पानसिंह नहीं, ‘रपटू’

यदि नियती के संकेत सुनने/समझने की क्षमता ईश्वर ने मुझे दी होती तो कोई तीन महीने पहले ही मैं यह पोस्ट लिख चुका होता जब भाई जुबेर आलम खान मुझसे अपने सवालों के जवाब ले रहे थे।


नीता पब्लिसिटी नामक व्यापारिक संस्थान् कुछ न कुछ अनूठा करता रहता है। इस बार अपने ऐसे ही एक उपक्रम में वह रतलाम के कुछ अग्रणी लोगों पर एक-एक पन्ने की सचित्र सामग्री प्रकाशित कर रहा है। पता नहीं क्यों और कैसे, इस बार मुझे भी इन लोगों में शामिल कर लिया गया। (अपने इस निर्णय पर उन्हें निश्चय ही पछतावा होगा।) उसी के लिए, जुबेर भाई अपनी प्रश्नावली लेकर आए थे। पूछते-पूछते जुबेर भाई ने पूछा - ‘आपका प्रिय खिलाड़ी?’ मेरे मुँह से अचानक ही निकला, ऐसे मानो किसी अदृष्य शक्ति ने कहलवाया हो - ‘रामचन्द्र रपटू।’ इस खिलाड़ी के बारे में जुबेर भाई तो क्या अब तो ‘रपटू’ के गाँववाले भी वह सब नहीं जानते होंगे जो उसके समकालीन जानते हैं। जुबेर भाई ने अपनी प्रश्नावली के शेष प्रश्नों के उत्तर लिए और धन्यवाद देकर चले गए।

बात आई-गई हो ही गई थी कि अचानक ही फिल्म ‘पानसिंह तोमर’, सिनेमाघर में देखने का दुरुह अवसर मिल गया। सत्संग रहा - मेरी उत्तमार्द्ध का। फिल्म की सादगी, इरफान खान का सहज अभिनय और चुटीले सम्वाद - सब कुछ हमें अपने साथ बहा लिए जा रहे थे। लग रहा था, काश! सारी फिल्में ऐसी ही बनें। तभी वह दृष्य आया जिसने, शेष फिल्म का मेरा आनन्द, रोमांच में बदल दिया। फिल्म, फिल्म नहीं रही। हकीकत हो गई।

भारतीय सेना का जवान पानसिंह तोमर, किसी अन्तरराष्ट्रीय खेल स्पर्द्धा की एक दौड़ में भाग लेने के लिए मैदान में खड़ा है। सारे खिलाड़ी अपने-अपने स्थान पर, संकेत मिलते ही दौड़ पड़ने की मुद्रा में, दोनों हाथों की अंगुलियाँ धरती पर टिकाए, दौड़ शुरु होने के संकेत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। संकेत देनेवाली पिस्तौल छूटने की आवाज आती है। सारे खिलाड़ी दौड़ पड़ते हैं लेकिन पानसिंह तोमर खड़ा-खड़ा प्रार्थना करता नजर आता है। उसका प्रशिक्षक उसे कहता है - ‘पानसिंह! भाग!’ सुनकर पानसिंह अपने में लौटता है और दौड़ना शुरु करता है। मैदान पर उपस्थित तमाम दर्शक उसकी हँसी उड़ाते नजर आते हैं। वे तय मानकर चलते हैं कि पानसिंह तो दौड़ में कहीं नजर ही नहीं आएगा। किन्तु इसके विपरीत, सिनेमा घर में बैठे दर्शक दम साधे, चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। और चमत्कार होता है - पानसिंह, चीते की तरह लपकता हुआ, सबको पीछे छोड़कर दौड़ में अव्वल आता है।

इस दृष्य ने ही मेरे लिए इस फिल्म को हकीकत में बदल दिया। यादों की फिल्म शुरु हो गई। उसके बाद, शेष फिल्म में मुझे इरफान खान नजर नहीं आया। उसके स्थान पर नजर आता रहा - रामचन्द्र रपटू।रामचन्द्र रपटू का वास्तविक नाम था - रामचन्द्र पुरोहित। वह मेरे गाँव मनासा से दो किलो मीटर दूर बसे गाँव भाटखेड़ी का रहनेवाला था। भाटखेड़ी में माध्यमिक (मिडिल) स्तर तक का ही स्कूल था। सो, वहाँ के सारे बच्चे, उच्चतर माध्यमिक (हायर सेकेण्डरी) कक्षाओं की पढ़ाई के लिए मनासा आते थे। इसी कारण, रामचन्द्र पुरोहित भी मनासा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का छात्र बना।

