वृद्धाश्रम: मकान या मानसिकता


‘काल बेल’ की आवाज से ही नींद खुली। घड़ी देखी, अभी साढ़े छः ही बजे थे। दरवाजा खोला तो विश्वास नहीं हुआ। काका साहब सामने खड़े थे!


उन्हें कोई वाहन चलाना नहीं आता। सायकिल भी नहीं। याने, लगभग सत्तर वर्षीय काका साहब, त्रिपोलिया गेट से कोई तीन किलोमीटर पैदल चलकर, सवेरे साढ़े छः बजे मेरे यहाँ पहुँचे! मैं घबरा गया। ईश्वर करे, सब राजी-खुशी हो। मैंने प्रणाम किया। वे कुछ नहीं बोले। आशीष भी नहीं दिए। चुपचाप आकर सोफे पर बैठ गए। मेरी घबराहट बढ़ गई। मैं कुछ पूछूँ उससे पहले ही वे बोले - ‘घबरा मत। चिन्तावाली कोई बात नहीं। एक जरूरी सलाह लेने आया हूँ। तू जल्दी फारिग हो ले। जरा तसल्ली से बात करनी है।’


चिन्ता वाली कोई बात भले न हो किन्तु कोई खास बात तो है। वर्ना काका साहब इतने सवेरे क्यों आते? मेरी घबराहट जस की तस बनी रही। फुर्ती से फारिग हो, उनके पास बैठ कर सवालिया निगाहें उनके चेहरे पर गड़ा दीं। पल भर के लिए उन्होंने मेरी ओर देखा फिर शून्य की ओर ताकते हुए बोले - ‘सोचता हूँ, वृद्धाश्रम में भर्ती हो जाऊँ। तू क्या कहता है?’


मानो कोई विशाल वट वृक्ष अपनी जड़ों से उखड़ गया हो, पहले पल यही लगा मुझे उनकी बात सुनकर। मेरे हाथ-पाँव ठण्डे हो गए। मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ा।


अकबकाहट से उबरने में कुछ पल लगे मुझे। पूछा - ‘केशव और कान्ति (उनके इकलौते बेटा-बहू) से कुछ कहा सुनी हो गई क्या? उन्हें पता है कि आप यहाँ आए हैं?’ पूर्वानुसार ही मुद्राविहीन मुद्रा में बोले - ‘नहीं! नहीं! वे तो बेचारे चैबीसों घण्टे मेरी चिन्ता करते रहते हैं। उन्हें बताकर ही तेरे यहाँ आया हूँ।’ अब मेरी घबराहट तनिक कम हुई। संयत होकर पूछा - ‘तो फिर यह वृद्धाश्रम वाली बात कहाँ से आ गई?’ अब वे मेरी ओर पलटे। बोले -‘मैं घर में जरूरत से ज्यादा टोका-टोकी करने लगा हूँ। जहाँ नहीं बोलना चाहिए वहाँ भी बोलता हूँ। मैं अनुभव कर रहा हूँ कि केशव और कान्ति ही नहीं, अदिति और आदित्य (पोती-पोता) भी मेरी अकारण टोका-टोकी से परेशान रहते हैं। इसीलिए सोचता हूँ कि वृद्धाश्रम में भर्ती हो जाऊँ। कम से कम बच्चों को तो आराम मिले।’


उनके सवाल में ही मेरा सवाल निकल आया। बोला -‘जब आप समस्या का कारण और उसका निदान भी जानते हैं तो उसे दूर कर दीजिए। टोका-टोकी बन्द कर दीजिए। वृद्धाश्रम जाने की क्या जरूरत है?’ ‘यही तो नहीं होता मुझसे। रोज सवेरे उठकर प्रण लेता हूँ कि अपने काम से काम रखूँगा और बच्चों को बिलकुल नहीं टोकूँगा। किन्तु अगले ही पल प्रण-भंग हो जाता है और मेरे कारण घर में परेशानी शुरु हो जाती है।’


काका साहब ने मुझे उलझा दिया। बीहड़ में मानो पगडण्डी की तलाश कर रहा होऊँ, कुछ इस तरह से पूछा - ‘केशव को बताई आपने वृद्धाश्रमवाली यह बात? कैसा लगा यह सुनकर उसे?’ वे असहज हो गए। बोले -‘उससे पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। डर गया कि सुनकर वह कहीं कुछ कर न बैठे। इकलौते लड़के का बाप वृद्धाश्रम में रहे यह तो उसके लिए डूब मरनेवाली बात होगी।’ मुझे अब भी कुछ सूझ नहीं पड़ रहा था। बात को खींचने के लिए बोला - ‘इस विचार को तो आप खुद ही उचित नहीं मानते। मानते होते तो मुझसे पूछने के लिए इतने सवेरे तकलीफ क्यों उठाते?’ वे चुप रहे। उनकी चुप्पी ने मेरा आत्म विश्वास बढ़ाया। मैं ठीक दिशा में जा रहा था।


अंगुली से आगे बढ़कर पहुँचा पकड़ते हुए मैंने कहा - ‘वृद्धाश्रम में टोका-टोकी नहीं करेंगे?’ उनके चेहरे पर उलझन उभर आई। भरे कण्ठ से बोले -‘वहाँ कौन है सुननेवाला? वहाँ तो सुननी ही सुननी है। झख मारकर चुप रहना पड़ेगा।’ रुँआसा तो मैं भी हो गया किन्तु अब मुझे रास्ता नजर आने लगा। तनिक रूखे स्वरों में कहा - ‘यह तो कोई बात नहीं हुई। परायों, अनजानों के साथ तो आप समझौते करने को, सहयोग करने को तैयार हैं और अपनेवालों के साथ नहीं? परायों को सहयोग और अपनेवालों पर अत्याचार। खुद आपको अजीब नहीं लगता यह सब?’ अब वे फर्श की ओर देखने लगे। नजरें झुकाए बोले -‘जानता था कि तू यही कहेगा। किन्तु मैं क्या करूँ? जानता हूँ कि अपनेवाले हैं, सो, जो भी कहूँगा, सुन लेंगे। मुझसे रहा नहीं जाता और अपनेवालों पर अत्याचार कर देता हूँ।’


बड़ी विचित्र स्थिति थी। ऐसे में क्या सलाह दी जाए? मैंने तनिक साहस कर कहा - ‘काका साहब! वृद्धाश्रम जाने के बजाय आप अपने मन में ही वृद्धाश्रम क्यों नहीं बसा लेते? आप तो ज्ञानी भी हैं और अनुभवी भी। थोड़ी मुश्किल तो होगी किन्तु आप चाहेंगे तो सब कुछ हो जाएगा। वृद्धाश्रम जाने के बजाय वृद्धाश्रम को ही घर ले आइए। जब भी टोकने की इच्छा मन में उठे तब याद रखने की और याद करने की कोशिश कीजिए कि आप वृद्धाश्रम में हैं। इस वृद्धाश्रम में आपको शिकायत का कोई मौका शायद ही मिलेगा और बेटे-बहू और पोती-पोते का सुख तो मिलेगा ही।’


ऐसा लगा, उन्हें मेरी बात जँच गई। कुछ इस तरह बोले मानो अपने आप को तौल रहे हों -‘तेरी बात गले उतरती तो है। कोशिश करने में कोई हर्ज भी तो नहीं। वैसे भी घर में बड़ा तो मैं ही हूँ। हर कोई मुझसे ही समझदारी की उम्मीद करेगा। यदि कामयाब हुआ तो स्थितियाँ बेहतर ही होंगी। यदि नहीं हो पाया तो बदतर तो क्या होंगी? तुझसे मिलने का यह फायदा तो हुआ।’ सुन कर मुझे रोना आ गया। लगा, मैं केशव की जगह हूँ और मेरे पिता वृद्धाश्रम जाने के अपने निर्णय की निरस्ती की सूचना मुझे दे रहे हैं। मेरी दशा देखकर वे मुस्कुराए। मेरी टप्पल (माथे) पर चपत लगा कर बोले -‘तू तो गया काम से। चाय के लिए बहू को मैं ही बोल देता हूँ।’ उन्होंने मेरी उत्तमार्द्ध को आवाज लगाई -‘बेटाजी! मुझे और तुम्हारे इस निखट्टू पति को चाय पिला देना।’


मैं रसोई घर में पतीली और कप प्लेट की आवाज सुनने की आशा/अपेक्षा कर रहा था। वे आवाजें आईं तो जरूर किन्तु उनसे पहले मेरी उत्तमार्द्ध की सिसकियों ने रसोई घर पर कब्जा कर रखा था।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

एक बार फिर पितृ विहीन हो गया मैं


मैं एक बार फिर पितृ-विहीन हो गया, इसी नौ अप्रेल को। मेरे पूज्य पिताजी श्रीयुत पण्डित द्वारकादासजी बैरागी के देहावसान के कोई साढ़े सोलह बरस बाद।

लेकिन आगे कुछ भी कहने से पहले स्पष्ट कर दूँ कि यह पोस्ट मैं पूरी तरह से केवल खुद के लिए लिख रहा हूँ। इसकी सार्वजनकि उपयोगिता और पठनीयता शून्यवत् है। वस्तुतः यह पोस्ट मेरी जिम्मेदारी है जिसे न निभाऊँगा तो अपनी ही नजरों में गिर जाऊँगा। मरने से पहले ही मर जाऊँगा।

मैं भाग्यशाली हूँ कि मेरे चार पिता हैं। पहले - पूज्य श्रीयुत द्वारकादासजी बैरागी, मेरे जनक, जिनका देहावसान अक्टूबर 1993 में हुआ। मेरे दूसरे पिता हैं मेरे बड़े भाई साहब जिन्होंने मुझे संस्कार दिए। वे मेरे मानस पिता हैं। मुझमें यदि कहीं कोई थोड़ी सी भी अच्छाई है तो यह उन्हीं के कारण है। वर्ना मेरी अर्जित पूँजी तो कुटिलता, दुष्टता, अधमता ही है। मेरे तीसरे पिता है श्रीयुत एन. एन. वैष्णव साहब जिनका देहावसान अभी-अभी नौ अप्रेल को मुम्बई में हुआ। उन्होंने मुझे सामाजिकता के संस्कार दिए। मेरे चौथे पिता हैं श्री नितिन वैद्य। आयु में मुझसे लगभग सवा उन्नीस वर्ष छोटे। उन्हीं ने मुझे भारतीय जीवन बीमा निगम का अभिकर्ता बनाया और इसी कारण मैं अपने आर्थिक उत्तरदायित्व पूरे करने की क्षमता और अवसर प्राप्त कर पाया।

स्वर्गीय श्रीयुत एन। एन. वैष्णव साहब से मेरा पहला सम्पर्क 1984 में हुआ था। दादा ने भोपाल में बैरागियों का अखिल भारतीय स्तर का पहला सम्मेलन कराया था। वहीं उन्हें पहली बार देखा। उसी सम्मेलन में वे पहली बार बैरागियों के अखिल भारतीय अध्यक्ष बने थे और जीवन के अन्तिम क्षण तक बने रहे। इस बीच उन्होंने बीसियों बार पद त्याग की पेशकश की। किन्तु वे पूरे देश के तमाम बैरागियों की आशा और विश्वास ही नहीं, विवशता बन चुके थे। वे बीमार रहने लगे थे और हम सब जानते थे कि अब उन्हें पूरी तरह आराम करना चाहिए। किन्तु हम सब अपनी-अपनी अक्षमता उन पर थोप कर उन पर (और उनके पूरे परिवार पर) निर्ममता से अत्याचार करते रहे। उन्हें पद से कभी हटने नहीं दिया। कोई अस्सी वर्ष की अवस्था में उन्होंने देह त्याग किया। किन्तु छब्बीस वर्षों से उनसे सतत् सम्पर्क के बाद भी उनका पूरा नाम मैं इस क्षण भी नहीं जानता।

ऐसा मे अकेला नहीं हूँ। उनसे जुड़े अधिसंख्य लोग उनका पूरा नाम नहीं जानते। हम सब उन्हें ‘एन। एन. साहब’ ही कहते रहे और इसी नाम से उन्हें जानते रहे। और केवल नाम ही क्यों? हममें से अधिकांश लोग उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते। जानते हैं तो केवल उनके सार्वजनिक जीवन के बारे में।

पक्का पता तो नहीं किन्तु वे शायद राजस्थान के ‘रानी’ गाँव के मूल निवासी थे। सीमान्त प्रदेशों के महत्वाकांक्षी अधिकांश युवाओं की तरह उन्होंने भी मुम्बई का रास्ता पकड़ा। अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कल्पनातीत संघर्ष किए। खुद पढ़ने के लिए धनिकों के घर-घर जाकर उनके बच्चों को पढ़ाया। घर से निकलने के बाद यथासम्भव प्रयास किया कि घर से कोई मदद नहीं लेनी पड़े। उनका जीवट और विकट संघर्ष रंग लाया। उन्होंने प्रतिकूलताओं को परास्त करने के स्थान पर उन्हें अनुकूलताओं में बदला और अपना लक्ष्य प्राप्त किया। वे पहले तो वकील बने और अन्ततः एक कानूनविद् के रूप में स्थापित हो कर मुम्बई के कानूनी हलकों के शिखर पुरुषों में स्थापित हुए।

पैसा, यश और अपयश पचाना सामान्य व्यक्ति के बूते की बात नहीं होती। इस मायने में एनएन साहब आजीवन असाधारण व्यक्ति बने रहे। अपने परिश्रम और पुरुषार्थ से उन्होंने मुम्बई में वह सब अर्जित किया, जुटाया जिसका सपना हर कोई देखता है। बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाई, उन्हें न केवल आत्म निर्भर किया अपितु स्थापित भी किया। ‘सुसमृद्ध मुम्बइया’ बनने के बाद भी वे अपने अभावों और संघर्षों को क्षण भर भी नहीं भूले। अपनी इन ‘निजी सम्पत्तियों’ का उन्होंने सर्व में विसर्जन कर खुद को प्रत्येक जरूरतमन्द आदमी से जोड़ लिया। वह प्रत्येक बैरागी एनएन साहब के परिवार का सदस्य बन गया जो असहाय, निरुपाय, जरूरतमन्द था।

