‘उसने’ कहा था तो मैंने विश्वास नहीं किया था। लगा था, उसका काम नहीं हुआ होगा, इसलिए वह ऐसा कह रहा है। लेकिन अभी-अभी, भाकपा की मध्य प्रदेश इकाई के पाक्षिक ‘लोक जतन’ (वर्ष: तेरह, अंक: उन्नीस, दिनांक 01 से 15 अक्टूबर 2012) में जसविन्दरसिंहजी का, ‘तब के विवेकानंद : अब के बाबा’ शीर्षक लेख पढ़ा तो, ‘उसकी’ अनुपस्थिति में ‘उसकी’ बातों पर विश्वास करना पड़ा।
धर्म के नाम पर ठगी और धोखाधड़ी कर रहे विभिन्न बाबाओं की कारगुजारियों की तथ्यात्मक जानकारियों से भरे इस विचारोत्तेजक लेख में जसविन्दरसिंहजी ने लिखा है - ‘बाजारीकरण के दौर में बाबाओं की बाढ़ सी आ गई है। कई धार्मिक चैनल सुबह से लेकर शाम तक प्रवचन देते हैं। बाबा अपनी मार्केट बनाए रखने के लिए इन चैनलों पर अपने प्रवचन प्रसारित करने के लिए उल्टा पैसा देते हैं।’ लेख का यह अंश पढ़ते ही ‘वह’ याद आ गया।
तेरहवीं के एक आयोजन में वह मिला था। सुन्दर, सुदर्शन व्यक्तित्व। मधुर कण्ठ। प्रभावी, लोकार्षक वाक् शैली। धार्मिक कथाएँ, लोक आख्यान के लिए दूर-दूर तक लोकप्रिय। महीने में कम से कम पन्द्रह दिन तो उसकी ‘बुकिंग’ रहती ही रहती है। उसकी कुछ प्रस्तुतियों का श्रोता मैं भी रहा। उसके कण्ठ से निकले मालवी लोकगीत अपना अलग और अनूठा विश्व रचते हैं। लोकगीत मुझे शुरु से ही आकर्षित करते रहे हैं। अभी भी। सो, मैं उसका प्रशंसक हूँ।
मिलते ही उसने पैर छुए। मैंने हालचाल पूछे। ‘काम-धन्धे’ के बारे में पूछा तो बोला - ‘बहुत अच्छा चल रहा है। आपकी सलाह मान कर इस साल से इनकम टैक्स रिटर्न्स भर कर, टैक्स चुकाने की शुरुआत कर रहा हूँ। आपकी ‘रेकार्डेड इनकम’ वाली बात अब समझ में आ रही है। कथाओं से भरपूर पैसा मिलता तो है लेकिन नम्बर दो का मिलता है। चेक से भुगतान करने के मेरे अनुरोध पर आयोजक खुश हो गए। उन्हें भी इनकम टैक्स में दो पैसे बच जाते हैं।’
मुझे अच्छा लगा। मैं ऐसी ‘फालतू सलाह’ देता तो कइयों को हूँ किन्तु माननेवाला यह अकेला निकला। अनायास ही पूछा - ‘वो तो ठीक है। लेकिन यार! तेरी कथाएँ किसी चैनल पर भी प्रसारित होती हैं या नहीं?’ वह मुझे खूब अच्छी तरह जानता है। सो मेरे सवाल के ‘बचकानेपन’ का बुरा नहीं माना (उसकी बात पूरी होने के बाद मुझे समझ पड़ा था कि मेरा सवाल ‘बचकाना’ था)। हँसा और बोला - ‘इतने पैसे कहाँ दादा!’ मैंने पूछा - ‘क्या मतलब? पैसे तो चैनलवाले देंगे!’ इस बार वह खुलकर हँसा - ‘पता नहीं आप किस दुनिया में रहते हो। दादा! धार्मिक चैनलों पर प्रोग्राम के लिए चैनलवाले पैसे देते नहीं, लेते हैं।’
मुझे विश्वास नहीं हुआ था। उसके भजनों की एक सीडी का प्रसारण मैंने एक धार्मिक चैनल पर देखा था। वही प्रसारण याद आ गया। पूछा - ‘तो फिर वो सीडी?’ वह बोला था - ‘पन्द्रह मिनिट की उस सीडी के लिए बीस हजार चुकाने पड़े थे।’ मैंने आँखें फाड़कर पूछा था - ‘बीस हजार!’ वह जोर से हँसा था - ‘बहुत सस्ता सौदा था दादा वो।’
