इससे कम कोई प्रायश्चित नहीं था

अब मैं तनिक सहज और सामान्य अनुभव कर रहा हूँ। आठ फरवरी वाली ‘राहुल का आभा मण्डल’ शीर्षक अपनी पोस्ट मैंने आज हटा दी है।

आदमी सारी दुनिया से नजर बचा ले, खुद से नहीं बचा सकता। मेरी उपरोक्त पोस्ट पर किन्हीं ‘एनोनीमसजी’ की आई एक टिप्पणी पर प्रतिक्रिया में मैंने जो टिप्पणी की थी, उसकी भाषा और शब्द चयन से मैं उस समय भी सन्तुष्ट और प्रसन्न नहीं था। टिप्पणी में भी मैंने स्वीकार किया था कि मैं अपने भाषा संस्कार से स्खलित हो रहा हूँ जिसका प्रायश्चित मुझे करना ही होगा।
आठ फरवरी की रात कोई नौ बजे, टिप्पणी करने के बाद से अब तक मैं बहुत ही परेशान रहा। ठीक है कि असहमति व्यक्त करने का अधिकार मुझे है। किन्तु यह अभिव्यक्ति भी शिष्ट, संयत और शालीन होनी चाहिए थी। अनुचित भाषा का उपयोग करने के लिए मैंने एनोनीमसजी की भाषा को आधार बनाने का तर्क प्रयुक्त किया था। वस्तुतः यह तर्क नहीं, कुतर्क था। मूर्खता का जवाब मूर्खता से देने की मूर्खता की थी मैंने। मुझे चाहिए था कि मैं अपने संस्कारों पर बना रहता और स्खलित हुए बिना, अपने भाषायी संस्कारानुरूप ही आचरण करता। किन्तु मैंने ऐसा नहीं किया और ईश्वर का तथा खुद का अपराधी बन गया।
अपने इस स्खलन के लिए मैं एनोनीमसजी से, ईश्वर से तथा समूचे ब्लॉग समुदाय से, अपने अन्तर्मन से क्षमा-याचना करता हूँ। जिस किसी को मेरे उस आचरण से ठेस पहुँची हो, आहत हुआ हो, वे सब, उदारता और बड़प्पन बरतते हुए मुझे क्षमा करने का उपकार करें। इससे कम कोई प्रायश्चित मुझे इस समय अनुभव नहीं हो रहा।
यह शायद आयु वार्धक्य का प्रभाव ही है कि मेरा धैर्य अपेक्षया जल्दी चुक जाता है और मैं अविलम्ब ही प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अविवेक कर देता हूँ। मैं यथा सम्भव प्रयास करूँगा कि भविष्य में ऐसा न हो।
ईश्वर मुझे शक्ति तथा आप सबकी शुभ-कामनाएँ प्रदान करे।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

बादल का रंग

नहीं। मैंने शीर्षक गलत नहीं लिखा है। ‘बादल के रंग’ तो शीर्षक है, श्रीपीरूलालजी बादल के काव्य संग्रह का। इस संग्रह के विमोचन प्रसंग पर बादलजी ने जो आपवादिक और साहसी आचरण किया, वही मेरी इस टिप्पणी का शीर्षक है।

जो लोग बादलजी को नहीं जानते उनके लिए उल्लेख है कि बादलजी मालवा के ऐसे लोक कवि हैं जिन्होंने प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में, अपनी कमियों को अपनी विशेषताओं में और अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत में बदल कर समय की छाती पर हस्ताक्षर किए हैं। उनकी रचनाओं में साहित्यिकता तलाश करनेवाले निराश होकर बादलजी को खारिज कर सकते हैं किन्तु बादलजी की रचनाओं मे रचा-बसा ‘लोक-तत्व’ तमाम समीक्षकों/आलोचकों को कूड़े के ढेर पर फेंक देता है। बादलजी के नाम से कवि सम्मेलनों में भीड़ जुटती है और बादलजी के न आने पर दरियाँ-जाजमें सूनी हो जाती हैं। चैन्नई के हिन्दी कवि सम्मेलनों में बादलजी की भागीदारी मानो अनिवार्यता बन गई है। चैन्नई के आयोजकों से बादलजी कहते हैं - ‘अब मुझे क्यों बुला रहे हैं? मेरे पास नया कुछ भी तो नहीं। सब कुछ पुराना है। आप सबका सुना हुआ।’ आयोजक निरुत्तर कर देते हैं - ‘यह तो हमारे सोच-विचार का मुद्दा है, आपका नहीं। आपको तो बस आना है और मंच पर बिराजमान हो जाना है।’ बादलजी सच ही कहते हैं कि उनकी कुछ रचनाएँ चैन्नई के कवि सम्मेलन प्रेमियों के बीच मानो राष्ट्रगीत का दर्जा पा चुकी हैं।

इन्हीं बादलजी के काव्य संग्रह ‘बादल के रंग’ के विमोचन का निमन्त्रण-पत्र देखकर मैं चकरा गया। अध्यक्षता, मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि जैसे सारे निमन्त्रितों में न तो किसी साहित्यकार का नाम था और न ही कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक जैसे किसी प्रशासकीय अधिकारी का। सारे के सारे नाम, लायंस क्लब के मण्डल (डिस्ट्रिक्ट) पदाधिकारियों के थे। निमन्त्रण देने आए बादलजी से मैंने पूछा - ‘यह सब क्या है?’ जवाब मिला - ‘योगेन्द्र सागर से पूछ लीजिए। वही जाने।’ योगेन्द्र सागर याने योगेन्द्र रूनवाल - बादलजी का परम् भक्त और पुस्तक का मुद्रक तथा प्रकाशक। उसे तलाश किया तो मालूम हुआ वह परदेस मंे है। मेरा कौतूहल, अकुलाहट में बदल गया। थोड़े हाथ-पाँव मारे तो रोचक किस्सा सामने आया।

