लोकतन्त्र और शैक्षणिक योग्यता

एक हुआ करते थे तामोटजी। पूरा नाम गुलाब चन्द तामोट। खाँटी समाजवादी थे। सरकार में रहकर समाजवादी व्यवस्था लाने के लक्ष्य से, जब देश के समाजवादियों के एक बड़े धड़े ने काँग्रेस प्रवेश किया, उसी दौर में तामोटजी काँग्रेस में शामिल हुए थे। काँग्रेस में आए जरूर थे लेकिन उनका ‘चाल-चरित्र-चेहरा’ बराबर समाजवादी ही बना रहा। द्वारिकाप्रसादजी मिश्र ने उन्हें केबिनेट मन्त्री का दर्जा देकर अपनेे मन्त्रि मण्डल में शामिल किया था। वे चौथी कक्षा तक ही पढ़े थे। अपनी यह ‘शैक्षणिक योग्यता’ वे भरी सभा में खुलकर बताते थे और परिहास करते हुए, लोगों से कहते थे - ‘अपने बच्चे को अफसर-बाबू बनाना हो तो खूब पढ़ाओ और मन्त्री बनाना हो तो चौथी से आगे मत पढ़ाओ।’ किन्तु अपने अल्प शिक्षित होने को लेकर क्षणांश को भी हीनता-बोध से प्रभावित नहीं रहे। प्रशासकीय कौशल, चीजों को समझने और अपनी जिम्मेदारियों को क्षमतापूर्वक तथा सफलतापूर्वक निभाने में तामोटजी की यह ‘अल्प शिक्षा’ कभी बाधक नहीं हुई। वे आजीवन एक लोकप्रिय और कामयाब जन नेता के रूप में ही पहचाने गए।

मेरे पैतृक कस्बे मनासा में, हमारे मोहल्ले में एक थे - मोड़ीराम पुरबिया। वे हम सब के ‘मोड़ू काका’ थे। मेरे पिताजी के परम मित्र थे। दिन में कम से कम दो बार मेरे पिताजी से मिलना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। यदि वे नहीं आते तो दो में से कोई एक ही कारण होता - या तो मनासा से बाहर हैं या फिर बीमार। हमारे ये ‘मोड़ू काका’ निरक्षर थे। अंगूठा छाप। कभी स्कूल की ओर मुँह नहीं किया। किन्तु बुद्धि, ज्ञान, प्रतिभा, दूरदर्शिता और ‘नीर-क्षीर विवेक’ के मानवाकार थे। अनुभवी और इतने परिपक्व कि सतह से नीचे की चीजों को पहली ही नजर में भाँप लेते। अपनी जाति की पंचायत में तो सदैव अग्रणी रहे ही, अपनी इसी ‘नीर-क्षीर विवेक’ छवि के कारण गैर जाति की पंचायतों में भी आदर पाते थे। उन्होंने अपनी निरक्षरता को कभी नहीं छुपाया और न ही इस कारण कभी खुद को कमतर माना।

भारतीय जीवन बीमा निगम में एक अधिकारी हैं - राकेश कुमारजी। दो-एक बरस पहले तक भोपाल (क्षेत्रीय प्रबन्धक) कार्यालय में) क्षेत्रीय विपणन प्रबन्धक (रीजनल मार्केटिंग मैनेजर) थे। अब तक क्षेत्रीय प्रबन्धक (झोनल मैनेजर) या तो बन चुके होंगे या बनने के रास्ते में होंगे। भोपाल से दिल्ली स्थानान्तरित हुए तो उन्होंने अपने अधूरे कामों को पूरा करने के क्रम में सबसे पहले एमबीए किया। यह उपाधि प्राप्त करते समय वे अपनी आयु के 52वें वर्ष में थे। इस उपाधि के न होने से उनकी नौकरी में कोई बाधा नहीं थी और यह उपाधि प्राप्त करने के बाद न ही उनकी पदोन्नति में कोई सहायता मिलेगी। उनकी नौकरी जैसी चलनी है, चलती रहेगी। ये ही तर्क देकर मैंने उनसे (नौकरी के सन्दर्भ में) पूछा कि इस उम्र में अब इसकी क्या जरूरत थी? उन्होंने कहा कि नौकरी के लिए नहीं, खुद को समृद्ध करने के लिए उन्होंने यह किया।

मैं द्वितीय श्रेणी में कला स्नातक हूँ और मेरी उत्तमार्द्ध प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर उपाधिधारी हैं। किन्तु शैक्षणिक योग्यताओं के इस अन्तर ने हमारे जीवन में क्षणांश को भी (जी। सचमुच में क्षणांश को भी) हस्तक्षेप नहीं किया। मुझसे अधिक शिक्षित मेरी उत्तमार्द्ध, हमारे विवाह के पहले दिन से लेकर इस क्षण तक मुझे दुनिया का सबसे शानदार, सबसे सुन्दर, सबसे अधिक स्मार्ट आदमी मानती हैं और आदर्श भारतीय गृहिणी की ‘पहले आप’ की परम्परा का निर्वाह किए जा रही हैं। हाँ! इसी परम्परा निर्वहन के अधीन वे मुझे दुनिया का सबसे नासमझ और गैर जिम्मेदार आदमी भी मानती हैं और ‘ये तो मैं हूँ जो निभा रही हूँ। कोई और होती अब तक, कभी का छोड़ कर चली जाती।’ वाला, समस्त भारतीय गृहिणियों का स्थायी सम्वाद, अपनी सुविधानुसार मुझे सुनाती रहती हैं। समझदारी और जिम्मेदारी वाले मामलों में मेरी बोलती बन्द हो जाती है किन्तु अपेक्षया कम शिक्षित होने के कारण हीनता बोध से कभी ग्रस्त नहीं हुआ और खुद को यथेष्ठ प्रगतिशील और पुरुष-नारी समता का नारा बुलन्द करते हुए अपने ‘पतिपन’ का उपयोग किए जा रहा हूँ। 

मेरे कस्बे रतलाम में एक डॉक्टर दम्पति हैं - डॉ. जयन्त सुभेदार और डॉ. पूर्णिमा सुभेदार। उम्र में मुझसे छोटे हैं किन्तु मुझ पर अत्यन्त कृपालु औ उदार। 21 नवम्बर 1987 को उन्होंने अपना दवाखाना शुरु किया। उद्घाटन हेतु प्रख्यात डॉक्टर (अब स्वर्गीय) डी. आर. सोनार (पूरा नाम दीनानाथ रामचन्द्र सोनार) आमन्त्रित थे। कार्यक्रम का संचालन मेरे जिम्मे था। मुझे बताया गया कि वे, बिड़लाजी (घनश्याम दासजी बिड़ला) के निजी चिकित्सक हैं। यह वह समय था जब देश में औद्योगिक घरानों की गिनती ‘टाटा-बिड़ला-डालमिया’ से शुरु होती और इन्हीं पर समाप्त हो जाती थी। कार्यक्रम समाप्ति के बाद भोजन के दौरान मैंने उनसे बिड़लाजी के निजी जीवन के बारे में जानना चाहा। उन्होंने कई बातें बताईं किन्तु एक बात ने मुझे रोमांचित किया। बिड़लाजी को अन्तरंग हलकों में ‘बाबू’ सम्बोधित किया जाता था। सोनारजी ने वह बात कुछ इस तरह सुनाई - गर्मी, सर्दी, बरसात, कोई भी मौसम हो, बाबू सोते समय अपने कमरे की खिड़कियाँ खोलकर रखते थे। यह उनकी सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकता था। मैंने उन्हें, ऐसा न करने के लिए बार-बार कहा लेकिन उन्होंने हर बार मेरी बात अनसुनी कर दी। एक दिन मैं अपनी बात पर लगभग अड़ ही गया। बाबू बोले - ‘डॉक्टर तुम्हारी बात पहली ही बार मेरी समझ में आ गई थी। मैंने तुम्हारी बात पर कभी भी न तो हाँ किया न ना। लेकिन आज तुम जिद कर रहे हो तो सुनो। सारी दुनिया जानती है कि घनश्यामदास की पत्नी अब दुनिया में नहीं है। रात दो बजे मैं पेशाब करने उठूँ, बत्ती जलाऊँ तो सारी दुनिया देखती है कि रात दो बजे घनश्यामदास के कमरे की बत्ती जली। पचास सवाल खड़े हो जाएँगे। खिड़कियाँ खुली रखने से ऐसे सवाल पैदा ही नहीं हो सकते। 

प्रधान मन्त्री मोदी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर देश-दुनिया के चाय के प्याले में आया तूफान चौंकाता है। इस देश ने एक ओर अनेक पढ़े-लिखे अज्ञानियों को स्वीकार कर, पदासीन किया और अपनी चूक समझ पड़ने पर प्रतीक्षा की और समय आने पर अपनी चूक का परिष्कार कर उनसे मुक्ति पाई तो दूसरी ओर अशिक्षित/अल्प शिक्षित गुणियों को माथे का मौर बनाया। उन्हें सराहा और अपने चयन को दुहराया। हम जिस लोकतन्त्र में जी रहे हैं उसमें सबका समावेश है। किसी को योग्यता के आधार पर पदांकन मिलता है तो कोई पदासीन होने के बाद अपनी योग्यता/अयोग्यता प्रमाणित करता है। पदासीन व्यक्ति की शैक्षणिक योग्यता  पर उसकी, लोकतन्त्र-संचालन की क्षमता, योग्यता और आचरण सदैव भारी पड़ता है। पद पर पद के योग्य आदमी है या अयोग्य को बैठा दिया है? बड़ी कुर्सी पर बड़ा आदमी बैठा है या बड़ी कुर्सी पर छोटा आदमी बैठ गया है? बड़े आदमी ने बड़ी कुर्सी पर बैठकर कुर्सी को छोटा तो नहीं कर दिया? बड़ी कुर्सी पर छोटा आदमी तो नहीं बैठ गया? बैठ गया तो कोई बात नहीं, कुर्सी को छोटा नहीं कर दिया?

हम सबकी इच्छा होती है कि सारी दुनिया हमें देखे और सम्भव हो तो केवल हमें ही देखे। किन्तु व्यक्ति जब शिखर पर होता है तो सारी दुनिया को नजर तो आता है, तब उसका एकान्त भी बढ़ता जाता है। शिखर पर जाना जितना मुश्किल होता है, वहाँ बने रहना उससे कम मुश्किल नहीं होता। प्राण दाँव पर लग जाते हैं क्योंकि प्राण-वायु (ऑक्सीजन) भी कम होने लगती है। शिखरस्थ होने पर आप चूँकि सारी दुनिया की नजरों में आते हैं तो इसकी कीमत भी चुकानी ही पड़ती है। तब आपका निजत्व समाप्त हो जाता है और आपकी हर बात, हर साँस, हर हरकत सार्वजनिक हो जाती है और यह तो हम सब जानते हैं कि सार्वजनिकता और पारदर्शिता एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। 

सिक्का बाजार में चलता रहे, इसके लिए दोनों पहलुओं का चमकदार बने रहना अनिवार्य शर्त होता है। मुझे लगता है, मोदी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर मचा घमासान इन दोनों पहलुओं के चमकदार होने की सत्यता जानने की जिज्ञासा के सिवाय और कुछ नहीं है।
---       

(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ ने यह आलेख आज, 11 मई 2016 को अपने पाँचवें पृष्ठ पर छापा है।)

‘जातिगत आरक्षण का विरोध करनेवालों को सस्नेह अर्पित'

इन दिनों फेस बुक पर मेरी खूब पिटाई हो रही है। कारण है - जातिगत आरक्षण को लेकर की जा रही मेरी प्रस्तुतियाँ। देश भर में, देहातों में, जातिगत कारणों से अछूतों, अस्पृश्यों पर सवर्णों, अगड़ों द्वारा प्रायः प्रतिदिन ही किए जा रहे अत्याचारों को लेकर छपनेवाले, समाचारों की कतरनें मैं इन दिनों फेस बुक पर, ‘जातिगत आरक्षण का विरोध करनेवालों को सस्नेह अर्पित’ लिख कर लगा रहा हूँ। आरक्षण के समर्थक तो प्रायः ‘लाइक’ तक ही सीमित रहते हैं किन्तु विरोधियों की तिलमिलाहट शब्दों में आ ही जाती है। प्रायः सबके सब इसे केवल और केवल मोदी-विरोध मानते हैं और ‘राजा के प्रति खुद राजा से अधिक वफादार’ की भूमिका और मुद्रा में पूछते हैं-‘यह सब दो सालों में ही हो रहा है? इसके पहले साठ सालों तक कुछ नहीं होता था?’ मेरी हँसी चल जाती है। मुझे ‘मूर्ख मित्र से समझदार दुश्मन बेहतर’ वाली कहावत याद आ जाती है। मैं पूछता हूँ-‘मैंने ऐसा कहा? मेरे लिखे को पूरे ध्यान से फिर पढ़ें और बताएँ-मैंने ऐसा कहा? यदि नहीं तो जाहिर है कि आप अपना अपराध-बोध ही उजागर कर रहे हैं।’ इसके बाद कोई जवाब नहीं आता।

लेकिन बात केवल परिहास की नहीं है। इसे परिहास में उड़ा देना या सिरे से खारिज कर देना अत्यधिक घातक है। अन्ध समर्थक और अन्ध विरोधी समान रूप से घातक हैं। हमें तथ्यों और वास्तविकताओं से सामना करना पड़ेगा।

मैं आरक्षण का समर्थक नहीं हूँ। किन्तु यह आधी बात है। इसके विरोध में जाने से पहले मुझे अपनी जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। यह जिम्मेदारी है-जिस समाज में मैं बैठा हूँ वह ऐसा बने कि किसी को आरक्षण की आवश्यकता ही न हो। यह जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाए बिना आरक्षण का विरोध करना याने जंगल के कानून का समर्थन करना। 

