा रहा था । कानों में सीटियाँ बजने रही थीं और शरीर पर मानो चींटियाँ रेंग रही थीं । ‘बेभान’ होने की यह दशा लगभग वैसी ही थी जैसी कि, राजस्थान-मालवा के गाँव-खेड़ों में देवी-देवता के ‘भाव’ आने वालों की दिखाई देती है ।

लेकिन यह क्या ? मेरी तन्द्रा भंग हो गई । टैक्सी अस्पताल को पार कर रही थी जबकि स्कूल तो अस्पताल से पहले था ! स्कूल कहाँ चला गया ? मैं ने टैक्सी रुकवाई और ड्रायवर से कहा - गाड़ी पीछे लो । पिछली सीट पर बैठी पत्नी की आँखें में उठा सवाल जबान तक नहीं आया । मेरे कहने पर ड्रायवर ने गाड़ी रिवर्स में ही ली, धीरे-धीरे । स्कूल फिर से निकल न जाए इसलिए आँखों को, जोर देकर खुली रखनी पड़ी । स्कूल बिल्डिंग कहीं नजर नहीं आ रही थी । ऐसे में, स्कूल के ‘गेट’ ने सहायता की । वह मानो ‘जीवाष्म’ बन कर खड़ा था - लगभग वैसा का वैसा जैसा कि मैं 1964 में छोड़ कर आया था ।

गाड़ी रूकवाई लेकिन नीचे उतरने की हिम्मत नहीं हुई । गेट की, लगभग पचीस-तीस फीट की चैड़ाई भर स्कूल नजर आ रहा था । सुन्दरता के लिए की गई टेड़ी-मेढ़ी घड़ावट वाले पत्थरों के डग्गरों के कुल जमा दो खम्भे ही नजर आ रहे थे । उनके पीछे आठ-दस फीट की चैड़ाई वाले बरामदे पर सुवाखेड़ा के चैकोर पत्थरों का फर्श साफ-साफ नजर आ रहा था और उसके बाद थी, पीडब्ल्यूडी द्वारा पोते गए चूने की सफेदी वाली दीवार । बस । इससे अधिक कुछ भी नहीं ।

मैं हतप्रभ था । यह तो मेरा स्कूल नहीं है ! ‘मेन गेट’ से कोई सौ-सवा सौ कदमों से पार किया जाने वाला मैदान और उसके बाद स्कूल का भवन । सब कुछ, मेंहदी की ऊँची बागड़ से घिरा हुआ । ऐसा लगता था, भूरे-मटमैले पत्थरों वाले खम्भों वाला बरामदा, बरामदे पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ और स्कूल भवन मानो मेंहदी के पौधों की हरी-हरी फुनगियों के आधार पर टिके हुए हों । सड़्क के दूसरे किनारे से मुझे मेरा स्कूल किसी परी महल जैसा दिखता था । यह अलग बात थी कि वहाँ परियों के बजाय रूखा पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले अध्यापक होते थे जिनमें से कुछ को हम बहुत चाहते थे थे तो किसी से बहुत ज्यादा चिढ़ते, घबराते और डरते थे । स्कूल का खेल मैदान इतना लम्बा-चैड़ा कि सारे मैदानी खेल एक साथ आयोजित कर लिए जाएँ । इस मैदान को समतल करने और उसे साफ-सुथरा बनाने के लिए बीसियों बार पूरे स्कूल के बच्चे लगा दिए जाते थे । यह मैदान हमें अपनी सम्पत्ति लगता था । लेकिन जब सजा के तौर पर इस मैदान का एक चक्कर लगाना पड़ता तो यही सम्पत्ति हमें दुखदायी लगती थी ।