बादलजी शिक्षक रहे हैं। एक नवागत कलेक्टर साहब बादलजी के विद्यालय वाले क्षेत्र में दौरे पर आए। स्थिति कुछ ऐसी हुई कि हर कोई बादलजी का नाम ले और कलेक्टर साहब को पूछे ही नहीं। कलेक्टर साहब को बुरा लगा सो लगा, पता नहीं किस ग्रन्थि के अधीन उन्होंने बादलजी को अपना प्रतिस्पर्द्धी मान लिया। ऐसे में कलेक्टर साहब ने वही किया जो वे तत्काल ही कर सकते थे। गिनती के दिनों में ही बादलजी का स्थानान्तर आदेश आ गया। मामले को ‘कोढ़ में खाज’ बनाते हुए कलेक्टर साहब ने मौखिक आदेश दिया - ‘बादल को अविलम्ब कार्यमुक्त किया जाए।’ स्थानान्तरण होना और कलेक्टर साहब का अतिरिक्त रुचि लेना बादलजी को समझ में नहीं आया। वे ‘साहब के दरबार’ में हाजिर हुए। कलेक्टर ने ‘कवि-फवि’ और ‘साहित्यकार-वाहित्यकार’ की औकात बताते हुए बादलजी को अनसुना ही लौटा दिया। कलेक्टर के इस व्यवहार ने बादलजी के ‘सरकारी कर्मचारी’ को क्षणांश में ही ‘कलमकार’ बना दिया। ठसके से बोले - ‘आपकी आप जानो। लेकिन देखना, तीसरे ही दिन आपका यह आदेश रद्दी की टोकरी में मिलेगा और मैं वहीं का वहीं नौकरी करता मिलूँगा।’

बादलजी कुछ करते उससे पहले ही मन्त्रालय में बैठे उनके प्रशंसकों ने अपनी ओर से फोन किया - ‘घबराइएगा नहीं और कलेक्टर कार्यमुक्त कर दे तो भी चिन्ता मत कीजिएगा। अपने घर में ही रहिएगा। स्थानान्तरण आदेश निरस्त किए जाने का पत्र निकल रहा है।’ बादलजी के मुँह से धन्यवाद भी नहीं निकल पाया। विगलित हो गए। अपनी इस पूँजी पर उन्हें गर्व हो आया। बड़ी मुश्किल से कहा - ‘चिट्ठी डाक से तो भेज ही रहे हो, पहले फेक्स कर दो।’ और चन्द मिनिटोें में ही कलेक्टर की फैक्स मशीन पर बादलजी के स्थानान्तर आदेश की निरस्ती सूचना उतर गई। तीन घण्टों मे ही तीन दिन पूरे हो गए।

उसके बाद हुआ यह कि बादलजी तो अपने शब्द-संस्कार के अनुसार चुपचाप नौकरी करते रहे लेकिन कलेक्टर ने बादलजी के विद्यालयवाले क्षेत्र में आना-जाना कम कर दिया। तभी जाते, जब जाना अपरिहार्य होता।

इसी घटना ने ‘बादल के रंग’ के विमोचन से ‘कलेक्टर-फलेक्टर’ और ‘अफसरों-वफसरों’ को अस्पृश्य बना दिया। बादलजी ने योगेन्द्र से कुछ ऐसा कहा - ‘कविता की समझ रखनेवाले, सड़क पर जा रहे किसी भी आदमी को बुला लेना, किसी समझदार चपरासी को बुला लेना लेकिन जो साहित्य का स, कविता का क और लेखन का ल भी न समझे ऐसे किसी कलेक्टर, एसपी का हाथ तो क्या, हवा भी मेरी किताब को मत लगने देना।’ और योगेन्द्र ने बादलजी का कहा शब्दशः माना। जो उसके बस में थे, उनसे विमोचन करवा लिया। बादलजी के कवि-मित्रों को इस आयोजन की सूचना जैसे-जैसे मिलती गई वैसे-वैसे ही, इस प्रसंग पर कवि सम्मेलन आयोजित होने की पीठिका स्वतः ही बनती गई। बादलजी ने कहा - ‘मैं पारिश्रमिक नहीं दे पाऊँगा।’ कवि-मित्रों ने ठहाकों में बादलजी का संकोच कपूर कर दिया।

इस तरह 22 जनवरी को बादलजी के काव्य संग्रह ‘बादल के रंग’ का विमोचन-यज्ञ, आत्मीयता भरे अच्छे-खासे जमावड़े के बीच सम्पन्न हुआ जिसमें कवि-मित्रों ने रात दो बजे तक आहुतियाँ दीं।

बादलजी का संग्रह कैसा है, इस पर मुझे कुछ भी नहीं कहना है। मुझमें कविता की सूझ-समझ जो नहीं है। किन्तु जिस समय में अच्छे-अच्छे, स्थापित रचनाकार, अफसरों से सम्पर्क बढ़ाने की जुगत भिड़ाते हों, प्रांजल शब्दावली में भटैती-चापलूसी करते हों, उनके सम्पर्कों से अपने स्वार्थ सिद्ध करते नजर आ रहे हों और जिन आयोजनों में उपस्थित होकर खुद अधिकारी सम्मानित अनुभव करते हों, ऐसे आयोजनों के निमन्त्रणों की प्रतीक्षा करते हों, ऐसे समय में जब किसी छोटे से कस्बे का औसत लोक-कवि शब्द सम्मान की रक्षा में ‘सीकरी’ को, जूते खोलने वाली जगह से भी वंचित कर दे यह अपने आप में आश्वस्त और गर्व करनेवाली घटन होती है। यही है बादलजी का वह रंग जिसे बिखेरने के लिए मैंने यह सब लिखा।

और चलते-चलते यह भी जान लें कि जिन कलेक्टर साहब ने बादलजी के साथ यह सब किया था, वे कलेक्टर साहब कुछ बरस पहले प्रदेश के भ्रष्ट आई. ए. एस. अफसर के रूप में सूचीबद्ध किए गए और और आज तक वहीं टँगे हुए हैं।
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रमेश का फोटू क्यों छपे?