जाति प्रथा हमारा बहुत ही कुरूप और कड़वा सच है। यह अमानवीय और ईश्वर विरोधी कुप्रथा हमने ही बनाई है। मेरी पृष्ठभूमि देहाती है। मैंने देखा है कि जाति के कारण अनगिनत बच्चे स्कूल तक भी नहीं पहुँच पाते। पहुँच भी गए तो उपेक्षा, अवमानना, व्यंग्योक्तियों के दंश सहते हैं। रोटी-पानी से भी दूर रखा जाता है। कई बार शिक्षक भी इस सबमें कभी सक्रियता से तो कभी चुप रहकर शामिल हो जाते हैं। वातावरण और स्थितियाँ ऐसी बना दी जाती हैं कि छोटी जातियों के बच्चे खुद ही स्कूल आना बन्द कर दें। ऐसे कुत्सित प्रयासों से अनेक प्रतिभावान बच्चों से देश वंचित हो जाता है। जाति और वर्ण व्यवस्था के चलते इस देश ने वह दौर भी देखा है जिसमें शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करना तो दूर रहा, शिक्षा के स्वरों से भी वंचित रखा गया था और उनके कानों में वेद वाक्यों के स्थान पर गरम-गरम सीसा उँडेल देने के निर्देश दिए गए थे। हजारों बरसों से चल रही इस व्यवस्था पर आजादी के बाद रोक तो लगी किन्तु स्थितियाँ ऐसी नहीं हो पाई कि निश्चिन्त या सन्तुष्ट हुआ जाए। देहातों में तो यह सब अभी भी प्रचुरता से प्रभावी है। इन्हीं कारणों से हमारे सम्विधान निर्माताओं ने जातिगत आरक्षण का प्रावधान किया था। उन्होंने हम पर भरोसा किया था कि हम उनकी भावनाओं को समझ कर पन्द्रह बरसों में जातिविहीन समाज बना देंगे। किन्तु हम अपनी भूमिका निभाने में न केवल असफल हुए बल्कि जातिवाद को बनाए रखने में और अधिक तेजी से जुट गए। जाहिर है, जब तक जाति प्रथा बनी रहेगी तब तक जाति आधारित आरक्षण भी बना रहेगा। इसलिए, जातिगत आरक्षण समाप्त करने की माँग तब ही की जा सकेगी जब जाति प्रथा समाप्त हो जाए।

यहीं से समाज की जिम्मेदारी शुरु होती है। खास कर उन लोगों की जो जातिगत आरक्षण समाप्त करने में प्राण-पण से जुटे हैं। वे चाहें, न चाहें, उन्हें यह जिम्मेदारी निभानी ही पड़ेगी। जब समाज यह जिम्मेदारी निभाने में असफल हो जाता है तो ‘राज्य’ को यह जिम्मेदारी लेनी पड़ती है। 

ऐसी जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाने के अनेक उदाहरण हमें हमारे आसपास ही मिल जाएँगे। अधिक जाने-माने नामवाला उदाहरण है बड़ौदा के राजा सयाजीराव गायकवाड़। जिस जमाने में अस्पृश्यों की छाया से भी दूर रहा जाता था उस जमाने में उन्होंने ऐसे अस्पृश्यों को न केवल बराबरी की जगह दी बल्कि उन्हें प्रेरित, प्रोत्साहित, संरक्षित भी किया। स्त्री शिक्षा का अलख जगाने में ‘हरावल’ बने, महाराष्ट्र के ज्योति फुले आज किसी पहचान के मोहताज नहीं। छोटी जातियों के प्रति व्याप्त सामाजिक भेदभाव को दूर करने के प्रयासों पर झेले गए उनके प्रतिरोध को सम्मानित करते हुए सयाजीराव ने ही उन्हें ‘महात्मा’ कह कर सम्बोधित किया और ज्योतिबा फुले के मरणोपरान्त उनकी पत्नी और बेटे के लिए बड़ौदा राज्य से आर्थिक सहायता की व्यवस्था की। महर्षि शिन्दे के नाम से ख्यात हुए श्री विट्ठलराव शिन्दे को मेनचेस्टर (इंगलैण्ड) में उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति दी। आज अम्बेडकर के नाम का डंका बज रहा है। लेकिन यदि सयाजीराव गायकवाड़ नहीं हुए होते तो दुनिया को अम्बेडकर शायद ही मिले होते। डॉक्टरेट हेतु प्रस्तुत उनका शोध-पत्र जब ‘द इवोल्यूशन ऑफ प्राविंशियल फायनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ तो अम्बेडकर ने वह सयाजीराव को ही अर्पित किया। अम्बेडकर आजीवन खुद को सयाजीराव का ऋणी मानते रहे। 19 मार्च 1918 को मुम्बई में हुई, ‘आल इण्डिया कौंसिल ऑफ? फॉर रेमेडी ऑफ अनटचेबिलीटी’ की अध्यक्षता करते हुए इन्हीं सयाजीराव ने कहा था - ‘अस्पृश्यता ईश्वर ने नहीं बनाई। यह तो अज्ञान और जातिगत अहम् से ग्रस्त मनुष्य ने ही बनाई है।’ 

सामाजिक स्तर पर अपनी जिम्मेदारी निभानेवालों में अपने आसपास मुझे, स्वाधीनता सेनानी माणक भाई अग्रवाल नजर आते हैं। मन्दसौर जिले के (अनुसूचित जातियों हेतु आरक्षित) सुवासरा विधान सभा क्षेत्र से दो बार विधायक रहे श्री रामगोपाल भारतीय को माणक भाई ने ही ‘पोषित और विकसित’ किया। यदि माणक भाई नहीं होते तो भारतीयजी भी यह मुकाम शायद ही हासिल कर पाते।

कोई प्रतिभावान है या नहीं यह तब ही तय किया जा सकता है जब सबको समान अवसर, समान वातावरण, समान स्थितियाँ और समान जीवन स्तर मिले। यह सब न मिलने के बाद भी कुछ लोग अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के बूते, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त, आलोचकों की आँखों में अंगुलियाँ गड़ाकर अपनी उपस्थिति जता देते हैं। ऐसे लोगों में मुझे डॉक्टर अशोक कुमार भार्गव सदैव याद आते हैं। वे आरक्षित वर्ग से रहे किन्तु उन्होंने सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रुप में, 1986 की राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा के सफल उम्मीदवारों की सम्पूर्ण सूची में पहला स्थान पाया। ऐसा पहली बार (और अब तक आखिर बार भी) हुआ कि आरक्षित वर्ग के किसी उम्मीदवार ने, सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रूप में शामिल हो कर सम्पूर्ण सूची में पहला स्थान पाया। इस उल्लेख सहित तत्कालीन मुख्य मन्त्री श्री मोतीलाल वोरा ने उन्हें विशेष रूप से सराहना-पत्र प्रदान किया। ऐसा सराहना-पत्र न उससे पहले किसी को मिला न अब तक किसी को मिल पाया। डॉक्टर भार्गव आज भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के सदस्य हैं और भोपाल में ही, अपर सचिव के पद पर पदस्थ हैं। 

जातिगत आरक्षण में विसंगतियाँ हो सकती हैं। इस व्यवस्था में समयानुसार बदलाव आवश्यक अनुभव किया जा सकता है। किन्तु हमें यह याद रखना पड़ेगा कि जातिगत आरक्षण उपलब्ध करवा कर हम अपनी गलतियाँ ही सुधार रहे हैं। यदि पूर्वजों का गौरव हमारा भी गौरव है तो पूर्वजों की गलतियाँ, हमारी भी गलतियाँ हैं। दादा के रोपे आम के पौधे के फल यदि पोता खाता है तो दादा की चूकों का परिष्कार भी पोते को ही करना पड़ेगा। हमें यदि आज लग रहा है कि जातिगत आरक्षण से हमें अवसरों से वंचित किया जा रहा है तो हमें यह याद करना पड़ेगा कि हमारे पूर्वजों ने कितने हजार बरसों तक, समाज के कितने बड़े वर्ग के लोगों की कितनी पीढ़ियों को अवसरों से वंचित किया है।

लिहाजा, मैं खुद भी किसी भी प्रकार के आरक्षण का समर्थक न होकर भी जातिगत आरक्षण का विरोध नहीं कर पाता। यह आरक्षण, वृक्ष की फुनगियों की तरह जरूर नजर आ रहा है किन्तु फुनगियों की छँटाई समस्या का निदान नहीं है। जड़ें काटे बिना हमारा उद्धार नहीं।
--

(मेरी यह पोस्‍ट आज ही, भोपाल से प्रकाशित दैनिक 'सुबह सवेरे' में प्रकाशित हुई है।)

सिंहस्थ से भयभीत


एक से पन्द्रह मई के बीच, दो दिनों के लिए उज्जैन जाना है लेकिन घबराहट अभी से बनी हुई है। नहीं। न तो सिंहस्थ का पुण्य-लाभ लेना है न ही महाकाल दर्शन का या अन्य किसी साधु-महात्मा के दर्शनों का। एक प्रियात्मा की भावनाओं के अधीन जाना (ही) है। किन्तु अखबारों की सुर्खियाँ और उज्जैनी मित्रों/परिचितों से मिल रही सूचनाएँ विकर्षित और हतोत्साहित कर रही हैं। सुन-सुन कर पहला निष्कर्ष निकल रहा है कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए बरती जानेवाली अत्यधिक और अतिरिक्त सतर्कता के कारण ही अव्यवस्था हो रही है। दूसरा निष्कर्ष निकल रहा है - व्यवस्थाओं के नाम पर सिंहस्थ को ‘हाई-टेक’ बनाने के चक्कर में व्यवस्थाओं के घुटने टिक रहे हैं। 

मेरे एक उज्जैनी मित्र के लिए यह पाँचवाँ सिंहस्थ है। वे व्यवस्थाओं से भी जुड़े हुए हैं। उनका कहना है कि अन्तिम निर्णय लेने के लिए जिन अधिकारियों को कमान थमा दी गई है उनमें से शायद ही कोई उज्जैन को और सिंहस्थ के मिजाज को जानता-समझता है। सफलता का साफा बँधाने के लिए (और नौकरी में आगे तरक्की सुनिश्चित करने के लिए) नेताओं ने अपनेवालों को आगे कर दिया है जो ‘राजकीय संरक्षण और सुरक्षा से उपजे अतिरिक्त आत्म-विश्वास’ के चलते, पुराने और सिंहस्थ के अनुभवी लोगों की नहीं सुन रहे हैं। हर बात को ‘पहले जो ठीक और कामयाब था, जरूरी नहीं कि आज भी ठीक और कामयाब हो’ कह कर सब ‘मेनेजमेण्ट के अपने-अपने फण्डे’ आजमा रहे हैं। पहले शाही स्नान वाले दिन इसी कारण ‘सब कुछ होते हुए भी सब कुछ ध्वस्त हो जाने’ के पीछे भी यही मनमानी रही। मेरे एक और परिचित, इन्दौर निवासी एक प्रशासकीय अधिकारी का यह दूसरा सिंहस्थ है। उनका भी यही कहना है कि सिंहस्थ से अनजान अधिकारी, सिंहस्थ के जानकार अधिकारियों को हँसी में खारिज कर रहे हैं और मुख्यमन्त्री की भद पिटवा रहे हैं। उनका भी यही कहना है-‘छप्पन व्यंजन तैयार रखे हैं और लोग भूखे जा रहे हैं।’

यातायात व्यवस्था को लेकर डरावनी खबरें सर्वाधिक आ रही हैं। हर कोई कह रहा है कि पाँच-सात किलो मीटर तो चलना ही पड़ेगा। हम दोनों पति-पत्नी उम्र से भले ही आँखें चुरा लें लेकिन अपने थुलथुलपन से कैसे इंकार करें? इस कारण भी घबराहट हो रही है। ऐसे में कोढ़ में खाज की तरह, मेरे प्रिय मित्र, ‘उज्जैनी’ भाई अनिल देशमुख की इस पोस्ट ने अभी से नींद हराम कर दी है। शाही स्नान के दो दिनों बाद, 24 अप्रेल की उनकी यह फेस बुक पोस्ट पढ़कर आप भी हमारे डर को वाजिब ही कहेगें -

”उज्जैन में सिंहस्थ को ले कर अनावश्यक बैरिकेटस इतने लगा दिए गए हैं कि बिना बात लोगों को परेशान होना पड़ रहा है। जो पुल और चौड़ी सड़कें सिंहस्थ के लिए विशेष रूप से बनी हैं, उन पर ही बैरिकेट लगा कर जाने नहीं दे रहे और लोगों को सँकरे रास्तों पर डाइवर्ट किया दिया जा रहा है। इससे बिना बात जाम की स्थिति बन रही है। 

कल मैं मेरी पत्नी के साथ, अपने दुपहिया से रामघाट जाने के लिए हरिफाटक ब्रिज पर बने, हरसिद्धि को ओर जाने वाले नए पुल पर पहुँचा तो पुलिस ने जाने नहीं दिया। शाम साढ़े आठ का वक्त था और ट्रैफिक बिलकुल नहीं था। काफी देर वहाँ खड़े रहने पर जब कहा कि यह पुल तो बनाया ही इसलिए गया है कि लोग  महाकाल क्षेत्र के सँकरे मार्ग के बजाय सीधे हरसिद्धि जा सकें। अभी जरा भी ट्रैफिक नहीं है। आप क्यों रोक रहे हैं? तब एक पुलिस वाले ने हमें जाने दिया। पर पुल उतरते ही वहाँ बैरिकेट लगा कर 10-15 पुलिसवाले खड़े थे जो किसी को भी नहीं जाने दे रहे थे जबकि पूरी सड़क खाली थी। उन्होंने लोगों को जयसिंहपुरा की और डाइवर्ट कर दिया। याने चौड़ी और नई सड़क के बजाय बेहद सँकरे, पुराने रास्ते पर, जहाँ आगे चौराहे पर अच्छा-खासा जाम लग गया। जैसे-तैसे आगे बढ़े तो नरसिंह घाट से तीन किलो मीटर पहले फिर बैरिकेट्स लगे हुए थे। वहाँ दुपहिया वाहनों की पार्किंग व्यवस्था भी नहीं थी और पुलिस भी बड़ी अभद्रता से पेश आ रही थी। यह रात साढ़े नौ बजे का समय था और मेला क्षेत्र बिलकुल खाली पड़ा था। पार्किंग न होने से कई लोगों ने फुटपाथ पर अपने दुपहिया वाहन चढ़ा रखे थे। मुझे भी वहाँ से आधा किलो मीटर आगे जा कर अपना वाहन खड़ा करना पड़ा जहाँ चाय की दुकाने थीं। पर वाहन सुरक्षा की चिन्ता बराबर बनी रही। 

न तो शाही स्नान का दिन और न ही ट्राफिक का दबाव, न किसी ई-रिक्शा को जाने दे रहे न किसी ऑटो रिक्शा को। फिर भी जाम की स्थिति यदि बन रही है तो वह बिना बात ट्रैफिक-फ्लो को बार-बार अवरुद्ध करने और वाहनों को चौड़ी सड़कों के बजाये सँकरे रास्तों पर डाइवर्ट करने से बन रही है । हम लोग तो खैर स्थानीय, ‘उज्जैनी’ हैं इसलिए इधर-उधर के रास्‍तों से किसी  भी घाट पर जा सकते हैं। पर बाहर से आनेवालों के लिए सिंहस्थ यात्रा किसी प्रताड़ना से कम नहीं है। घर में 80 -85 वर्ष के बुजुर्ग, जो ज्यादा चल नहीं सकते वे ई रिक्शा या अन्य साधन के अभाव में आम दिनों में भी घाट पर स्नान से वंचित हैं। 

यह सब इसलिए पोस्ट किया कि हमारे ग्रुप के कुछ साथी, जरूर प्रशासन के उच्च अधिकारियों के सम्पर्क में रहते हैं। वे ऐसी असुविधाओं (बिना बात की अव्यवस्थाओं) की बात अगर आगे तक पहुँचा सकें तो उज्जैन नगर का गौरव बना रहेगा। अन्य साथी भी यह पोस्ट अधिकतम शेयर करें ताकि आने वाले समय में लोग इस भव्य आयोजन का सपरिवार आनन्द ले सकें।

इन डरावनी और हतोत्साहित करनेवाली खबरों के बीच आज एक परिचित ने कहा कि यह सब सौ प्रतिशत सच नहीं है। स्थिति इतनी भयवह नहीं है। लेकिन अधिसंख्य समाचार फिर भी डरा ही रहे हैं।

आपमें से किसी को कोई अनुभव हुआ तो बताइयेगा।
---

कौन किस पर गर्व करे?

