काश! रेणुका चौधरी मेरी बहन होती। उन्होंने धापूबाई बैरागी के पेट से द्वारकादासजी बैरागी के घर में जन्म लिया होता। तब वे ऐसा नहीं कहतीं। कहना तो दूर, ऐसा कहने की सोच भी नहीं पाती। उनकी हिम्मत नहीं हो पाती। क्योंकि तब रेणुकाजी ने भी घर-घर भीख माँगी होती और रोटी का महत्व और मूल्य मालूम होता।
दुनियादारी के मामले में मेरा अनाड़ीपन देख (और मेरे इस अनाड़ीपन पर मुग्ध हो), मुझे स्थापित करने (याने मेरी गृहस्थी के लिए दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने) की सदाशयता और शुभेच्छा से यादवेन्द्र भाटी ने मुझे, दवाइयाँ (सायरप/फार्मूलेशन) बनानेवाल एक औद्योगिक इकाई में भागीदार बनाकर रतलाम बुलाया। अगस्त 1977 में, रतलाम आने के लिए मैंने जब अपने गृहग्राम मनासा से अपना बोरिया बिस्तर बाँधा तो पिताजी ने कहा - ‘‘देख! तेरे बड़े भाई के कारण, उससे अपने काम कराने के लिए, तेरे पास बहुत ज्यादा लोग आएँगे। उनकी आवभगत करते समय एक बात याद रखना - ‘घर हई पामणा। पामणा हई घर नी।’’ इस मालवी लोकोक्ति का अर्थ है - अपने घर की स्थिति के अनुसार अतिथि की आव भगत करना, अतिथि की हैसियत के हिसाब से नहीं। 1977 से लेकर इस क्षण तक मैं अपने पिताजी की इस समझाइश पर (1993 में मैं पितृविहीन हो चुका हूँ।) कठोरता से अमल करता चला आ रहा हूँ और कहने की स्थिति में हूँ कि इसी कारण अनेक विपदाओं से बचा रहा, बचता चला आ रहा हूँ।
यूपीए की वर्षगाँठ पर आयोजित भोज में, एक व्यक्ति के भोजन का दाम साढ़े सात हजार रुपये चुकाने को लेकर, पत्रकारों के सवाल के जवाब में कही गई रेणुका चौधरी की यह बात पढ़कर, मैं अपने पिताजी के प्रति एक बार फिर श्रद्धावनत हो गया। काश! मेरे पिताजी, रेणुका चौधरी के भी पिताजी होते या रेणुका चौधरी के पिताजी ने भी, मेरे पिताजी की तरह अपनी बेटी को यह नेक सलाह दी होती।
केवल रेणुका चौधरी को ही नहीं, ऐसी अमानवीय, क्रूर बातें कहनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को कुछ बातें याद रखनी चाहिए। जैसे कि इस देश की आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है, कि देश का योजना आयोग ही कह रहा है कि अधिसंख्य लोग मात्र 26 रुपये रोज पर गुजारा कर रहे हैं, कि देश के प्रत्येक (जी हाँ, प्रत्येक) महानगर, नगर, कस्बे, गाँव में आज भी अन्न क्षेत्रों की आवश्यकता बनी हुई हैं जिनमें प्रतिदिन करोड़ों लोग भर पेट भोजन कर पा रहे हैं, कि करोड़ो लोग प्रतिदिन ही प्रतीक्षा करते हैं कि किसी मन्दिर या अन्य धर्मस्थल पर भण्डारा हो ताकि कम से कम एक वक्त तो वे भर पेट रोटी खा सकें, कि आज भी देश के लगभग प्रत्येक कस्बे/गाँव में, जाति, समुदाय, धर्म के सामूहिक भोज आयोजनों में, कुछ लोग जूठन संग्रहीत कर अपने कल की रोटी सुरक्षित कर रहे हैं आदि-आदि।
रेणुकाजी और रेणुकाजी जैसी बातें करनेवालों को कुछ और बातें भी याद रखनी चाहिए। जैसे कि यह वह देश है जहाँ भोजन करने से पहले किसी याचक की प्रतीक्षा की जाती है, कि यहाँ, अपने भोजन से पहले, गाय और कुत्ते को रोटी दी जाती है, कि यहाँ आदमी को निर्देशित किया जाता है कि सोने से पहले तलाश कर ले कि आज पड़ौसी परिवार ने भोजन किया या नहीं और यदि नहीं किया है तो भला तुम्हें नींद कैसे आ सकती है आदि-आदि।
