पहली श्रद्धांजलि मेरे लिए

उन्नीस अगस्त की सवेरे-सवेरे ही जी कसैला हो गया। एक समाचार तब से लेकर अब तक मन-मस्तिष्क से हट ही नहीं रहा है।

वाराणसी से घर लौटते हुए उन्नीस अगस्त की सवेरे नई दिल्ली स्टेशन उतरा तो डिब्बे के सामने ही अखबार की दुकान थी। एक साथ 6 अखबार खरीद लिए। उन्हीं में से किसी एक में यह समाचार था।


बी.एच. ई. एल. के सेवानिवृत्त मेकेनिक, 69 वर्षीय विश्वनाथजी, अपना राशन कार्ड बनवाने के लिए आर. टी. वेन से राशन दफ्तर जा रहे थे। वेन का दरवाजा घेर कर, रास्ता रोके खड़े कुछ युवक एक युवती को छेड़ रहे थे। वेन में सवार सब लोग समझदारी बरतते हुए चुपचाप यह सब देख और सहन कर रहे थे। विश्वनाथजी ऐसी समझदारी नहीं बरत सके। उनकी धमनियों में केवल रक्त नहीं बह रहा था। संस्कार भी बह रहे थे। मुमकिन रहा हो कि उस युवती में उन्हें अपनी बेटी/पोती नजर आ रही हो। उन्होंने युवकों को टोका ही नहीं, रोका भी। चुपचाप छेड़खानी देखने की समझदारी बरत रहे लोगों ने इस बार भी समझदारी बरती और एक भी व्यक्ति विश्वनाथजी के समर्थन न तो कुछ बोला और न ही सामने आया। ऐसे में वही हुआ जो हम सब होने देते हैं। युवकों ने विश्वनाथजी को चाकू भोंक दिया। उन्हें अस्पताल ले जाया गया किन्तु रास्ते में ही उनका प्राणान्त हो गया। इस सूचना के साथ ही समाचार भी समाप्त हो गया। मैं देर तक अखबार को घूरता रहा। अधूरे समाचार का शेष भाग देखने के लिए मूर्खों की तरह अखबार के पन्ने पलटता रहा।

इससे पहले, पटना के एक्जिबिशन मार्ग पर एक युवती को निर्वस्त्र किए जाते देख कर मुझे अपरोध बोध और आकण्ठ आत्म-लानि हुई थी। ऐसे समाचार मैं न तो पहली बार देख रहा था और जो स्थितियाँ बनी हुई हैं, उनके चलते मुझे नहीं लगता कि यह अन्तिम बार भी था। इसके विपरीत अब तो मैं दहशत में हूँ कि आए दिनों ऐसे समाचार बार-बार और निरन्तर देखने ही पड़ेंगे।


कुछ लोग युवती के कपड़े फाड़ रहे थे। युवती प्रतिरोध भी कर रही थी और सहायता की याचना भी। आसपास भीड़ तो थी किन्तु सबके सब ‘दर्शक’ बने हुए थे। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, तन्त्र रमन्ते देवा’ वाले देश के ‘मर्द’ ‘नारी पूजा’ के नए संस्करण को मजे ले-ले कर देख रहे थे। मैं जितना देख पा रहा था, एक की भी आँखों में अकुलाहट, आक्रोश, उत्तेजना नहीं थी। और तो और कुछ भी न कर पाने की असहायता के अथवा विवशता के भाव भी किसी के चेहरे पर दिखाई नहीं दे रहे थे। इसके विपरीत अधिकांश लोग सस्मित ‘देखें! आगे क्या होता है’ वाली मुखमुद्रा में दिखाई दे रहे थे। एक भी हाथ उस युवती के बचाव में नहीं उठा। वह क्रन्दन करती रही और उसके कपड़े फटते रहे।


मनुष्य को ‘सामाजिक प्राणी’ कहा गया है किन्तु अब मुझे लगता है कि उसे ‘समाज में रहने वाला समाज निर्लिप्त प्राणी’ कहना शुरु कर देना चाहिए। हमने यही परिभाषा अपने लिए तय कर दी है। ‘समाज’ में ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ होता है। किन्तु हमने अब उत्तरदायित्वों की ओर पीठ फेर ली है। अब हम खुद से आगे बढ़कर और कुछ भी नहीं देखते, विचारते।


हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उद्घोष करते नहीं थकते किन्तु ‘वसुधा’ को जब निर्वस्त्र किया जा रहा होता है तो हम ‘कुटुम्ब’ से कोसों दूर होकर ‘एक व्यक्ति’ बन जाते हैं। हम कहते हैं-’पड़ौसी सबसे पहला रिश्तेदार होता है।’ किन्तु व्यवहार में हम पूर्णतः आत्मकेन्द्रित और आत्म चिन्तित हो गए हैं।‘समाज का क्या होगा?’ जैसी बातों को नारों की तरह उच्चारते हुए हम क्या-क्या नहीं करते? सामाजिक परम्पराओं के नाम पर हम सार्वजनिक हत्याएँ ही नहीं करने लगे हैं, ऐसी हत्याएँ कर स्वयम् को गौरवान्वित भी अनुभव करते हैं। हरियाणा की खाप पंचायतों ने ऐसे अनेक ‘गौरव अध्याय’ अपने खातों में जमा कर रखे हैं। समाज की रक्षा के नाम पर हम अधिकारपूर्वक हत्याएँ तो कर लेते हैं किन्तु जब सड़कों पर निर्वस्त्र की जा रही ‘बेटी’ को बचाने का मौका आते हैं तो हम निर्मम और क्रूर दर्शक बन जाते हैं। कहाँ तो हम कहते थे कि एक की बेटी पूरे गाँव की बेटी और कहाँ यह आपराधिक व्यवहार? हम क्या थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी?


हम अब ‘समाज’ नहीं हैं। ‘अकेलों की भीड़’ बन कर रह गए हैं। सामूहिक परिवार समाप्त होकर एकल परिवार में बदले और एकल परिवार भी ‘लघु परिवार’ बन गए। स्थिति यह हो गई है कि इस ‘लघु परिवार’ का प्रत्येक सदस्य भी अकेला हो गया है। किसी को किसी से बात करने का समय ही नहीं मिल पा रहा। अब तक तो मुझे लग रहा था कि हमने केवल पाश्चात्य जीवन शैली ही स्वीकारी है, पाश्चात्य संस्कार नहीं। किन्तु, विश्‍वनाथजी वाला समाचार पढ कर और पटना वाली घटना के दृश्य देखकर मुझे लग रहा है कि हमने तो पाश्चात्य संस्कारों को भी विकृत कर दिया है।


पश्चिम में ‘परिवार’ की अपेक्षा ‘व्यक्ति’ को भले ही अधिक स्वतन्त्रता और प्राथमिकता दी गई है किन्तु वहाँ ‘सामाजिकता’ अभी भी सम्भवतः प्रथम वरीयता पर है। हम ‘अकेलों की भीड़’ बन गए जबकि वे ‘अकेलों का समाज’ बने हुए हैं। वहाँ आज भी सामाजिक सराकारों की चिन्ता की जाती है। गुण्डे, बदमाश, अपराधी, गिरोह, माफिया वहाँ भी हैं किन्तु ऐसे दृश्य वहाँ अपवादरूप में भी शायद ही दिखाई देते हों। वहाँ दुर्घटनाग्रस्त हो सड़क पर गिरे आदमी को, गिरने वाले आदमी के बाद आने वाला पहला ही आदमी सम्हाल लेता है जबकि हम कन्नी काट कर निकल जाते हैं।

यह सब देख-देख कर और सोच-सोच कर मुझे जर्मन कवि मार्टिन एन. की यह प्रख्यात कविता याद हो आई -जब जर्मनी में साम्यवादियों पर/हुआ था हमला, मैं कुछ न बोला/क्योंकि मैं साम्यवादी नहीं था।/इसके बाद फिर हुआ हमला/यहूदी लोगों पर/फिर भी मैं चुप रहा क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।/फिर वे आए मारने मजदूर संघ के लोगों को/मगर मैं तब भी चुप रहा/क्योंकि मैं मजदूर संघ में न था।/फिर वे आए मारने कैथोलिकों को/पर मैं रहा था मौन क्योंकि/मैं तब प्रोटेस्टेण्ट थां/लेकिन आज जब वे आए मुझे मारने/हाय रे! दुर्भाग्य! बहुत दी आवाजें/पर न था कोई बचा/जो मेरेी आवाज सुनकर बोलता।’


हमने ‘अर्थ’ को अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य मान लिया है। निस्सन्देह हम ‘धनवान’ भले ही हो रहे होंगे किन्तु आत्मा और नैतिकता के स्तर पर विपन्न हो गए हैं, रीत गए हैं। भारतीयता, धर्म, समाज, संस्कार, सदाचरण, पर-हित जैसे तमाम कारक हमारे जीवन से लुप्त होते जा रहे हैं। हम स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित लोगों की भीड़ बन कर रह गए हैं। हम ‘समाज’ का नाम तब ही लेते हैं जब हमें अपना कोई हित साधना होता है या किसी से बदला लेना होता होता है या किसी को सफल होने से रोकना होता है। 'समाज' हमारे लिए या तो सुविधा या धारदार हथियार या कि अत्यधिक ज्वलनशील आग्नेयास्त्र बन गया है।


