किसी भी बीमा अभिकर्ता के लिए यह गर्व की बात होती है कि प्रादेशिक विपणन प्रबन्धक उसे आगे रहकर फोन करे। लेकिन मेरे साथ उल्टा हो रहा है। मुझे राकेश कुमारजी से डर लगने लगा है। मोबाइल के पर्दे पर जैसे ही उनका नम्बर उभरता है, मुझे सिहरन होने लगती है। भय के मारे कँपकपी छूटने लगती है। इसलिए नहीं कि वे मध्य क्षेत्र (मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) के प्रादेशिक विपणन प्रबन्धक अर्थात् रीजनल मार्केटिंग मैनेजर हैं अपितु इसलिए कि वे तो अपना काम कर रहे हैं किन्तु मैं अपना काम नहीं कर पा रहा।
राकेश कुमारजी का काम है, हम बीमा अभिकर्ताओं को बीमा करने के लिए कहना, कहते रहना। अपना यह काम वे बखूबी करते हैं। लेकिन मैं हूँ कि अपने स्थापित स्तर और अपेक्षानुरूप बीमे नहीं कर पा रहा हूँ। इसे कहते हैं ‘कर्म-फल’ कि जिस अधिकारी से बात करना हम लोगों के लिए गर्व-गुमान की बात होती है, उसी अधिकारी का फोन आए और मैं सकुचाने लगूँ, डरने लगूँ।
लगता है, राकेश कुमारजी को मेरी हकीकत का अनुमान हो गया है। शायद इसीलिए इस बार जब फोन आया तो मेरे ‘हलो’ कहते ही बोले - ‘घबराइएगा नहीं। आज बीमे की बात नहीं करूँगा।’ मुझे तनिक राहत तो मिली किन्तु न तो डर कम हुआ और न ही झेंप कम हुई। हकलाते हुए बोला - ‘नहीं! नहीं! सर! कहिए। हुकुम कीजिए।’ वे ठठा कर हँसते हुुए बोले - ‘अब तक तो आपने हुकुम माना नहीं और कह रहे हैं हुकुम करूँ! छोड़िए। आज आपसे, ‘पैसे’ को लेकर बात करनी है।’
ब्लॉग पर अपने परिचय में मैंने ‘पैसे’ के प्रति वितृष्णा प्रकट की है। कहा है कि पैसा खुद अकेला रहने को अभिशप्त है और आदमी को अकेला करने में माहिर। मेरी बात का एक ही अर्थ निकलता है - ‘पैसे से दूर रहा जाए।’ राकेश कुमारजी ने इसी बात को विषय बनाया। बोले - ‘आपकी ही बात को मैं दूसरी नजर से देखता हूँ। आप कहते हैं, पैसे से दूर रहो और मैं कहता हूँ, पैसे से नजदीकी बढ़ाओ, उसे पकड़ो, काबू में करो, उस पर सवारी करो। उसे अपने पर सवारी मत करने दो। पैसा आदमी के लिए तभी मुसीबत या आफत बनता है जब वह आदमी पर सवारी कर लेता है, आदमी उसका दास बन जाता है। तब ही, पैसा सर पर चढ़ कर बोलने लगता है।’ बात नई नहीं थी लेकिन अन्दाज एकदम नया था - अनूठेपन की सीमा तक नया।
राकेश कुमारजी बोले - ‘आदमी के पास पैसा होना चाहिए लेकिन अपनी आवश्यकता से अधिक नहीं। आवश्यकता से अधिक पैसा अपने आप में विकृति हो जाता है। इसलिए, कमाते-कमाते जब पैसा अधिक हो जाए, तो उससे छुटकारा पाना शुरु कर दो। बल्कि, आवश्यकता से अधिक कमाओ ही इसलिए कि उससे मुक्ति पा सको।’ मैं चौंका। यह क्या बात हुई? यदि पैसे से मुक्ति पाना ही अभीष्ट है तो उतना कमाना ही क्यों? लेकिन राकेश कुमारजी ने मुझे बोलने का मौका नहीं दिया। मेरी साँसों की बढ़ती गति से मानो ‘सहदेव’ की तरह मेरी मनोदशा का अनुमान कर लिया उन्होंने। उसी तरह हँसते हुए बोले - ‘पैसों के मामले में मुक्ति में ही प्राप्ति है और प्राप्ति भी लोक कल्याण की, सद्भावनाओं और आत्म सन्तोष की।’
अब मैं उलझ गया था। अपनी सीमाओं में रहते हुए कहा - ‘सर! बहुत हो गया। उलझाइए मत। साफ-साफ बताईए।’ उनकी हँसी एक बार फिर खनकी। बोले - ‘इफरात का अहसास होते ही रहीम को याद कीजिए। मात्र दो पंक्तियों में वे बता गए कि पैसे के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए।’ राकेश कुमारजी का इतना कहना था कि मुझे रहीम का दोहा याद आ गया -
पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।।
दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।।
सुनकर राकेश कुमारजी बोले - ‘अब और क्या कहूँ आपको? सब तो मालूम है आपको? आवश्यकता से अधिक पैसे को दोनों हाथों से उलीचिए। खर्च कर दीजिए। आपके पास ज्यादा है तो याद कीजिए कि असंख्य लोग जरूरतमन्द बैठे हैं। उनकी मदद कीजिए, उनकी सेवा कीजिए। उनकी आवश्यकताएँ पूरी हो जाएँगी। आप खुद तो डूबने से बचेंगे ही, असंख्य अनजानों की दुआएँ, सद्भावनाएँ आपकी जीवन यात्रा को अधिक आनन्दमयी, सन्तोषजनक और सहज बनाएगी। आपकी आत्मा सदैव ही अवर्णनीय आनन्द से लबालब रहेगी।’
बात मेरी समझ में आ गई। जी खुश हो गया। मैंने राकेश कुमारजी को धन्यवाद देना चाहा तो एक बार फिर मुझे रोक कर बोले - ‘ना! धन्यवाद मत दीजिए। अब आगे जो कहनेवाला हूँ, वह सुनकर आप खुद ही धन्यवाद देने से रुक जाएँगे।’ मैं फिर चौंका। साँस रोककर उनकी अगली बात की प्रतीक्षा करने लगा। हँसी के क्रम को यथावत् रखते हुए राकेश कुमारजी बोले - ‘आप अनजान लोगों की सेवा का सुख, आनन्द और आत्म सन्तोष हासिल कर सकें, इसके लिए कह रहा हूँ कि खूब बीमे कीजिए, खूब कमाइए। इतना कि आपकी नाव के डूबने का खतरा पैदा हो जाए। तब, दोनों हाथों से पैसा उलीचिए, लोगों की सहायता कीजिए और ईश्वर की वास्तविक सेवा की अवर्णनीय सुखानुभूति से सराबोर हो जाइए।’
मैं कुछ बोलता उससे पहले ही उन्होंने फोन बन्द कर दिया - अपने ठहाके के साथ।
पता नहीं, रहीम का बखाना और राकेश कुमारजी का बताया ‘सयानो काम’ मैं कब कर पाऊँगा। लेकिन राकेश कुमारजी तो अपना काम कर चुके थे - किसी कुशल, दक्ष, विषय विशेषज्ञ की तरह।
पता नहीं, रहीम का बखाना और राकेश कुमारजी का बताया ‘सयानो काम’ मैं कब कर पाऊँगा। लेकिन राकेश कुमारजी तो अपना काम कर चुके थे - किसी कुशल, दक्ष, विषय विशेषज्ञ की तरह।
ReplyDeleteमार्केटिंग ही संवाद की कला है . हमारे यहाँ प्रचलित कहावत इसे व्यक्त करती है इन शब्दों में .
जे हर बेंचे जानथे तेकर, अंकरी बेंचा जाथे.
जे हर नई बेंचे जानय तेकर चना घुना जाथे
हम राकेश कुमार जा से सहमत है, आवश्कता कम करते हैं तो उलीचने को पैसा निकल ही आता है।
ReplyDeleteजानदार आदमी हैं राकेश कुमार जी!
ReplyDeleteराकेश कुमार जी से सहमत - लेकिन व्यवहार में लाना -मोह माया को त्यागना..बहुत संयम मांगता है.
ReplyDeletebhartiy janmanas ne dhan ke prati apna drashtikon sanatan dharm se viprit kar liya,hamare yahan dharm eshvarya,vijay,santosh,shanti ka pratik tha.hum dhan ke swami na hokar trustee hote the(idam na mam).kahawat thi do hatho se kamao or hazar hatho se daan karo,kabhi nahi marunga yeh soch kar kamao or abhi marne wala hun soch kar daan karo.ashawmedh yagya kar vishaw ko jeetate the or phir uttardhikari ko rajya sonp van ko chal dete the.samasya dhan se nahin hai smasya nij ko swami manane ki hai agar dhan bura hota to vishnu lakshmipati na hote samsaya lakshmidaso ki hai jo lakshmi ke liye kuchh bhi kar sakte hain.jabaki sutra hai anek jap upasana dwara dharmpurvak arth ka arjan kar kamnao ko tript kar moksha ki prapti karu. koshish hai bhranti mite bhale log dhanwan ban samaj ko aage le jayen rakesh
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