अब लज्जित नहीं लौटूँगा

यह तो मैं भली प्रकार जानता हूँ कि हम सब दोहरा जीवन जीते हैं - घर में कुछ और, बाहर कुछ और। किन्तु इसमें पूरब-पश्चिम का या कि एक सौ अस्सी अंश का अन्तर हो सकता है, इसी उलझन में डाल दिया मुझे उत्सवजी ने।

सत्तर पार कर रहे उत्सवजी बीते कुछ वर्षों से अस्वस्थ चल रहे हैं। अपने स्वास्थ्य के प्रति वे अत्यधिक चिन्तित और सतर्क रहते हैं। चिकित्सक के परामर्श को ईश्वर के आदेश की तरह मानते और पालते हैं। औषधि सेवन तथा आहर-दिनचर्या की उनकी समयबद्धता और नियमितता अविश्वसनीय होने की सीमा तक विस्मयजनक है। आहार-निषेधों के पालन में चरम-अनुशासित हैं। प्रातःकालीन चाय से लेकर शयनपूर्व त्रिफला सेवन तक, सब कुछ सुनिश्चित समय पर। तय करना कठिन कि वे घड़ी के अनुसार चल रहे हैं या घड़ी उनका अनुसरण कर रही है? उत्सवजी की दिनचर्या से आप अपनी बन्द घड़ी चालू करने के लिए समय मिला सकते हैं।

उत्सवजी की दिनचर्या की नियमितता और औषधि सेवन तथा आहार निषेधों के मामले में उनके दोनों बेटे-बहुएँ चौबीसों घण्टे ‘सावधान मुद्रा’ में कुछ इस तरह रहते हैं मानो वे उत्सवजी की दिनचर्या का अक्षरशः पालन कराने के लिए ही जी रहे हैं। उत्सवजी को बिना रसे की सब्जी नहीं चलती, प्रातःकालीन नाश्ते के उनके व्यंजन सुनिश्चित और सुनिर्धारित हैं। मीठा उनके आसपास दिखाई भी नहीं देना चाहिए और उनकी रोटी पर घी का छींटा भी नहीं पड़ना चाहिए। किसी से मेल-मिलाप, अपना व्यवहार निभाने के लिए बेटों-बहुओं को बाहर जाना हो तो उत्सवजी की दिनचर्या की और आहार व्यवस्थाएँ सुनिश्चित करना पहली और एकमात्र अनिवार्य शर्त होती है।

उत्सवजी से मिलने के लिए जब-जब भी जाता हूँ, तब-तब, हर बार स्वयम् पर लज्जित होकर ही लौटता हूँ। मैं बहुत ही आलसी, अनियमित और अनिश्चित आदमी हूँ। इतना कि साफ-सफाई से नमस्कार कर लूँ तो औघड़ का दर्जा प्राप्त कर लूँ। महीने में दो-तीन दिन (किन्तु लगातार दो-तीन दिन नहीं) तो बिना स्नान किए रह लेता हूँ। यदि किसी पूरे सप्ताह नियमित दिनचर्या निभा लूँ तो मेरी उत्त्मार्द्ध चिन्तित हो जाती हैं - कहीं अस्वस्थ तो नहीं? मेरा तो कुछ भी निश्चित नहीं। कोई नियमित दिनचर्या न निभाना ही मेरी दिनचर्या है। सो, मैं सदैव ही उत्सवजी के सामने निश्शब्द और नत-मस्तक रहता हूँ।

इन्हीं उत्सवजी ने मझे उलझन में डाल दिया। एक प्रसंग में उत्सवजी के साथ घर से बाहर, पूरे दो दिन रहा तो क्षण भर को भी नहीं लगा कि ये वही उत्सवजी हैं। जिस प्रसंग में हम लोग गए थे, वहाँ दैनन्दिन व्यवस्थाएँ तो सब थीं किन्तु सब अनिश्चित। जहाँ सौ-दो सौ लोगों का जमावड़ा हो वहाँ ऐसा होता ही है। न चाय का कोई समय और न ही नाश्ते का। भोजन भी घोषित समय से भरपूर विलम्ब से। मुझे लग रहा था कि इन दो दिनों में उत्सवजी कहीं अस्वस्थ न हो जाएँ। लेकिन उत्सवजी ने मुझे ‘अकारण भयभीत और निरा मूर्ख व्यक्ति’ प्रमाणित कर दिया। उत्सवजी ने एक क्षण भी अनुभव नहीं होने दिया कि वे अस्वस्थ है और किसी आहार निषेध के अधीन चल रहे हैं। इन दो दिनों में उत्सवजी ने वह सब किया जिसके लिए उनके घर में, उनके सामने बात करना भी अपराध माना जाता है। औषधि सेवन की समयबद्धता को तो उन्होंनें खूँटी पर टाँगा ही, दोनों दिन, निर्धारित व्यंजनों से अलग व्यंजनों का नाश्ता किया, कम से कम दो बार बिना रसे की सब्जियों के साथ पूड़ियाँ खाईं, दोनों दिनों के नाश्त में और चारों समय के भोजन में मुक्त भाव से मिष्ठान्न केवल सेवन ही नहीं किया, जो मिठाई अच्छी लगी, उसे दूसरी-तीसरी बार भी ली। मुझे लगा था कि यह अनियमितता वे मुझसे छिपा कर बरतेंगे। किन्तु नहीं, उन्होंने सहज भाव से सब कुछ मेरे सामने, मेरे साथ ही किया और मिष्ठान्न के लिए तो मेरी मनुहारें भी कीं। मैं हर बार, अविश्वास और विस्मित दृष्टि से उन्हें देखता रहा किन्तु उन्हें मेरी इस दृष्टि से क्षण भर को भी असुविधा नहीं हुई। इसके विपरीत, मैं दोनों ही दिन असहज बना रहा।

तीसरे दिन घर वापसी यात्रा के दौरान मैंने उत्सवजी से बात की तो उनके उत्तर ने मुझे जड़ों से हिला दिया। उत्सवजी का कहना था कि घर से बाहर, अपनी सुविधाओं को ताक पर रखकर मेजबान की व्यवस्थाओं में सहयोग करना हमारा दायित्व भी है और शिष्टाचार-सौजन्य की माँग भी। जहाँ तक घर की बात है तो वहाँ तो चरम अनुशासन अपनाया ही जाना चाहिए फिर भले ही घरवालों को असुविधा क्यों न हो। आखिर, वृद्ध और अस्वस्थ सदस्य की चिन्ता करना उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है और अस्वस्थ सदस्य का अधिकार। उत्सवजी ने सहजता से प्रति प्रश्न किया - ‘भला अपने ही घर में मैं समझौते क्यों करूँ? बीमार नहीं हो जाऊँगा?’ मैंने पूछा - ‘घरवालों की सुविधा को ध्यान में रखकर कभी-कभार समझौता करने में, अनियमितता बरतने में हर्ज ही क्या है?’ उत्सवजी ने उसी सहजता से तत्क्षण उत्त्र दिया - ‘घर तो घर है। बाहर का कोई आयोजन थोड़े ही है? और यदि घर में ही समझौते करने लगा तो घर और बाहर में फर्क ही क्या रह जाएगा?’ मैंने पूछा - ‘कभी घरवालों को हमारे सहयोग की आवश्यकता हो तो सहयोग नहीं करना चाहिए?’ उत्सवजी ने सपाट स्वरों में कहा - ‘मेरी चिन्ता करने, मेरी देख-भाल करने के सिवाय उनके पास और काम ही क्या है? और यदि है तो उनकी वे जानें।’

घर आकर, उत्सवजी की अनुपस्थिति में मैंने उनके बेटों-बहुओं से जानने की कोशिश की तो सब फीकी हँसी हँस कर मौन साध गए। हाँ, उनके कुछ अन्तरंग मित्रों ने बताया कि अपने शहर से बाहर ही क्यों, उत्सवजी तो अपने कस्बे में ही, घर से बाहर के आयोजनों में भी इसी प्रकार सारे निषेधों को ताक पर रखकर, सहज भाव से आहार अनियमितता बरतते हैं और अपनी अतृप्त अच्छाएँ पूरी करते हैं।

मुझे अभी भी इस सब पर विश्वास नहीं हो रहा है। घरवालों को ‘थोड़ा बहुत’ परेशान तो हम सब करते हैं किन्तु उनकी चिन्ता करते हुए अपनी सुविधाओं को त्यागने में भी देर नहीं करते। किन्तु उत्सवजी तो आठवाँ आश्चर्य बने हुए हैं। ये सारी बातें सोचते हुए मुझे उत्सवजी पर क्रोध आया। जी किया कि उनकी खबर ले लूँ। किन्तु अगले ही पल अपनी मूर्खता पर झेंप आ गई। भला मेरी क्या औकात कि मैं उत्सवजी को बदल सकूँ? सो, वह विचार छोड़ कर मन नही मन उत्सवजी को धन्यवाद दिया। अब जब भी उनसे मिल कर लौटूँगा तो मुझे स्वयम् पर लज्जा नहीं आएगी।

उत्सवजी! लज्जा भाव से मुझे मुक्त करने के लिए धन्यवाद।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

मुझसे बुरा न कोय

अच्छे लोगों को सुनना-पढ़ना सदैव ही लाभदायक होता है। ‘लाभ’ शब्द सामने आते ही कड़क नोटों की छवि आँखों के सामने आ जाती है और चाँदी के कलदार सिक्कों की खनक कानों में गूँजने लगती है। किन्तु यह लाभ वैसा नहीं होता। कुछ सन्दर्भों में, उसे कोसों पीछे छोड़ देता है। भ्रान्तियाँ नष्ट कर देता है, आत्मा का बोझ हटा देता है, आत्मा निर्मल कर देता है और इस सबसे उपजा सुख अवर्णनीय आनन्द देता है। यह लगभग वैसा ही है जैसे सुगन्ध के किसी व्यापारी के पास बैठना - जब लौटते हैं तो अनेक खुशबुएँ हमारे साथ चली आती हैं। ऐसे ही एक ‘सत्संग’ से मैं अभी-अभी कुछ ऐसा मालामाल हुआ हूँ कि मन के जाले झड़ गए, धुन्ध छँट गई और आत्म ग्लानि में डुबो देनेवाला अपराध बोध दूर हो गया।


मैं इस बात को लेकर क्षुब्ध, व्यथित (और कुपित भी) रहता आया हूँ कि अपने-अपने क्षेत्र में स्थापित, मेरे आसपास के कुछ सम्माननीय, प्रणम्य और ख्यात लोग अपने निजी आचरण में घटिया और टुच्चे क्यों हैं? वे क्यों दूसरों को हेय, उपेक्षनीय मानते हैं? क्यों दूसरों की अवमानना करने के अवसर खोजते रहते हैं? क्यों दूसरो की खिल्ली उड़ाते रहते हैं? यह सब मुझे उनकी गरिमा और कद के प्रतिकूल, अशोभनीय लगता है। ऐसी बातें इन्हें शोभा नहीं देतीं। इन्हीं और ऐसी ही बातों को लेकर मैं मन ही मन कुढ़ता रहता आया हूँ। इन आदरणीयों के ऐसे अनपेक्षित आचरण से मुझे बराबर ऐसा लगता रहा है मानो मेरा कोई अपूरणीय नुकसान हो रहा है। मेरे मानस में स्थापित इन सबकी उज्ज्वल छवियाँ और प्रतिमाएँ भंग होती लगती हैं। होते-होते हो यह गया है कि इनकी सृजनशीलता, अच्छाइयाँ मानो लुप्त हो गईं और इनका अनपेक्षित आचरण ही मन पर पसरने लगा और ये मुझे ऐसे ही लगने लगे जैसे कि नहीं लगने चाहिए थे। गए कुछ समय से मेरी आकुलता मुझे विकल किए दे रही थी। मुझे क्या हो गया है? मैं अच्छा-अच्छा क्यों नहीं सोच पा रहा हूँ?