यह इसी 19 जनवरी की बात है। बैंक ऑफ बड़ौदा पहुँचा तो प्रकाशजी अग्रवाल और (कल मना मेरा वास्तविक हिन्दी दिवस वाले) जयन्तीलालजी जैन को अतिरिक्त प्रसन्न पाया। मुझे देखा तो प्रकाशजी चहक कर बोले - ‘अरे! वाह!! आज तो आप हमारे लिए ही आए हैं। अब यह काम आपकी मौजूदगी में ही करेंगे।’ जयन्तीलालजी भी ‘हाँ! हाँ!! बिलकुल।’ कहते हुए प्रकाशजी की चहक में शामिल हो गए। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया।

पूछा तो प्रकाशजी ने कहा - ‘यह रमेश है। आज इसने अपना लोन पूरा चुका दिया है। हम इसे सम्मानित कर रहे हैं। अब आपकी उपस्थिति में यह काम करेंगे।’ मुझे ताज्जुब हुआ। अपना लोन चुकाना इतनी बड़ी और ऐसी बात हो गया कि बैंक अपने ऋणग्रहीता का सम्मान करे? कर्ज चुकाना अब असामान्य घटना हो गई? लेकिन प्रकाशजी ने जब पूरी बात बताई तो मानना पड़ा, यह अभूतपूर्व भले ही न हो किन्तु असामान्य और रेखांकित किए जाने योग्य तो है ही।

यहाँ चित्र में रमेश और उसकी पत्नी माँगीबाई को आप देख ही रहे हैं। रमेश ने, राज्य सरकार की एक योजना के अन्तर्गत, ठेला खरीदने के लिए 1700/- रुपयों का ऋण, 20 अप्रेल 2010 को लिया था। इसका भुगतान उसे 36 माह में करना था। याने मोटे तौर पर अधिकतम 48 रुपये प्रति माह। ब्याज की रकम अलग से जोड़ लें तो यह मासिक किश्त अधिकतम 55-60 रुपयों के आसपास ही बैठती। किन्तु रमेश ने कभी 150, कभी 300 तो कभी 500 रुपये जमा कर, अपना कर्जा 19 जनवरी को ही पूरा चुका दिया। याने कुल नौ महीनों में ही - निर्धारित अवधि से लगभग आधे समय में ही।

प्रकाशजी और जयन्तीलालजी, रमेश और माँगीबाई को शाखा प्रबन्धक के चेम्बर में ले गए। मुझे भी बुलाया। फोटोग्राफर लगन शर्मा को पहले ही बुला लिया गया था। शाखा प्रबन्धक कोठीवालजी ने रमेश को माला पहनाई। एक थर्मस भेंट किया। लगन के केमरे की फ्लश तीन-चार बार चमकी। हम सबने तालियाँ बजाईं। इस सबमें मुश्किल से पाँच मिनिट लगे होंगे।

हम सब बाहर आए। मैं रोमांचित था। लग रहा था, किसी अभूतपूर्व, ऐतिहासिक पल का साक्षी बना हूँ। मैंने रमेश से कहा - ‘तुम बहुत अच्छे आदमी हो। मुझसे अच्छे। हम सबसे अच्छे। ऐसे ही बने रहना।’ उसकी पत्नी माँगीबाई को मैंने विशेष रूप से अभिनन्दन किया। कहा - ‘तुम्हारे कारण ही रमेश इतना अच्छा काम कर पाया है। तुमने इन रुपयों को घर खर्च के लिए नहीं रोका और रमेश को कर्जा चुकाने दिया।’ रमेश और उसकी पत्नी ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया। पता नहीं, मेरी बातें दोनों तक पहुँची भी या नहीं।

वह दिन और आज का दिन। वे पाँच मिनिट मेरी यादों के बटुए में ऐसे रखे हुए हैं जैसे कोई पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व का अमूल्य सिक्का। पाँच मिनिटों का स्पर्श मुझे कुन्दन-चन्दन स्पर्श जैसा लग रहा है।

इस समय मुझे याद आ रहा है - गए दिनों मेरे प्रदेश में ख्यात व्यापारियों, उद्योगपतियों, रीयल इस्टेट के व्यवहारियों पर पड़े छापों में लगभग एक सौ करोड़ की कर चोरी पकड़ाई गई है। इनमें आईएएस जोशी दम्पति के 350 करोड़ शामिल नहीं हैं। मुझे यह भी याद आ रहा है कि अनिल अम्बानी के यहाँ भी कर चोरी पकड़ी गई थी और सरकार ने अम्बानी पर कुछ करोड़ रुपयों का जुर्माना किया था। इनमें से अधिकांश के सचित्र समाचार विस्तार से प्रकाशित हुए थे।

प्रकाशजी ने रमेश के सम्मान का सचित्र प्रेस नोट जारी करने की बात कही थी तो मैंने मना किया था। खूब अच्छी तरह जानता था, रमेश का चित्र कहीं नहीं छपेगा। प्रकाशजी नहीं माने और पछताए। केवल एक अखबार ने रमेश का समाचार छापा वह भी भर्ती के समाचारों के रूप में।

