अवतार की प्रतीक्षा में निष्क्रिय सज्जन

‘उस अहसानफ़रामोश और निष्ठुर मीडिया को क्या कहिये जो चौबीसों घण्टे अविश्वास प्रस्ताव पर बहस दिखाता रहा। बार-बार राहुल और मोदी के गले मिलने का रीप्ले और उस पर टाइमपास बहस दिखाई गई। भूल गये कि देश का एक सांस्कृतिक राजदूत अपने आखरी सफर पर जाकर आग की लपटों को समर्पित किया जा रहा है। लम्पट नेताओं की बहस के तमाम शब्द बहुत जल्द इतिहास के कूड़ेदान के हवाले कर दिये जाएँगे। आगे-पीछे भुला भी दिये जायेंगे। पर कविवर का लिखा हर शब्द हमारी संस्कृति की मूल्यवान धरोहर है और रहेगा।

‘यक्ष-प्रश्न इतना भर है कि राजनीतिक घटनाक्रम, कला से भी ऊपर है?’

यह सवाल मेरा नहीं। इन्दौर निवासी, मेरे प्रिय मित्र विजय नागर का है जो उन्होंने फेस बुक के जरिए सार्वजनिक किया। वे इन दिनों अपने बेटे के पास इंग्लैण्ड में हैं। नीरजजी और राहत इन्दौरी उनके ‘महबूब कवि/शायर’ हैं। नीरजजी से उनके साक्षात्कार छपे भी हैं। नीरजजी के निधनोपरान्त मीडिया द्वारा की गई उपेक्षा से आहत नागरजी का क्षोभ और आक्रोश इस सवाल में आसानी से, साफ-साफ महसूस किया जा सकता है। कुछ लोगों को (खासकर कलाओं/कलमों को व्यर्थ और हानिकारक माननेवाले राजनीतिकर्मियों को) नागरजी का यह गुस्सा और क्षोभ अतिरेकी लग सकता है। लेकिन इससे मूल सवाल निरस्त नहीं हो जाता। नागरजी का सवाल वाजिब भी है और सामयिक भी।

लेकिन, हवा में उछाला गया यह सवाल अन्ततः है किससे? मीडिया से? शायद नहीं। मीडिया तो खुद एक पक्ष है! तो क्या राजनीतिकर्मियों से? निश्चय ही उनसे तो नहीं ही है। राजनीति (और विशेषतः सत्ता की राजनीति) और कला-कलम का सम्बन्ध तो कभी भी ‘मित्रवत’ नहीं रहा। राजनीति के लिए कला-कलम तो सदैव ही ‘भोग्या’ ही रही - कभी अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए तो प्रायः ही अपनी छवि गढ़ने, गाढ़ा करने के लिए। राजनीति ने कला-कलम को सदैव अपनी आश्रित स्थिति, याचक-मुद्र में ही रखना/देखना चाहा। कभी नहीं चाहा कि ये उसके सामने तनकर, प्रश्नाकुल मुद्रा में खड़ी हों। 

तो फिर यह सवाल किससे है? किसी और से नहीं, खुद अपने आप से। ‘अपने आप से’ याने हम सबसे। मीडिया के इस रवैये से आज कौन दुःखी, चकित, हतप्रभ, क्षुब्ध और आक्रोशित नहीं? लिहाजा यह सवाल हममें से प्रत्येक का है और हममें से प्रत्येक से ही है। जवाब हमें ही देना है और जवाब यदि हमारे पास नहीं है तो हमें, खुद में ही खोजना है।
हम ‘आदर्शप्रेमी’ समाज हैं, ‘आदर्शजीवी’ नहीं समाज नहीं। ऐसा समाज अनिवार्यतः और अन्ततः ढोंगी, पाखण्डी और दोहरा जीवन जीनेवाला समाज ही होता है। हम आदर्शों की दुहाइयाँ देते हैं, उनकी पूजा करते हैं। लेकिन उनके आचरण को अपने जीवन में उतारना तो दूर, उनकी चिन्ता, उनकी सुरक्षा-संरक्षा, देखरेख नहीं करते। हाँ, उनका प्रतीकीकरण कर, उनका महिमा मण्डन भरपूर कर खुद को बरी-जिम्मे मान लेते हैं। खुद से झूठ बोलकर सुखपूर्वक आत्म-भ्रम में जीने का यह सबसे आसान और सर्वोत्कृष्ट उपक्रम है। हमें कठिन काम करने की आदत नहीं।

हम आज भी, आजादी के ठीक बादवाले समय के मीडिया की अपेक्षा किए बैठे हैं। लेकिन यह अपेक्षा करते हुए भूल जाना चाहते हैं कि हम खुद कितना बदल गए हैं। आजादी के ठीक बादवाले समय में ‘हम’ जितना भले, ईमानदार, परोपकारी, देशप्रेमी था, उतना आज नहीं रह गया है। हम सब अपने लिए जी रहे हैं और अपने लिए ही जुटे हुए हैं। यह पढ़कर गुस्सा आएगा। हर कोई कहेगा - ‘मैं ऐसा नहीं हूँ।’ लेकिन कड़वी वास्तविकता यही है - “मानें, न मानें, ‘हम’ ऐसे ही हो गए हैं।” 

लेकिन जैसा कि कहा है, हम ‘आदर्शप्रेमी’ समाज हैं, ‘आदर्शजीवी’ नहीं। इसलिए हम ‘आदर्श’ की दुहाइयाँ देते हुए किसी अवतार की प्रतीक्षा करते रहते हैं। हम खुद तो राम नहीं बनते लेकिन अपने लिए एक राम तलाशते रहते हैं।

