अपना घर, अपनी जिम्मेदारी

‘लीजिए! देखिए! पत्रकारिता को अब ये ही दिन देखने बाकी रह गए थे।’ निःश्वास लेते हुए, सामने से आ रहे एक ऑटो रिक्शा की ओर संकेत करते हुए कहा रमाकान्तजी शुक्ल ने। मैंने देखा, यात्रियों से लदे-फँदे आटो रिक्शा पर, रजिस्‍ट्रेशन नम्बर से ऊपर, पीली पट्टी वाले हिस्से में, अंग्रेजी में, बड़े-बड़े अक्षरों में ‘प्रेस’ लिखा हुआ था - कुछ इस तरह कि देखनेवाले की नजर सबसे पहले इस ‘प्रेस’ पर ही पड़े और वहीं टिकी रह जाए। मैंने कहा - ‘जब आपको फुरसत हो तो इस मुद्दे पर तसल्ली से बात करेंगे।’


रमाकान्तजी सेवा निवृत्त अध्यापक हैं और पत्रकारिता से उनका वंशानुगत सम्बन्ध है। सेवा निवृत्ति के बाद भी पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। वे मुझसे भी पहलेवाली पीढ़ी की पत्रकारिता से सम्बद्ध रहे हैं सो वर्तमान पत्रकारिता और इसके प्रतिमानों में आए बदलावों से भावाकुल, असहमत और व्यथित बने रहते हैं। हम दोनों ही, जनसम्पर्क विभाग के सेवा निवृत्त अधिकारी श्री बद्रीलालजी शर्मा के दाह संस्कार से लौट रहे थे। मैं वाहन चला रहा था। वे पीछे बैठे हुए थे। घर लौटते हुए, जवाहर मार्ग (न्यू रोड़) पर इस आटो रिक्शा से हमारा सामना हुआ था।


जब मैंने ‘तसल्ली से बात करेंगे’ कहा था, तभी पता था कि ऐसा नहीं हो पाएगा। प्रथमतः तो हम सब अपनी-अपनी उलझनों से ही मुक्त नहीं हो पाते और दूसरे, ऐसी बातें ‘श्मशान वैराग्य’ से अधिक नहीं होतीं। श्मशान से बाहर आए नहीं कि सब कुछ हवा हो जाता है।


लेकिन मेरे साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। इस मुद्दे पर कुछ पत्रकार मित्रों से एकाधिक बार बातें हुईं और हर बार मैंने पाया कि ‘प्रेस’ की इस दशा पर विलाप करने के लिए तो हर कोई एक पाँव पर बैठा है किन्तु ‘कुछ’ करने के लिए किसी के पास फुरसत नहीं है। शायद कुछ गलत कह रहा हूँ। फुरसत तो सबको है किन्तु इस नेक काम के लिए जोखिम उठाने का साहस किसी में नहीं है।


मेरे कस्बे सहित अन्य स्थानों के पत्रकार संगठन भी यह माँग करते रहे हैं (अभी भी कर ही रहे हैं) कि वाहनों पर ‘प्रेस’ लिखे जाने के मामले में पुलिस कड़ी कार्रवाई करे। मुझे यह माँग आज तक समझ नहीं आई। मैं एक पल के लिए भी इससे सहमत नहीं हो पाया। सारी दुनिया की समस्याएँ निपटाने का श्रेय अपने खाते में जमा करनेवाले पत्रकार इतने दयनीय, लाचार, अक्षम हो गए कि अपनी इस छोटी सी समस्या के निदान के लिए पुलिस से याचना कर रहे हैं! वह भी उस पुलिस से, जिसे वे सारी समस्याओं की जड़ बताने से नहीं चूकते और जिसके उच्छृंखल व्यवहार और अन्याय-अत्याचारों की कथाएँ छापने की होड़ में वे सबसे पहले और सबसे आगे बनने की प्रतियोगिता में लगे रहते हैं! पत्रकारों और पत्रकार संगठनों की यह माँग मुझे चौंकाती है, असहज करती है और उन दो बिल्लियों की लोक कथा याद दिला देती है जो एक रोटी के बँटवारे के लिए एक बन्‍दर की सहायता लेती हैं और बन्‍दर एक-एक कौर कर, पूरी रोटी खुद खा जाती है और बिल्लियॉं टुकुर-टुकुर देखते रह जाती हैं।


मेरे हिसाब से इसका बहुत ही सीधा और आसान हल खुद पत्रकारों के पास मौजूद है। तमाम पत्रकार किसी न किसी संगठन से जुड़े हुए हैं। पत्रकारों के ऐसे सारे संगठन, पुलिस को अपने-आने सदस्यों की सूची दे दें और पुलिस से कहें कि इन सूचीबद्ध व्यक्तियों के वाहनों के अतिरिक्त जिस भी वाहन पर ‘प्रेस’ लिखा देखे, उस पर कड़ी कार्रवाई करे। मुझ यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक भी पत्रकार और एक भी संगठन ऐसा करने को तैयार नहीं हुआ। अलग-अलग समय और स्थानें पर सबने एक ही बात कही - ‘हम बुरे क्यों बनें? पुलिस जाँच करे और कार्रवाई करे।’ यद्यपि मैं इससे सहमत नहीं किन्तु एक पल को यह बात मान भी ली जाए तो क्या खातरी कि पुलिस की जाँच से पत्रकार सहमत और सन्तुष्ट हो ही जाएँगे? यदि पुलिस की जाँच उन्हें अधूरी या पक्षपातपूर्ण लगी तो? तब पुलिस जाँच को गलत बताने के लिए आपके पास क्या प्रमाण और तर्क होंगे? क्या तब वे प्रमाण आप पुलिस को देंगे? यदि हाँ तो पहले ही क्यों नहीं दे देते? मालवी कहावत है - ‘या तो बाप का नाम बताओ या श्राद्ध करो।’ क्या यह कहावत चरितार्थ नहीं हो रही? हम न तो नाम बताएँगे, न जाँच में मदद करेंगे और न ही जाँच से सन्तुष्ट होंगे। तब, अन्ततः हम चाहते क्या हैं?