ऐसे में, फेसबुक पर प्रस्तुत एक आलेख पर, ‘जनसत्ता’ के सम्पादक श्री ओम थानवी की एक टिप्पणी ने मेरी सहायता की। मेरे जाले झाड़ दिए, मेरे मन का बोझ हटा दिया। प्रख्यात समाजवादी चिन्तक श्री अफलातून के एक आलेख पर ओमजी की यह टिप्पणी इस प्रकार है - ‘......यह हमारे हिन्दी समुदाय की बेचारगी है कि राजनीति में तो हम महापुरुष ढूँढ और ओढ़ लेते हैं, लेकिन साहित्य और कला में किसी को विभूति मानने में कष्ट होता है। हिन्दी के महान साहित्यकार, महापुरुष ही नहीं, हिन्दी समाज के पितृपुरुष हैं। मगर ‘गोदान’, ‘शेखर एक जीवनी’ या ‘परती परिकथा’ का लेखक हमारे यहाँ कुछ भी हो सकता है, महापुरुष नहीं। उसे, उनसे चरित्र प्रमाण-पत्र लेना होगा जिनका अपना कोई ठिकाना नहीं है! यह सब हमारे यहीं है, बाहर इस तरह की गाँठें नहीं हैं। एजरा पाउण्ड नाजीवाद का समर्थक होकर भी महान कवि हो सकता है, जड़ विचारों के बावजूद नीत्शे भी। ज्यों जेने (Jean Jenet) हद दर्जे का चोर, लफंगा, घोषित रूप से ‘आदतन अपराधी’ था, लेकिन उसके साहित्य को देखते ज्याँ पॉल सार्त्र ने उन्हें सन्त की पदवी दी। जेने पर सार्त्र की किताब का नाम ही है -सन्त जेने। हमारे यहाँ तो यही खोजते रहेंगे कि प्रेमचन्द के खाते में इतना धन कहाँ से आया, अज्ञेय के किस काम या यात्रा के पीछे सी आई ए का हाथ था।......’ इस टिप्पणी ने मुझे मेरे रोग की जड़ थमा दी।


दोष तो मेरा ही है जो मैं अपने इन आदरणीयों की सृजनशीलता, इनके सारस्वत योगदान को परे सरकाकर इनकी कमियाँ देखने में व्यस्त हो गया। ओमजी की यह टिप्पणी पढ़ने के साथ ही साथ, ‘कथादेश’ में कुछ ही महीनों पहले छपा एक वाक्य भी याद आ गया - ‘हम अपने प्रिय लेखकों को पढ़ना शुरु करते हैं और जल्दी ही प्रूफ की अशुद्धियाँ देखने लगते हैं।’ याने, दोष ‘उनका’ नहीं, मेरा, मेरी नजर का ही है। अपनी विकलता का कारण मैं ही हूँ। अपने निजी आचरण में ‘वे’ कैसे भी हों, मुझे उनके ‘व्यक्तित्व’ की अनदेखी कर उनके ‘कृतित्व’ पर ही ध्यान देना चाहिए था। मैं व्यर्थ ही उन्हें दोष देता रहा। दोषी तो मैं ही हूँ। दोषी ही नहीं, मैं तो अपराधी भी हूँ - उनका भी और खुद का भी। दोष ही देखने हैं तो मुझे तो अपने ही दोष देखने चाहिए जहाँ सुधार की तत्काल आवश्यकता और भरपूर गुंजाइश है। मैं तो दोहरा अपराध करता रहा - ‘उनमें’ कमियाँ देखने का और ‘उनके’ प्रति मन में उपजते रहे आदर भाव की उपेक्षा करने का। किन्तु इसके ‘जुड़वाँ सहोदर’ की तरह इस विचार ने तनिक राहत दी कि यह सब अन्यथा सोचने के पीछे कोई दुराशयता नहीं रही। अब समझ पड़ रहा है कि मेरे इन आदरणीयों के अनपेक्षित आचरण से मैं दुखी केवल यह सोचकर था कि यदि इनमें यह दोष नहीं होता तो सोने पर सुहागा हो जाता। तब मेरे ये आदरणीय सम्पूर्ण निर्दोष, पूर्ण आदर्श होते, इनमें कहीं कोई कमी न हाती। ये अधिक स्वीकार्य, अधिक लोकप्रिय होते, अधिक सराहे जाते, अधिक प्रशंसा पाते और किसी को भी इनकी आलोचना करने का अवसर नहीं मिलता।


मैं यह सब लिख रहा हूँ 30 मार्च की सुबह चार बजे। सूरज की पहली किरण के फूटते ही मैं अपने जीवन के पैंसठवे वर्ष में प्रवेश कर जाऊँगा। इस क्षण मैं ईश्वर से याचना कर रहा हूँ - हे! प्रभु! मेरी दृष्टि निर्मल कीजिए ताकि मैं औरों के दोष नहीं देखूँ। देखूँ तो बस, अपने ही दोष देखूँ। वह विवेक और साहस भी दीजिए कि मैं अपने दोष दूर कर सकूँ।

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रामकिशन यादव! जरा सुनो भैया!!

प्रिय भाई रामकिशन यादव,

तुम्हारे लोक स्वीकृत नाम ‘बाबा रामदेव’ के गगन भेदी जयकारों से व्याप्त कोलाहल के कारण यदि तुम खुद ही अपना वास्तविक नाम भूल चुके हो तो कोई आश्चर्य नहीं। यह स्वाभाविक है। ऐसा होता है। लेकिन आदमी जब वास्तविकता को विस्मृत कर दे तो उसका पराभव शुरु हो जाता है। मुझे यही डर लग रहा है और इसीलिए मैं तुम्हें वास्तविक नाम से और ‘तू-तड़ाक’ से सम्बोधित कर रहा हूँ ताकि तुम चौंको, असहज (और खिन्न, कुपित भी) होकर मेरी ओर देखो और मेरी बात सुनो।


तुम्हारे अतीत को खँगालना मेरा अभीष्ट कदापि नहीं। मैं भली प्रकार जानता हूँ कि हम अतीत की मरम्मत नहीं कर सकते। इसीलिए अपने वर्तमान को बेहतर बनाने के प्रयास करते हुए बेहतरीन भविष्य की बुनावट की जुगत में भिड़ा रहता हूँ। मैं यह भी भली प्रकार जानता हूँ कि मेरा नियन्त्रण केवल प्रयत्नों तक और मुझ तक ही सीमित है। परिणामों पर मेरा कोई नियन्त्रण नहीं है और खूब जानता हूँ कि दुनिया तो दूर रही, मेरी उत्त्मार्द्ध पर भी मेरा नियन्त्रण नहीं है। यदि वह मेरी कोई बात मान लेती है तो यह उसके संस्कार और सौजन्य ही है। ऐसे में मैं यह भ्रम बिलकुल ही नहीं पाल रहा हूँ कि तुम मेरी बात सुनोगे ही और मेरे चाहे अनुसार काम भी करोगे ही, यद्यपि मैं चाहता ऐसा ही हूँ। सो, अपनी बात कह पाना मेरे नियन्त्रण में है और मैं वही कर रहा हूँ। आगे, ईश्वरेच्छा बलीयसि।


गाँधी और जे. पी. (लोकनायक बाबू जय प्रकाश नारायण) के बाद तुम पहले आदमी हो जिसके पीछे भारत के लोग आँख मूँदकर चलने को तैयार हैं। अपनी आदर्शभरी बातों से तुमने जन मानस में आशाओं, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं का ज्वार पैदा कर दिया है। हर किसी को लगने लगा है कि देश की समस्त समस्याओं को नहीं तो कम से कम देश को खोखला कर रहे भ्रष्टाचार को तो तुम समाप्त कर ही दोगे। तुम कर भी सकते हो। किन्तु मैं हतप्रभ और निराश हो रहा हूँ यह देखकर कि जिस रास्ते पर तुम चल पड़े हो उसका अन्तिम मुकाम सुनिश्चित असफलता है।


यह सच है कि संसदीय लोकतन्त्र के चलते केवल राजनीति के औजार से ही सारे बदलाव लाए जा सकते हैं। किन्तु इसके लिए ‘राजनीतिक’ होना जरूरी है, ‘राजनीतिज्ञ’ होना नहीं। मेरी सुनिश्चित धारणा है कि जब तक देश के तमाम लोग ‘राजनीतिक’ नहीं होंगे तब तक हमें हमारे संकटों से मुक्ति नहीं मिल सकती। किन्तु खेद है कि हमारे राजनीतिज्ञों के दुराचरण के चलते लोगों ने ‘राजनीति’ को ही दुराचारी मान लिया है और इसीलिए वे राजनीतिज्ञों को गालियाँ देने के साथ ही साथ को राजनीति को घिनौनी, हेय, और अस्पृश्य मान बैठे हैं। यह ठीक नहीं है।


इस देश में जन नेता तो कई हुए किन्तु लोक नेता दो ही हुए - पहले महात्मा गाँधी और दूसरे जे. पी.। दोनों ने वृत्तियों का विरोध किया था, व्यक्तियों का नहीं। ये दोनों ही ‘राजनीतिक’ थे, ‘राजनीतिज्ञ’ नहीं। गाँधी अंग्रेजों से नहीं, उनकी साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी मानसिकता से असहमत थे। इसीलिए असंख्य अंग्रेज भी ‘साम्राज्ञी’ के प्रति निष्ठावान रहते हुए भी गाँधी के समर्थक थे। इसी सुस्पष्ट और व्यापक चिन्तन के कारण ही अंसख्य काँग्रेसियों ने जे. पी. की आवाज में आवाज मिलाई और जेलों में रहे।


लेकिन लग रहा है कि तुम जाने-अनजाने ‘राजनीतिज्ञ’ बन रहे हो। साफ-साफ समझ लो, ‘राजनीतिज्ञ’ बनोगे तो ‘राम किशन यादव’ बन जाओगे और ‘राजनीतिक’ बनोगे तो न केवल ‘बाबा रामदेव’ बने रहोगे अपितु देश के इतिहास पुरुष भी बन जाओगे।


जो समाज अपने संकटों के लिए भाग्य और भगवान की दुहाइयाँ देता हो, वहाँ क्रान्ति नहीं आ सकती। वहाँ तो केवल अवतारों की प्रतीक्षा होती है। मैं तुममें अवतार देख रहा हूँ। लेकिन या तो तुम्हारा धैर्य चुक गया है या 'राम किशन यादव' की बुद्धि ने 'बाबा रामदेव' के विवेक को ढँक दिया है या फिर तुम भी एक बहुत ही सामान्य व्यक्ति की तरह पैसे और प्रसिद्धि को पचाने में विफल हो गए हो। तुम्हारे लिए भले ही यह हानिकारक हो या न हो, देश के लिए अत्यधिक हानिकारक है।


तुम पर सबकी नजरें गड़ी हुई हैं। और तो और, जो भाजपा आज तुम्हारे साथ खड़ी है, उसी के सांसद और पूर्व केन्द्रीय मन्त्री, हरिद्वार स्थित परमार्थ निकेतन के मुख्य ट्रस्टी स्वामी चिन्मयानन्द तुम्हें ‘आय कर चोर’ घोषित कर चुके हैं। अखबारी खबरों को सच मानें तो उत्त्राखण्ड के (भाजपाई) मुख्यमन्त्री निश्शंक पोखरियाल तुमसे मिल कर, राजनीति से दूर रहने का ‘अनुरोध’ कर चुके हैं। वामपंथी सांसद वृन्दा करात तुम पर श्रमिकों का शोषण करने और तुम्हारे कारखानों में बननेवाली दवाइयों में हड्डियाँ मिलने का आरोप लगा चुकी है। काँग्रेस महासचिव दिग्विजयसिंह तो मानो तुम्हारे जन्मना शत्रु ही हो गए हैं। यह सब इसलिए है क्योंकि कहीं न कहीं तुम और तुम्हारा अभियान पटरी से उतर रहा है और तुम अपने कन्धे दूसरों के लिए उपलब्ध कराते नजर आ रहे हो।


याद रखो कि लोग बोलते भले ही न हों किन्तु वे सब जानते हैं। लोगों को याद है कि 2008 में तुमने खुद ही कहा था कि तुम्हारा (तकनीकी भाषा में ‘तुम्हारे ट्रस्ट का’) कारोबार जल्दी एक लाख करोड़ रुपये हो जाएगा। लोगों की जबानें भले ही बन्द हैं किन्तु आँखों में सवाल है कि 2003 में, अपने सखा बालकृष्ण के साथ, कनखल में तीन कमरों में मरीजांे का उपचार करनेवाले बाबा रामदेव ने मात्र आठ वर्षों मे करोड़ों का साम्राज्य कैसे स्थापित कर लिया? लोगों की चुप्पी में यह सवाल भी गूँज रहा है कि अपने संस्थानों के प्रबन्धन के लिए तुम्हें यादव नामधारी अपने नाते-रिश्तेदारों, भाई-भतीजों पर ही विश्वास क्यों है? ये तो गिनती की कुछ ही बातें हैं। भाई लोग अपनीवाली पर आ गए तो तुम्हारी सात पीढ़ियों की जन्म कुण्डली जग जाहिर कर देंगे और तुम्हें राम किशन यादव बनाकर ही दम लेंगे।


