बात न बात का नाम। लेकिन बात तो बात है। भले ही बेबात की हो। निकलती है तो दूर तलक जाती है। फिर, यदि वक्त काटने के लिए वाणी विलास ही किया जाना हो और अपने कहे की कोई जिम्मेदारी माथे नहीं आती हो तो कंजूसी कौन करे? सब औढर दानी हो जाते हैं और खुलकर खेलते हैं। लेकिन बात तो बात ही होती है। बेबात की होने पर भी लग जाती है।
ऐसा ही कल हुआ। मेरी उत्तमार्द्ध शासकीय विद्यालय में अध्यापक हैं। पाँचवी कक्षा का परिणाम लेने के लिए उन्हें संकुल केन्द्र पर जाना था - घर से कोई दो/ढाई किलो मीटर दूर। लगभग जंगल में। सो, ‘साम्राज्ञी की सेवा में’ मुझे ही लगना था।
संकुल केन्द्र पहुँचे तो हाड़ाजी को बाहर बैठा पाया। वे भी ‘साम्राज्ञी की सेवा में’ थे। हमारी ‘साम्राज्ञियाँ’ अपने काम पर लग गई थीं और हम दोनों पूरी तरह से फुरसत में थे।
‘आप भी मैडम को लेकर आए हैं?’, ‘और कैसे हैं?’ ‘क्या हाल हैं?’ जैसे, अर्थ खो चुके सवालों से शुरु हुई हमारी बातें, ‘बच्चों के लिए क्या किया’ पर आकर टिक गई। मैंने कहा - ‘करने को क्या था? उनकी पढ़ाई की व्यवस्था करनी थी। सो कर दी। बड़ावाला नौकरी में लग गया है और छोटेवाला, इंजीनीयरिंग के अन्तिम सेमेस्टर में है। वह चाहेगा और कहेगा तो अगली पढ़ाई की व्यवस्थाएँ करेंगे नहीं तो नौकरी की जुगत मे भिड़ जाएगा।’
हाड़ाजी को मेरा जवाब अच्छा नहीं लगा। ‘इसमें अनोखा क्या किया? यह तो हर माँ-बाप करते हैं?‘ उन्होंने उलाहना दिया। समझ नहीं पाया कि वे क्या सुनना चाहते थे। सो सीधे-सीधे पूछा - ‘अनोखे काम से आपका मतलब?’ तनिक गम्भीर होकर हाड़ाजी बोले - ‘अनोखा याने बच्चों को सेटल करने के लिए कोई इन्तजाम-विन्तजाम किया या नहीं?’ मैंने प्रति प्रश्न किया - ‘पढ़ाई करा देने और नौकरी लग जाने का मतलब सेटल हो जाना नहीं?’ ‘यह तो रूटीन की बात है।’ तनिक विद्वत्ता भाव से कहा हाड़ाजी ने। अब मुझे सूझ पड़ी कि हाड़ाजी मुझसे कुछ जानना नहीं चाह रहे थे। वे तो अपनी कोई बात बताना चाहते थे।
उनके अहम् का सहलाते हुए मैंने कहा - ‘तो आप ही बताइए ना कि अनोखे से आपका मतलब क्या है? अपने बच्चों के लिए आपने क्या अनोखा कर दिया है?’ ‘ज्यादा कुछ नहीं, दो प्लॉट ले रखे हैं। एक प्रताप नगर में और एक सैलाना रोड़ पर। पढ़-लिख कर बच्चे आएँगे तो उन्हें सब कुछ तैयार मिलेगा।’ मेरी आँखों में सगर्व आँखें डालते हुए सूचित किया हाड़ाजी ने। मुझे मजा आ गया। अब सारी बात मेरे सामने साफ हो चुकी थी।
बात को बढ़ाने के लिए मैंने पूछा - ‘और वो जो शास्त्री नगरवाला आपका दो मंजिला मकान है जिसमें आप अभी रह रहे हैं, वो?’ ‘उसकी क्या बात करनी? वह तो अपना है ही। वहीं तो रह रहा हूँ।’ हाड़ाजी ने मुझे समझाया और मेरे पूछे बिना ही सूचित किया - ‘बीस-बाईस लाख से कम का नहीं है अभीवाला मकान। दोनों प्लॉटों की कीमत अलग।’ मैंने पूछा - ‘इस शास्त्री नगरवाले मकान के लिए आपके पिताजी ने आपकी कितनी मदद की?’ ‘एक पाई की भी नहीं। प्लॉट खरीदने से लेकर यह दो मंजिला मकान बनाने तक, एक-एक पाई मेरी अपनी मेहनत की है।’ हाड़ाजी ने एक बार फिर सगर्व कहा।
और इसके अगले ही क्षण, अकस्मात् ही बेबात की वह बात आ गई जिसके बारे में हम दोनों ने नहीं सोचा था। मेरे मुँह से निकला - ‘याने आपके पिताजी ने तो आप पर भरोसा किया लेकिन आप अपने बच्चों पर भरोसा नहीं कर पा रहे है?’