छपे भी तो क्यों और कैसे? हम पूँजी के पुजारी बन चुके हैं और अर्थशास्त्र के नियम को साकार कर रहे हैं - खोटी मुद्रा, खरी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। रमेश नहीं जानता कि वह अपने खरेपन के कारण उपेक्षित हुआ है। यदि वह भी बैंक का कर्जा नहीं चुकाता तो शायद उसका भी फोटू कभी अखबार में छपता - फिर भले ही बैंक के, बकाया कर्जदारों के विज्ञापन में छपता।

हम आत्मा के मारे लोगों के नहीं, मरी आत्माओंवाले लोगों के हीफोटू छापेंगे। रमेश का फोटू किस काम का? हम बाजार बन गए हैं और बाजार की माँग तो अम्बानियों, कलमाड़ियों, राजाओं के फोटू ही पूरी करते हैं!

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हाँ, भ्रष्ट प्रधानमन्त्री चलेगा

मँहगाई दूर करने के लिए हमारे पास कोई जादुई चिराग नहीं है - वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी का यह वक्तव्य आज अखबारों में देखा। उससे पहले कल छोटे पर्दे पर, यही सब कहते हुए उन्हें देखा भी। ऐसा कहनेवाले वे पहले केन्द्रीय मन्त्री नहीं थे। शरद पँवार पहले ही यही सब कह चुके थे - शब्दावली भले ही थोड़ी अलग थी।

प्रणव मुखर्जी जब यह कह रहे थे तो मैं बड़े ध्यान से उनकी मुख-मुद्रा देख रहा था। उनके चेहरे पर चिन्ता, उलझन, झुंझलाहट या शर्म की तो बात ही छोड़ दीजिए, झेंप जैसे किसी भाव की एक लकीर भी नजर नहीं आ रही थी। बड़ी सहजता, साहस और सम्पूर्ण आत्म विश्वास से यह सब ऐसे कह रहे थे जैसे इन बातों से उनका कोई लेना-देना ही नहीं है। कुछ इस तरह से कह रहे थे मानो किसी का सन्देश देश के लोगों को सुना रहे हों जिससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें सुनते हुए गोपियों को सन्देश देने वाले उद्धव याद आ रहे थे।

यह कैसा बदलाव है? नेता पहले भी होते थे (अपितु, पहलेवाले नेताओं में से कई नेता तो अभी भी कुर्सियों में बैठे हैं), चुनाव पहले भी होते थे, चन्दा पहले भी लिया जाता था और चन्दा देनेवालों के काम पहले भी किए ही जाते थे। लेकिन तब नेता ऐसे अनुत्तरदायी, सीनाजोर, निस्पृह, निर्लज्ज नहीं हुआ करते थे। नागरिकों की तकलीफें उन्हें असहज कर देती थीं। जिनसे चन्दा लिया करते थे, उन्हें मनमानी करने की छूट नहीं देते थे। उन्हें केवल दिखावे के लिए नहीं, सचमुच में गरियाते, धमकाते थे और जरूरी होता था तो उन पर कार्रवाई भी करते थे। चन्दा देनेवाला निश्चिन्त नहीं हो जाता था। डरता रहता था कि यदि उसने ‘अति’ की तो बख्शा नहीं जाएगा।

मैं अतीतजीवी नहीं। किन्तु आज सब कुछ एकदम उल्टा (या कि पहले जैसा सब कुछ अनुपस्थित) देख कर बीता कल अनामन्त्रित अतिथि की तरह आ बैठ रहा है। जो कल तक चन्दा देते थे, आज विधायी सदनों में बैठे हैं और अपने अनुकूल नीतियाँ बनवा रहे हैं, निर्णय करवा रहे हैं। अब वे अनुरोध नहीं करते, इच्छा-पूर्ति न होने पर निर्देश दे रहे हैं। मन्त्री उनके कारिन्दों की तरह अनुज्ञावर्ती बने हुए हैं।

मेरे पुलिसिया मित्र कहते हैं - पुलिस काम नहीं करती, पुलिस का ‘जलवा’ काम करता है। ‘जलवा’ याने वर्दी। बिना वर्दीवाला पुलिसकर्मी पिट जाता है और वर्दीवाला एक पुलिसकर्मी सैंकड़ों की भीड़ की पिटाई कर देता है। इसी तरह सरकार नहीं चलती। सरकार का जलवा चलता है। लेकिन जलवा हो तो चले! सबका पानी उतर गया है।

ऐसा क्यों न हो? पहलेवाले नेताओं मे आत्म बल और नैतिक बल होता था। उन्हें आम आदमी की तकलीफें खूब अच्छी तरह मालूम होती थीं। वे आम आदमी के बीच से जो आते थे! आज तो हमारी संसद में लगभग आधे सदस्य करोड़ोंपति और कुछ अरबपति हैं। जिन्हें छूने के लिए लू के झोंके को पसीना आ जाए, वे उन लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो बीस रुपये रोज भी बमुश्किल हासिल कर पा रहे हैं! हमारा प्रधानमन्त्री ‘निर्वाचित जन प्रतिनिधि’ नहीं है। उसे पता ही नहीं कि दिहाड़ी मजदूरी हासिल करने के लिए मजदूरों की मण्डी में कितनी मारामारी बनी हुई है। हमारा प्रधानमन्त्री राज करता हुआ नहीं, देश को ‘मेनेज’ करता हुआ दिखाई दे रहा है - किसी वेतन भोगी कर्मचारी की तरह। मैं खुद कहता रहा हूँ (और इस क्षण भी विश्वास करता हूँ) कि ईमानदारी आदमी को अतिरिक्त नैतिक बल देती है। लेकिन हमारे प्रधानमन्त्री की ईमानदारी को उनके सहयोगी मन्त्रियों ने जिस तरह अप्रभावी और निरर्थक साबित कर दिया है वह देख कर कहने को जी करता है - प्रधानमन्त्रीजी! आपकी ईमानदारी तो अब चाटने की चीज भी नहीं रह गई है। आपकी जिस ईमानदारी से, आपके सहयोगियों में भय पैदा हो जाना चाहिए था उससे तो अब आपके प्रति आदर भाव भी पैदा नहीं हो रहा।