जातिगत संगठनों में मेरी रुचि शून्यवत ही रही। रुचि की क्या बात करूँ, ऐसे संगठनों ने मुझे विकर्षित ही किया। मेरी धारणा रही है कि ऐसे संगठनों में समय, श्रम और धन का अपव्यय ही होता है और अर्थहीन बातों को लेकर व्यर्थ की बहसें होती हैं जो मनमुटाव ही कराती हैं। किन्तु एनएन साहब ने मानो मुझे ‘दुरुस्त‘ किया। दादा की कही जिस बात को मैं भूल गया था, वही बात उन्होंने मुझे ऐसे याद कराई कि मैं आजीवन नहीं भूल पाऊँगा। उनका कहना था कि अपने दुख से मुक्ति पाने का सबसे आसान उपाय है-दूसरों के दुख से जुड़ जाना। उस दशा में अपना दुख न केवल कम हो जाता है बल्कि बहुत छोटा भी लगने लगता है। तब हमें, अपने दुखों की अपेक्षा अधिक बड़े दुखों से दुखी लोग मिल जाते हैं। उस दशा में अन्तरात्मा सहसा ही ईश्वर को धन्यवाद अर्पित करने लगती है कि उसने मात्रा और घनत्व के लिहाज से हमें कम दुख दिया।

‘सहायता’ की नई और अनूठी परिभाषा भी उन्होंने ही बताई। सहायता का सामान्य अर्थ हम ‘आर्थिक सहायता’ ही लगाते हैं। एनएन साहब ऐसा नहीं मानते थे। किसी की परेशानी को धैर्यपूर्वक सुन लेना, उसकी वाजिब बात का समर्थन करना, उसे ढाढस बँधाना भी सहायता होती है, यह एनएन साहब से ही जाना। खुद यदि आर्थिक सहायता न कर सको तो दूसरों से दिलवाने की कोशिश की जानी चाहिए। उनका कहना था - ‘दूसरों की, जरूरतमन्दों की मदद करो ताकि दूसरे आपकी मदद कर सकें। यह प्रतीक्षा मत करो कि दूसरे तुमसे जुड़ें। भला इसी में है कि तुम दूसरों से जुड़ जाओ।’

एनएन साहब ने बैरागियों के दो राष्ट्रीय संगठन बनाए। पहला - अ। भा.वैष्णव ब्राह्मण सेवा संघ और दूसरा अ. भा. वैष्णव ब्राह्मण कल्याण ट्रस्ट। ‘सेवा संघ’ के जरिए सामाजिक और ‘कल्याण ट्रस्ट’ के जरिए शैक्षणिक गतिविधियाँ संचालित होती हैं। दोनों संगठनों का बजट तो विशाल धन राशि का होता है किन्तु बैंक खातों में ‘शेष रकम’ नाम मात्र की ही मिलती है। सेवा संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन, संघ के संविधान के अनुसार निर्धारित समयावधि पर बराबर होते रहे। प्रत्येक अधिवेशन लाखों के खर्चवाला होता रहा और हर बार यह खर्च, चन्दे से जुटाया जाता रहा। संगठन के माथे कर्जा नहीं रहे, यह उनका पहला सूत्र था और दूसरा सूत्र था - संगठन को ‘आर्थिक सन्दर्भों में लाभदायक’ कभी मत बनने दो वर्ना संगठन से सेवा भावना समाप्त हो जाएगी और ‘अर्थ लोभी’ उसी तरह जुटने लगेंगे जैसे कि गुड़ के आसपास चींटे जुड़ते हैं। घाटे के संगठन में पदों की मारामरी कभी नहीं होती। ऐसे संगठनों वे ही लोग आएँगे जो अपनी गाँठ से ‘दो पैसे’ खर्च करने की भावना रखते होंगे।

यह सचमुच में अजूबा ही कहा जाएगा कि सेवा संघ के जरिए एनएन साहब ने गाँव-गाँव में, विधवा बैरागी महिलाओं को सिलाई मशीनें उपलब्ध करवा कर उन्हें रोजगार दिलाने की कोशिश की। एनएन साहब का सूत्र था - ‘रोटी नहीं, रोटी कमाने का जरिया दो।’ इसी तरह, उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को आर्थिक सहायता दिलाने के लिए उन्हानें सामर्थ्‍यवान बैरागियों से, ऐसे बच्चों को गोद लेने को कहा और आज कई बैरागी बच्चे इसी उपाय से मँहगी पढ़ाई कर पा रहे हैं।

एनएन साहब ‘चरम लोकतान्त्रिक’ (क्रॉनिक डेमोक्रेटिक) थे। वे सबकी बात ध्यान से और पूरी तरह से सुनते थे। सही बात को तो हम सब सुनते हैं किन्तु वे गलत बात को भी सुनते थे और संगठन के संविधान के अनुसार उनका निराकरण करते थे। असुविधाजनक स्थितियों ने उन्हें कभी भी असहज, विचलित नहीं किया। उन्हें ईश्वर पर और लोकतन्त्र पर सदैव आकण्ठ विश्वास रहा। यह देख कर कि सामनेवाला जानबूझकर, अकारण, अनावश्यक विवाद पैदा कर रहा है, हम लोग उन्हें शार्ट-कट अपनाने का आग्रह करते। ऐसे प्रत्येक आग्रह पर उनका एक ही जवाब रहा -‘यह मुझसे नहीं होगा। ऐसा ही करना है तो आप दूसरा अध्यक्ष चुन लो।’

उनकी इस लोकतान्त्रिक मानसिकता का दुरुपयोग भाई लोगों ने खूब किया, एनएन साहब पर व्यक्तिगत लांछन लगाए किन्तु एनएन साहब हिमालय की तरह अडिग, अविचल खड़े रहे और हर बार सामनेवाले को ही परास्त होना पड़ा। ऐसे अवसरों पर हम लोगों ने जब-जब परास्त होनेवाले की खिल्ली उड़ाने की कोशिश की तब-तब प्रत्येक बार एनएन साहब ने हमें वर्जित किया और कहा - ‘मतान्तर को व्यक्तिगत बैर में मत बदलिए।’

उनकी एक आदत से हम सब सदैव क्षुब्ध और दुखी रहे। वे सामनेवाले को सदैव ही भला आदमी मानकर चलते थे और पहली ही बार में उस पर विश्वास कर लिया करते थे, महत्वपूर्ण पद देकर उसे स्थापित/प्रतिष्ठित कर दिया करते थे। बाद में वही व्यक्ति उनके लिए संकट बन कर सामने आता। मैं उनसे कहता - ‘आप पत्थर पर सिन्दूर पोत कर उसे देवता बना देते हैं और वही पत्थर, आपका-हम सबका माथा लहू-लुहान कर देता है।’ वे शिशुवत निश्छल हँसते हुए कहते - ‘अच्छी भावना से किए काम का बुरा नतीजा कभी नहीं मिलता।’ मुझे तब भी हैरत होती थी और अभी भी हैरत हो रही है कि ऐसे प्रत्येक अवसर पर वे ही सही साबित हुए।

एनएन साहब पर लिखने के लिए मुझे समन्दर की स्याही भी कम पड़ेगी। एक व्यक्ति पूरी जाति, पूरे समाज की मानसिकता बदल सकता है, यह अजूबा एनएन साहब ने कर दिखाया। मालवा और राजस्थान के कुछ अंचलों के बैरागियों का जीवन-यापन भिक्षा-वृत्ति पर निर्भर हुआ करता था। कुछ अंचलों में तो बैरागियों को ‘माँग खाणी जात’ (माँग कर खाने वाली जाति) के रूप में ही पहचाना जाता रहा है। लेकिन सारे के सारे बैरागी तो ऐसे नहीं होते! सो, समृद्ध, सक्षम और सामर्थ्‍यवान बैरागी लोग अपने आप को बैरागी कहने में लज्‍जा अनुभव करते रहे। ऐसे लोग अपना बैरागी होना छुपाने का हर सम्भव प्रयास करते रहे और इसी के चलते बैरागी के बजाय ब्राह्मण जाति सूचक सरनेम लगाने लगे।

कहना न होगा कि एनएन साहब ने यह मानसिकता ही बदल दी। उन्होंने बैरागियों का मानो चोला ही बदल दिया। उन्होंने अपनी सक्रियता, जीवित सम्पर्कों और सम-भाव व्यवहार से समूचे बैरागी समाज को वह आत्म विश्वास दिया कि अब किसी को, खुद को बैरागी कहने में शर्म नहीं आती। खुद को बैरागी कहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति उन्हें अपनी आत्मा के समान ही प्रिय था और अपना बैरागी होना छिपानेवाला बड़ा से बड़ा व्यक्ति भी उनके लिए हेय था।

समाज को दिशा देनेवाले और समाज की दशा बदलनेवाले लोग कैसे होते हैं, यह एनएन साहब को देख कर समझा जा सकता है। उन्होंने बैरागियों को हीनता बोध से उबार कर उद्यमी होने का आत्म विश्वास पैदा करने का अघोषित अभियान चलाया और अपने जीते जी ही उसे सफल होते देखा भी।

नौ अप्रेल की सवेरे लगभग छः बजे एनएन साहब ने मुम्बई में अन्तिम साँस ली। मुझे लग रहा है कि उनकी मृत्यु आयोजित करने में हम, पूरे देश के बैरागी बराबर के अपराधी हैं। यदि हम लोग उन पर अत्याचार न करते तो वे शायद और कुछ वर्षों तक हमारे बीच रहते। किन्तु इसका समानान्तर सच यह भी है कि ‘सेवा संघ’ और ‘कल्याण ट्रस्ट’ की गतिविधियाँ उनके लिए ‘संजीवनी’ का काम करती थीं। कम से कम समय में, जल्दी से जल्दी, अधिक से अधिक काम कर लेने की उनकी उत्कट इच्छा शक्ति के दम पर ही वे अस्सी वर्ष की आयु में भी सक्रिय बने रह पाए। राजस्थान के साँवरियाजी तीर्थ क्षेत्र में, इक्कीस मई से ‘सेवा संघ’ का अगला अधिवेशन होना है। अस्पताल में, बिस्तर पर रहते हुए भी एनएन साहब इस अधिवेशन की व्यवस्थाओं की चिन्ता कर रहे थे। कह सकता हूँ कि वे न तो खुद के लिए जीए और न ही खुद के लिए मरे। उन्होंने तो भारत के समूचे बैरागी समाज को अपने देहाकार में समेट लिया था।

एनएन साहब की प्रत्येक यात्रा पर उनकी जीवन संगिनी आदरणीया शान्ता भाभी बेहद चिन्तित, सशंकित और व्याकुल रहा करती थीं। इससे बचने का एक ही उपाय हुआ करता था कि वे भी यात्रा में साथ हो लें। ऐसा वे करती भी थीं। किन्तु नाती-पोतों के समृद्ध परिवार और देश भर से आनेवाले बैरागियों की देखभाल की जिम्मेदारी निभाने की विवशता शान्ता भाभी को प्रायः ही मुम्बई में ही बाँध लेती थी। एनएन साहब की प्रत्येक यात्रा पर शान्ता भाभी की मौन प्रार्थना होती थी - ‘वे राजी-खुशी घर लौटें।’ ईश्वर की बड़ी कृपा रही कि एनएन साहब ने मुम्बई में, अपने परिजनों की उपस्थिति में अन्तिम साँस ली। अन्यथा मुझे सदैव आशंका बनी रहती थी कि एनएन साहब बैरागियों के किसी सम्मेलन में अपनी बात कहते हुए ही दिवंगत न हो जाएँ। यह शान्ता भाभी की पुण्याई का ही प्रताप रहा कि यह आशंका निर्मूल हो गई।

उनके न होने के सच को स्वीकार करने के लिए मेरा मन निमिष मात्र को भी तैयार नहीं हो पा रहा है। खबर मिली है कि शुक्रवार, तेईस अप्रेल को एनएन साहब की उत्तरक्रिया का अन्तिम सोपान आयोजित है। मुम्बई में। मुझे जाना ही है। किन्तु इसके लिए मुझे अपना आत्म बल अत्यधिक क्षीण अनुभव हो रहा है। डर रहा हूँ कि रेल में बैठने के बाद, रेल के सरकते-सरकते कहीं उतर न जाऊँ। अपने आप को एक बार फिर पितृ विहीन दशा में देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।

किन्तु मैं यह क्या कर रहा हूँ? मोह और स्वार्थ के वशीभूत हो मैं, एनएन साहब के साथ अत्याचार करने का, ‘विराट’ को ‘वामन’ में बदलने का अधर्म और अक्षम्य अपराध कर रहा हूँ।

पितृ विहीन मैं अकेला नहीं हुआ। सच तो यह है कि पूरे भारत का समूचा बैरागी समाज पितृ विहीन हुआ है।

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

इलाज की नई, ‘विकट पद्धति’


‘विकटजी’ कुपित हैं। नहीं। कुपित कम और क्षुब्ध अधिक। झुँझलाहट से उबले जा रहे हैं। उनके साथ ‘यह सब’ करनेवाले दोनों लोगों का ‘किंचित मात्र भी’ नहीं बिगाड़ पाने की झुंझलाहट से। क्रुद्ध, बिगड़ैल साँड की तरह फूँ-फूँ करते हुए कभी मोहल्ले की चाय की गुमटी पर बैठ रहे हैं तो कभी नाई की दुकान पर। उनकी यह मुद्रा देख कर किसी हिम्मत नहीं हो रही कि उनसे इस दशा का कारण पूछे।


‘विकटजी’ की विवशता यह है कि ये ‘दोनों लोग’ कोई सड़कछाप, सामान्य लोग नहीं हैं। ये दोनों, कस्बे के ऐसे नामी-गिरामी, अग्रणी और वरिष्ठ डॉक्टर हैं जिनका नाम लेने से पहले नई उमर के डॉक्टरों को अपने कान पकड़ने पड़ते हैं। एक डॉक्टर हैं विजयन्त हालदार और दूसरे शैलेन्द्र फाटक। डॉक्टर फाटक वरिष्ठ हैं और डॉक्टर हालदार कनिष्ठ। कहने को तो विकटजी की सामजिक हैसियत भी कोई कम नहीं है। वे कस्बे के लिखने-पढ़नेवाले प्रथम पाँच वरिष्ठों में आते हैं। उनकी कविताएँ प्रायः ही स्थापित पत्रिकाओं और अखबारों में छपती रहती हैं। विकटजी का दावा है कि जब भी समकालीन हिन्दी कविता का इतिहास लिखा जाएगा तो उनका उल्लेख अनिवार्य, अपरिहार्य होगा। इसके बाद भी मेरे कस्बे का ‘वैश्विक सत्य’ यह है कि विकटजी की प्रतिष्ठा पर दोनों डॉक्टरों की प्रतिष्ठा ‘एक लुहार की’ की तरह भारी पड़ती है। विकटजी यहीं मात खा गए। उनकी झुँझलाहट का कारण भी यही है।