लेकिन, स्कूल के मेन गेट के ठीक सामने खड़ी टैक्सी में से कुछ भी नजर नहीं आ रहा था । न तो मैदान, न किसी कमरे की खिड़की । स्कूल का, मुख्य सड़क वाला पूरा हिस्सा दुकानों से ढँका हुआ था । अजीब बात यह थी कि इन दुकानो में कापी-किताबों की दुकान अपवादस्वरूप ही थी । मैं अपना स्कूल देखना चाह रहा था, वहाँ की गई शरारतें, धृष्टताएँ, गेदरिंग की रोशनियाँ, प्राचार्य के खिलाफ निकाले गए जुलूस, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के लिए दिन-रात रट कर तैयार किए गए भाषण और उन पर बजती तालियों की आवाजें सुनना चाह रहा था लेकिन मुझे नजर आ रहे थे रेडीमेड शर्ट, जीन्स, साड़ियाँ, टाप, बरमूडा और सुनाई पड़ रही थी दुकानदारों-ग्राहकों द्वारा किए जा रहे मोल-भाव, आती-जाती बसों, कारों, फटफटियों के इंजनों की गुर्राहटें और हार्नों की, पिघलते सीसे जैसी आवाजें ।

मैं अकबका गया । कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था । मेरी दशा, खिलौनों की दुकान के सामने खड़े उस बच्चे जैसी हो गई थी जो यह देखकर हताश था कि दुकान में उसके मनपसन्द खिलौने के सिवाय बाकी सारे खिलौने हैं । लग रहा था मानो मेरा सब कुछ लुट गया है या फिर जिस देवता से मैं सब कुछ माँगने आया था वह देवता ही मेरे सामने विवश-मूक खड़ा है । इतना विवश कि मुझसे अपनी असहायता भी व्यक्त नहीं कर पा रहा है । मेरी साँसें घुटने लगी थीं । मुझे रूलाई आ रही थी लेकिन ‘समझदारी’ आड़े आ रही थी । कुदरत और समझदारी के संघर्ष में दम इतना घुटने लगा था मानो मेरे प्राण ही निकल जाएँगे । मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था । मेरी कल्पना का इन्द्रधनुष गुम था ।

या तो मेरा ध्यानाकर्षित करने के लिए या फिर सचमुच में किसी वाजिब वजह से ड्रायवर ने एक्सीलरेटर पर दाब बढ़ाकर रेज दी । एंजिन की, अचानक तेज हुई गुर्राहट ने मेरी तन्द्र भंग की । ऐसा लगा, एंजिन ही जीवित है और टैक्सी में बैठे हम सब निर्जीव । मेरे मँह से निकला ‘चलो । गाड़ी बढ़ाओ ।’ तीन शब्दों वाले ये दो वाक्य मानों किसी गहरे कुए की तलछट से, तैरते-तैरते मुँडेर पर आए थे ।

विवाह में शरीक होकर मैं लौट तो आया लेकिन मन अब तक स्कूल की तलाश में वही, सड़क पर खड़ा है । मेरा दिल वहीं है लेकिन दिमाग मुझ पर हँस रहा है । पूछ रहा है - ‘स्कूल वैसा का वैसा ही नजर आता तो क्या कर लेते ?’ कोई जवाब नहीं सूझ रहा इस सवाल का । जवाब नहीं मिले तो ही अच्छा है । क्या पता, जवाब और अधिक पीड़ा दे जाए ।

जीवन का आनन्द नासमझी में अधिकता से लिया जा सकता है । समझदार की मौत है ।

अपने पेशे का सम्मान


खण्डवा का समाचार पढ़ कर मुझे ‘पूत माँगने गई थी, खसम गँवा कर लौटी’ वाली कहावत याद आ गई । वहाँ, ‘कौमी एकता वारसी ग्रुप’ द्वारा आयोजित मुशायरे के मंच पर, नामचीन शायरों के बीच दो स्थानीय नेताओं को भी बैठा लिया । दोनों नेता वरस्पर विरोधी थे । जाहिर है कि ये नेता अपनी मर्जी से नहीं बल्कि बुलाने पर ही गए थे ।

