डीआरएम के पाँच रुपये

रतलाम रेल्वे स्टेशन पर दुपहिया वाहनों की पार्किंग व्यवस्था दो जगहों पर है। एक तो पुराने जमाने से चली आ रही पुराने शेड की और दूसरी, गए कुछ वर्षों पहले शुरु हुई है। यह व्यवस्था, स्टेशन के बाहर, खुले में है। इसे प्रीमीयम पार्किंग का नाम दिया हुआ है। दोनों पार्किंगों पर भुगतान पहले करना पड़ता है - वाहन रखते समय। इस प्रीमीयम पार्किंग के काउण्टरवाले से कुछ दिनों पहले मेरा सम्वाद हुआ। सम्वाद रोचक और सूचनादायी लगा। इसीलिए यहाँ दे रहा हूँ।

- पार्किंग का कितना पैसा लगता है?

- दस रुपये।

- दस रुपये? यह तो बहुत ज्यादा है! पासवाले पार्किंग पर तो पाँच रुपये ही लगता है?

- वहाँ का पता नहीं। यहाँ दस रुपये लगता है। प्रीमीयम पार्किंग है।

- इस प्रीमीयम पार्किंग में क्या खास है? वहाँ तो गाड़ियाँ शेड में रखी जाती हैं। यहाँ तो खुले में रखी जाती हैं। इसमें क्या प्रीमीयम बात हुई?

- यही तो प्रीमीयम पार्किंग है।

- लेकिन पार्किंग चार्ज कहीं भी लिखा हुआ नहीं है। न तो कोई बोर्ड लगा है न ही तुम जो स्लिप दे रहे हो उस पर लिखा हुआ है।

- हाँ। कहीं लिखा हुआ नहीं है। मैं कह रहा हूँ वही फायनल है। दस रुपये।

- यह तो गलत बात है!

- गलत है, तो है। चार्ज तो दस रुपये ही है।

- तो एक काम करो। मुझे जो स्लिप दी है उस पर लिख दो - पार्किंग चार्ज दस रुपये।

- नहीं लिखूँगा।

- ऐसे कैसे? जो पैसा ले रहे हो वह कहीं तो लिखा हुआ नजर आना चाहिए! आना चाहिए कि नहीं?

- हाँ। आना चाहिए। लेकिन यहाँ नहीं चलता।

- ये क्या बात हुई? तुम भले ही बीस रुपये लो। लेकिन देनेवाले को मालूम तो होना चाहिए कि उससे कितना पैसा लिया गया है। 

- आप चाहे जो कहो। यहाँ तो ऐसा ही चल रहा है और ऐसा ही चलेगा।

- मैं डीआरएम से शिकायत करूँगा।

- आप एक काम करो। अपना काम निपटा कर आओ। फिर बात करेंगे।

मैं अपना काम निपटा कर लौटा। उसने मेरी स्लिप ली। काउण्टर के पटिए पर रखे सिक्कों में से पाँच का सिक्का उठा मेरी ओर बढ़ाया। मैंने हाथ नहीं बढ़ाया। इसके बाद हमारा सम्वाद कुछ इस तरह हुआ -

- ये आपके पाँच रुपये वापस।

- क्यों? वापस क्यों? तुमने तो चार्ज दस रुपये बताया था?

- हाँ। बताया था। वो गलत है। चार्ज पाँच रुपये ही है।

- तो फिर तुम दस रुपये क्यों माँगते हो और लेते हो?

- कहना पड़ता है और लेना पड़ता है।

- क्यों? क्यों कहना और लेना पड़ता है?

- ये पाँच रुपये डीआरएम के हैं।

- क्या? क्या कहा तुमने? पाँच रुपये डीआरएम के हैं?

- हाँ। ये पाँच रुपये डीआरएम के हैं।

- डीआरएम को पता है कि तुम उनके नाम पर ये पाँच रुपये ले रहे हो?

- हाँ। उनको पता है। उनको ही क्यों? नीचे से ऊपर तक, सबको पता है।

- याने कि तुम्हें पाँच रुपये ही मिलते हैं?

- हाँ। मुझे तो पाँच रुपये ही मिलते हैं। बाकी पाँच डीआरएम को जाते हैं।

- तो अभी जो तुम मुझे पाँच रुपये लौटा रहे हो वो डीआरएम के पाँच रुपये हैं?

- हाँ। वो डीआरएम के पाँच रुपये हैं।

- तो ये पाँच रुपये तुम अपनी जेब से डीआरएम को दोगे?

- नहीं! दो-चार दिन में आपके जैसा शिकायत करने की बात करनेवाला ग्राहक आ जाता है तो उसे दे देता हूँ। इतना एडजस्टमेण्ट तो चलता है। यह भी सब जानते हैं।

- तो यार! जब तुम्हें तुम्हारे पाँच रुपये ही मिलते हैं तो ये दस रुपये लेने की बदनामी और रिस्क क्यों लेते हो?

- करना पड़ता है। मना कर दूँगा तो मेरे पाँच रुपये भी नहीं मिलेंगे। मेरा ठेका केंसल हो जाएगा।

इसके बाद पूछने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रह गया था। मैंने अपने पाँच रुपये लिए और निकल आया।

सोच रहा हूँ कि मैंने अपना हक बचाया या डीआरएम के हक पर डाका डाला?

चित्र की इबारत ध्यान से पढ़िए। सज्जन व्यक्ति का परिचय देने से मना किया गया है। दुर्जन का परिचय चलेगा। चित्र पुराना है लेकिन है रतलाम रेल्वे स्टेशन के इसी प्रीमीयम पार्किंग स्टैण्ड का।

5 comments:

  1. यानि हमेशा उसका दोष नहीं होता जिसका दिखाई देता है।

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - सुनील दत्त और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. आपको फिर भी डीआरएम से शिकायत करनी चाहिए थी..

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  4. यह सब मिली भगत है 10 रुपये नही दो तो हातापाई पे आ जाते है । क्यों 5 रुपये का बोर्ड नही लगाया जाता है ? स्टैंड वाला समझदार था जो उसने आप से बहुत प्रेम से बात की बाकी की किस्मत ऐसी नही होती है।

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  5. मोदी जी भ्र्ष्टाचार मुक्त भारत के सपने देख रहे है । यहां तो पूरे कुँए में भांग मिली हुई है ।

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