कुछ अटपटा लेकिन तसल्लीदायक

इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं कीथी।


‘आइए! रोगी के लिए निर्धारित कुर्सी पर विराजिए।’ कह कर डॉक्टर सोनगरा खुद ही चौंक गए। कुछ आह्लादित, कुछ विस्मित हो, कुछ इस तरह कि मानो खुद से ही सवाल पूछ रहे हों, बोले - ‘अरे! मैं  ऐसी हिन्दी बोल सकता हूँ? मुझे याद है यह सब?’

वे (डॉक्टर सोनगरा नहीं, मेरे ‘वे’) आयु में तो मुझसे छोटे हैं किन्तु ज्ञान और बौद्धिकता में हिमालय। हिन्दी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान्। सो, वे मेरे प्रिय भी हैं और आदरणीय भी। उनके घर पर बैठ, उनकी मेजबानी का सुख-आनन्द ले रहा था। एक सज्जन पधारे। वे मेरे इन प्रिय-आदरणीय को सवैतनिक सेवा का प्रस्ताव लेकर आये थे। शर्त थी - सारा काम अंग्रेजी में करना पड़ेगा। मेरे इन प्रिय-आदरणीय का, हिन्दी में आधिकारिक हस्तक्षेप जताने की ललक में कह बैठा - ‘तब तो ये शायद ही आपके लिए उपयोगी हों। हाँ! हिन्दी में इनके मुकाबले का अपने कस्बे में कोई नहीं।’ मैं उनके घर बैठा था, प्रस्ताव उनसे किया गया था। मेरे बोलने का न तो प्रसंग था न ही औचित्य। उनके प्रति मोहग्रस्त हो, उन्हें हिन्दी का निष्णात विद्वान् साबित करने के मोहवश मैं आपराधिक मूर्खता कर बैठा हूँ, तब इसका अनुमान भी नहीं हुआ। मेरा इतना कहने के बाद किसी के लिए कुछ कहना शेष नहीं रह गया था। प्रस्ताव, चर्चा होने से पहले ही निरर्थक हो चुका था।

मैं घर लौटा तो उत्तमार्द्ध ने बताया कि उनका फोन आया था। कहा था कि आते ही उनसे बात करूँ। मैंने वही किया। वे अप्रसन्न, खिन्न, क्षुब्ध और कुपित थे। उन्हें इस बात से अपनी हेठी लगी कि मैंने अंग्रेजी पर उनके अधिकार को संदिग्ध बना दिया था। उनके कोप का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मैं कुछ कहता और क्षमा-याचना करता, इससे पहले ही उन्होंने फोन बन्द कर दिया। मुझे मर्मान्तक पीड़ा हुई - यह मैंने क्या कर दिया? जो मेरे आत्मीय हैं, उन्हीं को पीड़ा पहुँचा दी? उन्हीं की अवमानना कर दी? वह भी, उनके ही घर में, उनकी श्रीमतीजी की उपस्थिति में? मैं रात भर सो नहीं पाया। उनसे बात करने का साहस तो मुझमें रहा ही नहीं।

उसके बाद कैसे, क्या हुआ, यह अपने आप में स्वतन्त्र आख्यान है। किन्तु दो महीने से अधिक का समय हो गया, मैं उनसे बात करने का साहस अब तक नहीं जुटा पाया हूँ। उन्होंने बड़प्पन बरता, स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश की किन्तु मैं इस क्षण तक सहज नहीं हो पाया हूँ। अब तक अपराध-बोध से ग्रस्त ही हूँ।

किन्तु महत्वपूर्ण बात यह कि अंग्रेजी पर समुचित अधिकार न होने की बात वे एकाधिक बार मुझसे कह चुके थे। अंग्रेजी की अनिवार्यता की शर्तवाला ऐसा ही एक प्रस्ताव पहले उनके पास आया था तो उन्होंने सामनेवाले से साफ कहा था कि वे अंग्रेजी में न तो धाराप्रवाह बोल सकते हैं न ही लिख सकते हैं। हिन्दी में उनकी प्रतिष्ठा को दृष्टिगत रखते हुए उनकी यह बात मान ली गई थी। यह संयोग या दुर्योग रहा कि वह प्रस्ताव परवान नहीं चढ़ पाया।

यह प्रसंग मुझे याद आया तो मैं उलझन में पड़ गया - ‘जो बात वे खुद कहते रहे हैं, वही बात मैंने कही तो उन्हें बुरा क्यों लगा?’

मैंने खूब सोचा। उनकी नाराजी को कोई कारण मुझे नजर नहीं आ रहा था। बार-बार एक ही बात पर आकर मेरा मन ठहरता रहा - “हो न हो, उन्हें इस बात का बुरा लगा कि दूसरे के सामने उन्हें ‘अंग्रेजी में अज्ञानी’ साबित कर दिया गया।” और कोई कारण मुझे न तब अनुभव हुआ और न ही अब अनुभव हो रहा है।

यह बात मेरे मन से निकल ही नहीं पाई। हमें हिन्दी का ज्ञान न हो, यह तो हमारे लिए शर्म की बात हो सकती है। किन्तु हमें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं है, यह बात हमारे लिए लज्जाजनक कैसे हो सकती है? वह भी उस आदमी के लिए जो हिन्दी और संस्कृत पर अपनी आधिकारितकता के लिए पूरे कस्बे में ही नहीं, समूचे मालवांचल में जाना-पहचाना, सराहा जाता हो, सम्मानित किया जाता हो?

दो-ढाई महीनों से यह बात मुझे साल रही थी। सोचा, अंग्रेजी न जानने को लेकर जब आचंलिक स्तर पर हिन्दी का एक महारथी, सारस्वत-पुरुष अचेतन में इस तरह हीनता-बोध से ग्रस्त हो सकता है तो बेचारे एक औसत पढ़े-लिखे आदमी की मनोदशा क्या होगी? मेरी खुद की अंग्रेजी ऐसी नहीं कि मैं खुद को अंग्रेजी का जानकार कह सकूँ। किन्तु ‘अंग्रेजी अज्ञान’ को लेकर ऐसा हीनता-बोध मुझमें क्षणांश को भी नहीं उपजा। 

सो मैंने, पाँच दिन पहले, जेब पर लगाई जा सकनेवाली, प्लास्टिक की एक पट्टी बनवाई - ‘मुझे अंग्रेजी नहीं आती।’ दुकानदार ने कहा कि सामेवार को पट्टी मिल जाएगी। सोमवार की शाम को मुझे अपने डॉक्टर के पास जाना था। वहाँ जाने से पहले, दुकानदार से यह पट्टी बनाकर ली। अपनी कमीज पर लगाई और डॉक्टर की सेवा में उपस्थित हो गया। मेरी कमीज पर लगी पट्टी का असर डॉक्टर पर क्या हुआ, यह मैं शुरु में ही बता चुका हूँ।

दो दिनों से मैं यह पट्टी लगाए हुए पूरे कस्बे में आ-जा रहा हूँ। लोग हैरत से देख रहे हैं। छुटपुट पूछताछ हो रही है। लेकिन बात मुकाम पर पहुँचती लग रही है। अलग-अलग स्थानों पर दो युवकों और एक दुकानदार ने कहा कि मेरी इस ‘हरकत’ से उन्हें ताकत मिली है। हिन्दी के एक व्याख्याता ने मानो स्वीकारोक्ति की - ‘हम सब जानते हैं कि हम अंग्रेजी नहीं जानते लेकिन यह जताने पर तुले हुए है कि हम अंग्रेजी जानते हैं।लेकिन ऐसा जताने की कोई जरूरत नहीं है, यह  बात आपकी कमीज पर लगी यह पट्टी देख कर समझ में आई।’ 

नहीं जानता कि आनेवाले दिनों में क्या होगा। लेकिन आज तो मैं, पूरे कस्बे में ‘देखने की चीज’ बना हुआ हूँ।

मुझे तसल्ली तो हो ही रही है, मजा भी आ रहा है।

इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी।


मेहरबाँ कैसे कैसे

“कौन सा आयोजन कर रहे हैं? कब कर रहे हैं?”

“कोई आयोजन नहीं कर रहा।

“अकेले नहीं कर रहे तो आप कुछ लोग मिल कर कर रहे हैं?”

“नहीं। न तो मैं अकेला कोई आयोजन कर रहा हूँ और न ही हम कुछ लोग मिल कर कोई आयोजन कर रहे हैं।”

“तो फिर किसी संस्था के किसी आयोजन की तैयारी कर रहे हैं?”

“नहीं। किसी संस्था के किसी आयोजन की भी तैयारी नहीं कर रहा हूँ।”

“तो फिर यह लिस्ट किसलिए?”

“कौन सी लिस्ट?”

“यही। पतों और मोबाइल नम्बरों सहित नामों की लिस्ट। आपके टेबल पर पड़ी है।”

“अच्छा! वह लिस्ट? वह तो बस! यूँ ही।”

“वाह! यूँ ही कैसे? इस लिस्ट में कुछ नाम कटे हुए हैं और कुछ पर टिक का निशान लगा हुआ है!”

“यह लिस्ट मैंने नहीं बनाई।” 

“आपने नहीं बनाई? तो किसने बनाई?”

“पाठकजी ने बनाई।”

“पाठकजी ने? अपने पासवाले रमेशजी पाठक ने?”

“नहीं। रमेशजी पाठक ने नहीं।”

“तो फिर कौन से पाठकजी ने बनाई?”

“प्रोफेसर अभय पाठक ने।”

“क्यों? उन्होंने क्यों बनाई?” 

“मेरे कहने से बनाई।”

“क्यों? आप कोई आयोजन कर रहे हैं?”

“मैंने पहले ही कहा न! मैं कोई आयोजन नहीं कर रहा।”

“तो फिर आपने लिस्ट क्यों बनवाई?”

“कभी, कोई आयोजन करें तो किस-किस को बुलाएँ, इसलिए बनवाई।”

“अच्छा। इसका मतलब है कि पाठकजी कोई आयोजन नहीं कर रहे।”

“मुझे नहीं पता कि पाठकजी कोई आयोजन कर रहे हैं या नहीं।”

“नहीं। नहीं। मेरा मतलब है   कि पाठकजी ने यह लिस्ट अपने किसी आयोजन के लिए नहीं बनाई।”

“हाँ। मैंने पहले ही कहा है कि पाठकजी ने यह लिस्ट मेरे कहने से बनाई।”

“अच्छा। लेकिन इसमें तो कुल तेईस ही नाम हैं। आयोजन में इतने ही लोगों को बुलाएँगे?”

“यह तो तय नहीं कि कितने लोगों को बुलाएँगे लेकिन तेईस से ज्यादा ही लोगों को बुलाएँगे।”

“तो पाठकजी ने इतने ही नाम क्यों लिखे? और इसमें मेरा नाम तो है ही नहीं।”

“उनसे कहा था कि वे उन लोगों की सूची बनाकर दें जो उनके सम्पर्क में हैं।”

“अच्छा। लेकिन इसमें मेरा नाम क्यों नहीं है? मैं भी तो उनके सम्पर्क में हूँ!”

“आपका नाम मेरी लिस्ट में है।” 

“क्या मतलब? आप दो लोग मिल कर लिस्ट बना रहे हैं?”

“केवल दो नहीं। हम पाँच-सात लोग मिल कर लिस्ट बना रहे हैं।”

“पाँच-सात लोग मिल कर? क्यों भला?”

“हर आदमी के अपने-अपने सम्पर्क होते हैं। कई नाम ऐसे होते हैं जो सबकी लिस्ट में मिल जाएँगे। लेकिन सबके नाम सबकी लिस्ट में नहीं मिलेंगे। तो, इस तरह नाम छाँट कर एक बड़ी और व्यापक लिस्ट तैयार हो जाएगी।”

“अच्छा। तो इसका मतलब है कि आप लोग कोई आयोजन करनेवाले हो।”

“नहीं। हम लोग कोई आयोजन नहीं कर रहे।”

“तो फिर लिस्ट बनाने की हम्माली क्यों कर रहे हैं?”

“कहा ना? कभी, कोई आयोजन करना पड़े तो अधिकाधिक लोगों को बुलाया जा सके, इसलिए।”

“लेकिन किसी आदमी के यहाँ कोई काम पड़ता है तो वह अपने नाते-रिश्तेदारों को, व्यवहारवालों को, दोस्तों को, मिलनेवालों को ही बुलाता है।”

“हाँ। आपने ठीक कहा।”

“तो फिर इस लिस्ट का मतलब? आपने अभी कहा कि आप लोग जो लिस्ट बनाओगे उसमें ऐसे लोगों के नाम भी होंगे जिन्हें आप नहीं जानते और जिनसे आपका कोई लेना-देना, कोई व्यवहार नहीं है?”

“हाँ। ऐसे नाम तो होंगे ही। इसीके लिए तो सबसे अपनी-अपनी लिस्ट बनाने को कहा है।”

“आपकी बात समझ में नहीं आई।” 

“कौन सी बात समझ में नहीं आई?”