तुम्हें दो सूचनाएँ दे रहा हूँ। पहली सूचना यह है कि इन्दौर, भापाल, ग्वालियर और जबलपुर से प्रकाशित हो रहे एक अखबार ने कल एक सवाल पूछा था - ‘क्या रामदेव काले धन के खिलाफ अपनी मुहिम मे कामयाब होंगे?’ मैं आशा कर रहा था कि इसके उत्त्र में कम से कम नब्बे प्रतिशत लोग ‘हाँ’ कहेंगे। किन्तु मुझे निराश होना पड़ा। केवल 56 प्रतिशत लोगों ने ‘हाँ’ कहा। दूसरी सूचना यह है कि मेरे अंचल में उत्त्म स्वामी नामके एक सन्त का आना-जाना बना रहता है। उनके अनुयायियों में दिन-प्रति-दिन वृद्धि हो रही है। कल वे मेरे कस्बे में थे। पत्रकारों ने उनसे तुम्हारे बारे में पूछा तो उत्त्म स्वामी ने कहा - ‘बाबा रामदेव पर राजनीति के भाव जाग गए हैं।’ तीन लाख से भी कम की आबादीवाले मेरे कस्बे में बैठे हुए जब तुम्हारे बारे में इतनी और ऐसी जानकारियाँ उपलब्ध हैं और ऐसे मन्तव्य सामने आ रहे हैं तो मुझे कष्ट हो रहा है। क्योंकि मैं चाहता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना भी कर रहा हूँ कि तुम और तुम्हारा अभियान सफल हो।


मेरी सुनिश्चित धारणा है कि मँहगे चुनाव ही भ्रष्टाचार की गंगोत्री हैं। चुनावों के वर्तमान स्वरूप में किसी भले, ईमानदार और गरीब आदमी का जीतना तो कोसों दूर की बात रही, उसका उम्मीदवार बनना भी सम्भव नहीं रह गया है। इसलिए तुम यदि सचमुच में भ्रष्टाचार पर प्रहार करना चाहते हो तो अपना पूरा ध्यान चुनाव सुधारों पर केन्द्रित करने पर विचार करो। मतपत्र और मतदान मशीन पर, उम्मीदवारों की सूची के अन्त में ‘इनमें से कोई नहीं’ वाला प्रावधान कराओ। आज अधिकांश लोग केवल इसलिए वोट नहीं देते क्योंकि उन्हें एक भी उम्मीदवार पसन्द नहीं। उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार यदि लोगों को मिलेगा तो न केवल लोग वोट देने आएँगे बल्कि लुच्चों, लफंगों, चोरों, उचक्कों, अपराधियों को उम्मीदवार बनाने से पार्टियाँ भी डरेंगी। यह प्रावधान कराओं कि यदि कोई निर्वाचित आदमी अपने पद से त्याग पत्र देता है तो या तो उसके बाद सर्वाधिक वोट हासिल करनेवाले को विजयी घोषित किया जाए या फिर उप चुनाव का खर्च, त्यागपत्र देनेवाले से या उसकी पार्टी से वसूला जाए। चुनाव आयोग ने बरसों से कई सुझाव सरकार को दे रखे हैं। सरकार से वे सुझाव मनवाने के लिए अपने चुम्बकीय व्यक्तित्‍व का उपयोग करो।



27 फरवरी की तुम्हारी रैली में उमड़े जन सैलाब को, मुम्बई महा नगर पालिका के पूर्व आयुक्त जी. के. खैरनार ने भी सम्बोधित किया था। उनकी बातों पर ध्यान दो। भ्रष्ट सरकार को उखाड़ फेंकना बहुत ही आसान है किन्तु वैसी ही भ्रष्ट सरकार फिर से न बने, यह सुनिश्चत व्यवस्था करना बहुत कठिन है। यह कठिन काम ही अपने जिम्मे लो।


हम सब पर कृपा करो और याद रखो कि लोग ‘बाबा रामदेव’ के आह्वान पर सड़कों पर उतर रहे हैं, 'राम किशन यादव' के आह्वान पर नहीं। राम किशन यादव की महत्वाकांक्षाओं को बाबा रामदेव के विवेक से नियन्त्रित करो। ईश्वर तुम्हें युग पुरुष बनने का अवसर दे रहा है। यदि तुम चूके तो दोष ईश्वर का नहीं होगा। यह तुम्हारा दोष होगा और हम सबका, इस देश का दुर्भाग्य होगा।



लगे हाथों यह भी जान लो कि मैं तुम्हारा प्रशिक्षित योग अध्यापक हूँ और तुम्हारे सिखाए योग की कुछ क्रियाओं से खुद हो स्वस्थ बनाए रखने का नियमित जतन करता हूँ।


थोड़े लिखे को बहुत मानना और मेरी बातों का बुरा जरूर मानना।


तुम्हारा,

विष्णु बैरागी
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इससे कम कोई प्रायश्चित नहीं था

अब मैं तनिक सहज और सामान्य अनुभव कर रहा हूँ। आठ फरवरी वाली ‘राहुल का आभा मण्डल’ शीर्षक अपनी पोस्ट मैंने आज हटा दी है।

आदमी सारी दुनिया से नजर बचा ले, खुद से नहीं बचा सकता। मेरी उपरोक्त पोस्ट पर किन्हीं ‘एनोनीमसजी’ की आई एक टिप्पणी पर प्रतिक्रिया में मैंने जो टिप्पणी की थी, उसकी भाषा और शब्द चयन से मैं उस समय भी सन्तुष्ट और प्रसन्न नहीं था। टिप्पणी में भी मैंने स्वीकार किया था कि मैं अपने भाषा संस्कार से स्खलित हो रहा हूँ जिसका प्रायश्चित मुझे करना ही होगा।
आठ फरवरी की रात कोई नौ बजे, टिप्पणी करने के बाद से अब तक मैं बहुत ही परेशान रहा। ठीक है कि असहमति व्यक्त करने का अधिकार मुझे है। किन्तु यह अभिव्यक्ति भी शिष्ट, संयत और शालीन होनी चाहिए थी। अनुचित भाषा का उपयोग करने के लिए मैंने एनोनीमसजी की भाषा को आधार बनाने का तर्क प्रयुक्त किया था। वस्तुतः यह तर्क नहीं, कुतर्क था। मूर्खता का जवाब मूर्खता से देने की मूर्खता की थी मैंने। मुझे चाहिए था कि मैं अपने संस्कारों पर बना रहता और स्खलित हुए बिना, अपने भाषायी संस्कारानुरूप ही आचरण करता। किन्तु मैंने ऐसा नहीं किया और ईश्वर का तथा खुद का अपराधी बन गया।
अपने इस स्खलन के लिए मैं एनोनीमसजी से, ईश्वर से तथा समूचे ब्लॉग समुदाय से, अपने अन्तर्मन से क्षमा-याचना करता हूँ। जिस किसी को मेरे उस आचरण से ठेस पहुँची हो, आहत हुआ हो, वे सब, उदारता और बड़प्पन बरतते हुए मुझे क्षमा करने का उपकार करें। इससे कम कोई प्रायश्चित मुझे इस समय अनुभव नहीं हो रहा।
यह शायद आयु वार्धक्य का प्रभाव ही है कि मेरा धैर्य अपेक्षया जल्दी चुक जाता है और मैं अविलम्ब ही प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अविवेक कर देता हूँ। मैं यथा सम्भव प्रयास करूँगा कि भविष्य में ऐसा न हो।
ईश्वर मुझे शक्ति तथा आप सबकी शुभ-कामनाएँ प्रदान करे।
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बादल का रंग

नहीं। मैंने शीर्षक गलत नहीं लिखा है। ‘बादल के रंग’ तो शीर्षक है, श्रीपीरूलालजी बादल के काव्य संग्रह का। इस संग्रह के विमोचन प्रसंग पर बादलजी ने जो आपवादिक और साहसी आचरण किया, वही मेरी इस टिप्पणी का शीर्षक है।

जो लोग बादलजी को नहीं जानते उनके लिए उल्लेख है कि बादलजी मालवा के ऐसे लोक कवि हैं जिन्होंने प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में, अपनी कमियों को अपनी विशेषताओं में और अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत में बदल कर समय की छाती पर हस्ताक्षर किए हैं। उनकी रचनाओं में साहित्यिकता तलाश करनेवाले निराश होकर बादलजी को खारिज कर सकते हैं किन्तु बादलजी की रचनाओं मे रचा-बसा ‘लोक-तत्व’ तमाम समीक्षकों/आलोचकों को कूड़े के ढेर पर फेंक देता है। बादलजी के नाम से कवि सम्मेलनों में भीड़ जुटती है और बादलजी के न आने पर दरियाँ-जाजमें सूनी हो जाती हैं। चैन्नई के हिन्दी कवि सम्मेलनों में बादलजी की भागीदारी मानो अनिवार्यता बन गई है। चैन्नई के आयोजकों से बादलजी कहते हैं - ‘अब मुझे क्यों बुला रहे हैं? मेरे पास नया कुछ भी तो नहीं। सब कुछ पुराना है। आप सबका सुना हुआ।’ आयोजक निरुत्तर कर देते हैं - ‘यह तो हमारे सोच-विचार का मुद्दा है, आपका नहीं। आपको तो बस आना है और मंच पर बिराजमान हो जाना है।’ बादलजी सच ही कहते हैं कि उनकी कुछ रचनाएँ चैन्नई के कवि सम्मेलन प्रेमियों के बीच मानो राष्ट्रगीत का दर्जा पा चुकी हैं।

इन्हीं बादलजी के काव्य संग्रह ‘बादल के रंग’ के विमोचन का निमन्त्रण-पत्र देखकर मैं चकरा गया। अध्यक्षता, मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि जैसे सारे निमन्त्रितों में न तो किसी साहित्यकार का नाम था और न ही कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक जैसे किसी प्रशासकीय अधिकारी का। सारे के सारे नाम, लायंस क्लब के मण्डल (डिस्ट्रिक्ट) पदाधिकारियों के थे। निमन्त्रण देने आए बादलजी से मैंने पूछा - ‘यह सब क्या है?’ जवाब मिला - ‘योगेन्द्र सागर से पूछ लीजिए। वही जाने।’ योगेन्द्र सागर याने योगेन्द्र रूनवाल - बादलजी का परम् भक्त और पुस्तक का मुद्रक तथा प्रकाशक। उसे तलाश किया तो मालूम हुआ वह परदेस मंे है। मेरा कौतूहल, अकुलाहट में बदल गया। थोड़े हाथ-पाँव मारे तो रोचक किस्सा सामने आया।

बादलजी शिक्षक रहे हैं। एक नवागत कलेक्टर साहब बादलजी के विद्यालय वाले क्षेत्र में दौरे पर आए। स्थिति कुछ ऐसी हुई कि हर कोई बादलजी का नाम ले और कलेक्टर साहब को पूछे ही नहीं। कलेक्टर साहब को बुरा लगा सो लगा, पता नहीं किस ग्रन्थि के अधीन उन्होंने बादलजी को अपना प्रतिस्पर्द्धी मान लिया। ऐसे में कलेक्टर साहब ने वही किया जो वे तत्काल ही कर सकते थे। गिनती के दिनों में ही बादलजी का स्थानान्तर आदेश आ गया। मामले को ‘कोढ़ में खाज’ बनाते हुए कलेक्टर साहब ने मौखिक आदेश दिया - ‘बादल को अविलम्ब कार्यमुक्त किया जाए।’ स्थानान्तरण होना और कलेक्टर साहब का अतिरिक्त रुचि लेना बादलजी को समझ में नहीं आया। वे ‘साहब के दरबार’ में हाजिर हुए। कलेक्टर ने ‘कवि-फवि’ और ‘साहित्यकार-वाहित्यकार’ की औकात बताते हुए बादलजी को अनसुना ही लौटा दिया। कलेक्टर के इस व्यवहार ने बादलजी के ‘सरकारी कर्मचारी’ को क्षणांश में ही ‘कलमकार’ बना दिया। ठसके से बोले - ‘आपकी आप जानो। लेकिन देखना, तीसरे ही दिन आपका यह आदेश रद्दी की टोकरी में मिलेगा और मैं वहीं का वहीं नौकरी करता मिलूँगा।’

बादलजी कुछ करते उससे पहले ही मन्त्रालय में बैठे उनके प्रशंसकों ने अपनी ओर से फोन किया - ‘घबराइएगा नहीं और कलेक्टर कार्यमुक्त कर दे तो भी चिन्ता मत कीजिएगा। अपने घर में ही रहिएगा। स्थानान्तरण आदेश निरस्त किए जाने का पत्र निकल रहा है।’ बादलजी के मुँह से धन्यवाद भी नहीं निकल पाया। विगलित हो गए। अपनी इस पूँजी पर उन्हें गर्व हो आया। बड़ी मुश्किल से कहा - ‘चिट्ठी डाक से तो भेज ही रहे हो, पहले फेक्स कर दो।’ और चन्द मिनिटोें में ही कलेक्टर की फैक्स मशीन पर बादलजी के स्थानान्तर आदेश की निरस्ती सूचना उतर गई। तीन घण्टों मे ही तीन दिन पूरे हो गए।