यह सवाल और कुछ नहीं, इसी तलाश की बेचैनी है।

यह सच है कि आज के हताशाभरे, भयाक्रान्त समय में आज भी हमें तीन संस्थाओं पर पूरा भरोसा है। ये हैं - न्यायपालिका, अध्यापक और पत्रकारिता (या कि मीडिया)। निस्सन्देह, ये सब भी अब ‘चौबीस केरेट, सौ टंच’ शुद्ध नहीं रह गई हैं। लेकिन फिर भी हमें इन पर भरोसा है और इनसे ही अपेक्षा है। और केवल आज ही नहीं, हर समय, हर स्थिति, हर काल में हमें इन पर भरोसा रहा ही है। ये तीनो संस्थाएँ हमारे लिऐ न्यूनाधिक ‘ईश्वर रूप’ ही रही हैं। इसीलिए, जब इनमें से कोई हमारा भरोसा तोड़ता है तो हम आहत होते हैं और तब ही ऐसे सवाल उठते हैं। लेकिन चूँकि हम सही नहीं होते हैं इसलिए हमारी वास्तविक वेदना को प्रकट करनेवाला सवाल वास्तविक नहीं रह जाता और हवा में उड़ा दिया जाता है। हम इसी के शिकार हो गए हैं।

ऐसा कोई संकट नहीं जिसका समाधान न हो। हमारा सबसे बड़ा संकट है - ‘सक्रिय दुर्जन, निष्क्रिय सज्जन।’ तीन गुण्डे, खुली सड़क पर, पचासों लोगों की उपस्थिति में, एक लड़की के साथ दुराचार करते हैं। लड़की चिल्लाती है। बचाव की गुहार लगाती है। लोग देखते रहते हैं। कुछ वीडियो फिल्माने लगते हैं। लड़की जूझती रहती है, लुटती रहती है। एक भी आदमी बचाने के लिए आगे नहीं आता। जो होना होता है, हो जाता है। वीडियो सोशल मीडिया पर डाल दिया जाता है और पुलिस कटघरे में खड़ी कर दी जाती है। चेनलों को मसाला मिल जाता है। तीन दिन यही समाचार चलता है। डिबेट होने लगती है। दलगत निष्ठाएँ और धर्मिक आग्रह सच पर भारी पड़ने लगते हैं। देखने-सुननेवाले झल्लाने लगते हैं। अन्तिम परिणाम में वही सवाल सामने आता है - ‘मीडिया को कोई और काम नहीं रह गया?’ वे तीन संगठित थे। अपने लक्ष्य के लिए निरन्तर सक्रिय थे। मीडिया भी अघोषित रूप से संगठित है। चौबीस घण्टे की दुकान है इसलिए सक्रिय तो उसे रहना ही है। ‘संगठित और सक्रिय’ अपना काम कर रहे हैं, अपने लक्ष्य हासिल कर रहे हैं। घाटे में है तो केवल ‘हम’, जो न तो संगठित है न ही सक्रिय। बस! अवतार की प्रतीक्षा में बैठा है।

नीरजजी के चाहनेवाले, उन्हें माननेवाले अनगिनत लोग हैं। देश में ही नहीं, दुनिया भर में। मीडिया के इस रवैये पर अधिकांश क्षुब्ध और आक्रोशित होंगे। ये सब एकजुट होकर यदि एक के बाद एक, मीडिया चैनलों को सन्देश भेजते तो ‘रुपया नहीं तो पाई ही सही’, कुछ तो असर होता। चैनलों की अपनी प्राथमिकताएँ, अपना अर्थशास्त्र है। उन्हें तो वह मसाला चाहिए जो उनकी टीआरपी बढ़ाए। उन्हें महसूस होता कि नीरजजी उनकी टीआरपी पर असर डाल रहे हैं तो वे अपनी प्राथमिकताएँ पुनर्निधारित करतीं। इन चैनलों को किसी से मतलब नहीं। उनका ईश्वर तो केवल ‘रोकड़ा’ है। 

नीरजजी तो एक बहाना मात्र हैं। बात वही है - ‘सक्रिय दुर्जन, निष्क्रिय सज्जन।’ अखबार सुधर सकते हैं, मीडिया दुरुस्त हो सकता है, बिगड़ैल नेताओं के मिजाज ठिकाने आ सकते हैं। क्या नहीं हो सकता? सब कुछ हो सकता है। है वही मुश्किल जिसे इंसान मुश्किल मान ले। लेकिन होगा तब, जब कोई करना चाहे। 

और करने की यह चाहत ‘ईमानदार चाहत’ होनी चाहिए। इसमें ‘तेरा-मेरा’ आ गया तो फिर कुछ नहीं होगा। मीडिया इसी तरह मनमानी करता रहेगा, लड़कियाँ भीड़ भरी सडकों पर लुटती रहेंगी, नेता उच्छृंखलता बरतते रहेंगे, ‘पार्टी लाइन’ जीतती रहेगी, ‘हिन्दू-मुसलमान’ की फसल को खाद मिलती रहेगी और ‘हम’ सदैव की तरह आदर्शोंकी दुहाइयाँ देते हुए, हा!हा!कार करते हुए अवतार की प्रतीक्षा करता रहेगा और ऐसे सवाल निरुत्तर बने रहेंगे - प्रलय तक।
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दैनिक 'सुबह सवेरे',भोपाल, 26 जुलाई 2018

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