वे सीहोर (मध्य प्रदेश के, भोपाल से लगभग 40 किलो मीटर दूर, एक, जिला मुख्यालय वाला कस्बा) से बोल रहे थे। एलआईसी के एक अभिकर्ता साथी ने मुझसे पूछ कर ही मेरा नम्बर उन्हें दिया था। वे उस अभिकर्ता साथी के जीजा थे। अभिकर्ता साथी ने कहा था कि उसके जीजा को, एक साहित्यिक संगठन की शाखाएँ पूरे मध्य प्रदेश में गठित करने का दायित्व दिया गया है। वे चाहते थे कि उस संगठन की रतलाम शाखा के लिए मैं उन्हें कुछ ‘लिखने-पढ़नेवालों’ के नाम सुझाऊँ।
हमारा सम्वाद कुछ इस तरह हुआ -
वे - ‘नमस्कारजी! मैं सीहोर से .........बोल रहा हूँ। आपका नम्बर मुझे देवासवाले ........जी ने दिया है।’
मैं - ‘नमस्कारजी। हाँ। याद आया। हुकुम कीजिए।’
वे - ‘हुकुम तो कुछ नहीं जी। हम एक राष्ट्रवादी संगठन हैं। इसकी रतलाम शाखा के लिए हमें राष्ट्रवादी विचारधारावाले कुछ लोगों के नाम चाहिए थे। आप मदद कर दें।’
मैं - ‘राष्ट्रवादी से आपका क्या मतलब? अपने देश में तो सब ही राष्ट्रवादी हैं!’
वे - ‘नहीं। आप नहीं समझे। मैंने कहा कि हम एक राष्ट्रवादी संगठन हैं और इसी विचारधारा के सहित्यकार हमें चाहिए।’
मैं - ‘क्या आपके यहाँ कोई अराष्ट्रवादी है? यदि हैं तो कुछ नाम बताइए। शायद मैं किसी को जानता होऊँ। उन नामों से अनुमान लगाने की कोशिश करूँगा कि अराष्ट्रवादी लोग किस प्रकार के होते हैं।’
वे - ‘नहीं! नहीं! आप अब तक नहीं समझे। फिर कह रहा हूँ कि हम एक राष्ट्रवादी संगठन हैं और रतलाम में हमारे संगठन की शाखा गठित करने के लिए हमें राष्ट्रवादी विचारधारावाले साहित्यकारों के नाम चाहिए।’
मैं - ‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैं वाकई में अब तक नहीं समझा कि राष्ट्रवादी से आपका मतलब क्या है।’
वे - ‘कमाल है! आप तो खुद ही लिखने-पढ़नेवाले हैं! राष्ट्रवादी का मतलब नहीं समझते?’
मैं - ‘अब तक तो नहीं समझा। अच्छा, यह बताइए कि आपकी परिभाषा में मैं राष्ट्रवादी हूँ या नहीं?’
वे - ‘कैसी बातें करते हैं आप? आप राष्ट्रवादी तो हैं किन्तु आपके बारे में जितना मुझे मालूम है उसके मुताबिक हमारी राष्ट्रवादी विचारधारा में फिट नहीं बैठते हैं।’
अब मेरी ट्यूब लाइट चमकी। वे ऐसे आदमी से सहायता चाह रहे थे जिसे वे अपने लिए अनुकूल तो नहीं मान रहे थे किन्तु जिसकी सदाशयता पर उन्हें विश्वास था। वे ‘प्रतिकूल’ से ‘अनुकूल’ की प्रत्याशा कर रहे थे! चूँकि बात मेरी समझ में आ चुकी थी सो अब मैं मजे लेने लगा।
हमारा सम्वाद आगे कुछ इस तरह रहा -
मैं - ‘याने कि आपको संघ की विचारधारावाले साहित्यकार चाहिए?’
वे (बात मुझे समझ में आ गई है, इसकी प्रसन्नताभरी खनक उनकी आवाज में भरपूर गर्मजोशी से अनुभव हुई) - ‘हाँ। अब आप समझे।’
मैं - ‘तो इसके लिए आपने मुझे फोन क्यों किया? आप ‘तपस्या’ (रतलाम में ‘संघ’ का कार्यालय) में फोन लगा लेते! रुकिए! मैं आपको ‘तपस्या’ का नम्बर देता हूँ।’
वे (तनिक घबरा कर) - ‘नहीं! नहीं! वो नम्बर तो मेरे पास है।’
मैं - ‘तो फिर?’