“यही कि अपने घर पर काम होने पर अपने नाते-रिश्तेदारों को, व्यवहारवालों को, मिलनेवालों को, दोस्तों को ही बुलाते हैं।”

“हाँ। ठीक तो है!

“तो फिर इस लिस्ट का मतलब?”

“यह लिस्ट हममें से किसी के यहाँ होनेवाले पारिवारिक काम के लिए नहीं है।”

“कमाल है! तो फिर किसलिए है?”

“कभी कोई साहित्यिक, ललित कलाओं से जुड़ा कोई आयोजन हो तो उसमें बुलाने के लिए।”

“हत्त-तेरे की! आप भी कमाल करते हो! पहले ही बता देते!”

“कमाल तो आप कर रहे हैैं। आप जो-जो सवाल पूछते रहे, वही-वही जवाब तो मैंने दिए!”

“नहीं। आपने घुमा-फिरा कर जवाब दिया।”

“नहीं। मैंने तो, जैसा आपने गाया, वैसा ही बजाया।”

“नहीं! नहीं! आप मेरे मजेे ले रहे थे।”

“आप खुद को ‘मजा लेनेवाली चीज’ समझते हैं?”

“फिर? आप फिर मेरे मजे ले रहे हैं।”

“नहीं। मैं तो आपके आरोप पर अपना स्पष्टीकरण दे रहा हूँ।”

“आप भी बस! आपसे तो बात करना ही बेकार है।”

“इतनी सी बात आपको इतनी सारी बातें करने के बाद समझ में आई?”

“फिर? आप कभी चुप भी रहेंगे?”

“मैं चुप रहूँगा तो आप इसी बात पर नाराज हो जाएँगे कि मैं आपके सवालों के जवाब क्यों नहीं दे रहा।”

“आप से तो भगवान बचाए। गुनहगार मैं ही हूँ।”

“इसमें गुनहार होने न होने की बात बीच में कहाँ आ गई?”

“येल्लो! मेरी मति मारी गई जो आपसे बहस कर रहा हूँ।”

“आप भले ही कर रहे हों, मैं तो बहस नहीं कर रहा। मैं तो आपके सवालों के जवाब दे रहा हूँ।”

“अच्छा। आप जीते। मैं हारा। अब तो आप खुश?”

“तो आप मुझे खुश करने के लिए अब तक यह सब कर रहे थे? मैं तो आपके आने से ही खुश हो गया था।”

“हे! भगवान! प्राण लेंगे क्या?”

“आपसे मिल कर, आपको देखकर मुझे सदैव ही खुशी होती है। आप ही बताइए, जिससे खुशी मिलती है, उसके प्राण लिए जाते हैं?”

“आपके हाथ जोड़े। मैं चलता हूँ। जितनी देर बैठूँगा, उतनी ही अपनी फजीहत करवाऊँगा। नमस्कार।”

“कहाँ चल दिए? आपने मेरी बात तो सुनी ही नहीं!”

“हें! तो मैं अब तक क्या कर रहा था?”

“अब तक आप मुझसे सवाल कर रहे थे। अपनी बात कहे जा रहे थे।”

“हे! भगवान! फिर मैं ही दोषी? चलिए। कहिए। क्या कहना है?”

“बस। यही कि ऐसी ही एक सूची आप भी बना कर दे दीजिएगा - आपके मिलनेवालों के नाम, पतों और मोबाइल नम्बरों सहित।”

“अरे! जब आप लोग.........नहीं। नहीं। दे दूँगा। जल्दी ही दे दूँगा। बनते कोशिश कल ही दे दूँगा। बस? नमस्कार।”

“नमस्कार। फिर आइएगा।

(वे थोड़ी ही देर पहले गए हैं। कुछ काम से आए थे। मेरी टेबल पर रखे कागजों को उलटना-पलटना और खोद-खोद कर पूछताछ करना उनकी आदत है। इसी के चलते उन्हें एक सूची नजर आ गई। उसके बाद जो हुआ, वही आपने पढ़ा। इस चक्कर में वही काम भूल गए जिसके लिए आए थे।)

अपन तो बिन्दास चलाते हैं अंकल!

लोग अलग-अलग, घटनाएँ भी अलग-अलग किन्तु सन्देश एक ही। कुछ इस तरह जैसे धर्म, पन्थ अलग-अलग लेकिन सबका सन्देश एक ही। घटनाओं, व्यक्तियों, प्रस्तुतियों की विविधता ही इसे रोचक बनाए रखती है। 
कल भी ऐसा ही हुआ।

बीमा-सम्भावनाएँ तलाशता हुआ एक जगह, जवान इकलौते बेटे के पिता से गपिया रहा था। पिता खुद के बजाय बेटे का बीमा कराना चाह रहा था। मैं जोर दे रहा था कि वह खुद का ही बीमा कराए क्योंकि घर के लिए रोटी वही कमा रहा है। बेटा तो अभी पढ़ रहा है। पढ़-लिख कर काम-धन्धे से लग जाए, खाने-कमाने लगे तो उसका बीमा करा ले। अभी बेटा जिम्मेदारी बना हुआ है। वे बेटे का ही बीमा कराना चाह रहे थे। बेटा बाहर था। कुछ ही देर में आनेवाला था। सो हम इधर-उधर की बातें करने लगे।

बात शुरु हुई थी एक जवान बेटे से और पहुँच गई उस जवान बेटेवाली पूरी पीढ़ी तक। वे अत्यधिक खिन्न और क्षुब्ध थे। उनके मतानुसार आज के नौजवान पूरी तरह बिगड़ चुके हैं। मनमानी करते हैं। बड़ों की इज्जत नहीं करते। आँख की शरम खो दी है इन्होंनें। किसी की परवाह नहीं करते। इनके माँ-बाप भी इन्हें कुछ नहीं कहते। 

मैंने हर बार टोका-रोका। कहा कि ये बच्चे अपनी मर्जी से दुनिया में नहीं आए हैं। इन्हें हम ही दुनिया में लाए हैं और ये ही हमारा आनेवाला कल हैं। हमें इन्हीं के कन्धों पर जाना है। हम अपने वक्त में ठहरे हुए हैं। यदि चलकर इनके वक्त में आएँ तो ये ही बच्चे हमें भले लगने लगेंगे। ये वैसे ही बने हैं और बन रहे हैं जैसा हमने इन्हें बनाया है और बना रहे हैं। ये ही हमारी सेवा करेंगे और हमारा नाम रोशन करेंगे। हमें इन पर भरोसा करना चाहिए। 

मेरी टोक-रोक का उन पर कोई असर नहीं हुआ। वे अपनी बातों पर अड़े हुए रहे। बोले - “दूसरी बातें छोड़ो। आपने इन्हें फटफटी (मोटर सायकिल) चलाते देखा? कभी देखो। अन्धे होकर चलाते हैं। किसी की परवाह नहीं करते। ऐसे तेज चलाते हैं जैसे जंगल में चला रहे हों। कोई मरता हो तो मर जाए। इन्हें परवाह नहीं। और इनके हार्न सुने? कान के परदे फट जाएँ। और, कोई सामने हो और बजाए तो ठीक। लेकिन ये तो बिना बात के ही बजाते रहते हैं। जैसे बिना बात के हार्न बजाने के इन्हें पैसे मिल रहे हों।”

यह बात मेरे मन की थी। मैं ने उत्साह से उनकी इस बात का समर्थन किया - “हाँ! आपकी यह बात तो ठीक है।” उन्होंने मुझे फौरन ही पकड़ लिया। मुझे निर्देश देते हुए सवाल किया - “तो फिर आप ही क्यों नहीं कुछ करते हो? आपका तो अफसरों के बीच उठना-बैठना है। उनसे कहो कि इन स्सालों को पकड़े। दो लप्पड़ लगाएँ। कम से कम हजार-पाँच सौ का जुर्माना ठोके। इन्हें होश में लाए। इनके माँ-बाप को लाइन हाजिर करे। उन्हें भी तो पता लगे कि उनके पूत क्या कर रहे हैं?”

मैंने सरकार का बचाव किया। बोला - “सरकार क्या-क्या करे? माँ-बाप यदि अपने बच्चों को समझाएँ तो शायद बात बन जाए।”

सरकार की तरफदारी पर वे भड़क गए। तैश में बोले - “सरकार क्या-क्या करे से क्या मतलब आपका? सरकार नहीं करेगी तो कौन करेगा? और सरकार क्यों नहीं करे? करना पड़ेगा। हम सरकार को टैक्स देते हैं। और माँ-बाप की तो आप बात ही मत करो। आजकल की हालत आप देख रहे हो? काम-धन्धे से ही फुरसत नहीं मिलती। घर चलाएँ, काम-धन्धा करें या बच्चों को समझाएँ?”

उनके गुस्से ने मेरी आवाज धीमी कर दी। धीमी आवाज में ही प्रतिवाद करने की कोशिश की - “लेकिन सबसे पहले खतरा तोे अपने बच्चे की जान पर ही आता है। माँ-बाप की जिम्मेदारी तो बनती है। और किसी बात के लिए नहीं, अपने बच्चे की सलामती के लिए ही सही, माँ-बाप ने टोकना, समझाना तो चाहिए। इतना फर्ज तो बनता है।” मानो मेरी हर बात खारिज पर तुल गए हों, कुछ इस तरह बोले - “माँ-बाप क्या समझाएँ? उन्हें तो एक-दूसरे से ही फुरसत नहीं। एक-दूसरे में मगन रहते हैं। एक-दूसरे से फुरसत मिले तो बच्चों से बात करें।”

हमारा यह सम्वाद और चलता लेकिन रोक लग गई। बी. कॉम. प्रथम वर्ष में पढ़ रहा उनका बेटा दनदनाता हुआ दरवाजे पर रुका। उसे देखकर मेरा ‘दुर्जन’ प्रसन्न हो गया। वह बजाज कम्पनी की पल्सर मोटर सायकिल पर दनदनाता हुआ आया था और उसने किसी फिल्मी नायक की तरह एकदम ब्रेक लगा कर गाड़ी रोकी थी। उसे देखकर उनका गुस्सा तिरोहित हो गया। एकदम प्रेमल हो गए। “आजा! आजा!! अभी तेरी ही बात कर रहे थे। तेरा बीमा करा रहे हैं। जहाँ बैरागीजी कहें वहाँ दस्तखत कर दे और जो कागज माँगें, ला दे।”

‘दुर्जन’ को धकेल कर मेरा बीमा एजेण्ट आगे आया। कागजी खानापूर्ति की। कागज-पत्तर और पहली किश्त की रकम जेब के हवाले की। 

‘बीमा एजेण्ट’ का काम पूरा होते ही मेरा ‘दुर्जन’ हरकत में आ गया। अज्ञानी बन कर बच्चे से पूछा - “ये तो वही बाइक है ना जो बहुत तेज स्पीड से चलती है?” “हाँ अंकल। वही है। पल्सर। जोरदार बाइक है।” उसने गर्व और उत्साह से जवाब दिया। मेरे ‘दुर्जन’ ने फिर अज्ञानी का अभिनय करते हुए दुष्टतापूर्वक (और दुराशयतापूर्वक) पूछा - “तो सिटी में चलाने में तो तकलीफ आती होगी। अपने यहाँ तो लोगों में ट्रेफिक सेंस है ही नहीं?” मेरी बात को जोरदार धक्के से परे हटाते हुए लापरवाही से बोला - “अरे! बिलकुल नहीं अंकल! कोई प्रॉब्लम नहीं आती। सत्तर-अस्सी से कम पर इसे चलाई तो फिर इसे चलाने का मतलब ही नहीं। अपन तो बिन्दास चलाते हैं।” मेरा ‘दुर्जन’ खुश हो गया। चहक कर बोला - “इतनी स्पीड से चलाता है तो गाड़ी के ओरिजनल हार्न से काम चल जाता है?” मेरा सवाल उसे मूर्खतापूर्ण लगा। तनिक अचरज से बोला - “कैसी बात कर दी अंकल आपने? ओरिजनल हार्न की आवाज से कोई हटता है? इसमें तो तेज आवाजवाला ‘लाउड हार्न’ लगाना ही पड़ता है। ऐसा कि दो किलो मीटर आगे जानेवाला भी सुन ले और हट जाए।”

मेरे ‘दुर्जन’ का अभीष्ट पूरा हो चुका था। जैसे कोई ‘परम ज्ञान’ मिल गया हो, इस तरह उपकृत मुद्रा में उसे धन्यवाद दिया और अपना सयानापन जताते हुए सलाह दी - “वाह! यार नीलेश! क्या बात कही! मजा आ गया। फिर भी, अपना ध्यान रखना भई। कहीं, कुछ ऊँचा-नीचा न हो जाए।” मेरी अनदेखी करते हुए, लापरवाही से ‘थैंक्यू अंकल’ कहते हुए वह, जिस तरह दनदनाता घर के दरवाजे पर आया था, उसी तरह, दनदनाते हुए अन्दर चला गया।

