गुल्लू भैया नहीं, उनकी बातें हैं जरूरी

ये हैं हमारे गुल्लू भैया। पूरा नाम गुलाम हुसैन स्टेशनवाला। बहत्तर बरस की उम्र में चल रहे इस आदमी को जानना हममें से किसी के लिए जरूरी नहीं। वक्त की बर्बादी ही होगी। लेकिन इनकी बातें सुनने के बाद यह तय है कि जो कुछ ये बताते हैं, उसे जानना हम सबके लिए जरूरी है। खास कर आज के हालात में उतना ही जरूरी जितना कि पौधों-पत्तों की हरियाली के लिए क्लोरोफिल।

गुल्लू भैया से मेरी दोस्ती तो कभी नहीं रही। जान-पहचान भी नहीं। बस! दुआ-सलाम का रिश्ता रहा। उनसे मिलना-जुलना भी बस इतना ही था जितना टाला जाना नामुमकिन होता। उनके बेड़े बेटे रियाज से मेरा मिलना-जुलना था। उससे मिलने जाता तो गुल्लू भैया से भी मिलना पड़ता - बिलकुल उसी तरह और उतना ही कि जिस तरह और जितना अपने मिलनेवाले के पिता से मिलना ही पड़ता है। मेरी मुश्किल यह कि उम्र में रियाज मुझसे छोटा और मैं गुल्लू भैया से। रियाज समझे कि मैं उसके पिता के मिलनेवालों में शरीक हूँ और गुल्लू भैया मुझे रियाज के मिलनेवालों में समझे।

कशमकशवाली मेरी इस दशा के बीच गुल्लू भैया मुझे हर बार, बार-बार, लगातार एक अबूझ पहेली लगते रहे। कारण रहा - उनकी आर्थिक हैसियत और उनके रहन-सहन में जमीन-आसमान का अन्तर। “खानदानी रईस” गुल्लू भैया कि आर्थिक हैसियत ऐसी कि मुझ जैसे सौ-पचास बैरागी एक झटके में खरीद लें (मेरी इस बात को मुहावरा ही समझा जाए। जानता हूँ कि मुझ जैसे एक भी बैरागी को खरीदने का ‘मूर्खतापूर्ण अपव्यय’ गुल्लू भैया तो क्या, कोई नासमझ भी नहीं करेगा)। (मैंने जब गुल्लू भैया से कहा कि मैं यह खरीदनेवाली बात लिखूँगा तो घबराकर, दोनों कान छूकर बोले - “अरे! अरे!! ऐसा गजब बिलकुल मत करना। मैं तो खुद अपने दीन-ओ-ईमान के हाथों बिका हुआ आदमी हूँ।”) लेकिन रहन-सहन ऐसा कि उनके सामने बैरागी भी बिड़ला लगे। मैंने उनको सदैव पैदल चलते ही देखा। कभी-कभार सायकिल पर। और बहुत हुआ तो भूले-भटके स्कूटर पर। कभी खुद चलाते हुए तो कभी अपने बेटे के पीछे बैठे हुए। उनका यह ‘चाल-चलन’ ही उन्हें अबूझ पहेली बनाता रहा मेरे लिए।

लेकिन जैसा कि हम सब कहते हैं - हर बात की एक हद होती है। सो, एक दिन मेरे धीरज ने अपनी हद छोड़ दी। लिहाज और तमीज को खूँटी पर टाँग कर, उन्हें रास्ते चलते रोक कर पूछ ही लिया - “यह क्या चक्कर है गुल्लू भैया?” मुझे यह देखकर ताज्जुब हुआ कि मेरे सवाल पर गुल्लू भैया को बिलकुल ही ताज्जुब नहीं हुआ। हँस दिए। कुछ इस तरह मानो बरसों से मेरे इस सवाल की प्रतीक्षा कर रहे थे। बोले - “यहीं, सड़क पर खड़े-खड़े जानना चाहेंगे या कहीं बैठकर, तसल्ली से बात करें?” मुझे राहत भी मिली और ताज्जुब भी हुआ। राहत इस बात से कि उन्हें मेरा सवाल बुरा, अटपटा नहीं लगा और ताज्जुब यह जानकर हुआ कि वे लिहाज करने की सीमा तक मेरा सम्मान करते हैं।

अब, जब जवाब गुल्लू भैया से हासिल करना था तो जाहिर है कि उनकी सुविधा ही पहली और आखिरी शर्त थी। बोले - “चलिए! दफ्तर चलते हैं। वहीं बैठकर बातें करते हैं। कोशिश करूँगा कि आपको तसल्ली हो जाए।” मैं स्कूटर पर था और गुल्लू भैया पैदल। मैंने कहा - “बैठिए।” उन्हें क्षण भर को उलझन हुई लेकिन बिना ना-नुकुर किए बैठ गए।

दफ्तर पहुँच कर हम दोनों ने अपनी-अपनी जगह ली। गुल्लू भैया बोले - “बात लम्बी हो सकती है। सब कुछ आज ही जानना चाहेंगे या किश्तों में?” फुरसत में तो हम दोनों ही नहीं थे लेकिन उस क्षण का सच यह था कि इधर मैं सब कुछ जानने के लिए अगली साँस भी लेने को तैयार नहीं तो उधर गुल्लू भैया भी मानो एक ही साँस में सब कुछ कह देने का तैयार हो गए हों। 

और गुल्लू भैया ने बोलना शुरु किया तो लगा वे वहाँ नहीं थे। उन्होंने बात शुरु तो की मेरी आँखों में आँखें डालकर। लेकिन कुछ ही पलों में मुझे लगा, मैं उनके सामने हूँ ही नहीं। वे, मानो मेरे आर-पार देखकर किसी और की बातें किसी और को सुना रहे हों।

वही सब ऐसा है जो आज के हालात में हम सबके लिए निहायत ही जरूरी है। बिलकुल उतना ही जरूरी जितना कि पौधों-पत्तों की हरियाली के लिए क्लोरोफिल। लेकिन आज सब कुछ कहने लगूँगा तो बात लम्बी हो जाएगी।

किन्तु गुल्लू भैया ने सब कुछ कहने की इजाजत नहीं दी। दो ही बातों की इजाजत दी। वे ही दो बातें कहूँँगा। लेकिन अभी नहीं। 


6 comments:

  1. इस पोस्ट में आपका पुराना, जानापहचाना और बेहतरीन "टच" नज़र आया | इसका तात्पर्य ये कतई नहीं है कि इसके पहले की पोस्टें अच्छी नहीं थी | आपका लिखा सबकुछ बेहतरीन है मगर इस पोस्ट में आपके लेखन का जो ख़ास अंदाज़ है उसका मैं प्रशंसक हूँ | इसके अगले भाग का बेसब्री से इंतजार है |

    सादर
    राजेश गोयल
    गाजियाबाद

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    1. धन्‍यवाद राजेशजी। आप समझ सकते हैं कि आप मुझे मुझसे मिलवा रहे हैं।

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  2. बहुत बढ़िया रही गुल्लू भैया की अकथ बातें ....

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  3. इस कृपा के ि‍लए धन्‍यवाद। आभारी हूँ।

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  4. हमसफर हैं आपकी इस यात्रा में ...

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  5. "रियाज समझे कि मैं उसके पिता के मिलनेवालों में शरीक हूँ और गुल्लू भैया मुझे रियाज के मिलनेवालों में समझे"
    बहुत दिनों के बाद आपका लिखा पढ़ा आपकी आत्मीयता से मन संतृप्त हुआ

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