उसके बाद हुआ यह कि बादलजी तो अपने शब्द-संस्कार के अनुसार चुपचाप नौकरी करते रहे लेकिन कलेक्टर ने बादलजी के विद्यालयवाले क्षेत्र में आना-जाना कम कर दिया। तभी जाते, जब जाना अपरिहार्य होता।

इसी घटना ने ‘बादल के रंग’ के विमोचन से ‘कलेक्टर-फलेक्टर’ और ‘अफसरों-वफसरों’ को अस्पृश्य बना दिया। बादलजी ने योगेन्द्र से कुछ ऐसा कहा - ‘कविता की समझ रखनेवाले, सड़क पर जा रहे किसी भी आदमी को बुला लेना, किसी समझदार चपरासी को बुला लेना लेकिन जो साहित्य का स, कविता का क और लेखन का ल भी न समझे ऐसे किसी कलेक्टर, एसपी का हाथ तो क्या, हवा भी मेरी किताब को मत लगने देना।’ और योगेन्द्र ने बादलजी का कहा शब्दशः माना। जो उसके बस में थे, उनसे विमोचन करवा लिया। बादलजी के कवि-मित्रों को इस आयोजन की सूचना जैसे-जैसे मिलती गई वैसे-वैसे ही, इस प्रसंग पर कवि सम्मेलन आयोजित होने की पीठिका स्वतः ही बनती गई। बादलजी ने कहा - ‘मैं पारिश्रमिक नहीं दे पाऊँगा।’ कवि-मित्रों ने ठहाकों में बादलजी का संकोच कपूर कर दिया।

इस तरह 22 जनवरी को बादलजी के काव्य संग्रह ‘बादल के रंग’ का विमोचन-यज्ञ, आत्मीयता भरे अच्छे-खासे जमावड़े के बीच सम्पन्न हुआ जिसमें कवि-मित्रों ने रात दो बजे तक आहुतियाँ दीं।

बादलजी का संग्रह कैसा है, इस पर मुझे कुछ भी नहीं कहना है। मुझमें कविता की सूझ-समझ जो नहीं है। किन्तु जिस समय में अच्छे-अच्छे, स्थापित रचनाकार, अफसरों से सम्पर्क बढ़ाने की जुगत भिड़ाते हों, प्रांजल शब्दावली में भटैती-चापलूसी करते हों, उनके सम्पर्कों से अपने स्वार्थ सिद्ध करते नजर आ रहे हों और जिन आयोजनों में उपस्थित होकर खुद अधिकारी सम्मानित अनुभव करते हों, ऐसे आयोजनों के निमन्त्रणों की प्रतीक्षा करते हों, ऐसे समय में जब किसी छोटे से कस्बे का औसत लोक-कवि शब्द सम्मान की रक्षा में ‘सीकरी’ को, जूते खोलने वाली जगह से भी वंचित कर दे यह अपने आप में आश्वस्त और गर्व करनेवाली घटन होती है। यही है बादलजी का वह रंग जिसे बिखेरने के लिए मैंने यह सब लिखा।

और चलते-चलते यह भी जान लें कि जिन कलेक्टर साहब ने बादलजी के साथ यह सब किया था, वे कलेक्टर साहब कुछ बरस पहले प्रदेश के भ्रष्ट आई. ए. एस. अफसर के रूप में सूचीबद्ध किए गए और और आज तक वहीं टँगे हुए हैं।
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रमेश का फोटू क्यों छपे?

यह इसी 19 जनवरी की बात है। बैंक ऑफ बड़ौदा पहुँचा तो प्रकाशजी अग्रवाल और (कल मना मेरा वास्तविक हिन्दी दिवस वाले) जयन्तीलालजी जैन को अतिरिक्त प्रसन्न पाया। मुझे देखा तो प्रकाशजी चहक कर बोले - ‘अरे! वाह!! आज तो आप हमारे लिए ही आए हैं। अब यह काम आपकी मौजूदगी में ही करेंगे।’ जयन्तीलालजी भी ‘हाँ! हाँ!! बिलकुल।’ कहते हुए प्रकाशजी की चहक में शामिल हो गए। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया।

पूछा तो प्रकाशजी ने कहा - ‘यह रमेश है। आज इसने अपना लोन पूरा चुका दिया है। हम इसे सम्मानित कर रहे हैं। अब आपकी उपस्थिति में यह काम करेंगे।’ मुझे ताज्जुब हुआ। अपना लोन चुकाना इतनी बड़ी और ऐसी बात हो गया कि बैंक अपने ऋणग्रहीता का सम्मान करे? कर्ज चुकाना अब असामान्य घटना हो गई? लेकिन प्रकाशजी ने जब पूरी बात बताई तो मानना पड़ा, यह अभूतपूर्व भले ही न हो किन्तु असामान्य और रेखांकित किए जाने योग्य तो है ही।

यहाँ चित्र में रमेश और उसकी पत्नी माँगीबाई को आप देख ही रहे हैं। रमेश ने, राज्य सरकार की एक योजना के अन्तर्गत, ठेला खरीदने के लिए 1700/- रुपयों का ऋण, 20 अप्रेल 2010 को लिया था। इसका भुगतान उसे 36 माह में करना था। याने मोटे तौर पर अधिकतम 48 रुपये प्रति माह। ब्याज की रकम अलग से जोड़ लें तो यह मासिक किश्त अधिकतम 55-60 रुपयों के आसपास ही बैठती। किन्तु रमेश ने कभी 150, कभी 300 तो कभी 500 रुपये जमा कर, अपना कर्जा 19 जनवरी को ही पूरा चुका दिया। याने कुल नौ महीनों में ही - निर्धारित अवधि से लगभग आधे समय में ही।

प्रकाशजी और जयन्तीलालजी, रमेश और माँगीबाई को शाखा प्रबन्धक के चेम्बर में ले गए। मुझे भी बुलाया। फोटोग्राफर लगन शर्मा को पहले ही बुला लिया गया था। शाखा प्रबन्धक कोठीवालजी ने रमेश को माला पहनाई। एक थर्मस भेंट किया। लगन के केमरे की फ्लश तीन-चार बार चमकी। हम सबने तालियाँ बजाईं। इस सबमें मुश्किल से पाँच मिनिट लगे होंगे।

हम सब बाहर आए। मैं रोमांचित था। लग रहा था, किसी अभूतपूर्व, ऐतिहासिक पल का साक्षी बना हूँ। मैंने रमेश से कहा - ‘तुम बहुत अच्छे आदमी हो। मुझसे अच्छे। हम सबसे अच्छे। ऐसे ही बने रहना।’ उसकी पत्नी माँगीबाई को मैंने विशेष रूप से अभिनन्दन किया। कहा - ‘तुम्हारे कारण ही रमेश इतना अच्छा काम कर पाया है। तुमने इन रुपयों को घर खर्च के लिए नहीं रोका और रमेश को कर्जा चुकाने दिया।’ रमेश और उसकी पत्नी ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया। पता नहीं, मेरी बातें दोनों तक पहुँची भी या नहीं।

वह दिन और आज का दिन। वे पाँच मिनिट मेरी यादों के बटुए में ऐसे रखे हुए हैं जैसे कोई पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व का अमूल्य सिक्का। पाँच मिनिटों का स्पर्श मुझे कुन्दन-चन्दन स्पर्श जैसा लग रहा है।

इस समय मुझे याद आ रहा है - गए दिनों मेरे प्रदेश में ख्यात व्यापारियों, उद्योगपतियों, रीयल इस्टेट के व्यवहारियों पर पड़े छापों में लगभग एक सौ करोड़ की कर चोरी पकड़ाई गई है। इनमें आईएएस जोशी दम्पति के 350 करोड़ शामिल नहीं हैं। मुझे यह भी याद आ रहा है कि अनिल अम्बानी के यहाँ भी कर चोरी पकड़ी गई थी और सरकार ने अम्बानी पर कुछ करोड़ रुपयों का जुर्माना किया था। इनमें से अधिकांश के सचित्र समाचार विस्तार से प्रकाशित हुए थे।

प्रकाशजी ने रमेश के सम्मान का सचित्र प्रेस नोट जारी करने की बात कही थी तो मैंने मना किया था। खूब अच्छी तरह जानता था, रमेश का चित्र कहीं नहीं छपेगा। प्रकाशजी नहीं माने और पछताए। केवल एक अखबार ने रमेश का समाचार छापा वह भी भर्ती के समाचारों के रूप में।

छपे भी तो क्यों और कैसे? हम पूँजी के पुजारी बन चुके हैं और अर्थशास्त्र के नियम को साकार कर रहे हैं - खोटी मुद्रा, खरी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। रमेश नहीं जानता कि वह अपने खरेपन के कारण उपेक्षित हुआ है। यदि वह भी बैंक का कर्जा नहीं चुकाता तो शायद उसका भी फोटू कभी अखबार में छपता - फिर भले ही बैंक के, बकाया कर्जदारों के विज्ञापन में छपता।

हम आत्मा के मारे लोगों के नहीं, मरी आत्माओंवाले लोगों के हीफोटू छापेंगे। रमेश का फोटू किस काम का? हम बाजार बन गए हैं और बाजार की माँग तो अम्बानियों, कलमाड़ियों, राजाओं के फोटू ही पूरी करते हैं!

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हाँ, भ्रष्ट प्रधानमन्त्री चलेगा

मँहगाई दूर करने के लिए हमारे पास कोई जादुई चिराग नहीं है - वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी का यह वक्तव्य आज अखबारों में देखा। उससे पहले कल छोटे पर्दे पर, यही सब कहते हुए उन्हें देखा भी। ऐसा कहनेवाले वे पहले केन्द्रीय मन्त्री नहीं थे। शरद पँवार पहले ही यही सब कह चुके थे - शब्दावली भले ही थोड़ी अलग थी।

प्रणव मुखर्जी जब यह कह रहे थे तो मैं बड़े ध्यान से उनकी मुख-मुद्रा देख रहा था। उनके चेहरे पर चिन्ता, उलझन, झुंझलाहट या शर्म की तो बात ही छोड़ दीजिए, झेंप जैसे किसी भाव की एक लकीर भी नजर नहीं आ रही थी। बड़ी सहजता, साहस और सम्पूर्ण आत्म विश्वास से यह सब ऐसे कह रहे थे जैसे इन बातों से उनका कोई लेना-देना ही नहीं है। कुछ इस तरह से कह रहे थे मानो किसी का सन्देश देश के लोगों को सुना रहे हों जिससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें सुनते हुए गोपियों को सन्देश देने वाले उद्धव याद आ रहे थे।

यह कैसा बदलाव है? नेता पहले भी होते थे (अपितु, पहलेवाले नेताओं में से कई नेता तो अभी भी कुर्सियों में बैठे हैं), चुनाव पहले भी होते थे, चन्दा पहले भी लिया जाता था और चन्दा देनेवालों के काम पहले भी किए ही जाते थे। लेकिन तब नेता ऐसे अनुत्तरदायी, सीनाजोर, निस्पृह, निर्लज्ज नहीं हुआ करते थे। नागरिकों की तकलीफें उन्हें असहज कर देती थीं। जिनसे चन्दा लिया करते थे, उन्हें मनमानी करने की छूट नहीं देते थे। उन्हें केवल दिखावे के लिए नहीं, सचमुच में गरियाते, धमकाते थे और जरूरी होता था तो उन पर कार्रवाई भी करते थे। चन्दा देनेवाला निश्चिन्त नहीं हो जाता था। डरता रहता था कि यदि उसने ‘अति’ की तो बख्शा नहीं जाएगा।

मैं अतीतजीवी नहीं। किन्तु आज सब कुछ एकदम उल्टा (या कि पहले जैसा सब कुछ अनुपस्थित) देख कर बीता कल अनामन्त्रित अतिथि की तरह आ बैठ रहा है। जो कल तक चन्दा देते थे, आज विधायी सदनों में बैठे हैं और अपने अनुकूल नीतियाँ बनवा रहे हैं, निर्णय करवा रहे हैं। अब वे अनुरोध नहीं करते, इच्छा-पूर्ति न होने पर निर्देश दे रहे हैं। मन्त्री उनके कारिन्दों की तरह अनुज्ञावर्ती बने हुए हैं।

मेरे पुलिसिया मित्र कहते हैं - पुलिस काम नहीं करती, पुलिस का ‘जलवा’ काम करता है। ‘जलवा’ याने वर्दी। बिना वर्दीवाला पुलिसकर्मी पिट जाता है और वर्दीवाला एक पुलिसकर्मी सैंकड़ों की भीड़ की पिटाई कर देता है। इसी तरह सरकार नहीं चलती। सरकार का जलवा चलता है। लेकिन जलवा हो तो चले! सबका पानी उतर गया है।

