मैं जब मोटर में बैठता हूँ
मुझे ताँगे-बुर्जुआ
ऑटोरिक्शे फड़तूस
टेम्पो सड़कछाप
और साइकिलें सर्कसिया लगती हैं!
मैं जब ताँगे में बैठता हूँ
मुझे मोटरें सफेद हाथी
रिक्शे आवारे
टेम्पो भोंडे
और साइकिलें छिछोरी लगती हैं!
ऑटोरिक्शे में बैठने पर
मुझे मोटरें स्नॉब
ताँगे ऐतिहासिक
टेम्पो रिडक्शन-सेल
और साइकिलें कंजूस लगती हैं!
मुझे टेम्पो में बैठने पर
मोटरें दुश्मन
ताँगे तमाशा
रिक्शे फिजूल खर्च
और साइकिलें दयनीय लगती हैं!
जब मैं साइकिल पर होता हूँ
मुझे मोटरें वर्ग-भेद
ताँगे सामन्ती
रिक्शे चोंचले
और टेम्पो यमदूत लगते हैं!
मुझे पाँव-पाँव होने पर
मोटरें, ताँगे, रिक्शे, टेम्पो या सइकिलें
खरगोशी आपाधापी के नुमाइन्दे
और फुटपाथ, कछुआ दौड़ की
सुरक्षित गैलरी सा लगता है!
कभी, मन गति को
कभी मन, दृश्यों को ठगता है!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
मुझे ताँगे-बुर्जुआ
ऑटोरिक्शे फड़तूस
टेम्पो सड़कछाप
और साइकिलें सर्कसिया लगती हैं!
मैं जब ताँगे में बैठता हूँ
मुझे मोटरें सफेद हाथी
रिक्शे आवारे
टेम्पो भोंडे
और साइकिलें छिछोरी लगती हैं!
ऑटोरिक्शे में बैठने पर
मुझे मोटरें स्नॉब
ताँगे ऐतिहासिक
टेम्पो रिडक्शन-सेल
और साइकिलें कंजूस लगती हैं!
मुझे टेम्पो में बैठने पर
मोटरें दुश्मन
ताँगे तमाशा
रिक्शे फिजूल खर्च
और साइकिलें दयनीय लगती हैं!
जब मैं साइकिल पर होता हूँ
मुझे मोटरें वर्ग-भेद
ताँगे सामन्ती
रिक्शे चोंचले
और टेम्पो यमदूत लगते हैं!
मुझे पाँव-पाँव होने पर
मोटरें, ताँगे, रिक्शे, टेम्पो या सइकिलें
खरगोशी आपाधापी के नुमाइन्दे
और फुटपाथ, कछुआ दौड़ की
सुरक्षित गैलरी सा लगता है!
कभी, मन गति को
कभी मन, दृश्यों को ठगता है!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.
नजरिये की अदला-बदली.
ReplyDeleteसब कुछ सापेक्ष ही तो है , निरपेक्ष कुछ भी नहीं |
ReplyDeleteकभी, मन गति को
ReplyDeleteकभी मन, दृश्यों को ठगता है!
कभी, मन गति को
कभी मन, दृश्यों को ठगता है!
यही सापेक्षवाद सभी जगह कार्य करता है .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (07-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
हम आत्मा हो जाते हैं और साधन शरीर..
ReplyDelete
ReplyDeleteकभी, मन गति को
कभी मन, दृश्यों को ठगता है!
-----सारा गति विधान इस सृष्टि का सापेक्षिक ही है .परम गति का अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि गति सापेक्षिक ही हो सकती किसी न किसी के .
साइकिलें ......
ram ram bhai
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रविवार, 7 अक्तूबर 2012
कांग्रेसी कुतर्क
सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति वक़्त वक़्त के तजुर्बे के बाद नजरिया बदल जाता है कवि सरोज कुमार और सांझा करने हेतु विष्णु बैरागी दोनों ही बधाई के पात्र हैं
ReplyDeleteमुझे पाँव-पाँव होने पर
ReplyDeleteमोटरें, ताँगे, रिक्शे, टेम्पो या सइकिलें
खरगोशी आपाधापी के नुमाइन्दे
और फुटपाथ, कछुआ दौड़ की
सुरक्षित गैलरी सा लगता है!
कभी, मन गति को
कभी मन, दृश्यों को ठगता है!
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बेहद सजीव मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...