मैंने उसके पिता की ओर देखा। उनकी दशा देखकर मेरा ‘दुर्जन’ भी परास्त हो गया।

मेरा काम तो पहले ही चुका था। रही बात उनके बातों के जवाब की? तो यह काम उनका बेटा मुझसे बेहतर ढंग से कर चुका था।  

भ्रष्टाचार से मुक्ति : पहले आप

“माननीय बैरागीजी! यूपीए सरकार के टू जी, थ्री जी, सी डब्ल्यू जी, कोलगेट जैसे घपलों और भ्रष्टाचार पर आपकी क्या राय है? कृपया बताने का कष्ट करें।”

विधान सभा चुनावों के दौरान 2013 में यह सवाल मेरे उन कृपालु ने (फेस बुक पर) पूछा था जो आयु में मुझसे छोटे हैं। एक तो आयु और दूसरे उनकी संस्कारशीलता। इसलिए वे मेरा बहुत लिहाज करते हैं और शायद इसीलिए यह सवाल मुझसे आमने-सामने नहीं पूछ सके होंगे। इसका समानान्तर सच यह है कि मुझे वे मुझसे बेहतर मनुष्य लगते हैं इसलिए मैं उनका लिहाज करता हूँ और इसीलिए मैं भी आमने-सामने उत्तर नहीं दे पाया। फेस बुक पर ही दे पाया। (वैसे भी, जिस मंच पर सवाल पूछा गया हो, जवाब भी उसी मंच पर दिया जाना चाहिए।)

सवालों की सापेक्षिकता मुझे हर बार पेरशान करती है। हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों के व्यवहार की विसंगतियाँ और विराधोभास सदैव ही मुझे आकर्षित करते रहे हैं। अब भी करते ही हैं। कथनी और करनी में अन्तर कौन राजनेता और कौन राजनीतिक दल नहीं करता? किन्तु यह संयोग ही है कि केवल भाजपाई, भाजपा और संघ परिवार ही आदर्शों का बघार सबसे ज्यादा लगाते हैं और खुद के सिवाय बाकी सबको भ्रष्ट, बेईमान और अराष्ट्रवादी साबित करने को उतावली बरतते हैं। सो, उनकी विसंगतियों और विरोधाभासों पर बारीक-बारीक चुटकियाँ लेते रहता हूँ। मेरे इन कृपालु को मेरी ऐसी हरकतें पसन्द नहीं आतीं। इसीलिए उन्होंने मुझे घेरने की यह कोशिश की। 

मुझे अच्छा भी लगा और उनकी मासूमियत पर हँसी भी आई। मैंने सहज भाव से जवाब दिया - “यूपीए सरकार के टू जी, थ्री जी, सी डब्ल्यू जी, कोलगेट जैसे घपलों और भ्रष्टाचार पर मेरी राय बिलकुल वही है जो एनडीए सरकार के कार्यकाल में और भाजपा शासित राज्य सरकारों के कार्यकाल में हुए घोटालों, घपलों और भ्रष्टाचार पर रही है। मेरी इस राय पर आपकी राय क्या है, यह जानने की उतावली मुझे बनी रहेगी। कृपया याद रखकर सूचित अवश्य करें।”

मैं जानता था कि उनकी राय मुझे कभी नहीं मिलेगी। मिल भी नहीं सकती थी। इस सवाल-जवाब (और मेरे अनुत्तरित सवाल) के बाद उनसे दो-तीन बार मुलाकात हुई। उनकी दशा देखकर मैं दुःखी हो गया। वे एक बार भी सहज और सामान्य होकर नहीं मिले। बात करते हुए वे ‘नत दृष्टि’ रहे। ऐसा मैंने कभी नहीं चाहा था।

केवल भ्रष्टाचार-घपलों को लेकर ही नहीं, प्रायः प्रत्येक अनुचित के प्रति हमारा, ऐसा सापेक्षिक दृष्टिकोण और व्यवहार ही हमारे मौजूदा संकटों का एकमात्र कारण लगता है मुझे। भ्रष्टाचार केवल भ्रष्टाचार होता है। अनुचित केवल अनुचित होता है। उसके प्रति सापेक्षिक दृष्टिकोण और व्यवहार बरतना अपने आप में भ्रष्टाचार और अनुचित है - ऐसी मेरी सुनिश्चित धारणा है। ऐसे सवाल पूछकर हम क्या जताना चाहते हैं? या तो यह कि चूँकि मेरे पूर्ववर्तियों/विरोधियों ने भ्रष्टाचार और अनुचित किया है इसलिए मुझे भी भ्रष्टाचार और अनुचित करने दिया जाए या फिर यह कि इसी तर्क पर मेरे भ्रष्टाचार, मेरे अनुचित की अनदेखी की जाए, उसे सहजता से स्वीकार किया जाए और उसकी अनदेखी की जाए। 

यह सापेक्षिक दृष्टिकोण मेरे गले नहीं उतरता। मेरा नियन्त्रण केवल मुझ पर है। सामनेवाले को तो छोड़ दीजिए, मेरी उत्तमार्द्ध और मेरे बच्चों पर भी मेरा नियन्त्रण नहीं है। ऐसे में, जो भी करना है, मुझे ही करना है और मुझ से ही करना है। सामनेवाले के अनुचित को, भ्रष्टाचार को मैं तभी अनुचित और भ्रष्टाचार साबित कर पाऊँगा जब मैं खुद भ्रष्टाचार और अनुचित नहीं करूँ। यदि मैं भी उसके जैसा ही करता हूँ तो उसमें और मुझमें फर्क ही क्या है? उसके भ्रष्टाचार, उसके अनुचित को मैं कैसे गलत कह सकूँगा और कैसे उसका विरोध कर सकूँगा?

यदि हम सचमुच में सदाचारी, स्वच्छ देश और समाज चाहते हैं तो इसकी शुरुआत हमें खुद से ही करनी पड़ेगी। लेकिन हमारे तमाम नेता, तमाम राजनीतिक दल और उनके तमाम अन्ध-समर्थक इसका ठीक उलटा कर रहे हैं। वे दूसरे को सुधारने में दिन-रात लगे हुए हैं। वे या तो जानते नहीं या फिर जानबूझ कर जानना नहीं चाहते कि वे कभी सफल नहीं हो सकेंगे। यदि सामनेवाले को सुधरना होता तो आपके कहने की प्रतीक्षा करता? खुद ही सुधर जाता।

वे (और हम) सब जानते हैं कि सुधार की शुरुआत खुद से ही की जानी चाहिए। लेकिन उसके लिए अत्यधिक आत्म-बल, दृढ़ इच्छा शक्ति आवश्यक होती है। इसमें परिश्रम भी अधिक करना पड़ता है और काफी-कुछ छोड़ना पड़ता है। दूसरे को बिगड़ा हुआ कहना, उसे कटघरे में खड़ा करना, उसकी खिल्ली उड़ाकर उसकी अवमानना करना अधिक आसान और मजेदार होता है। सो, सब (‘सब’ याने हम सब) यही कर रहे हैं।

सुधरना तो सब चाहते हैं किन्तु बड़ी विनम्रता, शालीनता और संस्कारशीलता से कह रहे हैं - “हुजूर! पहले आप।” 

ऐसे मिलती है रेल

यह 1984 से 1989 के काल खण्ड की बात है। दादा (श्री बालकवि बैरागी) लोकसभा सदस्य थे। माधवराजी सिन्धिया केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में रेल्वे राज्य मन्त्री थे। गोरखपुर-बान्द्रा-गोरखपुर के बीच इन दिनों चल रही ‘अवध एक्सप्रेस’ तब कोटा तक ही आती थी। कोटा से रतलाम तक के अंचल के लोग इसे रतलाम तक बढ़ाने की माँग कर रहे थे लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। दादा के संसदीय क्षेत्र मन्दसौर का एक बड़ा हिस्सा इस रेल खण्ड से जुड़ा हुआ था। दादा भी चाहते थे कि अवध एक्सप्रेस रतलाम तक बढ़ जाए और उनके क्षेत्र के हजारों लोगों को गोरखपुर-मुम्बई के लिए रेल सुविधा मिल जाए।

दादा बार-बार पत्र लिखते और हर बार उन्हें रटा-रटाया उत्तर मिल जाता। कभी प्रशासनिक कारणों से, कभी तकनीकी कारणों से, कभी परिचालन के लिए अनुकूल न होना बताते हुए तो कभी आवश्यक व्यवसाय न मिलने की बात कह कर असर्थता जता दी जाती। ऐसे बाठ-दस पत्र दादा के पास इकट्ठे हो गए थे।

एक बार, दिल्ली जाने के लिए दादा को रतलाम से रेल में बैठना था। मैं अपने कुछ मित्रों के साथ स्टेशन पर उनसे मिलने गया। मेरे मित्रों में दो मित्र श्री बाबूलाल वर्मा और श्री ओम प्रकाश शर्मा भी शामिल थे। दोनों ही रेल कर्मचारी थे। रेल मण्डल कार्यालय में पदस्थ थे और रेल कर्मचारियों के संगठन के प्रभावी कार्यकर्ता थे। बातों ही बातों में दादा ने तनिक झुंझलाहट से सारी बात बताई। सुन कर ओमजी ने कहा कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। अवध को रतलाम तक बढ़ाया जा सकता है। दादा चौंके। विस्तार से पूछताछ की। ओमजी ने कहा - ‘हम लोग कुछ कागज तैयार करके विष्णु भैया को दे देंगे और इन्हें सारी बात समझा देंगे। कागज मिलने पर आप इनसे बात कर लेना।’ दादा को विश्वास नहीं हुआ। मुझे भी नहीं हुआ। लेकिन ओमजी का कहा मानने में नुकसान भी कुछ नहीं था।

दादा को विदा करने के बाद, उसके ठीक बादवाले रविवार को वर्माजी और ओमजी ने मुझे बुलाया। वे दोनों रतलाम रेल मण्डल का ‘वर्किंग टाइम टेबल’ लिए बैठे थे। यह टाइम टेबल रेल परिचालन से जुड़े कर्मचारियों (यथा रेल चालक, गार्ड, नियन्त्रक आदि) के लिए होता है जिसमें रेलों की गति, कब-कहाँ किन ट्रेनों का क्रासिंग होगा, यात्रा मार्ग के किस खण्ड में कौन सा परिचालन निर्देश प्रभावी होगा जैसी जानकारियाँ होती हैं। हम तीनों, रेल मण्डल कार्यालय के ठीक सामने स्थित के सर्किट हाउस में बैठे। कोई 6 घण्टों के निरन्तर परिश्रम से इन दोनों मित्रों ने रतलाम से कोटा के बीच, प्रत्येक स्टेशन पर रुकनेवाली यात्री गाड़ी का वर्किंग टाइम टेबल बना कर दे दिया। टाइम टेबल के अनुसार रतलाम-कोटा भाग के लोगों को अवध एक्सप्रेस का कनेक्शन सुनिश्चित था। टाइम टेबल मुझे थमा कर दोनों ने मुझे वह ‘गुरु-ज्ञान‘ दिया जो मुझे दादा को बताना था।

मैंने कागज दादा को भेजे। कागज मिलते ही दादा ने मुझे फोन किया। वर्माजी और ओमजी ने जो कुछ मुझे समझाया था, वह मैंने ज्यों का त्यों दादा को सुना दिया और दोनों की हिदायत भी सुना दी - ‘माधवरावजी चाहे जो कहें, चाहे जो कहें, आपको एक ही बात कहनी है कि अवध एक्सप्रेस को रतलाम तक बढ़ाने की अपनी माँग आप वापस लेते हैं और आपका काम, कोटा में अवध एक्सप्रेस मिलानेवाली एक ‘लिंक ट्रेन’ से चल जाएगा।’

चौथे दिन दादा का फोन आया। वे रोमांचित थे। उन्होंने जो कुछ सुनाया वह अपने हमारे ‘लोकतन्त्र‘ की दारुण-दशा उजागर करता है।

दादा ने जो कुछ कहा वह कुछ इस तरह था -

माधवरावजी से समय लेकर उनसे मिलने गया। कहा कि अवध को रतलाम तक बढ़ाना तो मुमकिन है नहीं। इसलिए मैं अपनी वह माँग वापस लेता हूँ। आप बस! इतना कर दीजिए कि कोटा में अवध का कनेक्शन देने/लेने के लिए रतलाम-कोटा के बीच एक ‘लिंक ट्रेन’ दे दीजिए। आपकी और रेल प्रशासन की सुविधा के लिए मैं सम्भावित ‘वर्किंग टाइम टेबल’ भी तैयार करके लाया हूँ। यह कहते हुए मैंने अपना पत्र और वर्किंग टाइम टेबल माधवरावजी को थमा दिया।

