बिना शीर्षक : सरोजकुमार


                                 मेरे बारे में
                                 किसने किससे
                                 क्या क्या कहा,


                                 यह जान लेने पर
                                 मेरा कोई दोस्त
                                 नहीं रहा!


ये पंक्तियाँ, ‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह के पहले पन्ने पर दी गई हैं। मैंने जानबूझकर इन्हें सबसे अन्त में दिया है।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.
 

मेरा डर और ‘सयानो काम’

किसी भी बीमा अभिकर्ता के लिए यह गर्व की बात होती है कि प्रादेशिक विपणन प्रबन्धक उसे आगे रहकर फोन करे। लेकिन मेरे साथ उल्टा हो रहा है। मुझे राकेश कुमारजी से डर लगने लगा है। मोबाइल के पर्दे पर जैसे ही उनका नम्बर उभरता है, मुझे सिहरन होने लगती है। भय के मारे कँपकपी छूटने लगती है। इसलिए नहीं कि वे मध्य क्षेत्र (मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) के प्रादेशिक विपणन प्रबन्धक अर्थात् रीजनल मार्केटिंग मैनेजर हैं अपितु इसलिए कि वे तो अपना काम कर रहे हैं किन्तु मैं अपना काम नहीं कर पा रहा।
 
राकेश कुमारजी का काम है, हम बीमा अभिकर्ताओं को बीमा करने के लिए कहना,  कहते रहना। अपना यह काम वे बखूबी करते हैं। लेकिन मैं हूँ कि अपने स्थापित स्तर और अपेक्षानुरूप बीमे नहीं कर पा रहा हूँ। इसे कहते हैं ‘कर्म-फल’ कि जिस अधिकारी से बात करना हम लोगों के लिए गर्व-गुमान की बात होती है, उसी अधिकारी का फोन आए और मैं सकुचाने लगूँ, डरने लगूँ।
 
लगता है, राकेश कुमारजी को मेरी हकीकत का अनुमान हो गया है। शायद इसीलिए इस बार जब फोन आया तो मेरे ‘हलो’ कहते ही बोले - ‘घबराइएगा नहीं। आज बीमे की बात नहीं करूँगा।’ मुझे तनिक राहत तो मिली किन्तु न तो डर कम हुआ और न ही झेंप कम हुई। हकलाते हुए बोला - ‘नहीं! नहीं! सर! कहिए। हुकुम कीजिए।’ वे ठठा कर हँसते हुुए बोले - ‘अब तक तो आपने हुकुम माना नहीं और कह रहे हैं हुकुम करूँ! छोड़िए। आज आपसे, ‘पैसे’ को लेकर बात करनी है।’
 
ब्लॉग पर अपने परिचय में मैंने ‘पैसे’ के प्रति वितृष्णा प्रकट की है। कहा है कि पैसा खुद अकेला रहने को अभिशप्त है और आदमी को अकेला करने में माहिर। मेरी बात का एक ही अर्थ निकलता है - ‘पैसे से दूर रहा जाए।’ राकेश कुमारजी ने इसी बात को विषय बनाया। बोले - ‘आपकी ही बात को मैं दूसरी नजर से देखता हूँ। आप कहते हैं, पैसे से दूर रहो और मैं कहता हूँ, पैसे से नजदीकी बढ़ाओ, उसे पकड़ो, काबू में करो, उस पर सवारी करो। उसे अपने पर सवारी मत करने दो। पैसा आदमी के लिए तभी मुसीबत या आफत बनता है जब वह आदमी पर सवारी कर लेता है, आदमी उसका दास बन जाता है। तब ही, पैसा सर पर चढ़ कर बोलने लगता है।’ बात नई नहीं थी लेकिन अन्दाज एकदम नया था - अनूठेपन की सीमा तक नया।
 
राकेश कुमारजी बोले - ‘आदमी के पास पैसा होना चाहिए लेकिन अपनी आवश्यकता से अधिक नहीं। आवश्यकता से अधिक पैसा अपने आप में विकृति हो जाता है। इसलिए, कमाते-कमाते जब पैसा अधिक हो जाए, तो उससे छुटकारा पाना शुरु कर दो। बल्कि, आवश्यकता से अधिक कमाओ ही इसलिए कि उससे मुक्ति पा सको।’ मैं चौंका। यह क्या बात हुई? यदि पैसे से मुक्ति पाना  ही अभीष्ट है तो उतना कमाना ही क्यों? लेकिन राकेश कुमारजी ने मुझे बोलने का मौका नहीं दिया। मेरी साँसों की बढ़ती गति से मानो ‘सहदेव’ की तरह मेरी मनोदशा का अनुमान कर लिया उन्होंने। उसी तरह हँसते हुए बोले - ‘पैसों के मामले में मुक्ति में ही प्राप्ति है और प्राप्ति भी लोक कल्याण की, सद्भावनाओं और आत्म सन्तोष की।’
 
अब मैं उलझ गया था। अपनी सीमाओं में रहते हुए कहा - ‘सर! बहुत हो गया। उलझाइए मत। साफ-साफ बताईए।’ उनकी हँसी एक बार फिर खनकी। बोले - ‘इफरात का अहसास होते ही रहीम को याद कीजिए। मात्र दो पंक्तियों में वे बता गए कि पैसे के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए।’ राकेश कुमारजी का इतना कहना था कि मुझे रहीम का दोहा याद आ गया -
 
                             पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।
                             दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।।
 
सुनकर राकेश कुमारजी बोले - ‘अब और क्या कहूँ आपको? सब तो मालूम है आपको? आवश्यकता से अधिक पैसे को दोनों हाथों से उलीचिए। खर्च कर दीजिए। आपके पास ज्यादा है तो याद कीजिए कि असंख्य लोग जरूरतमन्द बैठे हैं। उनकी मदद कीजिए, उनकी सेवा कीजिए। उनकी आवश्यकताएँ पूरी हो जाएँगी। आप खुद तो डूबने से बचेंगे ही, असंख्य अनजानों की दुआएँ, सद्भावनाएँ आपकी जीवन यात्रा को अधिक आनन्दमयी, सन्तोषजनक और सहज बनाएगी। आपकी आत्मा सदैव ही अवर्णनीय आनन्द से लबालब रहेगी।’
 
बात मेरी समझ में आ गई। जी खुश हो गया। मैंने राकेश कुमारजी को धन्यवाद देना चाहा तो एक बार फिर मुझे रोक कर बोले - ‘ना! धन्यवाद मत दीजिए। अब आगे जो कहनेवाला हूँ, वह सुनकर आप खुद ही धन्यवाद देने से रुक जाएँगे।’ मैं फिर चौंका। साँस रोककर उनकी अगली बात की प्रतीक्षा करने लगा। हँसी के क्रम को यथावत् रखते हुए राकेश कुमारजी बोले - ‘आप अनजान लोगों की सेवा का सुख, आनन्द और आत्म सन्तोष हासिल कर सकें, इसके लिए कह रहा हूँ कि खूब बीमे कीजिए, खूब कमाइए। इतना कि आपकी नाव के डूबने का खतरा पैदा हो जाए। तब, दोनों हाथों से पैसा उलीचिए, लोगों की सहायता कीजिए और ईश्वर की वास्तविक सेवा की अवर्णनीय सुखानुभूति से सराबोर हो जाइए।’
 
मैं कुछ बोलता उससे पहले ही उन्होंने फोन बन्द कर दिया - अपने ठहाके के साथ।
 
पता नहीं, रहीम का बखाना और राकेश कुमारजी का बताया ‘सयानो काम’ मैं कब कर पाऊँगा। लेकिन राकेश कुमारजी तो अपना काम कर चुके थे - किसी कुशल, दक्ष, विषय विशेषज्ञ की तरह।

प्रदर्शनी के गुलाब : सरोजकुमार

श्वेत, लाल, पीले, नीलाभ
गुलाब ही गुलाब ही गुलाब!
घुँघराली, दल पर दल पंखुरियाँ!
काँटों की सीढ़ियाँ, हरी-हरी पत्तियाँ!
एक-एक पौधे से एक-एक डाली
कटी-छँटी सज-धज नखराली!
श्रंगों की रति का मनचीता त्यौहार
नयनाभिराम मोहक अलौकी संसार!


मैंने प्रदर्शनी के गुलाबों से पूछा:
कैसा लग रहा है?
कोई टिप्पणी?
बोले-यहाँ क्या निहारते हो
बन्द-बन्द हॉल में, पण्डाल में,
वहाँ आओ, जहाँ हम चहकते हैं
महकते हैं, क्यारियों के थाल में!
पर आप वहाँ क्यों आएँगे
हमको ही टहनियों से काट-छाँट लाएँगे,
सुन्दर होने की सजा देंगे,
फिर सजाएँगे!


अब हम हैं भी क्या?
आपके सौन्दर्यबोध की सेवा में
आपके अवलोकनार्थ
अपने ताजा शव हैं!
आप हमें निहारकर अपने घर जाएँगे
पर हम तो अब
अपने घर नहीं लौट पाएँगे!


