धर्म और चक्करदार जलेबी

यह निठल्ला चिन्तन है। एकदम रूटीन वाला। फुरसतिया चिन्तन। जब करने को कोई काम न हो तो फिर यही काम हो जाता है।
हमारे जीवन में धर्म की भूमिका क्या है? वह हमें रास्ता दिखाता है या रास्ता रोकता है? बिना किसी बात के, गए कुछ दिनों से ये सवाल मेरी आँखों के आगे नाच रहे हैं।
नहीं। मैंने गलत कह दिया। बिना किसी बात के नहीं। बात तो हुई। तभी तो ये बातें मेरे मन में उगीं! कोई बात नहीं होती तो इन बातों की नौबत ही भला क्यों आती?
बढ़ती उम्र के साथ कुछ और बातों/चीजों में बढ़ोतरी होती जाती है। कुछ बीमारियाँ चुपचाप साथ हो लेती हैं और उन्हीं के साथ कुछ दवाइयाँ साथी बन जाती हैं। लेकिन इन सबसे पहले बढ़ोतरी होती है - चिन्ता में। परिवार छोटे हो गए, बच्चे पहले तो पढ़ने के लिए और अब पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरियों के लिए बाहर चले गए। घर में बूढ़े पति-पत्नी ही रह गए। ये पति-पत्नी अपनी जवानी के दिनों में अपने माता पिता का कहा/बताया काम करते थे, अब बच्चों का कहा/बताया काम करते हैं। तन साथ नहीं देता। मन तो उससे पहले ही साथ छोड़ चुका होता है। किन्तु काम तो करने ही पड़ते हैं। कभी बिजली का बिल भरना है , कभी टेलीफोन का तो कभी पानी का। कभी पेण्ट रफू करानी है तो कभी वाशिंग मशीन की दुरुस्ती के लिए मिस्त्री की तलाश करनी है। मन ही मन भुनभुनाते रहते हैं, खीझते, चिड़चिड़ाते रहते हैं और इसी तरह ‘भन्न-भन्न’ करते हुए सारे काम करते रहते हैं। ये और ऐसे सारे काम करते हुए एक चिन्ता सबसे ऊपर सवार रहती है - कहीं बीमार न पड़ जाएँ। पराश्रित न हो जाएँ। ऐसा कुछ हो गया तो सेवा-सुश्रुषा तो दूर की बात रही, पूछ-परख करने कौन आएगा? सो, बिना किसी के कहे, अपनी ही ओर से, जबरन ही बीसियों परहेज खुद पर लाद लेते हैं। हाथ-पैर चलते रहने चाहिएँ-यह बात चेतन और अचेतन में चैबीसों घण्टे बराबर बनी रहती है।
इसी चिन्ता से ग्रस्त हो, मैं और मेरी उत्तमार्द्ध प्रति शाम एक छोटे से जिम में जाते हैं। बीस-बीस मिनिट ट्रेड मिल पर चलते हैं और पाँच-पाँच मिनिट की कसरतें कुछ अन्य मशीनों पर करते हैं। सबसे अन्त में ‘योगा’ के नाम पर थोड़ी-बहुत कसरत कर लौट आते हैं। कोई पचास-पचपन मिनिट का यह उपक्रम हमें ‘फिट’ बने रहने के भ्रम का सुख प्रदान करता है।
गौशाला के सामने स्थित इस जिम पर जाने के लिए हमें काटजू नगर, सुभाष नगर, हाट रोड़ पार करना होता है।
कुछ दिन पहले, यही कोई पाँच-छः दिन पहले हमने जैसे ही काटजू नगर में प्रवेश किया तो सड़क बन्द मिली। ‘जगराते’ के लिए सड़क को तीनों ओर से घेर कर पाण्डाल बना दिया गया था। मंच बना था जिसके दोनों ओर, भारी-भरकम आकार वाले चार-चार स्पीकर चिंघाड़ रहे थे। सब तरफ मिला कर कोई अठारह-बीस हेलोजन जल रही थीं। बिजली का अस्थायी कनेक्शन लेने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। बिजली के तार से सीधे ही करण्ट ले लिया गया था। न तो मंच पर कोई था न पाण्डाल में। और तो और साउण्ड सिस्टम के पास भी कोई नहीं था। हमें चिढ़ तो हुई किन्तु मुख्य सड़क के पास ही छोटा रास्ता उपलब्ध था। हम उसी से निकल लिए।
किन्तु यह क्या? जैसे ही सुभाष नगर में जैसे ही घुसे तो पाया कि वैसा ही एक धर्म-पाण्डाल और मंच रास्ता रोके, तना खड़ा है। वैसी ही कानफोड़ू-प्राणलेवा ध्वनि व्यवस्था और वैसी ही चोरी की बिजली। फर्क एक ही था-काटजू नगर में मंच हमारे सामने था, यहाँ हम मंच के पिछवाड़े बाधित हो खड़े थे। यहाँ पास में कोई छोटा रास्ता नहीं था। श्रीकृष्ण सिनेमा के परिसर में होकर, लम्बा रास्ता पार कर हमने हाट रोड़ पकड़ी और जिम पहुँचे - लगभग दस/बारह मिनिट विलम्ब से।
