अफसरशाही के सामने नतमस्तक संसद की सर्वोच्चता

यह कोई आठ-दस बरस पहले की बात है।

जनहित में काम कर रही एक संस्था के कुछ लोग मेरे पास आए और चाहा कि मैं उनके साथ कलेक्टर के पास चलूँ। उन्होंने बताया कि संस्था की गतिविधियाँ संचालित करने के लिए उन्हें सरकार से कुछ जमीन मिली हुई है। उसका नामान्तरण- प्रकरण, लगभग आठ-नौ माह से लम्बित पड़ा था। नामान्तरण हेतु सारी प्रक्रियाएँ पूरी हो चुकी थीं। सार्वजनिक सूचना प्रकाशित/प्रसारित की जा चुकी थी। कोई आपत्ति नहीं आई थी और न ही कोई विवाद था। पटवारी से लेकर तहसीलदार तक, सबने अनुकूल अनुशंसा कर रखी थी। फिर भी नामान्तरण नहीं हो रहा था। नामान्तरण हो तो निर्माण शुरु हो। मैंने कहा कि मैं न तो उन्हें जानता हूँ और न ही मुझे उनकी संस्था और उसकी गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी है। कलेक्टर से भी मेरी जान-पहचान नहीं है। उन्होंने संस्था की और उसकी गतिविधियों की संक्षिप्त जानकारी दी। मैंने फिर अरुचि दिखाई और कहा कि मैं तो इस मामले में कुछ बोल भी नहीं पाऊँगा। उन्होंने बड़ी विचित्र बात कही। बोले - ‘आप एक शब्द भी मत बोलिएगा। हमारे साथ चुपचाप बैठे रहिएगा। आप हमारे साथ हैं, इसी से हमारा काम हो जाएगा।’ मुझे अजीब लगा लेकिन जिज्ञासा भी पैदा हो गई। उनके साथ चला गया।

कलेक्टर साहब ने फौरन ही हम लोगों को मिलने के लिए बुला लिया। संस्थावाले उनसे पहले भी मिल चुके थे। मैंने अपना परिचय दिया तो प्रसन्नता जताते हुए बोले - ‘हाँ, हाँ। आपका नाम सुना है। मिलना पहली बार हो रहा है।’ संस्थावाले कुछ कहते उससे पहले ही कलेक्टर साहब को सन्दर्भ याद आ गया। पूछा - ‘अरे! आप लोग अब क्यों आए?’ उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि नामान्तरण प्रकरण अभी भी लम्बित है। फौरन फाइल बुलवाई। कागज पलटे और फाइल बन्द करते हुए बोले - ‘आप जाईए। न तो कोई आपत्ति है और न ही कोई विवाद। आपका काम समझ लीजिए, हो गया।’ संस्थावालों ने याद दिलाया कि यही बात वे दो-ढाई महीने पहले भी कह चुके हैं।

अब मुझसे चुप नहीं रहा गया। पूछ बैठा कि यदि सब कुछ अनुकूल है तो प्रकरण लम्बित क्यों है? कलेक्टर साहब ने बताया कि नोट शीट पर दो डिप्टी कलेक्टरों के हस्ताक्षर नहीं होने से प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। जैसे ही दोनों के हस्ताक्षर हो जाएँगे, नामान्तरण हो जाएगा।

चलने के लिए हम लोग उठे लेकिन उठते-उठते मेरी हँसी चल गई। कलेक्टर साहब ने तनिक खिन्न होकर पूछा - ‘क्यों? आपको किस बात पर हँसी आ गई?’ मैंने कहा - ‘काम करने के लिए प्रक्रिया निर्धारित की गई थी। किन्तु देख रहा हूँ प्रक्रिया पूरी करना ही सबसे बड़ा और सबसे जरूरी काम है।’ कलेक्टर साहब को बुरा लग गया। तनिक आवेश में कहा - ‘बैठिए। आप सब लोग बैठ जाईए।’ हम सब बैठ गए। कलेक्टर साहब ने गुस्से में ही फाइल खोली और नामान्तरण के आदेश देकर हस्ताक्षर कर दिए। भृत्य को बुलाया, फाइल उसे थमाई। भृत्य की पीठ हमारी ओर होती उससे पहले ही तहसीलदार को मोबाइल लगाया और कहा - ‘एक फाइल भिजवाई है। उसके अनुसार नामान्तरण आदेश हाथों-हाथ ही मुझे भिजवाएँ। सम्बन्धितों को मैंने रोक रखा है। नामान्तरण आदेश देकर ही उन्हें भेजना है।’