ऐसा क्यों न हो? पहलेवाले नेताओं मे आत्म बल और नैतिक बल होता था। उन्हें आम आदमी की तकलीफें खूब अच्छी तरह मालूम होती थीं। वे आम आदमी के बीच से जो आते थे! आज तो हमारी संसद में लगभग आधे सदस्य करोड़ोंपति और कुछ अरबपति हैं। जिन्हें छूने के लिए लू के झोंके को पसीना आ जाए, वे उन लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो बीस रुपये रोज भी बमुश्किल हासिल कर पा रहे हैं! हमारा प्रधानमन्त्री ‘निर्वाचित जन प्रतिनिधि’ नहीं है। उसे पता ही नहीं कि दिहाड़ी मजदूरी हासिल करने के लिए मजदूरों की मण्डी में कितनी मारामारी बनी हुई है। हमारा प्रधानमन्त्री राज करता हुआ नहीं, देश को ‘मेनेज’ करता हुआ दिखाई दे रहा है - किसी वेतन भोगी कर्मचारी की तरह। मैं खुद कहता रहा हूँ (और इस क्षण भी विश्वास करता हूँ) कि ईमानदारी आदमी को अतिरिक्त नैतिक बल देती है। लेकिन हमारे प्रधानमन्त्री की ईमानदारी को उनके सहयोगी मन्त्रियों ने जिस तरह अप्रभावी और निरर्थक साबित कर दिया है वह देख कर कहने को जी करता है - प्रधानमन्त्रीजी! आपकी ईमानदारी तो अब चाटने की चीज भी नहीं रह गई है। आपकी जिस ईमानदारी से, आपके सहयोगियों में भय पैदा हो जाना चाहिए था उससे तो अब आपके प्रति आदर भाव भी पैदा नहीं हो रहा।

बरसों पहले दो स्थितियों का वर्णन पढ़ा था। पहली - मेरा राजा ईमानदार, चरित्रवान, कर्मठ, सादा जीवन जीनेवाला, दयालु और निष्पक्ष है। किन्तु मेरे देश के लोग बेहद गरीब हैं, भ्रष्टाचार, गरीबी, मँहगाई, अन्याय, सरकारी अत्याचारों से बेहाल हैं। दूसरी स्थिति - मेरा राजा बेहद भ्रष्ट, बेईमान, चरित्रहीन, विलासी, लम्पट, धूर्त और खर्चीली जिन्दगी जीता है। किन्तु मेरे देश में गरीबी नहीं है, लोग भूखे नहीं सोते, रोटी-कपड़ा-मकान की समस्या नहीं है, लोग चैन की नींद सोते हैं, चारों ओर अमन-चैन है।

अब तो यही कहने को बचा है कि माननीय प्रधानमन्त्रीजी! आपकी व्यक्तिगत ईमानदारी का वांच्छित प्रभाव कहीं नहीं हो रहा है और उसका कोई राष्ट्रानुकूल परिणाम तो मिल ही नहीं रहा है। आपकी ईमानदारी देश पर भारी पड़ रही है।

हमें परिणामदायी प्रधानमन्त्री चाहिए। आपकी ईमानदारी यदि जनहितैषी अपेक्षित परिणाम देने में सहायक नहीं होरही है तो कृपया भ्रष्ट हो जाईए। हमें चलेगा।
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अलविदा बापू

आज मुझे अपनी ओर से कुछ भी नहीं कहना है। ‘नईदुनिया’ (इन्दौर) में, कल प्रकाशित समाचार की कतरन यहाँ प्रस्तुत है। सुविधा के लिए इस समाचार को जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूँ -

गाँधीजी गुप्त रास्ते से विलायत गए थे
इन्दौर। चौंक गए न शीर्षक पढ़कर। इससे आपको हँसी भी आएगी और दुःख भी होगा। दरअसल यह एक साधारण से प्रश्न का जवाब है जो कॉलेज के विद्यार्थियों ने अपनी उत्तरपुस्तिका में लिखा है। सवाल के जवाब में एक छात्र ने बताया कि गाँधीजी गुप्त रास्ते से विलायत गए थे। हाल ही में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय की प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा में बीए तथा बीएससी के हिन्दी के प्रश्न पत्र में एक प्रश्न किया गया था कि गाँधीजी किस रास्ते से विलायत गए थे। इस पर कई छात्रों ने हैरत में डालने वाले जवाब दिए हैं। कुछ जवाबों की बानगी देखिए - गाँधीजी पहाड़ी रास्ते से, गुप्त रास्ते से, कुमाऊँनी रास्ते से, सीधे तथा सत्य के रास्ते से विलायत गए थे।

एक सवाल और पूछा था कि स्वामी विवेकानंद ने भारत के सभी अनर्थों की जड़ किसे माना है? इस पर भाइयों ने लिखा है कि दिल्ली सरकार, भारत सरकार, भारत-माता, हिन्दू धर्म, आराम, राजनीति, फिल्में, राष्ट्रीय एकता और जनाब एकता कपूर हैं भारत के सभी अनर्थों की जड़।
दूध के पर्यायवाची साँची-अमूल
बीकॉम के छात्र भी कम नहीं हैं। वे तो महात्मा गाँधी का पूरा नाम तक नहीं बता पाए। इस तरह लिखा है उन्होंने पूरा नाम मोहनलाल गाँधी, क्रमचंद गाँधी, कर्मचंद्र गाँधी, श्रीचंद गाँधी, बापू, राष्ट्रपिता, मुरली, मुन्ना और न जाने क्या-क्या। कॉलेज में पढ़ रहे इन विद्यार्थियों का अगर यह स्तर है तो यह विचारणीय है कि इनका भविष्य कैसा होगा? हाँ, दूध के पर्यायवाची अमूल और साँची लिखे गए हैं।
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अब राजस्थान रोडवेज की बारी?

भगवान करे, मेरा अन्देशा केवल अन्देशा बनकर ही रह जाए। यह कभी सच न हो और राजस्थान राज्य परिवहन निगम का भट्टा कभी न बैठे।

परसों, पहली फरवरी को मैंने रतलाम से मन्दसौर तक की यात्रा, राजस्थान राज्य परिवहन निगम याने राजस्थान रोडवेज की रतलाम-उदयपुर बस (नम्बर RJ27/PA 1838) से की और कण्डक्टर का ‘आर्थिक आचरण’ देखकर मुझे लग रहा है कि राजस्थान रोडवेज की दशा भी मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम जैसी होने में अब देर नहीं है। इसका भट्टा बैठना ही बैठना है।

सुबह कोई पौने सात बजे जब यह बस चली तो हम कोई पचीस यात्री इसमें थे। कस्बे से बाहर निकलते ही कण्डक्टर ने यात्रियों से किराया लेना शुरु किया। उसे बहुत देर नहीं लगी। पन्द्रह मिनिट से भी कम समय में उसने सबसे किराया वसूल लिया। मेरे पास आया तो मैंने किराए की रकम पूछी। उसने कहा - ‘साठ रुपये।’ रुपये देते हुए मैंने कहा - ‘अपने यात्रा बिल में लगाने के लिए मुझे टिकिट लगेगा। टिकिट साफ-साफ बनाइएगा जिसमें किराए की रकम और यात्रा का गन्तव्य बिना कठिनाई के पढ़ा जा सके।’ ‘आप टेंशन मत लो।’ कह कर वह इत्मीनान से अपनी सीट पर बैठ गया।

कस्बे से 6-7 किलोमीटर दूरी पर स्थिति इप्का लेबोरटरीज पर 12-15 लोग उतर गए। इनमें से प्रत्येक से उसने 5-5 रुपये वसूल किए थे।

अब बस में हम 10-12 यात्री बचे थे। जावरा में बस रुकी तो जितने यात्री उतरे उनसे अधिक चढ़े। जब बस जावरा से चली तो हम लगभग 35 यात्री हो गए थे। उसने इस बार भी वहीे किया - यात्रियों से किराया लिया और इत्मीनान से अपनी सीट पर बैठ गया।

उसने किसी को टिकिट नहीं दिया। किसी ने माँगा भी नहीं। मुझे लगा, वह मुझे भी टिकिट नहीं देगा। मैंने उसे याद दिलाया तो बेमन से उसने टिकिट दिया। दो कारणों से मुझे अच्छा लगा। पहला तो यह कि उसने टिकिट दिया और दूसरा यह कि टिकिट छपा हुआ था। लेकिन मैंने देखा - किराए की रकम 58 रुपये थी। मैंने तत्काल पूछा - ‘इसमें तो 58 रुपये लिखे हैं और आपने 60 रुपये लिए हैं?’ कण्डक्टर ने निस्पृह भाव से मेरी ओर उड़ती नजर डाली और अपनी सीट पर बैठ गया।

मन्दसौर पहुँचने से पहले मैंने उससे दो बार अपनी बाकी रकम (दो रुपये) माँगी। दोनों ही बार उसने अनसुनी की। मेरी ओर देखा भी नहीं। मन्दसौर में उतरते समय मैंने उससे फिर दो रुपये माँगे। उसने कहा - ‘छुट्टे नहीं हैं।‘ मैंने कहा - ‘बेग में देखिए तो सही! छुट्टे होंगे।’ उसने जवाब दिया - ‘बेग देख रखा है। छुट्टे नहीं हैं। आप आठ रुपये दे दो। मैं आपको दस रुपये दे देता हूँ।’ मुझ अजीब लगा। कहा - ‘तुम्हारे पास तो दो रुपये भी छुट्टे नहीं हैं और मुझसे आठ रुपये छुट्टे माँग रहे हो?’ उसने ‘मुद्राविहीन मुद्रा’ और जमा देनेवाली ठण्डी आँखों से मुझे देखते हुए कहा - ‘मेरे पास तो छुट्टे नहीं हैं।’ वास्तविकता क्या थी यह या तो वह जाने या फिर ईश्वर किन्तु मुझे अब तक लग रहा है कि उसने तय कर लिया था कि वह मुझे दो रुपये नहीं ही लौटाएगा।

मैं बस से उतर गया। लेकिन अब तक वह सब नहीं भूल पा रहा हूँ। कण्डक्टर ने बार-बार माँगने पर भी मेरी बाकी रकम नहीं लौटाई और टिकिट तो उसने मेरे सिवाय किसी को नहीं दिया। किसी ने माँगा भी नहीं। पता नहीं, कागजों में उसने कब, क्या और कैसे लिखा होगा?

वह भूलना तो दूर रहा, इस घटना ने मुझे मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम की याद दिला दी। वहाँ भी यही होता था। आकस्मिक जाँच दलों को, ओव्हर लोडेड बसें, बिना टिकिट मिला करती थीं। मेरे एक मित्र का चचेरा भाई म. प्र. राज्य परिवहन निगम में कण्डक्टर था। रामपुरा-इन्दौर बस में चला करता था। बस, शाम को लगभग सात बजे रामपुरा से चलती थी और सुबह 6-7 बजे इन्दौर पहुँचती थी। बस, रामपुरा से ही पूरी भर जाती थी और इन्दौर तक प्रतिदिन ओव्हरलोड ही चलती थी। मेरे मित्र का वह चचेरा भाई, कम से कम तीन बार निलम्बित हुआ - तीनों ही बार, पूरी की पूरी बस, बिना टिकिट यात्रियों से भरी मिली। पता नहीं, वह कैसे वापस बहाल हो जाया करता था। किन्तु चौथी बार वह निलम्बित नहीं हुआ। सीधा बर्खास्त कर दिया गया। ऐसा प्रकरण यह अकेला नहीं था। ऐसे समाचार अखबारों में आए दिनों छपते ही रहते थे जिनकी परिणती म. प्र. राज्य परिवहन निगम के बन्द होने में हुई। आज मध्य प्रदेश के लोग, निजी यात्री बस मालिकों की मनमर्जी के शिकार हो रहे हैं - पूरा किराया देते हैं, भेड़-बकरियों की तरह ठुँस कर सफर करते हैं, धक्के तो खाते ही हैं, अपमान भी झेलते हैं।

लगता है, अब राजस्थान में यही सब होनेवाला है।

भगवान करे, मेरा अन्देशा केवल अन्देशा ही बन कर रह जाए। सच न हो।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

यह कौन सी भाषा है?