विकटजी उसी कॉलोनी में रहते हैं जिसमें डॉक्टर हालदार का नर्सिंग होम है। कहने को तो डॉक्टर हालदार भी अभिरुचि सम्पन्न हैं किन्तु वे अपनी अभिरुचि को अपने व्यवसाय पर हावी नहीं होने देते। अपने मरीजों को वे सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। ईश्वर ने उनके हाथ में ‘यश रेखा’ बहुत गाढ़ी और बहुत लम्बी बनाई है। इसीलिए डॉक्टर हालदार अतिरिक्त सतर्क और सचेष्ट भी रहते हैं। सेवा निवृत्त विकटजी की कठिनाई यह है कि उनके पास कोई बैठने को तैयार नहीं। जो भी उनसे मिलने को अभिशप्त होता है वह लौट कर काम-काज करने काबिल नहीं रहता। सो, हर कोई अपने आप को विकटजी से बचाए रखने के लिए अतिरिक्त सतर्क रहता है। किन्तु विकटजी का यही एक मात्र कष्ट नहीं। बुढ़ापा अपने आप में बीमारी होता है। तिस पर यदि एकान्त भोगना विवशता हो तो बीसियों बीमारियाँ अकारण ही मन-मस्तिष्क में घर बनाने लगती हैं। विकटजी के साथ भी ऐसा ही है। सो, वे प्रायः ही डॉक्टर हालदार के चेम्बर में घुस जाते हैं - बिना किसी पूर्व सूचना और अपाइण्टमेण्ट के। अपनी संस्कारशीलता के चलते डॉक्टर हालदार उनकी अगवानी करते हैं, हाथवाले मरीज को छोड़कर पहले विकटजी को देखते हैं, उनकी सुनते हैं और विकटजी के मन को समझाने के लिए छोटी-मोटी, कामचलाऊ दवा लिख देते हैं। हाँ, इतना ध्यान वे जरूर रखते हैं कि दवा सस्ती हो। होना तो यह चाहिए कि इसके बाद विकटजी नमस्कार कर डॉक्टर हालदार को मुक्त कर दें। किन्तु ऐसा होता नहीं। वे बैठ जाते हैं और अपनी सद्य लिखित या सद्य प्रकाशित रचना की चर्चा करने लगते हैं और रोना रोने लगते हैं कि कस्बे में कोई उनकी रचना की चर्चा ही नहीं करता, उनकी पूछ-परख नहीं करता। डॉक्टर हालदार निरुपाय, असहाय हो जाते हैं ऐसे क्षणों में। वे अपनी व्यस्तता जताने के शालीन प्रयास करते जरूर हैं किन्तु विकटजी को कुछ नजर नहीं आता। डॉक्टर हालदार के लिए यह ऐसी बीमारी बन गई जिसका इलाज उनके चिकित्सा शास्त्र की किसी भी किताब में नहीं मिलता।


डॉक्टरों के एक जलसे में ‘दुःखी आत्मा’ डॉक्टर हालदार ने, रुँआसी मुद्रा में डॉक्टर फाटक को अपनी यह व्यथा-कथा सुनाई। डॉक्टर फाटक हँस दिए। डॉक्टर हालदार की पीठ सहलाते हुए बोले - ‘घबरा मत। फिकर मत कर। आज से तू अपने आप को मुक्त समझ। तू उसे एक बार मेरी ओर भेज दे। सब कुछ परमानेण्टली निपटा दूँगा।’ डॉक्टर हालदार को लगा, डॉक्टर फाटक नहीं, कोई देवदूत उन्हें ‘अभय दान’ दे रहा है।
और, विकटजी से बचने की जुगत भिड़ानेवाले वाले डॉक्टर हालदार अब बेसब्री से विकटजी के आने की प्रतीक्षा करने लगे। उन्हें अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। कोई तीसरे ही दिन विकटजी डॉक्टर हालदार के चेम्बर में प्रकट हो गए। डॉक्टर हालदार ने इस बार अतिरिक्त गर्मजोशी से उनकी अगवानी की और ‘एक मिनिट’ कह कर टेलीफोन उठा लिया। कोई नम्बर डायल किया और थोड़ी देर बाद बोले -‘हैलो! फाटक साहब से अर्जेण्ट बात कराइए।’ उधर से उत्तर सुन कर डॉक्टर हालदार तनिक निराश होकर बोले - ‘अरे! यह तो बड़ी परेशानीवाली बात हो गई। एक सीरीयस पेशेण्ट के बारे में मुझे तो एक्सपर्ट ओपीनियन चाहिए। मेरी तो इज्जत दाँव पर लगी है। फाटक साहब से बात नहीं होगी तो आज तो मेरा भट्टा बैठ जाएगा। उनका मोबाइल नम्बर दीजिए।’ मानो उधर से किसी ने इंकार किया हो, ऐसे व्यवहार करते हुए डॉक्टर हालदार बोले -‘हाँ मुझे पता है कि वे मोबाइल नहीं रखते किन्तु मैंने सोचा कि क्या पता रखना शुरु कर दिया हो। आप एक काम करना, जैसे ही फाटक साहब आएँ, फौरन उनसे मेरी बात करना। एक मरीज की जिन्दगी का और मेरी इज्जत का सवाल है।’ कह कर, फोन रखकर डॉक्टर हालदार, विकटजी से मुखातिब हुए - ‘जी, फरमाएँ।’


तब तक विकटजी बैठे नहीं थे। खड़े ही थे। वे असहज हो गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस डॉक्टर की चिकित्सा पर वे ईश्वर की देन की तरह आँख मूँदकर भरोसा करते हैं, वही डॉक्टर हालदार अपने मरीजों के इलाज के लिए किसी और डॉक्टर से परामर्श लेता है। वे अपनी बीमारी भूल गए और प्रश्न किया - ‘ये डॉक्टर फाटक साहब राजस्व कॉलोनी में ही रहते हैं ना?’ डॉक्टर हालदार ने कहा - ‘हाँ। वहीं तो रहते हैं!’ विकटजी बोले - ‘मैं सोच रहा था कि एक बार उन्हें दिखा लूँ।’ डॉक्टर हालदार ने बड़ी मुश्किल से अपने उछलते दिल को काबू किया। उन्होंने डॉक्टर फाटक का, मरीजों को देखने का, समय बताया और कहा -‘अरे! आप अब तक उनसे नहीं मिले? आप एक बार जरूर उन्हें दिखाइएगा। उसके बाद आपको मेरे पास आने की जरूरत नहीं रहेगी। आप उनसे मेरा नाम ले लीजिएगा। वैसे, आज जब उनसे मेरी बात होगी तो मैं आपके बारे में बता दूँगा और कह दूँगा कि आपसे फीस नहीं लें।’ डॉक्टर हालदार की बात खत्म होती उससे पहले ही विकटजी हवा की चाल, उल्टे पैरों लौट गए।


डॉक्टर हालदार को विश्वास ही नहीं हुआ कि विकटजी चले गए हैं। उनका जी किया कि ‘मुझे खुशी मिली इतनी कि मन में न समाय’ वाले गीत से दसों दिशाएँ गुँजा दें। किन्तु मरोजों की भीड़ और ‘लोग क्या कहेंगे’ ने उन्हें मन की करनी से रोक दिया।
बस! वह दिन और आज का दिन। तबसे विकटजी कुपित, क्षुब्ध और झुँझलाए हुए हैं। बिगड़ैल साँड की तरह ‘फूँ-फूँ’ करते हुए कभी यहाँ तो कभी वहाँ बैठ रहे हैं। उन्हें कहीं कल नहीं पड़ रही है, चैन नहीं मिल रहा है।


कोई चार दिनों बाद पूरा किस्सा मालूम हुआ। विकटजी से पूछने का आत्‍मघाती, मूर्खतापूर्ण दुस्साहस कौन करता? सो, किस्सा डॉक्टर फाटक से ही मालूम हुआ। डॉक्टर फाटक चिकित्सा विशेषज्ञता के लिए जितने प्रसिद्ध हैं लगभग उतने ही प्रसिद्ध ‘सुरा-पान’ के कारण भी हैं। डॉक्टर फाटक ने बताया - ‘विकटजी को तो मेरे पास आना ही था। मुझे मालूम ही था। सो जैसे ही उन्होंने अपना नाम बताया तो मैंने कहा कि हाँ डॉक्टर हालदार ने बताया था। उसके बाद मैंने ऐसे व्यवहार किया मानो मैंने दस-बीस बोतल दारु पी रखी हो। विकटजी कहें कुछ, मैं सुनूँ कुछ और कहूँ कुछ। विकटजी को सबसे पहली और सबसे बड़ी तकलीफ तो यह हुई कि मैंने उनसे तू-तड़ाक् से बात की जबकि सारा शहर उन्हें विकटजी कहता है। सो, सबसे पहले तो उनका अहम् ध्वस्त हुआ। फिर, उनकी बीमारी को लेकर मैंने काफी-कुछ पूछताछ कर बताया कि उनकी बीमारी मामूली और इलाज आसान नहीं है। कई दिनों तक, शायद महीनों तक दवाइयाँ लेनी पडे। किन्तु मैंने न तो उनका पर्चा बनाया और न ही कोई दवाई लिखी। हाँ, इतना जरूर मैंने सन्देश दे दिया कि उनका इलाज अब कोई कर सकता है तो बस मैं ही कर सकता हूँ। लेकिन कब करूँगा, यह नहीं बताया। ‘सुरा प्रभाव’ का आभास कराते हुए विकटजी को डाँट कर भगा दिया और कहा कि दो-चार दिन में पूछताछ करते रहना। मैंने कहा कि कविराज! यह कोई कविता लिखने का मामला नहीं है। चिकित्सा विज्ञान का मामला है। तुम क्या जानो कि इसमें कितना पढ़ना पड़ता है, अपने आप को कितना झोंकना पड़ता है।’


अब हालत यह है कि विकटजी, डॉक्टर हालदार से अपना इलाज करना नहीं चाहते और डॉक्टर फाटक हैं कि बताते नहीं कि इलाज कब शुरु करेंगे। अब विकटजी को इलाज कराना है तो केवल डॉक्टर फाटक से ही कराना है। उधर, डॉक्टर फाटक ने जिस लहजे में, जिस तरह से हड़काते, प्रताड़ित करते हुए व्यवहार किया उससे विकटजी चौकड़ियाँ भूले हुए हैं। वे विश्वास ही नहीं कर पा रहे हैं कि कोई उनसे, इस तरह, इतने असम्मान से बात कर सकता है! वे रह-रह कर अपने आप पर झुँझला रहे हैं - जिस डॉक्टर हालदार ने डॉक्टर फाटक के पास भेजा न तो उसका कुछ कर पा रहे हैं और न ही डॉक्टर फाटक का कुछ कर पा रहे हैं जिसने लू उतार कर, इज्जत हाथ में थमा दी।


कल शाम मैं डॉक्टर हालदार से मिलने गया तो देखा कि डॉक्टर फाटक भी वहीं बैठे हैं और दोनों ठहाके लगा रहे हैं। रुकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। मैंने बौड़म की तरह दोनों को देखा और किस्सा-ए-ठहाका जानना चाहा। बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकते हुए डॉक्टर फाटक ने कहा - ‘एक नई चिकित्सा पद्धति की खोज मैंने की है किन्तु मेडिकल साइन्स मुझे इसकी क्रेडिट नहीं देगा। मिलेगा तो बस यही कि हालदार किसी एक शाम को मुझे दारु पिला देगा।’ कह कर वे फिर आसमान फाड़ ठहाके लगाने लगे। डॉक्टर हालदार भी उनके साथ शुरु हो गए।


और विकटजी? उन्हें तो पता ही नहीं कि उनका इलाज कर दिया गया है।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


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यूलिप पॉलिसियाँ: जन्नत की हकीकत


यूलिप पॉलिसियों पर ‘सेबी’ और ‘इरडा’( भारतीय बीमा विनिमायक एवम् विकास प्राधिकरण अर्थात् आई आर डी ए) के बीच मचे द्वन्द्व में कौन सही है और कौन गलत, इससे परे हटकर, यूलिप पॉलिसियों की संरचना और इनकी सामाजिक-आर्थिक भूमिका पर विचार करने का यह ठीक प्रसंग और अवसर है।


बीमा क्षेत्र में निजी कम्पनियों के आगमन से पहले यूलिप पॉलिसियाँ इतनी प्रचारित और चर्चित नहीं थीं। तब केवल भारतीय यूनिट ट्रस्ट ही ‘यूलिप’ नाम से अपनी एक योजना बेचा करता था। किन्तु बीमा क्षेत्र में आई निजी कम्पनियों ने समूचा परिदृश्य ही बदल दिया। इन कम्पनियों ने भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा बेची जा रही पारम्परिक जीवन बीमा योजनाओं को परे धकेल पर यूलिप पॉलिसियों का बोलबाला कायम कर दिया। ‘यूलिप’ में निवेशित राशि दो भागों में बँटती है। एक भाग होता है जीवन बीमा प्रीमीयम वाला जो नाम मात्र का होता है। शेष बड़ा भाग स्‍टॉक मार्केट में निवेश किया जाता है। मोटे तौर पर ‘यूलिप’ पूरी तरह से स्‍टॉक मार्केट आधारित और केन्द्रित होती हैं। इन पॉलिसियों के इसी ‘चरित्र’ के आधार पर सेबी ने इन पर प्रतिबन्ध लगाया।


इन पॉलिसियों के निवेशित राशि पर बाजार की जोखिम सदैव हावी रहती है जिसे ग्राहक वहन करता है, बीमा कम्पनियों की कोई जवाबदारी नहीं रहती। वे तो ग्राहक से पैसा लेकर उसे उसकी ओर से बाजार में लगा देती हैं। किन्तु कम्पनियाँ यह काम मुत में नहीं करतीं। इस काम के लिए वे फण्ड प्रबन्धन शुल्क, पॉलिसी प्रबन्धन शुल्क, फण्ड आबण्टन शुल्क जैसे विभिन्न शुल्क ग्राहक से वसूल करती हैं। इसके अतिरिक्त एजेण्ट को दिया जाने वाला कमीशन और निवेशित रकम को एक फण्ड से दूसरे फण्ड में स्थानान्तरित करने (स्विच ओव्हर) का शुल्क भी ग्राहक की जेब से ही जाता है। इनमें से कुछ शुल्कों की दर तो प्रति पॉलिसी के आधार पर होती है और कुछ की दर फण्ड की रकम के प्रतिशत के मान से। अधिकांश शुल्कों की रकम प्रथम वर्ष में सर्वाधिक, दूसरे और तीसरे वर्ष में उससे तनिक कम तथा चैथे वर्ष से लेकर शेष पॉलिसी अवधि तक उससे भी कम (अर्थात् सबसे कम) होती है। इसे यूँ समझा जा सकता है कि दस हजार रुपये निवेश करनेवाले ग्राहक की रकम में से पहले वर्ष लगभग तीन हजार रुपये काट लिए जाते हैं और शेष सात हजार रुपये ही निवेश के लिए उपलब्ध रहते हैं। ग्राहक दस हजार की गणित में रहता है जबकि वास्तविकता सात हजार की रह जाती है। जाहिर है कि ग्राहक की रकम में से प्रथम तीन वर्षों में सर्वाधिक कटौती होती है।