बरसों पहले दो स्थितियों का वर्णन पढ़ा था। पहली - मेरा राजा ईमानदार, चरित्रवान, कर्मठ, सादा जीवन जीनेवाला, दयालु और निष्पक्ष है। किन्तु मेरे देश के लोग बेहद गरीब हैं, भ्रष्टाचार, गरीबी, मँहगाई, अन्याय, सरकारी अत्याचारों से बेहाल हैं। दूसरी स्थिति - मेरा राजा बेहद भ्रष्ट, बेईमान, चरित्रहीन, विलासी, लम्पट, धूर्त और खर्चीली जिन्दगी जीता है। किन्तु मेरे देश में गरीबी नहीं है, लोग भूखे नहीं सोते, रोटी-कपड़ा-मकान की समस्या नहीं है, लोग चैन की नींद सोते हैं, चारों ओर अमन-चैन है।

अब तो यही कहने को बचा है कि माननीय प्रधानमन्त्रीजी! आपकी व्यक्तिगत ईमानदारी का वांच्छित प्रभाव कहीं नहीं हो रहा है और उसका कोई राष्ट्रानुकूल परिणाम तो मिल ही नहीं रहा है। आपकी ईमानदारी देश पर भारी पड़ रही है।

हमें परिणामदायी प्रधानमन्त्री चाहिए। आपकी ईमानदारी यदि जनहितैषी अपेक्षित परिणाम देने में सहायक नहीं होरही है तो कृपया भ्रष्ट हो जाईए। हमें चलेगा।
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अलविदा बापू

आज मुझे अपनी ओर से कुछ भी नहीं कहना है। ‘नईदुनिया’ (इन्दौर) में, कल प्रकाशित समाचार की कतरन यहाँ प्रस्तुत है। सुविधा के लिए इस समाचार को जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूँ -

गाँधीजी गुप्त रास्ते से विलायत गए थे
इन्दौर। चौंक गए न शीर्षक पढ़कर। इससे आपको हँसी भी आएगी और दुःख भी होगा। दरअसल यह एक साधारण से प्रश्न का जवाब है जो कॉलेज के विद्यार्थियों ने अपनी उत्तरपुस्तिका में लिखा है। सवाल के जवाब में एक छात्र ने बताया कि गाँधीजी गुप्त रास्ते से विलायत गए थे। हाल ही में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय की प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा में बीए तथा बीएससी के हिन्दी के प्रश्न पत्र में एक प्रश्न किया गया था कि गाँधीजी किस रास्ते से विलायत गए थे। इस पर कई छात्रों ने हैरत में डालने वाले जवाब दिए हैं। कुछ जवाबों की बानगी देखिए - गाँधीजी पहाड़ी रास्ते से, गुप्त रास्ते से, कुमाऊँनी रास्ते से, सीधे तथा सत्य के रास्ते से विलायत गए थे।

एक सवाल और पूछा था कि स्वामी विवेकानंद ने भारत के सभी अनर्थों की जड़ किसे माना है? इस पर भाइयों ने लिखा है कि दिल्ली सरकार, भारत सरकार, भारत-माता, हिन्दू धर्म, आराम, राजनीति, फिल्में, राष्ट्रीय एकता और जनाब एकता कपूर हैं भारत के सभी अनर्थों की जड़।
दूध के पर्यायवाची साँची-अमूल
बीकॉम के छात्र भी कम नहीं हैं। वे तो महात्मा गाँधी का पूरा नाम तक नहीं बता पाए। इस तरह लिखा है उन्होंने पूरा नाम मोहनलाल गाँधी, क्रमचंद गाँधी, कर्मचंद्र गाँधी, श्रीचंद गाँधी, बापू, राष्ट्रपिता, मुरली, मुन्ना और न जाने क्या-क्या। कॉलेज में पढ़ रहे इन विद्यार्थियों का अगर यह स्तर है तो यह विचारणीय है कि इनका भविष्य कैसा होगा? हाँ, दूध के पर्यायवाची अमूल और साँची लिखे गए हैं।
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अब राजस्थान रोडवेज की बारी?

भगवान करे, मेरा अन्देशा केवल अन्देशा बनकर ही रह जाए। यह कभी सच न हो और राजस्थान राज्य परिवहन निगम का भट्टा कभी न बैठे।

परसों, पहली फरवरी को मैंने रतलाम से मन्दसौर तक की यात्रा, राजस्थान राज्य परिवहन निगम याने राजस्थान रोडवेज की रतलाम-उदयपुर बस (नम्बर RJ27/PA 1838) से की और कण्डक्टर का ‘आर्थिक आचरण’ देखकर मुझे लग रहा है कि राजस्थान रोडवेज की दशा भी मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम जैसी होने में अब देर नहीं है। इसका भट्टा बैठना ही बैठना है।