रात कोई साढ़े ग्यारह बजे मुशायरा शुरू हुआ । दो शायरों ने अपना कलाम पेश किया । मुशायरे की रंगत बढ़ने लगी थी । कोई साढ़े बारह बजे जनाब नईम फराज माइक पर आए । उन्होंने शेर पढ़ा -

ताज रखा है सरों पर जमाने ने उनके
थे जो उस्ताद के जूतों को उठाने वाले

शेर सुनते ही दोनों नेताओं ने एक दूसरे को देखा और इशारों ही इशारों में एक दूसरे को ‘उस्ताद के जूते उठाने वाले’ कहा । बस, फिर क्या था ! मारपीट शुरू हो गई और ऐसी हुई कि भगदड़ मच गई । बड़ी मुश्किल से स्थित नियन्त्रित की जा सकी ।

मुशायरा फिर शुरू हुआ और सेवेर पाँच बजे समाप्त हुआ । खण्डवा के लोगों को आनन्द तो आया लेकिन इस बात का मलाल आजीवन रहेगा कि साहित्यिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में अपनी विशिष्ट पहचान वाले उनके प्यारे शहर की परम्परा कलंकित हो गई ।

खण्डवा का समाचार पढ़ कर मुझे रतलाम की, लोक कथा बन चुकी, एक घटना याद हो आई । एक साहित्यिक संस्था ने प्रेमचन्द जयन्ती आयोजित की । आयोजन की रूपरेखा पर विचार-विमर्श के दौरान सुझाव आया कि नगर के अग्रणी राजनेता को मुख्य अतिथि बनाया जाए । अधिकांश लोग इससे सहमत नहीं थे लेकिन ये ‘अधिकांश’ ‘मिमिया’ रहे थे जबकि नेताजी को बुलाकर अपनी ‘झाँकी’ जमाने वाले गिनती के लोग ‘दहाड़’ रहे थे । ‘मिमियाहट’ पर ‘दहाड़’ भारी पड़नी ही थी । पड़ी ।

तयशुदा समय पर नेताजी पधारे । कुर्सी पर बिराजे । संस्थाध्यक्ष के निर्देश पर सूत्रधार ने माइक सम्हाला । ‘संचालन का सौजन्य’ बरतते हुए उन्होंने कार्यक्रम शुरू करने की अनुमति माँगी । वे आगे बढ़ते उससे पहले ही नेताजी ने टोका - ‘पहले प्रेमचन्दजी को तो आ जाने दो ।’ सभा में हँसी बिखर गई । मिमियाने वाले खुल कर हँस रहे थे और दहाड़ने वाले मिमिया भी नहीं पा रहे थे । नेताजी को न तो समझ आया और न ही उन्होंने कुछ समझना ही चाहा । वे अपनी स्थापित ‘बिन्दास’ मुद्रा में सस्मित बैठे थे । बैठे रहे ।

उस आयोजन का क्या हुआ - यह जाने दीजिए । बस, यूँ समझ लीजिए कि जयन्ती के स्थान पर प्रेमचन्दजी की पुण्यतिथि मन गई ।

आयोजन की विषय वस्तु से असम्बध्द लोगों को महफिल में बुलाने पर कैसी जग हँसाई होती है, यह इन दोनों हकीकतों से समझा जा सकता है । ऐसी घटनाएँ प्रायः ही होती रहती हैं । कुछ प्रकाश में आ जाती हैं जबकि ऐसी अधिकांश घटनाएँ लोगों तक पहुँच ही नहीं पातीं । जेबी संस्थाओं के आयोजनों में ऐसी घटनाएँ अत्यन्त सहजता से ली जाती हैं क्यों कि उन आयोजनों और आयोजकों का मकसद वह नहीं होता जो विज्ञापित और प्रचारित किया जाता है ।