यूलिप पॉलिसियों के आक्रामक विपणन प्रचार के कारण, पॉलिसी शर्तों के मुताबिक न्यूनतम रकम निवेश करनेवाले औसत मध्यमवर्गीय लोग सर्वाधिक आकर्षित होते हैं। बीमा कम्पनियों के आँकड़े ही बता देंगे कि दस-दस हजार रुपये वाले निवेशक करोड़ों में और लाखों रुपये वाले निवेशक लाखों में होंगे। बीमा कम्पनियाँ जो आँकड़े प्रचारित करती हैं, वे लाखों के निवेशवाले होते हैं। दस-दस हजार रुपये लगानेवाला औसत मध्यमवर्गीय ग्राहक मान लेता है कि उसे बड़े ग्राहक के आनुपातिक लाभ मिलेंगे। वह रातों रात लखपति/करोड़पति बनने का सपना पाल लेता है। उस समय उसे पता ही नहीं होता कि विभिन्न शुल्कों के नाम पर उसके दस हजार रुपयों में से जितनी रकम काटी जाएगी, उतनी ही रकम एक लाख रुपये लगानेवाले ग्राहक से भी काटी जाएगी। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष बीमा प्रीमीयम भी काटी जाएगी जो निवेशक की बढ़ती उम्र के कारण प्रति वर्ष बढ़ती जाएगी। याने, स्‍टॉक मार्केट में लगाने के लिए छोटे निवेशक की रकम कम और बड़े निवेशक की रकम अधिक उपलब्ध रहेगी। इसी पेंच के कारण छोटा निवेशक सदैव मात खाता रहता है। बीमा एजेण्ट भी ग्राहकों को यह पेंच पूरी तरह नहीं समझाते। शायद वे खुद भी नहीं जानते हों। इस प्रकार यूलिप पॉलिसियाँ ‘पैसा पैसे को खींचता है’ पाली लोकोक्ति को ही साबित करती हैं।


किसी भी पॉलिसी को तीन वर्ष बाद बन्द कर ग्राहक अपना पैसा वापस ले सकता है। बीमा एजेण्ट इस स्थिति को अतिरिक्त आकर्षण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। ग्राहक को लगता है कि उसे तो कुल तीन वर्ष तक ही रकम जमा करनी है। तीन वर्ष पूरे होते ही जब वह अपनी रकम लेने पहुँचता है तो उसके पैरों से जमीन खिसक जाती है जब उसे मालूम होता है कि उसे उसकी मूल रकम भी नहीं नहीं मिल पा रही है। प्रथम तीन वर्षों की शुल्क कटौती इतनी अधिक होती है कि ग्राहक की मूल पूँजी भी उसे मिल जाए तो गनीमत। वस्तुतः यूलिप पॉलिसियों का पूर्ण लाभ लेने के लिए ग्राहक को 6 से 9 वर्ष की अवधि का धैर्य रखना चाहिए। किन्तु इन पॉलिसियों की बिक्री ही तीन वर्षों की अवधि बताकर की जाती है। जबकि यूलिप पॉलिसियों का आधारभूत ‘फण्डा’ होता है - अपेक्षित लाभ लेने के लिए अधिक रकम, अधिक समय तक रखें और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें।


बीमा कम्पनियों को और सरकार को यूलिप पॉलिसियाँ सदैव ही अनुकूल रहती हैं। चूँकि सारी जोखिम ग्राहक ही वहन करता है सो कम्पनियाँ बेफिक्र रहती हैं। वे अपना स्थापना खर्च (अधिकारियों/कर्मचारियों के भारी भरकम पेकेज की रकम, वेतन-भत्ते) निकालने के बाद वाला लाभांश ही ग्राहक को देती हैं। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि इन कम्पनियों के अधिकारियों/कर्मचारियों के लाखों के पेकेज का भुगतान दस-दस हजार रुपये लगानेवाले छोटे निवेशक करते हैं। सरकार भी इन पाॅलिसियों को भरपूर प्रोत्साहित करती है क्यों कि इन पॉलिसियों का पैसा स्टाॅक मार्केट में लगता है और हम देख रहे हैं कि 1991 से लागू की गई ‘एलपीजी’ वाली हमारी आर्थिक नीतियाँ केवल बाजार को पोषित-पल्लवित कर रही हैं और बाजार पर ही निर्भर हैं। गोया, ‘धनवान अधिक धनवान और गरीब अधिक गरीब’ की अवधारण के तहत पूरे देश को बाजार में बदलने की सरकारी नीतियों का खर्चा देश के छोटे निवेशकों से वसूल किया जा रहा है।


यूलिप पॉलिसियों के लाभ-हानि का आकलन करने पर स्थिति बहुत उत्साहित करनेवाली नहीं लगती। इनके छोटे निवेशकों को लाभ कम और नुकसान अधिक मिलते दिखाई देते हैं। ये लोगों को रोतों रात लखपति बनने का सपना दिखाकर उन्हें लालची, सट्टेबाज और अकर्मण्य बनाती दिखती हैं। इनका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि ये बीमा की मूलभूत अवधारण को ही निरस्त करती हैं जो कि किसी भी बीमा कम्पनी की प्रारम्भिक, मुख्य और एकमात्र गतिविधि होनी चाहिए। तीन वर्ष बाद अपनी रकम निकालने के लालच में ग्राहक बीमा सुरक्षा से वंचित हो जाता है। जब वह नई पॉलिसी लेता है तो उसकी उम्र बढ़ जाने के कारण उसकी बीमा प्रीमीयम भी बढ़ जाती है और तीन साल बाद पॉलिसी बन्द करने के क्रम के चलते एक स्थिति यह आ जाती है कि ग्राहक को बीमा मिलना ही सम्भव नहीं रह जाता।


तीन वर्ष बाद पॉलिसी बन्द कराने की सुविधा का उपयोग बीमा कम्पनियाँ प्रायः ही अपने पक्ष में करती रहती हैं। उनके पास पूरा रेकार्ड रहता है कि किस ग्राहक की पॉलिसी को तीन वर्ष पूरे हो रहे हैं। वे अपने एजेण्टों को ऐसे ग्राहकों के पास भेज कर उन्हें प्रेरित करती हैं कि ग्राहक अपनी मौजूदा पॉलिसी बन्द कर यही पैसा किसी नई यूलिप योजना में लगा दे। पॉलिसी की संरचना और चरित्र से अनजान ग्राहक अपने एजेण्ट पर भरोसा कर वैसा ही कर लेता है। ऐसे में कम्पनी को न तो नया ग्राहक मिला और न ही नया निवेश किन्तु उसकी बिक्री के आँकड़े बढ़ गए और एजेण्ट को पूरा कमीशन मिल गया। ग्राहक को तो पता ही नहीं चलता कि वह इस खेल में आर्थिक मोहरे के रूप में प्रयुक्त कर लिया गया है। बीमा क्षेत्रों में इसे ‘रिसायकलिंग’ (पुनर्निवेश) कहा जाता है। यदि इन कम्पनियों से आँकड़े लिए जाएँ तो मालूम पड़ेगा कि अस्सी प्रतिशत यूलिप पॉलिसियाँ इस प्रकार ‘रिसायकल’ (पुनर्निवेशित)कर दी गई हैं।


यूलिप पॉलिसियों की बिक्री के लिए बीमा कम्पनियाँ केवल इरडा के अधीन ही रहें या उन्हें सेबी से भी पंजीयन लेना पड़ेगा, इससे परे हटकर इन पॉलिसियों के सामाजिक प्रभाव और लोगों को बीमित किए जाने की मूल अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में अवश्य ही विशद् विवेचन किया जाना चाहिए।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

लोकतन्त्र के बाराती


हम सात-आठ थे। सबके सब पूरी तरह फुरसत में। करने को एक ही काम था - भोजन करना। सबको पता था कि छः बजते-बजते भोजन की पंगत लग जाएगी। याने प्रतीक्षा करने का काम भी नहीं था। सुविधा इतनी और ऐसी कि माँगो तो पानी मिल जाए, चाय मिल जाए-सब कुछ फौरन। नीमच के डॉक्टर राधाकृष्णन नगर (जिसे इस नाम से शायद ही कोई जानता हो। सब इसे ‘शिक्षक कॉलोनी’ के नाम से जानते हैं) स्थित शिक्षक सहकार भवन में हम लोग जुड़े बैठे थे।


मेरे जीजाजी की पहली बरसी पर मेरे बड़े भानजे श्यामदास ने यह आयोजन किया था। सवेरे से भजन-कीर्तन चल रहे थे। महिलाओं ने मानो यह काम अपने जिम्मे ले लिया था। सो, हम सबके सब पुरुष पूरी तरह से फुरसत में थे।


जैसा कि होता है, बात घूम फिरकर भ्रष्टाचार पर आ गई। बात शुरु हुई थी जनपद पंचायत चुनावों से। एक ने बताया कि प्रति उम्मीदवार कम से कम 20-20, 25-25 लाख रुपये खर्च हुए होंगे। मुझे हैरत हुई। मैंने पूछा - इतना खर्च क्यों किया होगा इन लोगों ने? उत्तर मिला - ‘यह तो यक्ष प्रश्न है।’ यहीं से शुरुआत हुई। कहा कि जिला पंचायत और जनपद पंचायतों में करोड़ों का फण्ड आता है। वह धरती पर तो शायद ही आता हो, कागजों में ही फँस कर रह जाता है। 20-20, 25-25 लाख रुपये खर्च करनेवाले, अपने खर्च की वसूली और अगले चुनाव की तैयारी इसी ‘करोड़ों के फण्ड’ से करते हैं।


और जैसा कि होता है, हर कोई पूरे देश को, पूरे समाज को और पूरी व्यवस्था को भ्रष्ट साबित करने पर तुल गया। और जैसा कि होता है, हर कोई अपने आप को इस सबसे अलग रख कर, ‘वस्तुपरक भाव’ से बात किए जा रहा था। हर कोई कह रहा था कि देश रसातल में जा रहा है और इस तरह कह रहा था मानो इस दशा के लिए वह कहीं भी जिम्मेदार नहीं है।


जिन्होंने ‘यक्ष प्रश्न’ की उपमा दी थी वे शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्त हुए थे। उनसे मैंने पूछा - ‘आपने अपने सेवा काल में कितनी बार रिश्वत दी।’ उत्तर मिला - ‘एक बार।’ मैंने दूसरा सवाल किया -‘आपके दो बेटे केन्द्रीय विद्यालय संगठन में सेवारत हैं। इनकी नौकरी लगवाने के लिए आपने कितनी रिश्वत दी।’ जवाब आया -‘फूटी कौड़ी भी नहीं। दोनों अपनी शैक्षणिक योग्यता के दम पर चुने गए।’


दूसरे सज्जन बहस में नाम मात्र की भागीदारी कर रहे थे। मुझे साफ लग रहा था कि वे मेरा लिहाज कर रहे थे। किन्तु राय उनकी भी यही थी कि देश भ्रष्टाचार के दलदल में डूब गया है। वे भी शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्त हुए थे। उनसे भी मैंने वही सवाल किया - ‘अपने सेवाकाल मे आपने कितनी बार रिश्वत दी?’ उत्तर मिला - ‘एक बार भी नहीं।’ मैंने दूसरा सवाल किया - ‘आपका बेटा राष्ट्रीयकृत बैंक में सेवारत है। उसकी नियुक्ति के लिए आपने कितनी रिश्वत दी।’ उन्होंने तनिक असहज होकर कहा - ‘कोई रिश्वत नहीं दी। वह अपनी योग्यता के कारण ही नौकरी पा सका।’


दोनों से मेरे इन दोनों सवालों के बाद बहस में मानो विराम सा लग गया। मैंने सहज ही कहा कि उन दोनों को तो भ्रष्टाचार पर बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है क्योंकि दोनों के पास इस बाबत अपने कोई अनुभव नहीं है। मुझे बहुत ही शानदार प्रतिप्रश्न मिला - ‘तो क्या आप कहना चाहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार है ही नहीं?’ मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा - ‘ऐसा तो मैंने कहा ही नहीं। कह भी नहीं सकता क्योंकि मैं जानता हूँ कि देश में भ्रष्टाचार है और संस्थागत स्वरूप में है।’ ‘तो फिर आप कहना क्या चाहते हैं?’ सवाल आया। मैंने कहा - ‘मेरे सवालों के जवाब में आप दोनों ने मुझसे जो कहा, वही कहना चाहता हूँ। जब भी भ्रष्टाचार की बात हो तो आप कम से कम एक बार तो कहें कि सब कुछ रसातल में नहीं चला गया है। अच्छे, भले और ईमानदार लोग आज भी हैं जो बिना लिए-दिए काम करते हैं। आप सबको एक घाट पानी पिलाकर इन भले और ईमानदार लोगों को जिस तरह से अपमानित करते हैं, उन्हें भ्रष्टों में शरीक करते हैं, यह मुझे नहीं जँचता। मेरा मानना है कि आज भी भले और ईमानदार लोग अधिक हैं किन्तु उनके भले होने का, उनके ईमानदार होने का हम न तो नोटिस लेते हैं न ही उनकी प्रशंसा करते हैं। ऐसा करके तो हम खुद भी एक प्रकार से भ्रष्टाचार करते हैं। हम भले ही उनका नाम न जानें किन्तु उनके आचरण का जो सुखद अनुभव हमें हुआ है, उसका उल्लेख भी न करें?’