मैंने कह तो दिया किन्तु खुद ही अचकचा गया। यह बात मेरे मन में कैसे और क्यों आई। अपनी अचकचाहट से उबरता, तब तक हम दोनों के बीच गहरा मौन पसर चुका था। लगभग जंगल में बने, उस हायर सेकेण्डरी स्कूल की सीढ़ियों पर बैठे हम दोनों, एक दूसरे की ओर मानो जड़वत् देख रहे थे। लम्बे-चौड़े मैदान में सैर-सपाटा कर रही, सुबह-सुबह की नरम-नरम, गरम-गरम हवा हमारे कानों में फुसफुसाने लगी। कुछ ही क्षण यह स्थिति रही और मानो तन्द्रा से जागे हों, कुछ इस तरह हाड़ाजी बोले - ‘अरे यार! आपने तो सारी बात ही बदल दी! आपकी बात में दम है। मुझे तो अब सोचना पड़ेगा। मेरा किया-धरा सब बेकार हो गया। मैं जिस बात पर इतरा रहा था वह सब घूल-मिट्टी हो गया।’ सुन कर मेरा अपराध बोध और गहरा हो गया। यह क्या कर दिया मैंने? मैंने लज्जा-भाव से, क्षमा याचना दृष्टि से हाड़ाजी को देखा और कुछ कहता उससे पहले ही हाड़ाजी बोल पड़े - ‘नहीं, नहीं। आप परेशान मत होईए। यह बिलकुल मत सोचिए कि आपने मेरी हँसी उड़ाई है या बेइज्जती कर दी है। मैंने कहा ना? आपकी बात में दम है। आपकी बात ने तो मुझे सोचने को मजबूर कर दिया है। अब तो सब कुछ नए सिरे से सोचना पड़ेगा।’
मुझे तनिक राहत मिली। मैं हाड़ाजी को धन्यवाद के बोल बोलने ही वाला था कि दोनों ‘साम्राज्ञियाँ’ अपने-अपने कागज और झोले-झण्डे व्यवस्थित करते हुए, खिलखिलाती हुई प्रकट हो गईं। हम दोनों ने अपने-अपने वाहन सम्हाले। चारों ने परस्पर नमस्कार किया और ‘कभी फुरसत निकाल कर घर आईएगा’ जैसा रस्मी न्यौता देते हुए चलने को हुए तो हाड़ाजी ने गाड़ी रोकी और बोले - ‘यार! आपकी बात में दम है। मिलने तो नहीं लेकिन आपकी इस बात पर बात करने के लिए आज-कल में आपके पास आता हूँ।’
हम अपने-अपने घरों को लौट चले। रास्ते में, पीछे बैठी मेरी उत्तमार्द्ध ने पूछा - ‘हाड़ाजी कौन सी बात की बात कर रहे थे?’ मैंने कहा - ‘कुछ भी तो नहीं। हाड़ाजी को और उनकी बातों को तो आप जानती ही हैं। उन्हें कुछ कहना था सो कह दिया। बस।’
मेरी उत्तमार्द्ध सन्तुष्ट हो गईं। कुछ नहीं बोलीं। लेकिन मेरे साथ केवल मेरी उत्तमार्द्ध ही नहीं थीं। हाड़ाजी से हुई बात भी साथ चल रही थी।
बात भी कैसी? बेबात की बात।
आशंका और भय के अनेक रूप होते हैं। माँ-बाप होने का भय भी उसी में से एक है और भारत में बहुतायत से पाया जाता है। आश्चर्य नहीं कि बहुत से भ्रष्टाचरण की तह में भी यही भय निकले।
ReplyDeleteहम्म!! बेबात की बात...अनुराग जी से सहमत!
ReplyDeleteआदरणीय विष्णु बैरागी जी
ReplyDeleteप्रणाम !
सादर सस्नेहाभिवादन !
निकलना बात में से बात का … पढ़ कर यह सवेरा सार्थक हो गया … आशा है , पूरा दिन बढ़िया रहेगा ।
आपके पिताजी ने तो आप पर भरोसा किया लेकिन आप अपने बच्चों पर भरोसा नहीं कर पा रहे … सर्वथा बिना बात की बात नहीं है यह्।
निस्संदेह बच्चों के सुख के लिए मां-बाप में ऐसे भय आशंका होते ही हैं … विपुल धन-संपत्ति वाले मां-बाप के भय-आशंका अलग होते होंगे …
पहली बार आया हूं कदाचित आपके यहां … बहुत अच्छा अनुभव रहा ।
कुछ पुरानी प्रविष्टियों पर दृष्टिपात करके भी प्रसन्नता हुई … आभार !
शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
@Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार
ReplyDeleteमाननीय राजेन्द्रजी,
सविनय नमस्कार,
आपकी टिप्पणी ने बौरा दिया। सुबह तो मेरी अच्छी की आपने। आपके ब्लॉग 'शस्वरं' पर जाकर पाया कि आपके सामने तो मैं शून्यप्राय: हूँ। आपकी टिप्पणी मेरे प्रति न केवल आपकी उदारता है अपितु बडप्पन भी।
मुझ पर नजर बनाए रखने की कृपा कीजिएगा।
विनम्र,
विष्णु
सम्बन्धों की यही जटिलता समाज में रोचकता फैलाये रहती है।
ReplyDeleteपूत, कपूत तो क्या धन-संचय, पूत, सपूत तो क्या धन-संचय. कभी परिस्थिति पर नजरिया हावी तो कभी नजरिये के फलस्वरूप बने हालात.
ReplyDeleteबच्चो पर विशवास तो करना ही चाहिये, लेकिन उन पर आश्रित मत रहे, ओर उन्हे बार बार यह भी मत कहे कि तुम मेरे बुढापे के सहारे हो, बल्कि यह उन पर छोड दे... कल को ना बच्चो को आप से शिकायत रहे गी ना आप को बच्चो से, सिर्फ़ भय होने से कुछ नही होता,यह भय ही हमे डरपोक बना देता हे, ओर यह डर ही बच्चो को दुर ले जाता हे, अच्छे बुरे सब तरह के बच्चे मिलते हे, हम अपने मां बाप से केसे व्यावहार करते हे, यह बच्चे देख समझ रहे हे, ओर वो भी यही सब करेगे हमारे साथ.
ReplyDeleteहाडा जी सही कह रहे थे आपकी बात में दम तो है.
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