वे - ‘हम वहाँ से सीधी सहायता नहीं लेना चाहते। हम नहीं चाहते कि लोग हमें संघ का समर्थक संगठन समझें।’
मैं - ‘यह क्या बात हुई? आप संघ की विचारधारावाले लोग भी चाहते हैं और चाहते हैं कि आपको संघ का समर्थक संगठन नहीं समझें! ऐसा कैसे सम्भव है? और अब, मुझे तो मालूम हो ही गया है! मैं ही सबको बता दूँ तो?’
वे - ‘नहीं! नहीं! ..........जी ने बताया था कि आप ऐसे आदमी नहीं हैं।’
मैं - ‘तो एक काम कीजिए। कुछ जनवादी लिखने-पढ़नेवाले मेरे मित्र हैं। उनके नाम लिख लीजिए। उनके होने से आप पर संघ की विचारधारा से जुड़ने का ठप्पा नहीं लगेगा।’
वे - ‘नहीं! नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है। वे तो जनवादी हैं। फिर हम राष्ट्रवादी विचारधारावाला संगठन कैसे रह पाएँगे?’
मैं - ‘क्यों? क्या जनवादी लोग राष्ट्रवादी नहीं हैं?’
वे - ‘नहीं! नहीं! यह बात नहीं! वे भी राष्ट्रवादी तो हैं किन्तु वैसे राष्ट्रवादी नहीं, जैसे हम चाहते हैं।’
मैं - ‘क्या मतलब? राष्ट्रवाद की भी श्रेणियाँ होती हैं?’
वे - ‘नहीं। श्रेणियाँ तो नहीं होतीं किन्तु हम एक राष्ट्रवादी संगठन हैं और हमें हमारे जैसे ही राष्ट्रवादी चाहिए।’
मैं - ‘आपने मुझे उलझन में डाल दिया। आप मुझे राष्ट्रवादी तो मानते हैं किन्तु अपने राष्ट्रवाद के लिए फिट नहीं मानते। जनवादियों को भी राष्ट्रवादी मान रहे हैं किन्तु अपने जैसे राष्ट्रवादी नहीं मान रहे। आपके जैसे राष्ट्रवादियों के नाम जानने के लिए आप संघ के कार्यालय की सहायता भी नहीं लेना चाहते। निष्पक्ष नजर आते रहकर संघ की विचारधारा को आगे भी बढ़ाना चाहते हैं। आपका यह राष्ट्रवाद मुझे विचित्र लग रहा है।’
वे - ‘समझ में नहीं आ रहा कि आप क्या कह रहे हैं। .......जी ने तो बताया था कि आप बहुत समझदार आदमी हैं। लगता है कि या तो आप राष्ट्रवाद का मतलब नहीं जानते या फिर आप राष्ट्रवादियों की सहायता नहीं करना चाहते।’
मैं - ‘उलझन में तो आपने डाल दिया है। आप अपना राष्ट्रवाद मुझे समझा नहीं पा रहे हैं और मेरे राष्ट्रवाद को राष्ट्रवाद नहीं मान रहे हैं। ऐसे में मैं चाहकर भी आपकी मदद नहीं कर पा रहा हूँ। आपके साले साहब ........जी मेरे अच्छे मित्र हैं। यदि आपकी मदद नहीं कर पाऊँगा तो वे दुखी भी होंगे और नाराज भी। इसलिए प्लीज! मेरी मदद कीजिए और बताइए कि राष्ट्रवाद से अपका मतलब क्या है?’
वे - ‘आप अब तक नहीं समझे तो मेरे समझाने से क्या समझेंगे? आपको खामखाँ ही तकलीफ दी। धन्यवाद। नमस्कार।’
मैं उलझन में हूँ। मैं राष्ट्रवादी हूँ या नहीं?
बहुत मुश्किल काम है सज्जन में सज्जन खोजना .
ReplyDeleteमैं राष्ट्रवादी हूँ या नहीं?
ReplyDeleteमुझे भी कोई ये बात बता दे तो मैं तो रिश्वत देने को तैयार भी हूँ जी..! बहुत ही सटिक संवाद..!
मत-मतान्तर से ही अभिप्राय स्पष्ट हो पाता है, वरना अक्सर मुगालता बना रहता है.
ReplyDeleteफेस बुक पर श्री सुशील मीनू माथुर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteराष्ट्रवाद का मतलब आपको समझ में आ जाए तो मुझे भी बता दीजिएगा।
हा हा हा हा हा मजा आ गया ...
ReplyDeleteजब सबके अपने अपने सीमित राष्ट्र हों तो किसका पक्ष धरें हम।
ReplyDelete:) सही मज़े लिये आपने! वैसे ...जी ने उनके साथ ठीक नहीं किया :(
ReplyDeleteसबके अपने-अपने सीमित राष्ट्र, सबके अपने-अपने क्षुद्र स्वार्थ। बढ़िया लगी यह वार्ता।
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