मैंने रामचन्द्र पुरोहित को रामचन्द्र रपटू बनते नहीं देखा। शिक्षा सत्र 1961-62 में मैंने नवमीं कक्षा में प्रवेश लिया, तब रामचन्द्र ग्यारहवीं में था। स्कूल में उसका वह अन्तिम वर्ष था। नवमी कक्षा में मेरे प्रवेश लेने के दो साल पहले ही रामचन्द्र पुरोहित, रामचन्द्र रपटू बन चुका था। उसके ‘रपटू’ होने का किस्सा किसी लोक कथा की तरह पूरे स्कूल में बारहों महीने सुनने को मिलता रहा। आयु के मान से वह मुझसे, कम से कम दो वर्ष बड़ा था। इस लिहाज से मैंने उसके लिए ‘उसके’ के स्थान पर ‘उनके’, ‘वह’ के स्थान पर ‘वे’ जैसे आदरसूचक शब्द प्रयुक्त करने चाहिए। किन्तु हम सब नितान्त ग्रामीण परिवेश के छात्र थे जहाँ ‘ऊष्मावान आत्मीयताभरी सहजता’ व्याप्त थी, ‘औपचारिकता आधारित शिष्टाचार’ नहीं। इसलिए हम सब छोटे-बड़े, आपस में ‘तू-तड़ाक’ से ही बात करते थे। इसीलिए मैं यहाँ रामचन्द्र रपटू के लिए आदरसूचक शब्द प्रयुक्त नहीं कर पा रहा। वैसा करूँगा तो मुझे लगेगा कि मैं झूठ बोल रहा हूँ।

‘रपटू’ का कद यदि 6 फीट से अधिक नहीं तो कम भी नहीं था। साँवला रंग, मझौला डील-डौल, मुँह पर चेचक के कुछ छितरे हुए दाग। पढ़ने के मामले में वह ‘कामचलाऊ’ स्तर को भी मुश्किल से छू पाता था किन्तु खेलों के मामले में वह पूरे जिले में ‘एक-अकेला’ था - सचमुच में अद्वितीय और अनुपम। खेल दलीय (टीम) हों या एकल (एथेलेटिक्स), कबड्डी, खो-खो जैसे देशी हों या वॉलीबॉल, फुटबॉल जैसे विदेशी, जितने भी खेल उन दिनों स्कूलों में खेले जाते थे, उन सबमें वह पूरे जिले का ‘प्राकृतिक और सहज चेम्पियन’ था। वह मिट्टी के अखाड़े का भी ‘आजम’ था और लम्बी/ऊँची कूद (लांग/हाई जम्प) का भी। जिस स्पर्द्धा में रपटू शामिल होता, उसमें बाकी सबको दूसरे या उसके बाद के स्थानों के लिए ही संघर्ष करना पड़ता था। रामचन्द्र रपटू का मतलब ही हो गया था - प्रथम।

पढ़ाई-लिखाई में औसत का भी पीछा करनेवाला रामचन्द्र रपटू यदि खिलाड़ी नहीं होता तो क्या होता? मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इस बारे में आज तक किसी ने नहीं सोचा होगा। आज जब मैं सोच रहा हूँ तो मुझे एक ही जवाब मिल रहा है - ‘तब, वह निश्चय ही कुशल कलाकार होता। लोक कलाकार।’ लोगों की नकल करने और किस्सों को साकार करने में उसका कोई सानी नहीं था। वह कोई किस्सा सुनाता तो हमें लगता कि उस किस्से के पात्र हमारे बीच आकर बैठ गए हैं। सड़क पर मजमा लगा कर ‘ताकत बढ़ानेवाली’ देशी दवाएँ बेचनेवालों की नकल में वह निष्णात् था। जब वह ऐसा कर रहा होता तो, स्कूल के मैदान में बैठे हम लोग अपने आपको, सड़क किनारे मजमें में ही पाते। सुनता और पढ़ता हूँ कि फिल्मों के लिए कहानी सुनने-सुनाने के लिए विशेष बैठकें (सेशन) होती हैं और कहानी सुनाना भी एक व्यापारिक-कौशल है। मैं दावे से कह पा रहा हूँ कि यदि रपटू को यह मौका मिला होता तो कम से कम एक फिल्म तो उसी पर बन चुकी होती। ठेठ मालवी में जब वह किस्सा-कहानी सुनाता तो लगता, उसके शरीर में किसी ‘लोक नट सम्राट’ की आत्मा आ बसी हो।