अपनी जड़ों से कटने के बाद
कोई कहीं का नहीं रहता!
देखना दिखाना कुछ घण्टों का
फिर आप ही हमें
घूरे पर पटक आएँगे!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

साकार होना एक लोकोक्ति का

‘मित्र से बहस मत करो। तुम बहस में जीत तो हासिल कर लोगे किन्तु मित्र को खो दोगे।’ यह उक्ति सुनी तो कई बार थी किन्तु इसे सच होते पहली बार देखा।
 
वे दोनों अच्छे मित्र हैं। (अब, ‘थे‘ कहना पड़ेगा।) इन दोनों की मैत्री मुझे विस्मित करती रही है। दोनों का स्वभाव पूरब-पश्चिम। एक अत्यधिक विनम्र और उदार तो दूसरा एकदम अक्खड़ और दुराग्रही। इस घटना से समझ पड़ा कि यह मैत्री  विनम्र और उदार मित्र के दम पर चलती रही। सुविधा के लिए दोनों को नाम दे रहा हूँ - विनम्र को विमल और अक्खड़ को कमल।
 
वे दोनों चाय के ठीये पर बैठे थे। मैं उधर से निकल रहा था। विमल ने आवाज दी - ‘आओ! चाय पी लो।’ मेरे रुकते ही विमल ने चायवाले को हाँक लगाई - ‘एक चाय और बढ़ा देना।’
 
‘और सुनाओ। नया-जूना क्या चल रहा है?’ पहले से चल रही अपनी बातें बन्द कर, विमल ने मुझसे पूछा। मैंने कहा - ‘मेरे पास तो सब कुछ जूना ही जूना है। नया तो तुम्हारे पास मिलता है। तुम बीच बाजार में जो बैठते हो।’ विमल मुस्कुरा दिया। कमल को मानो कोई फर्क नहीं पड़ा। उनकी बातें हिमाचल और गुजरात चुनावों पर चल रही थीं। मैं कमल की प्रकृति जानता था। सो, मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। बात नरेन्द्र मोदी से होती हुई शिवराज सिंह चौहान पर आ गई। भोपाल में चार अक्टूबर को हुए काँग्रेसियों के धरने-प्रदर्शन का हवाला देते हुए विमल ने कहा - ‘2013 में कहीं ज्योतिरादित्य एमपी का सीएम नहीं बन जाए!’ कमल को जैसे बिजली का करण्ट लग गया। तड़पकर बोला - ‘कैसे बन जाएगा?  उसका परिवार देशद्रोही है। झाँसी की रानी को धोखा दिया था इसके परिवार ने। देशद्रोहियों को शासन में नहीं आने देंगे।’ विमल धीमे से, मुस्कुराता हुआ बोला - ‘तेरे साथ यही दिक्कत है। सुनते ही उछल जाता है। मैंने तो एक बात कही यार! तू और मैं कौन होते हैं किसी को शासन में लाने या न लानेवाले?
 
कमल को सन्तोष नहीं हुआ। उन्हीं तेवरों में बोला - ‘पता नहीं तुम लोग देशद्रोहियों का समर्थन क्यों करते हो?’ विमल को अच्छा नहीं लगा। बोला - ‘ऐसा मत बोल यार! तू जानता है कि मैं किसी पार्टी-पोलिटिक्स में नहीं हूँ। मैंने अलग-अलग वक्त पर सबको वोट दिया है - पोपी (काँग्रेसी, जयन्तीलाल जैन) को भी, सेठ (भाजपाई, हिम्मत कोठारी) को भी और दादा (निर्दलीय, पारस सकलेचा) को भी और ये सब तुझे पता है।’ अपनी तड़प यथावत बनाए रखकर कमल बोला - ‘हाँ। वो तो मैं जानता हूँ। लेकिन तेने देशद्रोही परिवारवाले ज्योतिरादित्य की बात कैसे कर दी? तू काँग्रेसियों की तरह बात करता है।’ विमल दुखी हो गया। कमल को समझाते हुए बोला - ‘कौन देशद्रोही है और कौन नहीं, यह तय करना तेरा-मेरा काम नहीं है। सोच-समझ कर बात करनी चाहिए। कभी-कभी वार उल्टा पड़ जाता है।’ विमल की बात कमल को चुनौती लगी। लगभग डाँटते हुए बोला - ‘क्या मतलब है तेरा? मैं देशद्रोही हूँ? देशद्रोहियों का समर्थक हूँ?’ बात खत्म करने की नियत से विमल बोला - ‘देख यार! बात खतम कर। बस! इतना याद रखना चाहिए कि सब तरह के लोग सब जगह होते हैं।’ (सुनकर मैं चौंका। ऐसी बात तो मैं करता हूँ!) लेकिन कमल बात खत्म करने के ‘मूड’ में नहीं था। मानो विमल को ललकार रहा हो, इस तरह बोला - ‘नहीं। बात खत्म नहीं होगी। अब तो तू बता ही दे कि मैंने कब किस देशद्रोही का समर्थन किया या करता हूँ।’ विमल ने फिर कहा - ‘छोड़ यार! चाय पी और छुट्टी कर।’ लेकिन कमल नहीं माना। अड़ा रहा।
 
अन्ततः विमल ने तनिक रोष से कहा - ‘तू सिन्धिया परिवार को देशद्रोही कह रहा है। लेकिन तू जिस पार्टी का हिमायती है उस पार्टी ने ज्योतिरादित्य की दादी, राजमाता विजयाराजे सिन्धिया को जनसंघ के जमाने में माथे पर बैठाए रखा। इस देशद्रोही परिवार की दो बेटियाँ, ज्योतिरादित्य की दो बुआएँ आज भी भाजपा में हैं। एक तो राजस्थान की मुख्यमन्त्री रह चुकी है और इतनी दमदार है कि भाजपा हाईकमान उसके सामने गिड़गिड़ाता रहता है। वो अभी भी विधायक है और शायद राजस्थान विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर है। दूसरी मध्य प्रदेश में ही लोकसभा सदस्य है जिसके नाम के आगे अभी-अभी एक अधिकारी ने ‘श्रीमन्त’ नहीं लिखा तो वह नाराज हो गई। अधिकारी की शिकायत कर दी और हालत यह हो गई कि अधिकारी को माफी माँगनी पड़ी। अब बोल! क्या कहता है?’ सुनकर कमल हक्का-बक्का हो गया। ये सन्दर्भ उसे निश्चय ही याद नहीं रहे होंगे। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। हकलाते हुए (निश्चय ही केवल जवाब देने के लिए) बोला - ‘लेकिन ये तो औरतें हैं। मैं तो मर्द शासकों की बात कर रहा।’ विमल ने फौरन कहा - ‘तेरा मतलब है कि देशद्रोही औरत शासक तुझे कबूल है, मर्द देशद्रोही शासक नहीं?’
 
अब पाँसा पलट चुका था। बातें उस मोड़ पर आ चुकी थी जिससे विमल बचना चाह रहा था। झुंझला कर कमल बोला - ‘मेरा तो यही कहना है कि देशद्रोही कोई भी हो, उसके साथ देशद्रोहियों जैसा ही व्यवहार करना चाहिए।’ विमल बोला - ‘देख! देशद्रोही को या तो फाँसी पर चढ़ाया जाता है या देश निकाला दिया जाता है। काँग्रेसियों पर तो तेरा कोई कण्ट्रोल नहीं है। तू ज्योतिरादित्य का कुछ नहीं कर सकता। लेकिन तेरी पार्टी में तो आवाज उठा सकता है कि ज्योतिरादित्य की दोनों बुआओं को पार्टी से फौरन निकाल कर देशद्रोहियों से पल्ला छुड़ाए। मैं जानता हूँ कि तेरी बात कोई नहीं मानेगा। लेकिन एक बार प्रेस नोट तो जारी कर।’ कमल कुछ नहीं बोला।  समझाइश के स्वरों में विमल बोला - ‘तू हाँ-ना, कुछ नहीं कह रहा। तेरा मतलब है ‘काँग्रेसी सिन्धिया’ तो देशद्रोही है और ‘भाजपाई सिन्धिया’ देशभक्त हैं? ऐसा नहीं है यार! सिन्धिया खानदान के लोगों पर अलग-अलग पैमाने मत लगा। और वैसे भी कोई भी सीएम बने, इससे अपन दोनों को क्या फरक पड़ता है?’
विमल की इस बात के उत्तर में वह हो गया जो नहीं होना चाहिए था। पता नहीं क्यों और कैसे कमल ने जवाब दिया - ‘तेरी नजरों में खोट है। सिन्धिया घराने की औरतें देशद्रोही नहीं हैं। मैं तो बस एक ही बात जानता हूँ कि ज्योतिरादित्य देशद्रोही परिवार से है और देशद्रोहियों को शासन में नहीं आना चाहिए।’ सुनकर विमल को गुस्सा आ गया। बोला - ‘देख कमल! तेरी यह बात अच्छी नहीं है। मैं तो किसी पार्टी-पोलिटिक्स में नहीं हूँ। लेकिन मेरी नजरों में खोटवाली तेरी यह बात गलत है। मैं तो एक बात जानता हूँ - जिसका बाप एक, उसकी बात एक। अब तेरी तू जान।’
 
विमल की इस बात के प्रभाव की कल्पना आप कर लीजिए। कमल आपे से बाहर हो गया। उसने विमल से जो कुछ कहा वह लिख पाना न तो सम्भव है और न ही उचित। जेब से पाँच रुपयों का सिक्का निकाल कर चायवाले को देते हुए, ‘मेरी चाय के पैसे इस टुच्चे से मत लेना।’ कहते हुए तेजी से चला गया।
 
विमल ने गहरी निश्वास ली। करुण दृष्टि से मेरी ओर देखा। बोला - ‘आज वह घड़ी आ गई जिसे मैं बरसों से टाल रहा था। अब तक मैं उसकी झूठी बातें सह-सहकर उसके साथ बना रहा और आज मेरी एक सच बात सुनकर वह मुझे छाड़कर चला गया।’ उसने हम दोनों की चाय का भुगतान किया। तब तक उसकी आँखें भर आई थीं। उसने आकाश की ओर देखा। हाथ जोड़े। अनदेखे-अनचिह्ने को नमस्कार किया। फिर मुझसे बोला - ‘अच्छा बैरागीजी! चलें। आज मैंने अपना बड़ा नुकसान कर लिया। प्रभु इच्छा।’
 
विमल भी चला गया। अब मैं अकेला ही चाय के ठीये पर बैठा था। हतप्रभ - एक लोकोक्ति को साकार होते देखने का अभाग्य लिए।
 

आत्मसम्वाद : सरोजकुमार

मैं जब-जब अपने से
बातें करना चाहता हूँ
न जाने कौन-कौन
बीच में आ जाता है
आत्म-सम्वाद बाधित करते हुए!


