यह ऐसी कहानी है जिस मैं बार-बार सुनाना और खुद सुनना चाहूँगा।
मेरी नौ दिवसीय स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) यात्रा में उनसे भेट हुई। हुई क्या, मैंने ही उनसे भेंट की। असामान्य व्यवहार करनेवाले मुझे लुभाते-ललचाते हैं। इसीलिए, आगे रहकर उनसे भेंट की। स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) स्थित गीता भवन में, नवरात्रि के दौरान हुए, श्री रामचरित मानस नवाह्न पारायण में वे सबसे अलग बैठते रहे। यथासम्भव अधिकाधिक अकेले। कुछ इस तरह की कोई उनके पास या तो आ ही नहीं सके या फिर आए ही नहीं। रामचरित मानस की प्रति उनके हाथों में रहती तो थी किन्तु वे सबके साथ, लगातार पाठ नहीं करते थे। जब जी चाहा, पाठ किया और जब जी चाहा, चुप रह कर या तो रामचरित मानस की प्रति के खुले पृष्ठों को देखते या फिर शून्य में। और लोगों का ध्यान उनकी ओर गया या नहीं किन्तु मेरा ध्यान उनकी ओर जाता रहा। बार-बार। कुछ इस तरह कि मैं असहज हो गया। इसीलिए अपनी ओर से उनसे मिला। लेकिन उन्होंने रंच मात्र भी उत्साह नहीं जताया।
बार-बार पूछने पर भी उन्होंने अपने बारे में कुछ नहीं बताया। नाम भी नहीं। मुझे उनका नाम मालूम हुआ तो उन्होंने उसकी पुष्टि भी नहीं की। मैं अपनी जिज्ञासा दोहराता रहा और उत्तर में वे मेरी ओर देखते रहते - चुपचाप। उनकी इस प्रतिक्रया ने मेरी जिज्ञासा और बेचैनी में बेतहाशा बढ़ोतरी कर दी। इतनी कि मैं घबरा गया। हार कर कहा कि वे अपने बारे में भले ही कुछ नहीं बताएँ किन्तु यह तो बता दें कि वे ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं। इस बार बोले - ‘हाँ। यह जरूर बताऊँगा। किन्तु एक रिक्वेस्ट है। यह बात आप ज्यादा से ज्यादा लोगों को बताएँगे। खास कर, पैसवालों को।’ मैंने अविलम्ब हामी भर दी।
उनकी कही, कुछ इस तरह है।
वे यदि अरबपति नहीं तो ‘करोड़ोंपति’ तो हैं ही। एक बेटे और एक बेटी के पिता हैं। पति-पत्नी को न तो परस्पर कोई शिकायत है न ही अपने बच्चों से। बच्चों को भी अपने माता-पिता से कोई शिकायत नहीं। परिवार में सब कुछ है - आवश्यकता से अधिक। ईश्वर की विशेष कृपा यह कि किसी को कोई दुर्व्यसन नहीं। किन्तु एक तो धन्धे की प्रकृति और दूसरा लालच, इसी कारण नम्बर दो का पैसा खूब है।
निर्धनों, असहायों के लिए अन्नक्षेत्र चलानेवाले कुछ लोग, कोई दो-ढाई महीना पहले, उनके नगर के कुछ लोग उनके पास आए। अन्नक्षेत्र का काम निहायत साफ-सुथरा है। ऐसा कि लोग स्वयम् चलकर सहायता देने वहाँ पहुँचते हैं। किन्तु इस बार एक विशेष योजना के लिए तनिक अधिक धन की आवश्यकता अनुभव हुई सो अन्नक्षेत्र से सम्बद्ध लोग नगर में चन्दा लेने निकले। इनसे माँगा तो विचित्र व्यवहार कर बैठे। पैसा भी था, देने की इच्छा भी थी किन्तु मन में लालच आ गया और इंकार कर बैठे। माँगनेवाले चले गए और उनके साथ ही बात भी आई-गई हो गई।