गाँधी ने साध्य की शुचिता के साथ-साथ साधनों की शुचिता पर भी जोर दिया था । उनका कहना था कि अपवित्र साधनों से पवित्र साध्य कभी नहीं साधा जा सकता । लेकिन गाँधी की बातें गाँधी के साथ चली गईं । अब तो आयोजन महत्वपूर्ण है, आयोजन के लिए जुटाए गए अपवित्र संरजामों पर न तो कोई गौर करता है और न ही कोई ऐसे अपवित्र संरजामों का बुरा ही मानता है । शायद इसीलिए यह हो सका कि गए दिनों नीमच में सम्पन्न एक बड़े साहित्यिक आयोजन में दारू के एक ठेकेदार को केवल इसलिए मंचासीन कर मालाएँ पहनाई गई क्यों कि प्रतिभागी साहित्यकारों के सुस्वादु भोजन का भार उसने उठाया था । भोजन करते हुए, प्रतिभागी साहित्यकारों को स्वाद आया या नहीं लेकिन मेरे मुँह का जायका तो यह समाचार पढ़ कर ही बिगड़ गया - ‘द-दवात का’ से बदल कर ‘द-दारू का’ जो हो गया था !

ऐसे में मुझे, गए दिनों मेरे शहर रतलाम में सम्पन्न एक फोटो प्रदर्शनी का आयोजन बहुत ही भला लगा । आज का रतलाम पूरी तरह से व्यापारिक-वाणिज्यिक शहर है । किसी जमाने में यहाँ साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का अविराम सिलसिला चला करता था । नाटकों के प्रेक्षागृह ठसाठस भरे रहते थे । कवि सम्मेलनों के लिए एक रात कम पड़ती थी । नीरजजी तो आज भी रतलाम के नाम पर नंगे पाँवों चले आते हैं । तब का ऐसा कोई स्थापित साहित्यकार-लेखक नहीं था जो रतलाम नहीं आया हो । लेकिन आज वह सब अतीत की बात हो गई । नई पीढ़ी के बच्चे इन सारी बातों को ऐसे सुनते हैं मानो ‘टाइम मशीन’ की कहानी सुन रहे हों । ऐसे में यहाँ ‘कैमरा कला’ या कि ‘फोटाग्राफी आर्ट’ की बात तो ‘आकाश कुसुम’ है । लेकिन कुछ सिरफिरे या कि पागल लोग हर समय हरकत में बने रहते हैं । यहाँ के चन्द ‘कैमरा कलाकार’ कोई चार-पाँच वर्षों से सक्रिय बने हुए हैं । वे ‘सृजन कैमरा क्लब’ के नाम से अपने आयोजन करते रहते हैं । उनके आयोजन में गिनती के ही लोग जुट पाते हैं । लेकिन उनके जीवट की दाद दी जानी चाहिए कि वे न तो निराश होते हैं और न ही थकते हैं । सुनसान बीहड़ में पगडण्डी बनाने में उनके पाँव लहू-लुहान हुए जा रहे हैं लेकिन भाई लोग हैं कि लगे हुए हैं ।

गए दिनों उन्होंने दो दिवसीय फोटो प्रदर्शनी आयोजित की । इसके उद्घाटन समारोह के समाचार ने मेरा ध्यानाकर्षित किया क्यों कि इस प्रदर्शनी का उद्घाटन किसी ‘विजातीय’ से नहीं बल्कि एक कैमरा कलाकार से कराया गया था । मैं दूसरी शाम को पहुँचा - प्रदर्शनी के समापन से कुछ ही समय पहले । प्रदर्शनी बाद में देखी, पहले वहां मौजूद तमाम कलाकारों को, अपने शौक के प्रति बरते गए स्वाभिमान के लिए साधुवाद अर्पित किया । यदि हम खुद, अपने पेशे का, अपने शौक का सम्मान नहीं करेंगे तो भला दूसरे लोग क्यों हमारा, हमारे पेशे का, हमारे शौक का सम्मान करेंगे ? निस्सन्देह, ‘सृजन कैमरा क्लब’ का आयोजन बहुत ही छोटा था, गिनती के लोगों की उपस्थिति वाला था लेकिन मेरे तईं यह एक ईमानदार आयोजन था जिसमें खुद को, खुद की नजरों में गिरने से बचाने का उपक्रम पूरी चिन्ता और पूरे जतन से किया गया था ।