मालवा में, नवरात्रि के अन्तिम दिन, देवताओं के विसर्जन के समय कई लोगों को ‘भाव’ आता है। माना जाता है कि उनके शरीर में किसी देवी-देवता की आत्मा प्रविष्ट हो गई है। तब ‘वह आदमी’, ‘वह आदमी’ नहीं रह जाता - कोई देवी या देवता बन जाता है। ऐसी देवी या देवता व्यक्ति के मुँह से ही खुद का परिचय देता। ‘भाव’ आनेवाले ऐसे कुछ लोग एक हाथ में नंगी तलवार (जिसकी नोंक पर नींबू फँसा होता है) और दूसरे हाथ में हाथ में जलता खप्पर लेकर, देवी/देवता का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुहल्ले में एकत्र जन समुदाय के बीच ये एक छोर से दूसरे छोर तक ‘हा! हू!’ जैसी ध्वनियाँ निकालते हुए, इधर से उधर तक घूमते हैं। कोई-कोई एक पाँव पर, लँगड़ी चाल चल कर यह सब करता है। कुछ ‘भाव’ वाले लोहे की मोटी जंजीरों का गुच्छा लेकर चलते हैं। ये लोग नंगी तलवारों और जंजीरों के गुच्छों से अपनी पीठ पर वार करते हैं। इनकी पीठे लहू-लुहान हो जाती हैं। समूचा दृष्य विचित्र रोमांच और दहशत से भर जाता है। जन-समुदाय, आबाल-वृद्ध नर-नारी इन्हें प्रणाम करते हैं। कुछ लोग इनसे अपना भविष्य भी पूछते हैं तो कुछ अपनी मौजूदा तकलीफों का निदान। रपटू इन ‘भाव’ वालों की ऐसी ‘शानदार और जानदार’ नकल निकालता कि कभी-कभी हमें भ्रम हो जाता कि ‘रपटू’ पर सचमुच में कोई देवी/देवता आ गया है। उसी दशा में वह लोगों का न्याय भी करता, लोगों को मुक्ति के रास्ते भी बताता और मोरपंख की मोटी छड़ी से किसी-किसी की छुटपुट पिटाई भी कर देता। कभी-कभी, छात्रों के प्रति मैत्री भाव रखनेवाला कोई व्याख्याता भी इस मजमें का आनन्द लेने शरीक होता तो ‘रपटू’ उसका भी ‘न्याय’ कर देता। स्कूल के वार्षिकोत्सव में उसका यह ‘आयटम’ अनिवार्यतः शामिल होता। कुल मिला कर ‘रपटू’ हमारे स्कूल की ‘आन-बान-शान और जान’ था।

किन्तु वह ‘रपटू’ बना कैसे?

हुआ यूँ कि रामचन्द्र पुरोहित जब नवमीं कक्षा में भर्ती हुआ तो स्कूल के क्रीड़ाध्यापक को, सत्र के पहले ही दिन, पहले ही खेल पीरीयड में, पहले ही क्षण ‘होनहार बिरवान के, चीकने पात’ नजर आ गए। उन्हें अधिक समय नहीं लगा रामचन्द्र को तराशने में। जितना वे बताते, रामचन्द्र उससे कहीं अधिक कर दिखाता। स्कूलों की तहसील स्तरीय सारी खेल प्रतियोगिताओं के प्रथम विजेता के स्थान पर एक ही नाम रहा - रामचन्द्र पुरोहित।

जल्दी ही जिला स्तरीय खेल प्रतियोगिता की तारीखें आईं। मनासा स्कूल का दल जिला मुख्यालय मन्दसौर पहुँचा। चार सौ मीटर दौड़ प्रतियोगिता से शुरुआत होनी थी। जिले भर के चयनित खिलाड़ी मैदान पर आए। मैदान देख कर रामचन्द्र चक्कर में पड़ गया। वहाँ, चूने की लकीरों से पूरे मैदान में चक्कर (ट्रेक) बने हुए थे। ऐसे चक्कर रामचन्द्र ने पहले कभी नहीं देखे थे और न ही ‘गेट-सेट-रेडी-गो’ और पिस्तौल का छूटना सुना था। स्कूल के क्रीड़ाध्यापकजी ने भी कुछ नहीं बताया था। जितना समझा सकते थे, वहीं मैदान पर समझाने की कोशिश की। रामचन्द्र हैरत से सब देखता-सुनता रहा।