यह अभी-अभी, सप्ताह भर पहले की बात है। एक जन समारोह में एक केन्द्रीय राज्य मन्त्री ने दूसरे केन्द्रीय राज्य मन्त्री की उपस्थिति में, भारत सरकार से सम्राट अशोक की जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की माँग की। यह माँग जाति-समाज आधारित थी। मुझे अचरज भी हुआ और पीड़ा भी। मंजूरी देनेवाला सरे बाजार माँग कर रहा है! यदि मन्त्री ही इस तरह माँग करें तो आम आदमी किससे माँगे? लोकतान्त्रिक और साम्विधानिक मर्यादाओं और आचरण के प्रति यह हमारा अज्ञान है या हम ज्ञान-पापी हैं? लेकिन इससे आगे बढ़कर मुझे कष्ट इस बात से हुआ कि सस्ती लोकप्रियता और वोट केन्द्रित राजनीति के चलते ऐसी माँग कर हम अपने महापुरुषों, इतिहास पुरुषों, आदर्शों, नायकों का मान बढ़ाते हैं या कम करते हैं? ऐसी माँग करते समय हम अपने नायकों के बारे में कितना जानते हैं?

सम्राट अशोक के बारे में मैं उतना ही जानता हूँ जितना  मुझे, स्कूल की परीक्षाएँ पास करने के लिए पढ़ना पड़ा था। मैं भी सम्राट अशोक को ‘अशोक महान्’ कहता तो रहा लेकिन कभी नहीं जाना कि भारत के अनेक राजाओं के बीच अशोक को ‘महान्’ क्यों कहा गया। बस! किताब में छपा था इसलिए मेरे लिए ‘अशोक महान्’ बना रहा और अब तक बना हुआ है।
केन्द्रीय राज्य मन्त्री द्वारा यह माँग उठाने के बाद मैंने अपने आसपास के ज्ञानियों के यहाँ हाजरी लगाई तो सम्राट अशोक के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलीं। इन जानकारियों के बाद मैं और ज्यादा चिन्तित हो गया। आखिरकार हम अशोक महान् के किस स्वरूप को अपना आदर्श मानते हैं या मानना चाहेंगे?

चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते और राजा बिन्दुसार के बेटे अशोक वर्द्धन मौर्य को हम लोग सामान्यतः कलिंग विजय हेतु किए गए युद्ध के कारण ही जानते हैं। लेकिन उसने अपने राज्य विस्तार के लिए युद्ध नहीं किए। उसके सामने अपने दादा की तरह न तो किसी राजा नन्द की चुनौती थी और न ही चाणक्य जैसा दूरदर्शी, रणनीतिकार गुरु। उसे देवनाम प्रिय अशोक, प्रियदर्शी अशोक, चक्रवर्ती सम्राट अशोक के साथ ही साथ चण्ड अशोक याने अत्यधिक गुस्सैल अशोक भी कहा गया है। उसके जीवन का अधिकांश समय परिजनों से संघर्ष में बीता, राज्य विस्तार के संघर्ष में नहीं। उसके बड़े भाई ने उससे मुक्ति पाने के लिए और गद्दी की दावेदारी से दूर रखने के लिए युद्ध हेतु भेजा। सोचा था, अशोक असफल हो जाएगा। किन्तु उल्टा हो गया। स्थितियों ने उसे राज गद्दी की प्रतियोगिता में धकेल दिया जिसके लिए उसे अपने भाइयों की हत्या करनी पड़ी।

सब कुछ ठीक ही चलता किन्तु लेकिन कलिंग युद्ध के नतीजे ने सब कुछ बदल दिया। कलिंग युद्ध के बाद, (वर्तमान भुवनेश्वर से कोई दस किलोमीटर दूर स्थित) धौली की पहाड़ियों से दया नदी को देख अशोक का हृदय लज्जा, अपराध-बोध, विरुचि और घृणा से भर गया। जहाँ तक नजर जाती थी, क्षत-विक्षत सैनिकों के शवों के सिवाय कुछ भी नजर नहीं आया। सैनिकों के खून से नदी का पानी लाल हो गया था। कलिंग युद्ध की बर्बरता और नृशंसता देख अशोक की पत्नी देवी उसे छोड़ गई। इन स्थितियों और मनोदशा से मानो एक नए अशोक ने जन्म लिया - यही अशोक, ‘अशोक महान्’ के नाम से जाना गया। युद्ध के नतीजे ने सम्राट अशोक को बुद्ध का श्रेष्ठ अनुयायी बना दिया। उसने खुद को और अपने बेटे महेन्द्र तथा बेटी संघमित्रा को, बुद्ध को और बौद्ध धर्म को अर्पित कर दिया। उसने अपना ‘स्व’ बुद्ध में विसर्जित कर दिया।

यह सब जानकर मैं उलझन में पड़ गया। अशोक महान् की जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करनेवाले आखिर अशोक के किस स्वरूप को मानेंगे? सत्ता के लिए प्रतियोगिता में धकेल दिए गए अशोक को? उसके योद्धा स्वरूप को? या फिर युद्ध की विभीषिका से उपजी विरुचि के अधीन, राज सिंहासन को त्याग कर बौद्ध भिक्षु बने स्वरूप को? 

मध्य प्रदेश मुख्य मन्त्री शिवराज सिंह चौहान से मध्य प्रदेश के ब्राह्मण बहुत खुश हैं। ब्राह्मणों की प्रदेशव्यापी माँग को मंजूर कर शिवराज ने सन् 2015 से परशुराम जयन्ती का सार्वजनिक अवकाश घोषित करना शुरु कर दिया है। मैंने अपने ब्राह्मण मित्रों से परशुरामजी के बारे में जानना चाहा। मुझे यह देख निराशा हुई कि कुछ अपवादों को छोड़कर सब के सब परशुरामजी को एक ही बात से जानते हैं कि उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रीयविहीन किया था। मैंने इसका कारण जानना चाहा और जानना चाहा कि एक बार क्षत्रीयविहीन हो जाने के बाद धरती पर क्षत्रीय फिर कैसे आ गए? वह भी एक के बाद, इक्कीस बार! किसी के पास कोई जवाब नहीं था। कोई नहीं जानता था कि सहस्रबाहु अर्जुन नामक एक क्षत्रीय राजा  द्वारा परशुराम की माता रेणु से कामधेनु नामक गाय जबरन छीन लेने से कुपित परशुराम ने सहस्रबाहु अर्जुन का वध किया था जिसका बदला लेने के लिए सहस्रबाहु अर्जुन के बेटों द्वारा (परशुराम की अनुपस्थिति में) परशुराम के पिता जमदाग्नि की हत्या कर देने से क्रुद्ध परशुराम ने सहस्रबाहु अर्जुन के समस्त पुरुष रिश्तेदारों को मौत के घाट उतार दिया था। वस्तुतः परशुराम ने, ब्राह्मणों को पीड़ित करनेवाले, आपराधिक प्रवृत्ति के क्षत्रियों का संहार किया था और यह काम उन्होंने लगातार इक्कीस वर्षों तक किया। आज परशुराम की पहचान केवल ‘हाथ में फरसा लिए, क्षत्रियों का वध करने को उद्धत योद्धा’ की बन कर रह गई है। शायद ही कोई जानता  हो कि वे क्षत्रियों के विरुद्ध नहीं, ब्राह्मणों के ब्राह्मण-कर्म में बाधक बननेवाले क्षत्रियों के विरुद्ध थे? वे इतने ‘पितृ आज्ञाकारी’ थे कि कुपित पिता के आदेश पर अपनी माँ का सिर काट दिया था और इतने मातृ प्रेमी कि, अपने आज्ञा पालन से प्रसन्न पिता ने जब उनसे कोई वर माँगने को कहा तो उन्होंने अपनी माँ को जीवित करने को कह दिया। इन्हीं परशुराम की जयन्ती की पहली छुट्टी पर ही मेरे अनेक ब्राह्मण मित्र सैरसपाटे पर निकल गए थे।

यह सचमुच में दुःखद और लज्जाजनक है कि हमने अपने राष्ट्रीय नायकों को अपनी आवश्यकता और सुविधा से ‘अपने-अपने महापुरुष’ बना लिए हैं। शहीद हेमू कालानी केवल सिन्धी समाज तक सीमित हो गए हैं। क्या उन्होंने केवल सिन्धियों के लिए खुद को होम किया था? देशी रियासतों और रजवाड़ों का आत्म-समर्पण करवाकर गौरवशाली भारत बनानेवाले लौह पुरुष सरदार पटेल  पाटीदारों/पटेलों में सिमटे जा रहे हैं। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के साथ जो हो रहा है वह तो शायद चरम है। जाति प्रथा को उन्होंने देश की प्रगति का सबसे बड़ा रोड़ा कहा था और इसका नाश करने के लिए जाति तोड़ा आन्दोलन शुरु किया था। लेकिन उनकी जयन्ती और पुण्य तिथि पर कुछ शहरों में अग्रवाल समाज द्वारा आयोजन करने के समाचार चौंकाते हैं। आजादी के बाद गैर काँग्रेसवाद की अवधारणा  और ‘जिन्दा कौमें पाँच साल तक इन्तजार नहीं करतीं।’ जैसे सर्वकालिक आप्त वचन क्या लोहिया ने केवल अग्रवाल समाज के लिए दिए थे?

सच तो यह है कि या तो हमें अपने इरादों, अपने कर्मों, अपने पुरुषार्थ और अपनी क्षमता पर विश्वास नहीं रह गया है या फिर हम अपनी वास्तविकता जानते हैं। इसीलिए हमें अपनी पहचान के लिए कोई एक महापुरुष आवश्यक हो गया है। ऐसे महापुरुषों के विचार को आचरण में उतारने के बजाय हम उनका उपयोग  अपना दबदबा बनाने के लिए करते हैं। जिन महापुरुषों का नाम सुनकर ही मन में श्रद्धा भाव उपजना चाहिए, अपने आचरण से हम उनके प्रति भय और आतंक पैदा करने में ही अपनी सफलता मानने लगे हैं। हम इन पर अपना अधिकार जताते हुए इनके नाम की दुहाइयाँ देते हैं लेकिन इनकी चिन्ता खुद नहीं करते। इनकी मूर्तियाँ लगवाने के लिए और बाद में उन मूर्तियों के रखरखाव के लिए स्थानीय निकायों से माँग करते हैं, दबाव बनाते हैं और (वोट की राजनीति के चलते) सफल होकर गर्व से फूले, इतराते घूमते हैं। लेकिन वास्तव में हम अपने महापुरुषों का कद घटा रहे होते हैं। हम सागर को पोखर में बदलने का आपराधिक दुष्कर्म करते हैं। हम उनके नाम पर सार्वजनिक छुट्टी घोषित करवाते हैं और खुद ही उस दिन पिकनिक मनाने निकल पड़ते हैं।


हम अपने पुरखों पर गर्व करें, यह तो अच्छी बात है। किन्तु क्या अधिक अच्छा यह नहीं होगा कि हम ऐसा कुछ करें कि हमारे पुरखे हम पर गर्व करें?
----


उधार की जिन्दगी : एक बार फिर

1991 के अप्रेल से मैं उधार की जिन्दगी जी रहा हूँ - मित्रों की दी हुई जिन्दगी। तब मैं चरम विपन्नता की स्थिति में आ गया था। मैं पत्राचार का व्यसनी किन्तु पोस्ट कार्ड के लिए पन्द्रह पैसे भी नहीं रह गए थे मेरे पास तब। लगने लगा था कि छठवीं-सातवीं कक्षा तक की गई, घर-घर जाकर, मुट्ठी-मुट्ठी आटा माँगने की भिक्षा-वृत्ति नहीं अपनानी पड़ जाए। तब मित्रों ने मुझे सम्हाला था। खड़े रहने के लिए पाँवों के नीचे जमीन नहीं थी। मित्रों ने अपनी हथेलियाँ बिछा दी थीं। उन्हीं के दम पर अब तक जिन्दा हूँ। हाँ! मेहनत मैंने की, चौबीस घण्टों में अट्ठाईस घण्टे काम किया। जिन्दा रहने के लिए जान झोंक दी थी मैंने अपनी। ‘जीना हो तो मरना सीखो’ का मतलब तभी समझ में आया था। आज मैं अभाव-मुक्त स्थिति में हूँ। लेकिन इस सबका निमित्त मेरे मित्र ही हैं। मेरी साँसे, मेरी धड़कन, मेरे पाँवों के नीचे की जमीन - सब कुछ मित्रों का दिया हुआ है। मैं केवल जी रहा हूँ - उधार की जिन्दगी। जैसे मित्र मुझे मिले, भगवान सबको दे। मुझ जैसा मित्र किसी को न दे जो सब पर जिम्मेदारी बना और बना हुआ है। 

