मूर्तिभंजक शिल्पकारों का देश

देश के एक सौ सर्वाधिक विश्वसनीय लोगों की सूची बनाने के लिए, ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के परिणामों वाला समाचार मैंने ध्यान से, एकाधिक बार पढ़ा। पढ़कर मुझे खुशी कम और हैरानी तथा चिन्ता अधिक हुई।


इस सूची के प्रथम दस व्यक्तियों में एक भी राजनीतिक व्यक्ति शामिल नहीं है। प्रथम दस में वैज्ञानिकों, उद्यमियों, कलाकारों, खिलाड़ियों को स्थान मिला है जबकि राजनीतिक व्यक्तियों को, सूची के अन्तिम दस में स्थान मिला है। मायावती ने, अन्तिम से प्रथम अर्थात् सौवें स्थान पर कब्जा किया। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को अवश्य ही सातवाँ स्थान मिला है किन्तु उन्हें ‘राजनीतिक’ मान लेना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है। मेरे कस्बे में आनेवाले किसी भी अखबार ने ग्यारहवें से लेकर नब्बेवें स्थान तक की सूची नहीं छापी है इसलिए नहीं पता कि इन अस्सी स्थानों पर कौन-कौन विराजमान हुए।


व्यावसायिक वर्गों की सूची में शिक्षकों को पहला, अग्नि शमन सेवाओं को दूसरा, किसानों को तीसरा, वैज्ञानिकों और सशस्त्र बलों को संयुक्त रूप से चैथा स्थान मिला है। चिकित्सकों, विमानचालकों और शल्य चिकित्सकों को इनके बाद स्थान मिला है।
‘रीडर्स डाइजेस्ट’ ने साफ-साफ कहा कि सर्वेक्षण के ये परिणाम पूरी तरह से वैज्ञानिक नहीं हैं किन्तु इसके बावजूद, ये जनमानस को प्रतिबिम्बित तो करते ही हैं।


इस सूची पर मैंने जितने भी मिलनेवालों से चर्चा की, राजनीतिक लोगों को खारिज किए जाने पर प्रत्येक ने, चहकते हुए प्रसन्नता ही व्यक्त की। साफ था कि यदि उन्हें भी सर्वेक्षण में शामिल होने का मौका मिलता तो वे भी नेताओं को अन्तिम स्थान ही देते।


मैं हैरान हूँ। चिन्तित भी। मैं अपने राजनेताओं को प्रथम दस में देखना चाहता हूँ। हमने संसदीय लोकतन्त्र अपनाया है जिसके संचालन और क्रियान्वयन का एक मात्र माध्यम है - राजनीति। यह त्रासद विडम्बना ही है कि आज राजनीति सबसे गन्दी चीज और राजनेता सबसे घटिया, सर्वथा अविश्वसनीय साबित किए जा चुके हैं। हमारे नेताओं को हमने ही तो ‘नेता’ बनाया हुआ है! हम ही इन्हें चुन कर भेजते हैं। जैसे हम हैं, वैसे ही हमारे नेता हैं। यदि ‘नेता’ हमारे समाज का सबसे घटिया और हेय कारक बन कर रह गया है तो यह तो हमारी ही विफलता नहीं है? हम अपने आप को ही नहीं लतिया रहे हैं? हम कैसे लोग हैं कि अपनी ही बनाई हुई मूर्तियों को अपूजनीय घोषित कर, उन्हें तोड़ कर खुश हो रहे हैं? हम ही तो वह कच्चा माल हैं जिससे नेता नामवाला ‘फिनिश्ड प्रॉडक्ट’ ‘लोक फैक्ट्री’ से बाहर आ रहा है। अपनी ही बनाई मूर्तियों को तोड़कर खुश होनेवाले हम लोग कब विचार करेंगे कि अपनी घटिया गुणवत्ता के लिए खुद मूर्ति कभी दोषी नहीं होती। कहा गया है कि मूर्ति इसलिए पूजनीय नहीं होती क्योंकि उसमें देवता वास करते हैं। वह तो इसलिए पूजनीय होती है क्योंकि वह हथौड़े-छेनियों के असंख्य प्रहार सहती है। हम मूर्तियाँ तो बनाते हैं किन्तु तराशने का परिश्रम करने से बचते हैं। भाटे (पत्थर) पर सिन्दूर पोत कर उसे देवता बना कर छोड़ देते हैं और जब यह देवता हमारी मनोकामनाएँ पूरी नहीं करता तो हम देवता को ही खारिज कर देते हैं।