यह अपना घर सम्हालनेवाली बात है। घर अपना है तो देख-भाल, रख-रखाव, चौकीदारी, सुरक्षा, घर की बेहतरी याने सब कुछ हमारी ही जिम्मेदारी है। स्वर्ग देखने के लिए खुद को ही मरना पड़ता है। पराये पूतों से वंश नहीं चलता। अपने रेवड़ की काली भेड़े हमें ही चिह्नित कर उनसे मुक्ति पानी पड़ेगी। जब मैं यह कह रहा हूँ तो खुद को भी इसमें शरीक कर रहा हूँ और तनिक आत्म बल से शरीक कर रहा हूँ।


सब तरह के लोग सब जगह होते हैं। सो, ‘अनुचित आचरण’ करनेवाले लोग मेरे व्यवसाय में भी हैं। जब भी हम लोगों को किसी बीमा एजेण्ट के अनुचित आचरण की जानकारी मिलती है तो हम दस-पाँच लोग उसे घेरते हैं। प्रताड़ना और समझाइश से शुरु होकर सबसे पहले हम लोग उससे ग्राहक से क्षमा याचना करवा कर ग्राहक की क्षति पूर्ति कराते हैं और चेतावनी देकर तथा भविष्य में अनुचित आचरण न करने का वचन लेकर उसे छोड़ते हैं। जो अपनी आदत से बाज नहीं आते, उनके विरुद्ध कठोरतम कार्रवाई करने के लिए हम लोग खुद ही प्रबन्धन से आग्रह करते हैं। मैं जानता और मानता हूँ कि ऐसा करने से समस्या समाप्त नहीं हो जाती। वह बनी रहती है। आज एक ने सुधरने का वादा कर लिया तो कल कोई दूसरा बिगड़ैल सामने आ जाता है। बिगड़ने और सुधारने की कोशिशें करने की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। हमारे कुछ साथी इस प्रक्रिया से प्रायः ही ऊब जाते हैं। तब, बाकी साथी उन्हें ढाढस बँधाते हैं और याद दिलाते हैं कि अपने पेशे की जन छवि बनाए रखने की पहली जिम्मेदारी खुद हम ही लोगों की है। याने, एक थकता है तो बाकी उसे ताजगी देते हैं और हमारा यह क्रम बना रहता है। नहीं जानता कि कितने 'बिगडैल बीमा एजेण्‍ट' अपने वादे पर कायम रहते हैं किन्तु हमारे रोकने-टोकने का यह असर तो होता ही है कि ‘कुछ’ को प्रताड़ित होते देखकर ‘कई’ भयभीत होते हैं और लालच की राह पर बढ़ते उनके कदम निश्चय ही रुक जाते हैं। यह सब करने के लिए हमसे किसी ने नहीं कहा। हम लोग अपनी जिम्‍मेदारी मान कर, अपनी ओर से ही यह करते हैं। अपना घर सुरक्षित बनाए रखने के लिए, उसे सुधारने, सँवारने के लिए, उसकी इज्जत बचाए-बनाए रखने के लिए। यह सब करके हम खुद पर ही उपकार करते हैं। किसी और पर नहीं।


सफलता प्रयत्नों को ही मिलती हैं, प्रलाप-विलाप को नहीं। मंजिल हासिल करने लिए चलना या कि कोशिश करना पहली शर्त है।


और हाँ, बात शुरु जरूर ‘प्रेस’ से हुई थी। किन्तु आप भी मानेंगे कि यह सब पर लागू होती है - समान रूप से। -----

6 comments:

  1. सफलता प्रयत्नों को ही मिलती हैं, प्रलाप-विलाप को नहीं। मंजिल हासिल करने लिए चलना या कि कोशिश करना पहली शर्त है।
    हमारी सहमति!

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  2. सब पर लागू होता है यह।

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  3. सहज अभिव्‍यक्‍त, गंभीर विचार.

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  4. सही कहा जी
    अपने घर के रख-रखाव, देखभाल और सुरक्षा की जिम्मेदारी अपनी ही होती है।

    प्रणाम

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  5. ‘यात्रियों से लदे-फँदे आटो रिक्शा पर, रजिस्‍ट्रेशन नम्बर से ऊपर, पीली पट्टी वाले हिस्से में, अंग्रेजी में, बड़े-बड़े अक्षरों में ‘प्रेस’ लिखा हुआ था - ’

    सही तो लिखा था- प्रेस करके बैठे तो लदा-फ़दा था आटो :)

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  6. "सफलता प्रयत्नों को ही मिलती हैं, प्रलाप-विलाप को नहीं। मंजिल हासिल करने लिए चलना या कि कोशिश करना पहली शर्त है।"... बहुत बढ़िया कहा है आपने.. वाकई यह सब पर लागू होती है..

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