सुबह कोई पौने सात बजे जब यह बस चली तो हम कोई पचीस यात्री इसमें थे। कस्बे से बाहर निकलते ही कण्डक्टर ने यात्रियों से किराया लेना शुरु किया। उसे बहुत देर नहीं लगी। पन्द्रह मिनिट से भी कम समय में उसने सबसे किराया वसूल लिया। मेरे पास आया तो मैंने किराए की रकम पूछी। उसने कहा - ‘साठ रुपये।’ रुपये देते हुए मैंने कहा - ‘अपने यात्रा बिल में लगाने के लिए मुझे टिकिट लगेगा। टिकिट साफ-साफ बनाइएगा जिसमें किराए की रकम और यात्रा का गन्तव्य बिना कठिनाई के पढ़ा जा सके।’ ‘आप टेंशन मत लो।’ कह कर वह इत्मीनान से अपनी सीट पर बैठ गया।

कस्बे से 6-7 किलोमीटर दूरी पर स्थिति इप्का लेबोरटरीज पर 12-15 लोग उतर गए। इनमें से प्रत्येक से उसने 5-5 रुपये वसूल किए थे।

अब बस में हम 10-12 यात्री बचे थे। जावरा में बस रुकी तो जितने यात्री उतरे उनसे अधिक चढ़े। जब बस जावरा से चली तो हम लगभग 35 यात्री हो गए थे। उसने इस बार भी वहीे किया - यात्रियों से किराया लिया और इत्मीनान से अपनी सीट पर बैठ गया।

उसने किसी को टिकिट नहीं दिया। किसी ने माँगा भी नहीं। मुझे लगा, वह मुझे भी टिकिट नहीं देगा। मैंने उसे याद दिलाया तो बेमन से उसने टिकिट दिया। दो कारणों से मुझे अच्छा लगा। पहला तो यह कि उसने टिकिट दिया और दूसरा यह कि टिकिट छपा हुआ था। लेकिन मैंने देखा - किराए की रकम 58 रुपये थी। मैंने तत्काल पूछा - ‘इसमें तो 58 रुपये लिखे हैं और आपने 60 रुपये लिए हैं?’ कण्डक्टर ने निस्पृह भाव से मेरी ओर उड़ती नजर डाली और अपनी सीट पर बैठ गया।

मन्दसौर पहुँचने से पहले मैंने उससे दो बार अपनी बाकी रकम (दो रुपये) माँगी। दोनों ही बार उसने अनसुनी की। मेरी ओर देखा भी नहीं। मन्दसौर में उतरते समय मैंने उससे फिर दो रुपये माँगे। उसने कहा - ‘छुट्टे नहीं हैं।‘ मैंने कहा - ‘बेग में देखिए तो सही! छुट्टे होंगे।’ उसने जवाब दिया - ‘बेग देख रखा है। छुट्टे नहीं हैं। आप आठ रुपये दे दो। मैं आपको दस रुपये दे देता हूँ।’ मुझ अजीब लगा। कहा - ‘तुम्हारे पास तो दो रुपये भी छुट्टे नहीं हैं और मुझसे आठ रुपये छुट्टे माँग रहे हो?’ उसने ‘मुद्राविहीन मुद्रा’ और जमा देनेवाली ठण्डी आँखों से मुझे देखते हुए कहा - ‘मेरे पास तो छुट्टे नहीं हैं।’ वास्तविकता क्या थी यह या तो वह जाने या फिर ईश्वर किन्तु मुझे अब तक लग रहा है कि उसने तय कर लिया था कि वह मुझे दो रुपये नहीं ही लौटाएगा।

मैं बस से उतर गया। लेकिन अब तक वह सब नहीं भूल पा रहा हूँ। कण्डक्टर ने बार-बार माँगने पर भी मेरी बाकी रकम नहीं लौटाई और टिकिट तो उसने मेरे सिवाय किसी को नहीं दिया। किसी ने माँगा भी नहीं। पता नहीं, कागजों में उसने कब, क्या और कैसे लिखा होगा?

वह भूलना तो दूर रहा, इस घटना ने मुझे मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम की याद दिला दी। वहाँ भी यही होता था। आकस्मिक जाँच दलों को, ओव्हर लोडेड बसें, बिना टिकिट मिला करती थीं। मेरे एक मित्र का चचेरा भाई म. प्र. राज्य परिवहन निगम में कण्डक्टर था। रामपुरा-इन्दौर बस में चला करता था। बस, शाम को लगभग सात बजे रामपुरा से चलती थी और सुबह 6-7 बजे इन्दौर पहुँचती थी। बस, रामपुरा से ही पूरी भर जाती थी और इन्दौर तक प्रतिदिन ओव्हरलोड ही चलती थी। मेरे मित्र का वह चचेरा भाई, कम से कम तीन बार निलम्बित हुआ - तीनों ही बार, पूरी की पूरी बस, बिना टिकिट यात्रियों से भरी मिली। पता नहीं, वह कैसे वापस बहाल हो जाया करता था। किन्तु चौथी बार वह निलम्बित नहीं हुआ। सीधा बर्खास्त कर दिया गया। ऐसा प्रकरण यह अकेला नहीं था। ऐसे समाचार अखबारों में आए दिनों छपते ही रहते थे जिनकी परिणती म. प्र. राज्य परिवहन निगम के बन्द होने में हुई। आज मध्य प्रदेश के लोग, निजी यात्री बस मालिकों की मनमर्जी के शिकार हो रहे हैं - पूरा किराया देते हैं, भेड़-बकरियों की तरह ठुँस कर सफर करते हैं, धक्के तो खाते ही हैं, अपमान भी झेलते हैं।

लगता है, अब राजस्थान में यही सब होनेवाला है।

भगवान करे, मेरा अन्देशा केवल अन्देशा ही बन कर रह जाए। सच न हो।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे इंपतंहपअपेीदन/हउंपसण्बवउ पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

यह कौन सी भाषा है?