(मेरी यह पोस्ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे ‘साप्ताहिक उपग्रह’ के, दिनांक 22 मई 2008 के अंक में, ‘बिना विचारे’ शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित हुई है ।)

खुद से दूर होने की कोशिश‍

14 अक्टूबर 2007 को मैं ने अपनी अन्तिम पोस्ट लिखी थी । उसके बाद बकौल मेरे उस्ताद श्री रवि रतलामी ‘राइटर्स ब्लाक’ का शिकार हो गया । मैं ‘राइटर्स ब्लाक’ से उबरूँ, इस हेतु इस इन सवा सात महीनों में रविजी ने क्या नहीं किया ? जब-जब मिले, तब-तब टोका, पे्ररित-प्रोत्साहित किया । लेकिन इस पके हाँडे पर मिट्टी नहीं लगी सो नहीं लगी ।

ऐसा भी नहीं कि इस अवधि में ‘एकोऽहम्’ ने कुरेदा नहीं । कुरेदा और बार-बार कुरेदा । लेकिन असर फिर भी नहीं हुआ । इस बीच, 18 अपे्रल को एक विवाह समारोह में भोजन करते हुए रविजी की पकड़ में आ गया । उन्होंने फिर पे्रमपूर्वक टोका । उनकी जीवनसंगिनी रेखाजी भी साथ में थी । उन्होंने कहा तो कुछ नहीं किन्तु जिस नजर से मुझे देखा, वह मुझे ठेठ भीतर तक भेद गई । मुझे बड़ी शर्म आई । सोचा - घर जाते ही पोस्ट लिखूँगा । लेकिन सोच, हकीकत में नहीं बदल पाई ।

23 अपे्रल को मै ने अपना मेल-बाक्स खोला (इन दिनों मेल बाक्स खोलने में भी अच्छा-खासा अलालपन छाया रहा) तो रविजी का मेल पाया जिसमें उन्होंने अपने चिट्ठे पर, 19 अपे्रल को लिखी पोस्ट भेजी थी । इसमें 18 अपे्रल की, भोजन वाली मुलाकात का जिक्र रविजी ने किया था । लेकिन मानो रविजी की पोस्ट ही काफी नहीं थी, इस पोस्ट पर युनूस भाई और मैथिलीजी की टिप्पणियों ने तो पानी-पानी कर दिया । मैं ने रविजी को लिखा - ‘अब तो शर्म को भी शर्म आने लगी है ।’ यह लिखते समय फिर तय किया कि अब तो पोस्ट लिख ही देनी है । लेकिन फिर भी नहीं लिख पाया ।

29 अपे्रल को मनासा गया । मनासा मेरा जन्म स्थान है । वहाँ मेरा घर हुआ करता था - अब नहीं है । वहाँ डाक्टर संघई साहब (वे और उनका परिवार हमारे परिवार का ‘रखवाला परिवार’ है) के बड़े बेटे प्रिय डाक्टर मनोज संघई ने मुझे ‘जोर का धक्का, धीरे से' दिया यह पूछ कर कि मैं अपना ब्लाग क्यों नहीं लिख रहा हूँ ? मनोज के सवाल ने मुझे एक बार फिर अपनी ही नजरों में गिरा दिया । मैं सफाई देता तो क्या देता ? लेकिन शुरूआत फिर भी नहीं हो सकी ।

यह शायद शुक्रवार 16 मई की बात है । उस दिन दैनिक भास्कर में मेरा एक पत्र छपा था । रविजी ने फोन किया और तनिक आहत स्वरों में उलाहना दिया कि मैं साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में अपना स्तम्भ नियमित लिख रहा हूँ, अखबारों में सम्पादक के नाम पत्र लिख रहा हूँ, अपना नियमित पत्राचार बराबर कर रहा हूँ तो फिर अपना ब्लाग क्यों नहीं लिख रहा हूँ ? रविजी की बात ने नहीं, उनके स्वरों की पीड़ा ने मुझे व्यथित कर दिया । वे मेरे गुरू हैं और मैं हूँ कि उनकी अनदेखी और उनकी बातों को अनसुनी किए जा रहा हूँ ! मेरे ब्लाग लेखन से उन्हें क्या मिलेगा ? उनका क्या स्वार्थ ?