अभी-अभी, 17 सितम्बर से, उधार की जिन्दगी का दूसरा खण्ड शुरु हुआ है। 

13-14 सितम्बर की सेतु-रात्रि को दो बजे नींद खुल गई। कण्ठ के नीचे और सीने से थोड़ा ऊपर दर्द हो रहा था। मानों, अनगिनत सुइयाँ चुभ रही हों। दर्द चूँकि छाती में नहीं था सो अनुमान किया - और भले ही कुछ हो, ‘दिल का दर्द’ तो नहीं ही है। लिखा-पढ़ी का छुट-पुट काम करते हुए सुबह तक का समय निकाला और 06 बजे ही आशीर्वाद नर्सिंग होम पहुँच गया। जाने से पहले डॉक्टर सुभेदार साहब को मोबाइल लगाया लेकिन बात नहीं हो पाई। उन्होंने ‘काल डाइवर्ट’ की व्यवस्था कर रखी थी। सो, बात हुई भी तो नर्सिंग होम की रिसिप्शनिस्ट से। पूरी तरह से मशीनी बात हुई। फौरन ही, सुभेदार साहब के सहायक डॉक्टर समीर व्यास को फोन लगाया। उनसे बात हो गई। वस्तुतः मैंने उन्हें नींद से उठा दिया। सब कुछ सुनकर बोले - ‘आप नर्सिंंग होम पहुँचिए। मैं फौरन आ रहा हूँ।’ हुआ भी यही। मैं पहुँचा और मेरी पूछ-परख शुरु हुई ही थी कि डॉक्टर समीर पहुँच गए। मुझे आईसीयू में लिटाया। ईसीजी मशीन और हृदय की हरकतों पर निगरानी करनेवाले मॉनीटर से मुझे जोड़ा। तब तक डॉक्ट सुभेदार भी पहुँच गए। डॉक्टर समीर ने रास्ते से ही उन्हें खबर कर दी थी। फटाफट ईसीजी लिया। सब कुछ सामान्य था। अनुमान रहा कि एसिडिटी का प्रभाव रहा होगा। इसी से जुड़ी दवाइयाँ दी गईं। मुझे थोड़ी ही देर में नींद आ गई - खूब गहरी और लम्बी। कोई दो-ढाई घण्टों की। दूसरा ईसीजी हुआ। वह भी सामान्य। मेरा दर्द तो आने के कुछ ही देर बाद काफूर हो ही चुका था। याने, खतरा तो दूर की बात रहा, चिन्ता की भी कोई बात नहीं थी।

पन्द्रह-सोलह सितम्बर के दिन-रात पूरी तरह सामान्य
निकले। सत्रह की सुबह भी और सुबहों की तरह ही सामान्य रही। नित्य कर्मों से फारिग हो, प्राणायाम किया। कुछ कागजी काम निपटाया। दस बजते-बजते सोचा - ‘अब नहा लिया जाए।’ तभी वही दर्द शुरु हुआ जो 13-14 की सेतु- रात्रि को हुआ था। इस बार चुभन तनिक अधिक थी। दो दिन पहले के अनुभव के दम पर इसकी अनदेखी करने की कोशिश की लेकिन कर नहीं पाया। चौदह की सुबह तो मैं खुद स्कूटर चला कर गया था लेकिन आज वैसा कर पाना सम्भव नहीं लगा। उत्तमार्द्ध से कह कर गुड्डू (अक्षय छाजेड़) को फोन-सन्देश दिया कि मुझे आशीर्वाद नर्सिंंग होम ले जाने के लिए तैयार रहे। फटाफट कपड़े बदले, बाहर आया। सवा दस बज रहे थे। गुड्डू एकदम तैयार खड़ा था - मोटर सायकल स्टार्ट किए हुए। गुड्डू के पीछे बैठते-बैठते लगा - दर्द कम हो रहा है, राहत हो रही है। उतरने का उपक्रम करते हुए बोला - ‘अब ठीक लग रहा है। अस्पताल चलने की जरूरत नहीं लग रही।’ गुड्डू ने सख्ती से रोक दिया - ‘नहीं अंकल! बैठे रहिए। अस्पताल चलिए। और कुछ नहीं तो डॉक्टर साहब से यही पूछेंगे कि आपको यह सब क्या हुआ और क्यों हुआ।’ गुड्डू के स्वर और मुख-मुद्रा ने मुझे ‘आज्ञाकारी’ बना दिया। 

नर्सिंग होम चहुँचते-पहुँचते तस्वीर पूरी तरह से बदल चुकी थी। डॉक्टर सुभेदार साहब और डॉक्टर समीर को खबर कर ही दी थी। दोनों ने मुझे हाथों-हाथ लिया। आईसीयू में भर्ती किया और पहले ही क्षण में ‘हृदय रोगी’ बन चुका था। आईसीयू में भागदौड़ मच गई। सब कुछ ‘पहली प्राथमिकता’ पर हो रहा था। मेरी तकदीर वाकई में अच्छी थी कि ‘एलेक्सिम 40 एमजी’ इंजेक्शन फौरन उपलब्ध हो गया। साढ़े दस बजे मैं भर्ती हुआ था और बारह बजते-बजते मैं पूरी तरह खतरे से बाहर हो चुका था। डेड़ घण्टे में मेरा पुनर्जन्म हो चुका था। लेकिन इस पूरे डेड़ घण्टे तक डॉक्टर सुभेदार साहब, डॉक्टर समीर और उनका अधीनस्थ समूचा अमला, बिना साँस लिए, पण-प्राण से लगा रहा ताकि मेरी साँसें चलती रहें, मेरे प्राण बच सकें।

दो बजते-बजते समूचा तनाव समाप्त हो चुका था। लेकिन अब मैं ‘घोषित हृदय रोगी’ था। तनाव का स्थान चिन्ता ने ले लिया था। उत्तमार्द्ध तो नर्सिंग होम में थीं ही। शाम होते-होते दोनों बेटे एक साथ  पहुँच गए। बड़ा बेटा वल्कल पुणे से और छोटा बेटा तथागत मुम्बई से, वायु सेवा से अलग-अलग इन्दौर पहुँचे थे। इन्दौर से एक साथ घर आए।

17 की रात अच्छी-भली निकली। लेकिन 18 की सुबह से रक्त चाप कम होने लगा। यह असामान्य बात थी। डॉक्टरों को एक बार फिर मेहनत करनी पड़ी। दोपहर होते-होते, मुझे अगली जाँचों के लिए बड़ौदा भेजने का निर्णय ले लिया गया। सुभाष भाई जैन ने आरक्षित-रेल-टिकिट वल्कल को थमा दिए। यह चमत्कार से कम नहीं था। 19 को मेरी एंजियोग्राफी हुई। मालूम हुआ कि बाँयी ओर की तीनों मुख्य धमनियों में कोई बाधा नहीं है। बस, सबसे पहली धमनी के छोर से निकली दो,  उप-धमनियों के जोड़ पर बाधा है। किन्तु इसे दवाइयों/गोलियों से ही उपचारित किया जा सकेगा - ऑपरेशन की कोई आवश्यकता नहीं। मुख्य कारण रहा - दाहिनी धमनी का, सामान्य से छोटा होना। किन्तु उसके लिए भी एंजियोग्राफी की आवश्यकता नहीं रही। परहेज, सावधानी और नियमित दिनचर्या से सब कुछ नियन्त्रित किया जा सकेगा - बशर्तें मैं ऐसा चाहूँ और ऐसा करूँ। याने, गेंद अब मेरे पाले में है।

वल्कल ने पूरे मामले को अतिरिक्त चिन्ता और सम्वेदना से लिया। उसने डॉक्टरों की सलाहों में अपना ‘पुट’ जोड़ते हुए मुझ पर कुछ अतिरिक्त निषेध आरोपित कर दिए - महीने भर तक फेस-बुक से दूरी, फोन पर या तो बात करूँ ही नहीं और करूँ तो उतनी ही जितनी कि काम-धन्धे के लिए अनिवार्य हो, काम-काज भी वही और उतना ही जितना और जो अपरिहार्य हो। शुरु-शुरु में तो गुस्सा आया। बतरस जिस आदमी की जिन्दगी हो, गप्प-गोष्ठियाँ से जिसे ऊर्जा और स्पन्दन मिलता हो, उस आदमी को चुप रहने और घर में बन्द होकर बैठने को कहा जा रहा है। लेकिन जल्दी ही अपनी नासमझी समझ में आ गई। ये सब मुझे प्यार करते हैं। मुझे अच्छा-भला, चंगा, घूमते-फिरते, ठहाके लगाते देखना चाहते हैं। यह समझ में आते ही मैं भी इन सबके साथ हो गया - ‘अच्छे बच्चे’ की तरह। 

अब सब कुछ लगभग सामान्य है। जिन्दगी ढर्रे पर लौट रही है। काम-काज के लिए बाहर निकलना, लोगों से मिलना-जुलना शुरु कर दिया है। वैसे भी, घर में जब काम करनेवाला और कोई नहीं हो तो अपने काम तो खुद को करने ही पड़ते हैं। (दोनों बेटे अपने-अपने काम पर लौट गए हैं।) सो, बाजार से सौदा-सुल्फ लाना, बिजली-फोन के बिल जमा कराना जैसे काम हाथ में अपने आप ही आ गए हैं।

हाँ! दो बातें जरूर विशेष हुईं - मेरा भ्रम दूर करने और मेरा दम्भ चूर करनेवाली। हृदयाघात के बाद से मुझे लगा था कि मेरे साथ कुछ अनोखा घटित हुआ है और मैं  सबसे अलग, असाधारण हो गया हूँ। लेकिन मेरा यह भ्रम शुरुआती तीन-चार दिनों में ही दूर हो गया। मिलनेवालों में से प्रत्येक चौथा-पाँचवा आदमी ‘हृदयाघात का अनुभवी’ मिला। इनमें से भी अधिकांश वे जिनकी एंजियोप्लास्टी हो चुकी है। ऐसे लोगों ने मुझे कुछ तो सन्तोष-भाव से और कुछ ने दया-भाव से देखा। सन्तोष-भाव यह कि मैं एंजियोग्राफी में ही निपट गया, एंजियोप्लास्टी नहीं करानी पड़ी। दया-भाव यह कि देखो हम तो एंजियोप्लास्टी तक पहुँच गए और यह बेचारा एंजियोग्राफी से आगे नहीं बढ़ पाया।

मित्रों के बीच मैं गर्व से कहा करता था कि मैं मृत्यु से नहीं डरता। तत्व-ज्ञानी की मुद्रा में शेखी बघारता था - ‘मौत तो आदमी के जन्म लेते ही उसके साथ हो लेती है। फिर भला मौत की क्या बात करना और मौत से क्या डरना?’ लेकिन इस दुर्घटना के बाद मेरा यह दम्भ चूर-चूर हो गया है। मैं मौत से डरने लगा हूँ और अपना यह डर सबके सामने कबूल भी कर रहा हूँ। लेकिन अपनी झेंप मिटाने के लिए शब्दाडम्बर रच रहा हूँ - ‘मृत्यु-भय और जीवन की लालसा, एक सिक्के के दो पहलू हैं और इन दिनों में यही सिक्का जेब में लिए चल रहा हूँ।’

लेकिन ईश्वर की कृपा है कि इस सबके बीच मैं क्षण भर भी नहीं भूला कि मेरा यह पुनर्जन्म गुड्डू, डॉक्टर सुभेदार साहब, डॉक्टर समीर व्यास जैसे मित्रों के कारण ही हुआ है। सत्रह की सुबह यदि गुड्डू जिद करके मुझे आशीर्वाद नर्सिंग होम नहीं ले गया होता और डॉक्टर सुभेदार तथा डॉक्टर समीर ने नहीं सम्हाला होता तो आज यह सब लिख रहा होता? बिलकुल नहीं। तब, मैं स्वर्गीय हो चुका होता। उठावना, पगड़ी जैसी तमाम उत्तरक्रियाएँ हो चुकी होतीं, मेरी उत्तमार्द्ध, दोनों बेटे मेरी अनुपस्थिति में की जानेवाली तमाम कानूनी खानापूर्तियाँ कर रहे होते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और केवल मित्रों की कृपा के कारण ही नहीं हुआ।

सो, इस 17 सितम्बर से मैं एक बार फिर उधार की जिन्दगी जी रहा हूँ - पूरी तरह से मित्रों की दी हुई जिन्दगी।

लगता है, उधार की जिन्दगी मुझे मेरी अपनी जिन्दगी के मुकाबले अधिक मुफीद होती है। 

सबसे ऊपरवाले चित्र में बाँयी ओर डॉक्टर सुभेदार तथा दाहिनी ओर डॉक्टर समीर व्यास। मध्यवाले चित्र में गुड्डू (अक्षय छाजेड़)।

कीर्तिमानी चीनी झूठ

चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग आज भारत आ रहे हैं।
भारतीय सीमा में चीनी अतिक्रमण और चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय सैनिकों की घेराबन्दी किए जाने की खबरों के बीच शी जिन पिंग की यात्रा को लेकर आशा भरे अनुमान कम और आशंकाएँ ज्यादा जताई जा रही हैं। आशाएँ पूरी तरह से भारत में चीनी निवेश को लेकर है और आशंकाएँ भारतीय भूमि पर उसकी अवांच्छित उपस्थिति को लेकर।

1962 में भारत पर चीनी आक्रमण के बाद चीन की दोस्ती पर आँखें मूँदकर विश्वास हम कभी नहीं जता पाए। इसके सर्वथा विपरीत, चीन हमारे लिए ‘मुँह में राम, बगल में छुरी’ का पर्याय बन गया। माओ त्से तुंग (या ‘दुंग’) हमारे लिए सबसे बड़े खलनायक बने हुए थे।

सत्तर और अस्सी के दशक में चीन के प्रति यह अविश्वास और सन्देह अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अनुभव किया जाता था। निकिता ख्रुश्चेव (उन्हें ‘ख्रुश्चोफ’ भी लिखा जाता रही है) के नेतृत्व में सोवियत संघ तब हमारे लिए सबसे बड़ा, सर्वाधिक विश्वस्त और सर्वाधिक सहयोगी मित्र बनकर उभरा था। हम ‘निर्गुट आन्दोलन के नेता’ होते हुए भी रूसी खेमे में मौजूद रहते थे।

चीन की कथनी और करनी के अन्तर का बखान करनेवाला एक चुटकुला (जो मुझे आज भी लघु कथा ही लगता है) तब काफी लोकप्रिय हुआ था। ‘चीनी झूठ’ शीर्षक से लोकप्रिय हुआ यह चुटकुला मैंने तब अनेक अखबारों और पत्रिकाओं में पढ़ा था। आज वही चुटकुला मुझे बड़ी ही शिद्दत से याद आ रहा है।

चुटकुला कुछ इस तरह है -

कॉमरेड माओ और कॉमरेड ख्रुश्चेव एक बार एक साथ शिकार खेलने गए। उन्होंने एक शेर मार गिराया। दोनों मरे शेर के पास पहुँचे तो पाया कि शेर बहुत बड़ा और बहुत भारी है। इतना और ऐसा कि दोनों के लिए उसे ढो कर ले जाना सम्भव नहीं।

दोनों ने तय किया कि कॉमरेड माओ मरे शेर की रखवाली करेंगे और कॉमरेड ख्रुश्चेव सहायता के लिए पास के गाँव जाकर कुछ लोगों को लेकर आएँगे।

दोनों, बड़ी मुश्किल से खेंच-खाँच कर शेर को एक बरगद के नीचे लाए। कॉमरेड माओ को मरे शेर के पास छोड़ कर कॉमरेड ख्रुश्चेव पड़ौस के गाँव में चले गए।

थोड़ी देर बाद, गाँव के आठ-दस लोगों को साथ लेकर कॉमरेड ख्रुश्चेव लौटे तो देखा कि कॉमरेड माओ, टाँगें फैलाए, बड़े आराम से सिगार पी रहे हैं और शेर का अता-पता नहीं है।

कॉमरेड ख्रुश्चेव ने पूछा - “कॉमेरड! शेर कहाँ है?”

