अपने पेशे का सम्मान


खण्डवा का समाचार पढ़ कर मुझे ‘पूत माँगने गई थी, खसम गँवा कर लौटी’ वाली कहावत याद आ गई । वहाँ, ‘कौमी एकता वारसी ग्रुप’ द्वारा आयोजित मुशायरे के मंच पर, नामचीन शायरों के बीच दो स्थानीय नेताओं को भी बैठा लिया । दोनों नेता वरस्पर विरोधी थे । जाहिर है कि ये नेता अपनी मर्जी से नहीं बल्कि बुलाने पर ही गए थे ।

रात कोई साढ़े ग्यारह बजे मुशायरा शुरू हुआ । दो शायरों ने अपना कलाम पेश किया । मुशायरे की रंगत बढ़ने लगी थी । कोई साढ़े बारह बजे जनाब नईम फराज माइक पर आए । उन्होंने शेर पढ़ा -

ताज रखा है सरों पर जमाने ने उनके
थे जो उस्ताद के जूतों को उठाने वाले

शेर सुनते ही दोनों नेताओं ने एक दूसरे को देखा और इशारों ही इशारों में एक दूसरे को ‘उस्ताद के जूते उठाने वाले’ कहा । बस, फिर क्या था ! मारपीट शुरू हो गई और ऐसी हुई कि भगदड़ मच गई । बड़ी मुश्किल से स्थित नियन्त्रित की जा सकी ।

मुशायरा फिर शुरू हुआ और सेवेर पाँच बजे समाप्त हुआ । खण्डवा के लोगों को आनन्द तो आया लेकिन इस बात का मलाल आजीवन रहेगा कि साहित्यिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में अपनी विशिष्ट पहचान वाले उनके प्यारे शहर की परम्परा कलंकित हो गई ।

खण्डवा का समाचार पढ़ कर मुझे रतलाम की, लोक कथा बन चुकी, एक घटना याद हो आई । एक साहित्यिक संस्था ने प्रेमचन्द जयन्ती आयोजित की । आयोजन की रूपरेखा पर विचार-विमर्श के दौरान सुझाव आया कि नगर के अग्रणी राजनेता को मुख्य अतिथि बनाया जाए । अधिकांश लोग इससे सहमत नहीं थे लेकिन ये ‘अधिकांश’ ‘मिमिया’ रहे थे जबकि नेताजी को बुलाकर अपनी ‘झाँकी’ जमाने वाले गिनती के लोग ‘दहाड़’ रहे थे । ‘मिमियाहट’ पर ‘दहाड़’ भारी पड़नी ही थी । पड़ी ।

तयशुदा समय पर नेताजी पधारे । कुर्सी पर बिराजे । संस्थाध्यक्ष के निर्देश पर सूत्रधार ने माइक सम्हाला । ‘संचालन का सौजन्य’ बरतते हुए उन्होंने कार्यक्रम शुरू करने की अनुमति माँगी । वे आगे बढ़ते उससे पहले ही नेताजी ने टोका - ‘पहले प्रेमचन्दजी को तो आ जाने दो ।’ सभा में हँसी बिखर गई । मिमियाने वाले खुल कर हँस रहे थे और दहाड़ने वाले मिमिया भी नहीं पा रहे थे । नेताजी को न तो समझ आया और न ही उन्होंने कुछ समझना ही चाहा । वे अपनी स्थापित ‘बिन्दास’ मुद्रा में सस्मित बैठे थे । बैठे रहे ।

उस आयोजन का क्या हुआ - यह जाने दीजिए । बस, यूँ समझ लीजिए कि जयन्ती के स्थान पर प्रेमचन्दजी की पुण्यतिथि मन गई ।

आयोजन की विषय वस्तु से असम्बध्द लोगों को महफिल में बुलाने पर कैसी जग हँसाई होती है, यह इन दोनों हकीकतों से समझा जा सकता है । ऐसी घटनाएँ प्रायः ही होती रहती हैं । कुछ प्रकाश में आ जाती हैं जबकि ऐसी अधिकांश घटनाएँ लोगों तक पहुँच ही नहीं पातीं । जेबी संस्थाओं के आयोजनों में ऐसी घटनाएँ अत्यन्त सहजता से ली जाती हैं क्यों कि उन आयोजनों और आयोजकों का मकसद वह नहीं होता जो विज्ञापित और प्रचारित किया जाता है ।

गाँधी ने साध्य की शुचिता के साथ-साथ साधनों की शुचिता पर भी जोर दिया था । उनका कहना था कि अपवित्र साधनों से पवित्र साध्य कभी नहीं साधा जा सकता । लेकिन गाँधी की बातें गाँधी के साथ चली गईं । अब तो आयोजन महत्वपूर्ण है, आयोजन के लिए जुटाए गए अपवित्र संरजामों पर न तो कोई गौर करता है और न ही कोई ऐसे अपवित्र संरजामों का बुरा ही मानता है । शायद इसीलिए यह हो सका कि गए दिनों नीमच में सम्पन्न एक बड़े साहित्यिक आयोजन में दारू के एक ठेकेदार को केवल इसलिए मंचासीन कर मालाएँ पहनाई गई क्यों कि प्रतिभागी साहित्यकारों के सुस्वादु भोजन का भार उसने उठाया था । भोजन करते हुए, प्रतिभागी साहित्यकारों को स्वाद आया या नहीं लेकिन मेरे मुँह का जायका तो यह समाचार पढ़ कर ही बिगड़ गया - ‘द-दवात का’ से बदल कर ‘द-दारू का’ जो हो गया था !