माधवराजी ने कागज पलटे और ठठा कर हँस पड़े। बोले - ‘बैरागीजी! इस बार आप नींव के पत्थरों से बातें करके आये हैं। लग रहा है कि आपकी इमारत बन ही जाएगी।’ कह कर उन्होंने रेल्वे बोर्ड के चेयरमेन से फोन पर बात की। थोड़ी देर में चेयरमेन आ गए। माधवरावजी ने मेरे दिए कागज उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा - ‘अवध एक्सप्रेस को रतलाम बढ़ाने की अपनी माँग बैरागीजी ने छोड़ दी है। कह रहे हैं कि उनका काम तो एक लिंक ट्रेन से ही चल जाएगा। वर्किंग टाइम टेबल साथ लेकर आए हैं। आप देख लीजिए।’ 

चेयरमेन साहब ने कागज लिए। उन्हें पाँच-सात बार पलटा। वर्किंग टाइम टेबल को बार-बार देखा। अच्छे भले वातानुकूलित दफ्तर में भी उनके ललाट पर पसीना छलक आया। वे अपनी असहजता छुपा नहीं पाए। बड़ी मुश्किल से बोले - ‘सर! अपन लिंक ट्रेन कैसे दे सकते हैं? अपने पास एक्स्ट्रा रेक है कहाँ? इसके बजाय तो अवध को रतलाम तक बढ़ा देते हैं। अवध दोपहर में कोटा पहुँचती है और अगले दिन जाती है। रात भर कोटा में ही खड़ी रहती है।’ 

कुछ इस तरह कि मानो अपनी मर्जी के खिलाफ, मजबूरी में कोई समझौता कबूल कर रहे हों, माधवरावजी बोले - ‘इन्हें तो अवध चाहिए ही नहीं थी। ये तो लिंक ट्रेन माँगने आये थे। लेकिन आप इंकार कर रहे थे। कोई बात नहीं। आपकी बात मान लेते हैं। अवध को रतलाम तक बढ़ा देते हैं। नोट शीट भिजवा दीजिए और बैरागीजी को आप खुद ही कह दीजिए कि आप अवध को कोटा से रतलाम तक बढ़ा रहे हैं।’

रेल्वे बोर्ड के चेयरमेन की शकल देखने लायक हो गई थी। वे न तो माधवरावजी से नजरें मिला पा रहे थे और न ही मुझसे। बड़ी मुश्किल से, मुझसे मुखातिब हुए और बोले - ‘सर! आप बेफिक्र रहिए। ऑनरेबल मिनिस्टर साहब के आदेश के मुताबिक हम जल्दी ही अवध को रतलाम तक एक्सटेंण्ड कर देंगे।’ मैंने कहा - ‘अब तो देर होनी ही नहीं चाहिए। वर्किंग टाइम टेबल बना-बनाया आपके हाथों में है और आवश्यक निर्देश मन्त्रीजी ने दे ही दिए हैं। अब देर किस बात की?’ चेयरमेन साहब का गला सूख गया था। खँखार कर बोले - ‘सर! बहुत सारी बाते हैं। बट आई होप, विदइन ए मन्थ अवध रतलाम पहुँच जाएगी।’

मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अवध रतलाम तक बढ़ा दी गई है। स्थितियों में कहीं कोई अन्तर नहीं आया था। जो-जो कारण इंकार करने के आधार बताए गए थे वे सब जस के तस थे। लेकिन एक सेकण्ड में अवध रतलाम तक बढ़ा दी गई।

अब बाकी बातें आप खुद समझ लें। लेकिन कहानी का एक ‘ट्विस्ट’ अभी भी बाकी है।

जिस दिन अवध पहली बार रतलाम आई थी, उस दिन माधवरावजी खुद अवध में आये थे। रतलाम रेल्वे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर 4 पर अच्छा-खासा जलसा हुआ। अपने ओजस्वी भाषण में माधवरावजी ने कहा कि अवध एक्सप्रेस को कभी का रतलाम तक बढ़ा दिया जाता लेकिन अब तक रतलाम में इसका वाशिंग प्लेटफार्म नहीं बना था। अब बन गया है तो अवध को रतलाम तक बढ़ा दिया गया है।

हकीकत यह थी जब माधवरावजी यह कारण बता रहे थे, उस क्षण तक रतलाम में अवध के लिए वाशिंग प्लेटफार्म बना ही नहीं था।

बूझिए कि अवध एक्सप्रेस को कोटा से रतलाम तक किसने बढ़ाया।

यन्त्रणा से मुक्ति

सोलह महीनों से अधिक हो गए मुझे तेजाब की नदी में तैरते-तैरते। अज्ञात अपराध-बोध से आकण्ठ ग्रस्त रहा इस दौरान। अपनी आस्थाओं, अपने मूल्यों, अपने विश्वास से विश्वास ही उठ गया था मेरा। ‘भलमनसाहत’, ‘नेकी’ जैसे जुमले मेरा मुँह चिड़ाते लगते रहे मुझे इस दौरान। दशा यह हो गई थी कि अपने आदर्शों, अपने  आशावाद पर मुझे शर्म आने लगी थी। खुद से ही नजरेें मिला पाना मुमकिन नहीं रह गया था। ये सोलह महीने मैं कैसे जी लिया? ताज्जुब है मुझे। लगा था कि अब शेष जीवन मुझे इसी तरह रहना है। निश्चय ही ईश्वर की कृपा मुझ पर बनी रही जो मैंने बुद्धि की बात नहीं सुनी। विवेक नियन्त्रित किए रहा और मैं आत्महत्या करने के, ईश्वर के प्रति अपराध से  बच गया। 

कोई एक सप्ताह पहले जब हकीकत मालूम हुई तो खुद से नजरें मिला पाया। सब कुछ पल भर में तिरोहित हो गया। मैं हलका हो गया। कुछ ऐसा और इतना मानो अन्तरिक्ष में भारहीनता की दशा में तैर रहा हूँ।

सन् 2007 की दूसरी छःमाही में उनसे सम्पर्क हुआ था। पहली ही मुलाकात में उन्होंने, सीधे-सीधे नहीं, भरपूर घुमाव देकर दो बातें जता दी थीं। पहली - वे मुझसे सम्पर्क बनाना, बढ़ाना और बनाए रखना चाहते हैं। दूसरी - उनकी आर्थिक हैसियत बहुत अच्छी नहीं है। पहली बात मैं नहीं जानता था। दूसरी जानता था-उनके जताने से पहले ही। आर्थिक हैसियत मेरे लिए कभी कोई समस्या या विषय नहीं रही। मैंने सातवीं कक्षा तक, दरवाजे-दरवाजे जाकर, मुट्ठी-मुट्ठी आटा माँगा है। 1991 में एक बार फिर भिक्षा वृत्ति की कगार पर आ खड़ा हुआ था। मित्रों ने सम्हाल लिया। सो, आर्थिक हैसियत मेरे लिए कभी मुद्दा रही ही नहीं। इसलिए उनसे सम्पर्क बनाने, बढ़ाने और बनाए रखने में मुझे कहीं कोई असुविधा नहीं हुई।

कोई छः महीनों बाद ही, मार्च 2008 में उनकी बेटी का ब्याह तय हो गया। उनकी बातों से लगा कि वे मुझसे कुछ अधिक और अतिरिक्त की अपेक्षा रखते हैं। ईश्वर ने हमें बेटी नहीं दी। इसी भावना के अधीन मैंने अपनी सीमाओं से बाहर जाकर उनकी सहायता की। खुद से और खुद के सार्वजनिक सम्मान से अधिक चिन्ता उनकी और उनके सार्वजनिक सम्मान की की। चूँकि यह सब मैंने स्वेच्छा से ही किया था, सो यह खुद के सिवाय किसी और पर उपकार नहीं था। मेरे इस अति उत्साह से मेरे परिजन और मित्र विस्मित थे। वे मुझे बार-बार और निरन्तर रोकते-टोकते रहे। लेकिन मैं नहीं रुका। अपने मन की करता रहा। करके ही रहा। अपने परिजनों और मित्रों की नाराजी झेलकर यह सब किया मैंने। कुछ लोग तो अब तक नाराज हैं मुझसे।

सब कुछ राजी-खुशी, सानन्द, सोल्लास, निर्विघ्न निपट गया। बेटी, बाप के घर से अपने घर चली गई। मैं बहुत ही खुश था। मुझे किसी अच्छे काम में भागीदार होने का सौभाग्य दिया था ईश्वर ने।

सब कुछ ठीक-ठीक ही चल रहा था। पानी ठहरा हुआ था। सब कुछ धीर-गम्भीर, शान्त, आनन्ददायी।

किन्तु वक्त एक जैसा नहीं रहता। मार्च 2013 में एक दिन अचानक उन्होंने मुझे, मेरे ही घर में, मेरी उत्तमार्द्ध के सामने मुझे जी भर कर कोसा, उलाहने दिए, डाँटा-फटकारा। कोई बीस-पचीस मिनिट तक मेरी लू उतराई का समापन यह कह कर किया कि इन पाँच बरसों में उन्होंने हम लोगों को ‘अच्छी तरह से देख लिया’ और अब वे हमसे ‘भर पाए।’ 
मेरे लिए कुछ भी समझ पाना मुमकिन नहीं हो रहा था। मानों, बस! उन्हें कहना था। कह गए। 

वह दिन और कोई सप्ताह भर पहले तक का दिन। मैं, मैं नहीं रह गया। मुझे कोई कारण नजर नहीं आ रहा था कि वे मुझे यह सब सुना जाएँ। किसी भी स्त्री के लिए अपनी उपस्थिति में अपने पति की अवमानना देखना-सुनना सहज-सम्भव नहीं होता। सो, मेरी उत्तमार्द्ध मुझसे अधिक हतप्रभ, दुःखी, खिन्न, अप्रसन्न, आक्रोशित।

इन सोलह महीनों में मैं सचमुच में मानो जिन्दा लाश बन कर रह गया। अपने आप से नफरत हो गई। अज्ञात अपराध बोध चौबीसों घण्टों मन पर छाया रहा। परिजनों-मित्रों की नाराजी मोल लेकर की गई उनकी सहायता पर पछतावा होने लगा। तय कर लिया कि अब किसी की सहायता नहीं करनी। भाड़ में गई भल मनसाहत। भाड़ में गई नेकी। किसी का भला करने का जमाना नहीं रहा। पूरी दुनिया और अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा। घर से बाहर तभी निकलना जब मजबूरी हो। न किसी से मिलने को मन हो न किसी उत्सव समारोह में जाने का। 

लिखना-पढ़ना लगभग ठप्प ही हो गया। (अन्तिम ब्लॉग पोस्ट 03 मई 2013 को लिखी थी।) किसी से बात करने की इच्छा न हो। कोई मिलने आए तो उससे मिलने को जी न करे। एलआईसी दफ्तर जाना मजबूरी। लेकिन जाने का मन न करे। जाऊँ तो सबसे इस तरह नजरें चुराऊँ मानो मैंने सबका कोई बहुत बड़ा नुकसान कर दिया हो। 

मैं अपनी जगह दुःखी और मेरी चिन्ता करनेवाले मुझसे अधिक दुःखी। जब मुझे ही कुछ समझ नहीं पड़ रहा हो तो  मैं औरों को क्या बताऊँ, क्या समझाऊँ? मेरे ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी सबसे ज्यादा कुपित। मेरा लिखा हुआ पढ़ने को बेचैन रहनेवाला धर्मेन्द्र रावल लगभग रोज ही फोन करे - ‘कब तक निहाल हुए बैठे रहोगे। लिखना शुरु किया? नहीं किया? कब करोग? जल्दी करो।’ एलआईसी में मेरी चिन्ता करनेवाले राकेश कुमारजी समझा-समझा कर थक गए। जाने-अनजाने अनगिनत कृपालु लगातार पूछताछ करते रहे। अब भी कर रहे हैं। 

लेकिन जिस तरह मार्च 2013 में वक्त नहीं ठहरा। उसी तरह अभी-अभी कोई सप्ताह भर पहले ही वक्त फिर चंचल हो गया। 

‘उनके’ एक परिजन अकस्मात आए। उन्हें मालूम पड़ा तो दुःखी हो गए। उन्होंने बताया कि मेरी लू उतारनेवाले कृपालु अपनी आर्थिक दशा को लेकर सदैव हीनता-बोध से ग्रस्त रहते हैं। आर्थिक सन्दर्भों में उन्हें, जो भी उनसे तनिक बेहतर मिलता है, वे मान लेते हैं कि सामनेवाला उनका हक मारकर उनसे बेहतर बन गया है। आर्थिक सन्दर्भों में वे सदैव अतिरिक्त चौकन्ने और उग्र रहते हैं। इसी कारण उनकी उत्तमार्द्ध अपने माता-पिता की सम्पत्ति में से कुछ प्राप्त करने के लिए अपने भाइयों के साथ मुकदमेबाजी भी कर चुकी है। उनके इन परिजन ने जो बताया उससे लगा कि मैं बाकी सबसे अधिक अभागा रहा। 