लौटते में जानबूझकर बाजारवाला लम्बा रास्ता पकड़ा ताकि बिना किसी व्यवधान के घर पहुँच सकें। किन्तु ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के मन कछु और’ वाली बात हो गई। चाँदनी चौक वाले चक्कर पर पहुँचते ही देखा, हरदेवलाला की पीपली वाला चैराहा, चारों दिशाओं से बन्द था। यहाँ का पाण्डाल और मंच तो पहलेवाले दोनों पाण्डालों और मंचों का परदादा था और इसी कारण यहाँ लगी हेलोजन भी ‘शतकवीर’ बनी हुई थीं। हाँ, एक अन्तर था। पहलेवाले दोनों पाण्डालों के लिए एक-एक स्थान से ही बिजली चोरी की गई थी। यहाँ आठ-दस खम्भों से बिजली के तार जोड़े गए थे। पहलेवाले दोनों पाण्डालों के दोनों ओर ही स्पीकर लगे हुए थे जबकि यहाँ सड़क के दोनों ओर, छः-छः स्थानों पर दो-दो स्पीकर (याने कुल जमा चैबीस स्पीकर) टँगे हुए थे।
हमें कुछ देर रुकना पड़ा-यह तय करने के लिए कि अब कौन से रास्ते से घर जाया जाए। मैं कोई फैसला लेता उससे पहले ही, परम धर्मिक मानसिकतावाली मेरी उत्तमार्द्ध (वे, देव पूजा किए बिना अन्न ग्रहण नहीं करतीं और एकादशी, पूर्णिमा पर सत्यनारायण व्रत कथा का पाठ करती हैं) भन्ना गई। मानो दसों दिशाओं से पूछ रही हो, कुछ इसी तरह से, जोर से बोलीं - ‘यह सब क्या है?’ उन्होंने न तो मुझसे यह सवाल किया था और न ही मैं इस सबके लिए जवाबदार ही था। किन्तु उनक सवाल का जवाब देनेवाला वहाँ और कोई था भी तो नहीं? सो मैंने तसल्ली से कहा - ‘धर्म का मामला है।’ वे बोलीं - ‘ये ऐसा कैसा धर्म है? धर्म रास्ता रोकता है या रास्ता देता/बताता है?’ झुंझलाहट तो मुझे भी भरपूर हो रही थी (मोटरसायकिल जो मुझे चलानी पड़ रही थी!) किन्तु हम दोनों मिलकर भी वहाँ कर ही क्या सकते थे? सो मैंने और अधिक तसल्ली से कहा - ‘धर्म के मामले में मेरी जानकारी आपसे कम है। आप बेहतर जानती हैं। मैं क्या कहूँ?’ चूँकि जवाब देने की मूर्खता मैं कर चुका था सो पलटवार भी मुझ पर ही होना था। वे अधिक तैश में बोलीं -‘मुझे चिढ़ा रहे हैं? तो सुनिए! यह धर्म नहीं है। यह तो अधर्म है। धर्म तो जीवन को आसान और सहज-सुगम बनाता है। अवरोधों को हटाता है। मनुष्य को चक्करों में डालता नहीं, चक्करों से बचाता है। वह चोरी-चकारी के लिए प्रेरित और प्रवृत्त नहीं करता। वह तो खुद प्रकाश है। उसे प्रकाशवान बनाने की कोई भी कोशिश पाखण्ड है।’
मुझे अच्छा तो लगा किन्तु अचरज भी हुआ। सुनता आया हूँ कि आवेश के आते ही व्यक्ति का विवेक साथ छोड़ देता है। किन्तु यहाँ तो ‘भरपूर आवेशित’ मेरी उत्तमार्द्ध, विवेकवान बनी हुई थीं। मैंने उकसाया - ‘तो यह जो आज अपन दोनों ने देखा है, वह धर्म नहीं, पाखण्ड है?’ तुर्शी-ब-तुर्शी वे अविलम्ब बोलीं - ‘और नहीं तो क्या? यह पाखण्ड के सिवाय और क्या है?’
इसके बाद मेरे पास कहने-सुनने को कुछ भी नहीं बचा था। श्रीमतीजी ने धर्म को व्याख्यायित कर दिया था। देख रहा था कि उनका गुस्सा कम नहीं हो रहा था। उन्हें सहज करने के लिए पूछा -‘बताओ! कौन से रास्ते से चलें?’ मानो उन्हें इस सवाल का अनुमान हो गया था। छूटते ही बोली -‘जिस रास्ते में धर्म आड़े नहीं आए।’ चौमुखी पुल की तरफ गाड़ी मोड़ते हुए मेरी हँसी छूट गई। उन्होंने पूछा -‘क्यों? हँसे क्यों? मैंने कुछ गलत कहा?’ मैंने कहा -‘आपने बिलकुल गलत नहीं कहा। धर्म तो कभी किसी के आड़े नहीं आता। धर्म का निर्माण तो मनुष्य ने ही किया है। सो, वह तो अपने जन्मदाता के साथ ही चलता है। उसके आचरण से प्रकट होता है। धर्म के नाम पर किए जानेवाले कर्मकाण्ड, प्रदर्शन की शकल लेते हुए पाखण्ड में बदल जाते हैं। और तब, धार्मिक होने के बजाय धार्मिक दिखना अधिक जरूरी तथा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।’
मेरी बात सुनकर वे आवेश-मुक्त हो बोलीं - ‘आप तो उपदेश देने लगे। जल्दी चलिए वर्ना मुझे डर है कि आप इन तीनों में से किसी एक मंच पर विराजमान न हो जाएँ। इस क्षण आपका धर्म यही है कि जल्दी घर पहुँचाएँ। भूख लग रही है। आप तो कुछ करेंगे-धरेंगे नहीं। रोटी मुझे ही बनानी है। आप घर पहँचाने का धर्म निभाइए ताकि मैं पेट भरने का उपक्रम सम्पन्न करने का धर्म निभा सकूँ।’
तब से लेकर अब तक, इतना सारा विवेचन हो जाने के बाद भी मैं, मनुष्य के जीवन में धर्म की भूमिका को लेकर निठल्ला चिन्तन किए जा रहा हूँ। यह ऐसी चक्करदार जलेबी है जिसका न कोई आदि है न कोई अन्त।
इन दिनों इसी में व्यस्त हूँ।
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7 comments:

  1. ये पति-पत्नी अपनी जवानी के दिनों में अपने माता पिता का कहा/बताया काम करते थे, अब बच्चों का कहा/बताया काम करते हैं।
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    यह बहुत नायाब निठल्ला चिन्तन है! जिन्दगी बस यूं ही तमाम होती है, और हम उसमें अर्थ ढूंढ़ते रहते हैं!

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  2. वैसे इस उम्र में व्यस्त रहना भी जरूरी है.

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  3. काफी अच्छा प्रयास।

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  4. आदरणीय वैरागी जी | आप का लेख बहुत अच्छा लगा |बहुत पहले एक गाना सूना था =ये पाप है क्या ये पुन्य है क्या रीतों पर धर्म की मोहरे हैं |हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे =आपके लेख के पहले भाग वाबत निवेदन है""मंदोदरी ने रावण से कहा था ""सुत कहुं राज समर्पि बन जाई भजिय रघुनाथ "" राजा सत्यकेतु ने प्रतापभानु को जिम्मेदारी सौंपी "" जेठे सुतहि राज नृप दीन्हां,हरि हित आपु गवन बन कीन्हां "" तो राजा मनुने बरवस राज सुतहिं तब दीन्हां ,नारी समेत गवन बन कीन्हां "" और जिन्होंने नहीं किया इतिहास हमें समझाइश देता है कि बादशाहों को पुत्रों ने या तो कैद में डाल दिया या उनकी हत्या कर दी गई/जिस ब्रद्ध के पैर कब्र में लटके हों [ये एक मुहाबरा है ] जो पके आम के तुल्य कभी भी टपक जाय [ ये भी एक मुहाबरा है ] मरघट जिसकी बाट जोहता हो [ ये भी एक मुहाबरा है ][और मुहाबरे मुझे याद नहीं हैं ] ऐसे मुहाबरों से सुसज्जित और सुशोभित की मानसिकता और मानसिक रोगों में उर्बरक का कार्य करने वाली ब्रद्धावस्था का व्यक्ति मानसिक रोगी होकर क्रन्दोंमुख रहकर परिवार की शान्ति भंग न करे ,इसलिए इन्हे ब्ब्रद्धआश्रम के आश्रित करदेना समीचीन है /

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  5. आज दिनांक 7 अप्रैल 2010 को दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट चक्‍करदार जलेबी से प्रकाशित हुई है, बधाई।

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  6. मेरा ई मेल आई डी avinashvachaspati@gmail.com है। इस पर आप अपना ई मेल पता भिजवायेंगे तो प्रकाशित लेख का स्‍कैनबिम्‍ब भिजवा सकूंगा।

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