मेरी सुनिश्चित धारणा है कि यदि ‘लोक’ अपनी भूमिका नहीं निभाएगा तो ‘तन्त्र’ हावी होकर ‘लोकतन्त्र’ को ‘तन्त्रलोक’ में बदल देगा। दिन-प्रति-दिन, आईएएस अफसरों के बिस्तरों, पेटियों से बरामद हो रहे करोड़ों रुपये यही साबित भी कर रहे हैं।


सो, नेताओं को सर्वाधिक अविश्वसनीय साबित कर, खुश होने के बजाय हमें अपनी गरेबाँ में झाँकना पड़ेगा और नेताओं को चुनने के बाद उन्हें नियन्त्रित करने की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। हमारी, स्वार्थपरक चुप्पी के चलते प्रत्येक नेता यह मानने लगता है कि वह जो कर रहा है, कह रहा है वही उचित है क्योंकि उसकी किसी भी कारस्तानी पर लोग तो प्रतिवाद करते ही नहीं। मेरा सुनिश्चित मानना है कि हममें से प्रत्‍येक को ‘राजनीतिक’ होना चाहिए और होना पडेगा। ध्‍यान देनेवाली बात है कि मैं ‘राजनीतिक’ होने की बात कर रहा हूँ, ‘राजनीतिज्ञ’ होने की नहीं। आज हम राजनीति को सडांध मार रही गन्‍दी नाली मान कर, अव्‍वल तो उसके पास से गुजरने में ही परहेज करते हैं और यदि गुजरना पडता है तो नाक पर रूमाल रख कर, उससे ऑंख बचाकर निकल जाते हैं। अपने इस व्‍यवहार पर हमें अविलम्‍ब ही पुनर्विचार करने की आवश्‍यकता है।

मुझे इस बात की तो खुशी है कि विश्वसनीय व्यावसायकि वर्गों की सूची में शिक्षकों को पहला स्थान मिला किन्तु इससे अधिक चिन्ता इस बात पर हुई कि न्यायपालिका और पत्रकारिता को इस वर्ग-सूची में कहीं स्थान नहीं मिला। मैं बीमा एजेण्ट हूँ और प्रतिदिन अनेक लोगों से मिलता हूँ। मैंने अनुभव किया है कि तमाम स्खलनों के बाद भी लोगों को आज तीन संस्थानों में सर्वाधिक विश्वास और सर्वाधिक अपेक्षा है। ये हैं शिक्षक, न्यायपालिका और पत्रकारिता। किन्तु इस सूची में अन्तिम दो कहीं नहीं हैं।


तो क्या हमारे लोकतन्त्र के चारों स्तम्भ रसातल में धँस गए हैं? विधायिका (राजनेता) का नम्बर अन्तिम दस में आता है, कार्यपालिका (अधिकारी/कर्मचारी) के करिश्मों से अखबार पटे पड़े हैं। न्यायपालिका और पत्रकारिता को सर्वाधिक विश्वसनीयता की इस सूची में स्थान ही नहीं मिला।


क्या अब भी हम हाथ पर हाथ धरे, चुप ही बैठे रहेंगे? हम किस अवतार की, कौन से चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
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5 comments:

  1. कोई चमत्कार नहीं होगा..आज के राजनेता इस लायक कहाँ हैं.

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  2. 60-65 सालों से जमा गन्दगी रातोंरात साफ़ होने वाली नहीं है… कैंसर के ऑपरेशन का वक्त तो आ चुका है, बस छुरी कौन चलायेगा यह देखना है…

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  3. उचित विमर्श किया है आपने...

    हम सिर्फ नेताओं को चुन कर छोड़ देते हैं.. उन्हें नियंत्रित और निर्देशित करने की जिम्मेदारी भी हमारी ही बनती है...
    कुछ उपाए ऐसे किये जा सकते हैं...
    लोगों को चाहिए की, नियमित पोस्ट कार्ड लिखे, राजनीतिक पार्टियों के वेबसाईट पर सन्देश भेजते रहें....
    काम नहीं करने वाले नेताओं के पोस्टर लगने न दें...

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  4. puri list yahan pe milegi
    http://sify.com/news/list-of-reader-s-digest-s-india-s-most-trusted-to-go-with-abdul-kalam-ratan-tata-are-india-s-most-trusted-survey-news-national-kdcsacchfhf.html

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