उनकी बेटी के विवाह में मेरी भूमिका की, उनके परिजनों ने बड़ी प्रशंसा की। जब भी, कभी भी, किसी के भी सामने उनकी बेटी के विवाह की चर्चा हुई, तब-तब हर बार मेरी मुक्त-कण्ठ प्रशंसा हुई। उनके इन परिजन ने बताया - ‘आपकी प्रशंसा से वे उकता गए, अघा गए और अपनी आदत के मुताबिक इस सबको अपनी बेइज्जती मान बैठे और आपको निपटा गए।’ लेकिन ये परिजन यहीं नहीं रुके। उन्होंने अगली बात जो बताई वह मेरे लिए सर्वथा अकल्पनीय थी। इन परिजन ने बताया कि जैसा मेरे साथ किया गया उतना तो नहीें किन्तु कुछ-कुछ वैसा ही वे अन्य लोगों के साथ भी कर चुके हैं। जैसे ही उन्हें लगता कि जिन्होंने उनकी मदद की है उनके यहाँ कोई ऐसा प्रसंग आनेवाला है जिसमें उन्हें व्यवहार निभाना पड़ेगा। तो वे (इस व्यवहार निभाने में आनेवाले आर्थिक वजन से बचने के लिए) सामनेवाले से ‘तुम हमारे लिए मर गए और हम तुम्हारे लिए’ की सीमा तक झगड़ा कर लेते हैं। फिर, जैसे ही सामनेवाले के यहाँ प्रसंग पूरा हुआ नहीं कि महीने-बीस दिनों के बाद जाकर माफी माँग लेते हैं।

इन परिजन ने बताया - ‘उनकी बेटी के विवाह में आपने जो कुछ किया उसे वे कैसे भूल सकते हैं? लेकिन जैसा और जितना आपने किया, वह सब, वैसा का वैसा कर पाना उनके लिए, कम से कम आज तो सम्भव नहीं। उन्हें पता है कि आपके छोटे बेटे का विवाह कभी भी हो सकता है। तब वे क्या करेंगे? यही सोच कर उन्होंने आपको निपटा दिया होगा और आपसे भर पाए होंगे। आप देखना, आपके छोटे बेटे के विवाह के महीना-बीस दिन बाद वे आकर आपसे माफी माँग लेंगे।’ 

पता नहीं, इन परिजन ने कितना सच कहा। लेकिन ऐसी कुछ बातें मैं पहले भी सुन चुका था। उनका साला खुद आकर, उसके साथ हुए ऐसे ही दो-एक किस्से मुझे सुना गया था। इन परिजन की इन बातों ने मानो मुझे मेरी जिन्दगी लौटा दी। मुझे पहली बार अपने निर्दोष होने की प्रतीति हुई। मैं हलका हो गया। बहुत हलका। अन्तरिक्ष में भारहीनता की स्थिति में तैरता हुआ। अब मैं खुद से नजरें मिला पा रहा हूँ। मुझे भोजन में स्वाद आने लगा है। मुझे लग रहा है मानो मैं अभी, पाँच-सात दिन पहले ही पैदा हुआ हूँ।

इन परिजन से बात होने के अगले ही क्षण से मैं जड़ से चेतन हो गया था। उसी दिन से लिखना शुरु कर सकता था। किन्तु जानबूझकर रुक गया।

आज गुरु पूर्णिमा है। अपने ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी को आज के दिन मैं अपनी इस शुरुआत से प्रणाम कर रहा हूँ। वे निश्चय ही प्रसन्न होंगे और मुझे क्षमा कर, मेरा यह प्रणाम स्वीकार करेंगे। राकेश कुमारजी को भी मैं प्रणाम करता हूँ। वे मेरी चिन्ता मुझसे अधिक करते हैं। उन्हें भी अच्छा लगेगा। वे मुझ पर कुपित तो नहीं किन्तु मुझसे खिन्न अवश्य हैं। यह शुरुआत उनकी इस खिन्नता को कम करेगी, यह आशा करता हूँ।

और रहा धर्मेन्द्र! तो तय है कि यह पोस्ट पढ़ते ही उसका फोन आएगा। कहेगा -‘बहुत हो लिए निहाल। अब लिखते रहना।’


निहाल हुए हम बूढ़े हो कर



अदम्य : जन्म शाम 7.04 पर। यह चित्र 7.55.41 बजे का। 

इससे मिलिए। यह है ‘अदम्य’ - हमारी मौजूदा गृहस्थी की तीसरी पीढ़ी का पहला सदस्य। हमारा पहला पोता। इसका जन्म तो हुआ 22 मार्च की शाम 7 बजकर 4 मिनिट पर पर। किन्तु उस सुबह 5 बजे से ही हमारी सम्पूर्ण चेतना, सारी गतिविधियाँ, सारी चिन्ताएँ, सारे विचार इसी पर केन्द्रित हो गए थे - इसकी माँ, प्रशा को उसी समय इसने अपने आगमन की पहली सूचना दी थी। 

21 मार्च की शाम को, प्रशा को, डॉक्टर को दिखाया था। डॉक्टर ने कहा था - 15 अप्रेल को या उसके बाद ही प्रसव होगा। किन्तु 21 और 22 मार्च की सेतु रात्रि में, कोई दो बजे से प्रशा असामान्य हो गई। कोई तीन घण्टे तक वह सहन करती रही। अन्ततः, सुबह पाँच बजे अपनी सास, मेरी उत्तमार्द्ध को उठा कर अपनी स्थिति बताई। उन्होंने मुझे उठाया और फौरन ही डॉक्टर से फोन पर बात की। डॉक्टर ने कहा - ‘स्नान-ध्यान कर आठ बजे ले आइए।’

सुबह 8 बजे प्रशा को अस्पताल में भर्ती करा दिया। डॉक्टर ने पहले ही क्षण कहा - ‘डिलीवरी आज ही होगी। शाम चार बजे तक नार्मल की प्रतीक्षा करेंगे। नहीं हुआ तो सीजेरियन करना पड़ेगा।’

परिवार में हम दो ही सदस्य और दोनों ही अस्पताल में। याने हमारा पूरा परिवार अस्पताल में। सुबह नौ बजे बेटे वल्कल को, मुम्बई सूचित किया। शाम छः बजे वल्कल पहुँच गया। मुम्बई से इन्दौर तक वायुयान से और इन्दौर से रतलाम तक मोटर सायकिल से यात्रा की उसने।

चार बजे तक तो हम सब सामान्य थे किन्तु उसके बाद से, ‘सीजेरियन’ की कल्पना से ही घबराहट होने लगी। प्रशा को चार बजे से ही डाक्टर और नर्सों ने ‘लेबर रूम’ में ले लिया था। उनकी भाग-दौड़ हमें नजर तो आ रही थी किन्तु कोई भी हमसे बात नहीं कर रहा था। घड़ी के काँटे जैसे-जैसे सरकते जा रहे थे, मेरी आँखों के आगे चाकू-छुरे नाचने लगे थे। अस्पताल के कर्मचारियो में से कोई भी हमसे कुछ नहीं कह रहा था किन्तु मुझे बार-बार ‘आपमें से कौन खून दे रहा है?’ सुनाई दे रहा था। मेरी नसें खून का दबाव नहीं झेल पा रही थीं। मैं अपनी ही धड़कनें साफ-साफ सुन रहा था। मेरी कनपटियाँ चटक रहीं थीं। घबराहट के मारे मुझसे बोला नहीं जा रहा था। मैं ईश्वर से एक ही प्रार्थना कर रहा था - प्रशा को सीजेरियन से बचा ले।

पाँच बज गए। छः बज गए। नर्सों की आवाजाही कम हो गई थी। सात बज गए। लेकिन कहीं से कोई खबर नहीं। मैं पस्तहाल हो, ऑपरेशन थिएटर के बाहर बेंच पर बैठ गया। लगभग सात बजकर दस मिनिट पर एक नर्स बाहर आई और मेरी उत्तमार्द्ध से बोली - ‘आप कुछ कपड़े लाए या नहीं? लाइए! कपड़े दीजिए।’ मेरी उत्तमार्द्ध पूरी तैयारी से आई थी। फौरन ही कपड़े दिए। कपड़े लेकर नर्स जिस तरह से अचानक प्रकट हुई थी, उसी तरह अन्तर्ध्यान हो गई। न तो उसने बताया और न ही उसने पूछने का मौका दिया कि कपड़े माँगने का मतलब क्या है। मैं ही नहीं, हम सब सकते में थे। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था। तभी, मेरी बाँह थपथपाकर, ढाढस बँधाते हुए मेरी उत्तमार्द्ध बोलीं - ‘खुश हो जाइए। डिलीवरी हो गई है। आप दादा बन गए हैं।’ मुझे विश्वास नहीं हुआ। नर्स ने तो कुछ नहीं कहा! फिर ये कैसे कह रही हैं? मैंने पूछा - ‘आपको कैसे मालूम? नर्स ने तो कुछ भी नहीं कहा।’ वे सस्मित बोलीं - ‘ईश्वर ने यह छठवीं इन्द्री हम औरतों को ही दी है। कुछ पूछिए मत। किसी को फोन कीजिए। फौरन मिठाई मँगवाइए।’ मैं नहीं माना। मैं कुछ पूछता उससे पहले नर्स फिर प्रकट हुई। मैं कुछ बोलूँ उससे पहले ही वह, हवाइयाँ उड़ती मेरी शकल देख, मुस्कुराती हुई मेरी उत्तमार्द्ध से बोली - ‘सर को अभी भी समझ में नहीं आया होगा। डिलीवरी हो गई है। नार्मल हुई है और बाबा हुआ है।’ कह कर नर्स एक बार फिर हवा हो गई।

ऑपरेशन थिएटर के बाहर बैठे हम तमाम लोग एक क्षण तो कुछ भी समझ नहीं पाए। लेकिन पलक झपकते सब समझदार हो गए। सब हमें और एक दूसरे को बधाइयाँ दे रहे थे। लेकिन हम दोनों? पता नहीं क्या हुआ कि ‘डिलीवरी नार्मल हुई है’ सुनकर हम दोनों के हाथ अपने आप ही आकाश की ओर उठ गए। हम दोनों की आँखें झर-झर बह रहीं थीं। उस क्षण हमें भले ही अपना भान नहीं था किन्तु हमें, अपनी वंश बेल बढ़ने से अधिक प्रसन्नता इस बात की थी कि हमारी प्रशा, सीजेरियन का आजीवन कष्ट भोगने से बच गई। ईश्वर की यह अतिरिक्त कृपा हमें अनायास ही ‘उसके प्रति’ नतमस्तक किए दे रही थी। हमें सामान्य होने में तनिक देर लगी और जब हम खुद में लौटे तो रोमांचित थे - ‘अरे! हम तो दादा-दादी बन गए!’ हम दोनों आपस में कुछ भी बोल नहीं पा रहे थे। थोड़े सहज हुए तो हम दोनों ने वल्कल को बधाइयाँ और आशीष दी। तभी नर्स, हमारे परिवार की अगली पीढ़ी के पहले सदस्य को कपड़ों में लिपटाए लाई और मेरी उत्तमार्द्ध को थमा दिया। उपस्थित लोगों के मोबाइल की फ्लेश गनें चमकने लगीं। 

इसके बाद जो-जो होना था, वह सब हुआ। हमारी जिन्दगी बदल चुकी थी। क्या अजीब बात है कि एक नवजात शिशु ने पल भर में हमें बूढ़ा बना दिया था और हम थे कि निहाल हुए जा रहे थे!

