पहले तो मुझे इस बात पर दुःख हुआ कि मेरा अच्छा-भला बीमा किसी और ने ले लिया। फिर ‘उन’ पर गुस्सा आया कि किसी दूसरे बीमा एजेण्ट को अपना नया बीमा देते समय ‘उन्हें’, दो वर्षों से निरन्तर दी जा रही मेरी, ग्राहक सेवाओं की और अपना नया बीमा मुझे देने के मेरे निरन्तर आग्रह की याद पल भर को भी नहीं आई। बहुत देर तक मन व्यथित-व्याकुल बना रहा। लेकिन उद्विग्नता तनिक कम हुई तो उनकी बातें, उनके स्वरों में घुली शर्मिन्दगी, याचना याद आने लगी और इसी के साथ शुरु हुआ विचारों का झंझावात। उसी में उलझा हुआ हूँ। इस बार आपसे समझना चाहता हूँ इस घटना के निहितार्थ। सहायता कीजिएगा।
वे मेरे पॉलिसीधारक हैं। दो वर्ष पूर्व, राज्य लोक सेवा आयोग से सीधे चयनित, जिला स्तर के अधिकारी। विभाग ऐसा कि न चाहो, न माँगो तो भी लोग रिश्वत दें। नौकरी में आने के पहले ही वर्ष में, अपना आय-कर नियोजित करने के लिए उन्होंने मुझसे बीमा लिया था। अपने न्यूनतम उत्तरदायित्व निर्वहन की अनिवार्यता के अधीन और अपनी आदत के अनुसार मैं उन्हें, अपनी समझ के अनुसार ‘विक्रयोपारान्त उत्कृष्ट ग्राहक सेवाएँ’ उपलब्ध करा रहा हूँ। मुझसे बीमा लेने के बाद से अब तक उन्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं हुई है, यह जानकारी मुझे दूसरों से मिलती रही है।
इन दो वर्षों में, उनकी आय में ही नहीं, उनकी पारिवारिक स्थिति में भी परिवर्तन आया है। उनका विवाह हो गया और ईश्वर ने उन्हें एक बेटी भी दे दी। सो मैं उनसे नया बीमा लेने के लिए निरन्तर आग्रह करता रहा। वे हर बार विचार करने की और ‘बेफिकर रहिए। अब आपके सिवाय किसी और से बीमा लेने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता’ जैसे उत्तर देते रहे।
लेकिन दो दिन पहले उनका फोन आया तो मैं हतप्रभ रह गया। उन्होंने कहा - ‘बैरागीजी! मेरे रीडर ने मुझे चार पॉलिसियाँ टिका दी हैं। आप बताइए कि वे पॉलिसियाँ ठीक हैं या नहीं। उन पॉलिसियों को जारी रखने में मेरी कोई रुचि नहीं है।’ अत्यधिक कठिनाई से अपने क्रोध को नियन्त्रित कर मैंने कहा - ‘टिका दीं मतलब? अधिकारी कौन है - आप या आपका रीडर? और जब आपने पॉलिसियाँ ले ही ली हैं तो मुझसे पूछने का क्या मतलब है? मैं आपसे लगातार आग्रह कर रहा हूँ लेकिन आपने मुझे तो उपकृत नहीं किया। अब, जिससे पॉलिसियाँ ली हैं, उसी से उनके बारे में पूछिए? जिस गाय को आपने बाँटा खिलाया है, उसी का दूध निकालिए। मेरी पॉलिसी के बारे में कोई जानकारी चाहिए तो बताइए। मैं आपकी सेवा में प्रस्तुत हूँ।’ मेरा स्वर संयत भले ही रहा होगा किन्तु मेरा गुस्सा छिपाए नहीं छिप रहा था। वे घिघियाकर बोले - ‘आपकी बात सौ टका सही है। मैं आपका अपराधी हूँ। किन्तु समझने की कोशिश कीजिए। वह मेरा रीडर है और मैं उसे मना नहीं कर पाया। प्लीज! मेरी मदद कीजिए।’ मुझे उनकी बात बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी। मैंने कहा - ‘इस समय मुझे आप पर बहुत गुस्सा आ रहा है। बाद में बात करूँगा।’ और मैंने अपना फोन बन्द कर दिया।
दो दिन हो गए हैं। मैंने उन्हें फोन नहीं किया है। उन्हें फोन भी करूँगा, उनसे पॉलिसियों के नम्बर लेकर उन्हें सारी जानकारी भी दे दूँगा। मेरी आदत है कि किसी का बीमा लेने के लिए मैं मेरी कम्पनी की किसी भी पॉलिसी की और किसी भी एजेण्ट की बुराई नहीं करता। वे अपनी नई पॉलिसियों को चलाएँ या नहीं, यह निर्णय उन्हें ही करना पड़ेगा। लेकिन विचारों का प्रवाह थम नहीं रहा।
