मैं और मेरी कंजूसी

चाँदनीवालाजी नाराज हो जाते हैं। यूँ तो मेरे प्रति अत्यधिक आदर भाव रखते हैं किन्तु अनुराग उससे भी अधिक। शायद इस अनुराग भाव के अधीन ही लगभग झिड़क ही देते हैं मुझे। कहते - ‘तय करना मुश्किल है कि आप कंजूस अधिक हैं या अशिष्ट।’
 
चाँदनीवालाजी (उनके बारे में आप यहाँ पढ़ चुके हैं) जब भी मुझे मोबाइल पर फोन करते हैं, मैं काट देता हूँ और अपने लेण्ड लाइन फोन से उन्हें फोन लगाता हूँ। मेरी इस आदत से वे बहुत झुंझलाते हैं। कहते हैं कि मैं कंजूस हूँ और उनका फोन काट कर उनका असम्मान करने की अशिष्टता करता हूँ। जवाब में मैं हँस देता हूँ। कहता हूँ - ‘मैं तो दुष्यन्त कुमार की बात पर अमल कर रहा हूँ -

                                   ‘मेरी बचत हो न हो, तेरी बचत ही सही
                                    तेरे बचें या मेरे बचें, दो पैसे बचने चाहिए’
 
वे फिर झुंझला उठते हैं - ‘वो तो ठीक है लेकिन आप मेरा फोन उठाते नहीं, काट देते हो। यह अच्छी बात नहीं।’ मैं फिर हँस देता हूँ।
 
वस्तुतः मैंने अपने लेण्ड लाइन फोन पर भारत संचार निगम की एक योजना ले रखी है जिसके अन्तर्गत प्रति माह मुझसे 149 रुपये वसूल कर लिए जाते हैं और बदले में मुझे, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में, भारत संचार निगम के लेण्ड लाइन और मोबाइल फोनों पर बात करने के लिए कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं करना पड़ता। चाँदनीवालाजी का मोबाइल फोन, भारत संचार निगम का है। सो, जैसे ही उनका नम्बर मेरे मोबाइल के परदे पर उभरता है, मैं फौरन ही काट देता हूँ और वही करता हूँ जो मैंने शुरु में लिखा है। मुझे कोई अतिरिक्त पैसा नहीं लगता और चाँदनीवालाजी के ‘दो पैसे’ बच जाते हैं। यह व्यवहार मैं उन सबके साथ करने की कोशिश करता हूँ जो भारत संचार निगम लिमि. के ग्राहक हैं।
 
चाँदनीवालाजी इसे मेरी कंजूसी कहते हैं। जब वे मुझे झिड़क चुकते हैं तो मैं कहता हूँ - ‘चाँदनीवालाजी! आपको तो खुश होकर मुझे धन्यवाद देना चाहिए कि मैं आपके दो पैसे बचा रहा हूँ। लेकिन आप हैं कि मुझे डाँट रहे हैं!’ वे कहते हैं - ‘आपकी बाकी सारी बातें अच्छी हैं। बस! यह कंजूसी मुझे अच्छी नहीं लगती।’ मैं कहता हूँ - ‘आपका पढ़ना-लिखना, आपकी पी. एच-डी. सब बेकार है। आप तो कंजूसी और मितव्ययता का अन्तर ही नहीं समझते। आप बच्चों को क्या पढ़ाते होंगे?’ उनकी झुंझलाहट और बढ़ जाती है। कहते हैं - ‘आपसे तो बात करना ही बेकार है।’ मैं और बारीक चिकोटी काटता हूँ - ‘तो बात करते ही क्यों हैं?’ अब वे लगभग रुँआसे हो जाते हैं - ‘‘यार! मेरा दिमाग खराब है। आप  ‘जबरा मारे, रोने न दे’ वाली दशा कर देते हैं और मैं हूँ कि आपको फोन लगा देता हूँ। आपको थोड़ी भी दया नहीं आती?’’ मैं कहता हूँ - ‘दया आती है, आपकी चिन्ता होती है, तभी तो आपके दो पैसे बचाता हूँ। पर आप हैं कि समझते ही नहीं।’ वे फिर ‘उछल’ जाते हैं - ‘अच्छा भैया! आप ही सही। मैं भर पाया। आपको आपकी कंजूसी मुबारक। काम की बात करनी थी लेकिन आपने सत्यानाश कर दिया। बाद में बात करूँगा।’ मैं कहता हूँ - ‘जरूर कीजिएगा। बिलकुल इसी तरह।’
अब वे ठठा कर हँस देते हैं - ‘काम कुछ भी नहीं था। बस! आपसे दो बातें करनी थीं। कर लीं। थोड़ा हँस बोल लिया। जी हलका हो गया।’
 
सुन कर मैं अकबका जाता हूँ। मैं तो समझ रहा था कि मैं उनके मजे ले रहा हूँ लेकिन  हो रहा था बिलकुल उल्टा!
 
मुझे कुछ सोचना पड़ेगा। सोचता हूँ - अब, इस मामले में कंजूसी बरतूँ या नहीं?

6 comments:

  1. हमें भी लैंडलाईन पर बहुत सारे मिनिट फ़्री मिले हैं, परंतु हम तो उसका उपयोग ही नहीं कर पाते हैं।

    मोबाईल पर काल उठा लेना चाहिये, और फ़ोन काटना अशिष्टता या कंजूसी दोनों ही कह सकते हैं :)

    पर हमें वाकई ऐसे ही लोग अच्छॆ लगते हैं ।

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  2. मेरे न सही तो तेरे, पैसे कुछ बचने चाहिये।

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  3. खुबसूरत कन्जुशी वाह मजा आ गया .

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  4. क्या हाल हैं श्री चान्दनीवाला के? इसबार रतलाम में मिलना न हो पाया था उनसे या उनके परिवार से।

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  5. फ़ोन काटने से दो पैसे भले बचते हैं लेकिन प्रवाह टूटता होगा! :)

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