ऐसे लोगों को कुछ और बातें भी याद रखनी चाहिए। जैसे कि मैत्री में आर्थिक हैसियत कभी बाधक नहीं बनती, कि अपने मित्र कृष्ण से मिलने निर्धन सुदामा जब द्वारका के लिए निकले थे तो उनकी पत्नी ने अपने घर की हैसियत के मुताबिक ‘दो मुट्ठी चाँवल’ की पोटली ही दी थी सुदामा को। झूठी शान दिखाने के लिए न तो किसी से उधारी की थी और न ही किसी से कोई मँहगी चीज माँगी थी, कि सुदामा की इस भेंट को कृष्ण ने जिस आत्मीयता से स्वीकार किया था उसका बखान आज भी पूरा नहीं हो पा रहा आदि-आदि।
ऐसे लोगों को यह तो याद रखना ही चाहिए वे ‘राजा’ नहीं, ‘सेवक’ हैं और कोई ‘सेवक’ यदि इतने गुरूर से, इतनी बदतमीजी से बात करे तो उसे ठोकर मार कर कुर्सी से हटा दिया जाना चाहिए। उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि ऐसी बातों का एक ही मतलब होता है - विनाशकाले विपरीत बुद्धि और यह भी कि जिन पैसों से हमारे ये ‘बदतमीज और मदान्ध सेवक’ गुलछर्रे उड़ा रहे हैं वह पैसा न तो इनमें से किसी के भी पूज्य पिताजी का है और न ही इनके पूज्य पिताजी ने इन्हें दहेज में दिया है। यह पैसा देश के असंख्य मेहनतकश लोगों की गाढ़ी कमाई का पैसा है। जिस देश में एक कप चाय (जी हाँ, वही चाय जिसे मोण्टेक सिंह अहलूवालिया ‘राष्ट्रीय पेय’ बनाने की जुगत में लगे हुए हैं) के लिए करोड़ों लोग, होटलों-सड़कों के किनारे लगे चाय के ठेलों/खोमचे पर चाय पी रहे लोगों के सामने हाथ फैला रहे हों, उस देश में रेणुकाजी सहजता और प्रसन्नता से चाय भी कैसे पी सकती हैं?
ये लोग, भीड़ में सबसे आखिर में खड़े आदमी की चिन्ता करने के लिए भेजे गए थे लेकिन इन्हें तो उसी आदमी की मौजूदगी पर शर्म आ रही है? उसकी चिन्ता करने के बजाय ये तो ‘उन लोगों’ की चिन्ता कर रहे हैं जो इन्हें (हमें और हमारे देश को) आदतन गरियाते, जुतियाते रहते हैं, ‘पान-पन्हैयाँ’ की बात करते हैं और ‘पान’ तो खुद खा लेते हैं और ‘पन्हैयाँ खाना’ हमारे लिए छोड़ देते हैं।
चलिए, रेणुका और इनके जैसे तमाम लोग, ऊपर कही सारी बातें भूल जाएँ। लेकिन यदि यह एक बात इन्हें याद नहीं रह गई है तो इन्हें अपने ‘होने और बने रहने’ पर निश्चय ही शर्म आएगी। बात यह कि इस देश में मोहनदास करमचन्द गाँधी नाम का, दो पसलियों का एक आदमी हुआ था जिसे दुनिया ने ‘महात्मा’ माना और देश ने ‘राष्ट्रपिता।’ अपनी भारत यात्रा के दौरान, वह आदमी जब एक नदी किनारे स्नान कर रहा था, उसकी नजर एक औरत पर पड़ी। वह औरत अपनी आधी साड़ी धो कर पहन रही थी और धुली हुई आधी साड़ी पहनने के बाद, बची हुई आधी साड़ी धो रही थी। दक्षिण अफ्रीका से लौटे, विलायत से बैरीस्टरी पास उस आदमी को बात समझ में नहीं आई। पूछताछ में मालूम हुआ कि उस औरत के पास दूसरी साड़ी नहीं है कि एक साड़ी धो कर दूसरी पहन ले। सुन कर, विलायत से बैरीस्टरी पास वह आदमी ठेठ अन्दर तक हिल गया। पहला काम उसने किया - अपनी चादर उस औरत की ओर बहा दी। और दूसरा काम जो उसने किया, वह काम वह आदमी जिन्दगी भर, गोड़से द्वारा मारे जाने तक करता रहा। वह काम यह कि उस आदमी ने कसम खाई कि जब तक देश का एक भी आदमी नंगे बदन है, वह पूरे कपड़े नहीं पहनेगा। रेणुकाजी को यदि यह आदमी और इस आदमी की यह बात याद नहीं है तो उन्हें अपने ‘होने’ पर और ‘काँग्रेस में होने’ पर कम से कम, एक सेकण्ड के हजारवें हिस्से के लिए ही सही, एक बार तो विचार करना ही चाहिए।