उधर, रामचन्द्र के चर्चे उससे पहले ही मन्दसौर पहुँच चुके थे। पूरे जिले के वरिष्ठ खिलाड़ी और क्रीड़ाध्यापक, रामचन्द्र पर नजरें गड़ाए हुए थे। जाहिर है, पहली ही प्रतियोगिता की शुरुआत रोमांच के चरम से हो रही थी जबकि रामचन्द्र इस सबसे बेखबर था।जैसे ही पिस्तौल छूटी, अलग-अलग ट्रेक पर खड़े खिलाड़ी तीर की तरह छूटे। लेकिन यह क्या? रामचन्द्र वहीं का वहीं! सबको दौड़ता देख, रामचन्द्र ने अपने क्रीड़ाध्यापक से, जोर से आवाज लगा कर ठेठ मालवी में पूछा - ‘माट्सा‘ब! रपटूँ?’ क्रीड़ाध्यापक तो बौखला गए थे! रामचन्द्र के मुकाबले दुगुने जोर से चिल्लाकर जवाब दिया - ‘रपट! रपट! रामचन्द्र! रपट!’ और रामचन्द्र ‘रपट’ पड़ा। ऐसा ‘रपटा’, ऐसा ‘रपटा’ कि कोई सौ-पचास मीटर पीछे से शुरु करने के बाद भी सबसे पहले फीते को छू लिया। मैदान पर हड़कम्प मच गया। बाकी सबकी तो छोड़ दीजिए, लोग बताते हैं कि हमारे ही क्रीड़ाध्यापक को विश्वास नहीं हुआ। यहाँ तक कि कुछ लोग बताते हैं कि वे भावाकुल होकर रो पड़े।

उसके बाद कहने को कुछ खास नहीं। उस साल भी और उसके बाद के दोनों वर्षों में भी मनासा स्कूल जिले का चैम्पियन बना रहा और रामचन्द्र ‘रपटू’ तीनों साल, ‘चैम्पियनों का चैम्पियन’ रहा। तीनों ही वर्षों में उसने प्रत्येक खेल में पहले स्थान पर अपना कब्जा बनाए रखा।

अब ‘रपटू’ का मतलब समझ लीजिए। मालवी में ‘तेजी से दौड़ने/भागने’ को ‘रपटना’ कहते हैं। (मालवी में ‘रपटना’ का एक अर्थ ‘फिसलना’ भी होता है।) रामचन्द्र ने यही पूछा था - ‘सर! दौड़ूँ?’ और ‘सर’ ने कहा था - ‘दौड़! दौड़! रामचन्द्र! दौड़!’ वह दिन और उसके बाद का शेष जीवन, रामचन्द्र पुरोहित, केवल रेकार्ड में ही ‘पुरोहित’ रहा अन्यथा समूचे अंचल में वह ‘रपटू’ के नाम से ही जाना-पहचाना और पुकारा जाता रहा। रामचन्द्र ने भी ‘रपटू’ को अपने ‘कुलनाम’ (सरनेम) की तरह आत्मसात कर लिया।

हायर सेकेण्डरी करने के बाद मैंने 1964 में मनासा लगभग छोड़ ही दिया। उसके बाद याद नहीं आता कि रपटू से कभी मुलाकात हुई हो। मित्रों ने बताया था कि उसे सरकारी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई थी। ‘रपटू’ मेरे अचेतन में गहरे तक पैठा हुआ था, यह मुझे भाई जुबेर के माध्यम से मालूम हुआ और ‘पानसिंह तोमर’ ने तो ‘रपटू’ को मानो जीवित ही कर दिया। मैंने अपने सहपाठी अर्जुन पंजाबी से बात की। मालूम हुआ कि ‘रपटू’ अब इस दुनिया में नहीं है। ‘रपटू’ का चित्र हासिल करने के लिए, मेरे अनुरोध पर अर्जुन ने भाई कैलाश पाटीदार को मानो ‘रपटा’ दिया। कैलाश ने अत्यधिक तथा अतिरिक्त परिश्रम कर ‘रपटू’ का चित्र जुटाया।