उन्हें दूर तक धकियाता हूँ
मुक्त होता हूँ!
पर जब वापस लौटता हूँ अपनी जगह
तब स्वयम् को वहाँ नहीं पाता
जहाँ अभी-अभी
छोड़कर गया था!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

वाहन और सापेक्षतावाद : सरोजकुमार

मैं जब मोटर में बैठता हूँ
मुझे ताँगे-बुर्जुआ
ऑटोरिक्शे फड़तूस
टेम्पो सड़कछाप
और साइकिलें सर्कसिया लगती हैं!


मैं जब ताँगे में बैठता हूँ
मुझे मोटरें सफेद हाथी
रिक्शे आवारे
टेम्पो भोंडे
और साइकिलें छिछोरी लगती हैं!


ऑटोरिक्शे में बैठने पर
मुझे मोटरें स्नॉब
ताँगे ऐतिहासिक
टेम्पो रिडक्शन-सेल
और साइकिलें कंजूस लगती हैं!


मुझे टेम्पो में बैठने पर
मोटरें दुश्मन
ताँगे तमाशा
रिक्शे फिजूल खर्च
और साइकिलें दयनीय लगती हैं!


जब मैं साइकिल पर होता हूँ
मुझे मोटरें वर्ग-भेद
ताँगे सामन्ती
रिक्शे चोंचले
और टेम्पो यमदूत लगते हैं!


मुझे पाँव-पाँव होने पर
मोटरें, ताँगे, रिक्शे, टेम्पो या सइकिलें
खरगोशी आपाधापी के नुमाइन्दे
और फुटपाथ, कछुआ दौड़ की
सुरक्षित गैलरी सा लगता है!


कभी, मन गति को
कभी मन, दृश्यों को ठगता है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

ये शीर्षक मेरी कविता का नहीं : सरोजकुमार

ये हाथ:
मेरी चेतना ने नहीं उठाया है!
ये मुस्कान:
मेरी प्रसन्नता की नहीं है!
ये आभार:
किसी अनुग्रह का नहीं है!
ये प्रशंसा:
किसी करतब की नहीं है!
ये नारे:
मेरे संकल्प के नहीं हैं!
ये आवाज:
मेरी आत्मा की नहीं है!
ये हड़बड़ी:
मेरे आवेश की नहीं है!
 
ये मुस्कान, ये प्रशंसा,
ये हड़बड़ी, ये आवाजें
ये नारे, ये नजारे
मेरे जीवन की शैली हैं
‘‘शैली ही जीवन है’’-
शेष सभी कुछ कालपात्र में गाड़ दो
जिसे मेरे विरोधी जरूर उखाड़ेंगे
और रोएँगे मेरे नाम को!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
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गुस्सा कविता नहीं बन पा रहा है : सरोजकुमार

मेरा गुस्सा नहीं बदल पा रहा है
कविता में!
कविता की नस-नस में
व्याप जाए लावा
कविता की धड़कनों में
खड़कने लगे शंखध्वनि-
तब तो बात बने!
शायद मेरे बस का नहीं
कि लपलपाता गुस्सा
उतार सकूँ कविता में!


लोग वाह-वाह करें
और गुस्सा उन्हें उबाल न पाए,
यह मुझे बरदाश्त नहीं!
क्विता पहले और गुस्सा बाद में
मुझसे नहीं होगा!


मैं पालकी का नहीं
प्रतिमा का जुलूस चाहता हूँ!


आखिर गुस्सा लेकर
मुझे कविता में
घुसना ही क्यों चाहिए,
यह भी सोचता हूँ!
गुस्से के कपड़ों में
पगलाती कविता के
गाल लाल हो जाते हैं
भुजाएँ फड़कने लगती हैं
आँखें बरसाती हैं अंगारे
पर
उन्हें सुनकर
श्रोता मजा लेने लगते हैं
वीर रस का!


और-और मजा चाहते हुए
वंस मोर, वंस मो चीखते हैं
पर खलनायकों के खिलाफ
खड़े होते नहीं दीखते हैं!


कविता को छोड़कर
क्या शस्त्रागार में घुसना
ठीक होगा?
पर वहाँ इन दिनों
योग की कक्षाएँ लग रही हैं!


गुस्सा कविता नहीं बन पा रहा है,
और मेरे पास
कविता के अलावा कोई शस्त्रागार
नहीं है!

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सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
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अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
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आत्मरति : सरोजकुमार

बगीचे की बेंच पर निराश बैठ गया
तय किया, अब कुछ नहीं लिखूँगा!
क्ला-वला, साहित्य-वाहित्य बकवास है
इनके औसारे अब नहीं दिखूँगा!


हाशियों में पड़े-पड़े
कब तक मुरझाऊँगा
आराम से जिऊँगा, फिल्मी गाने गाऊँगा!
दुनिया भर की, मुझे क्यों पड़ना चाहिए?
फटाफट नसैनियाँ चढ़ना चाहिए!


मेरी बात गुलाब ने सुनी
चमेली ने सुनी
गुलदावदी ने सुनी और सबको सुनाई
सबने फटकारा:
जब-जब हमें दुनिया ने नोंचा है
हमने भी, तुझ जैसा ही सोचा है!
दुनिया से हमने भी बचना चाहा है
फूलों की जगह
कुछ और रचना चाहा है!
पर जब-जब कोशिश की,
फूलो के सिवाय
कुछ रचना नहीं आया,
अपने अभिशापों से बचना नहीं आया।

फूलों का सिरजन ही हमारी नियति है!
तू भी घर लौट जा
यह वैराग्य नहीं, आत्मरति है।

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पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
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चादर : सरोजकुमार

चादर के हिसाब से
पाँव वह पसारे
जो अपने नाप की चादर
बुन नहीं सकता हो!


पर वह जो नया-नया उभरा है
जिसकी अस्थियाँ और मज्जा
अभी रास्ते में हैं
उसे मत सिखाओ
चादर का गणित!


उसने यदि पाँव
अभी से सिकोड़े,
वह चल भी नहीं पाएगा
कभी अपने पाँवों पर!
उसे अपनी चादर के बाहर
फैलने दो,
फटने दो चादर को!


चादर का क्या है
वह तो
सफलता की दासी है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
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पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
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शव यात्रा : एक चिन्तन

गए दिनों, एक के बाद एक, तीन शव यात्राओं में (कौशल्या मेडिकल स्टोर वाला हमारा प्रिय राजू भई इसे ‘अन्तिम यात्रा’ कहने का आग्रह करता है) शामिल हुआ। चूँकि तीनों अवसर, एक के बाद एक, लगातार आए शायद इसीलिए दो-एक बातें अधिक प्रभाव से अनुभव हुईं। इस अनुभूति के साथ ही साथ याद आया कि ये सारी बातें पहले भी, शव यात्रा में शामिल होते हुए हर बार ही अनुभव तो हुईं थी किन्तु जिस सहजता से अनुभव हुई थीं, उसी सहजता से विस्मृत भी हो गईं। इस बार याद रहीं तो केवल इसीलिए कि एक के बाद एक लगातार तीन प्रसंग ऐसे आ गए।

पहली बात तो यह अनुभव हुई कि अब समयबद्धता पर अधिक चिन्ता, सजगता और गम्भीरता से ध्यान दिया जाने लगा है। याद आ रहा है कि अधिकांश मामलों में, मृतक के परिजनों ने ही समयबद्धता को लेकर स्वतः चिन्ता जताई। कभी-कभार जब ऐसा हुआ कि बाहर से आनेवाले की प्रतीक्षा में, घोषित समय से विलम्ब होने लगा तो शोक संतप्त परिजनों के चेहरे पर क्षमा-याचना के भाव उभरने लगे।

एक बड़ा अन्तर जो मैंने अनुभव किया वह यह कि पहले शव को ‘तैयार’ करने में परिजन सामान्यतः दूर ही रहते थे। ‘मुर्दा तो पंचों का’ वाला मुहावरा मैंने बचपन में खूब सुना था और उस पर उतना ही प्रभावी अमल भी देखा था।  किन्तु अब यह मुहावरा अपना अर्थ और प्रभाव खोता हुआ नजर आ रहा है। ‘अन्तिम यात्रा’ के लिए शव को ‘तैयार’ करने में परिजनों की भागीदारी लगातार बढ़ती नजर आ रही है। शुरु-शुरु में तो मुझे यह अटपटा लगा था किन्तु अब लग रहा है कि स्थितिजन्य विवशता के अधीन ऐसा करना पड़ रहा होगा। हमारी आर्थिक नीतियों ने हमारे सामाजिक व्यवहार को किस तरह से प्रभावित और परिवर्तित किया है, यह उसी का नमूना लगता है मुझे। हमारी ‘सामाजिकता’ अब प्रसंगों तक सिमटती जा रही है और हम सब भीड़ में अकेले होते जा रहे हैं। गोया, अब हम ‘अकेलों की भीड़’ में बदलते जा रहे हैं। पूँजीवादी विचार आदमी को ‘आत्म केन्द्रित’ होने के नाम ‘स्वार्थी’ (और मुझे कहने दें कि ‘स्वार्थी’ से आगे बढ़कर ‘लालची’) बनाता है। यह सोच हमारे व्यवहार को कब और कैसे प्रभावित करता है, यह हमें पता ही नहीं हो पाता। यह इतना चुपचाप और इतना धीमे होता है कि हम इसे ‘कुदरती बदलाव’ मान बैठते हैं। शायद इसीलिए, ‘मुर्दा तो पंचों का’ वाली भावना तिरोहित होती जा रही है। गाँवों की स्थिति तो मुझे पता नहीं किन्तु शहरों में तो मुझे ऐसा ही लग रहा है।