मेरी बात फिर भी उनके पल्ले नहीं पड़ी। तनिक असहज होकर बोले - ‘आपकी बात समझ नहीं आई। आप कहना क्या चाहते हैं?’ मैं उन दोनों से उम्र में काफी छोटा हूँ-कम से कम दस-बारह बरस छोटा। मुझे संकोच हो आया। मैंने कहा - ‘यह देश रसातल में यूँही नहीं चला गया। हम सबने इसे जाने दिया जबकि हमारी जिम्मेदारी थी कि इसे रसातल में न जाने दें। लेकिन हमने रोकने की कोई कोशिश नहीं की। और तो और, जो लोग ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं, उनका उल्लेख और प्रशंसा करने के बजाय हम उन्हें भी भ्रष्टों की जमात में शामिल करने का अपराध कर रहे हैं। हम कहीं भी, किसी भी प्रकार से अपनी कोई भी जिम्मेदारी निभाने को तैयार नहीं हैं। बस, चिल्लाए जा रहे हैं, स्यापा किए जा रहे हैं। मुझे यह ठीक नहीं लगता।’
नहीं जानता कि मुझसे सहमत होकर चुप हुए या मेरा लिहाज कर। किन्तु अपनी मुट्ठियों पर ठोड़ी टिका कर ‘हूँ। हूँ।’ कर, विचार-मुद्रा में लीन हो, सहमति में सिर हिलाने लगे।


ठीक मौका जान मैंने आखिरी पत्थर फेंका - ‘अपन सब कभी न कभी, कम से कम एक बार तो बाराती बने ही होंगे। बाराती सामान्य प्राणी नहीं होता। वह विशेषाधिकार प्राप्त प्राणी होता है। उसके जिम्मे कोई काम नहीं होता। वह प्रति पल कुछ न कुछ माँग करता रहता है और लड़कीवाले उसकी माँग पूरी करने के लिए लगातार भागदौड़ करते रहते हैं। उसे नाराज होने का कोई मौका नहीं देना चाहते।


‘मुझे लगता है, हम सब केवल बाराती बने हुए हैं। लोकतन्त्र के बाराती। यह लोकतन्त्र की जिम्मेदारी है कि हमें नाराज न होने दे और हमारी प्रत्येक माँग पूरी करे-फौरन।’


लेकिन मैं देख नहीं पाया कि मेरी बात का क्या असर हुआ क्योंकि मेरी बात खत्म होते ही श्यामदास की आवाज आई - ‘मामा साहब! भोजन तैयार है। सबको लेकर पधारिए।’


सुनकर, मैं उठता, उससे पहले बाकी सब उठ कर तेजी से भोजन पाण्डाल की ओर लपके।


मैं तय नहीं कर पाया कि वे तेजी से क्यों लपके? वाकई में, तेज भूख के कारण?


भगवान करे यही कारण रहा हो।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


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उन्होंने अनुचित का समर्थन किया


नीमच जाने के लिए मैं इन्दौर-उदयपुर रेल में यात्रा कर रहा था। मन्दसौर में ‘उन्हें’ अपने डिब्बे में चढ़ता देख तबीयत खुश हो गई। ‘वे’ मेरे आदरणीय तो हैं ही, समूचे मालवांचल के ख्यात और सुपरिचित पत्र लेखक हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब ‘उनका’ कोई न कोई पत्र, किसी न किसी अखबार में न छपता हो। ‘वे’ लोहिया के परम् भक्त, प्रखर समाजवादी और गाँधी के अनुयायी हैं। देश के मौजूदा सारे संकटों का हल ‘वे’ गाँधी में ही अनुभव करते हैं। अनुचित सहन करना ‘उनके’ स्वभाव में नहीं रहा। नौकरी करते हुए ऐसे पचासों मौके आए जब अनुचित के प्रतिकार के कारण ‘उनकी’ नौकरी पर बन आई। ऐसे प्रत्येक अवसर पर ‘उनके’ मित्रों, शुभ-चिन्तकों ने ‘उनकी’ सहायता की। ‘उनके’ प्रशंसक वे लोग भी हैं जिनकी मुखर और मुक्त-कण्ठ आलोचना ‘वे’ करते रहते हैं। हर कोई जानता है कि ‘उनकी’ शब्दावली कैसी भी हो, ‘उनकी’ नियत में खोट नहीं है।


मैं लपक कर दरवाजे तक गया और ‘उन्हें’ लिवा लाया। अपनीवाली बर्थ पर बैठाया। वहाँ पहले हम तीन थे। अब चार बैठे थे। रेल हमारी अपेक्षा से अधिक देर तक मन्दसौर स्टेशन पर खड़ी हुई थी। ‘अरे वाह! खूब मिला! कैसा है? घर में सब राजी-खुशी तो हैं?’ से ‘उन्होंने’ बात शुरु की। औपचारिकता तो हम दोनों के बीच कभी रही ही नहीं। सो, जितनी सहजता से रेल, पटरियों पर दौड़ती है, उससे भी अधिक सहजता से हम बातों में मशगूल हो गए। हमारी बर्थ पर बैठा दम्पति महू से आ रहा था और सामने बैठी माँ-बेटी, मेरे साथ ही रतलाम से बैठी थीं। सहयात्री दम्पति के जरिए ‘उन्होंने’ महू की अपनी यादें ताजा कर लीं। सामने बैठी युवती ने मुझे पहचान लिया। वे दोनों माँ-बेटी मेरे परिचित की बेटी और नातिन निकलीं। साइड बर्थ पर एक दम्पति अपने लगभग एक वर्ष के बेटे के साथ बैठा था।


हम सब सहज भाव से बातें कर ही रहे थे कि एक हिंजड़ा डिब्बे में घुस आया और पठानी वसूली की मुद्रा और शैली में भीख माँगने लगा। हम लोगों ने ध्यान नहीं दिया तो वह जोर-जोर से तालियाँ बजा-बजा कर, वसूली के लिए चिल्ला-चिल्ला कर बोलने लगा। एक तो हमारी चर्चाओं में व्यवधान, दूसरे उसका दादागिरीवाला तरीका तीसरा उसका लगातार चिल्लाना और तालियाँ बजाना, सब कुछ मुझे असहज करने लगा। मैंने उसे आगे जाने को कहा तो वह मुझे हड़काने लगा। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने कहा कि वह यदि नहीं हटा तो मैं पुलिस को आवाज लगाऊँगा। मेरी बात ने मानो उसकी ‘मर्दानगी’ को ललकार दिया। वह अपने हिंजड़ा होने की दुहाई देकर, कपड़े उठाकर नंगा होने की धमकी देने लगा। मुझे तैश आ गया। मेरी आवाज भी ऊँची हो गई। यह देख ‘वे’ मुझे समझाने लगे। मुझे हैरत हुई। लेकिन उनसे कुछ कहने के बजाय मैंने हिंजड़े से निपटने को प्राथमिकता दी। मेरी बातों के जवाब में वह और अधिक जोर से तालियाँ फटकारते हुए, चिल्ला-चिल्ला मुझे श्राप देने लगा। श्रापों की तो खैर मुझे कोई चिन्ता नहीं थी किन्तु उसकी हरकतों से मुझे और तैश आ गया। रेल यद्यपि स्टेशन पर खड़ी थी तदपि मैंने रेल रोकनेवाली जंजीर खींचने के लिए, उठकर, हाथ बढ़ाया किन्तु मैं छोटा पड़ गया। मेरा हाथ वहाँ तक पहुँचा ही नहीं। यह देख कर हिंजड़े को मजा आ गया। अब वह मुझे श्राप देने के साथ-साथ मेरी खिल्ली भी उड़ाने लगा। यह सब देख ‘वे’ घबरा गए। पकड़ कर मुझे बैठाकर मुझे समझाइश देने लगे कि मैं चुप रहूँ, हिंजड़े के मुँह नहीं लगूँ। तब तक साइड बर्थ पर बैठे दम्पति ने हिंजड़े को दस का नोट थमा दिया। हिंजड़ा उनके बेटे को असीसता हुआ और मुझे कोसता-श्राप देता हुआ वहाँ से चला गया।


उसके जाते ही ‘वे’ तनिक कुपित होकर फिर से मुझे समझाने लगे। समझा क्या रहे थे, मेरी सामान्य बुद्धि पर तरस खाते हुए मुझे प्रताड़ित ही कर रहे थे। मुझे हैरत हुई। मैंने जानना चाहा कि मेरी गलती क्या थी। ‘वे’ बोले कि मेरी गलती तो बिलकुल नहीं थी किन्तु ऐसे लोगों से बहस करने का क्या मतलब? मैंने पूछा कि हम दोनों (हिंजड़े में और मुझमें) में से अनुचित कौन था। ‘उन्होंने’ उत्तर दिया - ‘यह भी कोई पूछने, बतानेवाली बात है? अनुचित तो हिंजड़ा ही था।’ मैंने पूछा - ‘अनुचित का प्रतिकार कर मैंने कुछ गलत किया?’ ‘वे’ बोले - ‘बिलकुल नहीं।’ मैंने पूछा - ‘फिर आपने हिंजड़े का समर्थन क्यों किया?’ वे मानने को तैयार नहीं हुए कि ‘उन्होंने’ हिंजड़े का समर्थन किया। बोले - ‘मैं तो तेरी चिन्ता कर रहा था।’ तब मैंने तनिक क्रुद्ध होकर कहा - ‘आप ऐसा बिलकुल नहीं कर रहे थे। आप हिंजड़े को डाँटने, भगाने के बजाय उसके सामने ही मुझे समझा रहे थे। यह उसका समर्थन नहीं तो और क्या था?’ उन्होंने कुछ कहना चाहा किन्तु बोल नहीं पाए। पल भर बाद बोले - ‘तू मेरी बात समझ नहीं पा रहा है।’ मैंने तनिक कठोर हो कर कहा - ‘मैं तब भी आपकी बात भली प्रकार समझ रहा था और अभी भी समझ रहा हूँ। तब आप हिंजड़े की उपस्थिति में मेरे विरुद्ध उसका समर्थन कर रहे थे और अभी, उसके जाने के बाद उसके प्रतिनिधि बन कर मेरा विरोध कर रहे हैं। उसमें और आपमें क्या फर्क रहा? वह तो चला गया किन्तु आप अभी भी उसकी अनुचित हरकतों का समर्थन किए जा रहे हैं।’ इस बार वे चुप हो गए। उनके चुप होते ही सामने बैठी बच्ची अपनी माँ से बोली - ‘अंकल ने बिलकुल ठीक किया। पापा होते तो वे अंकल को सपोर्ट करते और उसे भगा देते।’ सुनकर उसकी माँ झेंप कर असहज हो गई।


रेल सरकी तो डिब्बे के हमारेवाले हिस्से में सन्नाटा छा गया। वातावरण भारी हो गया था। कोई, कुछ नहीं बोल रहा था। मैं साफ-साफ देख रहा था कि ‘वे’ मुझसे नजरें चुरा रहे थे। ‘उनके’ चेहरे पर अपराध-बोध छाया हुआ था। ‘उनकी’ आँखें नम हो आई थीं।


नीमच अभी कम से कम पचास किलोमीटर दूर था। याने, लगभग सवा-डेड़ घण्टे की यात्रा शेष थी। ‘ऐसे सन्नाटे, ऐसे भारीपन के साथ यह समय कैसे कटेगा?’ यह विचार मन में आते ही मुझे घबराहट होने लगी। मैंने तड़ाक् से पूछा - ‘आप चुप क्यों हैं?’ बड़ी मुश्किल से ‘वे’ बोले -‘तेरी बात सच है। किन्तु यह भी सच है कि मैं तेरी ही चिन्ता कर रहा था। नहीं चाहता था कि वह हिंजड़ा तेरे साथ हुज्जत करे। किन्तु तू इसे, हिंजड़े का समर्थन मान रहा है। तू भी गलत नहीं है। उसके बजाय तुझे रोक-टोककर उसका ही हौसला बढ़ाया मैंने। लेकिन अब यह हो तो गया है। अब क्या कर सकता हूँ?’


अपने आदरणीय पर मुझे दया आ गई। उनकी दशा देखकर और मनोदशा अनुभव कर मुझे रोना आ गया। बड़ी मुश्किल से खुद पर काबू कर बोला - ‘हिंजड़े ने मेरी फजीहत की उसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं। सब जानते हैं कि वह गलत था और मैं सही। किन्तु आपने ही तो सिखाया है कि अनुचित का प्रतिकार करना चाहिए। ऐसा न करने पर हम खुद अनुचित करने के अपराधी बन जाते हैं। मैं आपकी सीख पर अमल कर रहा था और आप मुझे रोक रहे थे। मुझे हिंजड़े की हरकत अजीब नहीं लगी क्योंकि वह तो वही सब करने के लिए डिब्बे में आया था। किन्तु आप? आपने यह क्या किया? आपने वह किया जो आपने नहीं करना चाहिए था और वह तो किया ही नहीं जो आपने करना चाहिए था।’


मेरी बात ने मानो करण्ट का काम किया। वे चिहुँक कर बोले - ‘तेरा मतलब है, हिंजड़े ने तो अपना काम किया और मैंने अपना काम नहीं किया?’ मैं बोला - ‘मैंने शब्दशः तो ऐसा नहीं कहा किन्तु कहा तो यही है। यही मैं कहना भी चाहता था। आप मेरे आदर्श हैं और मेरे लिए यह मर्मान्तक पीड़ादायक है कि मेरा आदर्श अपने आचरण से स्खलित हुआ।’


‘वे’ फिर चुप हो गए। शेष यात्रा में उन्होंने बातचीत की तो अवश्य किन्तु उनकी आवाज की जिन्दादिली और खनक गायब थी। ऐसे बात कर रहे थे मानो बात न करने पर एक और अपराध कर लेंगे।


रेल नीमच पहुँची। ‘उन्हें’ स्टेशन के पास ही जाना था और मुझे शहर में। सो, हम लोगों ने स्टेशन पर ही एक दूसरे से विदा ली। मैंने नमस्कार किया। ‘उन्होंने’ मुझे असीसा और कहा - ‘पत्र लिखना।’ मैंने हाँ की मुद्रा में गरदन हिलाई और चल दिया। चार कदम भी नहीं चला था कि उन्होंने आवाज दी। मैं पलट कर उनके पास गया। वे बोलना चाह रहे थे किन्तु बोल नहीं पा रहे थे। अन्ततः, तनिक कठिनाई से, भर्राए गले से बोले - ‘तूने ठीक कहा। हिंजड़े ने अपना काम किया और मैंने अपना काम नहीं किया। माफ कर देना।’


और मैं कुछ कहता उससे पहले ही वे पीठ फेरकर, तेज-तेज कदमों से, मानों भागना चाह रहे हों, चले गए।


मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। प्‍लेटफार्म का कोलाहल मानो ‘म्यूट’ हो गया हो। मुझे उनकी पीठ दिखाई दे रही थी।


और हाँ, उन्होंने अपनी बाँह से अपनी आँखें पोंछी, यह भी मैंने देखा।
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पत्रकारिता की बारात का बूढ़ा


प्रकाशजी ने एक बार फिर ‘नईदुनिया’ का काम-काज सम्हाल लिया। इस बार उनकी पदोन्नति भी हुई। पहले वे ‘नईदुनिया’ के, मेरे कस्बे के कार्यालय प्रमुख थे। अब वे पूरे जिले के सलाहकार के रूप में पदस्थ किए गए हैं। उनका पदनाम भले ही ‘सलाहकार’ दिया गया हो किन्तु मैं जानता हूँ कि प्रकाशजी जहाँ भी होते हैं, पत्रकार ही होते हैं और पत्रकार से कम या ज्यादा और कुछ नहीं होते।


किन्तु इस बात से क्या अन्तर पड़ता है कि कौन आदमी किस अखबार में किस पद पर काम करे? सही है। कोई अन्तर नहीं पड़ता। किन्तु प्रकाशजी की यह पुनर्नियुक्ति सामान्य नहीं है। यह एक विशेष घटना है। ऐसा नहीं होता तो भला मैं यह सब क्यों लिखता?