फुरसत में तो हम पहले भी नहीं थे किन्तु इस शिशु ने हमें अत्यधिक व्यस्त कर दिया। हमारी व्यस्तता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 22 मार्च के बाद मैं अब यह पोस्ट लिख पा रहा हूँ - कोई डेड़ माह बाद। ये तीन पखवाड़े हम लोग जिन्दगी भर नहीं भूल पाएँगे। 

22 मार्च को पोता आया और 30 मार्च को मेरी जन्म तारीख थी। दोनों प्रसंगों पर हमारे परिवार पर और मुझ पर, कृपालुओं/शुभ-चिन्तकों की जो अटाटूट कृपा-वर्षा हुई, उस सबके प्रति मैं धन्यवाद और कृतज्ञता ज्ञापित करने का न्यूनतम, सामान्य शिष्टाचार भी नहीं निभा पाया। 

मेरी इस पोस्ट को ही मेरा धन्यवाद/कृतज्ञता ज्ञापन और मेरी क्षमा याचना मानें, स्वीकार करें और उदारमना हो, मुझे क्षमा करने का उपकार करें। 

इन तीन पखवाड़ों के हमारे अनुभव आपको निश्चय ही आनन्द देंगे। आप सब हमारे मजे ले सकें, इसलिए वह सब लिखूँगा - जल्दी से जल्दी।


पोते को निहारती दादी: चित्र 7.45.39 बजे।



अपने बेटे के साथ मुदित मन माता-पिता, प्रशा और वल्कल। चित्र 7.51.04 बजे।



अपने नवजात बेटे को देख खुश हो रहा पिता, वल्कल। चित्र 7.55.11 बजे।

ऐसी प्रताड़ना सबको मिले


नहीं। मुझे मिली इस अनूठी प्रताड़ना को आप तक पहुँचाने के लिए मैं शब्दों की कोई सजावट नहीं करूँगा। सब कुछ, वैसा का वैसा ही रख दूँगा जो मेरे साथ हुआ। सजावट, आकर्षक या नयनाभिराम भले ही लगे किन्तु वास्तविकता को ढँक सकती है। विरुदावलियों की सुन्दरता, तथ्यों को नेपथ्य में धकेल सकती हैं।

‘आपको यह सवाल पूछने की जरूरत क्यों पड़ी? आपने मेरे या हमारी फेमिली के किसी भी मेम्बर के व्यवहार में ऐसा क्या देख लिया या किसी ने आपसे ऐसा क्या कह दिया कि आपने यह सवाल पूछ लिया?’ यह सवाल नहीं था। यह सीधी डाँट-फटकार, प्रताड़ना थी। मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मैं विजय से आँखें मिलाऊँ। लेकिन इससे भी पहली बात यह थी कि विजय खुद ही मुझसे आँखें मिलाने से बचते हुए मुझे डाँट रहा था। विजय के संस्कार कहिए या कि मेरे प्रति उसके मन में बैठा आदर भाव  िकि वह चाहकर भी गुस्सा नहीं कर पा रहा था। मेरे अब तक के जीवन में यह पहली ही बार था कि डाँटनेवाला खुद ही नजरें बचा रहा हो।

विजय याने विजय कान्त माण्डोत। चन्दू भैया का इकलौता छोटा भाई। चन्दू भैया याने चन्द्रकान्त माण्डोत जिनके बारे में मैंने, कोई चार बरस पहले, यहाँ लिखा था। सामने आ रही 25 मई को चन्दू भैया सत्तावनवें साल में प्रवेश कर जाएँगे। विजय उनसे चार साल छोटा है। 19 अप्रेल को तरेपन साल पूरे कर लेगा। (चित्र में बाँयी ओर विजय तथा दाहिनी ओर चन्दू भैया।)

दोनों भाई पितृ-विहीन। मुझ जैसे ही। गृहस्थियाँ अलग-अलग हैं किन्तु परिवार एक ही है। गैस एजेन्सी और विज्ञापन एजेन्सी का काम है। कौन सा काम कौन करता है - यह या तो आय-कर विभागवाले जानते होंगे या इनके कर सलाहकार या फिर इनका हिसाब-किताब देखनेवाला। हम सबकी तरह ये दोनों भी सामान्य और अपूर्ण मनुष्य हैं - कमियों-खामियों, अच्छाइयों-बुराइयों, विशेषताओं-विसंगतियों से भरे। किन्तु दोनों को जमाने की हवा नहीं लग पाई है। चन्दू भैया दादा-नाना बन गए और विजय अभी-अभी ‘ससुरा’। किन्तु दोनों के दोनों अभी तक ‘पिछड़े हुए’ ही हैं-एक दूसरे की चिन्ता करते हैं और लिहाज पालते हैं। विजय के लिए ‘बड़ा भाई, बाप बराबर और भाभी, माँ समान’ तो चन्दू भैया के लिए विजय, अपने बेटे पीयूष के बराबर। बात परिवार की हो या व्यापार की, सारे फैसले चन्दू भैया के जिम्मे ही होते हैं किन्तु जिम्मेदारी के इस भाव ने चन्दू भैया को कभी मनमानी नहीं करने दी। अन्तिम फैसला जरूर चन्दू भैया का किन्तु भावनाएँ सबकी।

मुझसे परिचय होने के बाद इनके परिवार के प्रायः सारे बीमे मुझे ही मिले। किसका, कितना बीमा करना है, यह फैसला जरूर चन्दू भैया ने ही किया लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि मुझसे पहली बार बात करने के बाद चन्दू भैया ने मुझे सेवा का मौका दिया। कोई भी बीमा देने से पहले उन्होंने मुझे कम से कम दो-दो बार तो बुलाया ही। जाहिर है कि पहली बार मुझसे जानकारी ली और अन्तिम निर्णय पर पहुँचने से पहले ‘आपस’ में बात की। एक भी बीमे के बारे में मुझे कभी भी विजय से बात नहीं करनी पड़ी।

अभी, 2 दिसम्बर 2012 को विजय के बड़े बेटे अंकुर का विवाह हुआ। अंकुर पहले से ही मेरा पॉलिसीधारक है किन्तु विवाहोपरान्त हम बीमा एजेण्टों के लिए सम्भावनाएँ बन भी जाती है और बढ़ भी जाती हैं। इसी ‘स्वार्थी और लालची’ मनःस्थिति में मैं चूक कर बैठा।  विजय से पूछ बैठा - ‘अंकुर और नई बहू के बीमे के बारे में मुझे किससे बात करनी है - चन्दू भैया से, तुमसे या अंकुर से?’ बिना सोचे-विचारे बोलने की मूर्खता मैं कर चुका हूँ - यह बात तत्क्षण समझ में तो आ गई थी किन्तु बात जबान से निकल चुकी थी। अब मरम्मत का न तो अवसर था और न ही कोई गुंजाइश। जवाब वह आया जो आप पहले पढ़ चुके हैं। 

विजय की शकल बता रही थी कि मेरी बात उसे जहर भरे तीर की तरह चुभी है। उसकी ‘पारिवारिकता’ पर मैंने अविश्वास जता दिया था। बड़े भाई के प्रति उसकी श्रद्धा और निष्ठा पर सन्देह कर लिया था। संस्कारशीलता से उपजी विवशता के कारण वह मुझ पर गुस्सा नहीं कर पा रहा था। लेकिन उसकी खिन्नता, अप्रसन्नता, असहजता, छुपाए नहीं छुप पा रही थी। खुद को संयत बनाए रखने में उसे कितनी कठिनाई हो रही है-यह मैं उसके चेहरे पर पढ़ रहा था। मुझे अपने पर झेंप आ रही थी - ‘मैं यह क्या कर बैठा?’

मैंने अपनी मूर्खताभरी चूक दुरुस्त करने की कोशिश की जरूर किन्तु मैं कामयाब नहीं हो पाया। मैं अपनी ही नजरों में हास्यास्पद हो चुका था। झेंप के बारे मेरा बुरा हाल था। मैंने सीधे-सीधे माफी माँगी। मेरे मन में उपजे वे कारण बताए जिनके अधीन मैंने यह मूर्खता की थी। लेकिन जब, मेरी बातें मुझे ही खोखली लग रही थीं तो भला, विजय उन पर कैसे विश्वास करता?

हम दोनों एक दूसरे के सामने चुप खड़े थे। धान मण्डी की भीड़ की आवाज पर हमारे बीच पसरा मौन भारी पड़ रहा था। मैंने एक बार फिर माफी माँगी। मैंने देखा, विजय की आँखें पनीली हो आई थीं। भीगी-भीगी, धीमी आवाज में बोला - ‘आप पहले भी चन्दू भैया से ही पूछते रहे हैं। अभी भी उनसे ही पूछिएगा। वे ही सब कुछ तय करते आए हैं। आगे भी वे ही तय करेंगे।’ और विजय बाहर निकल गया - निःशब्द।

अब इस बात का कोई मतलब नहीं रह जाता कि चन्दू भैया से मेरी क्या बात हुई या कि मुझे नये जोड़े का बीमा मिला या नहीं। मतलब रह जाता है तो बस यही कि विजय की प्रताड़ना ने मुझे विगलित कर दिया। निहाल हो गया मैं।

सम्बन्धों की ऊष्मा कम होने, आत्मीयता और परस्पर चिन्ता के क्षय होने, ‘कुटुम्ब’ तो दूर रहा, परिवार भी ‘एकल’ से नीचे उतर कर ‘सूक्ष्म’ होने के इस दौर में, जबकि बेटा अपने माँ-बाप की सुपारी दे रहा हो, मुझे विजय की यह प्रताड़ना, भारतीयता की जड़ों में विश्वास दिला गई।

हे! ईश्वर! ऐसी प्रताड़ना मुझे (और मुझे ही क्यों? हर किसी को) रोज-रोज मिले। इस प्रताड़ना  को किसी की नजर न लगे।

पत्रकारिता याने ‘निपटा दो स्सा ऽ ऽ ऽ ले को’


17 मार्च रविवार को, ‘जनसत्ता’ में, ‘अनन्तर’ स्तम्भ में श्री ओम थानवी के, ‘अक्ल बड़ी या भैंस’ शीर्षक आलेख के, तीसरे पैराग्राफ के पहले दो वाक्यों ‘अखबारों की सबसे बड़ी समस्या है, समझ और सम्वेदनशीलता की कमी। इसके कारण सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि का उनमें अभाव दिखता है।’ ने मुझे यह संस्मरण लिखने को विवश कर दिया।

यह, 1970 से 1975 के बीच की बात है। मैं मन्दसौर में, ‘दैनिक दशपुर दर्शन’ का सम्पादक था। जिला युवक काँग्रेस के अध्यक्ष श्री सौभाग्यमल जैन ‘करुण’, अखबार के मालिक थे। मन्दसौर तब आठ तहसीलोंवाले अविभाजित मन्दसौर जिले का मुख्यालय था। कालान्तर में इसका विभाजन हो गया और चार तहसीलें मिला कर नीमच जिला बना दिया गया। उन दिनों मन्दसौर की जनसंख्या एक लाख से भी कम थी।

अखबार यद्यपि ‘काँग्रेसी का’ था किन्तु ‘काँग्रेस का’ नहीं था। ऐसी प्रत्येक कोशिश को मैंने असफल किया। सौभाग्य भाई की पीठ सुनती है कि उन्होंने एक बार भी मुझे रोका-टोका नहीं। मेरी इन ‘हरकतों’ के कारण उन्हें काँग्रेस के, प्रादेशिक स्तर के नेताओं से प्रायः ही खरी-खोटी और अच्छी-बुरी सुननी पड़ती रहती थी।

पूरे अविभाजित मन्दसौर जिले पर भारतीय जनसंघ का दबदबा था। एक समय वह भी था कि वहाँ की सातों ही विधान सभा सीटों पर भारतीय जनसंघ का ‘दीपक’ जगमगा रहा था। किन्तु 1967 में पहली बार जनसंघ के इस ‘अभेद्यप्रायः दुर्ग’ में दरार आई जब दादा ने श्री सुन्दरलालजी पटवा को हराया था। बाकी छहों सीटों पर जनसंघ का कब्जा कायम रहा था। पटवाजी जिले के ‘एकमात्र पराजित जनसंघी उम्मीदवार’ बने थे।

मैं जिन सज्जन की बात कर रहा हूँ ‘वे’ मन्दसौर जिले के एक विधानसभा क्षेत्र से विधायक थे। अपने विधान सभा मुख्यालय पर नहीं रहते थे। मूलतः, मन्दसौर के पास के एक गाँव के निवासी थे और मन्दसौर में रहते थे। मैं उनका नाम नहीं लिखूँगा। ‘वे’ अब दुनिया में नहीं हैं। 

‘वे’ प्रखर वक्ता थे। जन-रोचकता और आक्रामकता उनके भाषणों के प्रमुख तत्व हुआ करते थे। संघ/जनसंघ/(और आज की भाजपा) के सामान्य वक्ताओं की तरह ‘वे’ भी ‘विचार’ की दुहाई देकर ‘व्यक्ति’ पर प्रहार करने में विशेषज्ञ थे। दादा तब तक लोकप्रिय जननेता के रूप में स्थापित हो चुके थे - इस सीमा तक कि जनसंघ के लगभग प्रत्येक वक्ता का भाषण, दादा के व्यक्तित्व-हनन के बिना कभी पूरा नहीं होता था। किन्तु कुछ लोग इस क्रम में दादा को पीछे छोड़ मेरी भाभीजी तक को निशाने पर लेने में संकोच नहीं करते थे। जैसा कि होता ही है, घटिया उपमाओं, अभद्र भाषा-शब्दावली से सजे ऐसे भाषण लोगों को खूब पसन्द भी आते। ‘वे’ भी ऐसा ही करते थे। मुझे बहुत बुरा लगता। गुस्सा आता। तमतमा कर दादा से कहता - “आप तो ‘सरस्वती-पुत्र’ हैं। बड़ी सुन्दरता और शालीनता से सबको जवाब दे सकते हैं। जवाब क्यों नहीं देते?” दादा हर बार मुस्कुरा कर, कभी मेरी पीठ, कभी मेरा कन्धा तो कभी मेरा माथा थपथपाते हुए कहते - ‘तू क्या समझता है मुझे तकलीफ नहीं होती? होती है। लेकिन अपन भी वैसा ही करने लगे तो उनमें और अपने में फरक ही क्या रह जाएगा? लोगों की समझ पर भरोसा रख। लोग सब समझते हैं। तेरी भाभी का मजाक उड़ानेवाले उनके भाषणों पर तालियाँ बजानेवाले भी उन्हें ही बुरा कहेंगे।” दादा की ऐसी बातें मुझे कभी अच्छी नहीं लगीं।

