पव्वे को बोतल समझने की हिमालयी भूल

एक हुआ करते थे मनहरजी। पूरा नाम - श्री रामरिख मनहर। मूलतः राजस्थान के थे। मारवाड़ी। नहीं जानता कि राजस्थान में किस गाँव के थे। मुम्बई में बस गए थे। हिन्दी प्रेमी और हिन्दी सेवी थे। स्थापित होने की ललक लिए मुम्बई पहुँचनेवाले ‘हिन्दीवालों’ के अघोषित सहायक। कवि सम्मेलन-संचालन में निष्णात्। इतने और ऐसे कि उनका पारिश्रमिक (जिस कवि सम्मेलन का संचालन करने के लिए उन्हें बुलाया जाता था, उसमें भाग लेनेवाले) प्रमुख कवि के बराबर।

मैंने उनक संचालनवाले कुछ कवि सम्मेलन देखे-सुने। वे कवि को कुछ इस तरह प्रस्तुत करते मानो वैसा कवि अब तक न तो सामने आया है और न ही भविष्य में आ पाएगा। किन्तु मैंने प्रायः ही अनुभव किया कि इस तरह पेश किए गए अधिकांश कवि ‘गीला पटाखा’ बनकर बैठते। एक बार मैंने उनसे पूछा कि वे ऐसा क्यों करते हैं? उनका जवाब मुझे, बरसों बाद भी लगभग शब्दशः याद है - ‘भाया! मैं तो वा ने बोतल पेश करूँ। ऊ पव्वो निकल जाय तो में की करूँ?’



बाबा रामदेव को लेकर मेरी दशा भी कुछ ऐसी ही हो गई है। फर्क यही है कि मेरी इस दशा के लिए कोई मनहरजी नहीं, मैं खुद ही दोषी हूँ। मैंने ही अत्यधिक अपेक्षा कर ली थी। सो, दुःखी तो मुझे होना ही है और मुझे ही होना है। बाबा रामदेव का क्या दोष?


अण्णा हजारे के अभियान को लेकर बाबा रामदेव के व्यवहार ने मुझे हतप्रभ तो किया ही, निराश भी किया। पहले ही झटके में मुझे लगा कि भ्रष्टाचार निर्मूलन को लेकर बाबा ‘सर्व केन्द्रित’ नहीं, ‘स्व केन्द्रित’ हैं। मुझे यह भी लगा कि अण्णा की लोकप्रियता, उनके व्यापक स्वीकार्य और वांछित परिणति तक पहुँचे उनके सफल अनशन ने बाबा की लकीर छोटी, बहुत-बहुत छोटी कर दी है। इतनी छोटी कि बाबा इसे क्षणांश को भी नहीं पचा पाए और पहले ही क्षण वे अण्णा के सहयोगी के बजाय उनके प्रतिद्वन्द्वी बन कर सामने आ गए। अपनी कही बात को व्याख्यायित करने के लिए वे नेताओं की तरह व्यवहार करते नजर आए। उनकी पहली ही प्रतिक्रिया ने अनुभव करा दिया कि उनका मकसद, भ्रष्टाचार निर्मूलन हो न हो, आत्म प्रचार अवश्य है। उनकी बातों से लगा कि अण्णा को जो प्रचार मिला, उस पर बाबा अपना अधिकार मान रहे थे।


जब मोह भंग होता है तो पछतावा करते आदमी को बीती बातें बिना किसी काशिश के ही याद आने लगती हैं। मुझे भी आने लगीं। मुझे याद आया कि बाबा के संगठन ‘भारत स्वाभिमान’ की शाखाएँ, गाँव-गाँव में काम कर रही हैं। बाबा ने जब भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाया था तो उनके इस संगठन की शाखाओं ने भी अपने क्षेत्राधिकार में प्रदर्शन किए थे। अब याद आ रहा है कि वे प्रदर्शन नाम मात्र की खानापूर्ति बन कर रह गए थे जिनमें शामिल लोग अंगुलियों पर गिने जा सकते थे। इसके विपरीत, अण्णा को तो अपना कोई संगठन भी नहीं है और उन्होंने तो कहीं भी प्रदर्शन के लिए किसी से आग्रह-आह्वान नहीं किया था। इसके बावजूद, पूरे देश में लोग अण्णा के पक्ष में बड़ी सुख्या में सड़कों पर आए, जुलूस निकाले, ज्ञापन दिए, मोमबत्तियाँ जलाईं। किसी ने भी न तो अण्णा से पूछा और न ही, अपनी भागीदारी के बाद अण्णा को ‘परिपालन सूचना’ (कम्प्लायंस रिपोर्ट) भेजी। हर कोई अपना-अपना काम कर, आत्म सन्तुष्ट, प्रसन्न और गर्वित अनुभव कर रहा था। फर्क साफ-साफ नजर आया। लोगों ने अनुभव किया कि अण्णा का अभियान ईमानदार और इसका लक्ष्य सचमुच में निस्वार्थ भाववाला व्यापक राष्ट्रहित और लोकहित था और इसीलिए वे स्वस्फूर्त भाव से सड़कों पर आए।


मैं आज बाबा रामदेव को लगभग खिसियानी मुद्रा में ‘हें, हें’ करते देख परेशान हूँ। काले धन और भ्रष्टाचार विरोधी अपने अभियान को निरन्तर बनाए रखने की घोषणा उन्होंने फिर की है। किन्तु मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा है। मेरे मन की मूरत ध्वस्त हो चुकी है। बाबा को लेकर लिखी मेरी दोनों पोस्टों पर कुछ अनुभवी और परिपक्व ब्लॉग बन्धुओं ने फोन पर मुझे समझाइश दी थी - बाबा से अत्यधिक अपेक्षा न करने की। उन्होंने अत्यन्त सदाशयतापूर्व कहा था कि अन्यथा व्याख्यायित किए जाने की आशंका के चलते वे मेरी उन दोनों पोस्टों पर जानबूझकर टिप्पणियाँ अंकित नहीं कर रहे हैं। उनकी बातें मुझे अब समझ पड़ रही हैं।


