मुख्‍यमन्‍त्री : नौकरों का नौकर

‘यह दुर्भाग्य ही है कि आप लोगों को हड़ताल करनी पड़ रही है, धरना-प्रदर्शन करना पड़ रहे हैं। आज सरकार भले ही हठधर्मी कर, आपकी बात नहीं मान रही है किन्तु मुझे साफ नजर आ रहा है कि आपको यूजीसी वेतनमान मिलेगा। शिवराज सरकार सौ जूते भी खाएगी और सौ प्याज भी।’ गत वर्ष, 15 से 20 सितम्बर के बीच वाले किसी दिन, ऐसा ही कुछ कहा था मैंने, मेरे कस्बे के महाविद्यालयीन प्राध्यापक समुदाय से। वे, शासकीय कला-विज्ञान महाविद्यालय के दरवाजे के बाहर, मंच बना कर धरने पर बैठे थे। वे विश्व विद्यालय अनुदान आयोग का वेतनमान प्राप्त करने के लिए संघर्षरत थे। उनकी माँग जायज थी किन्तु सरकार उनकी बात नहीं सुन रही थी।
यह वेतनमान प्राप्त करने के लिए मध्य प्रदेश के महाविद्यालयीन प्राध्यापकगण बार-बार सरकार का दरवाजा खटखटा रहे थे और सरकार थी कि कानों में अंगुलियाँ डाले, न सुनने का नाटक करती हुई, इंकार में मुण्डी हिला रही थी।

प्राध्यापकों ने तीन अगस्त 2009 से ही अपना आन्दोलन शुरु कर दिया था। तीन अगस्त से पचीस अगस्त तक वे पढ़ाई खत्म करने के बाद इकट्ठे होते, नारेबाजी करते, वे सब, एक के बाद एक, समूह को सम्बोधित करते और फिर बिखर जाते। किन्तु विरोध प्रदर्शन के ऐसे तरीकों पर कार्रवाई करना तो दूर, उनका तो नोटिस भी नहीं लिया जाता! ‘कक्षाएँ बराबर लग रही हों, विद्यार्थियों को कोई शिकायत नहीं हो, महाविद्यालय में कोई बखेड़ा नहीं हो तो करते रहो ऐसे विरोध प्रदर्शन जिन्दगी भर! हमारे ठेंगे से।’ कुछ ऐसा ही रवैया रहा मध्य प्रदेश सरकार का।


अपनी माँग मनवाने के लिए प्राध्यापकों ने अन्ततः स्थापित और चिरपरिचित तरीका अपनाया। कानूनों की खानापूर्ति करते हुए वे शिक्षक दिवस याने 5 सितम्बर 2009 से हड़ताल पर चले गए। पढ़ाना बन्द कर दिया। भोपाल के प्राध्यापकों ने अतिरिक्त सक्रियता बरती। आठ सितम्बर को उन्होंने सड़कों पर प्रदर्शन किया तो भारतीयता, संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देनेवालोंकी सरकार ने ‘गुरु समुदाय’ की ‘सेवा-वन्दना’ लाठियों से की। ‘नारी शक्ति’ का मन्त्रोच्चार करनेवालों की सरकार ने महिला प्राध्यापकों को भी समान निर्मम भाव से पीटा।


इस घटना की तीखी प्रतिक्रिया होनी ही थी। प्राध्यापक समुदाय ने पूरे प्रदेश में जुलूस निकाले, सरकार के प्रतिनिधि कलेक्टरों को ज्ञापन दिए। कई स्थानों पर विभिन्न देवी-देवताओं के मन्दिरों की घण्टियाँ बजाईं, उनकी प्रतिमाओं को भी ज्ञापन अर्पित किए। प्राध्यापकों के धरने, प्रदर्शन, ज्ञापन मानो दिनचर्या बन गए। धरने पर बैठे प्राध्यापकों के प्रति समर्थन और सहानुभूति जताने के लिए समाज के तमाम वर्गों के लोगों का आना और माइक पर अपनी बात कहना प्रमुख घटना बनने लगा। मैं भी इसी क्रम में पहुँचा था और अपनी बात कही थी।