मेरी दशा देखकर उसने विस्तार से बताया था कि जिन-जिन ‘सन्तों’ के प्रवचन इन धार्मिक चैनलों पर प्रसारित होते हैं, उस प्रत्येक प्रसारण का भुगतान या तो वे ‘सन्त’ खुद करते हैं या उनका कोई भक्त करता है। इन दिनों धार्मिक संगठन भी यह भुगतान करने लगे हैं। किन्तु इससे आगे बढ़कर उसने जो बताया था उसे मैंने ‘गप्प’ माना था। उसने कहा था - -दादा! अधिकांश धार्मिक चैनलें 2013 तक के लिए बुक हो चुकी हैं। इनमें रेकार्डेड और लाइव दोनों तरह के प्रसारण शामिल हैं।’ मेरे अगले सवाल के जवाब में उसने कहा था कि यह सब ‘खर्च’ नहीं ‘इन्वेस्टमेण्ट’ है। एक प्रसारण के दम पर पाँच-सात आयोजन मिल जाते हैं। उसने कहा था - ‘मेरी, उस बीस-हजारी सीडी से मुझे एक-दो नहीं, पूरे सत्रह प्रोग्राम मिले थे। अब बताओ दादा! यह इन्वेस्टमेण्ट है या नहीं?’
उसने जिस लापरवाही से सारी बातें बताई थीं, मुझे कोरी गप्प ही लगी थीं वे सब। किन्तु जब जसविन्दरसिंहजी का यह लेख पढ़ा तो अनुभव हुआ कि तब ‘उसकी’ बातों पर विश्वास न कर मैंने उसके साथ अत्याचार ही किया था।
मैं धर्म के नाम पर हो रहे कर्मकाण्डों, पाखण्डों का शुरु से विरोधी रहा हूँ। धर्म को नितान्त व्यक्तिगत आचरण जानता-मानता हूँ। जानता हूँ कि संगठित धर्म किसी का भला नहीं करता - न तो व्यक्ति का, न समाज का और न ही खुद का। किन्तु धर्म और धार्मिक आयोजनों का उपयोग इस तरह, मार्केटिंग में भी हो सकता है - यह जानकारी मेरे लिए सर्वथा अनूठी थी।
भले ही मुझे ‘पता नहीं किस दुनिया में जी रहे हो’ का उलाहना दिया जाए या मुझे नादान समझा जाए किन्तु यह सब जानकर मैं अत्यधि हतप्रभ, क्षुब्ध और निराश हूँ।
कलयुग में ऐसा संत बालक, धन्य हैं वे करदाता जो देश के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं!
ReplyDeleteआपसे सहमत.
ReplyDeleteग़लत कुछ नहीं है, सब सही सही है :)
ReplyDeleteबाजार के प्रभाव से जब हम और आप अछूते नहीं हैं तो आदर्शों का बोझ अन्य पर क्यों डाला जाये।
ReplyDeleteहमारे अपने स्वार्थों ने भोगवाद को बढ़ावा ही दिया है, परिणामस्वरूप आज बज़ारवाद का बोलबाला है। एक ही नियम है जो दिखता है वही बिकता है। भोग सामग्री का उपयोग भी तो नितांत व्यक्तिगत है फिर भी भोगवाद संगठित रूप से आकृमण कर रहा है। कहीं हमारी ग्राहक बनने की अरूचि ने ही इसे बाज़ार में परिणित तो नहीं कर दिया?
ReplyDeleteखिन्नता तो होती है पर सारा सिस्टम मार्केटिंग और पैकेजिंग पर रहा है अन्दर माल क्या है यह समझ में आते तक तो वारा-न्यारा हो जाता है
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