मेरे कस्बे का माणक चौक विद्यालय अपनी स्थापना के सवा सौवें वर्ष में चल रहा है। इस वर्ष में यहाँ विभिन्न गतिविधियाँ आयोजित की जा रही हैं।

इसी क्रम में, पुस्तकों की एक अनूठी प्रदर्शनी आयोजित की जा रही है। अनूठी इस मायने में कि यह प्रदर्शनी लेखन अथवा प्रकाशन की किसी विधा-विशेष पर केन्द्रित न होकर केवल ‘पुस्तक’ पर केन्द्रित है। इस प्रदर्शनी में, सन् 1847 से 1947 तक के 101 वर्षों में प्रकाशित पुस्तकें शामिल की जाएँगी जिन्हें प्रकाशन के वर्षानुक्रम से, अलग-अलग टेबलों पर प्रदर्शित किया जाएगा। विद्यालय के वाचनालय/पुस्तकालय में उपलब्ध पुस्तकें ही इसमें शामिल की जाएँगी। जाहिर है कि इसमें स्कूली विशयों की पुस्तकें ही प्रमुख होंगी।

पुस्तकें छाँटने के दौरान एक पुस्तक ऐसी मिली है जिसकी भाषा से कोई परिचित नहीं है। विद्यालय के प्राचार्य डॉक्टर मुरलीधर चाँदनीवाला ने अपनी सूझ-समझ और क्षमतानुसार पूरे कस्बे के लोगों से सम्पर्क किया किन्तु कोई भी इस भाषा के बारे में नहीं बता पाया।

उन्होंने ने मुझे यह काम सौंपा। मैंने भी कस्बे के अनेक लोगों से सम्पर्क किया (उनमें से कुछ लोग ऐसे मिले जिनसे चाँदनीवालाजी पहले ही सम्पर्क कर चुके थे) किन्तु मुझे भी सफलता नहीं मिली।
इस पुस्तक के दो पन्नों का चित्र यहाँ प्रस्तुत है। विद्यालय के पुस्तकालय में यह पुस्तक सन् 1886 में शामिल की गई थी।

प्रदर्शनी, बसन्त पंचमी दिनांक 8 फरवरी को शुरु होगी। यदि उससे पहले कोई कृपालु इसकी भाषा के बारे में आधिकारिक जानकारी दे सके तो बड़ी कृपा होगी।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

पागलों की तलाश

भली प्रकार ‘जानता’ हूँ कि ‘मान कर’ चलनेवाले लोग घातक होते हैं। फिर भी आज काफी-कुछ ‘मान कर’ ही कह रहा हूँ।
बरसों से मुझे बराबर और बार-बार लग रहा है कि मेरे कस्बे को वह काफी कुछ अब तक नहीं मिला है जो उसे बरसों पहले मिल जाना चाहिए था, ऐसा काफी कुछ नहीं हो रहा है जो बहुत पहले हो जाना चाहिए था। जैसे - मेरे कस्बा मुख्यालय को सम्भाग मुख्यालय बन जाना चाहिए था, एलआईसी का मण्डल कार्यालय खुल जाना चाहिए था, रेल सुविधाओं में समुचित बढ़ोतरी हो जानी चाहिए थी, रतलाम-नीमच मीटर गेज रेल लाइन को ब्राड गेज रेल लाइन में बदले जाने के लिए जब बन्द किया गया था तब आने-जाने के लिए सात जोड़ी रेलें मिलती थीं, ब्राड गेज रेल होने के बरसों बाद भी वे तक अब नहीं मिल रही हैं जो कि पहले ही दिन से मिल जानी चाहिए थीं आदि-आदि। यह सब नहीं हुआ सो तो कोई बात नहीं किन्तु मेरी हैरानी और चिन्ता यह है कि इन सबके, अब तक न होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, किसी को चिन्ता न तो हुई है और न ही हो रही है। किसी से बात करो तो फौरन जवाब मिलता है - ‘आप बिलकुल सही कह रहे हो। कोई कुछ नहीं कर रहा है। आप ही कुछ करो।’ आज तक, एक ने भी नहीं कहा - ‘हाँ, अपन मिल कर यह करते हैं।’

मुझे लग रहा है अपने कस्बे के विकास की चिन्ता के मामले में मेरा कस्बा, अन्य स्थानों के मुकाबले यदि ‘मुर्दार’ नहीं तो कम से कम लापरवाह, असावधान और उदासीन तो है ही। जो भी होना होगा, जो भी करना होगा, अपने वक्त पर हो जाएगा, भगवान सब करेंगे। अपन को क्या?

मुझे बार-बार लगा और बराबर लग रहा है कि मेरे कस्बे के लोग या तो किसी अवतार की प्रतीक्षा में बैठे, अद्भुत भाग्यवादी लोग हैं या फिर बहुत ही समझदार। भाग्यवादी लोग कभी शिकायत नहीं करते और समझदार लोग कभी कोई जोखिम नहीं उठाते। वे भली प्रकार समझते हैं कि बदलाव के लिए खतरा उठाना पड़ता है। इसलिए जब भी बदलाव की कोई बात होती है तो वे फौरन ही लाभ-हानि की गणित लगाने लगते हैं और इसीलिए, खुद को सुरक्षित रखते हुए, बदलाव की बात करनेवाले को पूरी मासूमियत से कहते हैं - ‘आप ही कुछ कर सकते हैं। कीजिए।’ वे भूल कर भी नहीं कहते - ‘आईए। अपन मिल कर करते हैं।’

सो, मेरा निष्कर्ष रहा कि समझदार लोग कभी बदलाव नहीं ला सकते। यह काम पागल किस्म के लोग ही कर सकते हैं। पागल लोग - बिलकुल किसी के इश्क में पागल हो कर, दुनिया-जहान की चिन्ता किए बिना, अपने महबूब को पाने के लिए पागल की तरह। मुझे लगा, कस्बे के लिए कुछ कर गुजरने के लिए भी पागलपन ही चाहिए। अपने कस्बे को इश्क करनेवाले पागल ही बदलाव की बात कर सकते हैं। मुझे लगा, यह कस्बा मेरी जन्म स्थली भले ही न हो, मेरी कर्म स्थली तो है। इसी ने मुझे पहचान, सामाजिक स्वीकार्य, (और भले ही यह मेरा आत्म-भ्रम हो, किन्तु) भरपूर प्रतिष्ठा और हैसियत दी है। हैसियत भी ऐसी कि बदतमीजी से कही जानेवाली मेरी बातें भी ध्यान से और सम्मान से सुनी जाती हैं। सो, मुझे लगा कि कोई कुछ करे न करे, मैंने जरूर अपने कस्बे के लिए कुछ करना चाहिए। जब सब लोग लाभ-हानि की गणना करते हों तब ऐसा सोचना पागलपन से कम नहीं। सोचा, पागलपन ही सही।

किन्तु, अकेले कूदने की हिम्मत होते हुए भी कुछ सूझ नहीं पड़ा। सोचा - कुछ ‘पागलों’ की तलाश की जाए और इसके लिए क्यों न विज्ञापन दिया जाए? सो, अपने कस्बे के सबसे मँहगे अखबार के दफ्तर पहुँचा। वर्गीकृत विज्ञापनों में एक सप्ताह के लिए लिखा विज्ञापन कुछ इस तरह था: ‘पागल लोग चाहिए - समझदार लोग कभी बदलाव नहीं ला सकते। अपने कस्बे की बेहतरी के बदलाव के लिए ऐसे पागल लोगों की आवश्यकता है जो पार्टी-पोलिटिक्स से ऊपर उठकर, तटस्थ भाव से अपने कस्बे के लिए तन-मन-धन और समय दे कर काम कर सकें। सम्पर्क करें।’

विज्ञापन पढ़ कर विज्ञापन विभागवाले चकराए। ‘दो मिनिट बैठिए’ कह कर अन्दर गए। लौट कर बताया कि सम्पादकजी को ‘पागल’ शब्द पर आपत्ति है। मैं सम्पादकजी के पास गया। बात की। उन्होंने मेरे विज्ञापन को ‘लिंग वर्द्धन तेल’ और ‘साँडे के तेल’ के विज्ञापनों जैसा अशालीन विज्ञापन बताया और कहा कि वे ऐसे विज्ञापनों का विरोध करते रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा - ‘हम हैं तो सही कस्बे की बेहतरी की चिन्ता करनेवाले?’ मैं उनसे सहमत नहीं था। आखिरकार ‘पागल’ के स्थान पर ‘नादान’ कर देने पर सहमति हुई। मैंने निर्धारित शुल्क चुकाया, रसीद ली और चला आया। लेकिन सम्पादकजी के व्यवहार से मुझे विज्ञापन के छपने में खुटका था। मैं घर पहुँचा ही था कि अखबार से फोन आ गया - ‘इस स्वरूप में तो विज्ञापन नहीं छाप सकेंगे।’ मैं कोई और स्वरूप देने को तैयार नहीं हुआ (पागल जो था)। सो, विज्ञापन निरस्त कर दिया।

मैं कोशिश करता हूँ कि अपने बारे में कोई भ्रम न पालूँ। लेकिन जी कर रहा है कि इस प्रकरण से एक भ्रम पाल लूँ - ‘मैं जीनीयस हूँ।’ दुनिया का इतिहास गवाह है कि तमाम जीनियसों को लोगों ने पहले तो पागल ही माना था। लेकिन जब उनकी बातें सच हुईं तो उन्हीं पागलों को माथे पर बैठा कर अपनी गलती सुधारी। मेरे साथ भी यही तो नहीं हो रहा?

इसलिए, ‘मान कर’ मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मेरे कस्बे के लिए काफी-कुछ किया जाना है जिसे करने के लिए कोई समझदार कभी भी आगे नहीं आएगा। मैं ‘मान कर’ चल रहा हूँ कि कुछ पागलों को ही यह नेक काम करना पड़ेगा।

सो, मैं कुछ पागलों की तलाश में हूँ। ऐसे पागलों की, जो ‘पार्टी लाईन’ से ऊपर उठकर, सचमुच में निष्पक्ष भाव से साचते हों, अपने कस्बे के लिए तन-मन-धन और समय दे सकते हों, ‘अपनेवालों’ के नाराज होने का खतरा मोल लेकर कस्बे के हकों के लिए बोल सकते हों, मैदान में आ सकते हों।

सब जानते हैं कि बिना कुछ खोए, कुछ भी हासिल नहीं होता। मेरा कस्बा इसीलिए अब तक अपने प्राप्य से वंचित बना हुआ है।

अपना कुछ खोकर, कस्बे के लिए कुछ हासिल करनेवाला कोई पागल इसे पढ़े तो मुझसे सम्पर्क करे। आपसे मुझे कुछ नहीं कहना है। आपकी समझदारी पर मुझे पूरा भरोसा है। जानता हूँ कि आपको कोई ऐसा पागल मिलेगा तो आप उसे फौरन ही मेरे पास भेजने की समझदारी बरत ही लेंगे।
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हताशाजनक उदासीनता


मेरे कस्बे रतलाम का माणक चौक स्कूल (वर्तमान अभिलेखीय नाम - शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय क्रमांक-1) अपनी स्थापना के सवा सौ वर्ष पूरे कर रहा है। यहाँ पढ़े लोग पूरे देश में फैले हुए हैं और अपने-अपने क्षेत्र में ‘नामचीन’ हैं। होना तो यह चाहिए था कि इस स्कूल के सवा सौ वर्ष पूरे होने पर ऐसा भव्य और व्यापक समारोह मनाया जाता जिसमें पूरा कस्बा शामिल होता-विशेषतः वे तमाम जीवित लोग अपने परिवार सहित शामिल होते जो यहाँ पढ़े हैं, इस स्कूल की ऐतिहासिकता के बारे में, स्वाधीनता संग्राम में इसकी साक्ष्य के बारे में, नगर विकास में इसकी भूमिका के बारे में विस्तार से वर्तमान पीढ़ी को बताया जाता।


लेकिन इसके विपरीत जो कुछ हो रहा है वह ‘चौंकानेवाला’ से कोसों आगे बढ़कर ‘हताश करनेवाला’ है। हमारे नगर नियन्ताओं ने घोषणा कर दी है कि वे इसे ध्वस्त कर यहाँ ‘शापिंग मॉल’ बनाएँगे। उन्होंने केवल घोषणा ही नहीं की, जिला योजना समिति से तत्सम्बधित प्रस्ताव पारित करवा कर प्रदेश सरकार को भी भेज दिया है।


इस समाचार से जिन कुछ लोगों को अटपटा लगा, उनमें मैं भी शरीक रहा। किन्तु मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने पाया कि अटपटा लगने वाले इन लोगों में रतलाम का मूल निवासी एक भी नहीं है - हम सबके सब वे लोग हैं जो बाहर से आकर रतलाम में बसे हैं। न तो हम लोग और न ही हमारे बच्चे इस स्कूल में पढ़े हैं। सीधे-सीधे कहा जा सकता है कि बेचैन हो रहे हम लोगों का इस स्कूल से कोई लेना-देना नहीं है।