इस पुनर्नियुक्ति की खास बात यह है कि प्रकाशजी (याने श्री प्रकाश उपाध्याय) ने अपनी आयु के 77वें वर्ष में यह जिम्मेदारी सम्हाली है। कोई सत्रह वर्ष पूर्व, 1993 में, साठ वर्ष की आयु पूरी कर लेने के कारण वे सेवा निवृत्त कर दिए गए थे। आयु के सतहत्तरवें वर्ष में यह पुनर्नियुक्ति? मैं प्रसन्न अवश्य हूँ किन्तु विस्मित भी।


प्रकाशजी केवल मेरे कस्बे के ही नहीं, समूचे मालवांचल के अग्रणी और वरिष्ठ पत्रकार हैं। साक्षात्कार और मैदानी रपट (फील्ड रिपोर्टिंग) के मामले में वे अप्रतिम, अनुपम हैं। पत्रकारिता-कर्म करते हुए वे सामनेवाले के पद, प्रतिष्ठा से कभी भी आतंकित/प्रभावित नहीं होते, इस तथ्य का गवाह मैं पचासों बार रहा हूँ। शालीनता और विनम्रता बरतते हुए पत्रकारिता की दृढ़ता और पत्रकारिता की अस्मिता की रक्षा कैसे की जाती है, यह मैंने उन्हीं से सीखा। वे मेरे आदर्श रहे हैं। सक्रिय पत्रकारिता के अपने समय में मैं ‘प्रकाश उपाध्याय’ बनना चाहता रहा। इस दौरान मैं उनसे ईष्र्या भी करता रहा और प्रतियोगिता भी। एक-दो प्रतियोगिता में मैं उनसे आगे निकला भी तो वह मेरी कुशलता, दक्षता और क्षमता के कारण नहीं, मात्र संयोग और स्थितियों के कारण। प्रकाशजी का ‘जलवा’ ऐसा और इतना हुआ करता था कि अपनी पत्रकार वार्ता शुरु करने के लिए मुख्यमन्त्रियों को प्रकाशजी की प्रतीक्षा करते हुए कम से कम सात बार तो मैंने देखा है। ऐसे प्रकाशजी एक बार फिर अधिक जिम्मेदारी के साथ ‘नईदुनिया’ कार्यालय में नजर आएँगे, यह जानकर मुझे सचमुच में ‘सुखद आश्चर्य’ हुआ।


पत्रकारिता की जिस पीढ़ी और संस्कार परम्परा से प्रकाशजी आते हैं, वह सब आज लगभग खारिज कर दी गई है। पहले पत्रकार अपने मुँह से कुछ नहीं कहता था। उसका काम बोलता था और लोग जानते थे कि फलाँ आदमी फलाँ अखबार का पत्रकार है। आज स्थिति एकदम उलट है। आज तो पत्रकार विभिन्न उपक्रमों और प्रतीकों के जरिए अपने होने को जनवाते हैं। पहले के पत्रकार, कलेक्टर के तीन-चार बार बुलाने पर एक बार कलेक्टर के चेम्बर में जाते थे। आज तो कलेक्टर के चेम्बर के बाहर पंक्तिबद्ध पत्रकार नजर आना सामान्य बात हो गई है। लगता है, सारी परम्पराएँ, सारे मूल्य पूरी तरह से उलट गए हैं। ऐसे में, वह कौन सी बात, वे क्या कारण हो सकते हैं कि प्रकाशजी को वापस बुलाना पड़ा? आज वे 77 वर्ष के हैं, भाग-दौड़ करने की उनकी शारीरिक क्षमता पहले के मुकाबले तो शून्य प्रायः ही होगी। विज्ञापनों के लिए खुशामद करना उनके मिजाज में पहले भी नहीं था। अब तो बिलकुल भी नहीं रहा होगा। आजकी पत्रकारिता की भाषा, शैली, प्रस्तुति सब कुछ बदल गया है। प्रकाशजी के जमाने में सम्पादकीय विभाग को प्रमुखता, प्रधानता, प्राथमिकता और भरपूर सम्मान मिलता था। आज यह सब प्रबन्धन और खास कर विज्ञापन विभाग को मिलने लगा है। पहले, अखबार का प्रबन्ध सम्पादक कोने में खड़ा टुकुर-टुकुर देखता रहता था। आज उसके लिए लाल कालीन बिछा मिलता है। पहले सम्पादक के अड़ जाने के कारण समाचार के लिए विज्ञापन कम कर दिए जाते थे। आज तो विज्ञापन ही अखबार का भगवान बन गया है। ये सारी बातें जब मैं जानता हूँ तो क्या प्रकाशजी नहीं जानते होंगे? उनसे भी पहले, क्या ‘नईदुनिया’ का प्रबन्धन यह सब नहीं जानता होगा? वहाँ तो प्रकाशजी की पीढ़ी का एक भी आदमी नहीं है। सब नई उमर के, इक्कीसवीं सदी के महत्वाकांक्षी, आक्रामक विपणन नीति वाले, ऊर्जस्वी नौजवान आ गए हैं। अखबार और पत्रकारिता को लेकर इस पीढ़ी के मूल्य, मायने एकदम अलग हैं। इतने अलग कि प्रकाशजी और ये लोग या तो मुठभेड़ की स्थिति मे आमने-सामने होंगे या एक दूसरे की ओर पीठ करके बैठे मिलेंगे। फिर भी प्रकाशजी की वापसी हुई? ‘नईदुनिया’ के प्रतियोगी अखबारों में प्रकाशजी के पुत्रों-पौत्रों की उम्र के पत्रकार काम कर रहे होंगे, यह हर कोई जानता है। फिर भी सतहत्तर वर्ष के प्रकाशजी को पूरे जिले की जिम्मेदारी दे दी गई?


मुझे लगता है, यह केवल एक व्यक्ति की वापसी नहीं है। यह कुछ और है। हमारे अखबार और पत्रकारिता आज जिस मुकाम पर आ गए हैं वहाँ प्रसार और पैसा तो मूसलाधार बरस रहा है किन्तु अखबारों और पत्रकारों के प्रति आदरणीयता, सम्मान का भाव तिरोहित होता जा रहा है। पहले ‘पत्रकार’ हुआ करते थे, आज ‘अखबारों के कर्मचारी’ नजर आते हैं। पहले ‘क्या छापा जाए’ इस पर विचार होता था और यही चिन्ता होती थी। आज ‘क्या नहीं छापा जाए’ की दृष्टि से सम्पादन होने लगा है। पत्रकारिता की धार में कमी अनुभव होने लगी है। कुछ कर गुजरने की अदम्य लालसा लिए पत्रकारिता में प्रवेश करने वाले उत्साही और महत्वाकांक्षी नौजवान को सबसे पहली समझाइश यही दी जाने लगी है कि वह पत्रकारिता करने नहीं, नौकरी करने आया है। उसे समाचार तो लाने हैं किन्तु ऐसे कि जिनसे अखबार पर कोई जोखिम नहीं आए। पहले, जनहित के लिए अखबार मानो मुठभेड़ के लिए, व्यवस्था से टकराने के लिए सन्नद्ध रहते थे। आज समन्वय के लिए सन्नद्ध रहते नजर आते हैं। आपातकाल में सबसे पहले गिरतार होकर, जार्ज फर्नाण्डिस के साथ जेल जानेवाले, अखिल भारतीय श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष श्री के। विक्रमराव का सुनिश्चित और जग जाहिर मत है कि ‘पत्रकार सदैव प्रतिपक्ष में रहता है।’ राव साहब का यह मत अब उन्हीं तक सिमट कर गया लगता है। पहले अखबार को जन संघर्ष का धारदार, प्रभावी और परिणामदायी औजार माना जाता था। आज के अखबार ‘उत्पाद’ (प्रॉडक्ट) की तरह नजर आते हैं।


इन्हीं और ऐसी ही बातों के कारण आज अखबारों के प्रति लोगों के मन से आदरभाव तिरोहित होता जा रहा है, अखबारों से अपेक्षा करना लोगों ने कम कर दिया है। अखबारों और पत्रकारों की ‘प्रबुद्ध छवि’ लुप्तप्रायः हो गई है। लोग अखबारों से यदि नाउम्मीद नहीं हुए हैं तो उन्होंने उम्मीद करना भी छोड़ दिया है। अखबारों में आज समाचार कम और शीर्षक अधिक नजर आते हैं। ‘विचार’ तो मानो विस्थापित ही कर दिया गया है। राष्ट्रीय स्तर का एक भी अखबार हमें देखने-पढ़ने को नहीं मिलता। उच्च तकनीक ने सारे अखबारों को स्थानीय बना दिया है। इतना स्थानीय कि अपने कस्बे से पचास किलोमीटर दूरवाले कस्बे के समाचार भी देखने-पढ़ने को नहीं मिलते। अखबार छप रहे हैं, प्रसार संख्या बढ़ गई है, विज्ञापनों की बरसात हो रही है किन्तु ‘मजा’ किसी को नहीं आ रहा है, सन्तोष किसी को नहीं हो रहा है - न तो छापनेवाले को और न ही पढ़नेवाले को।


ऐसे में, प्रकाशजी की वापसी को मैं केवल एक व्यक्ति की वापसी नहीं मानता। मुझे लगता है, यह अखबारों में ‘विचार की वापसी’ की शुरुआत है, अखबारों और पत्रकारों की प्रबुद्ध छवि बनाने की शुरुआत है, समूची पत्रकारिता और अखबार नामकी संस्था के सम्मान और आदरणीयता की पुनस्र्थापना की शुरुआत है।


प्रकाशजी की इस पुनर्नियुक्ति की खबर मिलने के पहले ही क्षण मुझे मालवा की एक लोक कथा याद आ गई और मैं अकेले में ही हँस पड़ा। लोक कथा कुछ इस प्रकार है - एक विवाह सम्बन्ध तय हुआ तो वधू पक्ष ने शर्त रखी कि वर पक्ष बारात में किसी बूढ़े को नहीं लाएगा। वर पक्ष ने बात तो मान ली किन्तु जिज्ञासा बराबर बनी रही। इसी जिज्ञासा के अधीन, एक बूढ़े को, बक्से में बन्द कर बारात के सामान में शामिल कर लिया गया। बारात तोरण पर पहुँची तो बारात में एक भी बूढ़े को न देखकर वधू पक्ष परम प्रसन्न हुआ। किन्तु तोरण मारने के लिए वर ने जैसे ही तलवार उठाई, वधू पक्ष के एक बूढ़े ने कहा - ‘पहले नदी को घी से लबालब भरें, फिर तोरण मारें और वधू को ब्याह ले जाएँ।’ पूरी बारात में सन्नाटा छा गया। यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था। कहाँ तो वधू लेकर लौटने की उमंग उछालें मार रही थीं और कहाँ तोरण मारने में ही बाधा आ गई।


वधू पक्ष अड़ गया। किसी को कुछ भी सूझ नहीं पड़ रही थी। तभी एक बाराती को बक्से में बन्द बूढ़ा याद आया। वह भागा-भाग जनवासे गया और बक्सा खोल कर बूढ़े को समस्या बताई। सुनकर बूढ़ा हँसा और बोला - ‘लड़कीवालों से कहो कि वे नदी खुदवा दें ताकि उसे हम घी से लबालब भर सकें।’ बाराती उल्टे पाँवों वधू के दरवाजे पहुँचा और नदी खुदवाने की बात कही। सुनकर, शर्त रखनेवाला वधू पक्ष का बूढ़ा तत्काल बोला - ‘आपने शर्त तोड़ी है। आप बारात में बूढ़ा लेकर आए हैं।’ वर पक्ष ने सहमति में सर हिलाया। वधू पक्ष का बूढ़ा ठठा कर हँसा और बोला - ‘जिन्हें लाए हैं, उन्हें ससम्मान यहाँ लाएँ। वे तो हमारे सिरमौर हैं। वे न होते तो हमारी बेटी आज कुँवारी रह जाती।’


इस लोक कथा के आलोक में प्रकाशजी की वापसी पर सोचें। यहाँ प्रकाशजी तो केवल एक नाम हैं, एक निमित्त हैं। उम्मीद करें कि पत्रकारिता और अखबार-संस्थान् की विश्वसनीयता, बौद्धिकता, आदरणीयता, सम्मान की पुनर्स्‍थापना की कोशिशों के तहत, ऐसे अनेक प्रकाशजी एक बार फिर हमें अपने आसपास नजर आएँ।

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देश? क्या होता है देश?