बस ! ‘सतसैया’ के इस ‘दोहरे’ ने गम्भीर घाव किया । रविवार 18 मई को मैं रविजी के निवास पर पहुँचा । सच कहूँ, मेरा पोर-पोर अपराध-बोध से ग्रस्त था । रविजी और रेखाजी ने जिस आत्मीय ऊष्मा से मेरी अगवानी की उससे हिम्मत बँधनी शुरू हुई जो बँधती ही चली गई । कोई सवा-डेढ़ घण्टे बाद जब मैं लौटा तो मानो मेरा कायान्तरण हो चुका था । मेरा लेपटाप, रविजी द्वारा स्थापित ‘फाण्ट कनवर्टर’ से समृध्द हो चुका था ।

14 अक्टूबर 2007 से अब तक मुझे स्वर्गीय मुकेश का एक गीत बराबर याद आता रहा -

तुम्हें जिन्दगी के उजाले मुबारक,
अँधेरे हमें आज रास आ गए हैं ।
तुम्हें पा के हम खुद से दूर हो गए थे,
तुम्हें छोड़ कर खुद के पास आ गए हैं ।।

यकीनन, ब्लाग लेखन बन्द कर मैं खुद के पास था लेकिन बहुत अकेला था । इस अकेलेपन से मुक्ति का एक ही उपाय है - खुद से दूर हो जाना । याने सबके पास आने की कोशिश करना । आज की यह शुरूआत, यह कोशिश ही है । ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना कीजिए कि मै खुद से दूर हो सकूँ और खुद से दूर ही रहूँ ।

इसी में मेरी भलाई भी है ।

खुद से दूर होने की कोशिश‍

14 अक्टूबर 2007 को मैं ने अपनी अन्तिम पोस्ट लिखी थी । उसके बाद बकौल मेरे उस्ताद श्री रवि रतलामी ‘राइटर्स ब्लाक’ का शिकार हो गया । मैं ‘राइटर्स ब्लाक’ से उबरूँ, इस हेतु इस इन सवा सात महीनों में रविजी ने क्या नहीं किया ? जब-जब मिले, तब-तब टोका, पे्ररित-प्रोत्साहित किया । लेकिन इस पके हाँडे पर मिट्टी नहीं लगी सो नहीं लगी ।

ऐसा भी नहीं कि इस अवधि में ‘एकोऽहम्’ ने कुरेदा नहीं । कुरेदा और बार-बार कुरेदा । लेकिन असर फिर भी नहीं हुआ । इस बीच, 18 अपे्रल को एक विवाह समारोह में भोजन करते हुए रविजी की पकड़ में आ गया । उन्होंने फिर पे्रमपूर्वक टोका । उनकी जीवनसंगिनी रेखाजी भी साथ में थी । उन्होंने कहा तो कुछ नहीं किन्तु जिस नजर से मुझे देखा, वह मुझे ठेठ भीतर तक भेद गई । मुझे बड़ी शर्म आई । सोचा - घर जाते ही पोस्ट लिखूँगा । लेकिन सोच, हकीकत में नहीं बदल पाई ।

