दिवंगत के लिए सौभाग्य की तलाश

यह बात मैं सम्भवतः पहले भी कह चुका हूँ।


ये तीनों ही विज्ञापन, 25 अप्रेल को क्रमशः नईदुनिया, पत्रिका और दैनिक भास्कर के, ‘निजी’ स्तम्भ में छपे हैं। एक महिला के उठावने की सूचना है तीनों में। तीनों ही विज्ञापन हैं और शब्दशः समान हैं। यूँ तो यह रोजमर्रा की तरह सामान्य विज्ञापन ही है किन्तु इसमें खास बात यह है कि दिवंगत महिला के पति की ओर से दिए गए इस विज्ञापन में महिला के नाम से पहले ‘सौ. कां.’ लिखा गया है।

उठावने के दिन का निर्धारण सामान्यतः दाह संस्कार के तत्काल बाद ही कर लिया जाता है और (यदि मैं अपने कस्बे के चलन को आधार बनाऊँ तो) उसकी घोषणा भी, श्मशान में ही कर दी जाती है। अखबारों में विज्ञापन देने का काम बाद में, दूसरे लोग ही करते हैं।जाहिर है कि यह विज्ञापन दिवंगत महिला के पति ने नहीं लिखा होगा। किसी हितचिन्तक ने, सम्पूर्ण सदाशयता से ही लिखा होगा और ‘सबसे अलग’ या ऐसी ही किसी मनोग्रन्थि के अधीन, अपनी सम्पूर्ण सदाशयता और सद्भावना से, सुन्दर, अलंकारिक शब्दावली प्रयुक्त करने के तहत ही ‘सौ. कां.’ लिख दिया होगा।



विवाहित महिलाओं के लिए स्थिति-अनुसार ‘सौभाग्यवती’ अथवा ‘अखण्ड सौभाग्यवती’ या इसका संक्षिप्तरूप ‘अ. सौ.’ प्रयुक्त किया जाता है। ‘सौ. कां.’ अर्थात् ‘सौभाग्य कांक्षिणी’ अविवाहिता युवतियों/किशोरियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है वह भी विशेषतः वैवाहिक निमन्त्रण-पत्रों में ही। किन्तु लगता है कि शब्द अपने अर्थ खोते जा रहे हैं या ‘लोक कुम्हार’ अपने चाक पर शब्दों के अर्थ ही बदल रहा है। लेकिन इससे अधिक सच बात तो यह है कि हम शब्दों से दूर होते जा रहे है और इसीके चलते उनके प्रति असावधान भी- उनका ‘अनर्थ’ कर देने की सीमा तक असावधान। यह विज्ञापन उसी का नमूना है। मुझे मिले वैवाहिक आयोजनों के दो निमन्त्रण पत्रों में से एक में वर की माता के नाम के आगे और दूसरे में वधू की माता के नाम के आगे ‘सौ. कां.’ छापा गया था। ये निमन्त्रण पत्र मैंने महीनों तक सम्हाल कर रखे थे और मिलनेवालों को बार-बार दिखाए भी थे।



यह ठीक है कि लिखनेवाले ने उत्साह के अतिरेक में ‘अनर्थ’ कर दिया हो। किन्तु अखबारों मे बैठे लोग क्या कर रहे हैं? तीनों में से एक भी अखबार में इस ‘अनर्थ’ की ओर ध्यान न देने का ‘अद्भुत समान व्यवहार’ किया। तीनों अखबारों में बैठे लोगों ने विज्ञापन के शब्द गिनने में ही परिश्रम किया। शब्दों के उचित प्रयोग की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। मुमकिन है कि ‘हम विज्ञापन की भाषा में फेरबदल नहीं करते’ जैसा आदर्श अपनाया गया हो। यदि ऐसा है भी तो यह अस्वीकार्य तर्क के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।



अखबारों की यह न्यूनतम जिम्मेदारी बनती है कि वे ऐसे ‘अनर्थ’ न होने दें। यह केवल विज्ञापन शुल्क का मामला नहीं है। भाषा का गम्भीर मामला है। ये सारे अखबार हिन्दी में निकलते हैं, हिन्दी से पहचान, प्रतिष्ठा, हैसियत, रोटी और धाक कमाते हैं और हिन्दी-सेवा का दर्प भरा गुमान करते हैं। किन्तु हिन्दी के प्रति इनका रवैया और इसके सम्मान के प्रति इनकी चिन्ता की वास्तविकता इस विज्ञापन से अनुभव की जा सकती है।



अपनी मातृभाषा के प्रति ऐसी असावधानी को क्या कहा जाए?

5 comments:

  1. कम से कम अखबारों को सावधान रहना चाहिये.

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  2. ऐसी असावधानी से बचना चाहिये।

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  3. इसी प्रकार मृत व्यक्ति के लिए चि. (चिरंजीव) शब्द देखा है. दरअसल कई शब्द अपने असली अर्थ खो कर किसी और अर्थ में रूढ़ हो जाते है सौ. का. विवाहिता स्त्री के लिए और चि. कम उम्र के व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होने लगा है. ज्यादातर लोग शब्दों पर ध्यान नहीं देते है. बस प्रयोग करते रहते है.

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  4. वैसे तो शायद मृतक के लिए श्री यानि ''स्‍व. श्री ...'' लिखा जाना भी उपयुक्‍त नहीं, लेकिन यहां व्‍याकरण पर भावना हावी होती है.

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  5. सच मे हमे इन बातो पर ध्यान देना चाहिये, धन्यवाद

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