दन्तेवाड़ा में हुए नक्सली हमले के बाद एक बार फिर राष्ट्र भक्ति का ज्वार आ गया है। हर कोई सरकार को कोस रहा है, सरकार की असफलताएँ उजागर कर रहा है। शहीदों के परिजनों को आर्थिक सहायता दिए जाने का मखौल उड़ाते हुए कोई कह रहा है कि प्रधानमन्त्री और गृह मन्त्री ऐसे हमलों में मरकर दिखाएँ तो वह इतने-इतने करोड़, इन दोनों के परिजनों को दे देगा। हर कोई अपने आप को सबसे बड़ा देश प्रेमी और सबसे बड़ा देश भक्त साबित करने के लिए छटपटा रहा है।


ढोंग है यह सब। कोई सचाई नहीं है इन सारी बातों में और ऐसी सारी बातों में। बात कड़वी लगेगी किन्तु सच यह है कि हमारे खून में देश कहीं नहीं रह गया है। देश हमारी प्राथमिकताओं में कहीं नहीं है। देश तो हमारे लिए ऐसा झुनझुना बन कर रह गया है जिसे हम अपनी सुविधानुसार बजा-बजा कर अपने देशप्रेमी होने का प्रमाण पत्र खुद के लिए ही जारी करते रहते हैं। हममें से हर कोई उपदेशक बना हुआ है। चाह रहा है कि बाकी लोग देश के लिए कुछ करें या फिर पूछ रहा है कि बाकी लोग देश के लिए क्या कर रहे हैं?


बात कुछ इस तरह पेश की जा रही है मानो देश के लिए मरना ही देश प्रेम या देश भक्ति का एक मात्र पैमाना बन कर रह गया है। क्या वाकई में ऐसा ही है? जी नहीं। ऐसा बिलकुल ही नहीं है। देश तो हमारे आचरण में झलकना चाहिए। इस बात पर हँसा जा सकता है किन्तु एक बार फिर कड़वी किन्तु सच बात यह है कि देश सदैव बलिदान नहीं माँगता वह तो छोटी-छोटी बातें ही हमसे माँगता है।


क्या है ये छोटी-छोटी बातें? कुछ नमूने पेश हैं - हम यातायात के नियमों का पालन करें, अपना वाहन व्यवस्थित रूप से पार्क करें, विचित्र ध्वनियोंवाले हार्न अपने वाहन में न लगाएँ, अपने अवयस्क बच्चों को वाहन न सौंपें, वयस्क बच्चों को बिना लायसेन्स वाहन न चलाने दें, अपने देय कर समय पर जमा कराएँ, सरकारी या नगर पालिका/निगम की जमीन पर अतिक्रमण न करें, जो उपदेश दूसरों को दें उस पर खुद पहले अमल करें आदि आदि।


हम लोकतन्त्र-रक्षा के भी उपदेशक बने हुए हैं। लोकतन्त्र के क्षय और हनन के प्रत्येक क्षण पर स्यापा करने में सबसे आगे रहने के लिए मरे जाते हैं। चाहते हैं कि सबसे पहला रुदन हमारा ही हो और वही सबसे पहले सुना जाए। किन्तु लोकतन्त्र की रक्षा के लिए हम करेंगे कुछ भी नहीं। अपने लोकतन्त्र को हम केवल अपना अधिकार मानते हैं। जानबूझकर (बेशर्मी से) भूल जाना चाहते हैं कि लोकतन्त्र हमारी जिम्मेदारी, हमारा कर्तव्य भी है। हमने अपने नेताओं को उच्छृंखल छोड़ दिया है। उन्होंने लोकतन्त्र को ‘गरीब की जोरु’ बना दिया है - जब चाहते हैं, उससे अश्लील हरकतें कर लेते हैं। विधायी सदनों को व्यर्थ साबित करने की उनकी प्रत्येक कुचेष्टा हमें उत्तेजित तो करती है किन्तु हम उनमें से किसी से कुछ भी नहीं कहते। कहेंगे भी नहीं। कहना चाहते ही नहीं। क्या पता, कब, किस नेता से काम पड़ जाए? इसलिए हम तमाम नेताओं को दोषी ठहराने की समझदारी बरत कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। एक की कुचेष्टा को पूरी बिरादरी की कुचेष्टा प्रमाणित कर हम खुश होकर बैठ जाते हैं। हम वो माहिर लोग हैं जो खीर बनाने के लिए मँगवाए दूध में नींबू निचोड देते हें और फिर दूध के फट जाने की शिकायत करते हैं - इसके लिए दूसरे को जिम्‍मेदार ठहराते हुए।


हम ही सरकार बनाते हैं और अपनी ही बनाई सरकार को निकम्मी, भ्रष्ट करार देने में देर नहीं करते। जिस देश के नागरिक सचेत, सतर्क, ईमानदार नहीं होंगे उस देश की सरकार भला सक्रिय और ईमानदार कैसे हो सकती है? हम सरकार को दोषी करार देते हैं किन्तु उस सरकार को बनाने की जिम्मेदारी कभी नहीं लेते। देश (के प्रान्तों) में कहीं न कहीं लगभग प्रत्येक प्रमुख राजनीतिक दल की सरकार चल रही है। किन्तु एक और कड़वा सच यह है कि किसी भी सरकार को नागरिक योगदान नहीं मिल रहा। हम सब सरकार को ऐसा कोई तीसरा पक्ष मानकर चलते हैं जिससे हमारा कोई लेना-देना नहीं, जिसके प्रति हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है।


मुझे कोई भी क्षमा न करे। मेरी धारणा है कि देश हमारे खून में कहीं नहीं है। रह ही नहीं गया है। हम तो बेशर्म, स्वार्थी समाज बन कर रह गए हैं और स्वार्थी के लिए ‘स्व-अर्थ’ ही महत्व रखता है, देश-वेश जैसी बातें तो फालतू हैं। यदि हमें मालूम हो जाए कि कल से हमारे देश पर चीन का कब्जा हो जाएगा तो कल का सूरज उगने से पहले ही हम लोग दीपक-कुंकुम सजी पूजा की थालियाँ लेकर हिमालय के पार खड़े नजर आएँगे।


देश बलिदान माँगता है, उपदेश और आशा/अपेक्षा नहीं। यह बलिदान केवल प्राणों का नहीं होता। हमारे क्षुद्र स्वार्थों का बलिदान, हमारी अनुचित हरकतों का बलिदान, उपदेशक की भूमिका में बने रहने का बलिदान, खुद की गरेबान में झाँकने की बजाय दूसरों की हरकतों की चैकीदारी करने की आदत का बलिदान।


देश बातों से नहीं, आचरण से बनता और चलता है। है हममें हिम्मत कि हम अपनी गरेबान में झाँकें और खुद को दुरुस्त करने में जुट जाएँ - यह चिन्ता किए बिना कि दूसरा क्या कर रहा है?
नहीं। हममें यह हिम्मत नहीं है। यह देश मेरा है जरूर किन्तु इसकी चिन्ता, इसकी रखवाली, इसकी देख-भाल, सब-कुछ आप करेंगे। मैं नहीं। देने के लिए मेरे पास कुछ है ही कहाँ? मैं तो दीन-हीन, बेचारा, अक्षम, असहाय, निरुपाय हूँ।


आप किस देश की बात कर रहे हैं? कौन सा देश? किसका देश? इस देश ने मुझे दिया ही क्या है? जो कुछ आज मेरे पास है, वह तो मैंने अपनी मेहनत से, अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किया है। देश की वर्तमान दुर्दशा के लिए मैं कहीं दोषी नहीं। वह तो आप सबने देश को इस मुकाम पर पहुँचा दिया है।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


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मुख्‍यमन्‍त्री : नौकरों का नौकर

‘यह दुर्भाग्य ही है कि आप लोगों को हड़ताल करनी पड़ रही है, धरना-प्रदर्शन करना पड़ रहे हैं। आज सरकार भले ही हठधर्मी कर, आपकी बात नहीं मान रही है किन्तु मुझे साफ नजर आ रहा है कि आपको यूजीसी वेतनमान मिलेगा। शिवराज सरकार सौ जूते भी खाएगी और सौ प्याज भी।’ गत वर्ष, 15 से 20 सितम्बर के बीच वाले किसी दिन, ऐसा ही कुछ कहा था मैंने, मेरे कस्बे के महाविद्यालयीन प्राध्यापक समुदाय से। वे, शासकीय कला-विज्ञान महाविद्यालय के दरवाजे के बाहर, मंच बना कर धरने पर बैठे थे। वे विश्व विद्यालय अनुदान आयोग का वेतनमान प्राप्त करने के लिए संघर्षरत थे। उनकी माँग जायज थी किन्तु सरकार उनकी बात नहीं सुन रही थी।
यह वेतनमान प्राप्त करने के लिए मध्य प्रदेश के महाविद्यालयीन प्राध्यापकगण बार-बार सरकार का दरवाजा खटखटा रहे थे और सरकार थी कि कानों में अंगुलियाँ डाले, न सुनने का नाटक करती हुई, इंकार में मुण्डी हिला रही थी।

प्राध्यापकों ने तीन अगस्त 2009 से ही अपना आन्दोलन शुरु कर दिया था। तीन अगस्त से पचीस अगस्त तक वे पढ़ाई खत्म करने के बाद इकट्ठे होते, नारेबाजी करते, वे सब, एक के बाद एक, समूह को सम्बोधित करते और फिर बिखर जाते। किन्तु विरोध प्रदर्शन के ऐसे तरीकों पर कार्रवाई करना तो दूर, उनका तो नोटिस भी नहीं लिया जाता! ‘कक्षाएँ बराबर लग रही हों, विद्यार्थियों को कोई शिकायत नहीं हो, महाविद्यालय में कोई बखेड़ा नहीं हो तो करते रहो ऐसे विरोध प्रदर्शन जिन्दगी भर! हमारे ठेंगे से।’ कुछ ऐसा ही रवैया रहा मध्य प्रदेश सरकार का।


अपनी माँग मनवाने के लिए प्राध्यापकों ने अन्ततः स्थापित और चिरपरिचित तरीका अपनाया। कानूनों की खानापूर्ति करते हुए वे शिक्षक दिवस याने 5 सितम्बर 2009 से हड़ताल पर चले गए। पढ़ाना बन्द कर दिया। भोपाल के प्राध्यापकों ने अतिरिक्त सक्रियता बरती। आठ सितम्बर को उन्होंने सड़कों पर प्रदर्शन किया तो भारतीयता, संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देनेवालोंकी सरकार ने ‘गुरु समुदाय’ की ‘सेवा-वन्दना’ लाठियों से की। ‘नारी शक्ति’ का मन्त्रोच्चार करनेवालों की सरकार ने महिला प्राध्यापकों को भी समान निर्मम भाव से पीटा।


इस घटना की तीखी प्रतिक्रिया होनी ही थी। प्राध्यापक समुदाय ने पूरे प्रदेश में जुलूस निकाले, सरकार के प्रतिनिधि कलेक्टरों को ज्ञापन दिए। कई स्थानों पर विभिन्न देवी-देवताओं के मन्दिरों की घण्टियाँ बजाईं, उनकी प्रतिमाओं को भी ज्ञापन अर्पित किए। प्राध्यापकों के धरने, प्रदर्शन, ज्ञापन मानो दिनचर्या बन गए। धरने पर बैठे प्राध्यापकों के प्रति समर्थन और सहानुभूति जताने के लिए समाज के तमाम वर्गों के लोगों का आना और माइक पर अपनी बात कहना प्रमुख घटना बनने लगा। मैं भी इसी क्रम में पहुँचा था और अपनी बात कही थी।


कहीं कोई असर होता नजर नहीं आ रहा था। आन्दोलन अखबारों का स्थायी स्तम्भ बन गया था। प्रदेश का कोई भी मन्त्री कहीं मिल जाता तो अखबार और मीडियावाले सवाल करते। उच्छृंखल और गैरजिम्मेदार मिजाज के मन्त्रियों ने प्राध्यापकों को ‘व्यापारियों की तरह व्यवहार न करें’ जैसे मूल्यवान परामर्श भी दिए। शिक्षा मन्त्री के वक्तव्य उन दिनों कभी चुटकुलों की तरह तो कभी झुंझलाए हुए विवश व्यक्ति के अस्त व्यस्त (मानों अखबारवालों से पीछा छुड़ाना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह गया हो) जुमलों की तरह पढ़ने को मिले।


जब प्राध्यापकों का धैर्य जवाब दे गया तो अपनी ‘प्रबुद्ध छवि’ को खूँटी पर टाँग कर वे 22 सितम्बर को क्रमिक भूख हड़ताल पर बैठ गए। किन्तु तीसरे ही दिन, 24 सितम्बर को उन्हें न केवल भूख हड़ताल बन्द करनी पड़ी वरन् अपना आन्दोलन फौरन बन्द कर अगले ही दिन काम पर लौटना पड़ा। प्रदेश के उच्च न्यायालय, जबलपुर में एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने प्राध्यापकों को फौरन ही काम पर लौटने का निर्देश दिया। इस जनहित याचिका पर जिस तरह से कार्रवाई हुई उससे यह भ्रम फैला मानो सरकार ने न्यायालय को ‘मेनेज’ कर लिया हो। किन्तु शुक्र है कि वास्तविकता ऐसी नहीं थी। हड़ताल टूट गई। सरकार ने प्राध्यापकों का, हड़ताल अवधि का वेतन काट लिया।


मामल कोर्ट में चला तो पेशियाँ शुरु हुईं। सरकार की पेशानी पर छलकनेवाली, पसीने की बूँदों की संख्या और उनका आयतन प्रत्येक पेशी पर बढ़ने लगा। ‘सरकार विचार कर रही है’ वाली सूचना हर पेशी पर पेश की जाने लगी। किन्तु एक तर्क से एक बार ही तो राहत मिल सकती है! सो, कानून की जितनी भी गलियों का उपयोग कर पाना सम्भव था, उन सबका उपयोग सरकार ने किया। प्राध्यापकों का कटा वेतन भी इस बीच लौटा दिया गया। किन्तु आखिरकार वह बन्द गली में घिर ही गई। न्यायालय के सामने अन्तिम जवाब देने का दिन आ ही गया। अब बचने का कोई रास्ता नहीं था। सरकार को केवल यही सूचित करना शेष रह गया था कि उसने प्राध्यापकों को यूजीसी वेतनमान दे दिया है। सो, आखिरकार सरकार ने घुटने टेक दिए और मंगलवार, 6 अप्रेल 2010 को, प्रदेश मन्त्रि मण्डल ने महाविद्यालयीन प्राध्यापकों को यूजीसी वेतनमान देने का निर्णय लेकर तदनुसार घोषणा कर दी। इतना ही नहीं, इस हड़बड़ी में सरकार ने प्राध्यापकों को वह भी दे दिया जो उन्होंने माँगा ही नहीं था। प्राध्यापकों की सेवा निवृत्ति की आयु 62 वर्ष से बढ़ाकर 65 वर्ष कर दी गई।