सिगार फूँकना जारी रखते हुए कॉमरेड माओ बेपरवाही से बोले - “शेर! कौन सा शेर?”

कॉमरेड ख्रुश्चेव फौरन ही सारी बात समझ गए। बोले - “कोई बात नहीं कॉमरेड। सारी बात शुरु से शुरु करते हैं।”

और कॉमरेड ख्रुश्चेव शुरु हो गए। दोनों में सम्वाद कुछ इस तरह हुआ -

“अपन दोनों शेर के शिकार पर आए?”

“हाँ। आए।”

“अपन दोनों ने मिल कर एक शेर मारा?”

“हाँ। मारा।”

“मरा शेर इतना भारी था कि अपन दोनों के लिए उसे ढो पाना मुमकिन नहीं था?”

“हाँ। नहीं था।”

“तब तय हुआ कि आप मरे शेर की रखवाली करेंगे और मैं पड़ौस के गाँव जाकर मदद के लिए कुछ लोगों को लेकर आऊँगा?”

“हाँ। तय हुआ था।”

“आपको मरे शेर के पास छोड़कर मैं पास के गाँव में गया?”

“हाँ। गये।”

“वापस आकर देखा कि आप अकेले बैठे सिगार पी रहे हैं और शेर कहीं नहीं है?”

“शेर! कौन सा शेर?”
---------

इस अन्तरराष्ट्रीय चुटकुले को याद रखते हुए आईए! चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग का स्वागत करें।


(साथवाला चित्र मैं बड़ी मुश्किल से तलाश कर पाया हूँ। यदि चित्र गलत हो तो मुझे क्षमा किया जाए।)







दोनों अनाथ

“क्यों? केवल बच्चे ही क्यों? अब तो बूढ़े भी अनाथ हो गए हैं। नहीं?” मेरी उत्तमार्द्ध ने कह तो दिया लेकिन कहते ही खुद ही हक्की-बक्की भी हो गई। कुछ इस तरह, मानो, उन्होंने अचानक ही ऐसा सच उजागर कर दिया जिसका सामना वे खुद भी नहीं करना चाहती थीं।

नेहा और वरुण कर बिटिया है अनन्या। अगले हफ्ते, 22 सितम्बर को दो बरस की हो जाएगी। घर में परी कहते हैं उसे। हम लोग एक ही मकान में रहते हैं। पहली मंजिल पर नेहा-वरुण। नीचेवाली मंजिल पर हम। वरुण एक निजी कम्पनी में नौकरी करता है और नेहा गृहिणी है। वरुण जब भी काम पर जाने के लिए निकलता होता  है, परी मचल जाती है। इसलिए, परी की नजरें बचा कर निकलना पड़ता है वरुण को। इसका एक उपाय अपने आप निकल आया। हम ही परी को नीचे बुला लेते हैं और वरुण के जाने के बाद परी को उसकी माँ के पास भेज देते हैं।

परी से हमारे मेलजोल की शुरुआत इसी तरह से हुई थी। उसके बाद उसका आना-जाना बढ़ गया। परी पहली मंजिल से हाँक लगाती है - ‘दादी! मैं आऊँ?’ हम लागों के कान भी उसकी यह हाँक सुनने का उतावले रहते हैं। प्रायः ही हम दोनों एक साथ जवाब देते हैं - ‘आजा।’ और परी ठुमकती-ठुमकती आ जाती है। यूँ तो बहुत बोलती है किन्तु उसके मन की बात हो जाने पर आनन्द लेती रहती है - चुपचाप। उसके मन की बात होती है - छोटा भीम।

आते ही कहती है - ‘टाटून लदाओ।’ ‘टाटून’ मतलब ‘कार्टून’। उन क्षणों में परी हमारा खिलौना बन जाती है। उसकी बात समझ जाने के बावजूद पूछते हैं - ‘कौन सा कार्टून?’ वह कहती है - ‘तोता बिम।’ उसका ‘टाटून‘ और ‘तोता बिम’ कहना हमें अच्छा लगता है। गुदगुदा देता है। हम उसे पलंग पर बैठा कर, टीवी खोल कर ‘पोगो’ लगा देते हैं। 

लेकिन ऐसा भी नहीं होता कि वह हर बार चुपचाप देखती रहे। देखते-देखते वह अचानक ही कुछ पूछने/कहने लगती है। उसकी भाषा हम अब तक नहीं समझ पाए हैं। हमें कुछ भी समझ नहीं आता। उसकी बात का मनमाना अर्थ लगा कर हम कुुछ तो भी जवाब दे देते हैं। इस तरह ‘जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी’ की तर्ज पर हमारे अर्थहीन सम्वाद चलते रहते हैं। हम समझते हैं, हम उसे बुद्धू बना रहे हैं लेकिन वास्तव में वही हमें बुद्धू बना रही होती है। 

लेकिन एक विशेष बात हम लोगों के ध्यान में आई। वह भले ही बात नहीं करे, चुपचाप कार्टून देखती रहे, लेकिन उसे हम दोनों में से किसी एक की उपस्थिति चाहिए होती है। परी का आना-जाना अधिकांशतः सुबह के समय ही होता है। वह समय हम दोनों की व्यस्तता का भी होता है। लेकिन परी का होना हमें जीवन्तता से जोड़े रखता है, हमारे घर को जगर-मगर बनाए रखता है। सो, हम दोनों अपना-अपना काम निपटाते हुए ऐसा कुछ करते हैं कि हम दोनों में से कोई न कोई उसके पास बैठा/बना रहे।
जब परी का जी भर जाता है तो हमारी ओर बाँहे पसार कर कहती है - ‘उतारो। मम्मा जाना।’ हम अनमनेपन से उसे पलंग से उतार कर सीढ़ियों के पास खड़ा कर देते हैं। वह ‘बाय!’ कहती हुई, एक-एक सीढ़ी चढ़ने लगी है। हम उसकी माँ को आवाज देते हैं - ‘नेहा! परी आ रही है। सम्हालना।’ और जब तक नेहा की शकल सीढ़ियों पर नजर नहीं आती, हम लोग परी को सीढ़ियाँ चढ़ते देखते रहते हैं।

लेकिन दो दिन पहले वह हो गया जिसका समापन मेरी उत्तमार्द्ध के ‘अकस्मात उजागर हुए सच’ से हुआ जिससे मैंने अपनी बात की शुरुआत की है।

परी ने अभी-अभी बालवाड़ी जाना शुरु किया है। ग्यारह - साढ़े ग्यारह बजे का समय है उसका। नेहा ने उसे तैयार कर हमें आवाज लगाई और उसे नीचे भेज दिया। उस समय मैं अपने हिसाब-किताब के कागज-पत्तर तैयार कर रहा था और उत्तमार्द्ध रसोई घर में व्यस्त थीं। परी आई। उत्तमार्द्ध ने मुझे हँकाला - ‘बच्ची को देखना। मैं सब्जी छौंक रही हूँ।’ उस समय मैं हिसाब मिला रहा था। अनमनेपन से उठा और परी से कहा - ‘भीम देखेगी?’ उसने इंकार कर दिया - ‘कूल जाना।’ मैंने बहलाया - ‘अच्छा। बैठ। मैं आता हूँ।’ और मैं नोट जमाने में लग गया। उत्तमार्द्ध मेरे भरोसे थी। उन्होंने देखने/जानने की कोशिश ही नहीं की। मुझे लगा, परी बैठी ही है। सो, अपने काम में लगा रहा।

अचानक ही उत्तमार्द्ध की आवाज आई - ‘क्या कर रहे हैं? छोरी कहाँ है? उसकी आवाज सुनाई नहीं दे रही।’ मैंने कहा - ‘बैठी है।’ मेरी बात पूरी हो उससे पहले की करछुल हाथ में लिए उत्तमार्द्धजी मेरे सामने खड़ी थीं - ‘कहाँ बैठी है? यहाँ तो नहीं है। कहाँ गई? आपको कहा था उसका ध्यान रखने को!’ मैंने भी देखा - परी कहीं नहीं थी। उसकी आवाज भी सुनाई नहीं दे रही थी। फौरन नेहा को आवाज लगाई। उसने कहा - ‘आपके पास ही तो है दादीजी!’ हम दोनों पसीना-पसीना हो गए। भाग कर बाहर आए। देखा - परी, बन्द फाटक के पास, कुछ इस तरह से खड़ी थी कि फाटक खुले तो सड़क पर चली जाए।

हम दोनों की साँसें लौटी। पहले एक-दूसरे पर खीझे और फिर नेहा पर - ‘कैसी माँ है? बच्ची को अकेले ही नीचे भेज दिया! साथ में आना था ना!’ नेहा भाग कर आई और परी को सम्हाला।

उसके बाद जो होना था, हुआ। लेकिन बड़ी देर तक हम दोनों के बोल नहीं फूटे। 

मैं विचार कर रहा था - संयुक्त परिवार रहे नहीं। स्थिति ‘एकल परिवार’ से भी नीचे उतर कर ‘एकल गृहस्थी’ पर आ गई। बच्चे छोटे और माँ-बाप को अपने काम पर जाना। अपना काम सम्हालें या बच्चे। तालमेल बैठाना कठिन। घर में कोई बड़ा-बूढ़ा हो तो बच्चों को देख ले, सम्हाल ले। मुझे लगा: माँ-बाप के होते हुए भी बच्चे अनाथ हो गए। 

मेरे मन पर उदासी छा गई। लगभग रुँआसी आवाज में अपनी उत्तमार्द्ध को मैंने यह बात कही तो उन्होंने सूनी नजरों से मुझे देखा और पूछा - ‘अनाथ से आपका मतलब?’ मैंने डूबे स्वरों में ही कहा - ‘अनाथ मतलब अनाथ। जिसके माँ-बाप नहीं।’ मेरी उत्तमार्द्ध ने मेरी आवाज से भी अधिक भीगी, अधिक डूबी और अधिक सर्द आवाज में कहा - ‘आप शाब्दिक अर्थ बता रहे हैं। आज तो अर्थ बदल गया है। अब अनाथ का मतलब है - जिसकी देखभाल करनेवाला, सार-सम्हाल करनेवाला कोई नहीं। आप केवल छोटे बच्चों को देख रहे हैं। जरा अपनी तरफ और अपने परिचितों में अपने जैसों की तरफ देखिए। सबके बच्चे बड़े होकर, ऊँची पढ़ाई कर अपनी-अपनी नौकरियों के लिए बाहर गए हुए हैं। अकेले बूढ़े दम्पतियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। बूढ़ों के जिम्मे मानो अपने-अपने मकानों की देखभाल का काम रह गया हो। उन्हें अपनी देखभाल भी करनी है और मकान की भी। आप कह रहे हैं कि आज के बच्चे अनाथ हो गए हैं। केवल बच्चे ही क्यों? अब तो बूढ़े भी अनाथ हो गए हैं। नहीं?’

जहाँ से शुरु किया था, खतम करते-करते वहीं पहुँच गया हूँ। इंकार करूँ तो झूठ बोलूँगा और सच कबूल करने की इच्छा नहीं हो रही। हिम्मत तो बिलकुल ही नहीं हो रही।
-----

(चित्र में परी के साथ मेरी उत्तमार्द्ध।)

विजय में बदली जा सकती है हिन्दी की पराजय

विजय में बदली जा सकती है हिन्दी की पराजय
- डॉक्टर जयकुमार जलज

(ख्यात भाषाविद् जलजजी का यह आलेख 14 सितम्बर 2003 को नईदुनिया (इन्दौर) में प्रकाशित हुआ था। तनिक संशोधनों और परिवर्द्धनों सहित जलजजी का यह आलेख अभी-अभी,  11 सितम्बर 2014 को साप्ताहिक उपग्रह (रतलाम) में प्रकाशित हुआ है। ग्यारह वर्षों के अन्तराल में स्थितियाँ, सुधरी तो बिलकुल ही नहीं, और अधिक खराब ही हुई हैं। जलजजी की कृपापूर्ण अनुमति से यह आलेख यहाँ प्रस्तुत है।)

यह सच्चाई कितनी ही अपमानजनक और पीड़ादायक क्यों न हो, पर अब इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि आजाद भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। जो काम अंग्रेेजों के शासनकाल में नहीं हो सका वह अब हो गया। हमारे क्रिकेट खिलाड़ी दैनिक जीवन में भले ही मातृ-भाषा में बोलते हों, पर टीवी पर या सम्वाददाताओं से बात करते वक्त भारत में भी सिर्फ अंग्रेजी में ही बोलते हैं। फिल्मों में धड़ल्ले से हिन्दी सम्वाद बोलकर हिन्दी की रोटी खाने वाले अभिनेताओं, अभिनेत्रियों की भी यही स्थिति है। दरअसल कुछ वर्षों से अंग्रेजी ‘स्टेटस सिम्बॉल’, रुतबे का प्रतीक बन गई है।

आखिर इस स्थिति तक हम पहुँचे कैसे? आजादी मिलने के बाद जो समस्याएँ लम्बित रहीं उनमें कश्मीर की और भाषा की समस्या प्रमुख है। इन दोनों समस्याओं की लीपापोती करके यह मान लिया गया कि इससे काम चल जाएगा लेकिन इससे समाधान नहीं हुआ। इन दोनों समस्याओं को हल करने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत थी। उसके अभाव में वही हो सकता था जो हुआ। कश्मीर की तरह भाषा की समस्या को भी अपरिभाषित, अमूर्त मानदण्डों के हवाले कर दिया गया। कहा गया, जब तक हिन्दी समर्थ नहीं हो जाती, राजभाषा के रूप में अंग्रेजी जारी रहेगी। हिन्दी के सामर्थ्य का प्रमाण पत्र क्या होगा? कौन देगा यह प्रमाण पत्र? कैसे देगा? सामर्थ्य को कैसे नापा जाएगा? इन प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया गया।