इस सबके बाद भी हमारी सीनाजोरी यह कि इस दशा के लिए हम खुद को जिम्मेदार नहीं मानते। दूसरों को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं और अपेक्षा तथा प्रतीक्षा कर रहे हैं कि दूसरे ही इस सबको रोकें, सुधारें।


हम चाहते हैं कि सब हमारी चिन्ता करें किन्तु हम किसी की चिन्ता नहीं करना चाहते। एकजुट होकर सुरक्षित रहने के बजाय खुद को चुन-चुन कर मारे जाने के लिए स्थितियाँ और अवसर कैसे पैदा किए जाते हैं इसका आदर्श नमूना हमने दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दिया है।ऐसे में, पता नहीं कौन, कब मार दिया जाए। आइए, परस्पर अग्रिम श्रध्दांजलि दे दें।


सबसे पहला नम्बर मेरा।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

9 comments:

  1. विष्णु भैया अगला नम्बर मेरा,

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  2. आप की इस परस्पर श्रद्धांजली की बात से घोर असहमति है। यह निराशावाद है। यह सही है कि मौजूदा मुनाफाप्रधान व्यवस्था ने जो बड़े नगर खड़े किए हैं उन में व्यक्ति भीड़ में अकेला है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस अकेलेपन को दूर न किया जा सके। विश्वनाथ जी ने संस्कारों के वशीभूत एक दुस्साहस किया था और उस का नतीजा भुगता। अकेले होंगे तो यही होगा। विश्वनाथ जी को वहाँ हस्तक्षेप करने के पहले लोगों को अपने साथ लेने का प्रयत्न नहीं किया। करते तो वे अल्पसंख्यक हो सकते थे लेकिन अकेले न होते। फिर वे 100 नंबर पर फोन कर सकते थे। आसपास किसी वर्दीधारी को तलाश करके उसे कुछ करने को कह सकते थे। विश्वनाथ जी ने अकेले ही भिड़ना तय किया। व्यवस्थाओं से अकेले नहीं भिड़ा जा सकता। उस के लिए संगठन करना होगा। जितने भी संस्कारी हैं, संगठन कार्य से पीछे क्यों हटते जा रहे हैं। जान ही देते हैं तो संगठन के काम में दें।

    आप यह काम कर सकते हैं। यदि आप संगठन नहीं कर सकते हैं तो आपने आस पास कुछ युवाओँ को जिन में यह क्षमता है प्रेरित कर सकते हैं कि वे ऐसे संगठन के काम में आगे आएँ।

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  3. बदलती सोच ,बदलते परिवेश का नतीजा है यह सब। दुःखद.........

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  4. no dont talk in depressing tomes please lets us fight it out we may die but at least we will do our best before we die

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  5. @ dwivediji
    चलती बस में सिपाही कहां ढूंढते? अन्य यत्रियों से कहते कि शोहदों से लोहा लो तो सबको सांप सूंघ जाता। इस रूट में ऐसा आये दिन होता है और एक चाकू देखकर पूरी बस में सन्नाटा छा जाता है। हत्यारे जरायमपेशा लोग थे। जिसमें से एक इलाके के एक गैंगेस्टर की हत्या के मामले में अभी हाल ही में जमानत पर बाहर आया था। ये लोग दिन भर आरटीवी और बस में सवार रहते हैं और पुलिस की मदद से जेबतराशी का काम करते हैं और शेष समय में स्मैक आदि का धंधा। अगर आप इन्हें रंगेहाथ पकड़ लें तो ये तुरंत उस्तरे से वार कर भाग जाते हैं। खून देखकर पूरी बस दहशत से भर जाती है और आइंदा के लिए मंत्र भी ले जाती है कि 'चुप रहना ही श्रेयष्कर है'। इनसे प्रतिवाद करने पर तीन इकट््ठा होकर गाली-गलौज करने लगते हैं और दो यात्री को समझाने लगते हैं कि जाने दो...। ये दर्श्ाते हैं कि ये अलग हैं लेकिन होते ये उसी गिरोह के सदस्य हैं। शेष बस मौन।
    100 नं ृडायल करने पर पुलिस जब तक आती तब तक ये उतर जाते। दूसरी बात कि बस का नंबर तो याद करके चढे नहीं होंगे कि इस नंबर की आरटीवी जो इस समय इस जगह के आस-पास है यहां आ जाइए। डायल करने के बाद भी इनके ऊपर वार होता ही होता। इसके अलावा विश्वनाथजी भी एकदम से नहीं भिड़ गए होंगे। विरोध जताते हुए कहे होंगे कि क्या कर रहे हो। इसके बाद गुंडे बदतमीजी की सीमा पार कर गए होंगे। इसके बाद ज्योंही विश्वनाथ जी जरा सा सख्त हुए कि जानलेवा वार। अब आप ही बताइए इस घटनाक्रम के बाद लोगों का संगठन बनाने की जरूरत रह गई थी क्या? लोगों को तो खुद ही संगठित हो जाना चाहिए था।
    निष्कर्ष्--- इसके लिए सिस्टम दोषी है। पुलिस जानती है कि यहां बसों में क्या होता है, कैसे होता है और कौन लोग करते हैं। लेकिन हर हफ्ते मिलने वाली मोटी रकम...। नृशंस हत्या होने की वजह से जब खूब हंगामा हुआ तो आनन-फानन में पकड़ कर कहा 'चल बेटा अंदर'। क्योंकि वे जानते थे कि यही लोग हैं। थोड़ी हल्की घटना हुई होती तो फाइन लगा देते और हौले से चपत लगाकर कहते थोड़ा ठीक से काम किया करो।
    2- महानगर में हमारी कोई आइडेंटिटी नहीं है। वास्तव में हम अकेले हैं। यहां हमारा कोई गोल-गिरोह (संगी-साथी) तो है नहीं कि अगले कई दिन तक बस में इनको खोजें और सबक सिखाएं। दूसरी बात वैरागी जी ने लिख ही दी है कि "हम स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित लोगों की भीड़ बन कर रह गए हैं।" अर्थात दुष्यंत कुमार के शब्दों में
    हो कोई बारात या वारदात
    अब यहां नहीं खुलतीं हैं खिड़कियां
    (लंबी टिप्पणी के लिए मुआफी)