तहसीलदार को निर्देश देकर कलेक्टर साहब विजेता की तरह दर्प से मुस्कुराए और मुझसे कहा - ‘अब तो आप खुश?’ मैंने कहा - ‘अब तो मैं और दुःखी हो गया हूँ।’ कलेक्टर साहब को मानो बिच्छू का डंक लग गया। चिहुँक कर बोले - ‘क्या मतलब?’ मैंने कहा - ‘यदि यही होना था तो आठ-नौ महीने पहले ही क्यों नहीं हो गया?’ कलेक्टर साहब सकपका गए। कुछ बोल नहीं पाए। उनकी शकल पर इन्द्रधनुष के सारे रंग एक के बाद एक आ-जा रहे थे। वे न तो अपनी खिसियाहट छुपा पा रहे थे और न ही मुझसे सहमत होने को तैयार थे। एक ‘राजा’ का दर्प, ‘दो कौड़ी के’ लोगों के सामने चूर-चूर हो गया था। संस्थावालों को मजा आ गया था। मुझे लगा, मेरी अनुपस्थिति ही कलेक्टर साहब को राहत दे सकेगी। सो ‘जरूरी काम’ की दुहाई देकर, उन्हें धन्यवाद देकर और अपनी अशिष्टता की क्षमा माँग कर चला आया। बाद में संस्थावालों ने बताया कि कलेक्टर साहब की छटपटाहट तब भी कम नहीं हुई और तहसीलदार को दो बार मोबाइल पर डाँट कर ‘विद्युत गति’ से नामान्तरण आदेश मँगवा कर संस्थावालों को दिया।


इस पोस्ट के साथ चिपकाए गए, ‘दैनिक भास्कर’ का समाचार पढ़कर मुझे उपरोक्त घटना बरबस ही याद आ गई।

क्या दशा है? महिलाओं को 58 वर्ष की आयु में ही वरिष्ठ नागरिक मानने और किराए में रियायत का प्रतिशत बढ़ाने के नाम पर रेल मन्त्री और पूरी सरकार खूब तालियाँ बजवा चुकी, वाहवाही ले चुकी। संसद ने रेल बजट पारित कर दिया है। सम्भवतः राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी हो चुके होंगे। लेकिन जो लाभ महिलाओं को पहली अप्रेल से मिलना शुरु हो जाना चाहिए था, अब तक नहीं मिल पा रहा है क्योंकि रेल प्रशासन ने आदेश जारी नहीं किए हैं। संसद की सर्वोच्चता पर रेल प्रशासन का आदेश भारी पड़ गया है। संसद की सम्प्रभुता और संसद के सम्मान की चिन्ता में हलकान होनेवालों में से किसी का भी ध्यान, संसद की इस ‘साम्विधानिक अवमानना’ की ओर अब तक नहीं गया है। शायद जाएगा भी नहीं क्योंकि उन सबको इस सुविधा की न तो आवश्यकता है और न ही चिन्ता।

संसद की, सर्वोच्‍चता, सम्प्रभुता और सम्मान, अफसरशाही के जूतों तले कराह रहा है। देखने-सुनने की फुरसत किसी को नहीं है।

गरीबी रेखा से नीचे जीनेवालों का प्रतिनिधित्व जब करोड़पति/अरबपति करेंगे तो यही तो होगा?

9 comments:

  1. सच कहा....इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं....

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  2. हम नतमस्‍तक, बहुमत के लोकतंत्र के लिए.

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  3. बुर्रासाहब का रौब तो सदियों से चलता आ रहा है :(

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  4. हम कभी नही सुधर सकते...

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  5. देश की दशा दिशाहीन हो रही है।

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  6. "...एक ‘राजा’ का दर्प, ‘दो कौड़ी के’ लोगों के सामने चूर-चूर हो गया था।..."

    अब, एक बैरागी के सामने राजा का ही तो दर्प दूर होगा, और किसका होगा?
    :)

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  7. गरीबी रेखा से नीचे जीनेवालों का प्रतिनिधित्व जब करोड़पति/अरबपति करेंगे तो यही तो होगा ??

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  8. काम करने के लिए प्रक्रिया निर्धारित की गई थी। किन्तु देख रहा हूँ प्रक्रिया पूरी करना ही सबसे बड़ा और सबसे जरूरी काम है।   आपका तो मात्र एक वाक्य हि व्यवस्था की लचरता पर आघात करने के लिए काफी है।
    अभिव्यक्ति की आपकी यही विशिष्ट शैली पाठको को अभिभूत कर देती है

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