यहाँ दिया गया चित्र श्री महेन्द्र कुमार कुशवाह का है। ये, ‘दैनिक भास्कर’ के रतलाम संस्करण के कार्यकारी सम्पादक हैं। खुद भी ब्लॉग लिखते हैं और मेरे ब्लॉग के नियमित पाठक हैं। उन्होंने जो कुछ सुनाया वह मेरे लिए ‘आश्चर्य चतुष्पदी’ था जिसे आप बोलचाल की भाषा में ‘अचरजों का चौका’ कह सकते हैं। पहला पद - यह मेरे सोचने/लिखने/कहने से पहले ही किया जा चुका था। दूसरा पद - ‘उसने’ यह किसी के कहे बिना, स्वेच्छा से किया। तीसरा पद - कहने से पहले इसे प्रचारित नहीं किया। और चौथा पद - करने के बाद भी इसका प्रचार नहीं किया।
वाहनों पर ‘प्रेस’ लिखे जाने पर केन्द्रित मेरी पोस्ट अपना घर, अपनी जिम्मेदारी’ के प्रकाशन के चार-पाँच दिनों बाद महेन्द्रजी का फोन आया कि मेरे उक्त आलेख पर वे लम्बी टिप्पणी करनेवाले हैं। मेरी जिज्ञासा के उत्तर मे उन्होंने संक्षिप्त में जो कुछ कहा वह सुनकर मैंने कहा - ‘आप ब्लॉग पर टिप्पणी मत कीजिए। मैं आपके पास आ रहा हूँ। मुझे व्यक्तिशः पूरी बात बताईएगा। आपकी बात को मैं स्वतन्त्र लेख के रूप में देने पर विचार करूँगा।’ उनके सम्पादकीय कक्ष में कोई डेड़ घण्टे के वार्तालाप के बाद मेरे लिए अनिवार्य हो गया था कि जो कुछ सुना, उसे ‘अपना घर, अपनी जिम्मेदारी’ की तरह ही, स्वतन्त्र लेख के रूप में प्रस्तुत करूँ।
महेन्द्रजी के अनुसार, ‘दैनिक भास्कर’ के प्रबन्ध निदेशक श्री सुधीर अग्रवाल ने 8 सितम्बर 2010 को एक पत्र द्वारा, ‘दैनिक भास्कर’ के, सम्पादकीय, प्रबन्धकीय, प्रसार, विज्ञापन सहित अन्य विभागों के समस्त कर्मचारियों को निर्देशित किया कि यदि उन्होंने अपने (दुपहिया, चार पहिया सहित किसी भी प्रकार के) वाहनों पर ‘प्रेस’ अथवा ‘भास्कर’ लिखवा रखा है तो उसे 10 अक्टूबर 2010 तक अनिवार्यतः हटा लें। ऐसा न करना अनुशासनात्मक कार्रवाई का आधार बनेगा।
अपने पत्र में श्रीअग्रवाल ने कहा कि उनके अखबार से जुड़े प्रत्येक कर्मचारी को प्रबन्धन द्वारा परिचय पत्र दिया गया है, केन्द्र और/अथवा राज्य सरकार द्वारा अधिमान्यता प्राप्त पत्रकारों को तत्सम्बन्धित सरकार ने अलग से परिचय पत्र दिया है, प्रधानमन्त्री/मुख्यमन्त्री तथा ऐसे ही अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से जुड़े विशेष आयोजनों में शामिल होने के लिए वाहनों तथा पत्रकारों को अलग से विशेष पास जारी किए जाते हैं। ऐसे में वाहनों पर ‘प्रेस’ लिखे जाने को श्रीअग्रवाल ने अनुचित और अशोभनीय माना।
महेन्द्रजी के अनुसार, ‘दैनिक भास्कर’ से जुड़े लोगों के वाहनों पर 10 अक्टूबर 2010 के बाद ‘प्रेस’ अथवा ‘भास्कर’ लिखा नजर नहीं आता। मुझे विश्वास नहीं हुआ। मैंने, ‘भास्कर’ कार्यालय के बाहर रखे वाहनों को ध्यान से देखा। महेन्द्रजी की बात सच थी। केवल एक मोटर सायकिल पर ‘प्रेस’ लिखा हुआ था, शेष सारे वाहनों की नम्बर प्लेटें सामान्य थीं। ‘उस एक’ मोटर सायकिल के बारे में महेन्द्रजी ने, अपने कक्ष से बाहर निकले बिना ही कहा कि वह किसी विज्ञापन एजेन्सी से सम्बद्ध व्यक्ति की होगी जो ‘भास्कर’ प्रबन्धन के नियन्त्रण से परे है। मैंने खुद ही तलाश किया और पाया कि महेन्द्रजी की बात शब्दशः सच थी।
जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तो इस बात को आठ दिन हो चुके हैं किन्तु मुझे इस पर अब विश्वास नहीं हो पा रहा है। जिस जमाने में, एक पन्ने वाले पाक्षिक के हॉकर का भतीजा भी अपने वाहन पर ‘प्रेस’ लिखवाने से खुद को नहीं रोक पाता, उस जमाने में, देश के सर्वाधिक राज्यों से प्रकाशित हो रहे, सर्वाधिक संस्करणोंवाले अखबार का प्रबन्धन न केवल ऐसी पहल करे अपितु कठोरतापूर्वक इसे क्रियान्वित भी करे तो पहली बार तो विश्वास नहीं ही होता। पत्रकारिता के मैदान में जो जितना ‘जबरा’ होता है उसे, उससे भी अधिक ‘दबंग’ की तरह व्यवहार करते देखना हमारी आदत बन चुका है। ऐसे में, ‘दैनिक भास्कर’ का यह आचरण ‘धारा के प्रतिकूल’ तो है ही, अनुकरणीय भी है।
अपनी स्थिति के बारे में, अपने काम के बारे में यदि किसी को अपनी ओर से जताना/बताना पड़े तो स्पष्ट है कि उसे अपने आप पर, अपने काम और अपने काम के प्रभाव पर विश्वास नहीं। वस्तुतः आदमी नहीं, आदमी का काम, उसका सार्वजनिक आचरण बोलता है। काम और आचरण से उसकी न केवल पहचान बनती है अपितु उसकी सार्वजनिक छवि भी बनती है। यही कारण है अपने वाहन पर अपने पद की लाल तख्तियाँ लगाए घूम रहे अधिसंख्य ‘पदाधिकारियों’ के प्रति आदर और सम्मान भाव के स्थान पर पहले तो आतंक भाव पैदा होता है जो वितृष्णा से होता हुआ हताशा पर रुकता है। ‘सड़कछाप’ लोग ऐसे ‘लाल तख्तीधारियों’ में से अधिकांश को अपात्र ही मानते हैं और पीठ पीछे उनके लिए ऐसी शब्दावली प्रयुक्त करते हैं जिसे लिखा नहीं जा सकता। केवल बोलने तक ही सीमित रखा जा सकता है।
इस समय मुझे 1996 से 1998 के वे (लगभग) अठारह महीने याद आ रहे हैं जब मैं ‘दैनिक चेतना’ में नौकरी कर रहा था। ‘सेठ’ ने, और मेरी नौकरी का माध्यम बननेवाले निर्मलजी लुणिया ने तो कभी नहीं कहा किन्तु, ‘वृत्त’ से भरपूर दूर, ‘परिधि’ पर बैठे कुछ शुभ-चिन्तकों ने मुझे सदाशयतापूर्ण परामर्श दिया कि मैं अपनी मोटर सायकिल पर ‘दैनिक चेतना’ अथवा ‘प्रेस’ लिखवा लूँ। मैंने पहली ही बार में इंकार कर दिया। मेरी मोटर सायकिल के लिए, भारतीय जीवन बीमा निगम ने मुझे बिना ब्याज का ऋण दिया था। सो, मेरी मोटर सायकिल पर लिखा जाना था तो ‘भारतीय जीवन बीमा निगम’ या ‘एल आई सी’ लिखा जाना था। बहुत हुआ था अपना व्यापार बढ़ाने के स्वार्थवश मैं ‘बीमा एजेण्ट’ लिखवा लेता। सबकी पीठ सुनती है, मेरे पहले इंकार के बाद किसी ने अपने आग्रह की आवृत्ति नहीं की। किन्तु मैंने पाया कि कुछ ही समय में (तीन महीनों से भी कम समय में) सारा शहर जानने लगा था कि मैं ‘दैनिक चेतना’ की नौकरी में हूँ। न तो किसी ने मुझसे पूछा और न ही मैंने किसी को बताया।
तय है कि अपनी पहचान के लिए अपना आचरण और सार्वजनिक व्यवहार ही प्रथम, अन्तिम और एकमात्र उपाय है।
जानकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteआजाद ख्याल, स्वतंत्र भारत. बड़े अक्षरों में सांसद, विधायक और बारीक अक्षरों में प्रतिनिधि लिखाने वाले कम नहीं.
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी
ReplyDeleteअपना आचरण सब उपाधियों पर भारी पड़ता है।
ReplyDelete"अपनी पहचान के लिए अपना आचरण और सार्वजनिक व्यवहार ही प्रथम, अन्तिम और एकमात्र उपाय है"
ReplyDeleteआपके लेख की अतींम पक्ति पूरे लेख का सार है।