लेकिन इससे क्या अन्तर पड़ता है? जो मिट्टी मेरी कर्म स्थली है, जिसने मुझे पहचान, प्रतिष्ठा, हैसियत दी, वह अकड़ दी कि मैं लोगों से आँखें मिलाकर बदतमीजी से बात कर लेता हूँ - उस मिट्टी के प्रति मेरी सहज नैतिक जिम्मेदारी बनती है। फिर, मेरी बात को आगे पहुँचाने के लिए मेरे पास ‘उपग्रह’ नामका अखबार भी है - भले ही उसका प्रसार और प्रभाव सीमित हो! यही सोच कर मैंने ‘पुरातात्विक और ऐतिहासिक स्कूल को ध्वस्त करने को उतावला ‘बनिया शहर’ शीर्षक से एक विस्तृत समाचार ‘उपग्रह’ में दिया। बदले में जो कुछ हुआ उसने मेरी यह धारणा मिथ्या साबित कर दी कि ( 33 वर्षों से यहाँ रह रहा) मैं अपने कस्बे को जानता-पहचानता हूँ।


मुझे लगा था कि मेरे समाचार से ‘अच्छी-खासी’ भले ही न हो, ऐसी और इतनी हलचल तो होगी ही कि हमारे नेताओं और प्रशासन को अपने प्रस्ताव पर पुनर्विचार के लिए कम से कम बार तो सोचना ही पड़ेगा।


किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। गिनती के लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की-वह भी, समाचार के लिए मुझे बधाई और धन्यवाद देने के लिए। केवल, श्री नवीन नाहर नामके एक सज्जन ने लोगों के नाम एक पत्र लिखकर उसकी कुछ फोटो प्रतियाँ कस्बे में बँटवाई हैं। किन्तु श्री नाहर को मेरे कस्बे ने कभी भी गम्भीर आदमी नहीं माना।


समाचार को छपे आज नौंवा दिन है। कस्बे में जहाँ कहीं जाता हूँ, लोग समाचार के लिए मुझे धन्यवाद देकर प्रश्नवाचक नजरों से दखने लगते हैं - ‘स्कूल भवन को बचाने के लिए क्या कर रहे हैं?’ मैं उनसे कहता हूँ - ‘आप लोग कुछ करते क्यों नहीं?’ उत्तर मिल रहा है - ‘आप कर तो रहे हैं? आपने काम हाथ में लिया है तो पूरा हो ही जाएगा।’ देख रहा हूँ अपनी भागीदारी की बात करने से हर कोई बड़ी चतुराई से बच रहा है।


ले-दे कर एक जलजजी (डॉक्टर जयकुमारजी जलज) हैं जो लगभग अस्सी का आँकड़ा छूते हुए भी कह रहे हैं - ‘आप निराश मत होईए। अपने से जो बन पड़े, करेंगे।’


मुझे अकुलाहट हो रही है। क्या कोई पूरा का पूरा कस्बा, अपनी ऐतिहासिक और पुरातात्विक धरोहरों के प्रति इस तरह उदासीन हो सकता है?


किसी को क्या कहूँ? अपने लिए ही कह सकता हूँ - अभागा।
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लोकतन्त्र का नया स्वरूप?

कल शाम हम चारों पहले तो हतप्रभ हुए, फिर उदास और फिर निराश। बैठे तो थे ‘वक्त कटी’ के लिए। किन्तु पता नहीं, एक दूसरे की टाँग खिंचाई करते-करते, कब और कैस हमारा ‘फुरसतिया चिन्तन’ गम्भीर अन्त पर पहुँच गया। कुछ इस तरह मानो ‘शान्तता कोर्ट चालू आहे’ साकार हो गया।

कड़ाके की सर्दी चल रही है। पारा चार डिग्री तक लुड़क गया है। ढेर सारा काम निपटाना है किन्तु कोई काम करने का जी नहीं कर रहा। ऐसी ही मनःस्थिति में हम चारों, सड़क किनारे, मनोज के चाय ठेले पर मिल बैठे। चारों के चारों साठ पार - याने चारों के चारों ‘श्रेष्ठ आदर्श बघारु।’ कॉलेज के दिनों की अपनी-अपनी आदिम हरकतों का गर्व-गौरव बखान करते-करते हम, प्रशासन द्वारा चलाए जा रहे ‘अतिक्रमण हटाओ अभियान’ पर आ गए। बाजना बस स्टैण्ड, लक्कड़पीठा, चाँदनी चौक, न्यू रोड़, सैलाना रोड़, कोर्ट चौराहा, छत्री पुल, बाल चिकित्सालय आदि इलाकों की शकलें बदल गईं। सड़कें अचानक ही चौड़ी हो गईं। जिन सड़कों, चौराहों से निकलने के लिए ‘पीं-पीं’ करते हुए सरकस और कसरत करनी पड़ती थी, वहाँ से अब, हार्नों के शोरगुल के बिना ही ‘सर्र’ से निकला जा सकता था। साफ-सुथरा कस्बा देख कर अब लग रहा है कि पहले यही कस्बा गितना गन्दा और विकृत बना हुआ था।

किन्तु इस सुन्दरता को उजागर करने के लिए हजारों नहीं तो सैंकड़ों लोगों को तो अपने-अपने रोजगार के लिए नई जगहें तलाश करनी पड़ेंगी। विस्थापितों ने सरकार से नई जगह माँगनी शुरु कर दी है।

अचानक ही यह तथ्य उभर कर सामने आया कि अतिक्रमण हटाने और कस्बे को सुन्दर बनाकर यातायात सुगम बनाने का यह अभियान पूरी तरह से ‘प्रशासकीय’ है। इसमें ‘शासन’ याने हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि कहीं दिखाई नहीं दे रहे - न तो अभियान का समर्थन करते हुए और न ही विस्थापितों को वैकल्पिक जगहें दिलाने के लिए। जिन्हें हटाया गया उनके प्रतिवाद-प्रतिकार में भी याचना ही प्रमुख है, आक्रोश नहीं। और तो और, अतिक्रमण हटाने में प्रशासन द्वारा पक्षपात बरतने का पारम्परिक आरोप भी नहीं लगा।

हम लोग धीरे-धीरे निष्कर्ष पर पहूँच रहे थे। हमें लगने लगा कि ‘शासन’ याने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने अपनी भूमिका बिलकुल ही नहीं निभाई। उनके जरिए ‘जन अभिलाषाओं का प्रकटीकरण’ होता है किन्तु हमें लग रहा था उन्होंने ‘अपनेवालों की अभिलाषाओं’ की चिन्ता की। उन्होंने ‘अपनेवालों’ को उपकृत किया और ऐसा करने में व्यापक जन हितों की अनदेखी और उन पर कुठाराघात किया। उन्होंने ‘अपनेवालों’ को अतिक्रमण करने के लिए प्रोत्साहन, खुली छूट भी दी और राजनीतिक संरक्षण भी। कस्बे को विकृत-विरूप किया। व्यापक जनहितों की रक्षा करने के अपने न्यूनतम उत्तरदायित्व को वे सब भूल गए। तुर्रा यह कि ये सबके सब ‘नगर का विकास’ करने की दुहाई देकर चुने गए थे।

इसके ठीक विपरीत, जो ‘प्रशासन’ मनमानी, अधिकारों के दुरुपयोग, लोगों की बातें न सुनने जैसे पारम्परिक आरोपों से घिरा रहता है उसी प्रशासन ने मानो जनभावनाएँ समझीं और तदनुरूप कार्रवाई कर सरकारी जमीन को अतिक्रमण मुक्त कराया, कस्बे की सुन्दरता लौटाई और लोगों को सुगम यातायात उपलब्ध कराने की कोशिश की। उल्लेखनीय बात यह रही कि इन कोशिशों में प्रशासन ने समानता बरती। न तो किसी को छोड़ा और न ही किसी को अकारण छेड़ा। इस समानता और निष्पक्षता के कारण ही तमाम निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की बोलती बन्द रही। एक भी माई का लाल मैदान में नहीं आया।

तो क्या अब ‘जनभावनाओं का प्रकटीकरण’ हमारे अफसर करेंगे? तब, हमारे जनप्रतिनिधि क्या करेंगे? वे अनुचित, अनियमितताओं, अवैधानिकताओं को प्रोत्साहित-संरक्षित करेंगे? और, उनकी इन हरकतों से मुक्ति पाने के लिए हमें अफसरों के दरवाजे खटखटाने पड़ेंगे? उन अफसरों के, जो जनसामान्य से दूर रहने, मनमानी करने, भ्रष्टाचार कर अपनी जेबें भरने जैसी बातों के लिए जाने-पहचाने जाते हैं और बदनाम हैं? तो क्या, हमारे जनप्रतिनिधियों और अफसरों ने अपनी-अपनी भूमिकाएँ बदल ली हैं?
हम चारों ही अचकचा गए। हमारी बोलती बन्द हो गई। हम एक दूसरे की ओर देख रहे थे - चुपचाप।

शायद हम चारों, एक दूसरे से पूछने से बच रहे थे - यह लोकतन्त्र का कैसा स्वरूप है?

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राजा व्यापारी (तो) प्रजा भिखारी

मेरी स्थायी शिकायत है -‘लोग नहीं बोलते। चुपचाप सब सह लेते हैं।’ लेकिन कल लगा, मुझे अपनी शिकायत पर पुनर्विचार करना चाहिए। लोग भले ही न बोलते हों किन्तु ‘लोक’ बोलता है।

यह कल सुबह कोई साढ़े दस, पौने ग्यारह बजे की बात है। पाँच डिग्री से भी कम तापमान में ठिठुर रहे मेरे कस्बे का बाजार मानो अभी भी रजाई में ही पड़ा हुआ था। नाम मात्र की दुकानें खुली थीं। शकर और पिण्ड खजूर लेने के लिए मैं पारस भाई पोरवाल की दुकान पर पहुँचा। दो ग्राहक पहले से ही वहाँ बैठे थे। दुकान खुली ही खुली थी। पारस भाई, मुझसे पहलेवाले ग्राहकों के सामान की सूची बना तो रहे थे किन्तु कुछ इस तरह कि ‘यार! कहाँ सुबह-सुबह चले आए?’ दुकान के कर्मचारियों के काम की गति पर भी ठण्ड का जोरदार असर था। सो, कुल मिलाकर ठण्ड के मारे हम ग्राहक और खुद पारस भाई मानो जबरिया फुरसत में आ गए थे।

‘फुरसतिया चिन्तन’ की शुरुआत ही मँहगाई से हुई। बीएसएनएल वाले नारलेजी बोले - ‘यहाँ सर्दी जान ले रही है और उधर चीजों की कीमतों में आग लगी हुई है। पता नहीं, यह मँहगाई कहाँ जाकर रुकेगी?’

पारस भाई ने बात इस तरह लपकी मानो ऐसे सवाल की प्रतीक्षा ही कर रहे हों। मानो मुझसे सवाल पूछ रहे हों, इस तरह, मेरी ओर देखते हुए तपाक से बोले - ‘नहीं रुकेगी। और रुकेगी भी क्यों? जिसके जिम्मे जो काम किया था, वह उस काम के सिवाय बाकी सब काम कर रहा है! ऐसे में मँहगाई क्यों रुके और कैसे रुके?’

पारस भाई प्रबुद्ध व्यापारी हैं। मैंने प्रायः ही अनुभव किया है कि बाजार की बातें करते समय वे बाजार की मूल प्रवृत्ति को प्रभावित करनेवाले तत्वों और तथ्यों पर बहुत ही सटीक टिप्पणियाँ करते हैं। उनके पास जब भी जाता हूँ, किराना सामान के अतिरिक्त भी कुछ न कुछ लेकर ही लौटता हूँ। मुझसे सवाल कर मानो उन्होंने मुझे मौका दे दिया। तनिक अधिक लालची होकर मैंने प्रति प्रश्न किया - ‘क्या मतलब?’

पारस भाई ने ऐसी गर्मजोशी से बोलना शुरु किया कि लुड़के पारे को भी गर्माहट आ गई। बोले - ‘मतलब यह कि जैसे अपने शरद पँवार को ही लो। उन्हें काम दिया था कि हमारी खेती-बाड़ी की और किसानों की फिकर करें। लेकिन वे लग गए दूसरे कामों में। उन्हें क्रिकेट भी खेलनी है, पास्को (यह शायद कोई विराट् औद्योगिक परियोजना है) भी चलानी है, शुगर मिलों की चेयरमेनशिप और डायरेक्टरशिप भी करनी है, अपनी बेटी और भतीजे का राजनीतिक भविष्य भी मजबूत करना है। इन सबसे उन्हें उस काम के लिए फुरसत ही नहीं मिल रही है जिसके लिए उन्हें मनमोहन सिंह ने बैठाया है। ऐसे में मँहगाई क्यों नहीं बढ़े?’