वह क्या कारण हो सकता है कि कोई नियन्ता अधिकारी अपने अधीनस्थ का लिहाज पालने को इस सीमा तक विवश हो जाए कि उस कर्मचारी की अनुचित बात से इंकार न कर पाए? संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों से चयनित अधिकारियों को प्रशासकीय क्षेत्रों में सामान्य से अधिक साहसी, क्षमतावान, कुशल, चतुर माना जाता है। ऐसे अधिकारी खुद भी अपनी इस स्थिति पर इतराते और अतिरिक्त रूप से गर्वित होते हैं और अपनी इस ‘विशेषता’ को जताने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। पदोन्नतियाँ पाकर, अपने पद-स्तर तक पहुँचे अन्य समकक्ष अधिकारियों को हेय भाव से देखते हैं। इसी कारण, भा. प्र. से. (आई. ए. एस.) और भा. पु. से. (आई. पी. एस.) में ‘डायरेक्ट’ और ‘प्रमोटी’ का अघोषित वर्ग-भेद सतह से ऊपर साफ-साफ देखा जाता है। जन सामान्य में भी यह भावना घर की हुई है कि ‘डायरेक्ट’ अधिकारी अतिरिक्त रूप से साहसी होते हैं - इतने कि नेताओं के लिए समस्या बन जाते हैं।
ऐसे में क्या कारण हो सकता है कि ऐसे ‘डायरेक्ट’ अधिकारी अपने अधीनस्थों की अनुचित बात मानने को विवश हो जाएँ, उनका विरोध न कर पाएँ, उनसे असहमत होने में ही असहाय हो जाएँ। दो ही बातें हो सकती हैं। या तो उनमें प्रशासकीय क्षमता नहीं होती, कानूनों-नियमों-प्रक्रिया की जानकारी नहीं होती और इसी कारण अपने कार्य निष्पादन के लिए वे अपने अधीनस्थों की कृपा पर निर्भर हो जाते होंगे। या फिर ऐसे कर्मचारी इनकी रिश्वतखोरी के ‘बिचौलिए’ बन जाते होंगे। तीसरा तो कोई कारण अनुभव नहीं होता। ये दोनों ही बातें केवल इन अधिकारियों के लिए ही नहीं, समूचे लोकतन्त्र और समूचे प्रशासकीय तन्त्र के लिए भी घातक हैं।
जो अधिकारी अपने ही अधिकारों की रक्षा न कर सके वह भला हम सबकी रक्षा कैसे करेगा? कैसे हम सबको न्याय दे-दिला पाएगा?
इसी झंझावात से घिरा हुआ हूँ। उबरने के लिए आपकी सहायता चाहिए। मैं आपके मन्तव्य की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
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आपकी पोस्ट और हरेक पोस्ट के नीचे प्रगट होने वाला यह अंश ''अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान'' मेल नहीं खा रहा है, हमारा ध्यान तो यहीं अटक गया है.
ReplyDeleteइतना अतिरिक्त साहस तो हर एक में होना चाहिये कि मना कर सकें किसी को।
ReplyDelete@राहुल सिंह
ReplyDeleteयह तो आपकी कृपा है कि आपने मेरी 'सामान्य समझ' पर भरोसा कर लिया किन्तु सच मानें और क्षमा करें, बात मेरे सर से ऊपर निकल गई। प्रभाव यह हुआ है कि उल्लेखित अंश को, भविष्य की समस्त पोस्टों से, स्थायी रूप से हटा रहा हूँ।
ye hai baburaj
ReplyDeleteजाने कौन सी नस दबी होती है या कोई हीन भावना हो..
ReplyDeleteसंघ और राज्य लोक सेवा आयोगों से चयनित अधिकारियों को प्रशासकीय क्षेत्रों में सामान्य से अधिक साहसी, क्षमतावान, कुशल, चतुर माना जाता है
ReplyDeleteकाश ऐसा होता, तब हमारा देश भी न जाने कहाँ से कहाँ पहुंचा होता।
अफसोस!
जो अधिकारी अपने ही अधिकारों की रक्षा न कर सके वह भला हम सबकी रक्षा कैसे करेगा? कैसे हम सबको न्याय दे-दिला पाएगा?
हत्यारे सान्सद बन रहे हैं, मण्डलाधिकारी अपने ही प्रशासित नगर में ज़िन्दा जलाये जा रहे हैं और आप फिर भी यह प्रश्न पूछ रहे हैं। देश की बर्बादी के लिये अगर कोई एक अकेला वर्ग सर्वाधिक ज़िम्मेदार है तो वे आइऎऐस/आईपीऐस/पीसीऐस जिनके जिम्मे हमने प्रशासन छोडा हुआ है। क्योंकि जिस दिन देश में प्रशासन जागेगा उस दिन रिश्वत से लेकर आतंकवाद तक किसी भी अपराध का बहाना नहीं रहे।