फिर भी आजादी के बाद आरम्भिक वर्षों  में विभिन्न विषयों में मौलिक लेखन आरम्भ हो गया था। कक्षाओं में विभिन्न विषयों को पढ़ाने के लिए हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकें उपलब्ध होने लगी थीं। अगर इस क्षेत्र को माँग और पूर्ति की शक्तियों के हवाले छोड़ दिया जाता तो धीरे-धीरे हिन्दी माध्यम की मौलिक किताबों से बाजार पट जाते। लेकिन इसी बीच विभिन्न सरकारें अनुवाद की योजनाओं के साथ इस मैदान में कूद पड़ीं। विषय विशेषज्ञों का, जिन्हें अनुवाद का कार्य सौंपा गया, विषय पर तो अधिकार था, हिन्दी पर नहीं। कभी -कभी एक ही किताब के विभिन्न हिस्से विभिन्न विशेषज्ञों को सौंपे गए। अनुवाद की भाषा की आलोचना हुई तो सरकारों ने उनके साथ हिन्दी विद्वानों को भी संयुक्त करना शुरु किया।

समय सीमा में काम पूरा करने के बन्धन, पारिश्रमिक पर दृष्टि, एक किताब के विभिन्न हिस्सों के अलग-अलग भाषा शैली के अलग-अलग विशेषज्ञों द्वारा किए गए अनुवाद नेे और उसके अलग-अलग भाषा संशोधकों ने अनुवाद को छात्रों के लिए कठिन बना दिया। कहीं-कहीं यह नियम भी रहा कि अनुवाद पर विशेषज्ञ अनुवादक और उसके हिन्दी संशोधनकर्ता का नाम नहीं दिया जाएगा। इससे उन्हें लापरवाही बरतने की पुख्ता छूट मिल गई। जवाबदेही नहीं रही। अपयश का डर नहीं रहा। कोई भाषा कुछेक कठिन शब्दों या पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से कठिन नहीं बनती। गलत वाक्य रचना, परसर्गों के यथास्थान अप्रयोग, क्रियाओं के लापरवाह प्रयोग आदि के कारण कठिन बनती है। इन कारणों से और स्रोत भाषा की प्रकृति को अनुवाद की भाषा पर हावी होने देने तथा शब्द-शब्द अनुवाद से इन अनुवादों की भाषा छात्रों के लिए ही नहीं शिक्षकों के लिए भी कठिन हो गई। मूल अंग्रेजी ग्रन्थ अपेक्षाकृत सरल लगने लगे। काश! हिन्दी संशोधकों ने अनुवाद की भाषा की इन कठिनाइयों को दूर करने में जरूरी परिश्रम किया होता। काश! अपने आलस्य से होने वाली भारी हानि का अन्दाजा उन्होंने लगाया होता।

एक विसंगति और हुई। छोटी कक्षाओं का शिक्षा माध्यम जहाँ हिन्दी था वहीं बड़ी कक्षाओं का अंग्रेजी। माध्यम को अंग्रेजी से हिन्दी करने का काम उत्‍तरोत्‍तर किया जाना चाहिए था। पर वह प्रायः नहीं हुआ। छात्रों और पालकों ने स्वभावतः यह महूसस किया कि जब बड़ी कक्षा की पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से ही करनी है तब उसे छोटी कक्षा से ही क्यों न माध्यम बनाया जाए? फलस्वरूप छोटी कक्षाओं में भी अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी की माँग बढ़ने लगी। उसकी पूर्ति के लिए विभिन्न शहरों/कस्बों में एक के बाद एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल खुलने लगे। शिक्षा माध्यम के सम्बन्ध में सरकारों की ढुलमुल नीति के कारण हिन्दी पाठ्य पुस्तकों के लेखन/प्रकाशन में निजी क्षेत्र ने शुरु में जो उत्साह दिखाया था वह शीघ्रतापूर्वक ठण्डा पड़ गया।

आज जो पीढ़ियाँ देश की प्रमुख कार्यशील जनसंख्या हैं और उद्योग-धन्धों, व्यापार, कार्यालयों, प्रतिष्ठानों आदि में काबिज हैं, वे वे ही हैं जो पिछले कुछ वर्षों में अंग्रेजी माध्यम से अपनी पढ़ाई पूरी करके आई हैं। इसलिए नहीं कि वे अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर निकली हैं बल्कि इसलिए कि पुरानी पीढ़ी के नेपथ्य में चले जाने के बाद उन्हें मंच पर आना ही था। उनके आने से स्वभावतः पूरा परिदृश्य अंग्रेजीमय हो गया है। अगर ये पीढ़ियाँ हिन्दी माध्यम से पढ़कर आई होतीं तो आज हिन्दी का वैसा पराभव नहीं दिखाई देता जैसा दिख रहा है। हिन्दी के इस पराभव के लिए न तो किसी जमाने में हुआ हिन्दी विरोधी आन्दोलन दोषी है और न अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार। इसके लिए हम ही दोषी हैं। हिन्दी की पराजय हमारी अपनी करनी का फल है।

पिछले साठ सालों में अन्य राज्यों की तुलना में हिन्दी भाषी राज्य आर्थिक रूप से निरन्तर पिछड़ते रहे हैं। सम्भ्रान्त वर्ग इन्हें गायपट्टी/गोबरपट्टी के नाम से अभिहित करने में भी संकोच नहीं करता। दुर्भाग्य से इस पिछड़ेपन को भी हिन्दी से जोड़कर देखा जाने लगा। इसलिए यह मिथ्या धारणा बलवती होती गई कि आर्थिक तरक्की हिन्दी से सम्भव नहीं है। आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के चलते भी अंग्रेजी की अनिवार्यता रेखांकित की जा रही है। यह भुुलाया जा रहा है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ यहाँ माल बेचने आ रही हैं, सिर्फ अपने दफ्तर खोलने नहीं। उन्हें हिन्दी प्रदेश के रूप में विशाल उपभोक्ता बाजार दिखाई दे रहा है। अगर हिन्दी भाषी ग्राहकों में माल की खपत करनी है तो उनसे हिन्दी में ही तो व्यवहार रखना होगा। कम्पनियाँ अपनी प्रचार सामग्री को हिन्दी में ही तो प्रस्तुत करेंगी। हिन्दी भाषी क्षेत्र में अपनी पैठ और पकड़ बनाने के लिए वे हिन्दी भाषी अमले को ही तो अपनी नौकरी में रखना चाहेंगी! आखिर टीवी चैनलों ने हिन्दी प्रसारणों को अधिकाधिक समय देना क्यों शुरू कर दिया है? लेकिन यह धारणा बनाई जा रही है कि अगर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी लेनी है तो हिन्दी में नहीं, अंग्रेजी में महारत हासिल करनी होगी।

अब कुछ वर्षों से ये कम्पनियाँ उचित ही यह समझने लगी हैं कि भारतीयों को अपनी भाषा से कुछ लेना देना नहीं है। इसलिए वे चीनी, अरबी आदि भाषाओं के तो सॉफ्टवेयर बनवाती हैं, हिन्दी के नहीं। वे जानती हैं कि भारत में अंग्रेजों का राज भले ही न हो, अंग्रेजी का राज तो बरकरार ही नहीं मजबूत भी हो गया है।

भाषा के मामले  में आज हम जिस मुकाम पर खड़े हैं, उसमें पहली जरूरत यह है कि हम अपनी आत्ममुग्धता और जय-जयकार से बाहर निकलें। यह स्वीकार करें कि आजाद भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। अब हमें वहीं से तमाम शुरुआत करनी होगी जहाँ से साठ साल पहले करनी थी। किसी देश की अर्थव्यवस्था में जो महत्व आधारभूत ढाँचे या अधोसंरचना का है उसकी भाषा के लिए वही महत्व विभिन्न कक्षाओं के विभिन्न विषयों की पाठ्यपुस्तकों और शिक्षा माध्यम का है। अंग्रेजी माध्यम की पुस्तकें पढ़कर और अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा पाकर निकली आज की 25 से 50 साल उम्र वाली पीढ़ियाँ ही इस समय समाज की प्रमुख क्रियाशील जनसंख्या हैं। इस जनसंख्या को अब हिन्दी की ओर मोड़ना कठिन है। हमें अपना ध्यान उन पीढ़ियों पर केन्द्रित करना होगा जो आज आरम्भ कर रही हैं और 20-25 साल बाद हमारे समाज की प्रमुख क्रियाशील जनसंख्या में बदल जाएँगी।

साठ साल पहले की तुलना में आज यह काम ज्यादा कठिन है। तब के छात्रों की पीढ़ियाँ हिन्दी को ‘आजादी की लड़ाई की भाषा और देश भक्ति का प्रतीक’ मानती थीं। वे हानि उठाकर भी उसका झण्डा ऊँचा रखना चाहती थीं। आज के छात्रों की पीढ़ियाँ केरियर, व्यवसाय, प्रतिस्पर्धा को लेकर अधिक चिन्तित हैं और स्वभावतः उन्हें ही अधिक महत्व दे रही हैं। क्या केन्द्र और राज्य सरकारें उन्हें आश्वस्त कर सकेंगी कि हिन्दी और हिन्दी माध्यम की पढ़ाई उन्हें अंग्रेजी से, जो आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में भी शामिल नहीं है, वरीयता नहीं तो कम से कम अवसर की समानता तो प्रदान करेंगी ही? यूपीएससी के सीसेट प्रश्नपत्र में यह समानता न होने से ही तो भारतीय भाषाओं के छात्र उसका विरोध कर रहे हैं! अंग्रेजी में रचे गए प्रश्नपत्र के हिन्दी मशीनी अनुवाद को बड़े से बड़ा हिन्दीदाँ भी नहीं समझ सकता। अर्थबोध के लिए सिर्फ व्याकरणिक नियमों की समझ ही पर्याप्त नहीं होती। अगर टैबलेट कम्प्यूटर, को गोली कम्प्यूटर, स्टील प्लाण्ट को इस्पात पौधा कहा जाएगा तो परीक्षार्थी को क्या अर्थबोध होगा? क्यों न सीसेट का प्रश्नपत्र अगली बार हिन्दी में बने और उसका अनुवाद अँग्रेजी में हो? क्या हिन्दी सेवा संस्थाएँ और व्यक्ति, हिन्दी की अधोसंरचना को अपने एजेण्डे में शामिल करेंगे? यह सम्भव हो सका तो भी इसके परिणाम आने में बीस एक साल का समय लग जाएगा। जो नुकसान हो चुका, हो चुका है। उसकी भरपाई नहीं हो सकती। इस बात की भी जरूरत है कि सूचना प्रौद्योगिकी को हिन्दी के अनुकूल बनाया जाए और हिन्दी राज्यों की सरकारें अपना तमाम काम हिन्दी में करके दिखाएँ। यह सिद्ध करके दिखाएँ कि हिन्दी में कामकाज से बेहतर परिणाम प्राप्त होते हैं। आवेश, आलस्य और बड़बोलेपन की अपनी कार्य संस्कृति का परित्याग करते हुए आर्थिक क्षेत्र में भी उन्हें बढ़त प्राप्त करनी होगी। यह कष्ट उन करोड़ों बच्चों के लिए उठाना होगा जिनकी अधिकांश आबादी गाँवों और गरीबी में है। उनकी मौलिक प्रतिभा का वास्तविक विकास हिन्दी में ही सम्भव है। वे ही इस नई सदी का इतिहास रचेंगे और हिन्दी की पराजय को विजय में बदलेंगे ।
--------
जलजजी का डाक का पता :  30, इन्दिरा नगर, रतलाम - 457001
जलजजी का ई-मेल पता  :   jaykumarjalaj@yahoo.com

हिन्दी : अपनों के अत्याचार

 हिन्दी का रास्ता आसान नहीं रह गया है। इसे दोहरा संघर्ष करना पड़ रहा है - चतुर, चौकन्ने अंग्रेजीपरस्तों से और अपने ही असावधान, आलसी, क्रूर सपूतों से। तय कर पाना मुश्किल लगता है कि किससे पहले निपटा जाए या किससे पहले बचा जाय?

यहाँ दी गई कतरन देखिए। यह उस अध्यापिका का वक्तव्य है जो बच्चों को हिन्दी पढ़ाती रही है। मध्य प्रदेश में अध्यापकों की सेवा निवृत्ति आयु, अन्य शासकीय कर्मचारियों से दो वर्ष अधिक है। सारे कर्मचारी 60 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं जबकि अध्यापक 62 वर्ष की आयु में। मोटे तौर पर माना जा सकता है कि इस अध्यापिका ने 35 बरस बच्चों को पढ़ाया।  कल्पना ही की जा सकती है कि इस अध्यापिका ने बच्चों को कैसी हिन्दी सिखाई/पढ़ाई होगी! यह भी तय है कि ‘ऐसी हिन्दी’ पढ़ानेवाली यह एकमात्र अध्यापिका नहीं ही होगी। पूरी जमात ऐसी भले ही न हो लेकिन हाँडी का चाँवल तो है ही।

इस समय मुझे मेरे छोटे बेटे का एक कक्षापाठी याद आ रहा है। इस समय उसकी अवस्था 26 वर्ष से अधिक नहीं होगी। कोई दो बरस पहले, एक दिन वह अचानक फेस बुक पर प्रकट हुआ और अपनी सत्रह कविताओं की पहली खेप मुझे अर्पित कर कहा - ‘अंकल! ये मेरी कुछ कविताएँ हैं। इन्हें जरा देख लीजिएगा।’ मुझे अच्छा तो लगा लेकिन कुछ ही देर तक। पहली कविता की पहली ही पंक्ति से, वर्तनी की अशुद्धियों का क्रम जो जारी हुआ तो एक कविता पूरी पढ़ने में मुझे रोना आ गया। शेष कविताएँ नहीं पढ़ सका! अगले दिन उसने (फेस बुक पर ही) पूछा - ‘मेरी कविताएँ देखी अंकल? कैसी लगी?’ मैंने उत्तर दिया - ‘एक कविता ही पढ़ पाया। वह भी बड़ी मुश्किल से। वर्तनी की अशुद्धियों ने जी खट्टा कर दिया। पहले अपनी वर्तनी सुधारो। उसके बाद ही कविता लिखना।’ उसने ‘दन्न’ से पूछा - ‘ये वर्तनी क्या होता है अंकल?’ मेरी घिग्घी बँध गई। अपनी बुद्धि, शक्ति और सामर्थ्यानुसार उसे समझाया। उसने जवाब दिया - ‘आप जो कह रहे हैं वह सीखने में तो बहुत टाइम लग जाएगा अंकल! मुझे तो अपनी नौकरी से ही फुरसत नहीं मिल पाती। यह नया काम सीखने के लिए मुझे टाइम नहीं है।’ मैंने यही कहा कि इस दशा में वह मुझे अपनी कविताएँ न भेजे।

उसने मेरा कहा मानने का उपकार तो कर लिया किन्तु उसका ‘कविता-कर्म’ न केवल निरन्तर है बल्कि हिन्दी साहित्य की कई संस्थाएँ और मंच उसे सम्मानित कर चुके हैं। उसकी उम्र और कविता लिखने की गति देखते हुए लगता है कि वह यदि ‘सबसे कम उम्र में सर्वाधिक सम्मान पानेवाला हिन्दी कवि’ बन जाए तो ताज्जुब नहीं। हाँ, वर्तनी के प्रति उसकी असावधानी पूर्ववत बनी हुई है। मैं तय नहीं कर पा रहा कि किस पर गुस्सा अधिक करूँ - इस बच्चे पर या इसे सम्मानित करने वाली साहित्यिक संस्थाओं/मंचों पर?