मेरे कस्बे का माणक चौक विद्यालय अपनी स्थापना के सवा सौवें वर्ष में चल रहा है। इस वर्ष में यहाँ विभिन्न गतिविधियाँ आयोजित की जा रही हैं।

इसी क्रम में, पुस्तकों की एक अनूठी प्रदर्शनी आयोजित की जा रही है। अनूठी इस मायने में कि यह प्रदर्शनी लेखन अथवा प्रकाशन की किसी विधा-विशेष पर केन्द्रित न होकर केवल ‘पुस्तक’ पर केन्द्रित है। इस प्रदर्शनी में, सन् 1847 से 1947 तक के 101 वर्षों में प्रकाशित पुस्तकें शामिल की जाएँगी जिन्हें प्रकाशन के वर्षानुक्रम से, अलग-अलग टेबलों पर प्रदर्शित किया जाएगा। विद्यालय के वाचनालय/पुस्तकालय में उपलब्ध पुस्तकें ही इसमें शामिल की जाएँगी। जाहिर है कि इसमें स्कूली विशयों की पुस्तकें ही प्रमुख होंगी।

पुस्तकें छाँटने के दौरान एक पुस्तक ऐसी मिली है जिसकी भाषा से कोई परिचित नहीं है। विद्यालय के प्राचार्य डॉक्टर मुरलीधर चाँदनीवाला ने अपनी सूझ-समझ और क्षमतानुसार पूरे कस्बे के लोगों से सम्पर्क किया किन्तु कोई भी इस भाषा के बारे में नहीं बता पाया।

उन्होंने ने मुझे यह काम सौंपा। मैंने भी कस्बे के अनेक लोगों से सम्पर्क किया (उनमें से कुछ लोग ऐसे मिले जिनसे चाँदनीवालाजी पहले ही सम्पर्क कर चुके थे) किन्तु मुझे भी सफलता नहीं मिली।
इस पुस्तक के दो पन्नों का चित्र यहाँ प्रस्तुत है। विद्यालय के पुस्तकालय में यह पुस्तक सन् 1886 में शामिल की गई थी।

प्रदर्शनी, बसन्त पंचमी दिनांक 8 फरवरी को शुरु होगी। यदि उससे पहले कोई कृपालु इसकी भाषा के बारे में आधिकारिक जानकारी दे सके तो बड़ी कृपा होगी।

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पागलों की तलाश

भली प्रकार ‘जानता’ हूँ कि ‘मान कर’ चलनेवाले लोग घातक होते हैं। फिर भी आज काफी-कुछ ‘मान कर’ ही कह रहा हूँ।
बरसों से मुझे बराबर और बार-बार लग रहा है कि मेरे कस्बे को वह काफी कुछ अब तक नहीं मिला है जो उसे बरसों पहले मिल जाना चाहिए था, ऐसा काफी कुछ नहीं हो रहा है जो बहुत पहले हो जाना चाहिए था। जैसे - मेरे कस्बा मुख्यालय को सम्भाग मुख्यालय बन जाना चाहिए था, एलआईसी का मण्डल कार्यालय खुल जाना चाहिए था, रेल सुविधाओं में समुचित बढ़ोतरी हो जानी चाहिए थी, रतलाम-नीमच मीटर गेज रेल लाइन को ब्राड गेज रेल लाइन में बदले जाने के लिए जब बन्द किया गया था तब आने-जाने के लिए सात जोड़ी रेलें मिलती थीं, ब्राड गेज रेल होने के बरसों बाद भी वे तक अब नहीं मिल रही हैं जो कि पहले ही दिन से मिल जानी चाहिए थीं आदि-आदि। यह सब नहीं हुआ सो तो कोई बात नहीं किन्तु मेरी हैरानी और चिन्ता यह है कि इन सबके, अब तक न होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, किसी को चिन्ता न तो हुई है और न ही हो रही है। किसी से बात करो तो फौरन जवाब मिलता है - ‘आप बिलकुल सही कह रहे हो। कोई कुछ नहीं कर रहा है। आप ही कुछ करो।’ आज तक, एक ने भी नहीं कहा - ‘हाँ, अपन मिल कर यह करते हैं।’

मुझे लग रहा है अपने कस्बे के विकास की चिन्ता के मामले में मेरा कस्बा, अन्य स्थानों के मुकाबले यदि ‘मुर्दार’ नहीं तो कम से कम लापरवाह, असावधान और उदासीन तो है ही। जो भी होना होगा, जो भी करना होगा, अपने वक्त पर हो जाएगा, भगवान सब करेंगे। अपन को क्या?

मुझे बार-बार लगा और बराबर लग रहा है कि मेरे कस्बे के लोग या तो किसी अवतार की प्रतीक्षा में बैठे, अद्भुत भाग्यवादी लोग हैं या फिर बहुत ही समझदार। भाग्यवादी लोग कभी शिकायत नहीं करते और समझदार लोग कभी कोई जोखिम नहीं उठाते। वे भली प्रकार समझते हैं कि बदलाव के लिए खतरा उठाना पड़ता है। इसलिए जब भी बदलाव की कोई बात होती है तो वे फौरन ही लाभ-हानि की गणित लगाने लगते हैं और इसीलिए, खुद को सुरक्षित रखते हुए, बदलाव की बात करनेवाले को पूरी मासूमियत से कहते हैं - ‘आप ही कुछ कर सकते हैं। कीजिए।’ वे भूल कर भी नहीं कहते - ‘आईए। अपन मिल कर करते हैं।’