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  6. मुआफ करियेगा ये टिप्प्णी मेरी है। कृष्णा जी ने साइन आउट नहीं किया था तो उनके नाम से पब्लिश हो गई।

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  7. सार्वजनिक क्षमा मांगिए वैरागी जी।
    @मरी गायों को दुहने वाले

    "खबर मिलते ही विहिप और बजरंग दल के लोग मौके पर पहुँचे।"- और कोई क्यों नहीं पहुंचा? आगे आप ही लिखते हैं कि "बात सचमुच गंभीर और उत्तेजित करने वाली थी।" फिर नगर बंद से आपको एतराज क्यों?
    दूसरे घटनाक्रम में आप कहते हैं कि "बाद में, सभी पक्षों की बैठक हुई जिसमें विहिप पदाधिकारियों ने गौ-शाला के लोगों को खूब फटकारा और पूछा कि यदि मृत गायों का अन्तिम संस्कार ढंग से नहीं कर सकते हैं तो गौ-शाला चलाने का क्या मतलब है?" अब आप या कोई और बताए कि फटकारा तो गलत किया कि सही? यहां आपकी बुिद््ध छोटे बच्चे की बुिद््ध को भी मात दे गई। अगर हम किसी गौशाला को दान न दें या वहां सेवा न करें तो इसका मतलब है कि वे वहां जो चाहें अत्याचार करें?
    इस तर्क के अनुसार तो तस्कर पैसा देकर गउओं को ले जा रहे थे तो फिर वे मारे चाहे जो करें किसी को क्या? उन गायों के मालिक विहिप के लोग तो थे नहीं कि लगे चिल्ल-पों मचाने। आपको अपने लिखे के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए।

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  8. यह टिप्पणी 21 अगस्त की दोपहर कर रहा था कि एकाएक कहीं जाना पड़ गया, सो आज

    इस बार द्विवेदी जी से मेरी असहमति है। विश्वनाथ जी ने जो कुछ किया वह एक तात्कालिक मानसिक उद्वेग था। ऐसे कार्य किसी योजना तहत नहीं किए जा सकते।

    जिन युवायों के संगठन की बात की जा रही, उन्हें आज के परिदृष्य में 'नैतिक पुलिस' कह परे कर दिया जाता है।

    बात निराशावाद की नहीं, सर पर कफन बांधने की है। युद्ध के मैदान में उतरा सैनिक निराशावाद ले कर नहीं उतरता, एक उद्देश्य ले कर उतरता है।

    ऐसे मामलों में अधिकतर वही आगे आते हैं जिन्होंने गृह्स्थ जीवन में प्रवेश नहीं किया होता या उन जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए रहते हैं। शायद इसिलिए फौज में भर्ती के लिए अविवाहित होने की शर्त रहती है व कुछ वर्षों तक लागू भी रखी जाती है।

    पोस्ट की यह पंक्तियाँ सटीक हैं कि
    भारतीयता, धर्म, समाज, संस्कार, सदाचरण, पर-हित जैसे तमाम कारक हमारे जीवन से लुप्त होते जा रहे हैं। हम स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित लोगों की भीड़ बन कर रह गए हैं। हम ‘समाज’ का नाम तब ही लेते हैं जब हमें अपना कोई हित साधना होता है या किसी से बदला लेना होता होता है या किसी को सफल होने से रोकना होता है।

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  9. दुखद लग रहा है विश्वनाथ जी के संदर्भ में।

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