योग-संयोग कुछ ऐसा रहा कि इंकारवाली इस घटना के आठ-दस दिन बाद ही इनके यहाँ आयकर विभाग ने छापा मार दिया। उसके बाद वही सब हुआ जो होता है - अखबारबाजी, नगर में सच्ची-झूठी कहानियों का चलना आदि-आदि। जनधारणाओं के अनुसार, ऐसे मामले जिस तरह से निपटाए जाते हैं, इन्होंने भी निपटाया। लेकिन छापे और निपटान की इस प्रक्रिया के दौरान अन्नक्षेत्रवाले लोग इन्हें बराबर और बार-बार याद आते रहे। आयकर विभागवालो से विशेष निवेदन यह किया कि उन्हें जो करना हो कर लें किन्तु मामला जल्दी से जल्दी, अन्तिम रूप से निपटा दें। ऐसे अनुरोध आयकर विभागवालों को शायद ही मिलते हों। सो, थोड़ा कम-ज्यादा करके, प्रक्रिया की सारी कागजी खानापूर्ति निर्णायक रूप से निपटा दी।
प्रकरण का निपटारा होते ही इन्होंने सबसे पहला काम किया - फोन करके अन्नक्षेत्रवालों को बुलाया और ‘यथा-शक्ति, यथा-इच्छा’ अपना योगदान उन्हें सौंप दिया। रकम का अनुमान, अन्नक्षेत्रवालों की प्रतिक्रिया से लगाया जा सकता है - ‘इतना! यह तो हमारी पूरी योजना की जरूरत से भी ज्यादा है!’ ये बोले - ‘जो भी है, कबूल करें। सारा पैसा नम्बर दो का है। मुझे रसीद भी नहीं चाहिए और न ही मेरा नाम इस योजना से जोड़ें।’ अन्नक्षेत्रवालों के हाथ पैर फूल गए। बोले - ‘लेकिन हमें तो रसीद काटनी पड़ेगी!’ इन्होंने कहा कि अन्नक्षेत्रवालों को जो करना हो कर लें, किसी के भी नाम की रसीद बना लें लेकिन इनके बारे में किसी को कुछ नहीं कहें। अन्नक्षेत्रवालों के लिए ऐसा यह पहला मामला था। उन्होंने वहीं से अपने सी.ए. से बात की। जवाब मिला - ‘रसीद बनाने की चिन्ता न करें। पूरी रकम की रसीद बन जाएगी। आप तो पैसे ले आईए।’
इसके बाद से इन्होंने अपनी पत्नी और बच्चों को बुलाया। कहा कि वे कमाई में कोई कमी नहीं करेंगे। सबकी जरूरतें इसी तरह पूरी की जाती रहेगी किन्तु अब नम्बर दो उतना ही करेंगे जितना कि मजबूरी में करना पड़ेगा। किन्तु चाहते हैं कि परिवार अपनी आवश्यकताएँ कम करे, सादगी से जीए और प्रदर्शन से बचे। तीनों ने सहमति जताई और सहयोग का वादा किया।
इसके बाद इन्होंने अपनी तीन कारों में से दो कारें बेच दीं। दोनों बच्चों को उनके मनपसन्द दुपहिया वाहन दिला दिए। मकान कुछ इस तरह बना था कि आधा भाग एक निजी कम्पनी को किराए पर दे दिया। सारा काम काज पूर्ववत ही चल रहा है। लक्ष्मी अटाटूट ही बरस रही है किन्तु अब लेन-देन नम्बर एक में हो रहा है। दो नम्बर में लेन-देन करनेवालो ग्राहकों का तनिक असुविधा हो रही है किन्तु इनका ‘साफ-सुथरा व्यापारिक व्यवहार’ और सामान की, आँख मूँदकर भरोसा करने वाली क्वालिटी के चलते वे भी दुकान बदलना नहीं चाहते। उन्हें तनिक असुविधा हो तो रही है किन्तु साथ दे रहे हैं।
नम्बर दो का पैसा अभी भी भरपूर है। उससे मुक्ति पाने की कोशिशों में लगे हुए हैं। अन्नक्षेत्रवालों से कहा है कि उनके जैसी ही, सच्ची सेवा और साफ-सुथरा काम करनेवाली जरूरतमन्द संस्थाओं को या तो वे खुद खबर कर दें या फिर उनके पते इन्हें दे दें।