कहीं कोई असर होता नजर नहीं आ रहा था। आन्दोलन अखबारों का स्थायी स्तम्भ बन गया था। प्रदेश का कोई भी मन्त्री कहीं मिल जाता तो अखबार और मीडियावाले सवाल करते। उच्छृंखल और गैरजिम्मेदार मिजाज के मन्त्रियों ने प्राध्यापकों को ‘व्यापारियों की तरह व्यवहार न करें’ जैसे मूल्यवान परामर्श भी दिए। शिक्षा मन्त्री के वक्तव्य उन दिनों कभी चुटकुलों की तरह तो कभी झुंझलाए हुए विवश व्यक्ति के अस्त व्यस्त (मानों अखबारवालों से पीछा छुड़ाना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह गया हो) जुमलों की तरह पढ़ने को मिले।


जब प्राध्यापकों का धैर्य जवाब दे गया तो अपनी ‘प्रबुद्ध छवि’ को खूँटी पर टाँग कर वे 22 सितम्बर को क्रमिक भूख हड़ताल पर बैठ गए। किन्तु तीसरे ही दिन, 24 सितम्बर को उन्हें न केवल भूख हड़ताल बन्द करनी पड़ी वरन् अपना आन्दोलन फौरन बन्द कर अगले ही दिन काम पर लौटना पड़ा। प्रदेश के उच्च न्यायालय, जबलपुर में एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने प्राध्यापकों को फौरन ही काम पर लौटने का निर्देश दिया। इस जनहित याचिका पर जिस तरह से कार्रवाई हुई उससे यह भ्रम फैला मानो सरकार ने न्यायालय को ‘मेनेज’ कर लिया हो। किन्तु शुक्र है कि वास्तविकता ऐसी नहीं थी। हड़ताल टूट गई। सरकार ने प्राध्यापकों का, हड़ताल अवधि का वेतन काट लिया।


मामल कोर्ट में चला तो पेशियाँ शुरु हुईं। सरकार की पेशानी पर छलकनेवाली, पसीने की बूँदों की संख्या और उनका आयतन प्रत्येक पेशी पर बढ़ने लगा। ‘सरकार विचार कर रही है’ वाली सूचना हर पेशी पर पेश की जाने लगी। किन्तु एक तर्क से एक बार ही तो राहत मिल सकती है! सो, कानून की जितनी भी गलियों का उपयोग कर पाना सम्भव था, उन सबका उपयोग सरकार ने किया। प्राध्यापकों का कटा वेतन भी इस बीच लौटा दिया गया। किन्तु आखिरकार वह बन्द गली में घिर ही गई। न्यायालय के सामने अन्तिम जवाब देने का दिन आ ही गया। अब बचने का कोई रास्ता नहीं था। सरकार को केवल यही सूचित करना शेष रह गया था कि उसने प्राध्यापकों को यूजीसी वेतनमान दे दिया है। सो, आखिरकार सरकार ने घुटने टेक दिए और मंगलवार, 6 अप्रेल 2010 को, प्रदेश मन्त्रि मण्डल ने महाविद्यालयीन प्राध्यापकों को यूजीसी वेतनमान देने का निर्णय लेकर तदनुसार घोषणा कर दी। इतना ही नहीं, इस हड़बड़ी में सरकार ने प्राध्यापकों को वह भी दे दिया जो उन्होंने माँगा ही नहीं था। प्राध्यापकों की सेवा निवृत्ति की आयु 62 वर्ष से बढ़ाकर 65 वर्ष कर दी गई।