इन तीनों ही शव यात्राओं की जिस बात ने सबसे पहले और सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षित किया वह है - अर्थी को श्मशान तक पहुँचानेवालों की संख्या में कमी। तीनों मामलों में मैंने देखा कि घर पर जितने लोग एकत्र थे, उसके एक चौथाई लोग ही अर्थी के साथ श्मशान पहुँचे। शेष तीन चौथाई लोग वाहनों से पहुँचे। इनमें से अभी अधिकांश लोग शव के श्मशान पहुँचने से पहले पहुँचे। तीनों ही मामलों में मैं भी इन्हीं ‘अधिकांश लोगों’ में शामिल था। एक समय था जब मैं, नंगे पाँवों, अर्थी को लगातार कन्धा देते हुए, श्मशान तक जाया करता था। किन्तु गए कुछ बरसों से अब केवल अर्थी के उठने के तत्काल बाद, जल्दी से जल्दी, कुछ देर के लिए कन्धा देते हुए, सौ-दो सौ कदम चलता हूँ। तब तक कोई न कोई मेरी जगह लेने के लिए आ ही जाता है और मैं अर्थी छोड़ कर, अपनी चाल धीमी कर, जल्दी ही शव यात्रा के अन्तिम छोर पर आ जाता हूँ और थोड़ी देर रुक कर, अपना स्कूटर लेकर श्मशान के लिए चल देता हूँ। ऐसा करते समय मैंने हर बार पाया कि मुझ जैसा आचरण करनेवाले लोग बड़ी संख्या में हैं और जो कुछ मैंने किया वही सब, वे लोग जल्दी से जल्दी (यथा सम्भव, सबसे पहले) करके, अपने-अपने वाहन पर सवार हो चुके हैं।

लगातार तीन मामलों में यह देखने के बाद अब याद आ रहा है कि ऐसे में अर्थी ढोने का जिम्मा गिनती के कुछ लोगों पर आ जाता है। अच्छी बात यह है कि गिनती के ऐसे लोगों में अधिकांश वे ही होते हैं जो भावनाओं के अधीन यह काम करते हैं। किन्तु कुछ लोग अनुभव करते हैं (यह अनुभव ऐसे लोगों के सुनाने के बाद ही कह पा रहा हूँ) कि वे ‘फँस’ गए थे और चूँकि कोई ‘रीलीवर’ नहीं आया, इसलिए मजबूरी में कन्धा दिए रहे। ऐसे में ‘दुबले पर दो आषाढ़’ वाली उक्ति तब लागू हो जाती है जब, शव यात्रा का मार्ग विभिन्न कारणों से, अतिरिक्त रूप से लम्बा निर्धारित कर दिया जाता है। कहना न होगा कि भावनाओं के अधीन स्वैच्छिक रूप से करनेवाले हों या ‘फँस’ कर, विवशता में करनेवाले हों, दोनों ही प्रकार के लोग सचमुच में थक कर चूर हो जाते हैं। वे मुँह से तो कुछ नहीं बोलते किन्तु श्मशान पहुँचने के बाद उनकी आँखें सबको काफी-कुछ कहती नजर आती हैं।

ऐसे में मुझे हर बार लगा कि अब शव यात्रा के लिए वाहन का उपयोग अनिवार्यतः किए जाने पर विचार किया जाना चाहिए। हमने अपनी अनेक परम्पराओं में बदलाव किया है। कुछ बदलाव अपनी हैसियत दिखाने के लिए तो कुछ बदलाव स्थितियों के दबाव में स्वीकार किए हैं। शव यात्रा के मामले में हमने यह बदलाव फौरन ही स्वीकार कर लेना चाहिए। मेरा निजी अनुभव है कि जिन-जिन परिवारों ने, शव यात्रा के लिए वाहन प्रयुक्त किया, उन्हें सबने न केवल मुक्त कण्ठ से सराहा अपितु उन्हें धन्यवाद भी दिया - अधिसंख्य लोगों ने मन ही मन, कुछ लोगों ने आपस में बोलकर और कुछ लोगों ने ऐसे परिवारों के लोगों से आमने-सामने। इन्दौर सहित अनेक नगरों में तो एकाधिक लोग ऐसे सामने आए हैं जो शव यात्रा के लिए अपनी ओर से निःशुल्क वाहन व्यवस्था किए बैठे हैं। मुझे याद नहीं आ रहा किन्तु इन्दौर के, सिन्धी समुदाय के एक सज्जन यह काम खुद करते हैं। वाहन भी उनका, ईंधन भी उनका और वाहन चालक भी वे खुद। अधिक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात यह कि यह सब करके वे ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि इस काम के लिए उन्हें माध्यम बनाया।

ऐसी बातें करने से लोग प्रायः ही बचते हैं। कन्नी काटते हैं। ऐसी बातें करना ‘अच्छा’ नहीं माना जाता। यह अलग बात है कि अधिसंख्य लोग (ताज्जुब नहीं कि ‘सब के सब’) मेरी इन बातों से सहमत हों। 

तो, यह ‘अच्छा नहीं काम’ मैंने कर दिया है। इसके क्रियान्वयन की अच्छाई का श्रेय आप ही ले लीजिए।

सपाट संसार : सरोजकुमार

जो झूठ को झूठ नहीं कह पाता,
वह सच को सच क्या कहेगा!
जो दुश्मन को दुश्मन नहीं कह पाता,
वह दोस्त को दोस्त क्या कहेगा!
जो काँटे को काँटा नहीं कह पाता,
वह फूल को फूल क्या कहेगा!


जिसे बुरा, बुरा नहीं लगता,
उसे भला, भला क्या लगेगा?
जिसे अन्याय, अन्याय नहीं लगता,
उसे न्याय, न्याय कैसे लगेगा?
जिसे गुलामी, गुलामी नहीं लगती,
उसे आजादी, आजादी कैसे लगेगी?


जिसके लिए पाप, पाप नहीं है,
उसके लिए पुण्य, पुण्य कैसे होगा?
जिसके लिए आग, आग नहीं है,
उसके लिए पानी, पानी कैसे होगा?
जिसके लिए धरती, धरती नहीं है,
उसके लिए आकाश, आकश कैसे होगा?


ज्ञान और साहस है-
तो जीवन है, ठाठ है!
जड़ता है, भय है-
तो संसार सपाट है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

महबूब की बेवफाई

मैं सार्वजनिक उपक्रमों का पक्षधर हूँ। मेरी धारणा  है  कि ये हम सामान्य लोगों को निजी क्षेत्र की मनमानियों और शोषण से बचाते हैं। यह भी जानता हूँ ‘सरकारी’ होने के कारण भ्रष्टाचार और लापरवाही इनका स्वभाव बने हुए हैं। इसके बाद भी मैं इनका पक्षधर हूँ। अन्धा पक्षधर। किन्तु ऐसा भी नहीं कि विवेक को ताक पर रख दूँ। इसीलिए, ‘इनसे भी’ लड़ता हूँ और ‘इनके लिए भी’ लड़ता हूँ। मैं ‘प्रेमी’ की तरह अपनी प्रेमिका पर अधिकार भी जताता हूँ और उसकी चिन्ता भी करता हूँ। इसीलिए, बीएसएनल का अनपेक्षित व्यवहार मुझे ‘प्रेमिका की बेवफाई’ जैसा लगा और मैं छटपटा उठा।

मेरे साथी अभिकर्ता कैलाश शर्मा ने किराए के मकान से खुद के मकान में रहना शुरु किया तो उसे अपना फोन नई जगह स्थानान्तरित कराना ही था। पहली अगस्त को कैलाश ने अपने मकान में अपनी गृहस्थी जमाई। इससे पहले कि वह फोन स्थानान्तरित करने का आवेदन दे पाता, केंसरग्रस्त अपने एक प्रियजन के लिए उसे अचानक ही इन्दौर जाना पड़ा। फोनवाला काम वह मेरे जिम्मे कर गया। दो अगस्त को राखी की छुट्टी थी। तीन अगस्त को मैंने बीएसएनएल कार्यालय जाकर, कैलाश का आवेदन लगाया। कुछ परिचित वहाँ निकल आए। मैंने उनसे व्यक्तिशः अनुरोध कर काम जल्दी से जल्दी कराने का अनुरोध किया क्योंकि अपने परिवार से सम्पर्क बनाए रखने के लिए कैलाश का यही माध्यम था।

सबने भरपूर गर्मजोशी दिखाई और भरोसा दिलाया कि मैं चिन्ता न करूँ क्योंकि पहली नजर में यह काम ‘हाथों-हाथ’ होने जैसा है। वहीं मुझे भाई राकेश देसाई मिल गए। मुझे पता नहीं था कि वे उसी कार्यालय में बड़े अधिकारी हैं। यह काम यद्यपि उनके क्षेत्राधिकार का नहीं था फिर भी, अपनी सीमाओं से परे जाकर, आगे रहकर उन्होंने मेरी मदद की। मुझे विश्वास हो गया कि तीन अगस्त की शाम होते-होते कैलाश के नए मकान पर फोन लग ही जाएगा और इस गम्भीर परिस्थिति में कैलाश अपने परिवार से सतत् सम्पर्क में रह सकेगा।

किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। एक दिन, दो दिन, तीन दिन निकल गए। फोन नहीं लगा। तलाश किया तो कभी ‘लाइनमेन को कह दिया है’ तो कभी ‘अरे! क्या बात करते हैं? अब तक नहीं लगा? अभी दिखवाते हैं। आप जाइए।’ जैसे प्रभावी जुमले सुनने को मिले। लाइनमेन से मैं दो बार मिला और चार-पाँच बार उससे फोन पर बात की। पहले दिन तो उसके साथ जाकर उसे कैलाश का नया मकान भी दिखाया।

इस बीच मैं भी अपने काम में उलझ गया। कैलाश का इन्दौर आना-जाना बराबर बना हुआ था। चूँकि उसकी ओर से कोई शिकायत या उलाहना नहीं मिला तो मुझे लगा, फोन लग गया होगा।

सत्रह अगस्त को, बीमा कार्यालय में कैलाश से, तसल्ली से मुलाकात हुई। वह इन्दौर से लौट आया था। केंसरग्रस्त उसके प्रियजन की दशा बेहतर थी। बातों ही बातों में पता लगा कि फोन अब तक, याने आवेदन के पन्द्रहवें दिन तक उसके नए मकान पर नहीं लगा है, वह भी इतनी भाग-दौड़ और कई लोगों से ‘भाई-दादा’ करने के बाद भी! मैं हत्थे से उखड़ गया और वह व्यवहार कर बैठा जिसे मैं खुद अनुचित मानता हूँ।

मैंने, रतलाम में पदस्थ, बीएसएनएल के सबसे बड़े अधिकारी का नम्बर लेकर फोन लगाया। उनकी महिला सहायक ने फोन उठाया। उन्होंने पूरा मामला जानना चाहा। मैंने कहा - ‘आपको ही सब बता दूँगा तो अधिकारी से क्या बात करूँगा?’ मैंने आपे से बाहर होते हुए कहा - ‘मुझे आपसे बात नहीं करनी। अपने अधिकारी से मेरी बात कराइए।’ उस भद्र महिला ने मेरी अशिष्टता की अनदेखी करते हुए कहा कि पूरी बात जानना और ग्राहक से बात कराने से पहले पूरा मामला अधिकारी को बताना उसकी ड्यूटी में शरीक है। मैंने पूरी बात बताई और कहा - ‘मैंने आपको पूरी बात बता दी। अब अधिकारी से मेरी बात कराइए।’ महिला ने विनम्रता से कहा कि अधिकारी अभी दूसरे फोन पर व्यस्त हैं इसलिए मैं ‘थोड़ी देर बाद’ फिर फोन लगा लूँ। मैंने उबलते हुए, पूरी कड़वाहट से पूछा - ‘थोड़ी देर बाद’ याने कितनी देर बाद?’ महिला ने पूर्ववत् विनम्रता से कहा - ‘थोड़ी देर बाद।’ मैंने फोन रखते ही, एक सेकण्ड से भी कम समय बाद ही फिर फोन लगा दिया। उधर से वही ‘थोड़ी देर बाद’ की बात कही गई। गुस्से में उबलते हुए मैंने, इस ‘थोड़ी देर बाद’ को अपनी सुविधा से व्याख्यायित करते हुए, पाँच-सात बार, फोन लगा दिया - हर बार एक सेकण्ड से भी कम समय में।

अन्ततः अधिकारी से बात हुई। मैंने पूरा किस्सा सुनाया और कहा कि फोन लगना न लगना एक बात है किन्तु विभाग ने एक बार भी आवेदक से सम्पर्क नहीं किया और न ही यह बताया कि उसका फोन लगेगा या नहीं और लगेगा तो कब तक लगेगा। मैंने दोहरी शिकायत की - काम न होने की और इस बारे में सम्वादहीनता बरतने की। अधिकारी ने शान्त और संयत स्वरों में मेरी हर बात से सहमति जताई और कहा - ‘आप ठीक कह रहे हैं। हम आज ही शर्माजी को स्थिति से अवगत करा देंगे।’ अधिकारी से बात समाप्त करने से पहले मैंने उनका नाम जानना चाहा। उन्होंने कहा - ‘मैं बिड़वई बोल रहा हूँ।’ 

केवल बीएसएनएल के व्यवहार से ही नहीं, अपने इस व्यवहार से भी मैं दुःखी भी था और क्षुब्ध भी। खुद से नजरें मिला पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। सो, बात समाप्त करते ही मैं वहाँ से घर चला आया। मैंने वह सब किया और कहा था जिसे मैं खुद अनुचित, अशालीन और अशिष्ट मानता हूँ। संस्कारों से अपने इस स्खलन से मैं मर्माहत था और अपनी ही नजरों में गिरा हुआ भी। लेकिन आगे जो हुआ उसने मुझे उलझन में डाल दिया।
कोई आधे घण्टे बाद ही  कैलाश का फोन आया। वह घर से ही बोल रहा था और मुझे धन्यवाद दे रहा था। याने, उसके नए मकान पर फोन लग गया था। मुझे अच्छा तो लगा किन्तु दुःख भी हुआ। जो काम आधे घण्टे में हो गया वह पूरे पन्द्रह दिनों तक क्यों नहीं हो पाया? क्या अपने काम कराने के लिए प्रत्येक आदमी को बिड़वईजी से बात करनी पड़ेगी और ऐसी भाषा-शैली में बात करनी पड़ेगी? यदि बिड़वईजी से ही बात करनी है तो फिर कहाँ है व्यवस्था? जो कुछ हुआ वह सब मेरे व्यवहार, मेरी भाषा-शैली, लहजे, मेरे संस्कार-स्खलन को वाजिब ठहरा रहा था। मैं हतप्रभ था।

मैंने तत्काल ही बिड़वईजी को और उनकी सहायक श्रीमती व्यास को (उनका नाम मुझे बिड़वईजी से ही मालूम हुआ) धन्यवाद दिया और अपने व्यवहार के लिए क्षमा-याचना की। दोनों ने उदारतापूर्वक कहा - ‘आप क्षमा मत माँगिए। आपने ऐसा कुछ भी नहीं किया-कहा।’ यह उन दोनों का ‘बड़ापन’ हो न हो, ‘बड़प्पन’ तो था ही।
काम तो हो गया किन्तु जिस तरह से हुआ उससे लग रहा है कि किस्सा खत्म नहीं हुआ। लगता है, ‘महबूब’ के सितम जारी रहेंगे। सितम करना और करते रहना शायद महबूब की फितरत भी होती है और पहचान भी।

सोच रहा हूँ, बिडवईजी यह सब पढ़ लें और महबूब की फितरत और पहचान बदलने का यश हासिल कर लें।

खिड़कियाँ : सरोजकुमार

सवाल सिर्फ खिड़कियों का नहीं
                    उनके खुली रहने का है!


खिड़की होने भर से
                    खिड़की नहीं हो जाती,
काल-कोठरियों में भी होती हैं
बन्द रखी जाने के लिए खिड़कियाँ!


दीवारें जनम से सबके साथ हैं
सख्त से सख्ततर होती हुईं
खिड़कियाँ
दीवारों को भेद कर ही सम्भव हैं!


ताजी हवा फेफड़ों के लिए
और संसार
सपनों की सेहत के लिए
जरूरी है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

खून नहीं, दूध बहता है नसों में

ऐसी यातना मैंने अब तक किसी यात्रा में नहीं झेली। नर्क यात्रा और कैसी होती होगी? 22 जुलाई को दोपहर लगभग साढे तीन बजेवाली रेल से मैं रतलाम से राजेन्द्रनगर (इन्दौर) के लिए चला था। मेरा यात्रा टिकिट नम्बर एस-52084459 था।
 
हमारे नेताओं के निर्लज्ज निकम्मेपन,  रेल अधिकारियों के (क्रूरता की सीमा तक के) रूखेपन और जन सामान्य की, सब कुछ सहते हुए चुप रहने की प्रकृति, के कारण, रतलाम-महू के बीच चल रही छोटी लाइन की रेलों से यात्रा करना किसी दण्ड भोगने से कम नहीं रह गया है। रेल अधिकारियों का रवैया कुछ ऐसा कि मानो हड़का रहे हों - ‘हजार बार कह दिया है कि यात्रा मत करो। फिर भी नहीं मान रहे हो तो जाओ! मरो! करो यात्रा अपनी ऐसी-तैसी कराते हुए।’
 
बैठने की जगह तो रतलाम से ही मिल गई किन्तु थोड़ी मेहनत करनी पड़ी। रेल्वे की कोई परीक्षा देने के लिए आए, महू लौट रहे चार रेलकर्मियों ने, बैग रख कर अपने उस साथी के लिए जगह रोक रखी थी जो दुनिया में था ही नहीं। मैंने हाथ जाड़कर (सचमुच में हाथ जोड़कर कर) कहा - ‘आपका दोस्त आ जाएगा तो मैं उठ जाऊँगा।’ अत्यधिक अनमनेपन ने उन्होंने मुझे बैठने की अनुमति देने का उपकार किया।