यह वह जमाना था जब मन्दसौर जैसी छोटी जगहों से निकलनेवाले अखबार, छपाई मशीन सहित सारे कामों पर पूरी तरह से मानव-श्रम पर निर्भर होते थे। स्टिक-कम्पोजिंग, गेली में पेज बनाना, हाथ से संचालित मशीन पर पेज का प्रूफ निकालना, पूरे पेज को ‘चेस’ में कस कर मशीन पर चढ़ाना और एक-एक पेज छापना। पाँव से चलाई जानेवाली ट्रेडल मशीन पर अखबार छपता था। दोपहर में 2 बजकर 40 मिनिट पर आकाशवाणी से प्रसारित होनेवाले ‘धीमी गति के समाचार’ मुखपृष्ठ के मुख्य समाचार का स्रोत होते थे। शाम तक तीन पेज छाप लिए जाते। रात आठ बजते-बजते मुखपृष्ठ तैयार हो जाया करता था। आकाशवाणी से, रात पौने नौ बजे प्रसारित होनेवाले समाचार की प्रतीक्षा की जाती थी। उस बुलेटिन में कुछ काम का हुआ तो ठीक वर्ना फटाफट अखबार छापने की तैयारियाँ शुरु हो जातीं। मुखपृष्ठ का मशीन प्रूफ देखकर मैं अपनी कुर्सी पर निढाल हो जाता। एक दिन की मजदूरी पूरी।

ऐसे ही एक दिन, अपराह्न में खबर मिली कि ‘उनकी’  सयानी बेटी, एक मुसलमान युवक के साथ घर छोड़ कर चली गई है। आज से  लगभग 45-50 बरस पहले भी, संघ का कट्टर हिन्दुत्व, आनुपातिक रूप से तनिक भी कम नहीं था। मुसलमानों के प्रति नफरत और उन्हें राष्ट्र विरोधी निरूपित करना आज से कम नहीं था। होली पर साम्प्रदायिक दंगे होना मन्दसौर की पहचान बन गया था - कुछ इस तरह कि तय करना मुश्किल हो जाता था कि लोग होली की प्रतीक्षा कर रहे हैं या दंगों की। ऐसे में, कट्टर हिन्दुत्ववाले, कट्टर हिन्दू की, वह भी हिन्दू नेता की, बेटी का, घर से छोड़ कर चले जाना, वह भी किसी मुसलमान युवक के साथ!  कल्पना की जा सकती है कि मन्दसौर में क्या स्थिति बन गई होगी। पूरे शहर में सनसनी फैल गई। बिना किसी के कहे, दुकानों के शटर/दरवाजे आधे-आधे बन्द हो गए। हर कोई दहशतजदा था। स्कूलों में अघोषित छुट्टी हो गई। जिला प्रशासन एकदम ‘हाई अलर्ट’ पर आ गया - पंजों के बल, अंगुलियों पर खड़ा।

दस-पाँच मिनिट बीतते-न-बीतते, मेरा फोन घनघनाना शुरु हो गया - लगातार। एक से बात कर, रिसीवर रखकर हाथ हटाऊँ उससे पहले ही दूसरी घण्टी। और फोन भी केवल मन्दसौर शहर से नहीं, जिले के अन्य कस्बों से भी। मानो इतना ही पर्याप्त न हो, एक के बाद एक, ‘शुभ-चिन्तकों’ का आना शुरु हो गया। मेरी टेबल के सामने चार कुर्सियाँ रखी रहती थीं। वे चारों कभी की भर चुकी थीं। शाम होते-होते मेरा दफ्तर छोटा पड़ गया। मेरे दो सहायकों सहित तमाम कर्मचारियों का काम करना दूभर हो गया। एक के बाद एक, कोई न कोई चला आ रहा था और प्रत्येक के पास, इस मामले से जुड़ी, कोई न कोई अनूठी/अनछुई याने कि ‘एक्सक्लूसिव’ चटपटी-मसालेदार सूचना थी। सबकी एक राय थी - “आज इसे छोड़ना मत। इसने कभी, कोई कसर नहीं छोड़ी। दादा को तो ठीक, इसने भाभी पर भी छींटाकशी की है। भाभी को क्या-क्या नहीं कहा? तुझे याद है कि नहीं, बाजारू औरतों की लाइन में बैठाया था इसने भाभी को? आज इसे बिलकुल मत छोड़ना। बढ़िया मौका मिला है। निपटा दे इस स्सा ऽ ऽ ऽ ले को आज।”

घटना की सूचना मिलने के बाद, बड़ी देर तक मैं भी यही सब सोच रहा था - नफरत और प्रतिशोध की आग में जलते हुए। मैंने सौभाग्य भाई से पूछा - ‘क्या करना है?’ उन्होंने सदैव की तरह कहा - ‘जो तू ठीक समझे।’ किन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया, मेरे विवेक ने मुझे सहलाना शुरु किया। विचार आया - “यही घटना ‘इनके’ साथ न होकर किसी औसत आदमी के साथ होती तब मैं क्या करता?” बस! इस विचार ने मेरी सारी दुविधा दूर कर दी। तमाम शुभ-चिन्तकों को जैसे-जैसे विदा किया। मुखपृष्ठ का काम निपटाया। हमारा मुख्य कम्पोजिटर रमेश मुझ पर बराबर नजरें टिकाए हुए था। वह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट था और मेरी काँग्रेसी पृष्ठभूमि के कारण मुझसे, नफरत करने की सीमा तक चिढ़ता था। मेरी फजीहत करने का कोई मौका, कभी नहीं छोड़ता था। उसने एक शब्द भी नहीं कहा लेकिन उसकी आँखें लगातार बोल रही थीं।

छपाई के लिए मुखपृष्ठ की चेस मशीन पर चढ़ाई जाने लगी तो रमेश मेरे पास आया और रुँधे कण्ठ से, बहुत ही  मुश्किल से (मैं किसी भी तरह नहीं बता पाऊँगा कि कितनी मुश्किल से) कुछ ऐसा बोला - “मुझे बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी कि आप यह शराफत बरतेंगे। मैंने मान लिया था कि आपकी तो शादी भी नहीं हुई इसलिए आप बेटी के बाप का दर्द क्या जानेंगे? मैं बेटी का बाप हूँ। ‘उनसे’ मैं भी सहमत नहीं हूँ। मुझे पक्का भरोसा था कि आज आप राजनीति खेलेंगे और ‘उनको और ‘उनकी’ बेटी को, चौराहे पर टाँग देंगे। लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। आज आपने ‘उनकी’ नहीं, तमाम बेटियों की और तमाम बेटियों के बापों की इज्जत बचा ली। मैं भगवान को नहीं मानता लेकिन आज मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि आपको लम्बी उम्र दे और आपके जरिए इसी तरह बेटियों की, बेटियों वालों की हिफाजत करता रहे। आज आपने मुझे अपना गुलाम बना लिया।’

मैं हक्का-बक्का रह गया। रमेश ने मेरा मन कब और कैसे पढ़ लिया? मैंने भी बिलकुल यही सोचा था - इस घटना का कोई सामाजिक महत्व तो है नहीं! इसे न छापने से मेरे अखबार को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन छापने से एक परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा पर खरोंच अवश्य आ जाएगी। यदि यह घटना ‘उनके’ परिवार में न हुई होती तो मेरे लिए इसके कोई मायने नहीं होते। किन्तु, चूँकि मैं ‘उनसे’ मर्माहत हूँ, उन्हें लेकर बदले की आग में जल रहा हूँ, इसीलिए इस घटना का महत्व है। इस मामले में तो मैं खुद एक पक्ष हूँ? भला, न्यायाधीश जैसी भूमिका कैसे निभा सकता हूँ?

अब अकेला रमेश नहीं रो रहा था। मैं भी उसके साथ रो रहा था। लेकिन यह रोना, अपनी आत्मा का कलुष धुल जाने, और (किन्हीं भी कारणों से) पत्रकारिता की छवि को कलुषित करने से बच जाने से उपजी प्रसन्नता का रोना था।

संयत होकर मैंने ‘उनके’ घर का नम्बर डायल किया। मेरा नाम सुनते ही, उधर से मुझे टालने की कोशिश की गई। मैंने कहा - ‘उनसे कहिए कि उनका सबसे बड़ा बेटा बात करना चाहता है।’ वे फोन पर आए। उनकी ‘हेलो’ सुनते ही मैंने कहा - ‘दादा! कुछ मत कहना। मैं जो कह रहा हूँ, चुपचाप सुन लेना। मुझे अपने परिवार का सबसे बड़ा बेटा समझना और मेरी ओर से निश्चिन्त रहना। मैं आपसे मिलना चाहूँगा लेकिन आपकी सेवा में तभी हाजिर होऊँगा जब आप बुलाएँगे।’ जवाब में मुझे जो ‘विलाप क्रन्दन’ सुनाई दिया, वह इस क्षण भी मेरे कानों में गूँज रहा है। वे कुछ नहीं बोल पा रहे थे। लगातार रोए जा रहे थे - धाड़ें मार-मार कर, बेटी का नाम ले-ले कर। मैं तो कुछ बोल ही नहीं रहा था। कुछ पलों के बाद किसी आवाज सुनाई दी। कोई उन्हें कह रहा था - ‘क्या कर रहे हो? वो अपना दुश्मन है। उसके सामने रोना अच्छा नहीं लगता। चुप हो जाओ।’ और ‘उन्हें’ समझाते हुए, दूसरी आवाजवाले व्यक्ति ने रिसीवर रख दिया।

अगले दिन, क्या हुआ, कैसे उन्होंने खुद मुझे फोन किया, तत्काल अपने घर बुलाया, क्या-क्या कहा - यह सब लिखने का कोई अर्थ नहीं। सहज ही कल्पना की जा सकती है कि क्या हुआ होगा। ‘अपने हिय से जानियो, मेरे हिय की बात।’

लेकिन हाँ, यह सब लिखते हुए इस समय मुझे सचमुच में ताज्जुब हो रहा है कि मैं यह विवेक कैसे बरत पाया? उस समय मेरी उम्र 28 वर्ष थी। गरम खून और वह भी बदला लेने को उबलता हुआ! नफरत से लबालब! जब ‘बुद्धि’ उकसा रही हो - ‘ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा। तुझसे पूछने वाला, सवाल-जवाब करनेवाला कोई नहीं। निपटा दे स्साले को।’ तब मैं कैसे संयमित रह पाया? थानवीजी का यह लेख पढ़ते हुए अब अनुभव हो रहा है कि अपने से बेहतर पत्रकारों की छाया में बैठने से, उन्हें काम करते हुए, ऐसे मामलों में उनकी बातें सुनते हुए, उनसे मिले संस्कारों का ही प्रभाव रहा होगा कि मैं कच्ची उम्र में समझदारी बरत पाया।   

कौन हेमन्त करकरे?


इस पोस्ट की विषय-वस्तु मुझे अभी-अभी फेस बुक से मिली है।

यह चेहरा किसी परिचय का प्रार्थी नहीं। 26 नवम्बर 2008 के मुम्बई आतंकी हमले के अमर शहीद हेमन्त करकरे को न जानना, किसी आत्म-धिक्कार से कम नहीं है।

अमर शहीद हेमन्त करकरे ने एलआईसी और एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी से 25-25 लाख रुपयों की बीमा पॉलिसियाँ ले रखी थीं।

श्री करकरे की शहादत की खबर मिलते ही एलआईसी के लोग सक्रिय हुए और एलआईसी की दादर शाखा ने, करकरे की शहादत के पाँचवें दिन ही, बीमे की रकम, उनकी पत्नी को भुगतान कर दी।

इसके विपरीत, एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी की दादर शाखा ने दावा अस्वीकार कर, दावे की रकम भुगतान करने से इंकार कर दिया।

दावा खारिज करने के पीछे एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी ने कारण बताया कि श्री करकरे ने, खुद को बचाने के लिए अपेक्षित पर्याप्त सावधानी नहीं बरती। कम्पनी के अनुसार, श्री करकरे जानबूझकर उस इलाके में घुसे जहाँ गोलीबारी हो रही थी। वे जानते थे कि  ऐसा करने से उनकी जान जोखिम में आ जाएगी। फिर भी उन्होंने ऐसा किया। कम्पनी की नजर में यह अनुचित कृत्य था और इसीलिए कम्पनी ने दावा अस्वीकार कर, भुगतान करने से इंकार कर दिया।


प्रसंगवश उल्लेख है कि एलआईसी का दावा भुगतान प्रतिशत 98.6 है जो विश्व में सर्वाधिक है।

प्रसंगवश यही जिज्ञासा भी समानान्तर रूप से जागी कि राष्ट्र और शहीदों के नाम पर अपनी दुकानें चलानेवालो में से किसी का ध्यान इस ओर  अब तब नहीं गया। शायद जाएगा भी नहीं। क्योंकि ऐसे कामों के लिए तो केवल सरकार पर ही दबाव बनाया जा सकता है। किसी निजी बीमा कम्पनी पर भला किसी का क्या जोर!