पूर मामले को देखें तो सरकार की हठधर्मी, मूर्खता और बेशर्मी ही सामने आती है। जब यह सब करना ही था तो पहली ही बार में क्यों नहीं कर लिया? क्यों प्राध्यापकों को हड़ताल पर जाने को विवश किया गया? क्यों उन पर लाठियाँ भाँजी गई? क्यों छात्रों की पढ़ाई का नुकसान किया गया? क्यों प्राध्‍यापकों का वेतन काटा गया? काटा गया तो लौटा क्यों दिया? यदि पहली ही बार में यह सब कर लिया होता तो न केवल सरकार अपनी भद पिटाई से बचती अपितु वह समूचे प्राध्यापक समुदाय की, उनके परिवारों की और प्राध्यापकों से सहानुभूति रखनेवाले तमाम वर्गों की सद्भावनाएँ अर्जित करती। तब, भाजपा को राजनीतिक लाभ भी होता। शिवराज सिंह चैहान की टोपी में ऐतिहासिक पंख लगता। महाविद्यालयीन प्राध्यापकों को समूचे समाज में अतिरिक्त आदर से देखा जाता है, उन्हें प्रबुद्ध माना जाता है। किन्तु सरकार यह सब चूक गई। अब उसने यह सब किया भी तो उसका श्रेय उसके खाते में जमा नहीं होगा। अब प्राध्यापक कहेंगे कि अपना यह हक उन्होंने लड़कर, लाठियाँ खाकर लिया है।


यह ऐसा पहला और अनूठा प्रकरण नहीं है जिसमें किसी सरकार ने दोहरा दण्ड भुगता हो। ऐसे बीसियों उदाहरण मिल जाएँगे। सरकारें (वे किसी भी पार्टी की हों) आखिरकार ऐसी मूर्खताएँ क्यों करती हैं? मुझे लगता है, कुर्सी पर बैठने के बाद तमाम मन्त्री अपनी प्राथमिकताएँ बदल लेते हैं। विभागीय कामों को निपटाने में उनकी दिलचस्पी शायद सबसे कम रह जाती है और वे अपने विवेक से कोई निर्णय लेने के बजाय अधिकारियों का कहा, आँख मूँदकर मानने लगते हैं। यहीं हमारा लोकतन्त्र परास्त हो जाता है। मन्त्री से अपेक्षा की जाती है कि वह अधिकारियों को हाँकेगा, उनसे जनहित के काम कराएगा। किन्तु होता इसका ठीक उल्टा है। महाविद्यालयीन प्राध्यापकों को यूजीसी वेतनमान देने का यह मामला इसका ताजा उदाहरण है। इसमें किसी भी अधिकारी का कुछ नहीं बिगड़ा जबकि शिवराज सरकार की अच्छी-खासी फजीहत हो गई। कल तक प्राध्यापकों को व्यापारी कहनेवाले मन्त्री अब क्या कहेंगे? इस मामले में तो सरकार ने प्राध्यापकों को वेतनमान देकर सौ जूते भी खाए और काटा हुआ वेतन लौटा कर सौ प्याज भी खाए। अपनी बात को इस तरह से सच होते देखकर भी मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ।


यह डॉक्टर राममनोहर लोहिया जन्म शती वर्ष है। लोकतन्त्र के प्रति वे इतने सतर्क और चिन्तित थे कि उन्होंने अपनी ही सरकार गिरा देने से पहले पल भर भी नहीं सोचा। गैर कांग्रेसवाद उन्हीं की परिकल्पना थी। कांग्रेसी मन्त्रियों की कार्यशैली पर वे कहते थे कि हमारे मन्त्री तो नौकरों के भी नौकर हो गए हैं। आईएएस अधिकारी सरकार के नौकर के होते हैं और मन्त्री आँख मूँदकर उनकी बातें मानते हैं।


मुझे अच्छा नहीं लग रहा किन्तु मैं कर भी क्या सकता हूँ? मध्य प्रदेश के मुख्य मन्त्री शिवराजसिंह चैहान, ऐसे ही, नौकरों के नौकर साबित हो गए हैं।
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2 comments:

  1. आपने सही कहा. सरकार नौकर की नौकर है. सरकार की भद आईएएस अधिकारियों ने गलत आंकड़े मुहैया करवा कर पिटवाई है. अभी भी बहुत से मामले न्यायालय में लंबित हैं. कुछ दिन पहले ही यह भी पढ़ा था कि सरकार ही सबसे बड़ी मुकदमेबाज है - लोगों को उनकी वाजिब मांगों को देने के बजाए हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में हर मामले को ले जाती है!

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  2. भारत का कथित लोकतंत्र वास्तव में अफसर तंत्र है। क्यूँ जिले में कलेक्टर सब से बड़ा होता है?

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