‘मित्र से बहस मत करो। तुम बहस में जीत तो हासिल कर लोगे किन्तु मित्र को खो दोगे।’ यह उक्ति सुनी तो कई बार थी किन्तु इसे सच होते पहली बार देखा।
वे दोनों अच्छे मित्र हैं। (अब, ‘थे‘ कहना पड़ेगा।) इन दोनों की मैत्री मुझे विस्मित करती रही है। दोनों का स्वभाव पूरब-पश्चिम। एक अत्यधिक विनम्र और उदार तो दूसरा एकदम अक्खड़ और दुराग्रही। इस घटना से समझ पड़ा कि यह मैत्री विनम्र और उदार मित्र के दम पर चलती रही। सुविधा के लिए दोनों को नाम दे रहा हूँ - विनम्र को विमल और अक्खड़ को कमल।
वे दोनों चाय के ठीये पर बैठे थे। मैं उधर से निकल रहा था। विमल ने आवाज दी - ‘आओ! चाय पी लो।’ मेरे रुकते ही विमल ने चायवाले को हाँक लगाई - ‘एक चाय और बढ़ा देना।’
‘और सुनाओ। नया-जूना क्या चल रहा है?’ पहले से चल रही अपनी बातें बन्द कर, विमल ने मुझसे पूछा। मैंने कहा - ‘मेरे पास तो सब कुछ जूना ही जूना है। नया तो तुम्हारे पास मिलता है। तुम बीच बाजार में जो बैठते हो।’ विमल मुस्कुरा दिया। कमल को मानो कोई फर्क नहीं पड़ा। उनकी बातें हिमाचल और गुजरात चुनावों पर चल रही थीं। मैं कमल की प्रकृति जानता था। सो, मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। बात नरेन्द्र मोदी से होती हुई शिवराज सिंह चौहान पर आ गई। भोपाल में चार अक्टूबर को हुए काँग्रेसियों के धरने-प्रदर्शन का हवाला देते हुए विमल ने कहा - ‘2013 में कहीं ज्योतिरादित्य एमपी का सीएम नहीं बन जाए!’ कमल को जैसे बिजली का करण्ट लग गया। तड़पकर बोला - ‘कैसे बन जाएगा? उसका परिवार देशद्रोही है। झाँसी की रानी को धोखा दिया था इसके परिवार ने। देशद्रोहियों को शासन में नहीं आने देंगे।’ विमल धीमे से, मुस्कुराता हुआ बोला - ‘तेरे साथ यही दिक्कत है। सुनते ही उछल जाता है। मैंने तो एक बात कही यार! तू और मैं कौन होते हैं किसी को शासन में लाने या न लानेवाले?
कमल को सन्तोष नहीं हुआ। उन्हीं तेवरों में बोला - ‘पता नहीं तुम लोग देशद्रोहियों का समर्थन क्यों करते हो?’ विमल को अच्छा नहीं लगा। बोला - ‘ऐसा मत बोल यार! तू जानता है कि मैं किसी पार्टी-पोलिटिक्स में नहीं हूँ। मैंने अलग-अलग वक्त पर सबको वोट दिया है - पोपी (काँग्रेसी, जयन्तीलाल जैन) को भी, सेठ (भाजपाई, हिम्मत कोठारी) को भी और दादा (निर्दलीय, पारस सकलेचा) को भी और ये सब तुझे पता है।’ अपनी तड़प यथावत बनाए रखकर कमल बोला - ‘हाँ। वो तो मैं जानता हूँ। लेकिन तेने देशद्रोही परिवारवाले ज्योतिरादित्य की बात कैसे कर दी? तू काँग्रेसियों की तरह बात करता है।’ विमल दुखी हो गया। कमल को समझाते हुए बोला - ‘कौन देशद्रोही है और कौन नहीं, यह तय करना तेरा-मेरा काम नहीं है। सोच-समझ कर बात करनी चाहिए। कभी-कभी वार उल्टा पड़ जाता है।’ विमल की बात कमल को चुनौती लगी। लगभग डाँटते हुए बोला - ‘क्या मतलब है तेरा? मैं देशद्रोही हूँ? देशद्रोहियों का समर्थक हूँ?’ बात खत्म करने की नियत से विमल बोला - ‘देख यार! बात खतम कर। बस! इतना याद रखना चाहिए कि सब तरह के लोग सब जगह होते हैं।’ (सुनकर मैं चौंका। ऐसी बात तो मैं करता हूँ!) लेकिन कमल बात खत्म करने के ‘मूड’ में नहीं था। मानो विमल को ललकार रहा हो, इस तरह बोला - ‘नहीं। बात खत्म नहीं होगी। अब तो तू बता ही दे कि मैंने कब किस देशद्रोही का समर्थन किया या करता हूँ।’ विमल ने फिर कहा - ‘छोड़ यार! चाय पी और छुट्टी कर।’ लेकिन कमल नहीं माना। अड़ा रहा।
अन्ततः विमल ने तनिक रोष से कहा - ‘तू सिन्धिया परिवार को देशद्रोही कह रहा है। लेकिन तू जिस पार्टी का हिमायती है उस पार्टी ने ज्योतिरादित्य की दादी, राजमाता विजयाराजे सिन्धिया को जनसंघ के जमाने में माथे पर बैठाए रखा। इस देशद्रोही परिवार की दो बेटियाँ, ज्योतिरादित्य की दो बुआएँ आज भी भाजपा में हैं। एक तो राजस्थान की मुख्यमन्त्री रह चुकी है और इतनी दमदार है कि भाजपा हाईकमान उसके सामने गिड़गिड़ाता रहता है। वो अभी भी विधायक है और शायद राजस्थान विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर है। दूसरी मध्य प्रदेश में ही लोकसभा सदस्य है जिसके नाम के आगे अभी-अभी एक अधिकारी ने ‘श्रीमन्त’ नहीं लिखा तो वह नाराज हो गई। अधिकारी की शिकायत कर दी और हालत यह हो गई कि अधिकारी को माफी माँगनी पड़ी। अब बोल! क्या कहता है?’ सुनकर कमल हक्का-बक्का हो गया। ये सन्दर्भ उसे निश्चय ही याद नहीं रहे होंगे। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। हकलाते हुए (निश्चय ही केवल जवाब देने के लिए) बोला - ‘लेकिन ये तो औरतें हैं। मैं तो मर्द शासकों की बात कर रहा।’ विमल ने फौरन कहा - ‘तेरा मतलब है कि देशद्रोही औरत शासक तुझे कबूल है, मर्द देशद्रोही शासक नहीं?’
अब पाँसा पलट चुका था। बातें उस मोड़ पर आ चुकी थी जिससे विमल बचना चाह रहा था। झुंझला कर कमल बोला - ‘मेरा तो यही कहना है कि देशद्रोही कोई भी हो, उसके साथ देशद्रोहियों जैसा ही व्यवहार करना चाहिए।’ विमल बोला - ‘देख! देशद्रोही को या तो फाँसी पर चढ़ाया जाता है या देश निकाला दिया जाता है। काँग्रेसियों पर तो तेरा कोई कण्ट्रोल नहीं है। तू ज्योतिरादित्य का कुछ नहीं कर सकता। लेकिन तेरी पार्टी में तो आवाज उठा सकता है कि ज्योतिरादित्य की दोनों बुआओं को पार्टी से फौरन निकाल कर देशद्रोहियों से पल्ला छुड़ाए। मैं जानता हूँ कि तेरी बात कोई नहीं मानेगा। लेकिन एक बार प्रेस नोट तो जारी कर।’ कमल कुछ नहीं बोला। समझाइश के स्वरों में विमल बोला - ‘तू हाँ-ना, कुछ नहीं कह रहा। तेरा मतलब है ‘काँग्रेसी सिन्धिया’ तो देशद्रोही है और ‘भाजपाई सिन्धिया’ देशभक्त हैं? ऐसा नहीं है यार! सिन्धिया खानदान के लोगों पर अलग-अलग पैमाने मत लगा। और वैसे भी कोई भी सीएम बने, इससे अपन दोनों को क्या फरक पड़ता है?’