ऐसे में मुझे, गए दिनों मेरे शहर रतलाम में सम्पन्न एक फोटो प्रदर्शनी का आयोजन बहुत ही भला लगा । आज का रतलाम पूरी तरह से व्यापारिक-वाणिज्यिक शहर है । किसी जमाने में यहाँ साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का अविराम सिलसिला चला करता था । नाटकों के प्रेक्षागृह ठसाठस भरे रहते थे । कवि सम्मेलनों के लिए एक रात कम पड़ती थी । नीरजजी तो आज भी रतलाम के नाम पर नंगे पाँवों चले आते हैं । तब का ऐसा कोई स्थापित साहित्यकार-लेखक नहीं था जो रतलाम नहीं आया हो । लेकिन आज वह सब अतीत की बात हो गई । नई पीढ़ी के बच्चे इन सारी बातों को ऐसे सुनते हैं मानो ‘टाइम मशीन’ की कहानी सुन रहे हों । ऐसे में यहाँ ‘कैमरा कला’ या कि ‘फोटाग्राफी आर्ट’ की बात तो ‘आकाश कुसुम’ है । लेकिन कुछ सिरफिरे या कि पागल लोग हर समय हरकत में बने रहते हैं । यहाँ के चन्द ‘कैमरा कलाकार’ कोई चार-पाँच वर्षों से सक्रिय बने हुए हैं । वे ‘सृजन कैमरा क्लब’ के नाम से अपने आयोजन करते रहते हैं । उनके आयोजन में गिनती के ही लोग जुट पाते हैं । लेकिन उनके जीवट की दाद दी जानी चाहिए कि वे न तो निराश होते हैं और न ही थकते हैं । सुनसान बीहड़ में पगडण्डी बनाने में उनके पाँव लहू-लुहान हुए जा रहे हैं लेकिन भाई लोग हैं कि लगे हुए हैं ।

गए दिनों उन्होंने दो दिवसीय फोटो प्रदर्शनी आयोजित की । इसके उद्घाटन समारोह के समाचार ने मेरा ध्यानाकर्षित किया क्यों कि इस प्रदर्शनी का उद्घाटन किसी ‘विजातीय’ से नहीं बल्कि एक कैमरा कलाकार से कराया गया था । मैं दूसरी शाम को पहुँचा - प्रदर्शनी के समापन से कुछ ही समय पहले । प्रदर्शनी बाद में देखी, पहले वहां मौजूद तमाम कलाकारों को, अपने शौक के प्रति बरते गए स्वाभिमान के लिए साधुवाद अर्पित किया । यदि हम खुद, अपने पेशे का, अपने शौक का सम्मान नहीं करेंगे तो भला दूसरे लोग क्यों हमारा, हमारे पेशे का, हमारे शौक का सम्मान करेंगे ? निस्सन्देह, ‘सृजन कैमरा क्लब’ का आयोजन बहुत ही छोटा था, गिनती के लोगों की उपस्थिति वाला था लेकिन मेरे तईं यह एक ईमानदार आयोजन था जिसमें खुद को, खुद की नजरों में गिरने से बचाने का उपक्रम पूरी चिन्ता और पूरे जतन से किया गया था ।


(मेरी यह पोस्ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे ‘साप्ताहिक उपग्रह’ के, दिनांक 22 मई 2008 के अंक में, ‘बिना विचारे’ शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित हुई है ।)

4 comments:

  1. आभार इस लेख को यहाँ प्रकाशित करने का. आप जाग गये हैं यह खुशी की बात है. :)

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  2. विष्णु जी; सृजन कैमरा क्लब को प्रेरित कीजिये कि वे अपने प्रदर्शनी आन लाइन करें ताकि दूर दराज में बैठे लोग भी आनंद ले सकें.

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  3. "...विष्णु जी; सृजन कैमरा क्लब को प्रेरित कीजिये कि वे अपने प्रदर्शनी आन लाइन करें ताकि दूर दराज में बैठे लोग भी आनंद ले सकें..."

    मैथिली जी, विचार उत्तम है. वैसे, रचनाकार की रचनाओं में यदा कदा सृजन कैमरा क्लब के चित्रों का साभार प्रकाशन रचनाओं के साथ होता रहा है.

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  4. मैथिलीजी,

    आपका सन्‍देश स़जन कैमरा क्‍लब के मित्रों को पहुंचा दिया है । यदि वे कोई सूचना देंगे तो आपको प्रस्‍तुत कर दूंगा ।

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