पूर मामले को देखें तो सरकार की हठधर्मी, मूर्खता और बेशर्मी ही सामने आती है। जब यह सब करना ही था तो पहली ही बार में क्यों नहीं कर लिया? क्यों प्राध्यापकों को हड़ताल पर जाने को विवश किया गया? क्यों उन पर लाठियाँ भाँजी गई? क्यों छात्रों की पढ़ाई का नुकसान किया गया? क्यों प्राध्‍यापकों का वेतन काटा गया? काटा गया तो लौटा क्यों दिया? यदि पहली ही बार में यह सब कर लिया होता तो न केवल सरकार अपनी भद पिटाई से बचती अपितु वह समूचे प्राध्यापक समुदाय की, उनके परिवारों की और प्राध्यापकों से सहानुभूति रखनेवाले तमाम वर्गों की सद्भावनाएँ अर्जित करती। तब, भाजपा को राजनीतिक लाभ भी होता। शिवराज सिंह चैहान की टोपी में ऐतिहासिक पंख लगता। महाविद्यालयीन प्राध्यापकों को समूचे समाज में अतिरिक्त आदर से देखा जाता है, उन्हें प्रबुद्ध माना जाता है। किन्तु सरकार यह सब चूक गई। अब उसने यह सब किया भी तो उसका श्रेय उसके खाते में जमा नहीं होगा। अब प्राध्यापक कहेंगे कि अपना यह हक उन्होंने लड़कर, लाठियाँ खाकर लिया है।


यह ऐसा पहला और अनूठा प्रकरण नहीं है जिसमें किसी सरकार ने दोहरा दण्ड भुगता हो। ऐसे बीसियों उदाहरण मिल जाएँगे। सरकारें (वे किसी भी पार्टी की हों) आखिरकार ऐसी मूर्खताएँ क्यों करती हैं? मुझे लगता है, कुर्सी पर बैठने के बाद तमाम मन्त्री अपनी प्राथमिकताएँ बदल लेते हैं। विभागीय कामों को निपटाने में उनकी दिलचस्पी शायद सबसे कम रह जाती है और वे अपने विवेक से कोई निर्णय लेने के बजाय अधिकारियों का कहा, आँख मूँदकर मानने लगते हैं। यहीं हमारा लोकतन्त्र परास्त हो जाता है। मन्त्री से अपेक्षा की जाती है कि वह अधिकारियों को हाँकेगा, उनसे जनहित के काम कराएगा। किन्तु होता इसका ठीक उल्टा है। महाविद्यालयीन प्राध्यापकों को यूजीसी वेतनमान देने का यह मामला इसका ताजा उदाहरण है। इसमें किसी भी अधिकारी का कुछ नहीं बिगड़ा जबकि शिवराज सरकार की अच्छी-खासी फजीहत हो गई। कल तक प्राध्यापकों को व्यापारी कहनेवाले मन्त्री अब क्या कहेंगे? इस मामले में तो सरकार ने प्राध्यापकों को वेतनमान देकर सौ जूते भी खाए और काटा हुआ वेतन लौटा कर सौ प्याज भी खाए। अपनी बात को इस तरह से सच होते देखकर भी मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ।


यह डॉक्टर राममनोहर लोहिया जन्म शती वर्ष है। लोकतन्त्र के प्रति वे इतने सतर्क और चिन्तित थे कि उन्होंने अपनी ही सरकार गिरा देने से पहले पल भर भी नहीं सोचा। गैर कांग्रेसवाद उन्हीं की परिकल्पना थी। कांग्रेसी मन्त्रियों की कार्यशैली पर वे कहते थे कि हमारे मन्त्री तो नौकरों के भी नौकर हो गए हैं। आईएएस अधिकारी सरकार के नौकर के होते हैं और मन्त्री आँख मूँदकर उनकी बातें मानते हैं।


मुझे अच्छा नहीं लग रहा किन्तु मैं कर भी क्या सकता हूँ? मध्य प्रदेश के मुख्य मन्त्री शिवराजसिंह चैहान, ऐसे ही, नौकरों के नौकर साबित हो गए हैं।
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बिना पतेवाला पोस्टकार्ड

जब भी कोई पत्र लेकर महेन्द्र भाई की दुकान पर जाता हूँ तो पहले तो वे और उनका बेटा नितिन खुश होते हैं और अगले ही क्षण ताज्जुब में डूब जाते हैं। महेन्द्र भाई का पूरा नाम महेन्द्र जैन (पाणोत) है और नगर के प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र में उनकी, स्टेशनरी की अच्छी-खासी दुकान है। ईश्वर की कृपा है कि वे और नितिन, दुकान पर रहते हुए कभी फुर्सत नहीं पाते। स्टेशनरी व्यवसाय के साथ ही साथ वे कूरीयर से भेजे जाने वाले पत्रों की बुकिंग भी करते हैं। मुझे देखकर वे खुश इसलिए होते हैं क्यों कि वे मुझे पसन्द करते हैं (भगवान करे मेरा यह भ्रम बना रहे) और ताज्जुब इसलिए करते हैं क्योंकि वे भली प्रकार जानते हैं कि पत्र भेजने के मामले में मैं भारत सरकार की डाक सेवाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता देता हूँ और निजी कूरीयर कम्पनियों को बिलकुल भी पसन्द नहीं करता।

डाक विभाग को मैं अपना ‘अन्नदाता विभाग’ मानता हूँ। अपने ग्राहकों को बीमा सेवाएँ उपलब्ध कराने में यह विभाग मुझे मेरी आशा/अपेक्षा से अधिक सेवाएँ उपलब्ध कराता है। किन्तु बीमा एजेन्सी का काम तो मैंने अभी उन्नीस बरस पहले ही शुरु किया है जबकि इस विभाग से मेरा जुड़ाव मेरे स्कूली दिनों से ही बना हुआ है। दादा ने सूत्र दिया था - ‘पत्राचार वह एक मात्र माध्यम है जिसके जरिए, अपने घर से निकले बिना ही सारी दुनिया से जुड़ा जा सकता है।’ किन्तु दादा ने यह सूत्र वाक्य ही नहीं दिया। उनसे मुझे पत्राचार भी संस्कार में मिला। ‘पत्र-मैत्री’ (पेन फ्रेण्डशिप) को अपना शौक बताकर मैं अपने से बेहतर लोगों के बीच आसानी से जगह बनाता रहा हूँ। सो, जब भी पत्राचार की बात होती है तो मुझे डाक विभाग के सिवाय और कुछ न तो सूझता है और न ही अच्छा लगता है। इस विभाग के प्रति, इसकी सेवाओं के प्रति और इसके कर्मचारियों के प्रति मेरे मन में अतिरिक्त प्रेम, सम्मान, आदर और सदाशयता का भाव शुरु से ही बना हुआ है।

यह कड़वा और अप्रिय सच है कि डाक सेवाओं की गुणवत्ता और विश्वसनीयता में घातक कमी आ गई है। इतनी कि खीझ और झुंझलाहट होने लगती है। आज की पीढ़ी के लिए यह सूचना ‘सफेद झूठ’ हो सकती है कि किसी जमाने में पत्र, देश के किसी भाग में, केवल तीन दिनों में ही अपने मुकाम पर पहुँच जाया करता था। आज स्थिति यह हो गई है कि स्थानीय पत्र भी पाँच-पाँच दिनों में पहुँच रहे हैं। खीझ का चरम यही है कि मुझ जैसा आदमी भी कभी-कभी कह उठता है कि अंग्रेजों की डाक व्यवस्था ही अच्छी थी।

इसके बावजूद, मैं भारतीय डाक सेवाओं का मुरीद हूँ। कोई एक पखवाड़ा पहले इस विभाग ने मुझे ‘सुखद आश्चर्य’ का ‘जोर का झटका, धीरे से’ दिया। विक्रम सम्वत् 2067 की चैत्र प्रतिपदा, 16 मार्च 2010 की डाक में मुझे आदरणीय श्रीयुत भगवानलालजी पुरोहित का, नव वर्ष अभिनन्दन एवम् शुभ-कामना पत्र मिला। त्यौहार के दिन किसी पवित्रात्मा की शुभ-कामनाएँ और आशीर्वाद मिल जाएँ तो मन पुलकित हो ही जाता है। इसी पुलक भाव मग्न हो मैंने पोस्ट कार्ड पलटा तो देखकर चकित रह गया। पोस्ट कार्ड पर मेरा पता ही नहीं था! डाक विभाग का यह कृपापूर्ण चमत्कार मुझ पर पहला नहीं था। इससे पहले, स्थानीय डाककर्मी, अनगिनत बार मुझ पर कृपा वर्षा कर चुके हैं। पते के स्थान पर केवल ‘विष्णु बैरागी, रतलाम’ लिखा होने पर तो पत्र मुझे मिलते ही रहे किन्तु पते के स्थान पर ‘बैरागी को मिले’, ‘मनासावाले बैरागी को मिले’, ‘बीमा एजेण्ट बैरागी को मिले’ जैसे जुमले लिखे पत्र भी मुझे मिलते रहे। विस्मय की बात यह कि ऐसे सारे पत्र सचमुच में मेरे लिए ही थे जबकि मेरी निजी जानकारी के अनुसार, विष्णु बैरागी नामवाले कम से सोलह व्यक्ति तथा तीन बीमा एजेण्ट रतलाम में हैं। ऐसे तमाम पत्रों को ‘अपूर्ण पता’ की टिप्पणी के साथ प्रेषक को लौटने के कानूनी अधिकार और सुविधा डाक विभाग के पास सुरक्षित है। किन्तु इस ‘अधिकार और सुविधा’ को परे धकेलकर, विभाग ने पत्र अपने मुकाम पर पहुँचाने को प्राथमिकता दी। आदरणीय श्रीयुत भगवानलालजी पुरोहित का भेजा, ताजा पत्र तो पत्र-छँटाई के समय ही अलग निकाला जा सकता था। किन्तु ऐसा न कर, वह पत्र भी मुझे तक पहुँचाया गया।

मैं यह सम्भावना लेकर चलता हूँ कि डाक विभाग के कर्मचारी निजी स्तर पर मुझे जानते-पहचानते होंगे इसलिए मुझ पर यह अतिरिक्त कृपा की गई होगी। किन्तु तनिक कल्पना कीजिए कि यदि ऐसा कोई पत्र, किसी निजी कूरीयर सेवा को मिलता तो उसकी क्या दशा होती? ऐसा पत्र अपने मुकाम तक पहुँचाना तो दूर की बात रही, उसे लौटा देने के सिवाय और कुछ सोचा ही नहीं जाता। यह इसलिए कह पा रहा हूँ कि दो-एक बार ऐसा हुआ है कि जो पत्र मैंने महेन्द्र भाई के माध्यम से कूरीयर सेवा के जरिए भेजे थे, वे न तो अपने मुकाम पर पहुँचे और न ही मुझे लौटाए गए। इसके उल्टे, उनके ऐसे पीओडी (प्रूफ ऑफ डिलीवरी) मुझे दिए गए जिन पर, जिन सज्जन को मैंने पत्र भेजे थे उनके स्थान पर पता नहीं किसके हस्ताक्षर थे। ऐसी दशा में मैं और मेरे साथ महेन्द्र भाई असहाय हो, टुकुर-टुकुर देखने और मन ही मन कुढ़ने के सिवाय और कुछ नहीं कर सके।

नहीं जानता कि निजी कूरीयर सेवा की अवधारणा देशी है या विदेशी किन्तु अच्छी तरह अनुभव करता हूँ कि उनकी कार्यशैली और ग्राहकों के प्रति व्यवहार, उनकी विदेशी प्रकृति और मानसिकता ही प्रकट करती है। लगता ही नहीं कि उन्हें ग्राहक की और उसके सरोकारों की तनिक भी चिन्ता है। इसके विपरीत, भारतीय डाक सेवाओं में अभी भी आत्मीयता की ऊष्मा और ग्राहकों की चिन्ता का भाव बना हुआ है। आप-हममें से कइयों को आज भी ऐसे पत्र मिलते होंगे जिन पर हमारा पुराना पता होता है। उस पते की बीटवाले डाकिए को जब मालूम पड़ता है कि पानेवाले का पता बदल गया है तो वह (पुराने पते पर रह रहे लोगों से और/या आसपास के लोगों से) हमारा परिवर्तित पता पूछ कर, उस नए पते की बीटवाले पोस्टमेन को वह पत्र सौंप देता है। ऐसा पत्र हमें जब-जब भी मिलता है, तब-तब हम उसे अत्यन्त सहजता से लेते हैं और डाक कर्मियों के इस अनदेखे परिश्रम और हमारे प्रति बरती गई उनकी चिन्ता के प्रति धन्यवाद देना तो दूर, उनके परिश्रम और चिन्ता की कल्पना भी नहीं करते। इसके विपरीत, डाक कर्मियों की प्रत्येक गलती और चूक को उजागर करने, उसकी आलोचना करने का और उनकी खिल्ली उड़ाने का कोई भी अवसर नहीं चूकते।

हमारा (सामान्य मनुष्य का) सामान्य स्वभाव ही है। हमारे बिना कहे यदि किसी ने (विशेषकर किसी शासकीय विभाग/कर्मचारी ने) ‘फेवर’ किया (वह भी तब, जबकि वैसा न करने की कानूनी सुविधा और अधिकार उसे प्राप्त था) तो हम उसकी अनदेखी करते हैं। ऐसी बातों की चर्चा भी नहीं करते।

बुराइयों की चर्चा आज समूचे परिदृश्य पर छाई हुई है। अखबारों में ‘दुर्जनता और दुष्कर्म’ प्रमुखता पाए हुए हैं। यह सब देख कर, पढ़कर हम निराश, हताश और अवसादग्रस्त होते हैं। सोचते हैं, कुछ अच्छा देखने को, पढ़ने को मिले। किन्तु तब हमारे आसपास कुछ अच्छा होता है तो हम ही चर्चा नहीं करते। अच्छाई किस कदर उपेक्षित है, यह इसीसे अनुमान लगाया जा सकता है कि पुरोहितजी के इस पत्र की फोटो प्रति मैंने एक अग्रणी अखबार को, सत्रह मार्च को दी तो वहाँ इसे तत्काल सराहना तो मिली किन्तु अखबार में जगह आज तक नहीं मिली। यदि हम अच्छाइयों की चर्चा करना शुरु कर दें तो

माहौल बदला जा सकता है। तब बुराइयों के लिए जगह शायद बचे ही नहीं। मैं ऐसी ही छोटी-छोटी कोशिशों में विश्वास करता हूँ।

यह ऐसी ही एक छोटी सी कोशिश है।



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