सो, मेरा निष्कर्ष रहा कि समझदार लोग कभी बदलाव नहीं ला सकते। यह काम पागल किस्म के लोग ही कर सकते हैं। पागल लोग - बिलकुल किसी के इश्क में पागल हो कर, दुनिया-जहान की चिन्ता किए बिना, अपने महबूब को पाने के लिए पागल की तरह। मुझे लगा, कस्बे के लिए कुछ कर गुजरने के लिए भी पागलपन ही चाहिए। अपने कस्बे को इश्क करनेवाले पागल ही बदलाव की बात कर सकते हैं। मुझे लगा, यह कस्बा मेरी जन्म स्थली भले ही न हो, मेरी कर्म स्थली तो है। इसी ने मुझे पहचान, सामाजिक स्वीकार्य, (और भले ही यह मेरा आत्म-भ्रम हो, किन्तु) भरपूर प्रतिष्ठा और हैसियत दी है। हैसियत भी ऐसी कि बदतमीजी से कही जानेवाली मेरी बातें भी ध्यान से और सम्मान से सुनी जाती हैं। सो, मुझे लगा कि कोई कुछ करे न करे, मैंने जरूर अपने कस्बे के लिए कुछ करना चाहिए। जब सब लोग लाभ-हानि की गणना करते हों तब ऐसा सोचना पागलपन से कम नहीं। सोचा, पागलपन ही सही।

किन्तु, अकेले कूदने की हिम्मत होते हुए भी कुछ सूझ नहीं पड़ा। सोचा - कुछ ‘पागलों’ की तलाश की जाए और इसके लिए क्यों न विज्ञापन दिया जाए? सो, अपने कस्बे के सबसे मँहगे अखबार के दफ्तर पहुँचा। वर्गीकृत विज्ञापनों में एक सप्ताह के लिए लिखा विज्ञापन कुछ इस तरह था: ‘पागल लोग चाहिए - समझदार लोग कभी बदलाव नहीं ला सकते। अपने कस्बे की बेहतरी के बदलाव के लिए ऐसे पागल लोगों की आवश्यकता है जो पार्टी-पोलिटिक्स से ऊपर उठकर, तटस्थ भाव से अपने कस्बे के लिए तन-मन-धन और समय दे कर काम कर सकें। सम्पर्क करें।’

विज्ञापन पढ़ कर विज्ञापन विभागवाले चकराए। ‘दो मिनिट बैठिए’ कह कर अन्दर गए। लौट कर बताया कि सम्पादकजी को ‘पागल’ शब्द पर आपत्ति है। मैं सम्पादकजी के पास गया। बात की। उन्होंने मेरे विज्ञापन को ‘लिंग वर्द्धन तेल’ और ‘साँडे के तेल’ के विज्ञापनों जैसा अशालीन विज्ञापन बताया और कहा कि वे ऐसे विज्ञापनों का विरोध करते रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा - ‘हम हैं तो सही कस्बे की बेहतरी की चिन्ता करनेवाले?’ मैं उनसे सहमत नहीं था। आखिरकार ‘पागल’ के स्थान पर ‘नादान’ कर देने पर सहमति हुई। मैंने निर्धारित शुल्क चुकाया, रसीद ली और चला आया। लेकिन सम्पादकजी के व्यवहार से मुझे विज्ञापन के छपने में खुटका था। मैं घर पहुँचा ही था कि अखबार से फोन आ गया - ‘इस स्वरूप में तो विज्ञापन नहीं छाप सकेंगे।’ मैं कोई और स्वरूप देने को तैयार नहीं हुआ (पागल जो था)। सो, विज्ञापन निरस्त कर दिया।

मैं कोशिश करता हूँ कि अपने बारे में कोई भ्रम न पालूँ। लेकिन जी कर रहा है कि इस प्रकरण से एक भ्रम पाल लूँ - ‘मैं जीनीयस हूँ।’ दुनिया का इतिहास गवाह है कि तमाम जीनियसों को लोगों ने पहले तो पागल ही माना था। लेकिन जब उनकी बातें सच हुईं तो उन्हीं पागलों को माथे पर बैठा कर अपनी गलती सुधारी। मेरे साथ भी यही तो नहीं हो रहा?

इसलिए, ‘मान कर’ मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मेरे कस्बे के लिए काफी-कुछ किया जाना है जिसे करने के लिए कोई समझदार कभी भी आगे नहीं आएगा। मैं ‘मान कर’ चल रहा हूँ कि कुछ पागलों को ही यह नेक काम करना पड़ेगा।

सो, मैं कुछ पागलों की तलाश में हूँ। ऐसे पागलों की, जो ‘पार्टी लाईन’ से ऊपर उठकर, सचमुच में निष्पक्ष भाव से साचते हों, अपने कस्बे के लिए तन-मन-धन और समय दे सकते हों, ‘अपनेवालों’ के नाराज होने का खतरा मोल लेकर कस्बे के हकों के लिए बोल सकते हों, मैदान में आ सकते हों।

सब जानते हैं कि बिना कुछ खोए, कुछ भी हासिल नहीं होता। मेरा कस्बा इसीलिए अब तक अपने प्राप्य से वंचित बना हुआ है।

अपना कुछ खोकर, कस्बे के लिए कुछ हासिल करनेवाला कोई पागल इसे पढ़े तो मुझसे सम्पर्क करे। आपसे मुझे कुछ नहीं कहना है। आपकी समझदारी पर मुझे पूरा भरोसा है। जानता हूँ कि आपको कोई ऐसा पागल मिलेगा तो आप उसे फौरन ही मेरे पास भेजने की समझदारी बरत ही लेंगे।
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