विमल की इस बात के उत्तर में वह हो गया जो नहीं होना चाहिए था। पता नहीं क्यों और कैसे कमल ने जवाब दिया - ‘तेरी नजरों में खोट है। सिन्धिया घराने की औरतें देशद्रोही नहीं हैं। मैं तो बस एक ही बात जानता हूँ कि ज्योतिरादित्य देशद्रोही परिवार से है और देशद्रोहियों को शासन में नहीं आना चाहिए।’ सुनकर विमल को गुस्सा आ गया। बोला - ‘देख कमल! तेरी यह बात अच्छी नहीं है। मैं तो किसी पार्टी-पोलिटिक्स में नहीं हूँ। लेकिन मेरी नजरों में खोटवाली तेरी यह बात गलत है। मैं तो एक बात जानता हूँ - जिसका बाप एक, उसकी बात एक। अब तेरी तू जान।’
विमल की इस बात के प्रभाव की कल्पना आप कर लीजिए। कमल आपे से बाहर हो गया। उसने विमल से जो कुछ कहा वह लिख पाना न तो सम्भव है और न ही उचित। जेब से पाँच रुपयों का सिक्का निकाल कर चायवाले को देते हुए, ‘मेरी चाय के पैसे इस टुच्चे से मत लेना।’ कहते हुए तेजी से चला गया।
विमल ने गहरी निश्वास ली। करुण दृष्टि से मेरी ओर देखा। बोला - ‘आज वह घड़ी आ गई जिसे मैं बरसों से टाल रहा था। अब तक मैं उसकी झूठी बातें सह-सहकर उसके साथ बना रहा और आज मेरी एक सच बात सुनकर वह मुझे छाड़कर चला गया।’ उसने हम दोनों की चाय का भुगतान किया। तब तक उसकी आँखें भर आई थीं। उसने आकाश की ओर देखा। हाथ जोड़े। अनदेखे-अनचिह्ने को नमस्कार किया। फिर मुझसे बोला - ‘अच्छा बैरागीजी! चलें। आज मैंने अपना बड़ा नुकसान कर लिया। प्रभु इच्छा।’
विमल भी चला गया। अब मैं अकेला ही चाय के ठीये पर बैठा था। हतप्रभ - एक लोकोक्ति को साकार होते देखने का अभाग्य लिए।
मित्रता सत्य की बुनियाद पर ही बनी रह सकती है। विचार भिन्न हो सकते हैं। लेकिन सत्य को स्वीकार करने की क्षमता ही मित्रता को बनाए रखती है।
ReplyDeleteअच्छा है सही वक्त पर मिथ्या मित्रता की कच्ची डोर टूट गई। कभी बेवक्त टूटती तो बहुत चोट पहुँचाती।
बात हार कर खेल जीतना सब के बस की बात नहीं होती और ऐसा खेल भी सब नहीं खेल पाते जिसमें हार किसी की न हो.
ReplyDeleteमित्रता इन बहसों से बहुत बड़ी है..
ReplyDeleteगूढ़ संदेश देती पोस्ट।
ReplyDeleteइस देश और समाज में विमल और निर्मल ही होने चाहियें, कमल जैसों के लिये कोई जगह नहीं होनी चाहिये, सही है न बैरागी जी?
देशद्रोह और देशभक्ति की ऐसी चीर -फाड़ बधाई
ReplyDeleteऔर जहाँ तक दोस्ती का सवाल है कहना चाहिए -यू टू ब्रूटस
आदरणीय बैरागी जी न वो अक्ल मित्र थे न कभी मित्र बन सकते . क्योकि मित्रता में तू मैं , तेरा मेरा , की गुंजाईश नहीं होती. चलो अच्छा हुआ भ्रम टुटा . यही सत्य है
ReplyDeleteबेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना - किसी का राज, किसी की राजनीति, तोड़ रहे अपनी दोस्ती ...
ReplyDeleteबात तो सही है, लेकिन हम - क्या हम सब यही नहीं कर रहे ? किसी से विचार न मिलते हों तो दोस्ती को किनारे कर नहीं देते हम ?
ReplyDeleteक्या यह सोचते हैं कि दोस्त इतना समझ नहीं पाते की कब हम उन्हें अवोइड कर रहे हैं ? वे समझते भी हैं और बात को न बढाने के लिए (विमल की तरह) चुप भी रह जाते हैं, हमें मान देते हैं । लेकिन हम मित्रता के कोई मूल्य नहीं समझते अपनी सुपिरियोरिटी के आगे :(
Mitrta inse dur thi mitr ki baat buri nahi lagati, jahan sahna pare vhan mitrta kaisi.mitr gusse me chup ho jaate,unke maun ko narjagi samjh ham manate or wo jhooth bolte ki main kab gusse hua tujhe manane ki adat pad gayi hai.bas vohi dost hain jo ab bhi yaad aate rakesh
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