सुपात्र को देने से इंकार कर दिया और अपात्रों ने जबराना वसूल कर लिया - इस घटना ने इनके जीवन की दिशा बदल दी। अन्नक्षेत्रवालों को किए गए इंकार से उपजा अपराध बोध अभी भी बना हुआ है। लेकिन मुझे लगा, इंकार से कम और जबरिया वसूली से इन्हें अधिक क्षोभ हुआ होगा और उसी क्षोभ ने इनकी नींद हराम कर रखी होगी। मन की शान्ति तलाश रहे थे। धर्म के नाम पर किए जानेवाले चोंचले इन्हें बिलकुल पसन्द नहीं। किसी अन्तरंग ने गीता भवन की गतिविधियों के बारे में बताया तो यहाँ चले आए। वास्तव में अच्छा लगा। मन को तसल्ली हुई। गीता भवन के काम काज को ध्यान से देखा और पाया कि अब जो भी देना-करना है, यहीं करेंगे। यह निर्णय करने के बाद से बेचैनी में कमी अनुभव कर रहे हैं। अब यहाँ बराबर आते रहेंगे।
मैंने कहा कि उनकी इच्छा के परिपालन में उनकी यह कहानी मैं अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने की ईमानदार कोशिश करूँगा लेकिन अब तो वे अपना नाम बता दें। जवाब मिला - ‘इस चक्कर में क्यों पड़े हैं? मैं अपना जो नाम बताऊँगा वह सच ही होगा, इसकी क्या ग्यारण्टी? मैंने भी तो आपका नाम नहीं पूछा!’ मैंने कहा कि नाम और अता-पता बताने से कहानी की विश्वसनीयता बढ़ जाएगी। बोले - ‘अगली मुलाकात में जान लीजिएगा।’ मैंने कहा - ‘क्या पता कि अगली मुलाकात कहाँ और कब होगी? और यह भी कि क्या ग्यारण्टी कि मुलाकात होगी ही?’ जवाब मिला - ‘जैसे ईश्वर ने यह मुलाकात करवाई, वैसे ही हो जाएगी। और यदि न हो तो मान लें कि ईश्वर की यही इच्छा है।’ मैंने कहा - ‘आपको मेरे बारे में भी जानने की उत्सुकता नहीं?’ हँसकर बोले - ‘बिलकुल नहीं। अगली बार मिलेंगे तो जान लूँगा।’ उनके स्वरों की दृढ़ता के सामने मेरे पास कोई जवाब नहीं था।
इंकार, इंकार में कितना फर्क होता है? उनके एक इंकार का बोझ उनकी आत्मा पर अभी बना हुआ है और अपने बारे में कुछ बताने और मेरे बारे में कुछ जानने को लेकर किए अपने इंकार से कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा?
रोचक संस्मरण ।
ReplyDeleteरोचक के साथ प्रेरक भी।
ReplyDeleteबहुत बढिया ..
ReplyDeleteसिखाती है आपकी रचनाएं !!
एक छोटी सी घटना जीवन को बदल कर रख देती है, आप के इस संस्मरण से मेरी यह सोच और दृढ़ हुई है।
ReplyDeleteऐसा भी होता है. लेकिन सुखद बात है कि बिना नाम बताये वो सज्जन इतना कुछ करना चाहते हैं और ज़्यादातर लोग नाम के चक्कर में पड़े हुए हैं. मन की शांति ऐसी ही है, या तो मिलने में नाकों चने चबवा दे, और अगर मिले तो मालूम नहीं कहाँ पर मिल जाये. बहुत बढ़िया संस्मरण.
ReplyDeleteratlam waapsi par aapka swagat..
ReplyDeleteधन्यवाद दिग्विजयजी।
Deleteऐसे भी लोग होते हैं. सुन्दर संस्मरण.
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