डिब्बे में भरपूर भीड़ थी। हिलना-डुलना दूभर था। फिर भी सबकी यात्रा प्रसन्नतापूर्वक जारी थी। किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं थी। मौसम बदराया हुआ था। लग रहा था, बरसात होगी। इस ‘लगने’ के दम पर ही सब आशा भी कर रहे थे कि बरसात हो ही जाए। फतेहाबाद से ठीक पहलेवाले फ्लेग स्टेशन, ओसरा से कुदरत महरबान हो गई। बरसात शुरु हो गई। जल्दी ही फतेहाबाद आ गया। वे ही हरकत में आए जिन्हें उतरना था। कुछ लोग चढ़े भी। लेकिन उतरने-चढ़नेवालों को परे धकेलते हुए और जोरदार हल्ला करते हुए, तीन-चार लोगों ने, डिब्बे के दोनों दरवाजों और दोनों शौचालयों के बीच दूध की टंकियाँ जमा दीं - पाँच टंकियाँ दरवाजों के बीच और दो टंकियाँ शौचालयों के बीच। इतना ही नहीं, दरवाजे से अन्दर (सीटों की ओर) आनेवाली जगह पर भी दो टंकियाँ रख दीं। अब स्थिति यह कि जो जहाँ बैठा/खड़ा था, वहीं बैठा/खड़ा रहे। हिलना-डुलना, आना-जाना बन्द। टंकियों की ऊँचाई इतनी कि फलाँग कर भी नहीं जा सकते। अब कोई, पेशाब करने के लिए भी नहीं जा सकता था। कुछ लोगों ने टंकियों को ही ‘सीट’ बना लिया। स्थिति ऐसी बन गई थी मानो डिब्बा था तो दूध की टंकियाँ रखने के लिए और हम लोग जबरन उसमें घुस कर बैठ गए हों।
 
मुझे अजीब तो लगा ही, असहनीय भी लगा। मैंने हाँक लगा कर पूछा - ‘ये किसकी टंकियाँ हैं भाई?’ कोई जवाब नहीं आया। जाहिर था कि टंकियाँ रखनेवाले अपना काम करके जा चुके थे। मैंने फिर हाँक लगाई - दूसरी, तीसरी बार। सुनकर एक नौजवान प्रकट हुआ। मुझे हड़काते हुए बोला - ‘क्या बात है? क्यों चिल्ला रहे हो?’ मैंने टंकियाँ रखने और रास्ता बन्द होने पर आपत्ति जताई और कहा कि टंकियाँ भले ही रखी रहें किन्तु इस तरह कि शौचालयों तक जाने के लिए तथा यात्रियों के चढ़ने-उतरने के लिए रास्ता मिल जाए। मेरी बात को उसने अपनी हेठी समझा। आँखें तरेरकर और त्यौरियाँ चढ़ाकर बोला - ‘टंकियाँ तो रख दी हैं औैर अब यहीं रखी रहेंगी। बोलो! क्या करना है?’ आसपास बैठे/खड़े यात्रियों से सहयोग/समर्थन मिलने की आशा में अपने आसपास देखते हुए मैंने उससे कहा कि मैं उसकी इस हरकत की और गैर कानूनी रूप से टंकियाँ रखने की शिकायत डीआरएम और सीनीयर डीसीएम से  करूँगा। जवाब में उसने जो कुछ कहा और जिस तरह से कहा, उससे लगा कि उसे पता था कि मैं क्या कहूँगा। मेरी ओर देखे बिना, लापरवाही से उसने कहा - ‘जरूर करना और आकर मुझे बताना कि क्या हुआ?’ उसके तेवर और अपने कहे पर उसका आत्म विश्वास देखकर मैं हक्का-बक्का रह गया। मेरी बदरंग शकल देखकर उसे मजा आ गया। मेरा मखौल उड़ाते हुए वह बोला - ‘चुपचाप बैठे रहो सा‘ब। लगता है, आप साल में कभी-कभार ही रेल में बैठते हो। यहाँ रोज की बात है। हम लोग रोज टंकियाँ रखते हैं और किसी से छुपा कर, चुपचाप नहीं रखते। सारी दुनिया के सामने रखते हैं। आप जैसे कई आए और चले गए। शिकायतें भी हुईं हैं और होती रहती हैं। आज तक कुछ नहीं हुआ। आप भी चाहो तो शिकायत करके तसल्ली कर लो। कुछ नहीं होगा। स्टेशन के पोर्टर से लेकर डीआरएम तक की नसों में खून नहीं, हमारा दूध बहता है। अब नमक के असरवाला जमाना गया। अब नमक का नहीं, दूध का असर होता है। बरसों से हो रहा है। सारी दुनिया देख रही है। आप भी शिकायत करके देख लो। आपको भी मालूम हो जाएगा।’

मुझे बहुत बुरा लगा। तय नहीं कर पा रहा था कि मुझे गुस्सा अधिक आ रहा है या रोना। लगा, अभी रोना आ जाएगा। मेरी आँखें डबडबा आईं। अपने आसपास देखा। कोई भी उस नौजवान से कुछ कहने को, मेरा साथ देने को तैयार नहीं लगा। मुझे लगा, सब मेरी ओर दया भरी नजरों से देख रहे हैं। मुझे और अधिक बुरा लगा।
 
अकस्मात ही मेरा विवेक और आत्म विश्वास लौटा। नहीं, वे मुझ पर दया नहीं दिखा रहे थे। उन सबकी नजरों में दयनीयता उजागर हो रही थी। वे भली प्रकार जान रहे थे कि मैं सही हूँ, उन्हें मेरा साथ देना चाहिए था और चुप रहकर वे अनुचित का समर्थन करने का ‘आदतन- अपराध’ कर रहे थे।

मैंने खुद की पीठ थपथपाई - मैं कामयाब नहीं हुआ तो क्या? मैंने प्रतिकार करने का साहस और यत्न तो किया! स्टेशन पोर्टर से लेकर डीआरम तक, सबके सब अपनी-अपनी जानें। अपने बारे मे मैं भली प्रकार जानता हूँ कि मेरी नसों में खून ही बह रहा है, फतेहाबाद के दूधियों का दूध नहीं।           

दीदी : सरोजकुमार

भैया विदेश से लौटे नहीं
वहीं की शादी
                    और बस गए!
पैसे भेजते रहे!
पैसे आते रहे! पैसे भाते रहे!


पढ़-लिख कर मुन्नी कुसुम हुई
फिर सबकी दीदी!
दीदी ने नौकरी की
भैया ने बधाई भेजी
और पैसे भेजना बन्द कर दिया!
बूढ़े बाबूजी कहते:
                    कुसुम हमारी
बेटी नहीं, बेटा है!


दीदी ने छोटी कुन्दा की
शादी की!
छीदी की शादी नहीं हुई
शायद की नहीं!
अम्मा कहतीं:
                    भगवान बेटी दे, तो ऐसी दे!


बाबूजी चल बसे
अम्मा बस हैं ही हैं!
‘दीदी’ शब्द से
काफी बड़ी हो गई दीदी!
चश्मा पहनी तो
और बड़ी लगती हैं!


चुप रहने लगी हैं!
लोग कहते हैं
शादी नहीं होने के
                    सदमे से चुप्पी है!


कुन्दा, लड़कर
                    घर लौट आई
डेड़ साल की बच्ची ले!
माँ नाराज हुई
                    दीदी  आहत!
कुन्दा कहती है
विवाह नहीं कर दीदी ने
सुख ही सुख भोगा है,
उसे दुख सहने को भेजा
था रौरव में!
वह दीऽऽदीऽऽऽ अलापती
लिपट गई दीदी से
                    लिपटी रहने के लिए!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

बड़ापन कोठियों मे, बड़प्पन सड़कों पर

यह, कुछ दिनों पहले की, इन्दौर की बात है। एक मित्र के यहाँ बैठा था। वे साहित्यकार तो नहीं हैं किन्तु ‘साहित्य और साहित्यकार प्रेमी’ हैं। इसीलिए, इन्दौर के अनेक साहित्यकारों से उनका जीवन्त सम्पर्क है। कुछ इतना कि प्रतिदिन औसतन पाँच-सात, लिखने-पढ़नेवालों से सम्पर्क हो ही जाता है - प्रत्यक्ष या फोन से।
 
चाय पी कर हम दोनों बतिया ही रहे थे कि, कॉलेज में पढ़ रहा उनका बेटा, अपने सात-आठ मित्रों के साथ आया। अप्रसन्नता और आक्रोश उसके चेहरे पर छाया हुआ था। वह मुझे जानता है। फिर भी, मुझे देखकर एक क्षण के लिए अचकचाया। उसने मुझे नमस्कार तो किया जरूर किन्तु उसका ध्यान अपने पिता की ओर ही था। साफ लग रहा था कि वह अपने पिता से कुछ कहना चाह रहा था किन्तु मेरी उपस्थिति उसे रोक रही थी। खुद को ‘बाधक’ पाकर मुझे असुविधा हुई। मैंने उठना चाहा तो मित्र ने रोक दिया - ‘कहाँ चल दिए। बैठिए। अपनी बात अभी तो शुरु भी नहीं हुई।‘ फिर बेटे से बोले - ‘यदि कोई नितान्त व्यक्तिगत बात न हो तो, झिझको मत। भैया के सामने कह दे।’ 
 
मेरी उपस्थिति का प्रभाव यह हुआ कि उसने अपने रोष को तनिक दबाते, तनिक संयमित होने का प्रयास करते हुए अपनी बात कही। मित्र के एक सहित्यकार मित्र का नाम लेकर उसने कहा - ‘आज मेरे इन सारे दोस्तों के सामने उन्होंने मेरी इंसल्ट कर दी।’ साहित्यकार सज्जन का नाम सुनकर मित्र को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कहा - ‘क्या बात करता है? वे ऐसा नहीं कर सकते।’ उनका बेटा बोला - ‘आप मेरी बात पर विश्वास मत कीजिए। मेरे इन दोस्तों से पूछ लीजिए।’ मित्र ने कहा - ‘मैं भला तुझ पर अविश्वास क्यों करूँगा। खुलकर पूरी बात बता।’ मित्र के बेटे ने जो कुछ बताया, उसी के कारण मुझे यह सब  लिखना पड़ रहा है।
 