मुझे एक और ‘कवि’ याद आ रहे हैं। उम्र में मुझसे छोटे थे। अब दिवंगत हो चुके हैं। ऐसे में उनका नाम देना अशालीन होगा। मैं अपना काम कर रहा था। वे अपनी कविता-डायरी में व्यस्त थे। अचानक ही पूछा - “भाई साब! ये ‘सैलाब’ क्या होता है?” मैंने कहा - ‘सामान्य अर्थ तो बाढ़ या पानी का उफान होता है। लेकिन यदि वाक्यों में प्रयोग करके पूछो तो अधिक स्पष्ट बता सकूँगा।” अपनी डायरी में नजर गड़ाए बोले - ‘वाक्यों में प्रयोग तो मैंने कर लिया। तुक भी मिल गई। आप तो बस इसका अर्थ बता दीजिए।’ मैं क्या जवाब देता? बताने के लिए मेरे पास बचा ही क्या था?

‘अपनी हिन्दी’ के प्रति हिन्दीवालों के व्यवहार का एक और नमूना। साथवाला चित्र देखिए। एक अखबार में छपा यह विज्ञापन कल, 12 सितम्बर 2014 का ही है। इस अखबार की जड़ें राजस्थान में हैं। इसके संस्थापकजी को ‘हिन्दी-पुरुष के रूप में जाना जाता था। पत्रकारिता के पुरोधा बताते हैं कि अपने इसी अखबार की हिन्दी को ‘निर्दोष और अनुकरणीय’ बनाने के लिए उन्होंने अखबार में एक स्वतन्त्र विभाग बनाकर कुछ लोग नियुक्त किए थे। संस्थापकजी तो दिवंगत हो चुके हैं। उनके सुपुत्र ही अब इसके स्वामी और नियन्त्रक हैं। वे खुद ‘स्थापित हिन्दी साहित्यकार’ हैं और ‘श्रेष्ठ हिन्दी सेवी’ के रूप में एकाधिक राज-पुरुषों के हाथों, देश के विभिन्न स्थानों में राजकीय और साहित्यिक/सामाजिक सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। हिन्दी साहित्य की लगभग समस्त विधाओं में इनका हस्तक्षेप है। इनकी, कम से कम एक दर्जन पुस्तकें तो प्रकाशित हो चुकी हैं। इन पुस्तकों के विज्ञापन भी इनके इसी अखबार में छपते हैं।

पाँच बरस पहले, 12 सितम्बर 2009 को इस अखबार का, मेरे कस्बे का संस्करण शुरु हुआ था। छपता तो अब भी इन्दौर में ही है किन्तु मेरे कस्बे के लिए अलग से पन्नों की व्यवस्था है। कल, इस अखबार के, मेरे कस्बेवाले संस्करण के पाँच बरस पूरे हुए। छठवाँ वर्ष शुरु हुआ। उसी प्रसंग पर यह सूचना, मेरे कस्बे के पन्नेवाले हिस्से के मुखपृष्ठ पर छपी थी। यह अखबार हिन्दी का है, हिन्दी (क्षमा करें, ‘हिंग्लिश’) में छपता है, इसके संस्थापक ‘हिन्दी-पुरुष’ थे, इसके वर्तमान स्वामी ‘श्रेष्ठ हिन्दी सेवी’ हैं, इसका दावा है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ (दोनों हिन्दी प्रदेशों में) इसके 46 लाख पाठक हैं। लेकिन अपना छठवाँ स्थापना दिवस याद करने, इस प्रसंग पर गर्वित होने और अपने पाठकों को बताने के लिए इस अखबार को अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ा।

क्या कहा जाए? क्या-क्या कहा जाए? किससे, किस-किससे कहा जाए? कब तक कहा जाए? अंग्रेजीपरस्तों पर गुस्सा किया जाए या नहीं? किया जाए तो क्यों किया जाए? मेरे पास अपने ही सवालों का जवाब नहीं है। अचानक ही मुझे एक शेर याद आ गया है। सम्भव है, शब्दशः इस स्थिति पर लागू न हो किन्तु अंशतः ही सही, मेरी बात प्रकट तो करता ही है -

दोस्तों से जान पे सदमे उठाए इस कदर।
दुश्मनों से बेवफाई का गिला जाता रहा।

अब भगतसिंह की बारी है?

गाँधी और भगतसिंह को परस्पर विरोधी की तरह चित्रित/निरूपित किया जाता है। लेकिन सचाई इसके ठीक विपरीत है। दोनों ही एक दूसरे के मुक्त-कण्ठ प्रशंसक थे। यदि प्रशंसक नहीं भी थे तो, बैरी तो नहीं ही थे।

आज का भारत, निश्चय ही न तो गाँधी के सपनों का भारत है न ही शहीद-ए-आजम भगतसिंह के सपनों का। उन्हीं भगतसिंह के साथ हो रहे व्यवहार से मैं आज दो सवालों के बीच फँस गया। तय नहीं कर पा रहा कि कौन सा सवाल सही है।

पहला सवाल - क्या यह अच्छा ही हुआ कि अंग्रेजों ने भगतसिंह को फाँसी दे दी और उन्हें (भगतसिंह को) आज के भारत को देखने के दारुण दुःख से बचा दिया?

दूसरा सवाल - क्या यह अच्छा नहीं होता कि भगतसिंह आज हमारे बीच होते तो उनके नाम पर जो कुछ किया जा रहा है, वह नहीं होने देते और अपने सपनों का भारत बनाते?

भगतसिंह के बारे में मैं नाम मात्र को ही जानता हूँ। सुना अधिक। पढ़ा बहुत कम। लेकिन दो बातें अवश्य पढ़ी हैं। पहली तो यह कि वे नास्तिक/अनीश्वरवादी थे। और दूसरी यह कि वे जात-पाँत में भरोसा बिलकुल ही नहीं करते थे।

पहली बात तो उनके उस लेख से मालूम हुई जो उन्होंने अपने नास्तिक होने को लेकर लिखा था। जाति-पाँति न माननेवाली बात उस घटना से मालूम हुई जो उन्होंने अपनी अन्तिम इच्छा के रुप में व्यक्त की थी।

अपनी अन्तिम इच्छा उन्होंने बताई थी कि फाँसी पर चढ़ने से पहले वे अपनी ‘बेबे’ (पंजाबी में माँ को ‘बेबे’ ही सम्बोधित किया जाता है) के हाथ की बनी रोटी खाना चाहते थे। जेलर परेशान हो गया था। इतने कम समय में भगतसिंह की माँ को कैसे बुलाया जाए? भगतसिंह ने तब कहा था कि ‘बेबे’ से उनका मतलब उस महिला से था जो उनके शौचालय की साफ-सफाई करती थी। भगतसिंह की सीधी-सपाट व्याख्या थी - माँ ही अपने बच्चों का मल-मूत्र साफ करती है। इसी व्याख्या से उन्होंने जेल में, उनके शौचालय की साफ-सफाई करनेवाली महिला को अपनी ‘बेबे कहा और माना था।

भगतसिंह की बात सुनकर वह महिला संकुचित हो गई थी। उसके मन पर हावी ‘जाति-बोध’ के चलते वह भगतसिंह के लिए रोटी बनाने को तैयार नहीं थी। लेकिन भगतसिंह की जिद के आगे उसे झुकना पड़ा। उसने रोटी बनाई और भगतसिंह ने बड़े प्रेम से खाई।

आज,  ग्यारह सितम्बर 2014 को मैंने भगतसिंह की इन दोनों बातों को दफन होते देखा।

एक साहित्यिक संस्था ने भगतसिंह की मूर्ति, एक सार्वजनिक उद्यान में स्थापित करवाई। उद्यान नगर निगम ने विकसित किया और मूर्ति का मूल्य इस साहित्यिक संस्था ने चुकाया। आयोजन इसी उद्यान में था लेकिन मेजबानी इस साहित्यिक संस्था की थी। मुख्य अतिथि हमारे नगर के विधायक थे। वे भाजपाई हैं। कार्यक्रम की अध्यक्षता हमारे महापौरजी ने की। वे भी भाजपाई हैं। मंच यद्यपि साहित्यिक संस्था का था और पीछे बैनर भी इस संस्था का ही था लेकिन मंच पर संस्था का कोई प्रतिनिधि नहीं था। कुल सात लोग कुर्सियों पर विराजमान थे जिनमें विधायक, महापौर, भाजपा के जिलाध्यक्ष, भाजपा युवामोर्चा के जिलाध्‍यक्ष, क्षेत्रीय पार्षद (वे भी भाजपाई) और भाजपा के दो कर्मठ कार्यकर्ता शामिल थे। ऐसा लग रहा था मानो इस साहित्यिक संस्था ने भाजपा का, वार्ड स्तरीय भाजपा सम्मेलन आयोजित किया हो।

मेरे प्रदेश के मुख्यमन्त्री 18 सितम्बर को मेरे कस्बे में आ रहे हैं। उसी तैयारी के लिए जिला प्रशासन द्वारा आयोजित बैठक में भाग लेने के लिए विधायक और महापौर को जाना था। दोनों को जल्दी थी। वे भगतसिंह को जल्दी से जल्दी निपटा कर मुख्यमन्त्री को सँवारने में लगना चाह रहे थे। दोनों ने संक्षेप में अपनी-अपनी बात कही। महापौर ने अपने  कार्यकाल की उपलब्धियाँ गिनवाईं (उनका कार्यकाल इसी दिसम्बर में समाप्त हो रहा है)। उन्होंने भगतसिंह का उल्लेख केवल यह कह कर किया कि उनकी मूर्ति का अनावरण है। 

विधायक ने भगतसिंह का उल्लेख कुछ अधिक वाक्यों में किया। भगतसिंह को अपनी राजनीतिक विचारधारा के आदर्श के रूप में उल्लेखित किया। कहा कि भगतसिंह के सपनों का भारत उनकी पार्टी ही बना सकती है और बनाएगी भी। उन्होंने महापौर से अधिक समय नहीं लिया।

दोनों भले ही बहुत कम बोले लेकिन स्वागत-अभिनन्दन के कारण कार्यक्रम काफी लम्बा खिंच गया था। स्थिति यह हो गई थी कि तय करना मुश्किल हो गया था कि किसे अधिक जल्दी है - विधायक, महापौर को या श्रोताओं को?

कार्यक्रम तो निपट गया लेकिन मैं अपने ही दो सवालों में उलझ गया। भगतसिंह के सपनों का भारत बनाने का दावा वे लोग कर रहे हैं जो ‘भगवा, भगवान और हिन्दू धर्म’ की डोर थामे सरकार में बैठे हैं। हिन्दू धर्म का आधार तो वर्णवादी व्यवस्था है! भगवान की दुहाइयाँ देनेवाले और अपने व्यवहार से वर्णवादी व्यवस्था को मजबूत करने में व्यस्त लोग भला भगतसिंह के सपनों का भारत कैसे बनाएँगे? मुझे भगतसिंह की जाति नहीं मालूम। लेकिन क्या हमें, आनेवाले दिनों में भगतसिंह के बारे में कुछ इस प्रकार सुनने को मिलेगा - ‘खत्री-शिरोमणी, हिन्दू धर्म के गर्व पुरुष, अमर शहीद भगतसिंह।’

गाँधी को काँग्रेसियों ने निपटा दिया। हालत यह कर दी कि अब गाँधी और गाँधीवाद से मुक्ति पाने की आवाजेें उठने लगी हैं। लेकिन यह स्थिति आने में 65 बरस लग गए। किन्तु लगता है, संघ परिवार भगतसिंह को उससे कहीं अधिक जल्दी निपटा देगा। भारत के शहीद-ए-आजम को दस-पाँच बरस में ही ‘खत्री शिरोमणी और हिन्दू धर्म का गर्व पुरुष’ बना देगा। 

यह सच है कि संघ परिवार के पास, स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने की कोई विरासत नहीं है। वह अपने लिए किसी महापुरुष की तलाश में जुटा हुआ है। पहले कुछ हद तक लाल बहादुर शास्त्री और अब सरदार पटेल के जरिए वह अपनी टोपी में कुछ पंख खोंस रहा है। लेकिन क्या इसके लिए यह जरूरी है कि भगतसिंह की विशालता और व्यापकता को संकुचित, सीमित कर दिया जाए? समन्दर को नाले में बदल दिया जाए?