मेरे सामने अभी भी फिल्म पानसिंह तोमर चल रही है जिसमें इरफान खान के स्थान पर मैं रपटू को ही देख पा रहा हूँ।

मेरा पानसिंह तो मेरा ‘रपटू’ ही है।

14 comments:

  1. बेहतरीन संस्मरण। उस समय रामचंद्र को कुछ उचित सलाह मिली होती तो वह अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में कीर्तीमान स्थापित कर सकता था।

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  2. रामचन्द्र जी के बारे में और भी जानने की इच्छा है। सही निर्देशन और सुविधाओं के बिना न जाने कितनी प्रतिभायें छिपी ही रह जाती हैं।

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  3. वाह, कई दिनों बाद यह चाल आई है, मजा आया. नमकहलाल का गीत है- ''आज रपट जइहैं'' या ''रपट पड़े तो हर गंगे''

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  4. ऐसे संस्मरण मेरे भी हैं और कईयों के होंगे परन्तु आपके लेखन शैली ने रामचंद्र रपटू को एक ऐसा कद प्रदान कर दिया जो अविस्मरनीय है.

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  5. रपटा उन पुलों के लिये भी प्रयुक्त होता है जिनके ऊपर से बरसात अधिक होने से पानी तेज प्रवाह से बहता है। बड़ी रोचक प्रस्तुति।

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  6. ऐसी बहुत सारी प्रतिभाएँ होती हैं जिन्हें पहचान नहीं मिल पाई, ऐसे ही मुझे याद आ गया, एन.सी.सी. में अलिराजपुर का एक कैडेट था बन्दरसिंग, आपके रपटू से हमें उसकी याद आ गई।

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  7. ई-मेल से प्राप्‍त, श्रीयुत सुरेशचन्‍द्रजी करमरकर की टिप्‍पणी -

    विष्‍णुजी, रामचन्‍द्र रपटू कभी मिल जाये तो अपन मिलेंगे। 'एकोहम' पढ़कर मुझे एक लाभ यह होता है कि मनासा, भाटखेडी आदि की स्मृतियॉं जीवन्‍त हो उठती है।

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    1. आदरणीय सुरेश दादा,

      रपटू अब इस दुनिया में नहीं है।

      विष्‍णु

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  8. रामचंद्र जी को नमन।

    नेपोलियन ने कितना सच कहा था - "सुयोग और सुअवसर के अभाव में योग्यता का कोई मूल्य नहीं रहता"।

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  9. Aapnaa-Aapna PAANSINGH . Jo hoy Pooro-Hit (Purohit), uij vai sake Ramchand "RAPTOO"

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  10. bahut sundar sansmaran! Raptu ko bahut hi achhe tareke se samjhaya hai aapne..
    sarthak prastuti hetu aabhar!

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  11. क्या दौड़ा है आपका 'रपटू' . . . और जो आपने उसको यहाँ 'रपटाया' है वो भी अद्भुत है . . पढ़ते हुवे वैसी ही जिज्ञासा रही जैसे पानसिंह तोमर फ़िल्म देखते हुवे रही थी. 'रपटू' से जो मुलाकात करवाई है आपने, उसमे जो आनंद आया, वैसा ही शायद आपको 'रपटू' को दौड़ते हुवे देख कर आया होगा. बहुत ही जीवंत प्रस्तुति.

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  12. आपकी लेखनी से शब्द ऐसे झरते हैं मानो कोइ पहाडी नदी अपनी मस्ती में बही जा रही हो ....आपकी भाषा में न तो शब्दाडम्बर होता है न जोड़ - तोड़ ..सब कुछ स्वाभाविक सा.......
    --चंद्रकिशोर बैरागी
    उज्जैन

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  13. फेस बुक पर प्राप्‍त एक टिप्‍पणी -

    आपकी लेखनी से शब्द ऐसे झरते हैं मानो कोई पहाडी नदी अपनी मस्ती में बही जा रही हो। आपकी भाषा में न तो शब्दाडम्बर होता है न जोड़ - तोड़। सब कुछ स्वाभाविक सा।

    --चंद्रकिशोर बैरागी
    उज्जैन

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