अण्णा के अभियान को लेकर अपनी प्रतिक्रिया का स्पष्टीकरण देने के कुछ ही दिनों बाद, अपने सन्यास दीक्षा की सोलहवीं वर्ष गाँठ समारोह में बाबा ने आशंका जताई कि कतिपय लोग उन्हें जेल में डालने की जुगत कर रहे हैं लेकिन उनके नामों का खुलासा ‘वक्त आने पर’ करेंगे। उन्होंने पहले भी कहा था कि एक मन्त्री ने उनसे दो लाख रुपयों की रिश्वत माँगी थी और पूछने पर नाम नहीं बताया था। ‘वक्त आने पर’ नाम बतानेवाली भाषा तो अवसरवादी और सुविधावादी राजनेता ही वापरते हैं। बाबा तो सन्यासी हैं? उन्हें किससे भय? किस कारण से वे ‘ठीक वक्त’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं?


मुझे तो यह जानकर भी आश्चर्य और निराशा हुई कि बाबा ‘सन्यासी’ हैं। मैं तो उन्हें ‘योग गुरु’ ही मानता रहा हूँ। किन्तु उन्होंने तो सोलह वर्ष पूर्व ही सन्यास ले लिया था! यह कैसा सन्यासी है जो कारखाने चलाता है, व्यापार करता है, जिसे सन्त समाज के लोग ‘साधु नहीं, उद्योगपति’ मानते हैं, जिसके मुकाबले अण्णा को सन्त मानते हैं, जिससे मन्त्री रिश्वत माँगते हैं, जिसे लोग जेल में डालने की जुगत करते हैं और जो अपने व्यापार के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनी खरीदता है? सन्यासी तो लंगोटी भी विवशता में रखता है। यह सन्यासी तो पंचतारा सुविधाओं से लैस नजर आता है!


रही-सही कसर, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की मध्य प्रदेश इकाई के मुख पत्र ‘लोकजतन’ ने कर दी। 1 से 15 अप्रेलवाले अंक में छपा समाचार यहाँ प्रस्तुत है। समाचार अपने आप में स्पष्ट है। मैं इस समाचार को जस का तस स्वीकार नहीं कर रहा किन्तु इसे खारिज भी नहीं कर पा रहा हूँ। बाबा ने या उनके किसी प्रवक्ता/समर्थक ने अब तक इस समाचार का खण्डन नहीं किया है। वैसे भी बिना आग के धुआँ नहीं होता। यदि यह समाचार आंशिक रूप से भी सही है तो अब बाबा को ‘योग गुरु’ कह पाना भी कठिन हो जाएगा।


मैं शायद ‘अतिवादी’ हूँ - मोहग्रस्त होने के मामले में भी और विकर्षित होने के मामले में भी। कुछ ऐसी ही स्थिति/मनःस्थिति में यह सब लिख रहा हूँ। मेरी एक मूरत भंग हो गई है और मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसा क्यों कर हुआ और अब क्या करूँ?


अपनी इस दशा के लिए मेरे सिवाय और कोई जिम्मेदार नहीं है। बाबा रामदेव तो बिलकुल ही नहीं। गलती मेरी ही थी। सो सजा भी मुझे ही भुगतनी होगी।


बाबा रामदेव मुझे क्षमा करें। उनके तमाम समर्थक भी मुझे क्षमा करें। मैंने पव्वे को बोतल समझने की हिमालयी भूल कर दी।

6 comments:

  1. हम यदि व्यक्ति में भगवान ढूंढते हैं और कर्म से पहले चमत्कार तो निराशा अवश्यम्भावी है।

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  2. अण्णा हजारे के आन्दोलन का खर्च किसने उठाया?

    हजारे के इस अभियान पर तीस लाख रुपये खर्च हुये जिसमें से 25 लाख कांग्रेसी केन्द्रीय मंत्री नवीन जिन्दल द्वारा दिये गये.

    http://indiaagainstcorruption.org/docs/IAC%20Account%20for%20website.xls

    शान्तिभूषण और प्रशान्त भूषण कैसे हैं?
    इन दोनों बाप बेटों ने इलाहाबाद में 7818 मीटर 20 करोड़ से अधिक की सम्पत्ति सिर्फ 1 लाख रुपये में खरीदी है.

    http://visfot.com/home/index.php/permalink/4028.html

    http://visfot.com/home/index.php/permalink/4044.html

    हजारे का अनशन बाबा रामदेव और किरणबेदी को ठिकाने लगाने की चाल थी.

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  3. न मैं रामदेव जी का अनुयायी हूं न भक्त और मेरा यह निश्चित विचार है कि योग और राजनीति दो अलग रास्ते है... एक में शरीर और चरित्र के निर्माण की बात होती है और दूसरे में चरित्र पर कीचड़ उछालने की। कोई दो नावों में पर रखे तो यही हश्र होना है... उनकी छवि भी बिगड़नी है॥

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  4. जय रामदेव! इनकी दुकान की शर्करा बहुत बढ़िया है - ४२ रुपये किलो। हमने तो चीनी की बजाय वही इस्तेमाल करनी शुरू कर दी है।
    भगवान करें इनकी दुकान चले!

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