हाँ रेणुकाजी! भले ही आपने गुस्से में कहा हो लेकिन सच कहा। जब देश के अधिसंख्य लोगों के लिए अगली साँस लेना भी दूभर हो रहा हो तब आपको वाकई में मातम मनाना चाहिए, आपके हलक से पानी की बूँद भी नहीं उतरनी चाहिए, आपको एक पल भी नींद नहीं आनी चाहिए। यदि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है तो रेणुकाजी! यह हमारे लिए मातम मनाने के क्षण हैं।
रेणुकाजी! काश! आपने मेरी माँ के पेट से जन्म लिया होता।
ये ए सी संस्कृति की उपज कहाँ ऐसा सोच सकते हैं एक दिन फ़ाका नही किया होगा ज़िन्दगी मे यदि किया होता तो जानती उस दर्द को
ReplyDeleteये चिटठा रेणुकाजी को एक पत्र के रूप में भेजा जाना चाहिए ... ये बताएं की आप करेंगे या में करून ?
ReplyDeleteप्रिय अभिषेक,
Deleteतुम ही भेज दो। वही अच्छा रहेगा। मेरा लिखा मैं खुद भेजूँ, उसके बजाय तुम भेजोगे तो वह अधिक प्रभावी (क्या 'उन' पर प्रभाव होगा?) होगा।
भेज तो दिया है अब देखें कुछ जवाब मिलता है या नहीं ...
Deleteनिश्चिन्त रहो। जवाब तो दूर रहा, प्राप्ति सूचना भी नहीं मिलेगी।
Deleteaaj apne satya aur alochana ke saath purn nyay kiya,yadi amir bhool jaye to maaf kiya ja sakta hai, vidambana yeh hai ki bhikhari bhi satta milte hi apna atit bhool gaye hain aur aisi baat karte hain: rakesh
Deleteसब सौन्दर्यमयी हों
ReplyDeleteसबको अपनी अपनी पड़ी है, आज तो बोल रही थीं कि जो जनता सिलेंडर खरीद सकती है वह आम जनता नहीं है।
ReplyDeleteBHAIYA JI GAJAB KATHAN
ReplyDeleteफेस बुक पर श्री रंजन पँवार, इन्दौर की टिप्पणी -
ReplyDeleteजिन्होंने गाँधीजी की लंगोट 1950 में ही फेंक दी हो, उनसे इतनी सूक्ष्म सोच के अपेक्षा ... असम्भव है। ये तो सत्ता के चाटुकार हैं। मेरी दीवार पर शेयर कर रहा हूँ।
फेस बुक पर श्री राजेन्द्र दलाल,अमेरीका की टिप्पणी -
ReplyDeleteप्रिय विष्णु भाई! इतनी सचाई? ये नेतानहीं सुधरनेवाले।
इस पोस्ट की लिंक साझाा करते हुए, फेस बुक पर श्री शरद श्रीवास्तव, मुम्बई की टिप्पणी -
ReplyDeleteमेरी नानी कहती थी - भूखा प्यासा पडा पडौसी, तूने रोटी खाई कैसे?
मोहनदास गांधी को तो सरकार भूल गयी है बस गांधी ही याद है , उसकी चापलूसी मेँ लगे रहते हैं सब .... रेणुका जी शायद सबसे ज्यादा । सार्थक लेख
ReplyDeletebaba ram dev ne bhi soniya ji ko haryana me ho rahe rape par diye gaye bayaan par yahi bola to renuka ji ne unko apana Muh thik karne ki hidaayat de daali hai
ReplyDeleteसत्ता का अहंकार - एक तो धतूरा, वह भी बबूल चढा ...
ReplyDeleteDhature ki bel nahi hoti, Aadarneey !
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