इस मामले में हेमन्त करकरे के लिए बोलने की फुरसत अभी किसी को नहीं है।


स्पष्टीकरण भी और क्षमा-याचना भी

इस मामले में, एलआईसी से जुड़े एकाधिक मित्रों ने  मुझे व्यक्तिशः फोन कर  वही  बात  सूचित  की जो स्वप्न मंजूषाजी ने अपनी टिप्पणी में कही थी कि एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी ने, दावा  खारिज  करने के दो दिनों बाद दावा भुगतान कर दिया था।

इन मित्रों ने बताया कि इण्डियन एक्सप्रेस के, 12 फरवरी 2013 वाले अंक में इस बारे में विस्तृत समाचार प्रकाशित हुआ था जिसमें, एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी के अभिलेखों का सन्दर्भ देते हुए कहा गया था कि इस कम्पनी ने, दो दिनों बाद दावा भुगतान कर दिया था। इसी समाचार में, इस कम्पनी द्वारा, एलआईसी को मानहानि का नोटिस देने की बात भी कही गई थी।

जैसा कि टिप्पणियों में आप पाएँगे - स्वप्न मंजूषाजी की टिप्पणी मुझसे, गलती से डिलिट हो गई थी जिसे मैंने अपने मेल बॉक्स से लेकर, स्वप्न मंजूषाजी के नाम सहित, अपनी ओर से प्रकाशित किया था। इतना ही नहीं, टिप्पणी के गलती से डिलिट किए जाने की सूचना मैंने स्वप्न मंजूषाजी को देते हुए उनसे पूछा था कि डिलिट की गई टिप्पणियों को यदि पुनः प्राप्त किया जा सकता हो तो वैसा रास्ता बताएँ। प्रत्युत्तर में स्वप्न मंजूषाजी ने कृपापूर्वक अपनी टिप्पणी फिर से अंकित की जिसे टिप्पणियों में पढ़ा जा सकता है। 

इसी प्रकार श्री शिवम मिश्रा की टिप्पणी के प्रत्युत्तर में की गई मेरी टिप्पणी भी मेरा आशय प्रकट करती है जिसमें मैंने अपनी चूक स्वीकार करते हुए उसके लिए समस्त सम्बन्धितों से बिना शर्त, सार्वजनिक क्षमा याचना की है।

मेरी इस पोस्ट का लक्ष्य, बीमा कम्पनियों का व्यवहार नहीं अपितु, करकरेजी के परिवार के प्रति सामाजिक व्यवहार के माध्यम से हमारे दोहरे आचरण को रेखांकित करना था। यह संयोग ही है कि मैं एलआईसी का एजेण्ट हूँ और मेरी इस पोस्ट से मेरी इस सम्बद्धता को जोड़ा जाना स्वाभाविक ही था।

मैं स्पष्ट कर रहा हूँ कि किसी भी बीमा कम्पनी के व्यवहार पर टिप्पणी करना, मेरा लक्ष्य बिलकुल भी नहीं था।

मेरी इस पोस्ट से यदि एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी के प्रबन्धन को, इससे जुड़े किसी भी महानुभाव को, इसके सहयोगियों/समर्थकों/शुभ-चिन्तकों को यदि किसी भी प्रकार से कोई भी असुविधा हुई हो, किसी अवमानना की अनुभूति हुई हो, कोई पीड़ा पहुँची हो या ऐसा ही और कुछ भी हुआ हो तो मैं समस्त सम्बन्धितों से, बिना शर्त, अपने अन्तर्मन से सार्वजनिक क्षमा याचना करता हूँ।

मेरी इस क्षमा-याचना के बाद भी यदि किसी को मेरी इस पोस्ट से कोई असुविधा हो तो कृपया सूचित करें ताकि मैं खुद को सुधार सकूँ। 

वीआईपी सुरक्षा : मन्त्री को लोगों की फटकार


मनुष्य क्या खोजता/चाहता है? शायद वही, जो उसके पास नहीं होता। मनुष्य की सारी चेष्टाओं और मानव मनोविज्ञान के मूल में यही अवधारणा होगी सम्भवतः। शायद इसी कारण लोग, कोई चालीस बरस पहले जिस बात की माँग किया करते थे, आज उसी से चिढ़ रहे हैं।

वीआईपी सुरक्षा को लेकर चारों ओर मचे हल्ले पर ध्यान गया तो यही बात मन में आई और उसके साथ ही साथ आ गई, कोई चालीस बरस पहले हुई घटना।

बात 1969 से 1972 के बीच की है। तब दादा, मध्य प्रदेश सरकार में राज्य मन्त्री थे। 1968 में मैंने बी.ए. कर लिया था। मैदानी पत्रकारिता कर रहा था। लेकिन पत्रकारिता से पेट भर पाना मुमकिन नहीं था। सो, काम-काज भी तलाश रहा था। इसी दौरान बस कण्डक्टरी का अस्थायी काम मिल गया था। चूँकि पत्रकारिता, नौकरी नहीं थी सो बड़े मजे से दोनों काम कर पा रहा था। लेकिन दादा जब भी मन्दसौर जिले के दौरे पर आते, मैं उनके साथ हो लेता। यह संस्मरण, दादा के राज्य मन्त्री बनने के शुरुआती समय का है।

दादा, मनासा विधान सभा क्षेत्र से चुन कर आए थे। सो, उनके दौरे, मनासा विधान सभा क्षेत्र में ही अधिक होते थे। वे जब भी दौरे पर आते, तब पुलिस और सरकारी अधिकारियों का अच्छा-खासा लवाजमा, पाँच-सात गाड़ियों में उनके साथ चलता था। गृह नगर में आते ही उन्हें डाक बंगले पर ले जाया जाता जहाँ उन्हें ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ दिया जाता। ये दोनों ही बातें मुझे कभी अच्छी नहीं लगीं। आज भी नहीं लगतीं। सुरक्षा तथा प्रशासकीय सहायता के नाम पर साथ में बना हुआ पुलिस और प्रशासकीय अधिकारियों का अमला मुझे, जन-प्रतिनिधि और उसके मतदाताओं के बीच ऐसा अप्रिय व्यवधान लगता है जो कहीं न कहीं मतदाता और जन-प्रतिनिधि के बीच दूरी बढ़ाता है और अन्ततः सम्वादहीनता की स्थिति बना देता है। कल तक जो जन-प्रतिनिधि, ‘अपने लोगों’ से घिरा रहकर, उनके दुःख-सुख की बातें सुनता/करता था, पता ही नहीं चलता कि कब वह उन सबसे दूर हो कर सरकारी अमले का कैदी बन गया है और उस तक वे ही बातें पहुँच रही हैं जो सरकारी अमला पहुँचा रहा है। मेरा मानना रहा है कि अपने ही मतदाताओं के बीच किसी जन-प्रतिनिधि को भला सुरक्षा की आवश्यकता क्यों कर होनी चाहिए? इसी तरह, ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ को मैं अंग्रेजी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की घिनौनी, परम्परा मानता हूँ। दरिद्रता और विपन्नता की हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि में तो ये दोनों बातें मुझे कभी भी हजम नहीं हुईं।

मुझे जब-जब भी मौका मिलता, अपनी ये दोनों बातें दादा के सामने रखता और आग्रह करता कि वे इन दोनों बातों से बचें। दादा हर बार मुझसे सहमत हुए लेकिन हर बार सूचित करते कि इस लवाजमे की माँग उन्होंने कभी नहीं की। ऐसे ही एक दौरे के समय मैं कुछ अधिक ही अड़ गया। मेरी बात का ‘मान’ रखते हुए उन्होंने कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को बुलाया और कहा कि अब से वे न तो कहीं ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ लेंगे और न ही उनके साथ सरकारी लवाजमा जाएगा। दोनों अधिकारियों ने विनम्रतापूर्वक कहा कि ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ वाली बात तो ‘मन्त्रीजी की व्यक्तिगत इच्छा’ पर निर्भर रहती है इसलिए इस दादा की इस इच्छा का पालन तो तत्काल प्रभाव से किया जा रहा है किन्तु सरकारी अमले के मामले में उन्होंने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक यह कह कर क्षमा माँग ली कि इस मामले में वे ‘शासनादेश’ से बँधे हुए हैं। थोड़ी-बहुत खींचतान के बात तय हुआ कि, कुछ अधिकारी तो दादा के साथ रहेंगे ही रहेंगे किन्तु संख्या में इतने ही होंगे कि एक सरकारी गाड़ी में समा जाएँ। याने, दादा के दौरे में, सरकारी अमले के नाम पर अब कुल-जमा एक गाड़ी रहेगी। दादा ने मेरी ओर कुछ इस तरह से देखा मानो, मचले हुए किसी बच्चे को उसका मनचाहा खिलौना थमा कर पूछ रहे हों - ‘बस! अब तो खुश?’ मैंने विजयी भाव और मुख-मुद्रा में, इतरा कर सहमति में इस तरह मुण्डी हिलाई मानो उनसे सहमत होकर मैं उन्हें उपकृत कर रहा होऊँ।

लेकिन इसके बाद जो हुआ, उसने मुझे मानो औंधे मुँह धरती पर पटक दिया। 

नई व्यवस्था के ठीक बाद वाले पहले दिन दादा जिस-जिस भी गाँव में गए, प्रत्येक गाँव में उन्हें उलाहने सुनने पड़े। बुजुर्गों ने अधिकारपूर्वक उन्हें डाँटा-डपटा, नसीहत दी तो हमउम्र और नौजवान कार्यकर्ताओं ने नाराजी तथा असन्तोष जताया। शब्दावली भले ही अलग-अलग रही किन्तु मन्तव्य एक ही था - ‘यह आना भी कोई आना हुआ? कोई मन्त्री ऐसे आता है भला? आप तो वैसे ही आ गए जैसे कि चुनावों के दिनों में, वोट माँगने आते थे। अब तो आप उम्मीदवार नहीं हो। अब तो हमने आपको मन्त्री बनवा दिया है। आपको मन्त्री की तरह आना चाहिए। लोगों को लगना चाहिए कि उनके गाँव में मन्त्री आया है। मन्त्री के साथ दस-बीस अफसर, पुलिस के जवान और सरकारी जीपों का लाव-लश्कर हो, तभी लगता है कि गाँव में कोई मन्त्री आया है।’ अपने-अपने गाँव से ‘मन्त्रीजी’ को विदा करते हुए सबने मानो हिदायत दी - “आज आ गए सो आ गए। लेकिन आगे से, ऐसे ‘सूखे-सूखे’ मत आना। बाकी गाँवों की बात नहीं करते, बस! हमारे गाँव में ऐसे मत आना। आपको भले ही अपनी इज्जत की फिकर नहीं हो किन्तु ‘हमारा आदमी’ मन्त्री बना है। इसलिए ‘हमारी इज्जत की फिकर’ आपको करनी चाहिए।”

ऐसे प्रत्येक उलाहने, प्रत्येक नसीहत के समय दादा ने मेरी ओर देखा। उनकी नजरों में सवाल और उपहास नहीं, मेरे प्रति दया-ममता और ‘अपने लोगों’ के प्रति करुणा थी। लोगों का यह आग्रह उन्हें भावाकुल भी करता रहा। वे सब, उन्हें मन्त्री बनवानेवाले उनके तमाम मतदाता, दादा के सम्मान में अपना सम्मान देखना चाह रहे थे।

आज जब वीआईपी सुरक्षा को लेकर मचे बवाल को देखता/पढ़ता/सुनता हूँ तो मन अकुलाहट और व्याकुलता से भर आता है। हम कहाँ से चले थे और कहाँ आ गए हैं? जो लोग ‘अपने आदमी’ के आसपास के सरकारी लवाजमे और लाव-लश्कर में अपना महत्व अनुभव करते थे, वे ही लोग आज उसी ‘अपने आदमी’ को, ‘अपने जैसा’ देखना चाह रहे हैं।

लोगों की चाहत में इस बदलाव के कारण कहाँ हैं - लोगों में ही या लोगों के ‘अपने आदमी’ में आ गई मगरूरी में?