23 अपे्रल को मै ने अपना मेल-बाक्स खोला (इन दिनों मेल बाक्स खोलने में भी अच्छा-खासा अलालपन छाया रहा) तो रविजी का मेल पाया जिसमें उन्होंने अपने चिट्ठे पर, 19 अपे्रल को लिखी पोस्ट भेजी थी । इसमें 18 अपे्रल की, भोजन वाली मुलाकात का जिक्र रविजी ने किया था । लेकिन मानो रविजी की पोस्ट ही काफी नहीं थी, इस पोस्ट पर युनूस भाई और मैथिलीजी की टिप्पणियों ने तो पानी-पानी कर दिया । मैं ने रविजी को लिखा - ‘अब तो शर्म को भी शर्म आने लगी है ।’ यह लिखते समय फिर तय किया कि अब तो पोस्ट लिख ही देनी है । लेकिन फिर भी नहीं लिख पाया ।

29 अपे्रल को मनासा गया । मनासा मेरा जन्म स्थान है । वहाँ मेरा घर हुआ करता था - अब नहीं है । वहाँ डाक्टर संघई साहब (वे और उनका परिवार हमारे परिवार का ‘रखवाला परिवार’ है) के बड़े बेटे प्रिय डाक्टर मनोज संघई ने मुझे ‘जोर का धक्का, धीरे से' दिया यह पूछ कर कि मैं अपना ब्लाग क्यों नहीं लिख रहा हूँ ? मनोज के सवाल ने मुझे एक बार फिर अपनी ही नजरों में गिरा दिया । मैं सफाई देता तो क्या देता ? लेकिन शुरूआत फिर भी नहीं हो सकी ।

यह शायद शुक्रवार 16 मई की बात है । उस दिन दैनिक भास्कर में मेरा एक पत्र छपा था । रविजी ने फोन किया और तनिक आहत स्वरों में उलाहना दिया कि मैं साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में अपना स्तम्भ नियमित लिख रहा हूँ, अखबारों में सम्पादक के नाम पत्र लिख रहा हूँ, अपना नियमित पत्राचार बराबर कर रहा हूँ तो फिर अपना ब्लाग क्यों नहीं लिख रहा हूँ ? रविजी की बात ने नहीं, उनके स्वरों की पीड़ा ने मुझे व्यथित कर दिया । वे मेरे गुरू हैं और मैं हूँ कि उनकी अनदेखी और उनकी बातों को अनसुनी किए जा रहा हूँ ! मेरे ब्लाग लेखन से उन्हें क्या मिलेगा ? उनका क्या स्वार्थ ?

बस ! ‘सतसैया’ के इस ‘दोहरे’ ने गम्भीर घाव किया । रविवार 18 मई को मैं रविजी के निवास पर पहुँचा । सच कहूँ, मेरा पोर-पोर अपराध-बोध से ग्रस्त था । रविजी और रेखाजी ने जिस आत्मीय ऊष्मा से मेरी अगवानी की उससे हिम्मत बँधनी शुरू हुई जो बँधती ही चली गई । कोई सवा-डेढ़ घण्टे बाद जब मैं लौटा तो मानो मेरा कायान्तरण हो चुका था । मेरा लेपटाप, रविजी द्वारा स्थापित ‘फाण्ट कनवर्टर’ से समृध्द हो चुका था ।

14 अक्टूबर 2007 से अब तक मुझे स्वर्गीय मुकेश का एक गीत बराबर याद आता रहा -

तुम्हें जिन्दगी के उजाले मुबारक,
अँधेरे हमें आज रास आ गए हैं ।
तुम्हें पा के हम खुद से दूर हो गए थे,
तुम्हें छोड़ कर खुद के पास आ गए हैं ।।

यकीनन, ब्लाग लेखन बन्द कर मैं खुद के पास था लेकिन बहुत अकेला था । इस अकेलेपन से मुक्ति का एक ही उपाय है - खुद से दूर हो जाना । याने सबके पास आने की कोशिश करना । आज की यह शुरूआत, यह कोशिश ही है । ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना कीजिए कि मै खुद से दूर हो सकूँ और खुद से दूर ही रहूँ ।

इसी में मेरी भलाई भी है ।