नारलेजी चूँकि बीएसएनएल से जुड़े हैं सो बात ए. राजा पर आने में पल भर भी नहीं लगा। नारलेजी और पारस भाई का निष्कर्ष था कि राजा तो बेवकूफ बन गया। उसने तो सोचा कि वह सरकार को खूब कमाई करवा रहा है लेकिन टाटा जैसे व्यापारियों ने उसे और सरकार को मूर्ख बना लिया। सरकार को और राजा को कितना क्या मिला यह तो गया भाड़ में, असल खेल तो व्यापारियों ने खेला। अकेले टाटा ने ही हजारों करोड़ रुपये कमा लिए और राजा तथा सरकार का मुँह काला हो गया और दोनों ही आज कटघरे में खड़े हैं।

प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह अब तक बचे हुए थे। लेकिन कब तक बचते? हमारा ‘लोक’ तो अच्छे-अच्छों को निपटा देता है। उसे तो मौका मिलना चाहिए! इन्दिरा गाँधी और अटल बिहारी वाजपेयी तक को एक-एक बार कूड़े में फेंक चुका है। सो, मनमोहन सिंह के लिए सर्वसम्मत राय आई - ‘उन्हें शासन करना था किन्तु वे धृतराष्ट्र बन गए हैं। उनकी उपस्थिति में द्रौपदी का चीर हरण हो रहा है और वे अपनी ईमानदारी को बचाने की चिन्ता में चुप बैठे हैं। उन्हें चाहिए कि वे शरद पवार और दूसरे मन्त्रियों पर अंकुश लगाएँ।’

और इसके बाद पारस भाई ने जो कुछ कहा, उसने मानो हमारे ‘लोक’ के सुस्पष्ट चिन्तन और परिपक्वता का परचम फहरा दिया। बोले - ‘इन्हें राज करना था। लोगों की बेहतरी, खुशहाली की चिन्ता करनी थी। लेकिन ये तो वायदे के सौदे कराने लगे! राजा का काम है, राज करना। लेकिन ये तो व्यापार करने लगे! ऐसे में वही होगा जो अभी हो रहा है। राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी।’

मैं या नारलेजी कुछ कहते उससे पहले ही पारस भाई के कर्मचारी ने, नारलेजी का सामान बाँध देने की सूचना दी। पारस भाई, सूची से मिलान और रकम का मीजान करने लगे। कर्मचारी ने मुझसे मेरे सामान की सूची माँगी। मुझे तो दो ही चीजें लेनी थीं। जबानी ही कह दी। पारस भाई, नारलेजी का हिसाब करते उससे पहले ही मैं निपट गया था।

अपना सामान लेकर चला तो पारस भाई की कही उक्ति - ‘राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी’ भी मेरे सामान की पोटली में बँधी थी। मुझे अच्छा लगा। भरोसा हुआ। लोग भले ही नहीं बोलते किन्तु ‘लोक’ तो बोलता है। और केवल बोलता ही नहीं, मौका मिलते ही अच्छे-अच्छों को निपटा भी देता है।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

आज मेरे भरोसे मत रहिएगा

इकतीस दिसम्बर और पहली जनवरी की सेतु रात्रि के ग्यारह बजने वाले हैं। एक विवाह भोज में शामिल होने के लिए कोई साढ़े आठ बजे घर से निकला ही था कि मोबाइल में, एसएमएस दर्ज होने की ‘टन्-टन्’ होने लगी थी जो भोजन करते समय और जाते-आते रास्ते भर बजती रही। घर आकर देखा - मेसेज बॉक्स छोटा पड़ चुका था और कुछ सन्देशों के हवा में तैरते रहने की सूचना पर्दे पर टँगी हुई थी।

सन्देश पढ़-पढ़ कर ‘डीलिट’ करने लगा तो हवा में तैरते सन्देश एक के बाद एक ऐसे मोबाइल में समाने लगे मानो दिल्ली के चाँदनी चौक मेट्रो रेल्वे स्टेशन पर खड़े लोग डिब्बे में घुस रहे हों। सन्देश पढ़ने और मेसेज बॉक्स खाली करने में भरपूर समय और श्रम लग गया। सन्देश पढ़ते-पढ़ते हँसी आती रही - एक ही सन्देश सात बार पढ़ना पड़ा। भेजनेवाले ने तो ‘अनूठा’ (यूनीक) ही भेजा होगा किन्तु ‘फारवर्डिंग कृपा’ से, पानेवाले तक आते-आते वह ‘औसत’ (कॉमन) बन कर रह गया। पता ही नहीं पड़ता कि तकनीक की विशेषता कब विवश-साधारणता में बदल जाती है!

कुछ सन्देश देखकर उलझन में पड़ गया। ये उन लोगों के थे जो वेलेण्टाइन डे का विरोध करते हैं और नव सम्वत्सर पर्व पर, सूर्योदय से पहले जल स्रोतों पर पहुँचकर, सूर्य को अर्ध्य देकर नव वर्ष का स्वागत खुद करते हैं और एक दिन पहले, कस्बे में ताँगा घुमा कर, लाउडस्पीकर के जरिए लोगों से, ऐसा ही करने का आह्वान करते हैं। भारतीयता और भारतीय संस्कृति की चिन्ता में दुबले होने वाले ऐसे ही दो ‘सपूतों’ ने तो अपने-अपने ‘फार्म हाउस’ पर आज विशेष आयोजन किए हैं। इन्हीं जैसे एक अन्य संस्कृति रक्षक ने अपनी होटल में, नव वर्ष स्वागत हेतु विशेष आयोजन किया है। मैं इन तीनों आयोजनों में निमन्त्रित हूँ। किन्तु मैं नहीं गया।

मैं नहीं मनाता पहली जनवरी को नया साल। इसे नया साल मानता भी नहीं। यह मेरा निजी मामला है और मुझ तक ही सीमित है। ऐसा करने के लिए किसी से आग्रह नहीं करता। मेरे आसपास के अधिकांश लोग मेरी इस मनःस्थिति को भली प्रकार जानते हैं। किन्तु इनमें से अधिकांश मुझे ‘ग्रीट’ करते हैं। मैं सस्मित उन्हें धन्यवाद और शुभ-कामनाएँ देता हूँ। मैं अशिष्ट नहीं होना चाहता।

जान रहा हूँ और भली प्रकार समझ भी रहा हूँ कि अब हमारे जन मानस ने, पहली जनवरी से ही नया साल शुरु होना मान लिया है और चैत्र प्रतिपदा के दिन नव-सम्वत्सर का उत्सव मनाना, यदि आत्म वंचना नहीं है तो इससे कम भी नहीं है। दोहरा जीवन तो हम सब जीते हैं। जी ही रहे हैं। जीना ही पड़ता है। मैं भी सबमें शामिल हूँ - घर में कुछ, बाहर कुछ और।

किन्तु कुछ मामलों में मैं ऐसा नहीं कर पाता। नव वर्ष प्रसंग ऐसा ही एक मामला है मेरे लिए। मैं चैत्र प्रतिपदा पर भी नव वर्ष नहीं मनाता। केवल दीपावली पर ही नव वर्ष मनाता हूँ। मेरे अन्नदाताओं (बीमाधारकों) में सभी धर्मों के लोग हैं। बीमा व्यवसाय शुरु करने के शुरुआती दिनों में मैं उन सबको, उनके नव वर्षारम्भ पर बधाई सन्देश भेजता था। साल-दो-साल तक ही यह सिलसिला चला पाया। उसके बाद बन्द कर दिया। मुझे लगा, मैं ‘धर्म’ को ‘धन्धे का औजार’ बना रहा हूँ। मेरी आत्मा ने ऐसा करने से मुझे टोका और रोक दिया। तबसे बन्द कर दिया। उसके बाद, अन्य धर्मावलम्बियों में से जिन-जिन से मेरे सम्पर्क घनिष्ठ हैं, उनके नव वर्ष पर बधाइयाँ देने के लिए उनके घर जाता हूँ। अब मैं अपने तमाम अन्नदाताओं को केवल दीपावली पर ही नव वर्ष अभिनन्दन और शुभ-कामना पत्र भेजता हूँ। मुझे यही उचित लगता है।

हमारे मंगल प्रसंग भी मेरे लिए ऐसे ही मामले हैं। मेरे बेटे के वाग्दान (सगाई) के समय हमारी होनेवाली बहू सहित हमारे समधीजी, सपरिवार उपस्थित थे। दोनों पक्षों की रस्म एक ही साथ पूरी की थी हम लोगों ने। किसी ने ‘मुद्रिका पहनाई’ (रिंग सेरेमनी) की बात कही। मुझे उसी समय मालूम हुआ कि दोनों के लिए अँगूठियाँ भी तैयार हैं। किन्तु मैंने इसके लिए दृढ़तापूर्वक निर्णायक रूप से मना कर दिया। ‘रिंग सेरेमनी’ हमारा न तो संस्कार है और न ही परम्परा। मुमकिन है, मेरे बेटे-बहू को (और मेरे परिजनों को भी) मेरी यह ‘हरकत’ ठीक नहीं लगी हो किन्तु इसमें मुझे रंच मात्र भी सन्देह नहीं कि उस दिन उपस्थित तमाम लोग आजीवन इस बात को याद रखेंगे कि ‘रिंग सेरेमनी’ भारतीय संस्कार/परम्परा नहीं है।

मैं देख रहा हूँ कि हम अपना ‘काफी-कुछ’ खो जाने का रोना तो रोते हैं किन्तु यह याद नहीं रखना चाहते कि ‘वह सब’ खो जाने देने में हम खुद या तो भागीदार होते हैं या फिर उसके साक्षी। हम बड़े ‘कुशल’ लोग हैं। जब भी हमारी ‘आचरणगत दृढ़ता’ का क्षण आता है तो हम बड़ी ही सहजता से, कोई न कोई तार्किक-औचित्य तलाश लेते हैं और वह सब कर गुजरते हैं जो हमारा ‘काफी-कुछ’ हमसे छीन लेता है।

हमारे नेता ऐसे कामों में माहिर होते हैं और चूँकि हम ‘आदर्श अनुप्रेरित समाज’ हैं, इसलिए आँख मूँदकर अपने नेताओं के उन अनुचित कामों का भी अनुकरण कर लेते हैं जिनके (अनुचित कामों के) लिए हमने उन नेताओं को टोकना चाहिए। मसलन, मेरे प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान। वे चैत्र प्रतिपदा के दिन ‘हिन्दू नव वर्ष’ मनाने के लिए अपनी पूरी सरकार के सरंजाम लगा देते हैं और खुद, नया साल मनाने के लिए 31 दिसम्बर को किसी प्रसिद्ध पर्यटक या धार्मिक स्थल पर पहुँच जाते हैं।

ऐसे स्खलित आचरण के लिए हम अपनी ‘उत्सव प्रियता’ का तर्क देने में न तो देर करते हैं और न ही संकोच। यदि ऐसा ही है तो हम भारत में ही प्रचलित अन्य धर्मों के मतानुसार उनके नव वर्षारम्भ पर उत्सव क्यों नहीं मनाते? मैं जानना चाहता हूँ कि जन्म दिन पर केक काटना कब से भारतीय संस्कार और परम्परा बन गया? मुझे हैरत होती जब मैं अटलजी के जन्म दिन पर उनके समर्थकों को केक काट कर जश्न मनाते देखता हूँ।

अपने आप को ‘अपने समय में ठहरा हुआ’ करार दिए जाने का खतरा उठाते हुए मैं, पहली जनवरी को नव वर्षारम्भ मानने को भी हमारी गुलाम मानसिकता का ही प्रतीक मानता हूँ - बिलकुल, राष्ट्र मण्डल खेलों की तरह ही।

सो, पहली जनवरी को मेरा नया साल शुरु नहीं हो रहा है। इस प्रसंग पर मैं अपनी ओर से किसी को बधाइयाँ, अभिनन्दन, शुभ-कामनाएँ नहीं देता। जो मुझे यह सब देता है, शिष्टाचार निभाते हुए मैं भी उसे यह सब कहता तो हूँ लेकिन अपने स्थापित चरित्र को कायम रखते हुए साथ में व्यंग्योक्ति भी कस देता हूँ - ‘जी हाँ, हम हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजों का नया साल मुबारक हो।’

इसलिए, जो भी महरबान पहली जनवरी से अपना नया साल शुरु होना मानते हों, वे मेरे भरोसे बिलकुल न रहें। वे अपना जश्न मनाने के लिए फौरन ही मेरे मुहल्ले में चले आएँ। क्योंकि यह सब लिखते-लिखते रात के बारह कब के बज चुके हैं और मेरे अड़ोस-पड़ौस के बच्चे, सड़क पर पटाखे छोड़ते हुए खुशी में चीखते हुए एक-दूसरे को ‘ग्रीट’ कर रहे हैं।
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