गाँधी को हम नहीं बचा पाए। लगता है, भगतसिंह भी गाँधी-गति को प्राप्त हो जाएँगे।

मैं अब भी अपने दोनों सवालों में उलझा हुआ हूँ। 

सरकारी दफ्तर में जाने से पहले

सरकारी दफ्तर में जाने से पहले
- मुकेश नेमा
(मुकेश भाई को आप यहॉं पढ चुके हैं।)

मैं कोई उपदेश नहीं दे रहा। मैं तो फकत बस इतना ही चाहता हूँ कि किसी सरकारी दफ्तर में अपना काम करवाने के लिये पहली बार जाने के पहले आप वहाँ के बारे में, वहाँ के कायदों, चाल-चलन के बारे मे थोड़ा बहुत जान लें। ऐसे ही मुँह उठाये ऐसी खतरनाक जगह पर जाने से आप दिक्कत में पड़ सकते हैं। सरकारी आदमियों और सरकारी दफ्तर के बारे में अता पता करके जाना ही ठीक रहता है। इससे आपको ही सुविधा ही होगी। आपको अचानक कोई धक्का नहीं लगेगा और आप जैसे नासमझ से जूझने में, दफ्तरों में काम करने वाले भले लोगों का वक्त भी ख़राब नहीं होगा। 

पहले तो यह समझिये कि सरकारी दफ्तर कैसे होते हैं और क्यों होते हैं? सरकारी दफ्तर, आम तौर पर किसी पुरानी, रोती-पीटती सी इमारत में, ऊँघते-अनमने लोगों का जमावड़ा होता है। ये लोग किसी आने वाले की औकात देख कर तय करते है कि क्या ज्यादा फायदेमन्द होगा - ऊँघते रहना या चौकन्ना हो जाना? आमतौर पर यह जमावड़ा कुछ भी नहीं करता और करता है तो वो करता है जो उसे नहीं करना चाहिये। अधिक सरल तरीके से इसे ऐसे समझिये कि सरकार ने हर सरकारी दफ्तर को आम आदमी की किसी खास जरूरत के मद्देनजर किसी खास काम को करने लिये बनाया हुआ होता है। पर सरकारी आदमी अपनी पूरी ताकत इस बात के लिये लगा देते हैं कि कम से कम हमें वो काम तो नहीं ही करना है जिसकी हमें तनख्वाह मिल रही है। वे तयशुदा काम को न करने के लिये इतने कट्टरधर्मी होते हैं कि आपको ऐसा लग सकता है कि हो ना हो ये भले लोग ‘यही सब’ करने के लिये यहाँ बैठाये गये हैं। ये सारे लोग सावधान रहते हैं कि कहीं ऐसा ना हो कि कोई शातिर आम आदमी अपना काम करवा कर फटाफट निकल ले और बाहर, जमाने भर में गाना गाता, बेइज्जती करता फिरे कि यहाँ इस दफ्तर मंे सब ऐसे ही हैं, सब कुछ आसान सा ही है। आप खुद सोचिये, किसी भी सरकारी आदमी के लिये यह कितनी शरम की बात है कि उसे ‘ऐसा-वैसा लुंजपुंज टाईप का’ समझ लिया जाये? यदि कोई दफ्तर में हँसता हुआ आये और मुस्कराता हुए चल दे तो यह तो किसी भी स्वाभिमानी सरकारी बाबू के लिये सरासर डूब मरने जैसी बात है! यदि आने वाले को ऐसे ही चले जाने देना है तो फिर सरकारी दफ्तर का और वहाँ बाबू होने का मतलब ही क्या रह जायेगा?

ख़ुदा ना खास्ता, हमारे दफ्तर कभी ऐसे ईमानदार टाईप के, नियमानुसार काम करने वाले हो जायें तो हमारे बाबू ऐसे बकवास दफ्तर में टाईम खराब करने के बजाय किसी बड़े आदमी के बँगले के लॉन की घास छीलना ज्यादा बेहतर समझेगें। अब, चूँकि कोई भी सरकारी बाबू घास छीलना नहीं चाहता इसलिये वो आने वालों को छीलता है। खाली वक्त में आने वालों को छीलने के लिये नये नये तरीके इजाद करता रहता है ताकि उसके और उसके ऑफिस के होने की वजहें और हैसियत बनी रहे।

वैसै सरकारी बाबुओं की, सालों-साल से, इस दिशा में की जा रही मेहनत से इतना तो हो ही गया है कि आजकल हमारे देश में इन दफ्तरों में आने वाला कोई भी शरीफ आदमी फौरन और फोकट में अपना काम करवाने की जिद करता ही नहीं है। वह ऐसी कोई अहमकाना जिद करने की हिम्मत कर भी ना सके, इसलिये सरकारी दफ्तरों का माहौल पर्याप्त डरावना बनाये रखा जाता है, छोटे अँधेरे कमरे, मन मार कर, बीमार, मद्धिम पीली रोशनी में जलते मनहूस बल्ब, कमरों में बिखरी पड़ी गन्दगी, चारों तरफ झूलते मकड़ी के जाले ,टूटा-चरमराता फर्नीचर, धूल खाती फाइलें और इन फाइलों के पीछे पान की पीक बहाते सफेद बालों वाले बाबू। ये सब मिल कर वह हाहाकारी दृश्य रच देते हैं कि आने वाले की हिम्मत वैसे ही टूट जाए। इन सारी ‘व्यवस्थाओं’ के बावजूद यदि आने वाला नियमानुसार काम करवाने की जिद पर अड़ा रहता है तो हमारे अनुभवी बाबू उसकी अनदेखी करके उसे इशारों-इशारों मे समझाने की कोशिश करते हैं और यदि फिर भी वो नहीं मानता तो बेचारे बाबूओं को उसकी लानत-मलामत करनी ही पड़ती है। 

लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं हमारे बाबू काम करते ही नहीं। करते हैं। ख़ूब करते हैं। पर तभी करते हैं जब आप इन कामों के लिये इन दफ्तरों में काम करने के लिये नियत मार्गदर्शक सिद्धान्तों, शर्तों का पालन करने के लिये राजी हों। आपके राजी होने पर ही आपको समझदार माना जायेगा वरना यह तय मानिये कि नासमझों को सरकारी बाबू मुँह लगा कर अपना समय बर्बाद नहीं किया करते। चूँकि वक्त तो आपके पास भी नहीं होगा और काम तो आपको करवाना ही करवाना है! इसलिये किसी से फोन करवा कर अपनी सिफारिश करवाने जैसी हिमाकत न ही करें तो अच्छा है। ऐसी ‘ओछी हरकत’ करने वालों को सरकारी दफ्तरों में सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। और यदि किसी ऑफिस से आपको बार-बार काम करवाना है तो किसी दंबग या किसी नेताजी को साथ ले जाना तो अपने होने वाले काम की हत्या कर देने जैसा ही होगा। आपको इन सभी गलतियों से बचना चाहिये। 

यह सब ब्यौरा केवल इसलिये है ताकि आप कम से कम सरकारी दफ्तर में अपनी उपस्थिति पर्यन्त सावधान और समझदार बने रहें। मैं उम्मीद करता हूँ कि यह सब पढ़कर आप ऐसे नाज़ुक वक्त में इन सब बातों का ध्यान रखेंगे (और मेरे प्रति कृतज्ञ भी बने रहेंगे)।

ग्राहक सेवा याने सीनाजोर कृतघ्नता

यह एक बीमा कम्पनी और उसके ग्राहक के बीच का एक मामला मात्र नहीं है। यह मामला है - ‘ग्राहक ही भगवान है’ की भारतीय संस्कारशीलता और ‘ग्राहक कभी गलती नहीं करता’ की पाश्चात्य आदर्शवादिता को घोलकर पी जाने की ‘सीनाजोर कृतघ्नता’ का।

मैं अक्षय छाजेड़ के ठीक पड़ौस में रहता हूँ। एक दीवार है हमारे बीच में। अक्षय ने, सरकारी बीमा कम्पनी युनाइटेड इण्डिया इंश्योरेंस कम्पनी से, दो मेडीक्लेम बीमा पॉलिसियाँ ले रखी हैं - एक अपने वृद्ध पिताजी के लिए और एक खुद के परिवार (खुद, पत्नी और दो बच्चों) के लिए। बीमा कम्पनी के कानूनों के चलते उसे दो पॉलिसियाँ लेनी पड़ती हैं। वर्ना, पिताजी कोई अलग परिवार नहीं हैं। 

दोनों ही पॉलिसियाँ पुरानी हैं। 05 दिसम्बर 2013 को अक्षय ने दोनों पालिसियों का नवीकरण (रिन्यूअल) कराया तो अनुभव किया कि एक पॉलिसी में उससे 1,533/- रुपये अधिक लिए गए हैं - 7,658/- रुपयों के स्थान पर 9,191/- रुपये। इसके अतिरिक्त अक्षय ने देखा कि एक पॉलिसी में ‘नो क्लेम बोनस’ की छूट 9 प्रतिशत है और दूसरी में 5 प्रतिशत।

22 दिसम्बर 2013 को अक्षय को जैसे ही यह भान हुआ, उसने उसी दिन अपनी गणना प्रस्तुत करते हुए, ई-मेल के जरिए, कम्पनी के रतलाम शाखा कार्यालय को (जहाँ से अक्षय ने पॉलिसियाँ ली थीं) से कहा कि उससे ली गई प्रीमीयम की तथा नो क्लेम बोनस की छूट की दरों में विसंगति की पुनर्गणना करे और यदि वास्तव में कम्पनी से चूक हुई है तो उससे ली गई अधिक रकम वापस करे। शाखा कार्यालय ने चुस्ती-फुर्ती बरती और अक्षय का मेल, समस्त सम्बन्धितों को अग्रेषित (फारवर्ड) कर दिया। अपनी इस कार्रवाई की सूचना कम्पनी ने अक्षय को भी दी।

लेकिन वह दिन और आज का दिन, स्थिति में रत्ती भर बदलाव नहीं आया है। अक्षय ने मार्च 2014 में उन समस्त लोगों को, जिन-जिन को कम्पनी के शाखा कार्यालय ने अक्षय का मेल अग्रेषित किया था और ग्राहक सेवा विभाग (कस्टमर केअर सेल) को ‘स्मरण-मेल’ किया किया। लेकिन इस बार तो किसी ने पावती देने का न्यूनतम शिष्टाचार भी नहीं निभाया।

कम्पनी का शाखा कार्यालय अक्षय की नौकरी वाले दफ्तर के रास्ते में ही पड़ता है। सो, जब भी सुविधा मिलती है, अक्षय बीमा कम्पनी के दफ्तर चला जाता है। शाखा प्रबन्धक से लेकर सेवक तक, सब अक्षय से भली-भाँति परिचित हैं। शुरु-शुरु में, गर्मजोशी से ‘आईये! आईये!!’ से अक्षय की अगवानी की जाती थी जो धीरे-धीरे ‘आप क्यों अपना वक्त खराब करते हैं? हम देख रहे हैं ना? आपका काम हो जाएगा।’ से होते-होते ‘अरे! आप फिर आ गए? आपको एक बार बता तो दिया है कि हमारे हाथ में कुछ नहीं है! जो भी करना है, ऊपरवालों को करना है! जैसे ही कोई खबर आएगी, आपको खबर कर देंगे।’ जैसे झुंझलाहट भरे जवाब को पार करते हुए ‘आप ग्राहक हैं साहब! आपको कुछ भी कहने का हक है। हमें तो सुनना ही सुनना है।’ जैसे बेशर्म जवाब पर आकर ठहर गई है। यह आखिरीवाला जुमला कहते हुए शाखा प्रबन्धक की मुख मुद्रा और कहने की शैली कुछ ऐसी होती है मानो कह रहा हो ‘तेरी बात चुपचाप सुनना मेरी मजबूरी है। अगर नौकरी की मजबूरी नहीं होती तो अभी, दो जूते मारकर, धक्के देकर निकलवा देता।’ और शायद यह भी कि ‘तुम कैसे बेवकूफ और घटिया आदमी को कि हजार-दो हजार की रकम के लिए मरे जा रहे हो! हमें परेशान किए जा रहे हो! इतना भी बर्दाश्त कर पाना मुमकिन नहीं है तो अगली बार से हमारे पास मत आना। किसी और कम्पनी से बीमा करा लेना।’ 

आज अक्षय बेबस खड़ा है। कम्पनी का शाखा कार्यालय ‘आवक-जावक बाबू’ की तरह काम कर रहा है, अपनी तरफ से कुछ नहीं कर रहा। ऊपरवालों के पास ऐसे हजारों ‘केस’ हैं। हजारों की इस भड़ में अक्षय तो ‘पिद्दी का शोरबा’ भी नहीं है। कम्पनी, पहले लाखों की प्रीमीयम देनेवाले ‘जबरे’ ग्राहकों के दावे निपटाएगी। अक्षय जैसे ग्राहक तो, कम्पनी के कर्मचारियों/अधिकारियों की केवल ‘सेलेरी’ जुटाते हैं। सुविधाओं और ग्लेमर की चकाचौंध भरी जिन्दगी तो इन ‘जबरे’ ग्राहकों के दम पर ही जी जा सकती है। सो, ‘रोजी-रोटी’ देनेवाले की अनदेखी, अवमानना की जा रही है और मलाई देनेवालों को हाथों-हाथ लिया जा रहा है। 

अक्षय के सामने एक ही रास्ता है - उपभोक्ता संरक्षण फोरम का दरवाजा खटखटाने का। पहली नजर में हर कोई कह रहा है कि अक्षय की जीत पक्की है। कम्पनी सौ जूते भी खाएगी और सौ प्याज भी। याने, ज्यादा ली गई रकम भी लौटाएगी, उस पर ब्याज भी देगी और अखबारबाजी के जरिए अपनी फजीहत भी कराएगी। वह सब मंजूर है। मंजूर नहीं है तो बस! एक औसत ग्राहक को सन्तोषजनक समाधान उपलब्ध कराना मंजूर नहीं है।

बीमा उद्योग को निजी क्षेत्र की कम्पनियों के लिए खोल देने के बाद सरकारी बीमा कम्पनियों को भीषण, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा से जूझना पड़ रहा है। सरकार, बीमा क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश बढ़ाने के लिए पण-प्राण से कटिबद्ध है। बीमा क्षेत्र को बचाने के लिए तमाम श्रम-संगठन एकजुट हो, सड़कों पर आने की तैयारी करते नजर आ रहे हैं। लेकिन जमीनी वास्तविकता इस सबको पाखण्ड साबित कर रही है। सरकारी कम्पनियों के लोग अपने ‘अन्नदाता ग्राहक’ को किस तरह निजी कम्पनियों की ओर धकेल रहे हैं - यह बात, अक्षय के इस छोटे से नमूने से समझी जा सकती है। 

मेरी पीड़ा केवल यही नहीं है। पीड़ा यह भी है कि एक जमाने में मुझे इसी कम्पनी से रोजी-रोटी मिलती थी। मैं भी कभी इस बीमा कम्पनी का एजेण्ट था। पर्दे के पीछे रहकर मैं भी यथा-शक्ति, यथा-सम्भव अक्षय की सहायता और कम्पनी की छवि बचाने की कोशिशें कर रहा हूँ। लेकिन साफ लग रहा है कि अकेला अक्षय ही नहीं, कम्पनी के लिए मैं भी ‘पिद्दी का शोरबा’ भी नहीं ही हूँ।
---