मेरे मित्र का बेटा अपने कॉलेज में साहित्यिक गतिविधियों का प्रभारी है। अपने कॉलेज में व्याख्यान के लिए उसने दिल्ली के एक स्थापित साहित्यकार को राजी कर लिया। नाम सचमुच में भारी-भरकम और भीड़ खींचनेवाला था। मित्र के बेटे ने अनुभव किया कि इतने बड़े, स्थापित साहित्यकार से जुड़ा आयोजन भव्य तो हो ही, व्यवस्थित और प्रभावी भी हो। उसने अनुभव किया कि वह खुद इस कार्यक्रम के संचालन के लिए उपयुक्त पात्र नहीं है। इसलिए उसने सोचा, इन्दौर के किसी साहित्यकार से कार्यक्रम संचालन करवाना बेहतर होगा। यह विचार आते ही उसे अपने पिता के एक साहित्यकार मित्र याद आ गए। कार्यक्रमों का संचालन करने के लिए वे नगर के श्रेष्ठ व्यक्ति माने जाते रहे हैं। मित्र का बेटा, अपने मित्रों सहित, बड़े विश्वास के साथ उनके पास गया था। वे भी मेरे मित्र के बेटे को भली प्रकार जानते थे। बीसियों बार मेरे मित्र के घर जलपान कर चुके थे। मित्र का बेटा मान कर ही गया था कि वे उसका अनुरोध फौरन स्वीकार कर लेंगे। लेकिन हुआ इसका एकदम विपरीत।
 
मित्र के बेटे की बात सुनते ही वे ‘लाल-भभूका’ हो गए। खूब खरी-खोटी सुनाई। जमकर डाँटा। जैसा मेरे मित्र के बेटे ने बताया, अपनी बात उन्होंने कुछ इस तरह समाप्त की - ‘मुझसे यह काम कराने का कहने के लिए आने से पहले कम से कम एक बार अपने बाप से तो पूछ लिया होता! वह तो जानता है कि अब मैं या तो मुख्य अतिथि होता हूँ या फिर अध्यक्षता करता हूँ। कार्यक्रमों का संचालन करने का घटिया काम मैंने कभी से बन्द कर दिया है।’ लड़का हक्का-बक्का रह गया। कुछ सूझ नहीं पड़ी। मित्रों की उपस्थिति में खाई इस फटकार ने उसे  मर्माहत कर दिया। अत्यन्त कठिनाई से अपने आँसू रोक, उल्टे पाँवों लौट आया। नमस्कार करना भी भूल गया। वह दो कदम चला ही था कि उन साहित्यकार सज्जन ने आवाज लगाई - ‘सुन! अपने बाप को भी यह खबर दे देना।’
 
बेटे की बात सुनकर मेरे मित्र गम्भीर हो गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि शब्द से सरोकार रखनेवाला कोई आदमी ऐसा व्यवहार कर सकता है, ऐसी भाषा वापर सकता है। उन्होंने बेटे की ओर देखा। वे कुछ कहते उससे पहले ही बेटा बोला - ‘आपको विश्वास नहीं हो रहा ना? आप मेरे साथ चलिए। मैं आपके सामने ही उनसे यह सारी बात कह दूँगा।’ मित्र ने फौरन कहा - ‘इसकी कोई जरूरत नहीं। मैंने पहले ही कहा है कि मैं तुझ पर अविश्वास नहीं करूँगा। कोई जरूरत नहीं है उनके सामने यह सब कहने की। पर तू भूल जा इस बात को। अपना मन छोटा मत कर। चल! बैठ! अपन पाँच-सात साहित्यकारों के नाम छाँट लेते हैं। कोई न कोई तो कार्यक्रम का संचालन करने को तैयार हो ही जाएगा। मैं खुद चलूँगा तेरे साथ।’ बेटे को राहत मिली। उसका गुस्सा और कम हुआ। लेकिन चोट की पीड़ा समाप्त नहीं हुई थी। बोला - ‘‘वो तो ठीक है पर अब आगे से आप उन्हें अपने यहाँ मत बुलाना। आपके लिए उन्होंने बार-बार ‘बाप‘ कहा। वह मुझे अच्छा नही लगा। वे ‘तेरे पिताजी’ भी तो कह सकते थे!’’ मित्र ने बेटे का हाथ खींचकर अपने पस बैठाया। उसके सर पर हाथ फेरा। बोले - ‘ठीक है। मैं नहीं बुलाऊँगा। लेकिन वे खुद कभी आ गए तो? घर आए का सम्मान तो करना पड़ेगा ना?’ बेटा कुछ नहीं बोला। अपने मित्रों के साथ दूसरे कमरे में (शायद अपने कमरे में) चला गया।
 
वातावरण बोझिल हो गया था। मेरा जी कसैला हो गया था। मित्र जिन साहित्यकार सज्जन का नाम लिया था, उन्हें मैं भी व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ। उनसे ऐसे व्यवहार की कल्पना मैं सपने में भी नहीं करता। मित्र भी असहज हो गए थे। मेरी दशा यह कि मैं चलने की कहने की हिम्मत भी नहीं जुटा रहा था। हम दोनों चुप थे। अन्ततः मित्र ने ही चुप्पी तोड़ी। फीकी हँसी हँसते बोले - ‘आधा-आधा कप चाय और हो जाए?’ मेरी चुप्पी ही मेरी सहमति थी। चाय के दौरान मित्र ने निराशा के साथ बताया कि वे साहित्यकार मित्र पहले भी कुछ और लोगों के साथ ऐसा व्यवहार कर चुके हैं। वे समझ नहीं पा रहे थे कि साहित्यकार सज्जन ऐसा क्यों कर रहे हैं।
 
मैं चलाआया। रास्ते में ही याद आया, गए दिनों मेरे कस्बे में सम्पन्न हुआ, साहित्यिक केलेण्डर का विमोचन समारोह। उस आयोजन में डॉक्टर जयकुमारजी जलज श्रोताओं में, सबसे आगे बैठे थे। मुझे पहले से ही पता था कि वे श्रोताओं में ही बैठेंगे किन्तु उन्हें इस तरह श्रोताओं में बैठे देखकर मुझे बड़ी असुविधा हो रही थी। उन्हें इस स्थिति में देखने की आदत नहीं मेरी आँखों को। जलजजी मेरे कस्बे के अग्रणी (‘अग्रणी’ नहीं, ‘प्रथम’) सारस्वत-पुरुष हैं। उस आयोजन में मंचासीन महानुभावों सहित उपस्थित समुदाय में जलजी ‘शिखर पुरुष’ थे। उस आयोजन के स्तर से कहीं अधिक स्तरीय आयोजनों में मैंने जलजजी को हमेशा मंच पर ही देखा। सो मुझे असुविधा हो रही थी। किन्तु जलजजी पूरे सहज सहज भाव से बैठे रहे और सबको सुनते रहे। एक क्षण को भी उन्होंने अपने ‘बड़ेपन’ का आभास भी नहीं होने दिया। वे सहजता से आये, सहजता से बैठे, सहजता से बैठे रहे और सहजता से चले गए। 
  
                                                               श्रोताओं मे बैठे जलजजी
इस याद से उबरता उससे पहले एक और बात याद आ गई। बरसों पहले, मध्य प्रदेश के लोक निर्माण विभाग ने, पूरे मध्य प्रदेश में, सड़कों के किनारे, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर, एक ‘सुभाषित’ लिखे बोर्ड लगवाए थे। यह ‘सुभाषित’ था - ‘बड़ा होना अच्छा है किन्तु बड़प्पन उससे भी अच्छा है।’
 
ये दोनों बातें याद आते ही मैं ठिठक गया। एक के बाद एक बातें मन में घुमड़ने लगीं। खुद को बड़ा बताने/जताने के लिए लोग महलों/कोठियों में बन्द हो कर बैठ जाते हैं और खुश होते रहते हैं कि वे बड़े बन गए। किन्तु वे ‘बड़ेपन’ और ‘बड़प्पन’ का अन्तर नहीं जानते।
 
वे सड़कों पर आते तो यह अन्तर जान पाते। 

कार्टून : सरोजकुमार

तुम्हारे आगे आगे
विज्ञान
जासूसी कुत्ते की तरह
चल रहा है
रहस्यों को टटोलते
सूँघते!


वह यहाँ-वहाँ
चक्का काटकर
ठीक तुम्हारी ही बैठक में
लौटेगा
अपने ही हाथों
तुम्हारी गिरफ्तारी
सुनिश्चित है!


जीवन और जगत की
एक-एक परत उधेड़ना,
कमाल कहा जाएगा,
उपलब्धि नहीं!


नाप से बड़े कपड़े ही
हमारा कार्टून नहीं बनाते
जरूरत से ज्यादा
चमक अन्धा,
धन बावला और
अकल पागल बना देती है!


