मेरे कस्बे के, ‘जी. डी. अंकलेसरिया रोटरी हॉल’ के स्वर्ण जयन्ती समारोह की मौखिम सूचना मिली तो थी आत्मीय प्रसन्नता हुई थी। यह सभागार मेरे कस्बे की एक पहचान तो है ही, मेरी अनेक स्मृतियाँ भी इस सभागार से जुड़ी हुई हैं। सूचना मिलते ही पहली भावना मन में आई थी - जरूर जाना है इस समारोह में।
किन्तु समारोह का निमन्त्रण-पत्र पाकर जी उदास हो गया। सुन्दर
आकल्पन और निर्दोष, उत्कृष्ट मुद्रण वाले, नयनाभिराम निमन्त्रण-पत्र में एक अक्षर भी हिन्दी का नहीं था। आयोजन में जाने की भावना तत्क्षण ही ‘अकाल मौत’ मर गई।
यह मानसिकता मुझे आज तक समझ नहीं आई कि किसी अन्तरराष्टीªय संगठन से जुड़ने, उसका हिस्सा होने का अर्थ ‘अंग्रेज हो जाना’ कैसे और क्यों हो जाता है? ऐसे संगठनों की तमाम स्थानीय शाखाएँ, स्थानीय स्तर अपना सारा काम, सारा व्यवहार, सारा सम्वाद स्थानीय भाषा में ही करती हैं। लोगों की तकलीफें, लोगों की भाषा में ही सुनती हैं, उनकी सेवा/सहायता करने हेतु सारे साधन-संसाधन जुटाने हेतु, स्थानीय भाषा में ही आग्रह करती हैं, अपनी सारी उपलब्धियाँ भी स्थानीय भाषा में ही सार्वजनिक करती हैं (ताकि, जनसामान्य प्रेरित/प्रेरित होकर और अधिक सहायता दे), उनके मासिक प्रकाशन भी सामान्यतः स्थानीय भाषा में ही होते हैं। किन्तु जब भी कोई महत्वपूर्ण प्रसंग आता है तो पता नहीं क्यों ‘स्थानीयता’ तिरोहित होकर ‘अंग्रेजीयत’ कब्जा कर लेती है? ‘इण्टरनेशनल’ होने के लिए स्वभाषा का ‘उपेक्षापूर्ण त्याग’ अपरिहार्य हो जाता है? क्या हम अपनी राष्ट्रीयता, अपनी भाषा, अपने संस्कारों, अपनी स्थानीयता के साथ इण्टरनेशनल नहीं हो सकते? और यदि वास्तव में नहीं हो सकते तो क्या हमें इस कीमत पर ‘इण्टरनेशनल’ होना कबूल कर लेना चाहिए? तब हम किस तरह ‘स्वभाषा’ और ‘स्वदेश’ पर गर्व-गुमान कर सकते हैं?
मैं इस आयोजन में नहीं गया। लगा, जाऊँगा तो मेरे अन्दर का गर्वीला ‘घामड़-देहाती’ कहीं ‘ऐसा कुछ’ न कर दे कि आयोजन के बजाय ‘कुछ और’ समाचार बन जाए। सो, नहीं गया।
मैंने कार्यक्रम के बारे में बाद में भी कोई जानकारी नहीं ली। उत्सुकता ही मर गई थी। पता नहीं, समूचा आयोजन हिन्दी में हुआ या अंग्रेजी में। अनुमान भर ही कर पाया कि सब कुछ हिन्दी में ही हुआ होगा।
रोटरी क्लब, रतलाम के मित्र मुझे क्षमा करें। वे सब सामूहिक रूप से और व्यक्तिशः, मुझ पर कृपालु हैं। खूब आदर, प्रेम से बुलाते हैं। खूब मान-सम्मान देते हैं। दो-एक बार मुख्य वक्ता के रूप में भी बुला चुके हैं। इसके बावजूद, यह सब कहने से खुद को नहीं रोक पाया। सब के सब ‘मेरे, अपने’ हैं। मैं भले ही उन्हे ंन समझ पाया होऊँ किन्तु उन सबकी समझ पर मुझे आकण्ठ विश्वास है। वे सब मुझे खूब अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए मेरे इस लिखे पर कुपित होना तो दूर रहा, खिन्न या अप्रसन्न भी नहीं होंगे। उन्हें मेरी सदाशयता पर पूरा विश्वास होगा कि यह प्रकरण तो मात्र एक बहाना है। मूल मुद्दा तो ‘मानसिकता’ है जो केवल, रोटरी क्लब, रतलाम तक सीमित नहीं है।
जब दुनिया के अन्य देश, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के दम पर ‘इण्टरनेशनल’ हो सकते हैं, बने रह सकते हैं तो हम क्यों नहीं ऐसा करते? कर ही नहीं सकते क्या?
होना तो हमें ‘राष्ट्रीय’ चाहिए किन्तु एक क्षण मान लूँ कि वैसा नहीं कर पाए। तो, कम से कम ‘नेशनल’ तो हो ही सकते हैं।
खालिस अंग्रेज..
ReplyDeleteहोना तो हमें ‘राष्ट्रीय’ चाहिए किन्तु एक क्षण मान लूँ कि वैसा नहीं कर पाए। तो, कम से कम ‘नेशनल’ तो हो ही सकते हैं।
ReplyDeleteबहुत कठिन है राष्ट्र की मूल धारा को समझ पाना
इंटरनेश्नल की बात करके आप तो बहुत दूर चले गए जितने भी फिल्म,टी.वी जैसे पुरस्कार और सम्मान के होते है उनमे सितारे और तथाकथित कलाकार रोटी तो हिंदी की खाते है अवार्ड लेकर टिपण्णी अंग्रेजी में ही करते हैं इस तरह रोटरी का यह कृत्य कुछ भी नहीं
ReplyDeleteखरी बात!
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