दूरबीन से अधिक कीमत
आँख की होती है,
मुट्ठी भी बँधी हुई
लाख की होती है।

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

बड़बोले बयान और लोकतन्त्र का ऊँट



वो नेता ही क्या जो बड़बोला न हो। और नेता यदि सत्ता पक्ष से जुड़ा हो तो यह बड़बोलापन नीम चढ़ा करेला बन जाता है। तब, नेता की बातें, बातें नहीं रह जातीं। वे गर्वोक्तियाँ और दम्भोक्तियाँ बन जाती हैं। अण्णा के, 2011 वाले आन्दोलन के दौरान, काँग्रेस के तत्कालीन प्रवक्ता मनीष तिवारी के वक्तव्य, उनकी शब्दावली, उनकी भाषा याद कीजिए! उनके तेवर और मुख मुद्राएँ याद कीजिए! लगता ही नहीं था कि वे इसी धरती के सामान्य मनुष्य हैं। लगता था, कोई देवदूत, निर्णायक मुद्रा में ईश्वरीय आदेश सुना रहा है। यह अलग बात है कि उनके बड़बोलेपन ने काँग्रेस को लज्जाजनक स्थिति में ला खड़ा किया और अन्ततः उन्हें प्रवक्ता पद से ही हटाना पड़ा था।


यह तो हुई नेता और सत्ता पक्ष से जुड़े नेता की बात। किन्तु इन दोनों गुणों के अतिरिक्त यह नेता यदि संघ परिवार से हो तो नीम चढ़े करेले पर कुनैन का पुट भी लग जाता है। तब बात गर्वोक्तियों और दम्भोक्तियों से आगे बढ़ कर धमकियों तक पहुँचती लगने लगती है। अरविन्द केजरीवाल को लेकर भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा का वक्तव्य पढ़ कर कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ मुझे। झा ने केजरीवाल की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि केजरीवाल को राजनीति का क ख ग भी नहीं आता और वर्तमान स्थिति में तो उनका (झा का, याने भाजपा का) वार्ड अध्यक्ष ही केजरीवाल को हरा देगा।

सारी दुनिया की बात ही छोड़ दें, खुद केजरीवाल भी जानते हैं कि वे राजनीति का क ख ग नहीं जानते। रही बात जीतने-हारने की, तो इसके लिए आशावादी उद्घोषणाएँ ही की जा सकती हैं। यह आशावाद सच भी हो सकता है और सच नहीं भी हो सकता।

भारतीय लोकतन्त्र, जन इच्छाओं के प्रकटीकरण का वह ऊँट है जिसके बारे में उसका मालिक तो दूर रहा, खुद वह ऊँट भी नहीं जानता कि वह किस करवट बैठेगा। इस ऊँट ने अच्छे-अच्छों को जमीन दिखा दी, उनके होश दुरुस्त कर दिए और छब्बेजी  बनने का दावा करनेवाले चौबेजी को दुबेजी भी नहीं रहने दिया।

हम भारतीय,  आदर्श अनुप्रेरित, भावना प्रधान समुदाय हैं। विदेशों में यदि कोई उम्मीदवार भाषण देते-देते रोने लग जाए तो उसकी पराजय तत्क्षण सुनिश्चित हो जाती है। इसके विपरीत, भारत में कोई उम्मीदवार ऐसा करे तो श्रोताओं का जी भर आता है, वे उसकी पीड़ा में भागीदार हो कर साथ में रोने लगते हैं और सहानुभूति का अपना पूरा कोष, अपने वोट के जरिए उस पर लुटा देते हैं। और जब परिणाम आता है तो, कल तक आम सभाओं में रो रहा उम्मीदवार, कुर्सी पर बैठा, खिलखिलता नजर आता है।

हम नीतियों के नाम पर वोट देने वाले मतदाता कभी नहीं रहे। आज तक नहीं बन पाए। हम सदैव ही तात्कालिकता से प्रभावित हो कर अपना भाग्य तय करते हैं। आपातकाल और सेंसरशिप लगाने की सजा देकर जिस इन्दिरा गाँधी को इतिहास के, कूड़े के ढेर पर फेंक दिया था, ढाई साल बाद ही उसी इन्दिरा गाँधी को हमने सर-माथे पर बैठा लिया था। इस देश में कौन नहीं हारा? इन्दिरा गाँधी हारीं, अटलजी जैसे वाक्पटु, जन नेता हारे, कालूरामजी श्रीमाली जैसे शिक्षा शास्त्री हारे, मुख्यमन्त्री पद पर रहते हुए डॉक्टर कैलास नाथ काटजू हारे, व्यक्तिगत ईमानदारी की प्रतिमूर्ति मनमोहनसिंह हारे। यदि मेरी याददाश्त ठीक काम कर रही है टाटा-बिड़ला जैसे आद्योगिक घरानों के लोग हारे (वह भी तब जब देश में आद्योगिक घरानों के नाम पर ये ही दो-तीन नाम अंगुलियों पर गिने जाते थे)।

हारने-जीतने से न तो किसी के राजनीतिक ज्ञान या अनुभव का रिश्ता होता है न ही उसकी बुद्धिमत्ता, कुशलता, क्षमता, विद्वत्ता, दीर्घानुभव, परिपक्वता का। इसलिए, केजरीवाल का राजनीतिक  ककहरा न जानना उनके हारने का कारण होगा ही - यह घोषणा करना, राजनीतिक विवशता या शुभेच्छापूर्ण सोच हो सकता है, किन्तु यह सच ही होगा - यह जरूरी नहीं। यहाँ बता दूँ कि व्यक्तिगत रूप से मैं केजरीवाल से पूर्णतः असहमत हूँ और उन्हें ‘हीन महत्वाकांक्षी’ मानता हूँ।

मुझे दो प्रसंग याद आ रहे हैं। पहला - हेमवतीनन्दनजी बहुगुणा का। उत्तर प्रदेश में उन्‍हें  ‘लोक नेता’ का दर्जा प्राप्‍त था। किन्तु ‘वक्त’ ने साथ नहीं दिया तो वे अमिताभ बच्चन से हार गए। उसी अमिताभ बच्चन से जो सचमुच में राजनीति का क ख ग नहीं जानते थे। इस पराजय से व्यथित हो बहुगुणाजी ने गाँधी टोपी पहनना ही बन्द कर दी थी और शपथ ली थी कि अब जीतने पर ही टोपी लगाएँगे। दूसरा प्रसंग लोक नायक जय प्रकाश नाराण से जुड़ा है। जेपी का और उनके आन्दोलन का प्रभाव कम करने के लिए, जेपी को फासिस्ट बताते हुए, काँग्रेस की प्रदेश सरकारों के माध्यम से ‘फासिस्ट विरोधी सम्मेलन’ आयोजित किए जा रहे थे। प्रकाश चन्द्रजी सेठी तब मध्य प्रदेश के मुख्य मन्त्री हुआ करते थे। उसी दौर में, काँग्रेस विधायक दल की एक बैठक में सेठीजी ने जेपी को मध्य प्रदेश में कहीं से भी विधान सभा का चुनाव जीतने की चुनौती दे दी। उनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि शाजापुर के विधायक रमेश दुबे उठ खड़े हुए और बोले कि सेठीजी ने आज कह दिया सो कह दिया। आगे से ऐसी चुनौती न दें। क्योंकि मध्य प्रदेश में ग्राम पंचायतों के ऐसे भी वार्ड हैं जहाँ इन्दिरा गाँधी भी चुनाव नहीं जीत सकती। कल किसी जनसंघी ने, इन्दिरा गाँधी को पंचायत का वार्ड चुनाव जीतने की चुनौती दे दी तो जवाब देते नहीं बनेगा। सुनकर सेठीजी आगे कुछ नहीं बोले और अपनी चुनौती फिर कहीं नहीं दुहराई।

धमकियाँ लगनेवाली गर्वोक्तियाँ, दम्भोक्तियाँ कहने/सुनने/पढ़ने में भले ही अच्छी लगती हों किन्तु उनकी वास्तविकताएँ सर्वथा अकल्पनीय/अनपेक्षित परिणाम बन कर भी सामने आ सकती हैं। स्वर्गीय रमेश दुबे की बात की तर्ज पर कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में अनेक ग्राम पंचायतों के ऐसे वार्ड होंगे जहाँ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी भी चुनाव न जीत सकें। ऐसी ही स्थिति सोनिया गाँधी के लिए भी बन सकती है।

लिहाजा, नेता होने का मतलब बड़बोला होना हो सकता है किन्तु उसका बड़बोला होना अनिवार्यता कभी नहीं होता। जो जितने बड़े पद पर बैठा होता है, उसे उतनी ही अधिक गम्भीरता, जिम्मेदारी, शालीनता से बोलना चाहिए - बिलकुल, ‘ज्यों-ज्यों भीगे कामरी, त्यों-त्यों भारी होत’ की तर्ज पर।

यह सब लिखते हुए मुझे एकाएक ही (मेरे जमाने की) फिल्म ‘वक्त’ के एक गीत की दो पंक्तियाँ याद आ गईं -
                           आदमी को चाहिए, वक्त से डर कर रहे।
                           कौन जाने किस घड़ी, वक्त का बदले मिजाज।


इन पंक्तियों को कृपया केवल प्रभात झा तक सीमित मत कर दीजिएगा। ये हम सब पर समान रूप से लागू होती हैं। मुझ पर भी।

बयान : सरोजकुमार

मुझे नहीं पता, वे क्यों पढ़ने आते हैं
मुझे नहीं पता, मैं क्या उन्हें पढ़ाता हूँ
मुझे नहीं पता, वे इतने खुश कैसे हैं
मुझे नहीं पता, मैं अब तक दुखी क्यों नहीं!


मुझे नहीं पता, वे क्यों तिनके से बहते हैं
मुझे नहीं पता, क्यों तूफान से उफनते हैं
इस पल में मेमने उस पल में तेंदुए
किस रिंग मास्टर का खेल वे दिखाते हैं!


कक्षा के बाहर मैं, क्यों दर्शक बन जाता हूँ
कक्षा के भीतर क्यों नाटक दिखाता हूँ!
मुझ पर वे टिक हैं, यह उनका भ्रम है
डन पर टिके रहना, मेरा कार्यक्रम है!


मुझे नहीं पता, वे कहाँ से आए हैं
मुझे नहीं पता, वे कहाँ चले जाएँगे!
घाट की तरह बस मैं लहरों को गिनता हूँ
मुझे नहीं पता, नदी मेरी क्या लगती है!


मुझे नहीं पता, यह युद्ध या तमाशा है
ज्ञान और अज्ञान, कौन गोगियापाशा है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.